यह प्रस्ताव जिसके विरोध में तीन और पक्ष में 19 वोट पड़े, पास हो गया जबकि 12 सदस्यों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। रूस, चीन और नाइजीरिया ने इस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया। प्रस्ताव में ईरान से मुतालेबा किया गया है कि वह आईएईए के निरीक्षकों को उन प्रतिष्ठानों तक पहुंच मुहैया कराए जिन पर 12 दिवसीय जंग में हमला हुआ था।

यह बिना औचित्य का ग़ैर क़ानूनी प्रस्ताव ऐसी स्थिति में पारित हुया है कि बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्ज़ के क़रीब आधे सदस्यों ने इसके पक्ष में वोट नहीं दिया और जो बिंदु ध्यानयोग्य है वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों ने इसके ख़िलाफ़ वोट दिया है। इस प्रस्ताव ने एक बार फिर साबित कर दिया कि आईएईए, पश्चिम के हितों में काम करने वाला संगठन है और इस बात में शक नहीं कि इस वक़्त यह स्थिति ज़्यादा गंभीर हो गयी है। 

पाँच महीने पहले आईएईए ने एक पक्षपातपूर्ण और ईरान विरोधी रिपोर्ट पेश करके एक तरह से ज़ायोनी सरकार और अमरीका के लिए ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले का रास्ता खोल दिया था और एक हैरतअंगेज़ रवैया अख़्तियार करते हुए न तो उन हमलों की और न ही ईरान के परमाणु वैज्ञानिकों और उनके घर वालों की हत्या की निंदा की। इसके बावजूद इस्लामी गणराज्य ईरान ने इस संगठन के साथ सहयोग जारी रखा और इस्लामी गणराज्य ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास इराक़ची ने 9 सितम्बर को क़ाहेरा में एजेंसी के डाटरेक्टर जनरल रफ़ाएल ग्रोसी के साथ एक समझौते पर दस्तख़त किए ताकि दोनों पक्षों के बीच मुआयने की प्रक्रिया के संबंध में सहयोग का रास्ता खुल सके। इसके बावजूद तीन योरोपीय मुल्कों ने अमरीका के सपोर्ट और परमाणु समझौते में विवाद के हल के मेकनिज़्म का, जिसे "ट्रिगर मेकनिज़्म" कहा जाता है, ग़लत इस्तेमाल किया और ईरान के ख़िलाफ़ सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों को फिर से सक्रिय करने की कोशिश की, हालांकि ईरान ने रूस और चीन के साथ मिलकर इस प्रक्रिया को नहीं माना और आधिकारिक तौर पर एलान कर दिया कि वह इसकी पाबंदी नहीं करेंगे क्योंकी क़ानूनी नज़र से इस क़दम की कोई हैसियत नहीं है।

बहरहाल ईरान की नज़र से, पश्चिम द्वारा "ट्रिगर मेकनिज़्म" का ग़ैर क़ानूनी इस्तेमाल, क़ाहेरा समझौते के ताबूत में आख़िरी कील साबित हुआ और उसने इसे ख़त्म कर दिया। ध्यान देने योग्य बिंदु यह है कि पश्चिमी ताक़तें वह चीज़ चाहती हैं जिसे उन्होंने ख़ुद तबाह कर दिया है। अब अमरीका से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या ट्रम्प अब तक बार बार ईरान के परमाणु प्रतिष्ठान के पूरी तरह नष्ट होने का दावा नहीं कर चुके हैं? तो फिर अब वे किस चीज़ से भयभीत हैं और किस चीज़ का मोआयना करवाना चाहते हैं? किस चीज़ को माना जाए? ईरान के परमाणु प्रतिष्ठान के नष्ट होने के दावे को या फिर चिंताओं और बहानेबाज़ियों को?!

पश्चिमी सरकारें शांति और स्थिरता के बारे में फ़िक्रमंद नहीं हैं क्योंकि अगर ऐसा होता तो उन्हें उस सरकार की परमाणु सरगर्मियों के बारे में चिंतित होना चाहिए था जिसके हाथों से ग़ज़ा पट्टी में नस्ली सफ़ाए का ख़ून अब भी टपक रहा है और साथ ही उसके परमाणु प्रतिष्ठानों और सरगर्मियों की कोई निगरानी भी नहीं है। अस्ल बात यह है कि पश्चिम वाले ख़ुद दूसरों से बेहतर जानते हैं कि इस्लामी गणराज्य ईरान परमाणु हथियारों की कोशिश में नहीं है और यह मामला शुरू से ही पूरी तरह एक राजनैतिक और ग़ैर तकनीकी मामला रहा है।

इस मामले का एक लक्ष्य ईरान पर ग़ैर क़ानूनी दबाव डालना और पाबंदियां लगाने के लिए बहाने निकालना है और हक़ीक़त में वे इस बात पर बौखलाए हुए हैं कि ईरान जैसा मुल्क जो कठिन से कठिन पाबंदियों का सामना कर रहा है और हर तरह की विध्वंसक गतिविधियों का निशाना बना हुआ है, यह अहम और मूल टेक्नॉलोजी कैसे हासिल कर सकता है और दूसरे मुल्कों के लिए एक मिसाल बन सकता है कि पश्चिम के आगे झुके बिना और उस पर निर्भर हुए बिना भी तरक़्क़ी की जा सकती है।

वे इस वजह से तैश में हैं और यूरेनियम एनरिचमेंट के ईरान के स्वदेशी उद्योग को ख़त्म करने पर उनका अड़ना, हक़ीक़त में अपनी राष्ट्रीय स्वाधीनता की रक्षा और उसकी मज़बूती के ईरान के संकल्प के मुक़ाबले में अपनी धौंस और मुंहज़ोरी को थोपने की उनकी एक कोशिश है।