स्पीच
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक नस्ल और उनके चुने हुए साथियों और भलाई में उनका पालन करने वालों पर क़यामत के दिन तक। 
भाइयो और बहनो आपका स्वागत है! मोहब्बत और ख़ुलूस से भरी बहुत ही आनंदायक सभा है। अलहम्दोलिल्लाह अनेक हस्तियां नज़र आ रही हैं। उम्मीद है कि इंशाअल्लाह दिल एक दूसरे से ज़्यादा निकट होंगे। पिछले साल इस सभा में शहीद रईसी (रिज़वानुल्लाह अलैह) मौजूद थे और उन्होंने अपनी सेवाओं और ज़हमतों की विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी। आज इंशाअल्लाह अल्लाह की कृपा से वह उन ज़हमतों का सिला अल्लाह की रहमत और कृपा के दस्तरख़ान से पा रहे हैं। आप आला अधिकारी इन सेवाओं को इस नज़र से देखें। ज़िंदगी अल्लाह के हाथ में है; कल हम कहाँ होंगे, कैसे होंगे मालूम नहीं है। इस नज़र से देखें कि अगर आज आपने कोई सेवा अपने ज़िम्मे ली है तो उसी जज़्बे से, निष्ठा के साथ और पूरी क्षमता के साथ अंजाम दें जिसे सम्मानीय राष्ट्रपति ने बयान किया है। इसका अज्र और इनाम इतना बड़ा है कि इस दुनिया में नहीं दिया जा सकता; अल्लाह स्वर्ग में, अपनी रहमत के साए में, परलोक में इंशाअल्लाह आपको उसका अज्र देगा। अलबत्ता अच्छे काम का असर दुनिया में भी होता है। 
मैं सबसे पहले तो सम्मानीय राष्ट्रपति डाक्टर पेज़िश्कियान का स्पीच के लिए शुक्रिया अदा करता हूं। बहुत अच्छी और प्रभावी स्पीच दी। जिस चीज़ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया और मैंने अनेक बार ख़ुद उनसे भी कहा है, वे जज़्बे और कैफ़ियत हैं जो उनके भीतर पायी जाती हैं। यह बहुत अहम है। यह एहसास और जज़्बा कि "हम कर सकते हैं, निश्चित तौर पर अंजाम देंगे, पैरवी करेंगे, अल्लाह पर भरोसा करते हैं, अल्लाह के अलावा किसी पर भरोसा नहीं करते" उनका यह जज़्बा बहुत अहम है और इंशाअल्लाह अल्लाह की मदद से यह काम अंजाम देंगे। उम्मीद है कि इंशाअल्लाह वो दिन ज़्यादा दूर नहीं जब वे लोगों के सामने खड़े होंगे और उन बड़ी उमंगों को पूरा होते हुए देखेंगे और अवाम को अच्छी ख़बर देंगे और उन्हें ख़ुश कर देंगे।
मैंने आज इस सभा में अर्ज़ करने के लिए कुछ बातें रमज़ानुल मुबारक के संबंध में तैयार की हैं और कुछ बातें मुल्क के मौजूदा मुद्दों के बारे में, जिनका संबंध हमसे हैं, अर्ज़ करुंगा।
रमज़ानुल मुबारक के संबंध में यह अर्ज़ करना है कि रमज़ान का महीना ज़िक्र का महीना है, क़ुरआन का महीना है और क़ुरआन ज़िक्र की किताब है। सूरए हिज्र में है कि "बेशक हमने ही ज़िक्र (क़ुरआन) उतारा है..."(2) (सूरए हिज्र, आयत-9) और इसी तरह सूरए अनबिया में है कि "और यह (क़ुरआन) बाबर्कत नसीहतनामा है जिसे हमने नाज़िल किया है। क्या तुम उसका इंकार करते हो?"(3) (सूरए अनबिया, आयत-50) और दूसरी अनेक आयतें हैं। क़ुरआन ज़िक्र है, ज़िक्र का स्रोत है, किताब ज़िक्र है। 'ज़िक्र' क्या है? ज़िक्र ग़फ़लत और फ़रामोशी के ठीक विपरीत बिन्दु है। इंसान की मुसीबतों में एक फ़रामोशी है; कोई ज़रूरी काम फ़रामोश कर देते हैं, कोई फ़ायदेमंद बात भूल जाते हैं। लेकिन दो फ़रामोशियां ऐसी हैं जिनकी भरपाई नहीं हो सकती और उनसे बहुत नुक़सान होता है। एक अल्लाह को भूल जाना है, इंसान अल्लाह को भूल जाता है; और दूसरी ख़ुद को भूल जाना है। ये दो फ़रामोशियां इंसान के भविष्य को जो नुक़सान पहुंचाती हैं, उसे बयान नहीं किया जा सकता। अल्लाह ने इन दोनों फ़रामोशियों की ओर क़ुरआन में इशारा किया है और बयान किया है। एक जगह फ़रमाता है कि "उन्होंने ख़ुदा को भुला दिया है और ख़ुदा ने (गोया) उनको भुला दिया है" (4)(सूरए तौबा, आयत-67) वे अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें भुला दिया। अल्लाह किसी को भुला दे, यह सांकेतिक लफ़्ज़ है क्योंकि अल्लाह किसी को या किसी चीज़ को नहीं भूलता। यह सांकेतिक लफ़्ज़ है और इसका मतलब यह है कि अल्लाह उसको रहमत और हिदायत के दायरे के बाहर कर देता है; अल्लाह के भुला देने का मतलब यह है। "ख़ुदा ने (गोया) उनको भुला दिया है" यानी अल्लाह उस पर करम की नज़र नहीं डालता, उसको बेसहारा कर देता है। "ख़ज़लहुल्लाह"। (यानी अल्लाह ने उससे अपना सहारा हटा लिया) "ख़ज़लहुल्लाह" एक बड़ा श्राप है। "ख़ज़लान" यानी किसी को उसके हाल पर छोड़ देना, उसकी परवाह न करना, मदद न करना, उसके बारे में न सोचना; यह "ख़ज़लान" है; "ख़ुदा ने (गोया) उनको भुला दिया है" का यही मतलब है। इसीलिए "सहीफ़ए सज्जादिया"  में उसकी एक मशहूर दुआ में एक चीज़ जो बहुत गंभीरता और इसरार से तलब की जाती है वह "मुझे अपनी कृपा से दूर न कर उस शख़्स को दूर करने की तरह जिसमें कोई भलाई नहीं थी।"(5) इस मौक़े पर अरबी में 'इरसाल' का मतलब फेंक देना होता है। यानी मुझे उस चीज़ की तरह फेंक न दे जिसकी कोई हैसियत नहीं और बेकार है। "मुझे अपनी कृपा से दूर न कर उस शख़्स को दूर करने की तरह जिसमें कोई भलाई नहीं थी।" यह अल्लाह का भुला देना है। अल्लाह जब किसी को भुला देता है तो उसके लिए यह हालत और कैफ़ियत पैदा कर देता है और यह बहुत बड़ा घाटा है। इंसान के ख़ुद को भूल जाने का ज़िक्र सूरए हश्र में हैः "और उन लोगों की तरह न हो जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उनको अपना आप भुला दिया..." (6) (सूरए हश्र, आयत-19) उन्होंने ख़ुद को भुला दिया है। वे अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें ख़ुद उनकी याद से भी निकाल दिया; यानी उन्हें ख़ुद फ़रामोशी का शिकार कर दिया।
इंसान ज़िंदगी के दैनिक मामलों को जिनसे उसका सामना होता है, उन्हें नहीं भूलता। यह ख़ुद को भूल जाना, यानी अल्लाह किसी को ख़ुद फ़रामोशी का शिकार कर दे, उसके बहुत गहरे व्यक्तिगत मानी भी हैं और सामाजिक मानी भी हैं। व्यक्तिगत हैसियत से इंसान का ख़ुद को भूल जाना यह है कि इंसान अपने पैदा होने के मक़सद को भूल जाए। हमारा अक़ीदा है कि अल्लाह के हर काम में कोई हिकमत होती है। उसने हमें क्यों पैदा किया है? किस लिए पैदा किया है? यह एक अहम सवाल है। ख़ुद अल्लाह, औलिया, पैग़म्बरों और इमामों ने बताया है कि अल्लाह ने हमें क्यों पैदा किया है। अल्लाह ने इंसान को इसलिए पैदा किया है कि उसको वजूद की महानता के सबसे ऊंचे दर्जे तक पहुंचा दे। उसको आम इंसान से अपने उत्तराधिकारी में बदल दे। इंसान की पैदाइश का मक़सद यह है। उसको महान बनाने के लिए पैदा किया है ताकि उसको आला दर्जे तक ले जाए। क़ुरआन मजीद, रवायतों, मासूम इमामों के कथनों और औलिया की बातों में इसे बारंबार दोहराया गया है।  (ख़ुद फ़रामोशी यानी) इंसान इस बात से ग़ाफ़िल हो जाए कि उसको किस लिए पैदा किया गया है। ज़िंदगी के गुज़रने को फ़रामोश कर देना भी ख़ुद फ़रामोशी है। बहरहाल यह ज़िंदगी गुज़र रही है, इंसान इससे ग़फ़लत करता है। हम सबका एक अंजाम है जो मालूम हैः "(ऐ पैग़म्बर (स)) बेशक आपको भी मरना है और वे लोग भी मरने वाले हैं।"(7) (सूरए ज़ुमर, आयत-30) इसी अंजाम को अरबी में 'अजल' कहते हैं। हमारा एक अंजाम है। अंजाम को भूल जाएं। यह 'अजल' मुमकिन है कि एक घंटे बाद हो, मुमकिन है कि एक दिन बाद हो, मुमकिन है कि एक साल बाद हो, हर हाल में हमें इसके लिए ख़ुद को तैयार करना चाहिए। एक ख़ुद फ़रामोशी यह है। 
'अबू हम्ज़ा सुमाली' दुआ में हम पढ़ते हैं "हमने अपनी क़ब्र को अपने सोने के लिए तैयार नहीं किया है" (8) इसका मतलब यह है कि मुझे इस हालत में जो इस वक़्त मेरी है दुनिया से उठा ले कि मैंने ख़ुद को तैयार नहीं किया है, ख़ुद को तैयार नहीं किया है, अपनी क़ब्र तैयार नहीं की है, अगर इस हालत में दुनिया से जाएं तो मुसीबत है! इंसान इस बात से ग़फ़लत करे कि ख़ुद को तैयार करे, भविष्य को देखे, अल्लाह के पास जाने के लिए तैयार न हो। ये व्यक्तिगत ग़फ़लतें हैं। इंसान इसको दुआ से, अल्लाह से गिड़गिड़ाकर, रोज़े से, इच्छाओं पर कंट्रोल करके, जो बात रोज़े में होती है, यह ज़िक्र और यह ध्यान अपने भीतर पैदा कर सकता है और उस ख़ुद फ़रामोशी से ख़ुद को नजात दिला सकता है। अगर यह ग़फ़लत दूर हो गयी तो वह सवाल उसे याद आ जाएगा जो अल्लाह उससे पूछेगा और हम इस बात पर ध्यान देंगे कि हमें अल्लाह के सवाल का सामना है। हमसे सवाल किया जाएगा। क़ुरआन मजीद में एक आयत में अल्लाह फ़रमाता हैः "बेशक हम उन लोगों से भी पूछगछ करेंगे जिनकी तरफ़ रसूल भेजे गए थे और ख़ुद रसूलों से भी पूछगछ करेंगे।"(9) (सूरए आराफ़, आयत-6) हम उन लोगों से जिनके लिए पैग़म्बर भेजे, सवाल करेंगे और उन्हें जवाब देना होगा कि क्या किया है और उससे किस तरह पेश आए; " ख़ुद रसूलों से भी पूछगछ करेंगे।" हम ख़ुद उस पैग़म्बर से सवाल करेंगे। पैग़म्बरे इस्लाम की महानता को मद्देनज़र रखें। अल्लाह उनसे सवाल करेगा कि क्या किया? किस तरह पेश आए? हम उस जगह होंगे। (यानी हमसे सवाल किया जाएगा।)
इंसान अल्लाह को याद करे तो उसका व्यवहार बदल जाएगा। अबू हम्ज़ा सुमाली दुआ में हम पढ़ते हैं कि "ऐ अल्लाह मुझ पर रहम फ़रमा उस वक़्त जब मेरी दलील काट दी जाएगी और मेरी ज़बान तेरा जवाब देने की ओर से गूंगी और मेरी अक़्ल तेरे सवाल से बेचैन हो जाएगी।" (10) जब क़यामत में अल्लाह के सामने इंसान से सवाल किया जाएगा तो इंसान बहाना बनाएगा। उससे सवाल होगा कि यह काम क्यों किया? यह काम क्यों न किया? इंसान को जवाब देना होगा तो बहाना करेगा। यही बहाना जो हम इस दुनिया में एक दूसरे से करते हैं, कहेगा "इस वजह से नहीं हुआ, उस वजह से नहीं हुआ" तो हमको जवाब दिया जाएगा कि यह बहाना सही नहीं है, यह दलील ठीक नहीं है। वहाँ हमारी दलील, हमारा तर्क और बहाना रद्द कर दिया जाएगा, काट दिया जाएगा। "जब मेरी दलील काट दी जाएगी और मेरी ज़बान तेरा जवाब देने की ओर से गूंगी हो जाएगी। " अल्लाह के सवाल पर इंसान की ज़बान बंद हो जाएगी। "तेरे सवाल पर मेरी अक़्ल बेचैन हो जाएगी।" इन सवालों से इंसान का मन बेचैन हो जाएगा। लेकिन अगर अल्लाह का ज़िक्र हासिल हो जाए, यह हालत इंसान में उस वक़्त पैदा होती है जब उसको तलब करते हैं और यह चीज़ हमारे किरदार पर असर डालती है। ख़ुद फ़रामोशी यह है। यह व्यक्तिगत ख़ुद फ़रामोशी है। 
यहाँ मैंने एक बिन्दु लिखा है, जो पेश करुंगा। यह अल्लाह के सवाल करने का संबंध सभी इंसानों से है। "बेशक हम उन लोगों से भी सवाल करेंगे जिनकी तरफ़ रसूल भेजे गए थे" लेकिन हम अधिकारियों से ज़्यादा सवाल होगा। इसलिए कि हमने अपने अख़्तियार से यह ज़िम्मेदारी ली है। हमें पेश की गयी और हमने क़ुबूल कर ली और यह ज़िम्मेदारी अपने ज़िम्मे ली। हमारे लिए यह सवाल ज़्यादा गंभीर है। हमें इस बात पर ज़्यादा ध्यान रखना चाहिए। अगर हम अवाम को, नौजवानों को, दीनदार लोगों को देखते हैं कि फ़र्ज़ करें कि उनके यहाँ गुनाह से दूरी इतनी है, क़ुरआन और इबादतों पर ध्यान इतना है तो आप में गुनाह से दूरी और वाजिब चीज़ों और इसी तरह इस बात पर कि क्या 'मुबाह' है, ज़्यादा ध्यान होना चाहिए, आप ज़्यादा ज़िम्मेदारी से यह काम करें। 
सामूहिक ग़फ़लत ज़्यादा गंभीर है। क़ुरआन मजीद में एक आयत है जो सूरए तौबा में है। अलबत्ता वह आयत मुनाफ़िक़ों के बारे में है। इस आयत पर मेरा ध्यान बहुत जाता है। जब मैं इसको पढ़ता हूं और यहाँ पहुंचता हूँ, यह टुकड़ा मेरे मद्देनज़र है कि "तो उन्होंने अपने (दुनयवी) हिस्से से फ़ायदा उठाया और तुमने भी अपने (दुनयवी) हिस्से से उसी तरह फ़ायदा उठाया जिस तरह तुमसे पहले गुज़रे हुओं ने फ़ायदा उठाया और तुम भी वैसे ही निरर्थक बहसों में पड़े जैसे वे पड़े थे..." (11) (सूरए तौबा, आयत-69) यह बात इंसान को दहला देती है। इस्लामिक रिपब्लिक से पहले इस मुल्क में ऐसे अधिकारी थे, ऐसे शासक थे, ऐसे अफ़सर थे जो ग़लत काम करते थे, ख़िलाफ़वर्ज़ियां करते थे। यह इंक़ेलाब बड़ी मेहनतों से, बड़ी मुसीबतें बर्दाश्त करके, इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) जैसी हस्ती के चमत्कार से, उनका वजूद सचमुच इस दौर में चमत्कार था, अनगिनत बलिदानों से, कितने अज़ीज़, नुमायां और अच्छे नौजवान काम आए तब जाकर यह इंक़ेलाब कामयाब हुआ, सुरक्षित हुआ और इस्लामी गणराज्य सिस्टम क़ायम हुआ। अगर वही स्थिति, वही काम और वही राह हम भी अख़्तियार करें जो शाह के दौर के अधिकारियों ने अख़्तियार की थी तो हम भी धीरे-धीरे उसी दिशा में जाएंगे और यह बहुत बड़ा जुर्म होगा। यह आयत कहती है कि "तो उन्होंने अपने (दुनयवी) हिस्से से फ़ायदा उठाया" वह आपसे पहले थे। उन्होंने अपने लिए एक फ़ायदा एक हिस्सा मद्देनज़र रखा था, उन्होंने वह फ़ायदा और हिस्सा हासिल किया। "तुमने भी अपने (दुनयवी) हिस्से से फ़ायदा उठाया" आपने भी अपने लिए एक फ़ायदा और हिस्सा फ़र्ज़ किया है और आपने भी वह फ़ायदा उठाया। "जिस तरह तुमसे पहले गुज़रे हुओं ने फ़ायदा उठाया" आपने भी उन्हीं की तरह अमल किया "तुम भी वैसे ही लग़्व बहसों में पड़े जैसे वे पड़े थे" जो रास्ता उनका था उसी पर आप भी चले। अगर ऐसा हो तो बहुत चिंता की बात है; अगर ऐसा हो तो यह बहुत बड़ा नुक़सान है। अलबत्ता अब तक अल्लाह की कृपा और हिदायत की छाया रही है जिसने इस्लामी गणराज्य को इस हालत का शिकार होने नहीं दिया। लेकिन हमें डरना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए। 
सामूहिक ख़ुद फ़रामोशी यह है कि हम अपनी पहचान खो दें, इस्लामी गणराज्य के वजूद में आने के मक़सद को भूल जाएं। जिस तरह हमसे पहले, मुल्क में, विदेश नीति में, आंतरिक नीति में, मुल्क के संचालन में, सहूलतों और मुल्क की संपत्ति के बटवारे में, अमल होता था, हमें इस तरह अमल करना चाहिए। उनका रास्ता दूसरा था, हमारा रास्ता दूसरा है। हमारी पहचान दूसरी है। अगर हमने यह फ़रामोश कर दिया तो यह  सामूहिक सतर पर वह ख़ुद फ़रामोशी होगी जो बहुत बड़ा नुक़सान है। ग़ैर पर भरोसा, ज़ुल्म, भ्रष्टाचार, लूट खसोट, नाजायज़ फ़ायदा उठाना, ये बातें, हमारी इस्लामी सभ्यता और इस्लामी सिस्टम और हम जिस चीज़ की फ़िक्र में थे और अब तक रहे हैं, उसके बिल्कुल विपरीत है। हम इस संबंध में दूसरों का अनुसरण नहीं कर सकते। इस्लामी सिस्टम का ढांचा यह है कि यह क़ुरआन के उसूलों और मूल्यों पर आधारित है। क़ुरआन ने किसी चीज़ को छोड़ा नहीं है। क़ुरआन की तफ़सीर में, क़ुरआन के अर्थों के बयान में, रवायतों में, मासूमों के कथनों में, ख़ुद नहजुल बलाग़ा में, कोई बिंदु छोड़ा नहीं गया है। इस्लामी सिस्टम, इस्लामी मुल्क और इस्लामी आबादी की स्पष्ट परिभाषा है जो उन मानदंडों, मूल्यों और लक्ष्यों पर आधारित है जो किताब और सुन्नत में बयान किए गए हैं। हमें उन मूल्यों की ओर बढ़ना है। मूल्य बयान कर दिए गए हैं, क्या करना है और क्या नहीं करना है, यह भी बता दिया गया है। हमें उसी बयान किए गए उसूलों के मुताबिक़ आगे बढ़ना है। हमें अपनी कोशिशों को उसी दिशा में केन्द्रित करना है। 
हम अपने मुख़्तलिफ़ राजनैतिक मसलों में, अपनी आर्थिक स्थिति और दूसरी चीज़ों में पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता के उसूलों की पैरवी नहीं कर सकते। पश्चिमी सभ्यता में कुछ फ़ायदे हैं, इसमें शक नहीं है। दुनिया में जहाँ भी अच्छी बातें हों, पश्चिम में, पूरब में, दूर और नज़दीक जहाँ भी अच्छी बात हो वह हम सीख सकते हैं, उससे फ़ायदा उठा सकते हैं, फ़ायदा उठाना चाहिए; इसमें शक नहीं। लेकिन हम उस सभ्यता के उसूलों को अपन आधार नहीं बना सकते। उस सभ्यता की बुनियादें ग़लत हैं। इस्लामी बुनियादों के ख़िलाफ़ हैं। उस सभ्यता के मूल्य हमारी सभ्यता के मूल्यों से अलग हैं। जैसा कि आप देखते हैं कि वे क़ानूनी लेहाज़ से, सामाजिक लेहाज़ से, प्रचारिक लेहाज़ से बहुत आसानी से वे चीज़ें हासिल कर लेते हैं कि आप मुसलमान और क़ुरआन की समझ रखने वाले, जिसके बारे में सोचने में भी शर्म महसूस करते हैं। इसलिए हमें इस पश्चिमी सभ्यता पर चलकर "तो अल्लाह ने उनको अपना आप भुला दिया" का उदाहरण नहीं बनना चाहिए। 
अलबत्ता पश्चिमी सभ्यता ने ख़ुशक़िस्मती से मुख़्तलिफ़ दौर में अपनी अस्लियत को बेनक़ाब कर दिया है। पश्चिमी सभ्यता की वह चमक दमक जो उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी के पहले पचास साल में थी जो दूर से देखने वालों की आँखों को चौंधिया देती थीं, आज उसका कोई वजूद नहीं है। पश्चिमी सभ्यता, साम्राज्यवाद से, दूसरे मुल्कों पर अपने मुतालबे थोप करके, दूसरे मुल्कों और क़ौमों की दौलत और संपत्ति के स्रोतों पर क़ब्ज़ा करके, बड़े पैमाने पर नरसंहार, दोहरे मानदंड, मानवाधिकार और महिला अधिकार के झूठे दावों की पोल खुल चुकी है। इन बातों ने पश्चिमी सभ्यता को रुसवा कर दिया और पश्चिमी सभ्यता की अस्लियत बेनक़ाब हो गयी। उन्होंने औरतों और मर्दों के दरमियान से नैतिक सीमाएं ख़त्म कर दीं। दावा करते हैं कि मूल्यों के संबंध में निष्पक्ष हैं और इस संबंध में हर एक को अख़्तियार है; सेक्युलर का मतलब यही है। सेक्युलरिज़्म यानी यह कि यह सरकार मूल्यों के संबंध में बिल्कुल निष्पक्ष रहे और हर एक को यह अख़्तियार दे कि अपनी मर्ज़ी से जिन मूल्यों के साथ चाहें ज़िंदगी गुज़ारे। (लेकिन) झूठ बोलते हैं! एक हेजाब करने वाली औरत पर एक योरोपीय मुल्क में चाक़ू से हमला किया जाता है और उसको घायल कर दिया जाता है। मामला अदालत में जाता है। मुक़दमा चलता है और अदालत में सुनवाई के दौरान उस शख़्स ने जिसने उसको चाक़ू से घायल किया था, दोबारा हमला करके उसको क़त्ल कर दिया। (12) और कुछ भी नहीं होता! पश्चिम के दोहरे मानदंडों ने पश्चिमी सभ्यता की घिनौनी अस्लियत को बेनक़ाब कर दिया, उनके दावों की पोल खोल दी है। 
वे फ़्रीडम आफ़ इन्फ़ार्मेशन का दावा करते हैं; क्या सचमुच ऐसा ही है? इस वक़्त पश्चिम में सूचना का प्रवाह आज़ाद है? क्या आप पश्चिमी मीडिया में शहीद क़ासिम सुलैमानी, सैयद हसन नसरुल्लाह और शहीद हनीया का नाम पा सकते हैं? फ़िलिस्तीन, लेबनान और दूसरी जगहों पर ज़ायोनियों के अपराधों पर एतेराज़ कर सकते हैं? हिटलर के जर्मनी के बारे में यहूदियों के संबंध में जो दावे किए जाते हैं, क्या आप उनका इंकार कर सकते हैं? यही सूचना की स्वतंत्रता है? इस सभ्यता ने आज ख़ुद को और अपनी अस्लियत को बेनक़ाब कर दिया है। जो बातें पश्चिमी राष्ट्राध्यक्ष करते हैं, आप उन्हें देख रहे हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि बहुत ही गहरी और सटीक नज़र रखने वाले पश्चिमी समाज शास्त्री कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता दिन ब दिन तेज़ी के साथ पतन की ओर जा रही है। ऐसा ही है। हमें इस सभ्यता और इसके उसूलों का पालन नहीं करना चाहिए। हमारी अपनी पहचान है और ख़ुशक़िस्मती से हमारी यह पहचान दुनिया में दिन ब दिन ज़्यादा से ज़्यादा फैल रही है। अलबत्ता इसके ख़िलाफ़ इतने ज़्यादा प्रोपैगंडे किए जा रहे हैं, इतने ज़्यादा! उनके दोहरे मानदंडों की एक मिसाल यही है। उनकी सूचना की आज़ादी यह है जो आप देख रहे हैं। ईरान के बारे में उनके किस मीडिया की बातें हक़ीक़त के मुताबिक़ है? आप इल्मी और वैज्ञानिक तरक़्क़ी करते हैं। उसको लोगों तक नहीं पहुंचाया जाता। आपकी पब्लिक सभाओं की ख़बरें प्रसारित नहीं होतीं। लेकिन अगर नाकामी का कोई मामला हो तो बढ़ा चढ़ाकर बयान किया जाता है। उनका सूचना का स्वतंत्र प्रवाह यह है! अनेक मसलों और मुख़्तलिफ़ लोगों के संबंध में उनका रवैया एक जैसा नहीं होता। अलग होता है।  
इसलिए यह बात अहम है कि हम इस्लामी गणराज्य सिस्टम के ज़िम्मेदार लोग, इस्लामी सिस्टम की वास्तविक पहचान को समझें, उसको भूलें नहीं और उस पर अमल करें। वही बात जो जनाब राष्ट्रपति ने कही है। इन बातों की वे सभी लोग पुष्टि करते हैं जिन्हें क़ुरआन, सुन्नत और नहजुल बलाग़ा वग़ैरह का ज्ञान है। सब कुछ यही बातें हैं। इन्हीं की योजना और प्लानिंग होनी चाहिए और इनकी पैरवी की ज़रूरत है। इनके सिलसिले में क़दम उठाने की ज़रूरत है। इस काम से मुल्क तरक़्क़ी करेगा। ईरानी क़ौम की जो इज़्ज़त इस वक़्त है उसमें और इज़ाफ़ा होगा। अगर हम सही तौर पर यह क़दम उठा सके और आगे बढ़े तो ये क़ौमों बल्कि बहुत से मुल्कों के अधिकारियों के लिए नमूना होगा। मैं अमल और आगे बढ़ने के संबंध में दो तीन बातें संक्षेप में पेश करुंगा। इन बातों का रमज़ानुल मुबारक से संबंध था। 
मुल्क की समस्याओं के बारे में जो चीज़ सबसे ज़्यादा अहम है वह अर्थव्यवस्था है। इससे आज हम सभी अवगत हैं, यानी हालिया बरसों में, इन चंद बरसों में, 2010 के दशक से आज तक देश आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है। आज भी अस्ल समस्या, आर्थिक समस्या है। यह अहम समस्या है। इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि दुश्मन जो धमकियाँ देते हैं, वो ज़्यादातर जनता की अर्थव्यवस्था से संबंध रखती हैं। सिक्योरिटी की धमकियाँ हैं, इंटेलिजेंस की धमकियाँ भी जनता की अर्थव्यवस्था से संबंध रखती हैं। उनका इरादा और अस्ल योजना यह है कि ऐसा काम करें कि इस्लामी गणराज्य ईरान अपनी जनता की अर्थव्यवस्था बाक़ी न रख सके। इसके अपने नतीजे सामने आएंगे, वे इस सोच में हैं। इस लिए अर्थव्यवस्था की समस्या वाक़ई अहम समस्या है और बहुत गंभीरता के साथ इसके सुधार के लिए काम करने की ज़रूरत है। संबंधित संस्थाएं अपनी ज़्यादा कोशिशें इस मामले पर केंद्रित करें। अलबत्ता बाहरी पाबंदियाँ भी इसके कारकों में शामिल हैं। इसमें शक नहीं है। बड़ी ताक़तों की पाबंदियाँ, हमारी आर्थिक स्थिति और जनता की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही हैं लेकिन सब कुछ यही नहीं है। इसके कारणों का सिर्फ़ एक हिस्सा पाबंदियां हैं। कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिनका पाबंदी से कोई संबंध ही नहीं है। इनमें से मैं कुछ का अपनी गुफ़्तगू के दौरान ज़िक्र करूँगा।
अब हमें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, हमें जो काम करने हैं, उनमें से एक है मुख़्तलिफ़ संस्थाओं की अंदरूनी एकता। कार्यपालिका की अपनी संस्थाएं पूरी तरह एक दूसरे से जुड़ी रहें, एक दूसरे से सहयोग करें और इसी के साथ तीनों पालिकाएं और आर्म्ड फ़ोर्सेज़ इनके साथ मिलकर एक दूसरे से सहयोग करें। पहली शर्त एकता है। अगर हम चाहते हैं कि काम आगे बढ़े तो यह एकता वास्तविक अर्थ में होनी चाहिए। ख़ुशक़िस्मती से बहुत हद तक ऐसा ही है। ऊंची सतह पर यह बात है लेकिन निचली सतह पर भी इसी एकता, समरसता और सहयोग की ज़रूरत है।
एक और अहम बात जो हमारे कामों में, जैसे आर्थिक समस्याओं में बुनियादी प्रभाव रखती है, वह है काम की गति। हम आहिस्ता चलते हैं, सुस्त काम करते हैं। हमारे ज़ेहन में कोई रचनात्मक सोच आती है, जिस पर काम की ज़रूरत होती है, मिसाल के तौर पर उत्तर-दक्षिण गलियारे को ले लें, हमारे मन में यह सोच आने और इस पर अमल के फ़ैसले में काफ़ी फ़ासला होता है, जबकि कुछ मौक़ों पर यह फ़ासला कम करके दसवें हिस्से तक पहुँचाया जा सकता है। पहले तो हम फ़ैसला देर में करते हैं और जब फैसला कर लेते हैं तो काम शुरू करने में फिर फ़ासला आ जाता है। जब फ़ैसला कर लिया तो फिर काम करें। जब हमने समझ लिया, फ़ैसला कर लिया और जान लिया कि यह काम करना है, तो फ़ौरन इस पर काम शुरू कर दें। और जब काम शुरू कर देते हैं तो परिणाम हासिल होने में फिर फ़ासला आ जाता है। इस देरी का कारण आमतौर पर काम को फ़ॉलो-अप न करना होता है। मैंने पिछले बरसों में, अधिकारियों, सम्मानीय राष्ट्रपति और उच्चाधिकारियों को जो सिफ़ारिशें की हैं, वह यही थीं कि कामों को फ़ॉलो-अप करें। आप एक फ़ैसला करते हैं, कोई क़दम उठाते हैं, किसी अधिकारी को ज़िम्मेदारी देते हैं, वह कहता है बेहतर है, वह झूठ नहीं कहता, वह काम अपने बाद वाले इंसान के हवाले करता है और इसी बीच काम विलंब का शिकार हो जाता है। ख़ुद जाकर नज़दीक से देखना चाहिए, काम को उसके हाल पर नहीं छोड़ना चाहिए। इन फ़ासलों को कम करने की ज़रूरत है। सोच और फ़ैसले में फ़ासला, फ़ैसले और काम में फ़ासला, काम और नतीजे में फ़ासला, बहुत ज़्यादा है। इस पर तेज़ी से काम होना चाहिए। एक बात तो यह है।
अफ़सोस की बात है कि हमारे कुछ उच्चाधिकारी यह समझते हैं कि वह काम, जिसमें कोई रिस्क नहीं है,  वह  है कोई फ़ैसला न करना है। इस लिए कि फ़ैसले में ग़लती की संभावना और ख़तरा होता है और बाद में दोषी ठहरा दिया जाता है, तो सबसे अच्छा काम जिसमें कोई ख़तरा नहीं है, यह है कि फ़ैसला ही न किया जाए। कामों को फ़ॉलो-अप ही न किया जाए। यह जो हम सोचते हैं कि सुकून से रहने के लिए बेहतर है कि बहुत ज़्यादा चिंता न करें, ज़्यादा जोश न दिखाएँ, काम को फ़ॉलो-अप न करें, हुआ तो हुआ, न हुआ तो न हुआ! यह सबसे ख़तरनाक सोच है। अल्लाह, काम छोड़ देने पर भी सवाल करेगा। ख़ुदा सिर्फ़ यह नहीं पूछेगा कि तुमने क्या किया, बल्कि यह भी पूछेगा कि जो काम छोड़ दिया, वह क्यों छोड़ा?
अर्थव्यवस्था के बारे में एक अहम बात यह है कि देश के उच्चाधिकारी, देश की संभावनाओं को पहचानें। हमारी संभावनाएं बहुत ज़्यादा हैं। मैं लगातार कहता हूँ: "संभावनाएं, क्षमताएं और संसाधन" लेकिन काम की गहराइयों में नहीं उतरते। हमारी संभावनाएं और क्षमताएं ज़्यादातर हमारे नौजवानों से संबंध रखती हैं जो कई बार ऐसे कारनामे कर देते हैं कि इंसान हैरत में पड़ जाता है। आर्थिक मामलों के मैदान में, वैज्ञानिक मामलों के मैदान में, अनुसंधानों के मैदान में, आविष्कार और रचनात्मकता के मैदान में, हमारी नौजवान पीढ़ी हमारी सबसे अहम संभावना और क्षमता है।
हमारी एक और संभावना हमारे प्राकृतिक स्रोत हैं। हमारे प्राकृतिक स्रोत, दुनिया के सबसे अच्छे और सबसे संपन्न प्राकृतिक स्रोतों में शुमार होते हैं, हमारे तेल के स्रोत, हमारे क़ीमती पत्थरों के संसाधन, हमारी खदानें, हमारी खनिज धातें वग़ैरा दुनिया के बेहतरीन प्राकृतिक संसाधन हैं। मैंने एक बार आंकड़ों की बुनियाद पर कहा था(13) इस वक़्त याद नहीं है, लेकिन उस वक़्त सटीक आंकड़े देखे थे कि हमारी आबादी दुनिया की आबादी का 100वाँ हिस्सा है। यानी दुनिया की आबादी आठ अरब है तो हमारी आबादी आठ करोड़ है, जबकि हमारी बहुत सी बुनियादी हैसियत की खदानें, दुनिया की खदानों का दो प्रतिशत, तीन प्रतिशत, पाँच प्रतिशत या आठ प्रतिशत हैं। इस लिए प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज़ से हम दुनिया के बहुत से मुल्कों से आगे हैं। इन संसाधनों को पहचानें। मुझे रिपोर्टें मिलती हैं कि कुछ संसाधन ऐसे हैं जिनका संबंधित अधिकारियों ने अभी पता ही नहीं लगाया है। अभी उन्हें पता ही नहीं है कि हमारे देश के फ़ुलाँ इलाक़े में यह रिसोर्सेज़ मौजूद हैं। ये रिसोर्सेज़ बहुत अहम हैं। अपनी प्रकृति और मात्रा दोनों लिहाज़ से ये संसाधन बहुत अहम हैं। तो हमारी एक क्षमता यह रिसोर्सेज़ हैं।
तीसरी क्षमता साइंस व टेक्नोलॉजी में प्रगति है। साइंस व टेक्नोलॉजी में प्रगति के लिहाज़ से हमारी हालत बहुत अच्छी है। अलबत्ता कुछ बरस पहले इससे बेहतर थी, क़रीब बारह साल पहले। उस समय विदेशी सूत्र कहते थे कि साइंस और अनुसंधान में ईरान की प्रगति दुनिया की औसत प्रगति से तेरह गुना ज़्यादा है। तरक़्क़ी की रफ़्तार यह थी। मैंने उसी वक़्त कहा था कि प्रगति की इस दर को कम न होने दें।(14) अगर ये कम हुई तो हम पीछे हो जाएँगे। दुनिया भी आगे बढ़ रही है। संभव है कि उस सतह पर न हो लेकिन बहरहाल हमारी प्रगति बहुत अच्छी है।
हमारी अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद एक मुश्किल, स्मग्लिंग है, दो तरफ़ा स्मग्लिंग। कुछ चीज़ें यहाँ से तस्करी होकर बाहर जाती हैं जो सौ प्रतिशत देश के नुक़सान में है और कुछ चीज़ें बाहर से स्मगल होकर देश के अंदर आती हैं, यह भी सौ प्रतिशत देश के नुक़सान में है। यह बातें जो मैंने अभी कही हैं, इन में से किसी का भी संबंध प्रतिबंध वग़ैरा से नहीं है। अगर हमारे अंदर काम के सिलसिले में तेज़ रफ़्तारी नहीं है और अगर हम काम के लिए ज़रूरी फ़ॉलो-अप नहीं कर रहे हैं तो इस का संबंध पाबंदी से नहीं है, इस का संबंध ख़ुद हम से है। अगर हम तस्करी रोकने के लिए गंभीरता से क़दम न उठाएं तो इसका संबंध दुश्मन से नहीं है, पाबंदी लगाने वाले से इस का संबंध नहीं है, हमें इसको रोकना चाहिए, हमें चाहिए कि स्मग्लिंग न होने दें। इस का रास्ता है। स्मग्लिंग रोकना असंभव नहीं है। मुश्किल ज़रूर है, हम जानते हैं, लेकिन संभव है, यह काम जो संभव है, इसे अंजाम पाना चाहिए। मैंने सुना है कि काफ़ी पहले स्मग्लिंग का माल पकड़वाने पर इनाम ख़त्म कर दिया गया है। इससे स्मग्लिंग का माल पकड़वाने का जज़्बा कम होगा। सरहदी बाज़ारों वग़ैरा की भी समस्या है।
अर्थव्यवस्था से संबंधित एक अहम समस्या देश के विदेशी मुद्रा के सिस्टम में सुधार है। सबसे पहले राष्ट्रीय मुद्रा को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है। इस की पॉलिसी, योजना और काम के तरीक़े वग़ैरा का निर्धारण विशेषज्ञ करें। राष्ट्रीय मुद्रा मज़बूत होनी चाहिए, अवाम की ज़िंदगी पर इस का भी असर है। मुल्क की आबरू पर भी इस का असर है। यहाँ तक कि अगर मिसाल के तौर पर कहते हैं कि "एक फ़ॉर्मूला है कि अगर इस पर काम किया जाए तो इन्फ़्लेशन कम होगा यहाँ तक कि वह सिंगल डिजिट में भी आ सकता है लेकिन नेशनल करेंसी की क़ीमत इतनी कम हो जाएगी।" यह सही नहीं है; इस लिए कि फ़ारेन एक्सचेंज की क़ीमत ऊपर जाने से नेशनल करंसी का मूल्य कम होगा तो इन्फ़्लेशन चाहे जितना भी कम हो, इस करंसी की कोई क़ीमत नहीं रहेगी, इससे ग़रीब और कमज़ोर लोगों में ख़रीद की ताक़त पैदा नहीं होगी। अगर चाहते हैं कि अवाम की ख़रीद की ताक़त बढ़े तो राष्ट्रीय करंसी पर काम करें। एक सबसे बुनियादी काम यही है।
फ़ारेन एक्सचेंज के बारे में यह भी कहना चाहता हूं कि जिन लोगों के पास इम्पोर्ट से विशेष फ़ारेन करेंसी है, उनसे फ़ारेन करेंसी वापस लेना बहुत अहम है। मैंने सुना है कि मरहूम रईसी साहब (रहमतुल्लाह अलैह) के दौर में कहा गया कि कुछ बड़ी कंपनियाँ, यानी बड़ी और अहम सरकारी कंपनियाँ, जो सरकार की हैं, चीज़ें इम्पोर्ट करती हैं, उन्हें फ़ारेन करेंसी मिलती है लेकिन यह फ़ारेन करेंसी रिज़र्व बैंक में जमा नहीं होती। उन्होंने इस बारे में सोच-विचार के बाद इसका हल यह निकाला था कि इन कंपनियों में से हर एक देश में एक बड़ा काम अपने ज़िम्मे ले। जैसे फ़र्ज़ कीजिए कि फ़ुलाँ इलाक़े में जहाँ पानी कम है, पीने के लिए और खेती के लिए पानी की सप्लाई अपने ज़िम्मे लें या कोई रिफ़ाइनरी या कोई पावर प्लांट लगाएँ जो दो सौ मेगावॉट, तीन सौ मेगावॉट बिजली पैदा करे। उन्होंने इसका वादा किया था। दो-तीन महीनों बाद मैंने उनसे पूछा और कहा कि इन कंपनियों को जो काम करना था, वह कहाँ तक पहुँचा, उन्हें उस वक़्त पता नहीं था। कहा कि मैं पूछ कर आपको बताऊँगा। बाद में एक-दो हफ़्ते में उन्होंने मुझे एक रिपोर्ट दी और कहा कि यह रिपोर्ट उन कंपनियों ने दी है। मैंने देखा कि वह रिपोर्ट बेकार है, उसका कोई मतलब ही नहीं है! उस रिपोर्ट से किसी भी काम का पता नहीं चलता था। उसमें कुछ आंकड़े इकट्ठा कर दिए गए थे और बस। मरहूम इस काम की फ़िक्र में थे। बहरहाल, यह वह काम हैं जो अंजाम पाने हैं। फ़ारेन करेंसी की इनकम अगर इस कंपनी की है जो ख़ुद सरकार की है तो यह फ़ारेन करेंसी सरकार के पास क्यों नहीं आती? रिज़र्व बैंक में जमा क्यों नहीं होती? क्यों? इसके बारे में सोचने की ज़रूरत है। बुनियादी काम करने की ज़रूरत है। यह वह काम हैं जो जनता की अर्थव्यवस्था को बेहतर करने में प्रभावी हो सकते हैं।
पैदावार का मामला भी, जिस पर मैंने लगातार ज़ोर दिया है, बहुत अहम है। पैदावार का क़ानूनी समर्थन होना चाहिए। पैदावार के लिए संसाधन मुहैया कराए जाएँ। पैदावार में आने वाली रुकावटें दूर की जाएँ। बेकार की रुकावटें, जो सर्कुलर की या सरकारी और दफ़्तरी रुकावटें हैं, जिन की कोई ज़रूरत नहीं है, वह ख़त्म की जाएँ।
देश की आंतरिक ज़रूरतें, स्वदेशी पैदावारों से पूरी की जाएँ। कौन अपनी ज़रूरतें स्वदेशी पैदावारों से पूरी करे? जनता। और हुकूमत? जनता से ज़्यादा बड़ी उपभोग्ता सरकार होती है। बहुत से उत्पाद सरकार इस्तेमाल करती है। सरकारी संस्थाओं को इस बात के लिए बाध्य होना चाहिए कि जो चीज़ देश के अंदर तैयार हो रही है, वह बाहर से इम्पोर्ट करके इस्तेमाल न करें। एक अहम काम यह है। पैदावार में आविष्कार और टेक्नोलॉजी के स्टेंडर्ड की बुलंदी अहम है।
देश की अर्थव्यवस्था से संबंधित एक अहम बात पूंजी निवेश है। पूंजी निवेश की समस्या बरसों से जारी है। पाबंदियों का एक लक्ष्य, विदेशी पूंजी निवेश की रोकथाम है लेकिन इसका भी रास्ता है। जिस की तरफ़ मोहतरम राष्ट्रपति ने अपनी स्पीच में एक इशारा किया है। पूंजी निवेश के लिए रास्ता मौजूद है, अहम यह है कि देश के अंदर पूंजी निवेश हो, इसे आसान बनाएँ। पूंजी निवेश में आसानियां पैदा करें। पूंजी निवेश करने वाला यह महसूस करे कि इस काम में उसका फ़ायदा है और वह पूंजी निवेश कर सकता है। इससे देश आगे बढ़ेगा। इस आधार पर आर्थिक मामले अहम हैं। आर्थिक मामले के ज़िम्मेदार भी, चाहे सरकार के अंदर हों या सरकार से बाहर, चौकन्ने हैं और इस मामले पर उनका ध्यान है। यह बिंदु जो मैंने बयान किए, मेरे ख़याल से अहम हैं। इन्हें फ़ॉलो-अप करने की ज़रूरत है।
कुछ बातें विदेश नीति के बारे में भी कहना चाहता हूं। अलम्दो लिल्लाह हमारा विदेश मंत्रालय सक्रिय है। यह उन मंत्रालयों में से है जो सक्रिय हैं। यही पड़ोस का जो मामला जनाब ने (डाक्टर पेज़ेश्कियान ने) बयान किया, वो अहम है, दूसरे देश भी इसी तरह हैं जो पड़ोसी नहीं हैं। अब यह कि कुछ बदमाश सरकारें, वाक़ई मेरे पास कुछ राष्ट्राध्यक्षों और लोगों के लिए, इस "बदमाश" लफ़्ज़ के अलावा कोई दूसरा मुनासिब लफ़्ज़ नहीं है, वार्ता पर आग्रह कर रही हैं। इनकी वार्ता, समस्याएं हल करने के लिए नहीं हैं, बल्कि हुक्म चलाने के लिए हैं। कहते हैं कि हम वार्ता करें ताकि जो कुछ चाहें, उसे सामने वाले पक्ष पर, जो मेज़ के उस तरफ़ बैठा है, थोप सकें। अगर मान गया तो क्या कहना और अगर न माना तो हम हंगामा करेंगे कि ये वार्ता नहीं करना चाहते, वार्ता की मेज़ से उठ गए! यह आदेश थोपना है। वार्ता, इनके लिए नई मांगें पेश करने का रास्ता और हथकंडा है। सिर्फ़ परमाणु मामला नहीं है कि वे परमाणु मामले के बारे में बात करें। वे नई मांगें पेश कर रहे हैं और ईरान इनकी ये मांगें कभी पूरी नहीं करेगा। मिसाल के तौर पर देश के रक्षा उपकरणों के बारे में, देश की अंतर्राष्ट्रीय क्षमताओं के बारे में, वह काम न करो, उससे न मिलो, वहाँ न जाओ, वो चीज़ न बनाओ, तुम्हारे मिसाइलों की रेंज इससे ज़्यादा न हो! क्या कोई ये बातें मान सकता है? उनकी वार्ता इन बातों के लिए है। अलबत्ता, वार्ता-वार्ता की रट इस लिए लगाए रहते हैं ताकि विश्व जनमत में दबाव की स्थिति पैदा करें कि "ये पक्ष तो वार्ता के लिए तैयार है, तुम क्यों तैयार नहीं हो?" ये वार्ता नहीं, हुक्म चलाना है, मर्ज़ी थोपना है। अन्य बातों के अलावा, जिनके बारे में बहस की जगह यह नहीं है और मुमकिन है कि कभी किसी और जगह इस पर बोलूँ, लेकिन संक्षेप में समस्या यह है।
अब वे तीन यूरोपीय देश भी कह रहे हैं कि ईरान ने परमाणु समझौते के तहत अपने वादों को पूरा नहीं किया है! यहाँ से कोई उनसे पूछे कि क्या तुमने पूरा किया?! तुम कहते हो कि ईरान ने परमाणु समझौते के तहत अपने वादों को पूरा नहीं किया। ठीक है! तुमने परमाणु समझौते के तहत अपने वादों को पूरा किया? तुमने पहले दिन से वादों पर अमल नहीं किया! फिर जब अमरीका समझौते से निकल गया(15) तो तुमने वादा किया कि किसी तरह उसकी भरपाई करोगे, तुमने अपना वादा तोड़ा(16), फिर एक दूसरा वादा किया, दूसरे वादे को भी तोड़ दिया। आख़िर ढिटाई की भी एक हद होती है! इंसान ख़ुद तो वादा पूरा न करे लेकिन दूसरे पक्ष से कहे कि तुम वादा पूरा क्यों नहीं करते! सरकार ने, उस वक़्त की सरकार(17) ने एक साल तक(18) बर्दाश्त किया, फिर संसद मैदान में आ गई, उसने एक बिल पास किया(19), इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस वक़्त भी ऐसा ही है, इस वक़्त भी ज़ोर-ज़बरदस्ती के मुक़ाबले में (प्रतिरोध के अलावा) कोई रास्ता नहीं है।
पालने वाले! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद की क़सम देता हूं कि हमें रमज़ानुल मुबारक की बरकतों से फ़ैज़याब कर। पालने वाले! इमाम ख़ुमैनी की पवित्र आत्मा और शहीदों की आत्माओं को, जिन्होंने हमारे लिए यह रास्ता खोला और उसे खुला रखा और ख़ुद को इस राह पर क़ुर्बान कर दिया, हमसे ख़ुशनूद कर, उनके दर्जों को बुलंद कर। पालने वाले! इलाक़े के मुजाहिद रेज़िस्टेंस के शरीर पर जो ज़ख़्म लगे हैं, उनका सच्चा अध्यात्मिक व भौतिक मरहम तू ख़ुद अता कर। पालने वाले! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद का वास्ता! इस्लामी गणराज्य के दुश्मनों को ज़लील व रुसवा कर दे, ईरानी राष्ट्र को, ईरान के मुस्लिम राष्ट्र को उसके वास्तविक स्थान और शान तक पहुंचा दे। मुस्लिम राष्ट्र को सरबुलंद कर दे। दुनिया के सभी कमज़ोर बना दिए गए लोगों, मज़लूमों और वंचितों को अपनी कृपा का पात्र बना। हमें अपनी रज़ामंदी का पात्र बना। हमने जो कहा और जो सुना, उसे अपने लिए और अपनी राह में क़रार दे। हमारी दुआ को क़ुबूल कर। इन मुबारक रातों और मूल्यवान दिनों में हमें क्षमा प्रदान कर और हमारे माँ-बाप, मरहूम रिश्तेदारों और पूर्वजों को क्षमा कर दे।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत और बरकत हो।
1.    इस मुलाक़ात की शुरुआत में, राष्ट्रपति डॉक्टर मसऊद पज़ेश्कियान ने एक रिपोर्ट पेश की।
2.    सूरए हिज्र, आयत 9
3.    सूरए अम्बिया, आयत 50
4.    सूरए तौबा, आयत 67
5.    सहीफ़ए सज्जादिया, दुआ नंबर 47
6.    सूरए हश्र, आयत 19
7.    सूरए ज़ुमर, आयत 30
8.    मिस्बाहुल मुतहज्जिद व सेलाहुल मुतअब्बिद, जिल्द 2, पेज 591
9.    सूरए आराफ़, आयत 6
10.    मिस्बाह अल-मुतहज्जिद व सलाह अल-मुतअब्बिद, जिल्द 2, पेज 592
11.    सूरए तौबा, आयत 69
12.    वर्ष 2009 में जर्मनी की एक अदालत में मरवा शर्बीनी नामक महिला की हत्या की तरफ़ इशारा, जिन्हें हत्यारे ने अदालत की सुनवाई के दौरान चाक़ू से कई वार करके मार दिया था।
13.    देश के आला अधिकारियों से मुलाक़ात में स्पीच (14 जून 2016)
14.    देश भर के विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों के अकादमिक बोर्ड के बसीजी (स्वयंसेवी) सदस्यों से मुलाक़ात में स्पीच (23 जून 2010)
15.    8 मई 2018 को तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने आधिकारिक रूप से अमरीका के परमाणु समझौते (JCPOA) से बाहर निकलने और कुछ नए प्रतिबंधों को लागू करने की घोषणा की।
16.    परमाणु समझौते से अमरीका के बाहर निकलने के बाद यूरोपीय सरकारों ने बातचीत के बाद "इंस्टेक्स" नामक एक मेकैनिज़्म सुझाया जिसके माध्यम से ईरान अपने पैसे हासिल कर सके। यानी ईरान को जिन देशों से भुगतान मिलने थे, वह पैसा वह यूरोपीय देशों, जैसे फ़्रांस और ब्रिटेन को दे और वे जो सामान उचित समझें, ख़रीदकर ईरान भेजें! यह वैकल्पिक रास्ता भी काफ़ी विलंब के बावजूद प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं हो सका।
17.    ईरान की बारहवीं सरकार
18.    अमरीका के परमाणु समझौते से बाहर निकलने के बाद, ईरान की बारहवीं सरकार ने पाँच चरणों में अपने कमिटमेंट्स को कम किया, जिसमें पाँचवाँ और अंतिम क़दम जनवरी 2020 में लागू किया गया।
19.    "प्रतिबंधों को हटाने और ईरानी राष्ट्र के अधिकारों की रक्षा के लिए रणनैतिक कार्यवाही अधिनियम", जिसे 1 दिसम्बर 2020 को ग्यारहवीं संसद द्वारा पारित किया गया।