रहबरे इंक़ेलाब आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने 21 सितम्बर 2024 को पैग़म्बरे इस्लाम और उनके फ़रज़ंद इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिन के मौक़े पर इस्लामी एकता कान्फ्रेंस के मेहमानों, वरिष्ठ ओहदेदारों और इस्लामी मुल्कों के राजदूतों से मुलाक़ात में तक़रीर करते हुए इस्लामी उम्मा और विशेष रूप से फ़िलिस्तीन संकट के बारे में बात की।
21/09/2024
तक़रीरः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल और उनके चुने हुए सहाबियों पर और उन सब पर जो नेकी से उनकी पैरवी करते हों क़यामत तक।
आप सब का स्वागत करता हूँ, सभी मेहमानों का, इस्लामी एकता सप्ताह के सभी मेहमानों और तेहरान में इस्लामी देशों के राजदूतों का और इसी तरह ईदे मीलादे नबी और हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की विलादत के अवसर पर आप सब को मुबारक बाद भी पेश करता हूँ। अल्लाह से दुआ है कि वह इस दिन को ईद क़रार दे और ईरान व इस्लामी उम्मत और पूरी इस्लामी दुनिया के लिए इसे मुबारक बनाए। मैं सम्मानीय राष्ट्रपति का शुक्रिया अदा करता हूँ कि उन्होंने अपनी आज की तक़रीर में कई अहम बातें कहीं इस्लामी एकता के बारे में कि जिस पर मैं भी अपनी बातें में चर्चा करूंगा। इन्शाअल्लाह
पैग़म्बरे इस्लाम की विलादत का दिन तारीख़ में एक अलग दिन है। उसकी वजह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम की विलादत, आख़िरी नुबूव्त के लिए ज़रूरी भूमिका है और आख़िरी नबी दरअस्ल, इंसानों की निजात व कामयाबी का संपूर्ण और आख़िरी फ़ार्मूला है। इस बुनियाद पर यह बहुत अहम दिन है।
मैं एक बात, एक जुमला पैग़म्बरों के इस आम मिशन के बारे में कहता चलूं। अगर हम इंसानी तारीख़ के सफ़र को एक ऐसे कारवां की तरह समझें जो एक राह पर चल रहा है और इंसान समय के इस तारीख़ी सफ़र में, समय की राह पर आगे बढ़ रहा है तो इस सफ़र में यक़ीनी तौर पर क़ाफ़िला सालार अल्लाह के पैग़म्बर हैं। नबी, रास्ता भी दिखाते हैं और इसके साथ ही हर इंसान में दिशा पहचाने की योग्यता भी पैदा करते हैं। सिर्फ़ रास्ता ही दिखाना नहीं है, बल्कि वह हर इंसान में पहचान व शिनाख़्त की शक्ति को बढ़ाते हैं, हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शब्दों में: ताकि उन्हें (इंसानों को) फ़ितरत का वादा अदा करने के लिए प्रेरित करें और अल्लाह की भुला दी गई नेमतों को याद दिलाएं और उनके अक़्लों के दफ़्न ख़ज़ाने को बाहर लाएं”(2) लोगों के साथ यह रवैया होता हैः फ़ितरत को जगाते हैं, अक़्ल को सक्रिय करते हैं, उससे काम लेने का तरीक़ा सिखाते हैं और इंसान उसकी मदद से आगे बढ़ सकता है। यक़ीनी तौर पर हर ज़माने में, हर दौर में इस कारवां के लोग, यानि इंसानों ने, पैग़म्बरों की बातें सुनीं, उन्होंने जो रास्ता दिखाया उस पर इंसान चले और उसका असर भी देखा, लेकिन कुछ ज़मानों में इसका उल्टा हुआ। लोग पैग़म्बरों के सामने खड़े हो गये, उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया, उनके मार्गदर्शन को नज़रअंदाज़ कर दिया, उन्होंने भी इसका बुरा नतीजा देखा, यह इंसानी तारीख़ की जो घटनाएं हैं कि कुछ लोगों ने हिदायत का रास्ता अपनाया, कुछ ने नहीं अपनाया, यह इंसानी तारीख़ की जो आने जाने वाली घटनाएं हैं, उसी से तारीख़ बनी है। यानि मोर्चाबंदी, टकराव, सत्य व असत्य के बीच, ईमान न व कुफ़्र के बीच, जो कुछ हुआ है वह इसी बदलाव का परिणाम है, इंसानी तारीख़ का सार यह है।
पैग़म्बरों ने इस मार्गदर्शन, देखरेख और इंसानों की मदद और उन्हें सही राह की ओर बुलाने का काम विभिन्न तरीक़ों से अंजाम दिया, क़ुरआने मजीद ने इन तरीक़ों को विभिन्न हिस्सों में बयान किया है जिनमें से कुछ का मैं यहां पर ज़िक्र करता हूँ। एक जगह फ़रमाया है कि पैग़म्बरों का फ़र्ज़ “पहुंचाना” है।(3) बस यही और इसके अलावा कोई और ज़िम्मेदारी नहीं है। कभी यह भी होता है लेकिन कभी कभी यह फ़रमान होता है कि हमने जो भी रसूल भेजा उसकी पैरवी की जानी चाहिए(4) यानि राजनीतिक ढांचा तैयार करे, समाज को मज़बूत करे और सब का फ़र्ज़ हैं कि उसकी बातें सुनें, उसके हुक्म की तामील करें और यह सब करें। कहीं कहा जाता है कि अपने परवरदिगार की तरफ़ अच्छी तरह से बुलाओ (5) लोगों को बुलाने का तरीक़ा बताया गया है। दूसरी जगह कहा जाता है कि बहुत से पैग़म्बर थे जिनके साथ बहुत लोगों ने जंग की... (6) इसके आख़िर तक जो कहा गया है। कहीं अच्छी तरह से बुलाने की बात है, कहीं सैन्य ताक़त की बात कही गयी है, सब कुछ हालात के हिसाब से है। या एक जगह कहा गया है कि अगर तुम सख़्त होते तो सब तुम्हारे पास से हट जाते (7) यहां पर सख़्त होने की बात कही गयी है अगर दिल सख़्त होता तो यह मिशन आगे नहीं बढ़ा पाते। एक और जगह कहा जाता है कि काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जेहाद करो और उस पर सख़्ती करो, (8) यहां पर भी उसी सख़्ती की बात की गयी है। इस आधार पर सही राह की ओर बुलाने का तरीक़ा एक नहीं है। सही राह की ओर बुलाने के लिए पैग़म्बरों का तरीक़ा अलग अलग हालात में, अलग अलग दौर में, अलग अलग जगहों पर, अलग हो जाता है। यह जो हम कहते हैं कि वह इंसान की अक़्ल को बेहतर बनाते हैं, पहचान की ताक़त बढ़ाते हैं तो उसका अर्थ यही है कि हर ज़माने में वह देखते हैं कि किस तरह से इस मिशन को आगे बढ़ाएं, किस तरह से लोगों की हिदायत करें।
यह जो मैंने कहा है कि यह बयान करना है, मिसाल देना है। हमने कहा कि इंसानी तारीख़ के इस विशाल कारवां में पैग़म्बर सारबान हैं, काफ़िले का मार्गदर्शन करने वालों में निश्चित रूप से अस्ली व स्थायी क़ाफ़िला सालार और सारबान हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम हैं। जैसा कि एक बड़े आरिफ़ ने कहा हैः
इस राह में पैग़म्बर सारबान की तरह हैं
कारवां को रास्ता दिखाने वाले और मार्गदर्शक हैं
और उनमें हमारे सैयद, सरदार हैं
पहले भी और आख़िर में भी (9)
“पहले” हैं क्योंकि अल्लाह के पैग़म्बरों में सब से आगे हैं। “आख़िर” में हैं क्योंकि वह अल्लाह की तरफ़ से सब से ज़्यादा मुकम्मल और आख़िरी दीन इंसानों के सामने पेश करते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम की विलादत का दिन ज़ाहिर सी बात है सूरज के उदय होने का दिन है, इस कायनात के बेशक़ीमती हीरे के चेहरे से नक़ाब हटाए जाने का दिन है, इस बुनियाद पर यह बहुत बड़ा दिन है, बहुत अहम दिन है। हमें इस दिन को कम नहीं समझना चाहिए। तो हमें सबक़ हासिल करना चाहिए, सिर्फ़ तारीफ़ और गुणगान ही काफ़ी नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम ने जो पाठ दिया है वह एक मुकम्मल, व्यापक और हर पहलु से पूरा सबक़ है कि जो पूरी ज़िदंगी के लिए है, उसके तमाम हिस्सों पर बहुत लंबी चौड़ी चर्चा की जा सकती है।
पैग़म्बरे इस्लाम की ज़िंदगी का एक सबक़ जो शायद उनका सब से बड़ा सबक़ हो, उसका मैं यहां पर ज़िक्र कर रहा हूँ और वह सबक़ यह हैः
उम्मत तैयार करना, “इस्लामी उम्मत” की रचना। मक्का में 13 बरसों के संघर्ष के नतीजे में हिजरत हुई जो इस्लामी उम्मत की बुनियाद बनी। इस्लामी उम्मत की शुरुआत हिजरत से हुई, इसमें कठिनाइयां थीं, समस्याएं थीं, भूख थी, सुफ़्फ़ा वालों (10) के दुख थे और इसके साथ ही मदीना के लोगों की परेशानियां, हिजरत करके मदीना पहुंचने वालों की अपनी समस्याएं, मदीना के रहने वालों की अपनी समस्याएं थीं जिन्हें सब ने सहन किया और अपनी राह पर बढ़ते रहे और इस तरह से संघर्ष, बलिदानों और जद्दो-जहद से इस्लामी उम्मत की रचना हुई, पैग़म्बरे इस्लाम के दौर में जो बलिदान दिये गये, उनके बाद जो क़ुर्बानी दी गयी और त्याग किया गया, उनकी वजह से यह उम्मत बाक़ी रही। हाँ बाद में जिस तरह से यह सब काम हुआ वह उससे बेतहर तौर पर भी हो सकता था लेकिन इस्लामी उम्मत, उस उम्मत के रूप में जिसकी नींव पैग़म्बरे इस्लाम ने मदीना में रखी थी, वह बाक़ी रही। हमें आज इस सबक़ की ज़रूरत है, आज हमारे पास इस्लामी उम्मत नहीं है। इस्लामी देश तो बहुत हैं, दुनिया में लगभग 2 अरब मुसलमान हैं लेकिन इन्हें “उम्मत” का हिस्सा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें समन्वय नहीं है, क्योंकि उनकी दिशा एक नहीं है।
उम्मत यानि वह लोग जो एक दिशा में, एक मक़सद के लिए, एक भावना के साथ आगे बढ़ रहे हों, हम इस तरह के नहीं हैं, हम अलग अलग हैं। इस अलगाव का नतीजा, इस्लाम दुश्मन ताक़तों का वर्चस्व है, इस बिखराव का नतीजा यह है कि एक इस्लामी देश को यह लगता है कि अगर उसे खड़ा रहना है तो अमरीका का सहारा लेना पड़ेगा, अगर हमारे बीच बिखराव न होता, तो उसे इसकी ज़रूरत नहीं होती।
हम एक दूसरे के साथ मिल कर, एक दूसरे का हाथ पकड़ कर, एक दूसरे के संसाधनों से लाभ उठा सकते थे, एक दूसरे की मदद कर सकते थे, एक “यूनिट” बन सकते थे, यह “यूनिट” आज दुनिया की हर ताक़त से ज़्यादा ताक़तवर हो सकती थी। जैसा कि किसी दौर में यही हालत थी, उसमें जो भी कमियां रही हों, लेकिन उन सब के बावजूद, चूंकि सब एक थे, इस लिए उन्हें एक ताक़त समझा जाता था, हम आज इस तरह के नहीं हैं। यह हमारे लिए आज का सब से बड़ा सबक़ है, हमें एक दूसरे से क़रीब होना चाहिए।
हमें आज इस्लामी उम्मत की रचना की ज़रूरत है, यानि हमें इसके लिए कोशिश करना चाहिए। इस में हमारी मदद कौन कर सकता है? सरकारें असर डाल सकती हैं, लेकिन सरकारों में जज़्बा बहुत मज़बूत नहीं है। इस जज़्बे को जो लोग मज़बूत कर सकते हैं वह इस्लामी दुनिया के असरदार लोग हैं, यानि आप लोग ही, राजनेता, दीनी ओलमा, पढ़े लिखे लोग, युनिवर्सिटियों से जुड़े लोग, असरदार लोग, नज़रिया रखने वाले लोग, शायर, लेखक, राजनीतिक व सामाजिक टीकाकार, यह लोग असर डाल सकते हैं। यह मान लें कि अगर अगले 10 बरसों तक इस्लामी दुनिया का प्रिंट मीडिया मुसलमानों में एकता की ही बात करे, आर्टिकल लिखे जाएं, शायर शेर कहे, टीकाकार समीक्षा करे, यूनिवर्सिटी टीचर उसे बयान करे, दीनी आलिम उसका हुक्म दे, तो निश्चित रूप से इन बरसों में हालात पूरी तरह से बदल जाएंगे, जब क़ौमें जाग जाएंगी, जब क़ौमों को दिलचस्पी होगी, तो सरकारें उसी दिशा में बढ़ने के लिए मजबूर हो जांएगी। समाज के ख़ास और अरसदार लोग यह काम कर सकते हैं, यह हमारा फ़र्ज़ है।
यक़ीनी तौर पर मैं जो यह बात कह रहा हूँ, एकता बनाना और इस्लामी उम्मत की रचना की बात, तो उसके दुश्मन भी हैं, इस्लाम के दुश्मन, इस्लाम के दुश्मनों के बारे में सोचें, उन पर काम करें, किसी देश का दुश्मन होना अहम नहीं, कुछ लोग हैं जो इस्लाम के दुश्मन हैं, भले ही मुसलमानों के एक हिस्से के साथ दिखावे के तौर पर क़रीब भी होते हैं ताकि दूसरे हिस्से को तबाह कर सकें लेकिन वह भी अस्ल बात यह है कि इस्लाम के दुश्मन हैं, यह लोग इस्लामी उम्मत की रचना नहीं चाहते, यह नहीं चाहते कि एकता पैदा हो, यह लोग इस्लामी दुनिया में सांप्रदायिकता की आग भड़काते हैं।
दुनिया के समाजों में एक सब से संवेदनशील चीज़, दीनी और आस्था संबंधी मामले होते हैं, यह भूकंप की पट्टी की तरह होते हैं। अगर वह पट्टी सक्रिय हो गयी, तो इतनी आसानी से उसे निष्क्रिय नहीं किया जा सकता। सलीबी जंगे 200 बरस तक चलीं और सच में यह जंग सलीबी थी, दीनी जंग थी और धार्मिक आस्थाओं के लिए लड़ी गयी थी। वह एकता नहीं होने देंगे, वह नहीं चाहते कि एकता हो। दुश्मन की इस इच्छा के पूरे होने की राह में रुकावट बनना चाहिए। यह जो इमाम ख़ुमैनी ने इन्क़ेलाब की कामयाबी से पहले ही इस्लामी दुनिया में, शिया व सुन्नी में एकता पर इतना ज़ोर दिया है तो उसकी वजह यही है, क्योंकि इस्लामी दुनिया की ताक़त का स्रोत, एकता है और दुश्मन की इच्छा इसके उलट है और इसकी उल्टी दिशा में वह काम कर रहा है, कोशिश कर रहा है। यह हमारा आज का सबक़ है, पैग़म्बरे इस्लाम से।
यक़ीनी तौर पर हमें भी और देश की जनता को भी ख़याल रखना चाहिए कि अगर हम यह चाहते हैं कि हमारा पैग़ाम, एकता का हमारा संदेश, पूरी दुनिया में सच्चाई से सुना जाए, तो सब से पहले हमें अपने भीतर एकता पैदा करना चाहिए। पसंद के फ़र्क़ को, नज़रिये के फ़र्क़ को या राजनीतिक विवाद और इस तरह की दूसरी चीज़ों को, इस्लामी उम्मत के बीच सहयोग, तालमेल और एकता की राह में रुकावट नहीं बनना चाहिए, हमें अस्ल मक़सद की तरफ़ बढ़ना चाहिए। अगर यह हो जाता है तो फिर दुश्मन, भ्रष्ट व दुष्ट ज़ायोनी शासन जैसी सरकार को इस बात की अनुमति ही नहीं देगा कि वह इस इलाक़े में इतने भयानक जुर्म करे। आज देखें ज़ायोनी हुकूमत क्या कर रही है? यानि जो अपराध कर रहा है वह सब बिना किसी शर्म के, बिना कुछ छिपाए। ग़ज़ा में एक तरह से, पश्चिमी तट के इलाक़े में दूसरी तरह से, लेबनान में अलग अंदाज़ में, सीरिया में दूसरे तरीक़े से, अपराध कर रहा है। सही अर्थों में अपराध। उनके सामने मैदाने जंग के लोग नहीं हैं, उनके सामने आम जनता है। फ़िलिस्तीन में जंग करने वाले युवाओं को नुक़सान नहीं पहुंचा सके तो अपना जेहालत व दुष्टता से भरा ग़ुस्सा, छोटे छोटे बच्चों, अस्पतालों और स्कूलों पर उतार दिया। यह इस लिए हैं क्योंकि हम अपनी भीतरी शक्ति का इस्तेमाल नहीं करते, हमें इस्तेमाल करना चाहिए। यह हमारी अंदरूनी ताक़त, ज़ायोनी शासन को, इस दुष्टता भरे कैंसरे के फोड़े को, इस्लामी दुनिया के दिल यानि फ़िलिस्तीन से हटा देगी, ख़त्म कर देगी और इस इलाक़े से अमरीका का धौंस व धमकी पर आधारित हस्तक्षेप व वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा, हम यह काम कर सकते हैं।
आज इस अपराधी और हत्यारे गुट के ख़िलाफ़ जो फ़िलिस्तीन पर शासन कर रहा है और फ़िलिस्तीन पर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर रखा है पहला क़दम और इस्लामी दुनिया में एकता के लिए सब से पहला काम यह है कि इस्लामी देश, अपने आर्थिक संबंध इस माफ़िया से पूरी तरह से ख़त्म कर लें, यह वह सब से मामूली काम है जो वह कर सकते हैं, उन्हें यह काम करना चहिए। आर्थिक संपर्क ख़त्म कर दें, राजनीतिक संबंध कम कर दें, प्रेस, मीडिया जैसे साधनों को मज़बूत करें और खुल कर यह एलान करें और यह ज़ाहिर करें कि हम सब फ़िलिस्तीन की पीड़ित जनता के साथ हैं।
दुआ है कि अल्लाह हम सब की हिदायत करे। सरकारों, क़ौमों, ख़ास लोगों और काम करने वालों का मार्गदर्शन करे, उन्हें सक्रिय करे ताकि हम अपनी यह ज़िम्मेदारी पूरी कर सकें।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू