इमाम सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में 'तक़दीरे इलाही' (इरादा) के अनुसार, न कि उसके अटल फ़ैसले के तौर पर, इमामों के हक़ में एक बड़ा बदलाव होने वाला था। कई हदीसों से यह बात साफ़ होती है। एक हदीस में इमाम सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं: "निस्संदेह अल्लाह ने इस मामले (यानी असली इमामत) को अपनी तक़दीर में 70 हिजरी साल के लिए तय किया था।" (किताब-ए-काफ़ी, जिल्द 1, पेज 368, थोड़े अंतर के साथ)  
देखो! जब इमाम हसन मुजतबा (अ.स.) ने मुआविया के साथ सुलह की, तो कुछ लोग उनके पास आकर शिकायत और एतराज़ करते थे। इमाम उनसे कहते थे: "तुम नहीं जानते, शायद यह तुम्हारे लिए एक इम्तेहान है और कुछ समय के लिए फ़ायदेमंद है।" यानी यह एक अस्थायी दौर है।  
इमाम हसन (अ.स.) के इन शब्दों से पता चलता है कि कुफ़्र और निफ़ाक़ का यह दबदबा हमेशा के लिए नहीं है, बल्कि तक़दीरे इलाही में यह सिर्फ कुछ समय के लिए है। लेकिन कब तक? 70 हिजरी तक। यानी इस हदीस के मुताबिक़, 70 हिजरी में अहलेबैत में से जो भी ज़िंदा होगा, वह क़ेयाम करेगा और हुकूमत संभालेगा, और असली इमामत क़ायम हो जाएगी।  

फिर इमाम (अ.स.) ने कहा: "लेकिन जब इमाम हुसैन (अ.स.) शहीद हो गए, तो धरती वालों पर अल्लाह का ग़ुस्सा बढ़ गया और उसने इस तक़दीर को टालकर 140 हिजरी तक के लिए आगे बढ़ा दिया।" यानी कर्बला की घटना, लोगों की दीनी मूल्यों से बेपरवाही और उनके मुंह मोड़ने का नतीजा यह निकला कि यह तक़दीर आगे खिसक गई और 140 हिजरी तक के लिए टल गई।  
140 हिजरी, इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) का ज़माना है, क्योंकि आपकी शहादत 148 हिजरी में हुई। शिया लोग इस बात को जानते थे, ख़ासकर शिया ख़वास (विशिष्ट लोग) को इसका इल्म था। इसीलिए एक हदीस में है कि ज़ुरारा, जो इमाम के क़रीबी साथियों में से थे, अपने दोस्तों से कहते थे: "तुम इस तख़्त (ख़िलाफ़त) पर जाफ़र (अ.स.) के अलावा किसी और को नहीं देखोगे।" (रिजाल-ए-कश्शी, पेज 156)  
इस हदीस में "अवाद" (लकड़ियाँ) से मुराद ख़िलाफ़त के मिंबर (मंच) के सुतून हैं, यानी मैं देख रहा हूँ कि जाफर (अ.स.) ही इस मिंबर पर बैठेंगे। बात यही है।  
  
एक और रिवायत में है कि ज़ुरारा (जो कूफ़ा में रहते थे) ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) को संदेश भेजकर कहा: "हमारे एक शिया दोस्त पर क़र्ज़ चढ़ गया है, और क़र्ज़दार उसका पीछा कर रहे हैं। पैसे न होने की वजह से वह शहर छोड़कर बेघर हो गया है। अगर यह मामला (यानी ख़िलाफ़त का क़ायम होना) एक-दो साल में होने वाला है– रिवायत के शब्द हैं: 'हाज़ल अम्र' (यानी अगर यह घटना होने ही वाली है) – तो वह सब्र कर ले, जब आप हुकूमत संभाल लेंगे तो उसका मसला हल हो जाएगा। लेकिन अगर यह मामला लंबा खिंचने वाला है, तो दोस्त चंदा करके उसका क़र्ज़ चुका दें।" (रिजाल-ए-कश्शी, पेज 157)  
यानी ज़ुरारा जैसे लोगों को उम्मीद थी कि यह घटना एक-दो साल में ही हो जाएगी। आप देखते हैं कि लोग इमाम सादिक़ (अ.स.) के पास आकर बार-बार पूछते थे: "मौला! आप क़ेयाम (संघर्ष) क्यों नहीं करते?" यह सब इसलिए था क्योंकि वे किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहे थे – उन्होंने कोई बात सुन रखी थी, कोई ख़बर उन तक पहुँची थी।  
इस रिवायत के बाद (जिसमें 140 हिजरी का ज़िक्र था), इमाम सादिक़ (अ.स.) ने फ़रमाया: "तुम लोगों ने (इस राज़ को) फैला दिया, तो अल्लाह ने इसे टाल दिया।"  
यानी अगर शिया अपनी ज़बानों पर क़ाबू रखते और इस राज़ को फैलाते नहीं, तो शायद उसी निर्धारित वक़्त पर यह घटना हो जाती। सोचिए! इतिहास कितना बदल जाता! इंसानों का रास्ता ही कुछ और होता और आज की दुनिया बिल्कुल अलग होती।  
यानी हमारी कमियाँ –कभी हमारी बेपरवाह बातें, कभी हमारा साथ न देना, कभी बेजा एतराज़, कभी हमारा सब्र न करना, कभी हालात की ग़लत समझ– ये सब कभी-कभी ऐसे ऐतिहासिक असर डालते हैं कि पूरा रास्ता ही बदल जाता है। इसलिए हमें बेहद सावधान रहना चाहिए।  
बेशक, इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की ज़िंदगी एक ग़ैर-मामूली, हैरतअंगेज़ और कामयाब ज़िंदगी थी, ख़ास तौर पर अल्लाह के अहकाम की तबलीग़ और उनके फैलाने के लिहाज़ से। हमारे पास आप (अ.स.) और आपके साथियों की रिवायतों का एक बड़ा ख़ज़ाना मौजूद है। हालाँकि, जब आपके चार हज़ार (4000) शागिर्दों का ज़िक्र किया जाता है, तो सुनने वाले के दिमाग़ में यह तस्वीर आती है कि जैसे इमाम ने कोई दर्स शुरू किया हो और चार हज़ार लोग एक ही वक़्त में बैठकर सबक़ ले रहे हों। असल में मामला ऐसा नहीं था।  
असल में, इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की पूरी ज़िंदगी में अलग-अलग वक़्त पर आपसे इल्म हासिल करने वाले शागिर्दों की कुल तादाद चार हज़ार तक पहुँचती है – जैसा कि तारीख़ी किताबों में लिखा है। यानी आपके चार हज़ार रावी (हदीस बयान करने वाले) हैं, यही चार हज़ार शागिर्दों का मतलब है। ऐसा नहीं कि एक ही वक़्त में चार हज़ार लोग आपके दर्स (क्लास) में शामिल होते थे और आप उन्हें तालीम देते थे।  
हम मासूम इमामों (अ.स.) की ज़िंदगी से बहुत कम वाक़िफ़ हैं; न हमें उनके कलाम का पूरा इल्म है, न बयानात का, न रिवायतों का और न ही उनकी ज़िंदगी के हालात का।  
जिन रिवायतों में यह बयान किया गया है कि इमाम सादिक़ (अ.स.) को मंसूर (अब्बासी ख़लीफ़ा) के सामने पेश किया गया और मंसूर ने आप पर सख़्त ग़ुस्सा जताया, फिर इमाम (अ.स.) ने कहा: "ऐ मेरे चचा-ज़ाद! बड़े-बड़े पैग़म्बर मज़लूम हुए, उन्होंने माफ़ किया, तुम भी हमें माफ़ कर दो" – मैं साफ़-साफ़ कहता हूँ कि यह सारी बातें झूठ हैं, बिल्कुल यह वाक़यात हक़ीक़त नहीं रखते। इमाम (अ.स.) किसी से भी इस तरह गुफ़्तगू नहीं करते, चाहे जान का ख़तरा हो या न हो, किसी भी हालत में। इमाम (अ.स.) का अंदाज़-ए-कलाम ही ऐसा नहीं होता। यह रिवायत किसने नक़्ल की है? रबीअ ने; जो मंसूर का ख़ादिम  और उसका हरकारा था! एक दरबारी झूठा शख़्स जिसने यह क़िस्सा गढ़ लिया।  
यह रिवायत दरअसल शियों के ज़ज़्बे को कमज़ोर करने के लिए एक हथकंडा है, इसलिए ऐसी रिवायतों को दोहराने से पूरी तरह परहेज़ करना चाहिए। कुछ लोग बे-वजह इन्हें दोहराते हैं, हालाँकि यह सही रिवायतें नहीं हैं। इमाम (अ.स.) हमें इस्तिक़ामत (डटे रहना), साबित-क़दमी और मंतिक़ (तर्क) की तालीम देते हैं; वह अपनी गुफ़्तगू में दलील और ठोस तर्क से काम लेते हैं, मुख़ालिफ़ को उसी की बातों में उलझा देते हैं।  
आप ग़ौर करें कि हज़रत ज़ैनब (स.अ.) ने इब्ने ज़ियाद के दरबार में और यज़ीद के सामने कैसे हक़-गोई और बे-ख़ौफ़ी का मुज़ाहिरा किया! यही सच्चा ख़िताब है, यही मासूम इमामों (अ.स.) का अस्ल तरीक़ा है। जो कोई भी हक़ पर डट जाता है, वह असल में इन हस्तियों के नक़्श-ए-क़दम पर चल रहा है।  
आज भी ग़ज़ा और लेबनान में जो मुजाहिदीन इस्तिक़ामत के साथ खड़े हैं, वह अमली तौर पर इन्हीं इमामों (अ.स.) के रास्ते पर गामज़न हैं।