न्यूटन ने जो राह शुरु की और जिसे वेस्ट के दूसरे साइंटिस्टों ने आगे बढ़ाया और जिस तरह से फिज़िक्स और मैथ्स जैसे मैदानों में तरक़्क़ी हुई उसकी वजह से दुनिया पर वेस्ट की पकड़ मज़बूत होने लगी।

बीसवीं सदी ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी यानी सन 1979 से पहले तक पूरी दुनिया में मुसलमानों की नाकामी की सदी रही। यह पूरी सदी मुसलमानों की लगातार हार और नाकामियों से भरी हुई है जिसे यक़ीनी तौर मुसलमानों के लिए काली सदी और उनकी पॉलिटिकल ताक़त के खत्म होने की सदी कहा जाता है।

बीसवीं सदी में ख़ास तौर पर दूसरे पचास बरसों में और दूसरी वर्ल्ड वॉर के बाद बहुत से मुल्कों को यूं तो आज़ादी मिली लेकिन इस बदलाव से इस्लामी दुनिया को कोई फ़ायदा नहीं हुआ। यानि दूसरी वर्ल्ड वॉर के बाद दुनिया के किसी भी हिस्से में मुसलमानों को राजनीतिक ताक़त फिर से नहीं मिली। बीसवीं सदी में इस्लामी दुनिया का सब से बड़ा बदलाव, ओटोमन एम्पायर या उस्मानी साम्राज्य का ख़ात्मा था। ओटोमन बादशाहों के हाथ में आज का मिडिल ईस्ट, नार्थ अफ्रीका, परशियन गल्फ़ के कुछ हिस्से और बलकान का इलाक़ा था और वह युरोप में वियेना के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे लेकिन पहली वर्ल्ड वॉर में वह ख़त्म हो गये और इस तरह ख़त्म हुए कि आज भी मुसलमानों को उसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ रहा है।

युनिवर्सिटियों पर ख़ास तौर पर ह्यूमैनिटीज़ पर वेस्ट की सोच का क़ब्ज़ा था और किसी इस्लामी मुल्क में, वेस्ट के आए हुए ह्यूमैनिटीज़ की बाढ़ के अलावा अपनी युनिवर्सिटी में इस मैदान में कुछ और पढ़ाने का न जज़्बा था और न ही कोई फ़िक्र थी।

मेरे ख़याल में मुझे अपनी बात की अहमियत को ज़्यादा अच्छी तरह समझाने के लिए इमाम ख़ुमैनी की उस तक़रीर का कुछ हिस्सा सुनाना चाहिए जो उन्होंने 9 सितम्बर सन 1964 को क़ुम में की थी। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि “मुसलमान वह थे जिनकी इज़्ज़त करने के लिए पूरी दुनिया उनके सामने सिर झुकाती थी, उनका कल्चर, सब से अच्छा कल्चर माना जाता था, उनकी स्प्रिचुवैलिटी और रूहानियत से ऊपर थी, उनकी हस्तियां सब से ऊंची हस्तियां थी, उनके मुल्कों में तरक़्क़ी, दुनिया के हर मुल्क से ज़्यादा थी, पूरी दुनिया में उनकी हुकूमतों का असर सबसे ज़्यादा था। उन लोगों ने सोचा कि यह इस्लामी मुल्क जबतक एकजुट हैं उन पर वह सब थोपा नहीं जा सकता जो वह चाहते हैं। उन्होंने समझ लिया कि इस तरह से मुसलमानों की दौलत को, उनके तेल को, उनके सोने को लूटा नहीं जा सकता, उन पर क़ब्ज़ा नहीं किया जा सकता इस लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला। रास्ता यह था कि इस्लामी मुल्कों को एक दूसरे के खिलाफ़ खड़ा कर दिया जाए। शायद आप लोगों में से बहुत से लोगों को या कुछ लोगों को याद होगा कि वर्ल्ड वॉर में पहली वर्ल्ड वॉर में ओटोमन बादशाहत और मुसलमानों का क्या हाल किया? ओटोमन सल्तनत वह थी जो अगर सोवियत यूनियन से भिड़ जाती तो उसे भी पछाड़ देती। दूसरे मुल्क तो उसके सामने ठहर भी नहीं सकते थे। ओटोमन सल्तनत एक इस्लामी सल्तनत थी जो पश्चिम से पूरब तक फैली थी। उन लोगों की समझ में आ गया था कि इस सल्तनत की मौजूदगी में इतनी ताकतवर हुकूमत के रहते कुछ नहीं किया जा सकता। मुसलमानों की दौलत को नहीं लूटा जा सकता। इसलिए जब पहली वर्ल्ड वॉर में वह जीते तो उन्होंने ओटोमन सल्तनत को टुकड़ों में बांट दिया, छोटी छोटी सल्तनतों में बांट दिया और हर एक सल्तनत के लिए एक अमीर और नरेश रख दिया या कहीं प्रेज़ीडेंट बना दिया।

लेकिन यह नाकामी, ओटोमन बादशाहत के ख़ात्मे पर नहीं रुकी। हालांकि सब से अहम चीज़ ओटोमन बादशाहत का ख़ात्मा ही था। इसका यह मतलब नहीं है कि इमाम खुमैनी, ओटोमन बादशाहों के हर काम को इस्लाम के मुताबिक़ समझते थे। इमाम ख़ुमैनी का नज़रिया कुछ अलग था जो इन सब चीज़ों से बहुत आगे है। इसके साथ ही एक दूसरा बदलाव भी आया जो बीसवीं सदी में लगने वाला दूसरा झटका था, रूस में कम्युनिस्टों के इन्क़ेलाब की कामयाबी और सोवियत युनियन का वजूद था जिसकी वजह से क़फ़क़ाज़ और सेन्ट्रल एशिया में ताजेकिस्तान, तुर्कमानिस्तान, क़ज़ाक़िस्तान, क़िरक़ेज़िस्तान में दसियों लाख मुसलमान, दीन के खिलाफ एक कम्यूनिस्ट सरकार के तहत चले गये और इस्लाम और इस्लामी दुनिया से उनका ताल्लुक़ सत्तर बरसों के लिए खत्म हो गया।

एक दूसरा बेहद अफ़सोस बदलाव सन 1948 में और दूसरी वर्ल्ड वार के बाद इस्राईल नाम की एक जाली सरकार का बनाया जाना था जो दरअस्ल इस्लामी दुनिया के सीने में एक खंजर की तरह लगा और जिसे इमाम ख़ुमैनी ने कैंसर के नाम से याद किया है। इस नाजायज़ सरकार के वजूद में आने के  बाद के बरसों के दौरान फ़िलिस्तीनियों और अरबों व मुसलमानों पर कैसे कैसे ज़ुल्म ढाए गये और इस्लामी दुनिया को कैसी कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ा?

इस्लामी दुनिया के पूरब में पाकिस्तान बन गया। पाकिस्तान बनाने वालों का इरादा यह था कि एक इस्लामी मुल्क बनाया जाए और मुसलमानों को एक मुल्क में जमा किया जाए और उन्हें ताक़तवर बनाया जाए लेकिन उनकी ख़्वाहिश पूरी नहीं हुई। अफ़सोस है कि पाकिस्तान एक ताक़तवर इस्लामी मुल्क नहीं बन पाया। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के शुरु से ही दोनों मुल्कों की सरहदें, अम्न की नहीं बल्कि जंग की सरहदें बन गयीं। कश्मीर का पुराना घाव, जंग की वजह बना हुआ है और दुश्मन यह नहीं चाहते कि यह मामला हल हो जाए। हिन्दुस्तान, सोवियत युनियन की तरफ़ गया और पाकिस्तान अमरीका की गोद में गिर गया। उसके बाद पाकिस्तान के भी टुकड़े हो गये और पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया और इस तरह से एक और बंटवारा हो गया।

इन हालात में, इस्लामी दुनिया के एक बड़े मुल्क में, इस बड़ी आबादी वाले मुल्क यानि ईरान में, एक बेहद पुराने मुल्क में, वेस्ट की हैरत में डूबी आंखों के सामने, एक इन्क़ेलाब, इस्लाम के नाम पर और एक दीनी रहनुमा की अगुवाई में सन 1979 में कामयाब हो जाता है।

यह इन्क़ेलाब, इस्लामी नज़रियात की बुनियाद पर साम्राज्यवाद व तानाशाही के खिलाफ़ एक मूवमेंट था जिसका मक़सद आज़ादी था लेकिन अपने तरीक़े से। इमाम ख़ुमैनी ने जिस इन्क़ेलाब को कामयाबी तक पहुंचाया उसने पूरब व पश्चिम में से किसी का भी सहारा नहीं लिया। “न पूरब न पश्चिम, इस्लामी जुम्हूरिया” का नारा यह साबित करता था कि यह इन्क़ेलाब उस ज़माने की किसी ताक़त के भरोसे नहीं था। सभी इस्लामी देशों के सामने यह एलान करता था कि यह इंक़ेलाब “इज़्म” के नाम से कई इस्लामी मुल्कों में चलने वाले हर तरह के मूवमेंट से बिल्कुल अलग है, क्योंकि वह कम्युनिस्ट पूरब और कार्पोरेट पश्चिम के भी खिलाफ़ है।  

ईरान के इस्लामी इन्क़ेलाब ने कामयाबी के लिए अपने मूवमेंट को आगे बढ़ाने के लिए न तो कैपिटलिस्ट पूरब के तरीक़े को अपनाया और न ही कम्युनिस्ट पश्चिम की राह पर चलना गवारा किया और न ही, छापामार कार्यवाही करने वाले ग्रुप और गोरिल्ला जंग के सहारे जीत तलाश करने वालों का रास्ता अपनाया। अल्लाह पर भरोसा, आम लोगों की मदद और खाली हाथों से लड़ाई, इमाम ख़ुमैनी का तरीक़ा था और जब इन्क़ेलाब कामयाब हो गया तो उन्होंने कहा कि “इस्लामिक रिपब्लिक“ न इससे एक शब्द और न एक शब्द ज़्यादा।

मायूसी से भरे उस दौर में, नाकामियों से छलकती उस सदी में, उस दौर में जब मुसलमान नौजवानों को इस्लामी दुनिया के किसी भी कोने में उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही थी, ईरान में इमाम ख़ुमैनी ने दीनी हुकूमत का चिराग़ जला दिया। यह वह चीज़ थी जिसे वेस्ट ने 400 साल पहले ख़त्म करने का एलान कर दिया था और कहा था कि दीन की सरकार अब तारीख़ का हिस्सा है। वह कभी सोच भी नहीं सकता था कि एक बार फिर दीन का राज वापस आ सकता है।

इमाम ख़ुमैनी ने कहा कि सरकार तो दीन की होगी और इसी तरह उन्होंने जेहाद और शहादत को नयी ज़िदंगी दे दी। इमाम खुमैनी का अहम काम यह था कि उन्होंने धर्म से दुश्मनी के नज़रिए को ग़लत साबित कर दिया जो पूरब और पश्चिम में बुरी तरह से फैल रहा था और जिसे इस्लामी मुल्कों में भी कम्युनिज़्म के हामी फैला रहे थे। इमाम खुमैनी ने इस्लाम की सियासी ताक़त को ज़िन्दा किया। उन्होंने दीनी हुकूमत का नज़रिया दिया और उसमें लोगों के ख़ुदा के साथ ताल्लुक़, वहि, दीनी अहकाम और लोगों के रोल को अच्छी तरह बयान किया और इन सब से अहम बात यह कि उन्होंने अमली तौर पर एक रोल माडल भी पेश किया। एक हुकूमत भी बनायी ताकि कोई यह न कह पाए कि यह सिर्फ़ थ्योरी है और अमली तौर पर यह सब मुमकिन नहीं है, यह कागज़ी बातें सिर्फ़ चिल्लाने के लिए हैं।

ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी और इस्लामी हुकूमत के बाद दुनिया भर के मुसलमानों के सामने अब यह सवाल नहीं है कि क्या दीन की मदद से हुकूमत बनायी जा सकती है या नहीं? क्योंकि इस सवाल का जवाब दिया जा चुका है। अब सवाल यह है कि वह किस तरह से अपने अपने मुल्कों में इस क़िस्म के हालात पैदा करें जिनमें यह काम हो सके।

पाबंदियों के सामने जिस तरह से इस्लामी जुम्हूरी ईरान डटा हुआ है और जिस तरह से वह तरह तरह के ख़तरों और दबावों का मुकाबला कर रहा है और इन के बावजूद अलग अलग मैदानों में और साइंस व तकनीक में तरक्क़ी कर रहा है वह सब पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिए एक पैग़ाम है।

 

मशहूर स्कालर, लेखक व राजनेता डाक्टर ग़ुलाम अली हद्दाद आदिल की स्पीच के कुछ चुने हुए हिस्से