तक़रीर

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाकीज़ा नस्ल पर और उनके सभी दुश्मनों पर अल्लाह की लानत हो।

मार्डन शेर व शायरी की जो छवि मेरे दिमाग़ में है और थी और जिसके बारे में पिछले साल भी  मैंने बताया था, (2) आज वह और साफ़ और मज़बूत हो गयी। शायरी, ख़ुदा के शुक्र से हमारे मुल्क में, आगे बढ़ रही है और उड़ान भर रही है, सही अर्थों में, सिर्फ़ संख्या के लिहाज़ से ही नहीं। इसकी क़द्र की जानी चाहिए और इसे जारी रखना चाहिए।

मैं कुछ बातें कहना चाहता हूँ जिन में से एक यह है कि शेर, एक “मीडिया” है। आज की दुनिया में जो चैलेंजेज़ और खींच तान है वह मीडिया की खींचतान है।  दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर करने वाले मिसाइल, ड्रोन, विमानों और इस तरह के दूसरे जंगी साज़ो-सामान से ज़्यादा, मीडिया असरदार होता है और दिलों पर प्रभाव डालता है, दिमाग़ों पर क़ब्ज़ा कर लेता है। अब जंग, मीडिया की जंग है। जिसके पास भी मज़बूत मीडिया होगा, जो भी उसका मक़सद होगा, जो भी, उसमें वह ज़्यादा कामयाब होगा। इस बुनियाद पर शायरी और शायरों की ज़िम्मेदारी स्पष्ट हो गयी। हम ईरानियों के पास शायरी की जो विरासत है उसकी मिसाल दुनिया में बहुत कम मिलती है। यह जो मैंने यह नहीं कहा कि उसकी मिसाल ही नहीं मिलती तो उसकी वजह यह है कि मुझे बहुत सी सभ्यताओं और संस्कृतियों के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है उसके हिसाब से उसकी कहीं मिसाल नहीं मिलती। शेरों की विरासत के हिसाब से, अलबत्ता अरब शेरों को छोड़ कर क्योंकि वह भी बहुत विशाल और महान विरासत है। इस बुनियाद पर हम शेर व शायरी और साहित्य की अपनी इस विरासत के साथ, हमारे पास शेर व शायरी का मीडिया रूपी हथियार बहुत मज़बूत, ताक़तवर, प्रभावशाली और असरदार है।

दूसरी बात यह है कि असर होने के लिए एक शर्त है और वह यह है कि शेर, सही अर्थों में कला हो, कलात्मक तरीक़े से कहा गया हो। बहुत से शेर हैं जिनका नाम शेर तो है, लेकिन उनमें या तो कला होती ही नहीं या फिर बहुत कम होती है, इस तरह के शेरों का असर नहीं होता। शेर को कलाकृति होना चाहिए। फ़ार्सी शेरों में, आप देखते हैं, मिसाल के तौर पर हाफ़िज़ के शेर, जो दर अस्ल हमारे कलात्मक शेरों की चरम सीमा है, गेटे(3) पर असर डालते हैं, इक़बाल(4) पर असर डालते हैं, उन लोगों पर भी असर डालते हैं जिन्हें फ़ार्सी नहीं आती। इक़बाल को फ़ार्सी नहीं आती थी, वही मशहूर इक़बाल जिनका फ़ार्सी शेरों का दीवान है, उन्होंने कभी फ़ार्सी नहीं पढ़ी और उनके घर वालों को भी फ़ार्सी नहीं आती थी, उन्होंने इन्ही हाफ़िज़ और दूसरे शायरों के शेरों से फ़ार्सी सीखी और इस हद तक पहुंचे कि उतना बढ़ा दीवान फ़ार्सी शेरों का तैयार कर लिया। यह शेर का असर है, कलात्मक शेर, इस तरह से असर करते हैं। या गोटे और बाक़ी दूसरे लोग जिन्हें आप जानते हैं।

जी तो अब हम अपने शेर को कला के साथ कहना चाहें तो, हमें सब से ज़्यादा किस चीज़ पर भरोसा करना चाहिए? ज़ाहिर सी बात हैः शरीर और आत्मा पर, लफ़्ज़ और संदेश पर। कमज़ोर शब्दों से, साधारण शब्दों से, अर्थ से ख़ाली मामूली लफ़्ज़ों से कलात्मक रचना नहीं तैयार की जा सकती। मैं कभी कभी अख़बारों में ऐसे शेर पढ़ता हूँ कि अगर इंसान उसके सारे शेर पढ़ जाए जिसे वहां ग़ज़ल का नाम दिया गया होता है, या जो भी, तो आख़िर में सच में ग़ुस्सा ही आता है, यानी उसका असर सिर्फ़ यह होता है कि ग़ुस्सा आता है और मूड ख़राब होता है, उसके लफ़्ज़ों में किसी तरह की कोई कला नहीं होती।

उसके बाद बात व मज़मून का ताल्लुक़ भी विषय से होता है, और इसी तरह उसका संबंध इस तरीक़े से भी है जिसमें आप सब्जेक्ट को बयान करते हैं। अगर आप मिसाल के तौर पर एक विषय को, जो बहुत ध्यान योग्य विषय भी नहीं है, शेर में उठाएं, लेकिन अच्छे व मज़बूत शब्दों में प्रभावशाली अंदाज़ में उसे बयान न करें, तो इससे शेर कभी अच्छा नहीं हो पाएगा। आप ग़ौर करें, ‘सब्के हिंदी’ शैली की शायरी में शेर कहने वाले साएब और कलीम जैसे शायरों ने जिन विषयों को उठाया है वह दूसरे शायरों के शेरों में भी मिल जाएंगे, लेकिन इन लोगों के बयान का तरीक़ा कुछ ऐसा है कि उनके शेर बहुत ऊपर चले जाते हैं। इस बुनियाद पर बात और विषय और इसी तरह मज़बूत व ठोस लफ़्ज़, दोनों चीज़ें ज़रूरी हैं।

एक और बात संदेश के बारे में है। जी तो हमने अपने शेरों के लिए विषय का चयन कर लिया और अच्छे अच्छे लफ़्ज़ भी तैयार कर लिये, तो सवाल यह है कि हम अपने सुनने वाले को क्या पैग़ाम देना चाहते हैं?

अब आप यह समझें कि कुछ लोगो का पैग़ाम शिकायत पर आधारित होता है जो तारीख़ में देख लें आप को यही शिकायत हर ज़माने के शायर के शेरों में मिलेगी, हर शायर अपने ज़माने के हालात की शिकायत करता है, अब कुछ ज़्यादा करते हैं और कुछ कम, लेकिन यह वह अर्थ नहीं है जो सुनने वाले के लिए ध्यान योग्य और स्वीकारीय फ़ायदे वाला हो। जी हां, अब इस क़िस्म के शेरों से तारीख़ के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान मिलता है, लेकिन बस थोड़ा सा ही उससे ज़्यादा नहीं, लेकिन मद्देनज़र जो चीज़ है और जो अच्छा संदेश हो सकता है और दीन का पैग़ाम है, नैतिकता का संदेश है, सभ्यता का पैग़ाम है, हम ईरानियों के लिए हमारी ईरानियत का पैग़ाम है। हमारे पास बहुत से पैग़ाम हैं, कहने के लिए बहुत कुछ है, सभ्यता व संस्कृति के बारे में, हमारे दीन के बारे में, नैतिकता के बारे में, ईरानी ज्ञान विज्ञान के बारे में, ईरानी क़ौम, बहादुरी से जो डटी हुई है उसके बारे में, हमारे पास बहुत कुछ है, यह सब वह बातें हैं जो हम दूसरों तक पहुंचा सकते हैं, इन सब बातों को शेर व शायरी में पैग़ाम के रूप में पेश करें। आज ईरानी क़ौम की एक ख़ूबी, ज़ुल्म के सामने बहादुरी से डट जाना है, दुनिया में ग़ुंडागर्दी और ज़ोर ज़बरदस्ती के सामने खड़े होना है, जिसकी एक मिसाल अमरीका व ज़ायोनी शासन के सामने खड़ा होना है। ईरानी क़ौम, खुल कर, बिना किसी का ख़याल किये, स्पष्ट शब्दों में, अपना रुख़ सामने रखती है, जी तो यह बहुत अहम बात है, दुनिया में इस चीज़ को बहुत पसंद किया जाता है। हमारे मुल्क के राज नेता जैसे कुछ राष्ट्रपति और दूसरे बड़े नेता, जब दूसरे देशों में जाते हैं तो सरकारों से नहीं, लेकिन जब जनता से मस्जिदों में जाकर या कहीं और जलसों में इस तरह की बातें करते हैं तो जनता जोश से भर जाती है। ख़ुद मैंने पाकिस्तान में कई हज़ार लोगों के बीच एक तक़रीर की थी, उनके राष्ट्रपति भी वहां बैठे थे, यह जलसा सच में ऐसा था जैसे दिल की धड़कन हो और जैसे दिल हो और लगातार धड़क रहा हो, लोगों का जोश इस तरह का था, यह उस बात की वजह से है जो कही जाती है यानी जब ईरानी क़ौम का प्रतिरोध और अपने रुख़ पर डट जाने को बयान किया जाता है तब यह होता है। दूसरे नेता भी इसी तरह के थे हमने सुना है उनके बारे में और हमें मालूम है। इस बुनियाद पर, इन बातों को दूसरे तक पहुंचाया जाना चाहिए, हमारा पैग़ाम यह हैः डट जाने का पैग़ाम, सभ्यता का पैग़ाम, और इस्लाम का पैग़ाम।

यह हमारा सालाना जलसा बहुत अच्छा है, बरकतों वाला जलसा है। बहुत सी हस्तियां भी इस जलसे में रही हैं जिनकी वजह से यह जलसा और महान हो गया, यही बड़ी हस्तियां जिनका नाम लिया गया, वह लोग हमेशा इस जलसे में आते थे, मौजूद रहते थे, शेर पढ़ते थे, यह बहुत अच्छा जलसा है। जो चीज़ मेरे दिमाग़ में है वह यह है कि इस जलसे को दिखावे के लिए नहीं होना चाहिए, हम अब यह नहीं कहना चाहते कि इस्लामी जुम्हूरिया में मिसाल के तौर पर इसी सतह की शेर व शायरी की बैठक हो! मुद्दा यह नहीं है, मैं यह चाहता हूँ कि यह जलसा आगे बढ़े, यानी शेर व शायरी के सिलसिले में जो मक़सद हैं उन्हें पूरा करने में मदद दे, इस काम की पैरवी की जाए, शेर व शायरी की बैठकें हों, अंजुमन बनायी जाए, महफ़िल की जाए और हमारी आज की बैठक में जो बाते हों, चाहे वह बातें जो आप ने शेर व शायरी के ज़रिए कही हैं या वे बातें जो मैंने तक़रीर में कही हैं, उन सब को आगे बढ़ाया जाए उन पर काम किया जाए।

मैंने कुछ चीज़ें लिखी हैं जो बहुत ही अच्छी हैं। एक तो तर्जुमे की बात है। हम अनुवाद के मैदान में कमज़ोर हैं। अरब के कुछ मशहूर शायर ईरान में भी जाने पहचाने हैं, उन्हें सब जानते हैं क्योंकि उनके शेरों का फ़ार्सी में अनुवाद किया गया है। अरब और ग़ैर अरब मुल्कों में हमें अपने शायरों का कोई नाम नहीं मिलता, अब यह हो सकता है कि मुझे जानकारी न हो, लेकिन जहां तक मुझे मालूम है उनका नाम नहीं है, क्यों? उनके शेर तो बहुत अच्छे होते हैं, इन शेरों को पूरी दुनिया के लोगों के सामने पेश किया जाना चाहिए जैसा कि शायर ने कहा हैः

बहुत अच्छी शराब हो लेकिन अगर मटके के

एकांत से जाम में नहीं आओगी तो क्या फ़ायदा? (6)

इन शेरों से आप के बयानों से फ़ायदा उठाया जाना चाहिए, पूरी दुनिया फ़ायदा उठाए, लोगों की सोच को फ़ायदा पहुंचे। इस बुनियाद पर, हमें शेरों के अनुवाद के लिए एक आंदोलन शुरु करना चाहिए। शेरों का अनुवाद, आम अनुवाद से अलग होता है, जैसा कि आप को पता है, आम तौर पर शेर का शेर से अनुवाद नहीं होता बल्कि साधारण रूप से अनुवाद होता है। कभी लोगों ने यह कोशिश की कि मिसाल के तौर पर सादी के शेरों का अरबी में अनुवाद करें लेकिन हमने देखा कि यह हो नहीं पाया। मेरे पास मसनवी के अरबी अनुवाद की एक किताब है, कई बार उसे देखा है, अब्दुल अज़ीज़ जवाहेरे कलाम, इराक़ के बड़े और मशहूर शायर मशहूर जवाहेरी के बड़े भाई हैं (7) कि जो ईरान में रहते थे, मेरे पास आये भी थे मैंने उनसे मुलाक़ात की है, उन्होंने मसनवी का अनुवाद किया है, सच में वह बहुत अच्छे शायर हैं लेकिन वह भी नहीं कर पाए। कविता का कविता में अनुवाद करना बहुत मुश्किल काम है। मरहूम सैयद महदी बहरुल उलूम जो 13वीं सदी हिजरी के धर्मगुरु हैं, जब मरजए तक़लीद बन जाते हैं, तो नजफ़ से कर्बला पैदल यात्रा करते हैं। नजफ़ के धर्मगुरु कभी कभी यह करते थे और पैदल कर्बला जाते थे, वह भी “मरजए तक़लीद” बनने के बाद पैदल कर्बला जाते हैं, कुछ दूसरे लोग भी उनके साथ हो लेते हैं। वह ख़ुद शेर व शायरी से दिलचस्पी रखने वाले इंसान थे और शायरी की समझ भी थी उनमें। शायर हैं और अरबी व फ़ार्सी में शेर कहते हैं, उनके साथ भी कुछ दूसरे शायर थे। यह भी एक बात है कि जब एक “मरजए तक़लीद” नजफ़ व कर्बला के बीच यात्रा के दौरान, शायर के बिना आगे नहीं बढ़ता, 3-4 शायर उनके साथ थे। वो लोग एक जगह पहुंचते हैं, थक जाते हैं, दूसरे लोग और आगे चलना चाहते थे, लेकिन वह कहते हैं कि बस अब मैं नहीं चल सकता। उसके बाद तालिब आमुली का यह शेर पढ़ते हैं कि

जहां भी हम पहुंचे कमज़ोरी की वजह से वह वतन हो गया

जहां से हम गुज़रे आंसुओं की वजह से वह चमन हो गया

वह यह शेर पढ़ते हैं तो वहां जो अरब शायर थे वह कहते हैं कि इसका मतलब क्या है? वह उनको इसका मतलब बताते हैं, फिर सुझाव देते हैं कि इसे अरबी में कहें। उन्होंने जो शेर कहा है वह किताबों में है, तालिब आमुली के इसी शेर का उन्होंने अरबी में अनुवाद कर दिया और शेर कहा दिया, वह सब अरबी के पहले नंबर के शायर थे लेकिन जब हम देखते हैं तो पता चलता है कि उनके शेर में और तालिब आमुली के शेर में बहुत फ़र्क़ है। ख़ुद मरहूम सैयद महदी बहरुल उलूम भी कहते हैं, उन्होंने भी शेर कहा है, जो इन किताबों में मिल जाएगा। शेर का अनुवाद शेर में नहीं किया जा सकता, उसका अनुवाद साधारण रूप में किया जाना चाहिए, हां साधारण रूप से आशय यह है कि शेर न हो लेकिन शायरी की तरह हो, ठोस शब्दों में, मज़बूत तरीक़े से। यह काम कौन कर सकता है? वही जिसे दोनों भाषाओं का पूरी तरह से ज्ञान हो और मेरी नज़र में जिस ज़बान में अनुवाद किया जाए वह ज़बान, तर्जुमा करने वाले की मातृ भाषा हो। यह होना चाहिए। मेरी नज़र में यह काम अहम है, सरकार का काम है यह, यानी यह काम आम जनता का नहीं है, कठिन काम है, इस बुनियाद पर मेरी एक सिफ़ारिश अनुवाद के बारे में थी।

एक और सिफ़ारिश यह है कि शेर व शायरी को स्कूली सिलेबस में शामिल किया जाए। वैसे है लेकिन इससे ज़्यादा होना चाहिए। बच्चे को बचपन से लेकर नौजवानी और जवान होने तक शेर व शायरी से लगाव होना चाहिए, शेर व शायरी, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति और हमारी शिक्षाओं का एक अहम हिस्सा है, हमारी बहुत सी शिक्षाओं को शेर व शायरी के रूप में बयान किया गया है।

एक और बात जो मैंने नोट कर रखी है वह यह है कि जनता की साहित्य की याददाश्त को बेहतर बनाया जाए और जनता और युवाओं के दिमाग़ में रचनात्मकता भरी जाए। हमारी जनता की लिटरेचर की याददाश्त कमज़ोर है, यानी सही जगह पर जब मौक़े के हिसाब से शेर याद नहीं आते, यानी उन्हें पता ही नहीं होता। कभी शेर पढ़ते भी हैं तो ग़लत पढ़ते हैं, कभी तो टीवी पर भी हम सुनते हैं, टीवी देख रहे होते हैं और एंकर एक शेर ग़लत पढ़ता है जिससे दिमाग़ ख़राब हो जाता है। एक बार एक बूढ़े व्यक्ति ने जिसे संगीत का ज्ञान था मुझ से कहा कि यह लोग जो किसी एक राग में गाते हैं और फिर राग से निकल जाते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे इंसान के कान में कील ठोंक दी गयी हो, मतलब इतना बुरा लगता है। अब जब इसी तरह से कोई शेर भी ग़लत पढ़ता है तो यही लगता है, जैसे इंसान के कान में कील ठोंकी जा रही हो। इससे यह पता चलता है कि लोगों की शेर व शायरी व लिटरेचर की याद्दाश्त कमज़ोर है। इसका इलाज है। इलाज का पता लगाना चाहिए और यह होना चाहिए कि जनता में शेर व शायरी से लगाव पैदा हो जाए और उन्हें उसकी मालूमात भी रहे।

मैं अपने प्यारे शायरों ख़ास तौर पर जवानों से एक और सिफ़ारिश यह करना चाहूँगा कि वे शेरों और शेरों की ख़ूबियों के बारे में अध्ययन करें। अब आप यक़ीनी तौर पर मिसाल के तौर पर हाफ़िज़, शाहनामा, या निज़ामी का ख़म्सा पढ़ते होंगे, यह सब तो ज़रूर पढ़ते होंगे, अगर पढ़ते होंगे, लेकिन यही सब कुछ नहीं है। हमारे यहां बहुत से शायर हैं जिनके शेर सच में बहुत अच्छे हैं, यही “सब्के हिन्दी” शैली के शायर, “ वुक़ूअ शैली” के शायर सच में इन लोगों के शेर कभी कभी तो आसमान की ऊंचाई तक पहुंच जाते हैं, मतलब यह कि शेर इतना ख़ूबसूरत होता है कि इंसान को हैरत होती है, इंसान आश्चर्य चकित रह जाता है कि यह शेर कितना ख़ूबसूरत, अर्थपूर्ण है, उसके शब्दे कितने सुन्दर हैं और कितन अर्थ उसमें निहित हैं। इस तरह के शेरों को पढें। उन लोगों ने जो शेर कहे हैं, अपनी कला को किस तरह से इस्तेमाल किया है, यही जो शेर में तारीख़ कही जाती है (8) जो कुछ शायरों ने कही है, सच में इंसान को हैरत होती है। क़ुम के रौज़े का जो पुराना सहन है, यानी पुराना सहन या छोटा सहन जिसे कहा जाता है, वहां एक “कतीबा” है जिसे “कतीबए मोजेज़िया” कहा जाता है (9), उस पर जो क़सीदा लिखा है उसका हर शेर इस सहन को बनाए जाने की तारीख़ को बयान करता है।(10) उसका हर दो शेर एक तारीख़ बताता है, और भी बहुत सी बातें हैं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं हैं, पुरानी बात है, मिसाल के तौर पर जब आप दो शेरों को एक साथ जमा करें तो कोई तारीख़ निकलेगी, तीन शेर जमा करें तो कोई और तारीख़! जी हां तो यह काफ़ी अहम चीज़ है। शेर भी बड़े ठोस हैं, यानी हल्के शेर नहीं हैं, बहुत अच्छे शेर हैं। क़ुम के रौज़े में दो सहन हैं, अगर अब आप जाएं क़ुम के पुराने सहन में, छोटा सहन या पुराना सहन जहां सुनहरा दीवान और गुंबद है, तो यह कतीबा आप को दीवार के ऊपर लिखा हुआ नज़र आ जाएगा, यही क़सीदा लिखा है जिसे  “क़सीदए मोजेज़िया” कहा जाता है जो सच में चमत्कार ही है। जी हां तो इन सब चीज़ों को हमारे नौजवान शायर देखें, इस से शायर के शब्दों और अर्थ की ताक़त का पता चलता है। मेरा मतलब यह नहीं है कि अब जाएं और तारीख़ वाले शेर कहने लगें, नहीं! यह देखें कि यह शायर कितना ज़बरदस्त है, कि इतनी सीमाओं के साथ भी मज़बूत शब्दों और अर्थ के साथ शेर कह लेता है, यह बहुत अहम है। यह भी एक बात है जो मैं कहना चाहता था। एक और बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह फ़ार्सी भाषा की हिफ़ाज़त है। मेरी नज़र में फ़ार्सी ज़बान पर बहुत ज़ुल्म हो रहा है। अब कुछ काम शुरु हुआ है, कुछ लोग अंजुमनों में कुछ काम कर रहे हैं लेकिन हमें इससे ज़्यादा काम की ज़रूरत है ताकि फ़ार्सी ज़बान मज़बूत हो सके। फ़ार्सी ज़बान, लचकदार ज़बान है, उन ज़बानों में से है जो विस्तृत हो सकती हैं, क्योंकि फ़ार्सी सिंथेटिक लैंग्वेज है और तरह तरह के शब्दों को मिलाया जा सकता है इस लिए इंसान को किसी भी अर्थ को बयान करने में कोई दिक़्क़त नहीं होती। ज्ञान विज्ञान के बारे में, मनोविज्ञान और हर प्रकार के अर्थ को बहुत ही बारीकी से फ़ार्सी भाषा में बयान किया जा सकता है जबकि बहुत सी ज़बानों में ऐसा करना सच में मुश्किल काम होता है। कुछ अर्थों को किसी भी तरह बयान नहीं किया जा सकता। एक बार मैंने कहा थाः

मैं ख़ुश हूँ कि रक़ीबों से तुम अपना दामन घसीटते हुए गुज़र गये

भले ही मेरी एक मुट्ठी जो ख़ाक थी वह भी हवा में उड़ गयी हो। (11)

अब यह “दामन घसीटते हुए” को अरबी में किस तरह से कहेंगे? अब हम अगर “दामन घसीटते हुए” का अरबी में अनुवाद करना चाहें, मुझे अरबी आती है, तो इसका कैसे अनुवाद करेंगे? इसका अनुवाद नहीं हो सकता, किसी भी तरह से इसका अनुवाद नहीं हो सकता। इस शायर ने एक बेहद बारीक और गहरी व अहम बात इसी “दामन घसीटते हुए” की मदद से कह दी, यानी फ़ार्सी में इस तरह की चीज़ें हैं। हम फ़ार्सी ज़बान की तरफ़ से लापरवाही कर रहे हैं। अफ़सोस की बात है कि विदेशी भाषाओं का हमला भी बढ़ गया है, युरोपीय भाषाओं का, पश्चिमी ख़ास तौर पर अंग्रेज़ी का असर बढ़ रहा है, यूं ही बस अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। मेरे ख़्याल में इसका उल्टा होना चाहिए, फ़ार्सी शब्द बनाना चाहिए, हम ने “हेलीकॉप्टर” को “बालगर्द” बना दिया, यह “बालगर्द” शब्द “हेलीकॉप्टर” से ज़्यादा ख़ूबसूरत है और उससे ज़्यादा आसान भी है और ईरानी शब्द है और इसके साथ ही वही अर्थ बयान करता है। वैसे अफ़ग़ानियों ने इसे “चर्ख़बाल” का नाम दिया था जो सही नहीं था, “बालगर्द”  “चर्ख़बाल” से ज़्यादा बेहतर है। हम इस तरह का काम बहुत करते हैं। कुछ लोगों ने आज की मुलाक़ात के लिए कुछ चीज़ें लिख कर मेरे पास भेजी थीं, मैंने फ़ैज़ साहब के नोट में एक शब्द देखा जो मुझे बहुत पसंद आयाः “रायाने सिपहर” पता नहीं यह किसने बनाया लेकिन बहुत अच्छा है! “साइबर स्पेस” की जगह उन्होंने “रायाने सिपहर” का शब्द इस्तेमाल किया। इस तरह के बहुत से शब्द हैं। यह कोई अजीब भी नहीं लगता, सुनने की आदत पड़ जाएगी तो यह बहुत अच्छा लगने लगेगा। मेरी नज़र में यह काम जारी रहना चाहिए और मुझे उम्मीद है कि हमारे साथी इसे आगे बढ़ाएंगे। वाक़ई यह नहीं होने देंगे कि विदेशी भाषाओं के शब्द फ़ार्सी भाषा में, इससे ज़्यादा इस्तेमाल हों, बल्कि अभी जितना हो रहा है उसे भी कम करें, फ़ार्सी भाषा को शुद्ध करें ताकि वह पूरी तरह से ख़ालिस फ़ार्सी भाषा बने। इन्शाअल्लाह।

बहरहाल यह रात बड़ी अच्छी थी। अल्लाह से दुआ है कि सब लोग कामयाब हों। जिन लोगों के शेर सुनने का हमें मौक़ा नहीं मिला इन्शाअल्लाह बाद में उनके शेर भी सुनने को मिलेंगे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

 

 

  1. इस मुलाक़ात के शुरु में, कुछ शायरों ने अपने शेर पेश किये
  2. शायरों और फ़ार्सी ज़बान के शिक्षकों के बीच तक़रीर 2023-04-05
  3. 18-19 वीं सदी के जर्मन शायर जॉन वुल्फगांग गोटे
  4. शायरे मशरिक़ मुहम्मद इक़बाल जिन्हें अल्लामा इक़बाल के नाम से जाना जाता है।
  5. सन 1986 में पाकिस्तान का दौरा
  6. साएब तबरेज़ी, दीवान
  7. मुहम्मद महदी जवाहेरी
  8. शब्द या वाक्य जो शेर का हिस्सा होता है और अबजद या शब्दों के नंबर के हिसाब से किसी घटना की तारीख़ उसके ज़रिये बयान की जाती है
  9. मीरज़ा मुहम्मद सादिक़ “नातिक़” का शेर है
  10. किताबों में 62 बैत (दो शेर) लिखा है लेकिन वहां उपस्थित एक व्यक्ति के अनुसार 256 बैत हैं।
  11. हज़ीन लाहीजी का दीवान
  12. जनाब नासिर फ़ैज़