24 अक्तूबर 2021 को इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर ने इस मुलाक़ात में पैग़म्बरे इस्लाम की पैदाइश की मुबारकबाद दी और इस शुभ जन्म दिन को पूरी इंसानियत की ज़िन्दगी में नए दौर का आग़ाज़ बताया।
सर्वोच्च नेता के भाषण का हिंदी अनुवाद पेश हैः
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनके छठे उत्तराधिकारी इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की पैदाइश के मुबारक दिन पर तीनों पालिकाओं के चीफ़, इस्लामी व्यवस्था के अधिकारियों और पैंतीसवी अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी एकता कॉन्फ़्रेंस में भाग लेने वाले मेहमानों ने रविवार को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात की।
अल्लाह के नाम से जो बहुत मेहरबान और सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है
ख़ुतबाः “सारी तारीफ़ अल्लाह के लिए जो पूरी सृष्टि का चलाने वाला है, क़यामत के दिन तक। दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल पर और उनके चुने हुए साथियों और उन पर जो अच्छाई में उनके पीछे चले।”
आप सभी सज्जनों का स्वागत है। मैं आप सबका स्वागत करता हूं, ख़ास तौर पर इस्लामी एकता कॉन्फ़्रेंस के प्रिय मेहमानों और उन भाई-बंधुओं का जो दूसरे देशों से यहाँ आए हैं। महान पैग़म्बर व नबी (सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम) के जन्म दिवस और हज़रत इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) के मुबारक जन्म दिवस पर बधाई पेश करता हूं जो 83 हिजरी क़मरी में पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिवस पर पैदा हुए हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम का जन्म हक़ीक़त में इंसानी ज़िन्दगी में नए दौर की शुरुआत है। अल्लाह के इरादे, इंसानियत पर उसकी मेहरबानियों के नए दौर के आग़ाज़ की (बशारत) शुभसूचना है; इसलिए यह पैदाइश बहुत बड़ी व महान घटना है।
हक़ीक़त में पैग़म्बर की पैदाइश की महानता को आम ज़बान में बयान ही नहीं किया जा सकता; यह महाघटना है, बहुत बड़ी घटना है। कुछ लोगों ने कला और शेर के ज़रिए बातें कहीं हैं और कहते हैं जो इस घटना की एक तस्वीर व चित्रण है।
वलदल हुदा फ़लकाएनातो ज़ियाऊ
व फ़मुज़् ज़माने तबस्समुन व सनाऊ (2)
कला की ज़बान इस तरह बोलती है: मार्गदर्शन का जन्म हुआ, पूरी सृष्टि रौशनी की वर्षा में शराबोर गयी; दुनिया के होंठ मुस्कुराहट और तारीफ़ में खुल गए। इस तरह की उपमाओं से इस महाघटना को कुछ हद तक दिमाग़ समझ सकता है। यह बहुत अहम घटना है।
पैग़म्बर की पैदाइश की घटना, ख़ुद पैग़म्बर के दर्जे जितनी महान है; इतनी महान कि सृष्टि के आग़ाज़ से अंत तक अल्लाह ने इतनी महानता वाले किसी वजूद को पैदा नहीं किया; उनके कांधे पर इतनी महान अमानत की ज़िम्मेदारी सौंपी कि इस महान अमानत की वजह से अल्लाह कहता है: अल्लाह का ईमान वालों पर एहसान है कि उनके बीच उन्हीं में से एक पैग़म्बर भेजा (3) इंसानियत पर किए गए एहसान को याद दिला रहा है, इतनी महान घटना है। अल्लाह ने “छिपी हुयी किताब” (लौहे महफ़ूज़) को पैग़म्बर के पाक मन पर उतारा, उनकी पाक ज़बान पर जारी किया, इंसानियत की भलाई का पूरा प्रोग्राम उनके हवाले किया, उनके कांधे पर ज़िम्मेदारी डाली, उन्हें नियुक्त किया कि इस प्रोग्राम पर ख़ुद अमल करें, दूसरों तक पहुंचाएं और अपने मानने वालों से इस पर अमल करने की ताकीद करें।
ख़ैर, अब हम इसी पैग़म्बर के मानने वाले हैं; हम ख़ुद को इसी पैग़म्बर से जोड़ते हैं। हमारी ज़िम्मेदारी क्या है? हर दौर में मोमिनों की यह ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी स्थिति को समझें, इस बात को समझें कि धर्म उनसे क्या चाहता है, उन्हें क्या ज़िम्मेदारी सौंपता है; उन्हें क्या सोचना चाहिए किस चीज़ पर अमल करना चाहिए, इन दोनों बातों को हर दौर में समझना चाहिए। ख़ैर इस बारे में धर्मगुरुओं और धार्मिक विचारकों ने बहुत बहस की है, बातें की हैं। मैं इस सभा में इस बारे में कुछ संक्षेप में कहना चाहता हूं कुछ बातें इस्लामी जगत के बारे में और कुछ ईरान तथा इस्लामी गणराज्य के बारे में।
जिस चीज़ का संबंध इस्लामी जगत और सारे मुसलमानों से है, उसके बारे में दो अहम बिन्दुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है जिसके बारे में मैं मुख़्तसर बात करुंगा। एक इस्लाम की समावेशी प्रवृत्ति का हक़ अदा करने का मुद्दा व चुनौती है। इस्लाम ऐसा धर्म है जो अपने दायरे में इंसानी समाज के सभी पहलुओं को समेटे हुए है और इस्लाम की इस समावेशी प्रवृत्ति का हक़ अदा करना है, यह एक चुनौती है। दूसरा मुद्दा मुसलमानों के बीच एकता का है। यह दोनों मुद्दे हमारे दौर की दो सबसे अहम चुनौतियां हैं। दूसरे भी मुद्दे व चुनौतियां हैं लेकिन ये दोनों उनमें सबसे ज़्यादा अहम हैं।
इस्लाम की समावेशी प्रवृत्ति का हक़ अदा करने के बारे में कुछ हठधर्मी थी और है। बुनियादी तौर पर यह ज़िद भौतिक-राजनैतिक ताक़तों की ओर से सामने आयी है। यह इस्लाम को सिर्फ़ निजी ज़िन्दगी और आस्था तक सीमित किए जाने की कोशिश है; यह कोशिश पुराने ज़माने से चली आ रही है; मैं इसके लिए एक तारीख़ तय नहीं कर सकता कि कब शुरू हुयी लेकिन क़रीब 100 साल या सौ साल से ज़्य़ादा वक़्त से इस्लामी दुनिया में यह कोशिश साफ़ तौर पर नज़र आती है। (ईरान में) इस्लामी गणराज्य के क़ायम होने के दौर में यह कोशिश तेज़ हो गयी। कोशिश यह करते हैं कि इसे राजनैतिक रूप न दें बल्कि यह बात विचारकों की ओर से पेश की जाने वाली थ्योरी के रूप में बयान की जाए। अंग्रेज़ी शब्दावली के मुताबिक़ इसे थ्योरिटिकल विषय ज़ाहिर करें।
विचारकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और इन जैसों को ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है कि इस बारे में लिखें और यह साबित करें कि इस्लाम का इंसानों के सामाजिक, निजी और मूल मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं है, इस्लाम का संबंध सिर्फ़ आस्था से, अल्लाह से इंसान के निजी संबंध और उसके व्यक्तिगत काम से है, यह इस्लाम है; अपने श्रोताओं व पाठकों के मन में इसी बात को बिठाने पर अड़े हुए हैं।
इस रुझान की नज़र से जो ज़ाहिर में वैचारिक लेकिन भीतर से राजनीति से प्रेरित है, सामाजिक संबंध व जिन्दगी के अहम पहलुओं को इस्लाम की पहुंच से दूर रखने की कोशिश होती है; समाज के संचालन और सभ्यता के निर्माण के मामले में यह दर्शाने की कोशिश की जाती है कि इस्लाम का मानव जीवन के निर्माण में कोई रोल नहीं है, कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, उसके पास कोई साधन नहीं है; समाज के संचालन में कोई रोल नहीं रखता, समाज में सत्ता और धन-दौलत के वितरण में इस्लाम का कोई रोल नहीं है, समाज की अर्थव्यवस्था, समाज के विभिन्न मामलों से इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं है; या जंग का मामला हो, शांति का, आंतरिक नीति, विदेश नीति का अंतर्राष्ट्रीय मामले हों। कभी आप सुनते होंगे कि “कूटनीति आइडियालोजिकल न बनाइये” विचारधारा से मत जोड़िए यानी इस्लाम को विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में राय नहीं देनी चाहिए; भलाई को फैलाने, न्याय क़ायम करने, बुरों से निपटने, ज़ुल्म से निपटने, दुनिया की बुरी ताक़तों का रास्ता रोकने, इन सब मामलों में इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं है। इंसानी ज़िन्दगी के इन अहम पहलुओं में इस्लाम न तो वैचारिक स्रोत हो और न ही व्यवहारिक रूप से मार्गदर्शक, यह हठधर्मी दिखायी जाती है। इसका कारण क्या है, इसका स्रोत क्या है, यह बात कहां से शुरू हुयी, ये बिन्दु मेरी आज की बहस में शामिल नहीं है। जो बात मैं कहना चाहता हूं यह है कि यह गतिविधि इस्लाम विरोधी है जिसके पीछे मुख्य रूप से दुनिया की बड़ी राजनैतिक ताक़ते हैं जो इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और कोशिश करती हैं और इसी को विचारकों की ज़बानी भी पेश करवाने के लिए जतन करती है।
ख़ैर, इस्लामी दस्तावेज़ों व ग्रंथ में साफ़ तौर पर इसे नकारा गया है और हम मुसलमानों को इस मुद्दे को अहमियत देनी चाहिए। मैंने हक़ अदा करने की जो बात कही तो सबसे पहले यह कि हमें इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि ज़िन्दगी के जिन पहलुओ को इस्लाम ने अहमियत दी है, उसे बयान करें, उसे फैलाएं, पहला काम तो यह है, उसके बाद उसे व्यवहार में लाने की कोशिश करें।
इस्लाम जो बात बताना चाहता है, यह है कि इस धर्म का दायरा पूरे इंसानी जीवन में फैला हुआ है, मन की गहराइयों से लेकर सामाजिक मामलों को, राजनैतिक मामलों को, अंतर्राष्ट्रीय विषयों को उन मामलों को जिनका इंसानियत से संबंध है, सबको अपने भीतर समोए हुए है। यह बात क़ुरआन में साफ़ तौर पर बयान की गई है। अगर कोई इसका इंकार करता है तो उसने क़ुरआन की स्पष्ट बातों का इंकार किया। एक जगह पर कुरआन कहता है, “हे ईमान लाने वालों अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो, सुबह शाम उसका गुणगान करो।”(4) इस बात का संबंध इंसान के दिल से है लेकिन एक दूसरी जगह कह रहा है,“जो लोग ईमान लाए हैं अल्लाह के मार्ग में जंग करते हैं और अधर्मी शैतान के रास्ते में लड़ते मरते हैं तो तुम शैतान के साथियों से लड़ो।” (5) यह भी है यानी “अल्लाह को याद करो” से लेकर “शैतान के साथियों से लड़ने” तक, ये सब धर्म के अधिकार क्षेत्र में आता है।
एक जगह पैग़म्बर से कहता है कि “रात को नमाज़ के लिए खड़े रहा करो मगर पूरी रात नहीं, थोड़ी रात या आधी रात या इससे भी कम कर दो या उससे कुछ बढ़ा दो और क़ुरआन को बाक़ायदा ठहर ठहर कर पढ़ा करो।” (6) एक जगह और पैग़म्बर से फ़रमा रहा है, तो अल्लाह के रास्ते में जंग के लिए उठ खड़े हों और आप अपनी ज़ात के सिवा किसी के ज़िम्मेदार नहीं हैं और मोमिनों को शौक़ दिलाइये। (7) ज़िन्दगी के यह सब अहम पहलु, आधी रात को उठना, अल्लाह से मदद मांगना, उसे अपना सहारा बनाना, दुआ करना, रोना और नमाज़ पढ़ना, जंग करना, जंग के मैदान में हाज़िर होना, पैग़म्बर की ज़िन्दगी यह सब बताती है।
पैसे के मामले में एक जगह क़ुरआन फ़रमाता है, “और अपनी ज़ात पर दूसरों को प्राथमिकता देते हैं चाहे उन्हें कितनी ही ज़रूरत क्यों न हो।” (8) कि यह एक निजी मामला है और दूसरी जगह पर फ़रमाता है, ताकि सारा माल घूम फिर कर सिर्फ़ पैसे वालों के पास न रह जाए (9) यानी पूंजि का वितरण जो सौ फ़ीसदी सामाजिक मामला है; या फ़रमाता है कि लोग इंसाफ़ के लिए उठ खड़े हों (10) नबी और औलिया सभी न्याय क़ायम करने, इंसाफ़ क़ायम करने आए हैं। एक जगह फ़रमाता है: जो माल तुम्हारे गुज़र बसर के लिए है उसे बेवक़ूफ़ों को न दे बैठो। (11) एक जगह फ़रमाता है: तुम उनके माल से ज़कात लो ताकि उन्हें पाक साफ़ कर दो; (12) यानी माल से जुड़े सभी पहलुओं को आम उसूल के रूप में बयान करता है कि इन सबके लिए व्यवहार में प्रोग्राम होना चाहिए, लेकिन आम उसूल, नियम और दिशा वही है जो बयान कर रहा है यानी इस्लाम का इन सभी मामलों पर अपना नज़रिया है।
रक्षा और समाज की आंतरिक सुरक्षा के मामलों में: हे रसूल मुनाफ़िक़ और वे लोग जिनके दिलों में कुफ़्र का मरज़ है और जो लोग मदीनें में बुरी ख़बर उड़ाया करते हैं, अगर ये लोग बाज़ न आएंगे तो हम तुम ही को उन पर मुसल्लत कर देंगे फिर वह तुम्हारे पड़ोस में कुछ दिन के सिवा ठहरने न पाएंगे (13) सुरक्षा का मामला। या जब उनके पास अमन या ख़ौफ़ की ख़बर आयी तो उसे फ़ौरन मशहूर कर देते हैं हालांकि अगर वह उसकी ख़बर को रसूल तक पहुंचाते (14); यानी इस्लाम के पास इंसान के सामाजिक जीवन के सभी अहम पहलुओं के लिए उसूल हैं। ये जो हमने आपके सामने पेश किया पवित्र क़ुरआन में मौजूद बातों का छोटा सा नमूना था। इस तरह की क़ुरआन में सैकड़ों बातें नज़र आती हैं।
जो क़ुरआन से जुड़े हैं, कुरआन और उसके हुक्म को पहचानते हैं, वे समझते हैं कि क़ुरआन जिस इस्लाम को पहचनवा रहा है वह यह है। जिस इस्लाम को क़ुरआन पहचनवा रहा है, वह ऐसा इस्लाम है जिसका ज़िन्दगी के हर आयाम में रोल है, राय है, नज़रिया है और निर्देश है। यह हमें पता होना चाहिए और उन लोगों का जवाब देना चाहिए जो इस रौशन हक़ीक़त का इंकार करते हैं।
दूसरी तरफ़ इस्लाम में समाज के निर्माण और सभ्यता के निर्माण जैसे अहम मुद्दे भी हैं, इसी वजह से इस्लाम ने हुकूमत के मामले को भी अहमियत दी है। यह कल्पना नहीं की जा सकती कि इस्लाम सामाजिक व्यवस्था की मांग करे लेकिन हुकूमत और धर्म तथा दुनिया से जुड़े मामलों की कमान को तय न करे। जब धर्म व्यवस्था बन गया, ऐसी व्यस्था जिसका एक शख़्स और समाज दोनों से संबंध है, एक सिस्टम हो गया जिसका निजी और सामाजिक सभी मामलों पर विचार है, राय है, तक़ाज़ा है, तो ज़रूरी है कि वह यह भी तय करे कि इस समाज का मुखिया कौन होगा, कैसा होगा और इसके इमाम (लीडर) को तय करे। अगर आप क़ुरआन को देंखे तो उसमें कम से कम दो जगह पैग़म्बरों का इमाम (लीडर) के तौर पर नाम लिया गया है। एक जगह उन सबको लोगों का पेशवा बनाया कि हमारे हुक्म से उनकी हिदायत करते थे और हमने उनके पास नेक काम करने और नमाज़ पढ़ने और ज़कात देने की ‘वही’ भेजी थी,(15) एक और जगह है, और उन्हीं में से हमने कुछ लोगों को चूंकि उन्होंने सब्र किया था, पेशवा बनाया जो हमारे हुक्म से हिदायत करते थे और हमारी आयतों का दिल से यक़ीन रखते थे। (16) यानी पैग़म्बर इमाम (लीडर) है, समाज का इमाम है, समाज का लीडर है, समाज का कमांडर है; इसी वजह से इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम मिना में लोगों के बीच खड़े हुए और ऊंची आवाज़ में कहा हे लोगो! बेशक पैग़म्बरे अकरम, इमाम थे। (17) ताकि समझाएं कि पैग़म्बर की सही धार्मिक शैली क्या है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मिना में लोगों के बीच बुलंद आवाज़ से कहा बेशक पैग़म्बर ही इमाम थे। तो यह एक विषय है। इस्लामी दुनिया में धार्मिक विचारकों की ज़िम्मेदारी है, धर्मगुरुओं की ज़िम्मेदारी है, लेखकों की ज़िम्मेदारी है, रिसर्च करने वालों की ज़िम्मेदारी है, यूनिवर्सिटी के उस्तादों की ज़िम्मेदारी है कि इसे बयान करें। इसे कहें। दुश्मन इस क्षेत्र में पैसा ख़र्च कर रहा है ताकि इसके बिल्कुल उलट बात को फैलाए, मशहूर करे।
अलबत्ता इस फ़ील्ड में ईरान में हमारी ज़िम्मेदारी ज़्यादा है। इसकी वजह यह है कि यहाँ संभावनाएं ज़्यादा हैं और कोशिश की जा सकती है। देश के अधिकारी ख़ास तौर पर सांस्कृतिक क्षेत्र के अधिकारी और वे लोग जिनके अख़्तियार में समाज के अहम मंच हैं, इसे बयान करें। देश के भीतर ऐसा नहीं है कि चूंकि इस्लामी गणराज्य, इस्लामी व्यवस्था क़ायम हो गयी तो हमें इसकी ज़रूरत नहीं है। नहीं, इस वक़्त भी हमारे देश में इस विषय के संबंध में शक पैदा किया जाता है, बातें बनाई जाती हैं और इस सिलसिले में काम किया जाता है। ख़ैर यह इस्लामी जगत से जुड़ा एक विषय था।
एक और विषय है जो इस्लामी जगत से संबंधित है, वह एकता का मुद्दा है। मुसलमानों के बीच एकता का मुद्दा, यह बहुत ही अहम मुद्दा है। अलबत्ता हमने एकता के विषय पर बहुत कुछ बात की है। हमारे महान इमाम (स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी) पर अल्लाह की रहमत हो, अल्लाह का करम उनके शामिले हाल हो कि उन्होंने एकता सप्ताह का एलान किया, कोशिश की, हमेशा मुसलमानों के बीच एकता की बात की, ताकीद की, सिफ़ारिश की, हमने इस बारे में बहुत कुछ कहा है, लेकिन फिर भी और बहुत कुछ कहना चाहिए।
इससे पहले कि मैं कुछ बातें मुसलमानों के बीच एकता के बारे में कहूं, ज़रूरी समझता हूं कि कुछ अहम शख़्सियतों का ज़िक्र करूं जिन्होंने इस्लामी एकता के लिए बहुत कोशिश की, उन्हीं में एक स्वर्गीय जनाब तस्ख़ीरी रिज़वानुल्लाह अलैह थे (18) जो इस क्षेत्र में हमारे यहां से सबसे ज़्यादा सक्रिय शख़्स थे; उन्होंने बरसों कोशिश की यहां तक कि बीमारी की हालत में भी कोशिश करते रहे। उनसे पहले स्वर्गीय जनाब मोहम्मद वाएज़ ज़ादे रिज़वानुल्लाह अलैह, महान धर्मगुरू, इस्लामी शिक्षाओं में एक्सपर्ट थे। उन्होंने इस क्षेत्र में कई साल कोशिश की। ये लोग ईरान से थे। सीरिया से महान शहीद शैख़ मोहम्मद रिज़वान अलबूती रिज़वानुल्लाह अलैह थे। शहीद सैयद मोहम्मद बाक़िर हकीम (20) भी इस्लामी मतों को एक दूसरे के नज़दीक करने वाले अहम स्तंभों में थे। जिन लोगों ने मुझे इस्लामी मतों को नज़दीक लाने के मक़सद से इस असेंबली को क़ायम करने के लिए प्रेरित किया,(21) उनमें से एक महान शहीद स्वर्गीय आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद बाक़िर हकीम थे। लेबनान में भी, स्वर्गीय शैख़ अहमद अज़्ज़ैन जिनका अभी हाल में देहांत हुआ, इस्लामी मतों को एक दूसरे के नज़दीक लाने की कोशिश करने वाले धर्मगुरुओं में थे; हमारे दोस्तों व निकटवर्तियों में थे। उनसे पहले लेबनान से स्वर्गीय शैख़ सईद शाबान थे जो हमारे अच्छे दोस्तों में थे। उन पर अल्लाह की रमहत हो, उन लोगो में थे जो मुसलमानों के बीच एकता और मुसलमानों को एक दूसरे के नज़दीक लाने पर वाक़ई यक़ीन रखते थे। उम्मीद करता हूं इंशाअल्लाह इन सब लोगों की पाक आत्मा को जिनका नाम लिया और जिनका नाम नहीं लिया जो इनसे पहले बड़ी तादाद में थे, अल्लाह अपनी रहमत नाज़िल करे। ये लोग इराक़, ईरान, मिस्र और दूसरी जगहों से थे जिन्होंने इस क्षेत्र में काम किया। यह बहुत ज़्यादा तादाद में हैं, जिनका नाम लेना नहीं चाहा, उन सबका नाम ज़िक्र करना मुमकिन नहीं है। अल्लाह उन सब पर अपनी रमहत नाज़िल करे।
इस्लामी एकता के बारे में कुछ बिन्दुओं का ज़िक्र करना चाहता हूं। एक बिन्दु यह है कि मुसलमानों के बीच एकता क़ुरआन में वर्णित निश्चित फ़र्ज़ है; मनमर्ज़ी वाली चीज़ नहीं है; इसे एक कर्तव्य के तौर पर हमें देखना चाहिए। कुरआन ने हुक्म दिया है: सबके सब अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो, फूट से बचो (22) यानी अल्लाह की रस्सी को भी सबको सामूहिक रूप से पकड़ना है। यह निश्चित हुक्म है तो हम क्यों इसे नैतिक औपचारिकता का विषय बना देते हैं? यह एक आदेश है, एक हुक्म है जिसके मुताबिक़ अमल करना चाहिए; इसी तरह की और भी क़ुरआन में बहुत सी आयतें हैं; जैसे यह आयत “और आपस में न झगड़ो वरना हिम्मत हार जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी (23) ” यह एक फ़रीज़ा है।
दूसरा बिन्दु यह कि मुसलमानों के बीच एकता व एकजुटता, टैक्टिकल मामला नहीं है कि कोई सोचे कि ख़ास हालात में हम एक दूसरे से हाथ मिला लें! नहीं, यह एक बुनियादी मामला है। मुसलमानों के बीच सहयोग ज़रूरी है; अगर मुसलमानों में एकता होगी, सहयोग करेंगे तो सभी मज़बूत होंगे। जब सहयोग होगा तो जो लोग ग़ैर मुस्लिमों के साथ लेन-देन करना चाहते हैं-इसमें रुकावट भी नहीं है- मज़बूत पोज़ीशन के साथ इस लेन-देन में शामिल होंगे। इसलिये यह भी एक बुनियादी मामला है, टैक्टिकल नहीं है।
तीसरा बिन्दु जिसकी वजह से हम इस्लामी गणराज्य में मुसलमानों में एकता पर बहुत ज़्यादा बल देते हैं, वह बहुत ज़्यादा दूरी है। आज लगातार इस बात की कोशिश हो रही है कि इस्लामी मतों के बीच, शिया-सुन्नी के बीच ज़्यादा मतभेद पैदा हो; यह बहुत ही सुनियोजित व गंभीर कोशिश है। आप देख रहे हैं आज अमरीका की राजनैतिक शब्दावली में ‘शिया’ और ‘सुन्नी’ प्रचलित हो गया है! फ़लां देश शिया है, फ़लां देश सुन्नी है; हालांकि वे सिरे से इस्लाम के ख़िलाफ़ हैं, दुश्मन हैं, लेकिन शिया-सुन्नी मुद्दे को छोड़ नहीं रहे हैं। तो ये चीज़ें हैं; मतभेद को रोज़ाना बढ़ा रहे हैं, भ्रांतियां बढ़ा रहे हैं। हम जो इतनी ताकीद करते हैं तो इसके पीछे यही वजह है। आप देख रहे हैं कि अमरीका द्वारा प्रशिक्षित तत्व इस्लामी जगत में जहां मुमकिन है फ़साद पैदा करते हैं। इसकी सबसे ताज़ा मिसाल अफ़ग़ानिस्तान की पिछले दो जुमों की दुखद व दर्दनाक घटनाएं हैं कि मस्जिद और मुसलमानों को नमाज़ की हालत में धमाके से उड़ा दिया। (24) कौन लोग धमाका कर रहे हैं? दाइश; दाइश कौन है? दाइश वह गुट है कि अमरीकियों ने -यही इस वक़्त सत्ता में मौजूद अमरीकी डेमोक्रेट्स का गुट- जिसके बारे में साफ़ तौर पर कहा था कि हमने वजूद दिया है; अलबत्ता अब नहीं कहते, अब इंकार करते हैं, लेकिन यह बात उनके मुंह से अचानक निकल गयी, इसे साफ़ तौर पर कहा है। इसलिए ज़रूरी है कि हम इस मामले में कोशिश जारी रखें।
चौथा बिन्दु यह कि हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि इस काम से कि हर साल एकता हफ़्ते पर एक साथ बैठते हैं, स्पीच देते हैं, बात करते हैं, दुनिया के इस छोर या उस छोर पर एक बैठक या दो बैठक करते हैं, साथ में बैठ कर बात करते हैं, तो बस हमने फ़र्ज़ अदा कर दिया! नहीं, इन चीज़ों से फ़र्ज़ पूरा नहीं होता; ज़रूरी है कि जो शख़्स दुनिया में जिस जगह हो, उसकी बातचीत का अस्ल मुद्दा एकता हो। हमें चर्चा करनी चाहिए, बयान करना चाहिए, प्रेरित करना चाहिए, योजना बनानी चाहिए, इस ज़िम्मेदारी को आपस में बांट लेना चाहिए; इस काम को अंजाम देना अनिवार्य है। हम जो कह रहे हैं कि योजना बनाएं, मिसाल के तौर पर इसी अफ़ग़ानिस्तान के मामले में हमने कहा कि इन घटनाओं को रोकने का एक रास्ता यह है कि अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा अधिकारी मस्जिदों और इन केन्द्रों में ख़ुद भी हाज़िर हों, नमाज़ में शामिल हों, या सुन्नी भाइयों को प्रेरित करें कि इन केन्द्रों में हाज़िर हों। इस तरह इस्लामी जगत में काम अंजाम दिया जा सकता है।
अगला बिन्दु यह कि इस्लामी गणराज्य का एक उद्देश्य जिसे हमने बयान किया वह नई इस्लामी सभ्यता का निर्माण है; यानी इस्लामी गणराज्य व्यवस्था और इस्लामी क्रांति के लक्ष्यों में एक नई इस्लामी सभ्यता का निर्माण है। आज के दौर की क्षमताओं और सच्चाइयों के मद्देनज़र इस्लामी सभ्यता का निर्माण। यह काम शिया-सुन्नी एकता के बिना मुमकिन नहीं है; यह काम कोई देश या कोई संप्रदाय अकेले नहीं कर सकता; इसके लिए एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए। यह भी एक अहम बिन्दु है इसलिए यह भी ज़रूरी है।
छठा बिन्दु जो मुसलमानों के बीच एकता का पैमाना है वह फ़िलिस्तीन का मुद्दा है; फ़िलिस्तीन का मुद्दा पैमाना है। अगर मुसलमानों में एकता हो जाए तो फ़िलिस्तान का मुद्दा बेहतरीन तरीक़े से हल हो जाएगा। हम फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर, फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को उसके अधिकार दिलाने के लिए जितनी ज़्यादा गंभीरता दिखाएंगे, मुसलमानों के बीच एकता की संभावना उतनी ज़्यादा बढ़ जाएगी। हाल में (इस्राईल से) संबंध सामान्य करने का मामला -कि अफ़सोस कुछ सरकारों ने ग़लती की, बड़ी ग़लती की, गुनाह किया, ज़ालिम व नाजायज़ क़ब्ज़ा करने वाले ज़ायोनी शासन से संबंध सामान्य किए- इस्लामी एकता के ख़िलाफ़ काम है; इस रास्ते से पलट आना चाहिए और इस बड़ी ग़लती की भरपाई करनी चाहिए। ख़ैर यह था एकता का मुद्दा। इस्लामी समाज और अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आयाम से जो बात पेश करनी थी वे यही दो बिन्दु थे, जिन्हें हमने पेश किया।
और जो हमारे देश से संबंधित है हालांकि विरोधियों, धर्म के दुश्मनों और अमरीका के पिछलग्गुओं ने बरसों इस देश में हुकूमत की लेकिन लोग हमेशा मोमिन थे, ईरानी राष्ट्र अल्लाह की कृपा से प्राचीन समय से ऐसा था, आज भी हम पहले से ज़्यादा और बेहतर तरीक़े से ख़ुद को पैग़म्बर का फ़ालोअर समझते हैं। ख़ैर, किस तरह फ़ालो करना चाहिए? फ़ालो शब्द पर ध्यान दीजिए; यानी उनके पीछे पीछे चलना। किस तरह चलें? क़ुरआन हमसे यही चाहता है: निश्चित रूप से तुम्हारे लिए पैग़म्बर का व्यवहार अच्छा आदर्श है उनके लिए जो अल्लाह और प्रलय के दिन से उम्मीद लगाए हुए हैं। (25) ’उसवा’ का मतलब है नमूना, आदर्श। हमें इस आदर्श के पीछे चलना चाहिए और जो ख़ूबियां उनके व्यवहार में थीं, उसे हम अपने व्यवहार में उतारें। जो ख़ूबियां उनके शिष्टाचार में थीं, उनका अनुसरण करें। अलबत्ता इतने बड़े पैमाने पर हर एक के बस की बात नहीं है; यानी हम इतने छोटे हैं कि इतने बड़े पैमाने पर आगे नहीं बढ़ सकते लेकिन हमें इस क्षेत्र में कोशिश करनी चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम की तारीफ़ के क़ाबिल ख़ूबियां एक दो या दस नहीं हैं; पैग़म्बरे इस्लाम की सम्मानीय बीवी से उनके (अख़लाक़) शिष्टाचार के बारे में सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा: क़ुरआन उनका शिष्टाचार था; पैग़म्बरे इस्लाम क़ुरआन का साक्षात रूप हैं। यह एक बहुत ही व्यापक विषय है।
मैंने पैग़म्बरे अकरम और उनकी ख़ूबियों के बारे में 3 बिन्दुओं को चुना है और ये तीन बिन्दु ऐसे हैं जैसे इंसान 'मिल्की वे गैलेक्सी' के 3 तारों को चुन ले। हम ईरानी जनता इस्लामी गणराज्य में इन तीन बिन्दुओं पर तवज्जो करे, उन्हें अहमियत दे और उन्हें अपनाए। ये तीन बिन्दु सब्र, न्याय और शिष्टाचार हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िन्दगी में सब्र साफ़ तौर पर नज़र आता है। पवित्र कुरआन में सब्र और उसके मतलब के बारे में दसियों आयतें हैं लेकिन जिन आयतों में सब्र का संबंध पैग़म्बरे इस्लाम से है, उसके बारे में ज़्यादा आयते हैं, दस से ज़्यादा, शायद बीस बार- पैग़म्बरे इस्लाम से सब्र के लिए कहा गया है। यह बात बड़ी अहम है कि पैग़म्बरी पर नियुक्ति के वक़्त से पैग़म्बरे इस्लाम को अल्लाह ने सब्र करने का हुक्म दिया है; मुद्दस्सिर सूरे में: और अपने रब के लिए धैर्य से काम लो (27) मुज़्ज़म्मिल सूरे में: और जो कुछ वे कहते हैं उस पर धैर्य से काम लो (28) मुद्दस्सिर और मुज़्ज़म्मिल सूरे कुरआन के उन सूरों में हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम पर पहले नाज़िल हुए- पहले क़दम के तौर पर अल्लाह पैग़म्बर से कह रहा है कि सब्र से काम लीजिए। जी हां, मैंने यहां नोट किया है, क़रीब 20 जगह पैग़म्बरे इस्लाम को सब्र करने का हुक्म दिया गया है। अपने रब का फ़ैसला आने तक धैर्य से काम लीजिए (29) दूसरी जगहों पर सब्र का क्या मतलब है? सब्र का मतलब दृढ़ता है। मशहूर है, अनेक रिवायतों में भी सब्र को कई तरह बयान किया गया है, गुनाहों से दूर रहने पर दृढ़ता, अल्लाह के आदेश के पालन में दृढ़ता और मुसीबतों के मुक़ाबले में दृढ़ता (30) ख़ैर सब्र यानी दृढ़ता; गुनाहों की इच्छा के ख़िलाफ़ इंसान दृढ़ता दिखाए; बेकार बैठे रहने और फ़र्ज़ को अंजाम देने में सुस्ती के ख़िलाफ़ दृढ़ता दिखाए, दुश्मन के ख़िलाफ़ दृढ़ता दिखाए, मुसीबतों के मुक़ाबले में ख़ुद को क़ाबू में रखे, दृढ़ता दिखाए, ये सब्र के अर्थ हैं, सब्र यानी दृढ़ता, हमे आज सबसे ज़्यादा जिस चीज़ की ज़रूरत है वह दृढ़ता है।
आप अधिकारी लोग जो यहां मौजूद हैं इसी तरह देश में अलग अलग सतह के अधिकारियों के लिए सबसे अहम चीज़ सब्र है। दृढ़ता दिखाइये, प्रतिरोध कीजिए, दबाव को बर्दाश्त कीजिए और आगे बढ़ते रहिए, रुकना नहीं चाहिए। हम और आप के लिए देश के अधिकारी की हैसियत से सब्र व दृढ़ता के लिए ज़रूरी है कि रुकें नहीं; अमल रुकना नहीं चाहिए, जारी रहना चाहिए; यही सब्र है। यक़ीनन तुम्हारे लिए अल्लाह के पैग़म्बर का व्यवहार अच्छा आदर्श है। (31) तो यह होगी पैग़म्बर की पैरवी।
दूसरा है न्याय। पैग़म्बरे इस्लाम के अहम लक्ष्यों में एक और शायद यह कह सकते हैं कि सबसे अहम लक्ष्य जिसे केन्द्रीय हैसियत हासिल है, वह न्याय है। बेशक हमने अपने पैग़म्बरों को साफ़ तर्कों के साथ भेजा, उनके साथ किताब और सही व ग़लत को तय करने वाली तराज़ू नाज़िल की ताकि लोग न्याय क़ायम करें। (32) पैग़म्बरों के भेजने और किताबें उतारने का लक्ष्य न्याय क़ायम होना था, समाज न्याय क़ायम करे। पवित्र क़ुरआन में पैग़म्बर की ज़बानी कहा गया है, और मुझे तुम्हारे बीच न्याय के साथ व्यवहार का हुक्म दिया गया है।(33) यह भी अल्लाह का हुक्म है कि न्याय क़ायम हो।
दुनिया के सभी अक़्लमंद लोग इस बात को मानते हैं; यहां तक कि दुनिया की सबसे ज़्यादा ज़ालिम ताक़तें और दुनिया के दुष्ट तत्व भी न्याय की ख़ूबी का इंकार नहीं कर सकते; यहाँ तक कि कुछ लोग बड़ी बेशर्मी से न्याय करने का दावा करते हैं जबकि ज़ालिम हैं!
पवित्र क़ुरआन ने दुश्मनों के साथ भी न्याय को ज़रूरी बताया है; कोई हमारा दुश्मन हो तब भी उसके साथ अन्याय नहीं करना चाहिए। किसी गुट से दुश्मनी की वजह से न्याय को छोड़ न देना कि न्याय परहेज़गारी के ज़्यादा क़रीब है। (34) दुश्मन के साथ भी आपको न्याय के साथ व्यवहार करना है। तो इस तरह यह भी एक फ़रीज़ा है और इसमें सबसे पहले जिनसे कहा जा रहा है वह हम अधिकारी हैं। आप जो भी फ़ैसला करें, जो भी नियम बनता है चाहे, संसद में क़ानून पारित करते हैं, चाहे सरकार में, चाहे पूरे देश में विभिन्न विभागों में प्रशासनिक स्तर पर, सबसे अहम जिस चीज़ को मद्देनज़र रखना है वह न्याय का विषय होना चाहिए कि क्या यह न्याय के मुताबिक़ है या नहीं। कुछ जगहों पर ज़रूरी है कि उस तय शुदा नियम के लिए न्याय की भी शर्त लगा दी जाए ताकि यह बात निश्चित हो सके कि यह नियम इस तरह अंजाम दिया जाए, यह क़ानून इस तरह लागू हो कि न्याय के मुताबिक़ हो।
दूसरा बिन्दु अगर हम चाहते हैं कि इंसाफ़ हो तो इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि न्याय सिर्फ़ धन दौलत के बंटवारे से मख़सूस नहीं है, इंसाफ़ को हर जगह मद्देनज़र रखना है; सभी काम में इंसाफ़ के साथ व्यवहार करना। आज कल कभी कभी साइबर स्पेस में नाइंसाफ़ी की घटनाएं होती हैं; ग़लत बात कहते हैं, इल्ज़ाम लगाते हैं, झूठ बोलते हैं, बिना ख़ुद अमल किए बात करते हैं; ये सब नाइंसाफ़ी है, यह सब नहीं होना चाहिए। जो भी साइबर स्पेस के क्षेत्र में सक्रिय है, बहुत एहतियात बरते, जिसके अख़्तियार में साइबर स्पेस है उसे दुगुनी एहतियात करनी चाहिए कि ये सब न होने पाए। सीखें, आदत बनाएं लोगों के साथ इंसाफ़ के साथ व्यवहार करने की। जो बात कहें, मुमकिन है आपको कोई शख़्स पसंद न हो, आप उसे न मानते हों, कोई बात नहीं, यह आपकी राय है, हो सकता है कि सही भी हो, लेकिन अपनी बात को इल्ज़ाम, झूठ, बेइज़्ज़ती या इस तरह की चीज़ों से दूषित न करें; इनका गंदा होना बहुत बुरा है। यह भी इंसाफ़ के दायरे में आता है।
आख़िर में शिष्टाचार। शिष्टाचार (अख़लाक़) में अल्लाह के पैग़म्बर का अनुसरण कि जिनके बारे में अल्लाह ने कहाः नि:संदेह तुम महान नैतिकता के शिखर पर हो; (35) जिस चीज़ को महान अल्लाह, महान कहे तो उसकी महानता ग़ैर मामूली है। यह शिष्टाचार हर वक़्त हमारी नज़र के सामने गाइडलाइन के तौर पर होना चाहिए। हमारा अख़लाक़ इस्लामी हो, नम्रता हो, माफ़ कर दें -ये सब इस्लामी अख़लाक़ है- निजी मामलों में सख़्ती नहीं करनी चाहिए। सार्वजनिक मामलों, आम लोगों के अधिकारों से जुड़े मामलों या दूसरों के अधिकारों से जुड़े मामलों में ढिलाई बरतना सही नहीं है, लेकिन निजी मामला हो तो ढिलाई बरतें। भलाई, झूठ से दूरी, इल्ज़ाम से दूरी, मोमिन के बारे में बुरे ख़्याल से दूरी, मोमिन को माफ़ करना। सहीफ़ए सज्जादिया की एक दुआ की विषय यही है कि हे पालनहार! जिसने मुझपर ज़ुल्म किया, मुझसे ग़लत बात को जोड़ा, ग़लत काम किया, मैं उसके ख़िलाफ़ शिकायत का जो हक़ रखता हूं, उसे छोड़ता हूं। यह इमाम सज्जाद की सहीफ़ए सज्जादिया की दुआ। ये वे चीज़ें है जिन पर हमे फ़र्ज़ समझ कर अमल करना चाहिए।
प्यारे भाइयों व बहनो! अमल करना चाहिए, ज़बानी दावों से मामले हल नहीं होते; हम ख़ुद के मुसलमान होने का दावा करते हैं, इस्लामी गणराज्य का दावा करते हैं, हमें सच में इस्लामी होना चाहिए, पैग़म्बरे इस्लाम की पैरवी करने वाला होना चाहिए। इतनी महानता वाला यह जन्म दिवस, यह मुबारक जन्म दिवस, इस बारे में हमारे लिए विचार करने का एक मौक़ा है, हमें पढ़ना चाहिए, इस रास्ते पर चलने का हमें संकल्प लेना चाहिए।
एक बार फिर आप सबको मुबारकबाद पेश करता हूं, प्यारे ईरानी राष्ट्र को मुबारकबाद पेश करता हूं, पूरी दुनिया के मुसलमानों और इस्लामी जगत को मुबारकबाद पेश करता हूं; दुनिया के आज़ाद लोगों को मुबारकबाद पेश करता हूं, इस्लाम और नबी के मत पर शहीद होने वालों की पाक आत्मा पर दुरूद भेजता हूं; इमाम की पाक रूप पर जिन्होंने हमारे लिए यह रास्ता खोला और हमें इस बड़े काम का रास्ता दिखाया, दुरूद भेजता हूं और अल्लाह से अपने लिए और उन सभी के लिए रमहत और रज़ामंदी की दुआ करता हूं और पूरी ईरानी जनता के लिए, ख़ास तौर पर आप अधिकारियों के लिए, इसी तरह आप मेहमानों के लिए और अपने लिए तौफ़ीक़ की अल्लाह से दुआ मांगता हूं।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बर्कत हो
(1) इस मुलाक़ात के शुरू में राष्ट्रपति सैयत इब्राहीम रईसी ने कुछ बातें पेश कीं
(2) अहमद शौक़ी (मिस्री शायर व लेखक)
(3) आले इमरान सूरे की आयत 164 का एक भाग
(4) अहज़ाब सूरे की आयत 41 और 42
(5) निसा सूरे की आयत 76 का एक भाग
(6) मुज़्ज़म्मिल सूरे की आयत 2 से 4 तक
(7) निसा सूरे की आयत 84 का एक भाग
(8) हश्र सूरे की आयत नंबर 9 का एक भाग
(9) हश्र सूरे की आयत नंबर 7 का एक भाग
(10) हदीद सूरे की आयत नंबर 25 का एक भाग
(11) निसा सूरे की आयत नंबर 5 का एक भाग
(12) तौबा सूरे की आयत 103 का एक भाग
(13) अहज़ाब सूरे की आयत 60 का एक भाग
(14) निसा सूरे की आयत 83 का एक भाग
(15) अंबिया सूरे की आयत 73 का एक भाग
(16) सजदा सूरे की आयत 24 का एक भाग
(17) काफ़ी, जिल्द-4, पेज-466
(18) आयतुल्लाह मोहम्मद अली तस्ख़ीरी (इस्लामी मतों को एक दूसरे के क़रीब लाने वाली असेंब्ली के पूर्व महासचिव)
(19) इस्लामी मतों को एक दूसरे के क़रीब लाने वाली असेंब्ली के पहले महासचिव
(20) इराक़ की इस्लामी क्रांति उच्च परिषद के पूर्व प्रमुख
(21) शौक़ दिलाया, भावना पैदा की
(22) आले इमरान सूरे की आयत 103 का एक भाग
(23) अंफ़ाल सूरे की आयत 46 का एक भाग
(24) 8 अक्तूबर को कुन्दूज़ और 15 अक्तूबर को क़ंधार प्रांत में शियों की जामा मस्जिद में हुए 2 आत्मघाती हमले में 300 से ज़्यादा लोग शहीद और घायल हुए। इन धमाकों की ज़िम्मेदारी तकफ़ीरी दाइश संगठन के आतंकियों ने ली।
(25) अहज़ाब सूरे की आयत नंबर 21 का एक भाग
(26) मिर्अतुल उक़ूल फ़ी शरहे अख़बारे आलिर रसूल, जिल्द-3 पेज-236
(27) मुद्दस्सिर सूरे की आयत नंबर 7
(28) मुज़्ज़म्मिल सूरे की आयत नंबर 10 का एक भाग
(29) क़लम सूरे की आयत 45 का एक भाग
(30) काफ़ी, जिल्द-2, पेज-91
(31) अहज़ाब सूरे की आयत नंबर 21 का एक भाग
(32) हदीद सूरे की आयत नंबर 25 का एक भाग
(33) शूरा सूरे की आयत 15 का एक भाग
(34) मायदा सूरे की आयत नंबर 8 का एक भाग
(35) क़लम सूरे की आयत नंबर-4