बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

हम आप सब के शुक्रगुज़ार हैं कि आपने इस बारे में सोचा और यह बड़ा काम किया। यक़ीनी तौर पर यह एक शुरुआत है। यानी आप का यह क़दम और हज़रत हम्ज़ा (अ.स.) की याद में प्रोग्राम करना दर अस्ल इसी सिलसिले के दूसरे कामों की भूमिका है। असली काम तो आर्ट करेगा। इस लिए यह ज़रूरी है कि इस मामले में आर्ट की हर क़िस्म को इस्तेमाल किया जाए ताकि हज़रत हम्ज़ा जैसी हस्ती पर सेमीनार के सारे मक़सद हासिल हो सकें। वर्ना सिर्फ उनकी याद में एक प्रोग्राम करने से कुछ ख़ास हासिल नहीं होगा। हां यह हो सकता है कि चूंकि प्रोग्राम की वजह से उनका नाम मीडिया में लिया जाएगा तो कुछ दिनों तक उनका नाम याद रखा जाए लेकिन आप जो काम करना चाहते हैं और आज जिस तरह से एक कल्चर और रोल मॉडल बनाना चाहते हैं तो उसके लिए आर्ट को भरपूर तरीक़े से इस्तेमाल करना होगा। उसके बिना आप का मक़सद पूरा नहीं होगा बल्कि अधूरा रह जाएगा।

इस लिए आप का काम बहुत अच्छा है। जहां तक हो सके और जैसा कि आप लोगों ने खुद भी इशारा किया है, मज़बूती से क़दम बढ़ाएं, भरोसेमंद काम करें और क्वालिटी को ऊपर उठाएं। इसकी वजह से जो आर्ट की मदद से इस बारे में कुछ करना चाहेगा तो उसके पास ज़रूरी चीज़ें और मालूमात होंगी।

अब कुछ बातें हज़रत हम्ज़ा अलैहिस्सलाम के बारे में। हज़रत हम्ज़ा (अ.स.) वाक़ई पैग़म्बरे इस्लाम के मज़लूम सहाबी हैं। यानि उनका जो रोल रहा है, या अंदाज़ से वह ईमान लाए थे और बुलंद आवाज़ में कह रहे थे कि मैं मुसलमान हो गया हूं। इब्ने असीर के मुताबिक़ अबूजहल की अच्छी ख़ासी पिटाई भी की जैसा कि इब्ने असीर “उसदुल ग़ाबा” किताब में कहते हैं (2)। या फिर हिजरत के बाद, मदीने जाना और पैग़म्बरे इस्लाम की मर्ज़ी के मुताबिक़ इस्लाम की अज़ीम इमारत बनाने में उन्होंने जो रोल अदा किया या फिर पहली जंग जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने जैसा कि एक रवायत में बताया गया है कि सब से पहले पैग़म्बरे इस्लाम ने किसी छोटी जंग में जो गुट भेजा उसके सिपहसालार, हज़रत हम्ज़ा थे।  उनके लिए एक झंडा भी बनाया और उन्हें लड़ाई के लिए भेजा। उसके बाद बद्र की जंग में जो कुछ उन्होंने किया और फिर ओहद की लड़ाई में, शायद बद्र की लड़ाई की बात है। इस युद्ध के एक जंगी क़ैदी का कहना है कि वो शख़्स जिसके पास जंग के दौरान एक निशानी थी, उसके कपड़े पर एक निशानी थी। अस्ल में हज़रत हम्ज़ा शायद अपने लिबास में किसी ख़ास निशानी के साथ लड़ाई में शामिल हुए थे। उस कैदी ने पूछा कि निशानी के साथ कौन लड़ रहा था? उसे बताया गया कि वह हम्ज़ा बिन अब्दुलमुत्तलिब थे। उसने कहा हमारी यह दुरगत उन्ही की वजह से हुई है। उन्होंने बद्र की लड़ाई में हमारी फौज की कमर तोड़ दी, यानि इस तरह की हस्ती। इस बड़ी हस्ती को आज तक सही तौर पर पहचाना नहीं गया। उनका नाम ज़्यादा नहीं लिया जाता। उनके बारे में बहुत ज़्यादा मालूमात नहीं है। उनकी फज़ीलतों के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। सच में उन्हें भुला दिया गया है।

इसी लिए मेरा कहना है कि अल्लाह मुस्तफ़ा अक्क़ाद पर रहमत करे और हमें उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने अपनी फिल्म 'द मैसेज' (3) में इस अज़ीम हस्ती को एक अहम और बड़े अदाकार की मदद से शानदार तरीक़े से फ़िलमाया है। यक़ीनी तौर पर यह फिल्म एक शानदार काम है, ख़ास तौर पर हज़रत हम्ज़ा से मुतल्लिक़ जो रोल है। वैसे उनका रोल करने वाले एक्टर भी गैर मामूली तौर पर मशहूर और अहम अदाकार हैं (4)। यह फिल्म बहुत ख़ास है और किसी हद तक हज़रत हम्ज़ा की ज़िदगी पर रौशनी डालने में कामयाब रही है अलबत्ता किसी हद तक।

इस लिए इस तरह के कामों का जारी रहना ज़रूरी है। यही नहीं बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम के दूसरे सहाबियों के सिलसिले में भी यह काम होना चाहिए। हज़रत अम्मार के बारे में भी यह काम होना चाहिए। हज़रत सलमान के बारे में भी यही काम किया जाना चाहिए। हज़रत मेक़दाद के बारे में भी। हज़रत मेक़दाद को कितने लोग जानते हैं? किसे यह मालूम है कि उन्होंने क्या किया है? उनके बारे में उतनी मालूमात भी नहीं है जितनी पैग़म्बरे इस्लाम के बाद कुछ खास सहाबियों के बारे में है। पैग़म्बरे इस्लाम के बाद सिर्फ मेक़दाद थे जो बिल्कुल नहीं बदले (5)।  यह सब चीज़ें बहुत अहम हैं। इन सब चीज़ों की याद दिलाना होगी, इन्हें फिर से ज़िन्दा करना होगा। या इसी तरह हज़रत जाफ़र, हज़रत जाफ़र इब्ने अबूतालिब तो ख़ास तौर पर। क्योंकि उनकी ज़िदगी में जो हालात रहे वह फिल्म वालों की ज़बान में काफी “ड्रामेटिक” हैं। वह उनकी हिजरत और एथोपिया का सफर, जिस तरह से वह गये और फिर जिस तरह से वापस आए यह सब बहुत अहम चीज़ें हैं और इन्हें आर्ट की नज़र से देखा जा सकता है। अच्छी फिल्में बनायी जा सकती हैं। तो इन सब बातों की बुनियाद पर पहली चीज़ तो यह साबित है कि हज़रत हम्ज़ा अलैहिस्सलाम मज़लूम हैं। एक बात तो यह है।

इसके अलावा भी बहुत से काम हैं जो करना चाहिए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम से एक रवायत है जिसे “नूरुस्सक़लैन” ने “ख़ेसाल” के हवाले से लिखा है। मैंने नुरुस्सक़लैन में ख़ुद देखा है लेकिन ख़ेसाल नहीं देखी।  इस में हज़रत हम्ज़ा के बारे में जो रवायत है वह मेरे ख़्याल में अहम रवायत है।

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने, हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हवाले से जो रवायत बयान की है वह काफी लंबी है उसका एक हिस्सा यह है। “मैंने, मेरे चचा हमज़ा, मेरे भाई जाफ़र और मेरे चचेरे भाई उबैदा ने अल्लाह से एक बात का अहद किया।” यहां पर यह जो “उबैदा इब्ने हारिस” हैं इन्हें तो लोग बिल्कुल ही नहीं जानते। यह उन लोगों में से हैं जो बद्र की लड़ाई में गये थे, उन्ही तीन लोगों में से हैं जिनका ज़िक्र रवायत में किया गया है। वह शहीद भी हुए। बाद में शहीद हुए। किसी को भी इनके बारे में मालूम नहीं है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनका नाम लेते हैं। इस रवायत में कहते हैं कि मैं, मेरे चचा हम्ज़ा, मेरे भाई जाफ़र और मेरे चचेरे भाई उबैदा। फिर कहते हैं कि “मैंने और इन लोगों ने अल्लाह से एक काम का अहद किया और फिर अल्लाह और उसके रसूल के लिए उस वादे अमल करते रहे।” यानी हम ने एक बात तय की, अल्लाह और उसके रसूल से वादा किया यानि बैठ कर आपस में यह तय किया। नौजवान हज़रत अली ने अपने बूढ़े चचा के साथ बैठ कर यह अहद किया। हज़रत हम्ज़ा एक रवायत के मुताबिक उम्र में पैग़म्बरे इस्लाम से बड़े थे, रवायत के मुताबिक़ दो या चार साल वह पैग़म्बरे इस्लाम से बड़े थे। इसके अलावा हज़रत हम्ज़ा, पैग़म्बरे इस्लाम के “रेज़ाई भाई” (दोनों के मां बाप अलग हैं लेकिन दोनों को एक ही मां ने दूध पिलाया है) भी हैं। यह सब इकट्ठा हुए, हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने इस चचा के साथ और अपने भाई और चचेरे भाई के साथ मिल कर बैठे और एक बात अहद किया जो यक़ीनी तौर पर शहादत तक जेहाद जारी रखने की बात का अहद था। यानी यह तय किया कि हम इस राह में लगातार आगे बढ़ेंगे और शहीद हो जाने तक सफ़र जारी रखेंगे (6)। इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते  हैं किः  हम इस राह पर आगे बढ़ते गए लेकिन मेरे साथी मुझ से आगे चले गये। अल्लाह की मर्ज़ी से मैं उनसे पीछे रह गया। तब अल्लाह ने हमारे बारे में यह आयत नाज़िल की कि मोमेनीन में से कुछ मर्द हैं जिन्होंने अल्लाह से किया हुआ अहद व पैमान सच कर दिखाया। तो उनमें से कुछ का वक़्त पूरा हो गया। यह पूरी आयत पढ़ी और फिर कहा कि हम्ज़ा, जाफ़र और उबैदा यह वे लोग हैं जिनका वक़्त पूरा हो गया और मैं “मैं खुदा की क़सम इन्तेज़ार कर रहा हूं (7)।“ यह सब बहुत अहम बातें हैं। वह भी इस तरह हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ज़बान से।

इस तरह की हस्तियों को याद किया जाना चाहिए, उनकी इज़्ज़त की जानी चाहिए और उन्हे सामने लाना चाहिए। इस से इन हस्तियों की अज़मत का पता चलता है। ऐसा लगता है कि जब हज़रत हम्ज़ा शहीद हुए तो खुद पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें नमूना बनाना चाहा। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें “ शहीदों का सरदार” कहा था और फिर जब मदीना गये तो देखा कि  ‘अंसार’ (मदीना के मूल निवासियों) की औरतें रो रही हैं। क्योंकि बद्र की लड़ाई में 72 लोग शहीद हुए थे, 4 मुहाजिर थे और 68  अंसार थे। अंसार जो मदीना के थे, उनकी औरतें रो रही थीं, पैग़म्बरे इस्लाम ने ग़ौर से सुना और फिर कहा कि हम्ज़ा पर कोई रोने वाला नहीं है! जब मदीने की औरतों तक यह बात पहुंची तो उन्होंने कहा कि अब हम सब अपने शहीद पर रोने से पहले हम्ज़ा पर रोएंगे (8)। पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें यह काम करने पर तैयार किया था यानी पूरे मदीने को हज़रत हम्ज़ा के लिए पैग़म्बरे इस्लाम ने अज़ादार बना दिया था। इसका क्या मतलब है? यानी पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत हम्ज़ा की अहमियत ज़ाहिर करना चाहते हैं। वह शहीदों के सरदार हैं और ऐसी हस्ती हैं जिन पर सब को रोना चाहिए। नमूना और मॉडल इसी तरह बनाया जाता है। यह उस दौर के लिए ही नहीं था बल्कि हमेशा के लिए, पूरी तारीख़ के लिए और सभी मुसलमानों के लिए है। इस बुनियाद पर आप लोग जो काम कर रहे हैं वह ईरान और इस मुल्क के लिए ही नहीं है। आप जो काम कर रहे हैं अगर अच्छी तरह हो गया और मुझे उम्मीद है कि आप का यह काम अच्छा होगा, तो यह सभी इस्लामी मुल्कों के लिए एक बड़ा काम होगा। अरब मुल्कों के लिए, दूसरी ज़बान वाले मुल्कों के लिए अच्छा काम होगा। इन सारे मुल्कों को इससे फायदा उठाना चाहिए और वह फायदा उठाएंगे। शायद वहां आर्ट में दिलचस्पी रखने वाले आगे बढ़ें और बड़े-बड़े काम अंजाम दें।

तो हमें जो काम करना है वह यह है कि हमें हज़रत हम्ज़ा की शख़्सियत को बयान करने वाली चीज़ों को सब के सामने लाना है। यानी हमें एक काम यह करना है कि हम लोगों को बताएं कि क्या वजह थी, कौन सी बातें थीं जिनकी वजह से हज़रत हम्ज़ा एक महान हस्ती बने? मेरे ख़याल में यह भी एक काम है इस सिलसिले का। इस तरह वह हमारे लिए भी रोल मॉडल बन जाएंगे। मेरे ख़याल से उनकी दो खूबियां बहुत अहम हैं। एक उनका मज़बूत इरादा और दूसरे उनका सही मूल्यांकन।  सच बात पहचानने की उनकी सलाहियत।  हमें उन की इन खूबियों का एलान करना चाहिए। पुख़्ता इरादा।  

अस्ल में कभी यह होता है कि इन्सान को किसी चीज़ के बारे में पता होता है, उसे सच मानता भी है, उस पर यक़ीन भी रखता है, लेकिन उसके हिसाब से काम नहीं कर पाता क्योंकि इरादा कमज़ोर होता है। यहां पर मज़बूत इरादा, बहुत कारगर साबित होता है।

हज़रत हम्ज़ा ‘बेअसत’ के आठवें साल ईमान लाए जैसा कि उस्दुलग़ाबा (9) और दूसरी किताबों में लिखा है। यह दौर पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िंदगी का सब से सख़्त दौर था। क्योंकि इस्लाम का एलान कर दिया गया था और चारों तरफ़ से लोग पैग़म्बरे इस्लाम पर हमला कर रहे थे। पैग़म्बरे इस्लाम के सहाबियों पर हमला करते थे।

अलबत्ता यह भी सच्चाई है कि इस्लाम को अपनाने से पहले भी हज़रत हम्ज़ा पैग़म्बरे इस्लाम का बचाव करते थे, उनकी हिफ़ाज़त करते थे। यह भी है कि जब हज़रत अबू तालिब परेशानी में होते थे, हज़रत अमीरुल मोमेनीन को तो पैग़म्बर ने साथ ले लिया था। तब हज़रत हम्ज़ा ने यह किया कि हज़रत जाफ़र को अपने साथ ले जाकर रखा(10)। यानी इस्लाम क़ुबूल करने से पहले भी हज़रत हम्ज़ा की ज़िंदगी में यह सारी चीज़ें थीं। पैग़म्बरे इस्लाम की जिन मुसीबतों के बारे में हमने सुना है वह सब इसी दौर की हैं। इस दौर में और इन हालात में कि जब मुसलमान बड़ी सख़्ती में ज़िंदगी गुज़ार रहे थे, हज़रत हम्ज़ा, मस्जिदुल हराम में, काबे के पास खड़े होकर एलान करते हैं कि मैं मुसलमान हो गया हूं। सब जान लें कि मैं ईमान ले आया। जी हां यही बहादुरी, यही पक्का इरादा और सही फैसला यह सब बहुत अहम है। हमें अपने लोगों को यह सिखाना चाहिए। अपनी क़ौम को यह बताना चाहिए। चीज़ों पर सही तौर से सोचें और सही फैसला करें। (जहन्नम में जाने वालों की गुफ़्तगू क़ुरआन में है)  “ अगर हमने बात सुनी होती और अक़्ल से काम लिया होता हम जहन्नम में न डाले जाते। तो उन्होंने अपने गुनाहों का इक़रार किया।”  (11)

यानी जो हज़रत अली अलैहिस्लाम ने कहा है कि उन्होंने अल्लाह से किये गये अपने वादे पर सच्चाई से अमल किया (12) तो अमल करने वालों में एक हज़रत हम्ज़ा भी हैं। अल्लाह के साथ किये गये वादे पर सच्चाई के साथ कैसे अमल किया जाता है?  इस तरह के अमल की पूरी सूरत यह है कि इन्सान ख़ुदा के हुक्म और ख़ुदा की राह के लिए एक रोल मॉडल बना दे यानि ख़ुद को उस हुक्म के मुताबिक़ ढाल ले। हमें यह सीखना चाहिए। अगर समाज के असरदार लोग इस तरह की हस्ती बनाने का पक्का इरादा कर लें तो यक़ीनी तौर पर इस तरह की हस्तियां, बड़े-बड़े मौक़ों पर समाज को बचा सकती हैं। यह एक सच्चाई है।

हमें सिर्फ कुछ इस तरह के लोगों को ही नहीं पेश करना चाहिए जो नसीहतें करतें रहें या फिर यह कि कोई काम अपने ज़िम्मे ले लें। नहीं,  बल्कि संस्थाओं को इस सिलसिले में काम करना चाहिए। खुदा का शुक्र है कि “ जामेआ-अल-मुस्तफा” इस सिलसिले में अहम रोल अदा कर सकता है। क़ुम में वह इदारे जिन्हें खुदा के शुक्र से धार्मिक शिक्षा केन्द्र  के ओहदेदारों ने बनाया है, इस तरह के काम कर सकते हैं। कुछ तबलीग़ी इदारे भी इस सिलसिले में अच्छा काम कर रहे हैं। हमें ऐसे किरदार बनाने चाहिए जो अल्लाह के हुक्म और इस्लामी शिक्षाओं का अमली नमूना पेश करते हों। अगर इस तरह के किरदार बनाने में हम कामयाब हो गये तो फिर इस्लामिक सिविलाइज़ेशन की स्थापना में कोई शक नहीं रह जाएगा।

खुदा आप सब को अज्र दे, कामयाबी दे ताकि आप लोग अगले काम भी ज़्यादा बेहतर तरीक़े से कर सकें। मैं भी अपनी तरफ़ से इस काम के आप सभी ज़िम्मेदारों का शुक्रिया अदा करता हूं।

 

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातोहू

हवालेः

  1. इस मुलाक़ात की शुरुआत में क़ुम स्थित धार्मिक शिक्षा केन्द्र जामेआ-अलमुसतफ़ा के चांसलर हुज्जतुल इस्लाम अली अब्बासी और हज़रत हमज़ा (अ.स.) पर सेमीनार के संयोजक हुज्जतुल इस्लाम नासिर रफ़ीई ने तक़रीर की।
  2. उस्दुल ग़ाबा जिल्द 1 पेज 528 से 529 तक
  3. यह फ़िल्म ईरान में मुहम्मद रसूलुल्लाह के नाम से दिखाई गई।
  4. एंथोनी क्विन
  5. बेहारुल अनवार जिल्द 28 पेज 239
  6. यहां सुप्रीम लीडर भावुक हो गए
  7. तफ़सीर नूरुस्सक़लैन जिल्द 4 पेज 258
  8. उस्दुल ग़ाबा जिल्द 1 पेज 530
  9. उस्दुल ग़ाबा जिल्द 1 पेज 528
  10. मक़ातिलुत्तालेबीन पेज 41
  11. सूरा मुल्क आयत 10 और आयत 11 का कुछ हिस्सा।
  12. सूरा अहज़ाब आयत 23 का एक भाग