ऐसा मसला जो 7 दशक से अब तक हल नहीं हुआ

 

फ़िलिस्तीन का मसला समकालीन इतिहास का सबसे पुराना संकट है जो हल नहीं हुआ है; ऐसा संकट जो नाजायज़ तौर पर क़ब्ज़ा की गयी सरज़मीन के गर्भ से, दसियों लाख लोगों के बेवतन होने, मानवाधिकार के बारंबार उल्लंघन और एक के बाद एक जंगों के नतीजे में सामने आया और हर नस्ल को उसने पीड़ित किया और उसके सामने नए सवाल पैदा हुए। जो भी हल अब तक पश्चिमी ताक़तों और क्षेत्र के कुछ मध्यस्थता करने वालों की तरफ़ से पेश हुए, उसमें या तो साठगांठ को ध्रुव बनाया गया या फ़िलिस्तीन के धूर्ततापूर्ण बंटवारे के ज़रिए, उस पर नाजायज़ क़ब्ज़े की हक़ीक़त को छिपा दिया गया है। इसका नतीजा साफ़ हैः न तो स्थायी सुलह हो सकी, न बेवतनी ख़त्म हुयी, न ही सुरक्षा और न ही न्याय क़ायम हो पाया है। यह किताब, बंद गली में पहुंच चुकी स्थिति से आग़ाज़ करती हैः क्यों मौजूद सुझावों का नतीजा नहीं निकल पाया और कौन सा "वास्तविक, न्यायपूर्ण और प्रजातांत्रिक" हल इस कुचक्र को तोड़ सकता है?

 

प्रचलित हल की समीक्षाः "क़ाबिज़ सरकार से साठगांठ" से लेकर "संबंध सामान्य करने" तक

 

पिछली योजनाओं के ज़्यादातर ढांचा ऐसा थे जिसने फ़िलिस्तीन को सौदेबाज़ी के विषय में बदल दियाः ऐसी सरकार से वार्ता जो ताक़त के बल पर वजूद में आयी,

वास्तविक शासन की जगह "निम्न अधिकार वाली स्वशासित सरकारों" को क़ुबूल करना, या अमरीका के ज़रिए जो ख़ुद को चौधरी समझता है, मसले के हल होने की उम्मीद पर संबंध सामान्य करने की कोशिश करना। इन समाधानों में संकट की जड़ पर ध्यान नहीं दिया गया यानी सरज़मीन के असली मालिकों के अपने भविष्य के निर्धारण के अधिकार को और न ही फ़िलिस्तीनी क़ौम के इरादे को अहमियत दी गयी। ऐसे रवैये का नतीजा, ज़ायोनी शासन द्वारा फ़िलिस्तीन की ज़्यादा से ज़्यादा सरज़मीन को हड़पे जाने के रूप में सामने आया।

 

रेफ़्रेंडम का आयोजन, फ़िलिस्तीन के मसले का न्यायपूर्ण और प्रजातांत्रिक हल, इस्लामी गणराज्य ईरान का नज़रिया

 

इस किताब में इस्लाम की बुनियाद पर आयतुल्लाह ख़ामेनेई के विचारों को सुव्यवस्थित तरीक़े से संकलित कर, एक रौशन और टेस्ट करने योग्य समाधान पेश किया गया हैः बेवतन होने वाले सभी लोगों की वापसी के बाद, प्रशासनिक ढांचे के निर्धारण के लिए, फ़िलिस्तीन की पूरी ऐतिहासिक सरज़मीन पर- मुसलमान, ईसाई और यहूदी सहित- अस्ली फ़िलिस्तीनियों के बीच राष्ट्रीय रेफ़्रेंडम का आयोजन

इस लेहाज़ से, प्रजातांत्रिक शैली से सरज़मीन के वास्तविक मालिकों के वोट इकट्टा होंगे। इस योजना के मूल बिंदु इस प्रकार हैं:

1.      सभी बेवतन होने वालों को अपनी सरज़मीन पर लौटने का अधिकार

2.      विश्वस्नीय अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण में सुव्यवस्थित व व्यापक रेफ़्रेंडम का आयोजन

3.      पूरे फ़िलिस्तीन पर फ़िलिस्तीनियों की बहुमत से चुनी गयी सरकार का गठन

4.      पलायन करके आने वाले ग़ैर स्थानीयि निवासियों के बारे में फ़ैसला, क़ौम की राय से बनने वाली सरकार के हवाले किया जाना

 

इस किताब में यह स्पष्ट किया गया है कि यह हल न सिर्फ़ यह कि प्रजातंत्र के स्पष्ट नियमों से साज़गार है, बल्कि विश्वस्नीय अंतर्राष्ट्रीय स्टैंडर्ड- भविष्य निर्धारण के अधिकार से लेकर मानवाधिकार के प्रावधानों तक- से समन्वित है, यहाँ तक कि उसके क्रियान्वयन की तरतीब को संयुक्त राष्ट्र संघ को पेश किया गया और इसे एक दस्तावेज़ की हैसियत हासिल है।

 

क्या "रेफ़्रेंडम" सफल होगा? इसकी तीन आयामी उपोयगिता

 

नैतिकः फ़ैसले का मानदंड (सरज़मीन के मालिक) का अधिकार है। इस योजना में किसी भी धार्मिक गुट को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया है, मुसलमानों के साथ फ़िलिस्तीन के यहूदियों और ईसाइयों को आधिकारिक रूप से मान्यता दी गयी है; इस योजना में निष्पक्षता पर आधारित न्याय को बुनियाद बनाया गया है।

 

क़ानूनीः भविष्य निर्धारण का अधिकार, एक नियम है जिसमें सब शामिल हैं। रेफ़्रेंडम, इस अधिकार को हासिल करने का साधन है और यह अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के विचारों के रेकॉर्ड से भी समन्वित है।

व्यवहारिकः यह किताब नारे से हटकर "क्रियान्वयन के नक़्शे" को पेश करती हैः फ़िलिस्तीनियों की व्यापक पहचान का दर्ज होना, फ़िलिस्तीनी अवाम के प्रतिनिधियों की भागीदारी से अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति का गठन, मदद करने वाले फ़ंड क़ायम करना, चुनावी निरीक्षण के मेकनिज़्म का गठन और मतदाताओं की सुरक्षा। इसके नतीजे में चरणबद्ध रूप से आगे बढ़ना है जिसमें वापसी, मतदान, सरकार का गठन और प्रभुसत्ता का फ़ैसला शामिल है।

 

इस परिप्रेक्ष्य में रेज़िस्टेंस और डेमोक्रेसी में संबंध

 

यह किताब, फ़िलिस्तीनी क़ौम के वैध संघर्ष को, प्रजातंत्र का विकल्प, जो प्रजातंत्र को लागू करने वाला तत्व है, नहीं मानती, लेकिन जब तक वापसी के अधिकार को आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं मिलती, क़ब्ज़ा करने वालों को रेफ़्रेंडम मानने पर मजबूर करने तक, फ़िलिस्तीनी अवाम के रेज़िस्टेंस को नैतिक और राजनैतिक अधिकार मानती है। दूसरे शब्दों में रेज़िस्टेंस और रेफ़्रेंडम एक समीकरण के दो पहलू हैं जो पूरे फ़िलिस्तीन पर फ़िलिस्तीनी प्रभुसत्ता पर जाकर ख़त्म होते हैं।

 

किताब का ढांचा और विषयवस्तु

 

इस किताब में दो मुख्य भाग हैं:

 

पहले भाग में "नाकाम हो चुके हल" की सटीक समीक्षा करते हुए, दृढ़ता, साठगांठ को नकारने और "सत्य" को मानदंड बनाने की ज़रूरत को पेश करती है।

 

दूसरे भाग में "इस्लामी गणराज्य ईरान के नज़रिए" को तफ़सील से बयान किया गया हैः फ़िलिस्तीनियों का फ़िलिस्तीन से संबंध होने के उसूल से लेकर उनके फ़ैसला करने के अधिकार तक, रेफ़्रेंडम के आयोजन की तफ़सील, भागीदारी के दायरे, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के रोल और चार चरणों में लागू करना।

किताब की परिशिष्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ को आधिकारिक तौर पर भेजी गयी इबारत शामिल है जो

"राष्ट्रीय रेफ़्रेंडम" के क़ानून और कार्यान्वयन के परिप्रेक्ष्य को मज़बूती देती है।

इस किताब को कौन लोग पढ़ें?

 

वेस्ट एशिया, अंतर्राष्ट्रीय क़ानून और सुलह पर स्टडी करने वाले स्टूडेंट्स और स्कॉलर, नागरिक कार्यकर्ता, मीडिया से जुड़े लोग, योजनाकार, कूटनयिक और वे सभी लोग जो सदी के सबसे लंबे विवाद को ख़त्म करने के लिए एक न्यायपूर्ण, प्रजातांत्रिक और व्यवहारिक होने योग्य हल की तलाश में हैं। यह किताब वैचारिक आधार भी पेश करती है, क्रियान्वयन के नक़्शे को और क़ानूनी आधार को भी- ख़ास तौर पर फ़िलिस्तीनी क़ौम की आवाज़ को मसले के हल के बुनियादी मानदंड के तौर पर सामने रखती है।

 

"फ़िलिस्तीन में रेफ़्रेंडम" निरर्थक समझौतों की बंद गली से निकल कर अधिकार और मत के स्पष्ट मार्ग की ओर लौटने की दावत है। अगर हम स्थायी सुलह चाहते हैं, तो प्रभुसत्ता को उसके अस्ल मालिक को लौटा दें; और यह किताब उसे अंजाम देने के सटीक रास्ते को दिखाती है।