स्पीचः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ अल्लाह के लिए जो पूरी कायनात का मालिक है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार और नबी अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे, अच्छी, सबसे पाक, सबसे चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर।

आप सभी प्यारे भाइयों का स्वागत करता हूं और दिल की गहराइयों से मुल्क के किसी भी हिस्से में काम करने वाले इस्लामी गणराज्य की एयरफ़ोर्स के मेहनती कर्मचारियों पर दुरूद व सलाम भेजता हूं। ईदे ‘बेसत’ (पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के एलान के दिन) की पेशगी मुबारकबाद पेश करता हूं, दहे फ़ज्र (इस्लामी इंक़ेलाब की सालगिरह के दस दिवसीय जश्न) की मुबारकबाद पेश करता हूं,  11 फ़रवरी (इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के दिन) की मुबारकबाद पेश करता हूं और उम्मीद करता हूं कि इंशाअल्लाह एयरफ़ोर्स की कामयाब कोशिशों का भविष्य, पिछले कुछ दशकों की तरह, रौशन व सफलताओं से भरा भविष्य होगा।

हमारी आज की मुलाक़ात हर साल की तरह 19 बहमन 1357 (8 फ़रवरी 1979) के हैरतअंगेज़ वाक़ए की सालगिरह के उपलक्ष्य में है, सचमुच बहुत ही हैरतअंगेज़ वाक़ेया था। इस वाक़ए के बारे में ख़ुद मैंने आप अज़ीज़ों से मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर मुलाक़ात में बारंबार तफ़सील से बात की है और इस वाक़ए के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को बयान किया है लेकिन मेरे ख़याल में इस वाक़ए में जो सबक़ और पाठ हैं, वो ख़त्म होने वाले नहीं हैं। अल्लाह के लिए बहादुरी और बलिदान के साथ किया जाने वाला काम ऐसा ही होता है, बरकत से भर जाता है। अल्लाह उन सभी कामों में बरकत देता है जो उसके लिए अंजाम पाते हैं। बरकत देता है का क्या मतलब? मतलब यह कि उसके असर और फ़ायदे ख़त्म नहीं होते, जारी रहते हैं, बरकत के मानी ये हैं। वो वाक़ेया भी ऐसा ही है, हमने उस वाक़ए से मिलने वाले सबक़ को बार बार दोहराया है, पेश किया है, उन पर चर्चा की है, मेरे अलावा दूसरों ने भी, ख़ुद आप लोगों ने, दोस्तों ने, इस्लामी गणराज्य की फ़ौज के अधिकारियों ने और दूसरे लोगों ने इस बारे में बातें की हैं। लेकिन फिर जब इंसान इस वाक़ए पर नज़र डालता है तो पाता है कि इसमें अभी भी सीखने की, सबक़ हासिल करने की गुंजाइश है। आज मैं इन्हीं में से एक बात के बारे में बात करुंगा जो मेरे ख़याल में अहम है।

एयरफ़ोर्स, इंक़ेलाब से जुड़ने में सबसे आगे रही। अलबत्ता फ़ौज का ढांचा कि जो एक अच्छा, अवामी, मुसलमान और ईमान पर आधारित ढांचा था, आसानी से इंक़ेलाब के जुड़ गया लेकिन सबसे आगे एयरफ़ोर्स थी। सबसे पहले 8 फ़रवरी की बैअत के ज़रिए जब एयरफ़ोर्स के जवानों ने इस हैरतअंगेज़ वाक़ए को वजूद दिया और फिर शाही गार्ड फ़ोर्सेज़ के मुक़ाबले में प्रतिरोध के ज़रिए भी, जब शाही गार्ड ने 10 फ़रवरी की रात मौजूदा शहीद ख़ज़राई ट्रेनिंग सेंटर में जो एयरफ़ोर्स के कर्मचारियों की ट्रेनिंग का सेंटर था, हमला कर दिया तो एयरफ़ोर्स वालों ने प्रतिरोध किया। उस वक़्त एयरफ़ोर्स के जो कर्मचारी वहाँ थे, उन्होंने हथियारों के गोदाम के दरवाज़े खोल दिए, लोगों को हथियार दिए, प्रतिरोध किया, इंक़ेलाबी लोग और नौजवान भी जोश में आ गए और मैदान में पहुंच गए, ख़ुद उस इलाक़े में भी एयरफ़ोर्स की मदद के लिए पहुंचे और तेहरान में भी निकल पड़े। मुझे ख़ुद याद है कि रात के 12 या 1 बजे थे, ईरान रोड पर जहाँ हमारा घर था, नौजवान सड़कों पर आ गए थे और चीख़ रहे थे कि एयरफ़ोर्स वालों का क़त्ले आम किया जा रहा है, लोगो! बाहर निकलो! लोग अपने घरों से बाहर निकल कर उनकी मदद के लिए जा रहे थे। यह इंक़ेलाब से जुड़ने में एयरफ़ोर्स का एक बड़ा क़दम था।

मैं जिस बिन्दु का उल्लेख करना चाह रहा हूं वो यह हैः यह जो पेशक़दमी अंजाम पाई, ये इंक़ेलाब को रफ़्तार देने वाला तत्व बन गयी, आज का बिन्दु यह है। यह 8 फ़रवरी की तारीख़ थी, उस ट्रेनिंग सेंटर के वाक़यों का केन्द्र 9 और 10 फ़रवरी की तारीख़ थी, 11 फ़रवरी को इंक़ेलाब कामयाब हो गया, काम तमाम हो गया और क़ौम को फ़तह मिल गयी। इस वाक़ए की, रफ़्तार देने की ताक़त पूरी तरह ज़ाहिर है। हर काम में, रफ़्तार देने वाले तत्व का रोल निर्णायक होता है। मैं बाद में रफ़्तार देने वाले तत्व के बारे में कुछ बातें अर्ज़ करुंगा। एयरफ़ोर्स ने अपने इस काम से, लोगों में उम्मीद को दुगुना कर गिया। इंक़ेलाबी लोग सड़कों पर शाही गार्ड वग़ैरह से मुक़ाबले में व्यस्त थे, इस काम ने लोगों की उम्मीद और लोगों की बहादुरी को बढ़ा दिया जबकि सामने वाले पक्ष के, इंक़ेलाब के विरोधियों के, दरबार के और उसके समर्थकों के हौसले पस्त कर दिए। तो इंक़ेलाब को रफ़्तार देने की प्रक्रिया इस तरह अंजाम पायी।

यह भी बड़ा अहम बिन्दु है कि इस पहले क़दम के बाद मेरे ख़याल में शायद पाँच छह महीने नहीं गुज़रे थे कि आत्म निर्भरता विभाग का गठन हुआ। फ़ौज में वो पहली जगह जहाँ आत्म निर्भरता का संघर्ष शुरू हुआ, एयरफ़ोर्स थी। यह क़दम उठाने का जज़्बा है, यानी वही जज़्बा जो इस बात का सबब बनता है कि दरबार और शाही फौज में शामिल इंसान ख़ुद को रिहा कराए और आकर क्रांतिकारियों से जुड़ जाए, यह हिम्मत दिखाने का जज़्बा, यह आत्मिक क्षमता, यह रूहानी ताक़त, यह वही जज़्बा है जो किसी दूसरे मैदान में, जो निर्माण का मैदान है, एक बार फिर आगे बढ़ता है और आत्म निर्भरता का जेहाद शुरू करता है। वह पहली जगह है जहाँ आत्म निर्भरता का जेहाद शुरू हुआ, एयरफ़ोर्स थी। ये वाक़ेया भी बहुत अहम वाक़ेया है, एयरफ़ोर्स के भीतर यह सोच पैदा होना कि उसके लोग, साज़ो-सामान, हथियार और दूसरे संसाधन वो ख़ुद तैयार करेंगे, पुर्ज़े बनाएंगे, ख़राब हो चुके पुर्ज़ों की मरम्मत करेंगे और अमरीकी टेक्नॉलोजी के जटिल राज़ों का ख़ुद पता लगाएंगे, जिसकी उन्हें उस वक़्त तक इजाज़त नहीं थी और कुल मिलाकर यह कि वो ख़ुद काम में लग जाएंगे, यह अपने आप में एक बड़ा क़दम था।

इस बड़े क़दम से पहले बल्कि इस आंदोलन से पहले, एयरफ़ोर्स पूरी तरह से अमरीकियों के हाथ में थी। एयरफ़ोर्स में मोमिन लोग काफ़ी थे, मैं ख़ुद लोगों को पहचानता था, इंक़ेलाब से पहले एयरफ़ोर्स के कुछ कर्मचारियों से मेरे संपर्क थे, हम आपस में दोस्थ थे, आना जाना था। तो एयरफ़ोर्स में अनगिनत मोमिन कर्मचारी थे, लेकिन एयरफ़ोर्स के बड़े अधिकारियों के अमरीका से संबंध थे। एयरफ़ोर्स के फ़ाइटर जेट और दूसरे संसाधन अमरीका के थे, अमरीका उसका मालिक था। जी हाँ! उनके पैसे अदा किए थे और उन्हें ख़रीदा था, फ़ाइटर जेट, फ़ुलां एयरबेस के फ़ुलां हैंगर (2) में था लेकिन अमरीका का था, उसका अख़्तियार अमरीका के हाथ में था, उसके कमांडरों का कंट्रोल भी अमरीका के हाथ में था। ये बातें जो मैं अर्ज़ कर रहा हूं पुष्ट बातें है और इसके दस्तावेज़ भी हैं, मतलब यह कि नारे नहीं हैं। मोहम्मद रज़ा शाह की माँ ने अपनी जीवनी में कहा है कि एक दिन मोहम्मद रज़ा मेरे पास आया और उसने कहा कि यह सल्तनत भाड़ में जाए! मैंने पूछा कि क्या हुआ? उसने कहा कि मैं इस इस मुल्क का बादशाह हूं, इस मुल्क का सुप्रीम कमांडर हूं, अमरीकी आते हैं, हमारे फ़ाइटर जेट वियतनाम ले जाते हैं और मुझे ख़बर तक नहीं होती! यह स्थिति थी! अमरीका के मालिक होने का मतलब यह है। अगर उसे ख़बर भी होती तो उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इजाज़त न देता, ज़रूर इजाज़त देता लेकिन वो लोग इजाज़त भी नहीं लेते थे, अगरचे उन्हें यक़ीन था कि उनकी मांग रद्द नहीं होगी लेकिन इसके बावजूद वो इस मुल्क के बादशाह को इस क़ाबिल भी नहीं समझते थे कि उससे यह इजाज़त लें कि हम आपके इस फ़ाइटर जेट को वियतनाम ले जाना चाह रहे हैं ताकि वहाँ के अवाम के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करें, मतलब यह कि एयरफ़ोर्स की स्थिति कुछ ऐसी थी।

उस एयरफ़ोर्स को उसके मोमिन कर्मचारियों ने, अमरीकी से ईरानी एयरफ़ोर्स में बदल दिया। एयरफ़ोर्स को ईरानी बना दिया, वो ईरानी हो गयी, उसके कमांडर ईरानी, उसके कर्मचारी ईरानी, उसमें फ़ैसला लेने वाले ईरानी, उसके संसाधन ईरानी, जी हाँ! अमरीका के तैयार शुदा थे लेकिन ईरान के थे, अब उनमें उन संसाधनों को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं थी। कुछ मुद्दत तक कुछ लोग हमारे एफ़-14 फ़ाइटर जेट को ग़फ़लत की बिना पर, इन्शाअल्लाह वो ग़द्दारी नहीं ग़फ़लत थी, वापस देना चाहते थे, वो कहते थे कि हमें एफ़-14 की ज़रूरत नहीं है! ख़ैर उन्हें रोक दिया गया। एयरफ़ोर्स ईरान की हो गयी, ईरानी हो गयी। तो एयरफ़ोर्स का इस तरह का अतीत है, यानी फ़ोर्स के भीतर और फ़ोर्स के प्रदर्शन को बेहतर करने और बदलाव लाने की ताक़त, इस तरह के रौशन व नुमायां नमूने हमारे सामने पेश करती है।

ख़ैर तो हमने कहा कि रफ़्तार देने वाला तत्व ज़रूरी है, ये एयरफ़ोर्स इंक़ेलाब को रफ़्तार देने वाला तत्व थी। एयरफ़ोर्स, एक ख़ास पोज़ीशन में इंक़ेलाब की कामयाबी को रफ़्तार देने वाला तत्व बन गयी और दूसरों पर ख़ुद अपनी और फ़ौज की निर्भरता के अंत को रफ़्तार देने वाला तत्व बन गयी, वो रफ़्तार देने वाली बन गयी लेकिन मैं अब मैं इसका दायरा बढ़ाना चाहता हूं। हर ज़माने में रफ़्तार देने वाले तत्व की ज़रूरत होती है, क्यों? इसलिए कि बड़े और ख़ास मक़सद वाले आंदोलन और कार्यवाही बहुत से मौक़ों पर सुस्ती या गतिहीनता का शिकार हो जाती हैं, चाहे पूरी तरह से न रुक जाए लेकिन सुस्त रफ़्तारी का शिकार तो हो जाती हैं, बड़े क़दम और बड़े आंदोलन इस तरह के होते हैं। दुनिया के बहुत से इंक़ेलाबों को जब आप देखते हैं तो पाते हैं कि पहले इंक़ेलाब आया, गहरे और बुनियादी बदलाव के इरादे से कोई काम अंजाम पाया, कुछ साल बाद वही पहले जैसे हालात पैदा हो गए। मैं अपने राष्ट्रपति काल में अफ़्रीक़ा के एक मुल्क के दौरे पर गया (3) जिस पर पहले पुर्तगालियों का राज था। एक क्षेत्रीय क्रांतिकारी राष्ट्रपति (4) के हाथ में उस मुल्क की सत्ता थी, हमने वहाँ जाकर जो सरकारी मशीनरी देखी, वही मशीनरी जो हमारी मेज़बानी कर रही थी और दोनों मुल्कों के बीच आना जाना था, वो पूरी तरह से उसी पुर्तगाली कमांडर की तरह थी, जैसे उन अश्वेत साहब की जगह जो इस वक़्त वहाँ के राष्ट्रपति हैं, मानो एक पुर्तगाली कमांडर बैठा हो, बिना किसी बदलाव के बिलकुल वही! ऐसा ही तो है। मतलब यह कि सामाजिक आंदोलन इस तरह की मुसीबतों का शिकार हो जाते हैं। सुस्त रफ़्तारी की मुसीबत, ठहर जाने की मुसीबत, पीछे की ओर पलटने की मुसीबत। अगर यह आंदोलन जारी रहना चाहता है तो इसे रफ़्तार देने वाले तत्व की ज़रूरत पड़ती है। तो यह रफ़्तार देने वाले कौन हैं? मैं बताउंगा।

अलबत्ता यहाँ के इस्लामी इंक़ेलाब में दूसरी जगहों से एक बुनियादी फ़र्क़ पाया जाता है। इस्लामी इंक़ेलाब के भीतर कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनमें आकर्षण और कशिश पायी जाती है और आकर्षण नई पौध को अपने में शामिल कर लेता है, अगर कुछ चीज़ें उससे दूर भी हो जाएं तो वो नई पौध उनकी जगह ले लेती हैं। आकर्षण की क्या मिसाल है? मिसाल के तौर पर इस्लामी गणराज्य के लक्ष्य, शैली, उमंगों का विशाल मैदान। इस्लामी गणराज्य में बहुत ही जटिल मैदानों में ज़ुल्म से मुक़ाबला है, ज़ालिम से मुक़ाबला है, दुनिया के नंबर वन ग़ुंडों की मुंहज़ोरियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है, इबादत की मेहराब, जमकरान मस्जिद, शबे क़द्र की रातों की बेदारी, अरबईन की पैदल ज़ियारत और रजब के महीने का एतेकाफ़ भी है। आप काम के विशाल मैदान को देखिए, ज़ुल्म से मुक़ाबला भी है, इच्छाओं से संघर्ष भी है, मुल्क के भविष्य पर ध्यान भी है, अल्लाह, अध्यात्म, अल्लाह की याद और स्वर्ग पर तवज्जो भी है। ख़ुद ये चीज़ें इस बात का सबब बनती हैं कि नई पौध, साथ छोड़ने वाली चीज़ों की जगह लेती रहे, सुस्त रफ़्तारी पैदा न होने पाए या अगर हो भी तो बहुत कम हो। मैं यह नहीं कहना चाहता कि बिल्कुल भी सुस्त रफ़्तारी पैदा नहीं होती लेकिन इस्लामी इंक़ेलाब का स्वभाव अपने आप में, अपनी हक़ीक़त में इस तरह का स्वभाव है।

इसलिए रफ़्तार देने वाला तत्व ज़रूरी है। ये तत्व किस लिए चाहिए? इसलिए कि रफ़्तार कम न होने पाए, बड़े कामों के सामने भय का जज़्बा पैदा न होने पाए, जब कोई बड़ा काम अंजाम पाने वाला हो तो उसे अंजाम देने वाले लोगों में अक्षमता या कमज़ोरी का एहसास पैदा न होने पाए, रफ़्तार देने वाला तत्व यहाँ पर अपना रोल अदा करता है। 

रफ़्तार देने वाला तत्व कौन है और उसका काम क्या है? मेरे ख़याल में रफ़्तार देने वाला तत्व वही है जिसे हम ख़वास या विशिष्ट वर्ग कहते हैं, समाज की अहम हस्तियां। विशिष्ट का क्या मतलब है? क्या विशिष्ट का मतलब मशहूर लोग, शिक्षित और विद्वान लोग हैं? नहीं, ख़वास और विशिष्ट का यह मतलब नहीं है। ख़वास व विशिष्ट का मतलब है वे लोग जो अपने काम में, सोच के साथ, पहचान के साथ, सही और ग़लत के अंतर की पहचान के साथ काम करते हैं और आस पास के माहौल से प्रभावित नहीं होते, विशिष्ट ऐसे लोगों को कहते हैं। ये ख़वास व विशिष्ट, इंक़ेलाबी कार्यकर्ताओं, मुख़्तलिफ़ पेशों से संबंध रखने वालो, फ़ौजियों, धर्मगुरूओं और मुख़्तलिफ़ ग्रुप्स के बीच हो सकते हैं, ये मीडिया के लोगों में हो सकते हैं, ये स्टूडेंट्स लीडरों में हो सकते हैं, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बीच हो सकते हैं। मैंने इससे पहले, कई बरस पहले कभी विशिष्ट लोगों के बारे में एक तफ़सीली बात की थी।(5) तो ख़वास और विशिष्ट का मतलब यह है। अल्लाह का शुक्र है हमारे मुल्क में और हमारी क़ौम में ख़वास और विशिष्ट लोग कम तादाद में नहीं हैं, वो लोग जो प्लानिंग के साथ, सोच समझकर, सही चीज़ की पहचान के साथ काम करते हैं, क़दम उठाते हैं, फ़ैसला करते हैं, मुल्क के स्तर पर बड़ी तादाद में हैं और ये इंक़ेलाब की बरकतों में से एक है। बहुत से मुल्कों में ऐसा नहीं है। मैं ख़ुद तो नहीं गया हूं लेकिन दुनिया के कई बड़े और मशहूर मुल्कों के बारे में रिपोर्टें मौजूद हैं कि जो लोग गलियों और सड़कों पर चलते फिरते हैं उन्हें पता ही नहीं होता कि दुनिया में उनके आस पास क्या हो रहा है, वे तो सिर्फ़ इस सोच में रहते हैं कि कहीं से दो वक़्त की रोटी हासिल कर लें या थोड़ा बहुत अपना माल बढ़ा लें। हमारे मुल्क में ऐसा नहीं है। हमारे मुल्क में जो लोग सही पहचान के साथ काम करते हैं, वे जानते हैं कि क्या कर रहे हैं, वे मोर्चाबंदी को समझते हैं, दुश्मन को पहचानते हैं, तरीक़ों को जानते हैं, दोस्त को पहचानते हैं, ऐसे लोग कम नहीं हैं, काफ़ी ज़्यादा हैं, ये लोग किरदार अदा कर सकते हैं, ये लोग संवेदनशील मौक़ों पर मुल्क के लिए काम कर सकते हैं।

उन पर भारी ज़िम्मेदारी है, मैं ये बात आपसे और पूरी क़ौम से कहना चाहता हूं। ये लोग, जिन्हें ख़वास और विशिष्ट कहते हैं, यानी वे लोग जो अपनी राय रखते हैं, जिनकी सोच, ग़ौर व फ़िक्र के साथ होती है, सही चीज़ की पहचान के साथ होती है, जो हालात को समझते हैं, जानते हैं, उन्हें मालूम होता है कि क्या काम हो रहा है, ऐसा नहीं है कि वे सिर झुकाए बैठे रहें और जहाँ सब लोग जा रहे हैं, वहीं ये लोग भी चले जाएं, उन पर भारी ज़िम्मेदारी है, उन्हें अवाम की हरकत की दिशा की रक्षा करनी चाहिए और उसे रास्ते से नहीं हटने देना चाहिए। अगर विशिष्ट वर्ग ने इस फ़रीज़े से ग़फ़लत बरती तो ऐसी घटनाएं घटेंगी जिनसे क़ौमों पर बहुत बड़ी चोट लगेगी, इस्लाम के इतिहास में इस तरह के बहुत से वाक़ए हैं। अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम के ज़माने में, इमाम हसन अलैहिस्सलाम के ज़माने में, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज़माने में ऐसे लोग थे जो ख़वास और विशिष्ट वर्ग में थे, बात को समझते थे, बात की हक़ीक़त को समझते थे लेकिन ज़रूरी मौक़े पर, सही समय पर मौजूद नहीं रहते थे, संदेह का शिकार हो जाते थे, कशमकश में फंस जाते थे, सुस्ती से काम लेते थे और कभी कभी ग़द्दारी कर बैठते थे और दूसरों को भी प्रभावित करते थे, उन लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं जिन पर माहौल का असर होता है, इस तरह के लोग भी रहे हैं। सिफ़्फ़ीन नामक जंग में कुछ लोग, क़ुरआन को भाले पर उठाए जाने से कशमकश का शिकार हो गए और उन्होंने दूसरों को भी शक में डाल दिया। कुछ रवायतें हैं, अलबत्ता पूरे भरोसे से नहीं कह सकता कि उनमें से कुछ लोगों ने यह काम जान बूझकर किया था, उनसे ग़लतफ़हमी नहीं हुयी थी, बल्कि वे दुश्मन से सांठगांठ की वजह से ऐसा कर रहे थे! ऐसा भी कहा जाता है, मुमकिन है इस तरह की स्थिति सामने आए।

इसलिए मैं आपसे अर्ज़ करना चाहता हूं कि आज दुश्मन ने ख़वास व विशिष्ट लोगों के लिए योजना बनायी है, ख़ुद हमारे मुल्क में ख़वास और विशिष्ट वर्ग के लिए और बहुत सी दूसरी जगहों पर विशिष्ट वर्ग के लिए दुश्मनों के पास योजनाएं हैं कि उन्हें संदेह व कशमकश में डाल दें, फ़ैसला करने की ताक़त छीन लें, संभवतः उन्हें दुनिया के आनंद और चकाचौंध से परिचित करा दें, उन्हें इस तरह सम्मोहित कर दें कि वे ज़रूरी मौक़ों पर, संवेदनशील जगहों पर, जहाँ क़दम उठाना ज़रूरी है, क़दन न उठाएं और रफ़्तार देने का काम, जिसकी ख़वास व विशिष्ट वर्ग से उम्मीद रहती है, अंजाम ही न पाए, इसके लिए उनके पास योजनाएं हैं।

ख़वास व विशिष्ट वर्ग की ज़िम्मेदारी यह है कि ज़रूरी मौक़ों पर दुश्मन की ओर से संदेह पैदा करने की कोशिश को नाकाम बना दें, सही स्थिति को बयान करें, उनकी व्याख्या करें, मैंने जो तथ्यों को बयान करने के जेहाद की बात की है (6)  उसका बैकग्राउंड यही है। हमने देखा है कि ख़ुद एयरफ़ोर्स में ऐसे लोग थे, ऐसे लोग थे, जिन शहीदों की तस्वीर यहाँ है और हम उन्हें क़रीब से जानते थे, उनमें से कुछ लोग दूसरों से बात करने वाले, उन्हें समझाने वाले, दलील के साथ ठोस बात करने वाले, असर डालने वाले थे और उन्होंने ज़रूरी मौक़ों पर अपना काम किया। क़ुरआने मजीद में इसका एक नमूना है जो मेरी नज़र में बहुत अहम है, वो उस मोमिन का क़िस्सा है जिसका ज़िक्र सूरए यासीन में है:"और (उसी दौरान) एक शख़्स शहर के परले सिरे से दौड़ता हुआ आया और कहाः ऐ मेरी क़ौम! इन रसूलों की पैरवी करो" (सूरए यासीन, आयत-20) जब परवरदिगारे आलम की तरफ़ से उस क़ौम की ओर तीन पैग़म्बर भेजे गए और लोग ईमान नहीं लाए बल्कि उनके ख़िलाफ़ साज़िश करने लगे और उन्होंने उन्हें क़त्ल करने की योजना बनायी तो एक बहादुर व मोमिन मर्द ने बड़ी तेज़ी से ख़ुद को लोगों की भीड़ तक पहुंचाया और कहाः "उन लोगों की पैरवी करो जो तुमसे कोई मुआवज़ा नहीं मांगते और ख़ुद भी हेदायत याफ़्ता भी हैं" (सूरए यासीन, आयत-21) (7) फिर कहता है, मैं जो प्वाइंट बयान करना चाह रहा हूं वो यह हैः "मैं क्यों उस हस्ती की इबादत न करूं जिसने मुझे पैदा किया है और तुम सब उसी की तरफ़ लौटाए जाओगे? क्या मैं उसे छोड़कर ऐसे ख़ुदाओं को अख़्तियार करूं... मैं तो तुम्हारे परवरदिगार पर ईमान ले आया हूं तुम मेरी बात (कान खोलकर) सुनो (और ईमान ले आओ)" (सूरए यासीन, आयत-22-23 और 25) बुलंद आवाज़ में, ठोस तरीक़े से अपने ईमान को ज़ाहिर करता है। ख़वास व विशिष्ट वर्ग को बेबाकी से काम लेना चाहिए, साफ़ अंदाज़ में बात करनी चाहिए, लोगों के मन से संदेह को दूर करना चाहिए, दोहरे अर्थों वाली और शक से भरी बात नहीं करनी चाहिए। "ईमान ले आया हूं तुम मेरी बात (कान खोलकर) सुनो (और ईमान ले आओ)" लो! ईमान ले आया हूं। यह उस काम की मिसाल है जो विशिष्ट लोग कर सकते हैं।

अगर हम अपने ही ज़माने में किसी एक ख़ास मसले के तौर पर कोई बात पेश करना चाहें तो मेरे ख़याल में वो यही ग़ज़ा का मामला है। इस्लामी जगत की अहम हस्तियों या विशिष्ट लोगों की ज़िम्मेदारियां हैं, खवास व विशिष्ट से मुराद धर्मगुरू हैं, बुद्धिजीवी हैं, राजनेता हैं, मीडिया वाले हैं, वे देख रहे हैं कि ग़ज़ा में क्या हो रहा है, वे देख रहे हैं कि अमरीका और उसकी ओर से ज़ायोनी शासन को सपोर्ट के नतीजे में, इंसानियत पर कैसे वार हो रहा है, वो यह देख रहे हैं। उन्हें अपने लोगों को बताना चाहिए, तफ़सील से बताना चाहिए, लोगों को इसकी मुख़ालेफ़त के लिए प्रेरित करना चाहिए, अवाम के भीतर से मांग उठनी चाहिए ताकि उनकी सरकारें ज़ायोनी शासन पर निर्णायक वार करने पर मजबूर हो जाएं। निर्णायक वार क्या है? हम नहीं कहते कि वो जंग में शामिल हो जाएं और वो होंगी भी नहीं, बल्कि शायद बहुत सी सरकारों के लिए यह मुमकिन भी न हो मगर वो आर्थिक संबंध ख़त्म कर सकती हैं, यह निर्णायक वार है। अगर क़ौमें अपनी सरकारों पर दबाव डालने की मांग करें तो यह काम हो सकता है और यह काम प्रभावी है। क़ौमें इस सिलसिले में सरकारों को सही डगर पर ला सकती है, उन्हें मजबूर कर सकती हैं कि वो ज़ालिम और ख़ूंख़ार अत्याचारी सरकार को सपोर्ट न करें जो इस तरह औरतों, बच्चों, बीमारों और बूढ़ों पर हमले कर रही है और सिर्फ़ कुछ ही महीने में कई हज़ार लोगों की क़त्ल कर चुकी है। कुछ लोग ऐसा करें कि इस सरकार की हिमायत न होने पाए। मैंने यहाँ तक सुना है कि कुछ इस्लामी मुल्क ज़ायोनी शासन को हथियार दे रहे हैं, कुछ मुल्क मुख़्तलिफ़ तरह की आर्थिक मदद कर रहे हैं, इसे रोका जाए। ये क़ौमों का काम है, क़ौमें दबाव डाल सकती हैं, सरकारों को मजबूर कर सकती हैं। क़ौमों को जगा सकता है? ख़वास व विशिष्ट लोग। देखिए विशिष्ट वर्ग का रोल कितना अहम है और किस तरह वे इतने अहम वाक़ए को अपने हाथ में ले सकते हैं और अपने हिसाब से आगे बढ़ा सकते हैं।

हमारे अपने मुल्क में इलेक्शन का मामला है।(9)  ख़वास व विशिष्ट वर्ग इसमें किरदार अदा कर सकता है। निश्चित तौर पर अगर मुल्क में चुनाव शानदार तरीक़े से आयोजित हों तो यह राष्ट्रीय संभुता को और बेहतर तौर पर ज़ाहिर करेंगे और राष्ट्रीय ताक़त, राष्ट्रीय सुरक्षा का सबब है। यानी जब दुश्मन का मोर्चा, पब्लिक की भागीदारी को देखता है, सिस्टम की ताक़त को देखता है और यह देखता है कि यह मुल्क, एक ताक़तवर मुल्क है, इसके अवाम पूरी तरह से तैयार हैं तो दुश्मन का ख़तरा बेअसर हो जाता है, मतलब यह कि राष्ट्रीय ताक़त, राष्ट्रीय सुरक्षा को वजूद देती है, यह बहुत ही क़ीमती व अहम चीज़ है। इस मसले में भी ख़वास व विशिष्ट वर्ग किरदार अदा कर सकता है, इलेक्शन को भरपूर बना सकता है। सारे इंक़ेलाबी काम, इसी तरह के हैं, कुछ दिन बाद 22 बहमन (11 फ़रवरी) की रैलियां होने वाली हैं, इंशा अल्लाह हमारे प्यारे अवाम उनमें भरपूर तरीक़े से हिस्सा लेंगे। यह भी क़ौमी ताक़त का प्रतीक है। इन 45 बरसों में लोग हर साल, नाग़ा किए बिना पूरे मुल्क में, छोटे बड़े शहरों में यहाँ तक कि ग्रामीण इलाक़ों में 22 बहमन को सड़कों पर आए, उन्होंने नारे लगाए, अपने इंक़ेलाब की रक्षा की, इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के नाम को ऊंचा किया और उनकी पैरवी और उनसे अपनी बैअत (आज्ञापालन के वचन) को दोहराया। इस साल भी अल्लाह की कृपा से ऐसा ही होगा इंशाअल्लाह।

अल्लाह से दुआ करता हूं कि वो ईरानी क़ौम को कामयाब करे, सरबुलंद करे, मज़बूत व ताक़तवर बनाए, ईरानी क़ौम के दुश्मन को दबा दे, क़ौम को उसके दुश्मनों पर फ़तह दे। इस्लामी गणराज्य की एयरफ़ोर्स के आप सभी अज़ीज़ों और इसी तरह दूसरी आर्म्ड फ़ोर्सेज़, फ़ौज, आईआरजीसी, पुलिस, स्वयंसेवी बल और दूसरी फ़ोर्सेज़ पर अपनी कृपा करे और आप सभी अल्लाह की हेदायत और मदद के पात्र क़रार पाएं इंशाअल्लाह।

सलाम और अल्लाह की रहमत हो आप सब पर

1-इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में जो 8 फ़रवरी 1979 के एयरफ़ोर्स के एक दस्ते की ओर से इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बैअत की सालगिरह के मौक़े पर आयोजित हुयी, इस्लामी गणराज्य ईरान की एयरफ़ोर्स के कमांडर ब्रिगेडियर हमीद वाहेदी ने एक रिपोर्ट पेश की।

2- जनवरी 1986 में मोज़म्बीक़ का दौरा

3- मोज़म्बीक़ के राष्ट्रवादी नेता सामूरा माशील (1933-1986) जो 1975 से 1986 तक इस मुल्क के पहले राष्ट्रपति थे।

4- मोहम्मद रसूलुल्लाह 27वीं ब्रिगेड के कमांडरों से मुलाक़ात में स्पीच (09/0/1996)

5- हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के शुभ जन्म दिवस के मौक़े पर कुछ ख़तीबों और शायरों से मुलाक़ात में स्पीच (23/01/2022)

6- सूरए यासीन, आयत-20 और (इसी दौरान) एक शख़्स शहर के परले सिले से दौड़ता हुआ आया और कहाः ऐ मेरी क़ौम! इन रसूलों की पैरवी करो।

7- सूरए यासीन, आयत-21, उन लोगों की पैरवी करो जो तुमसे कोई मुआवज़ा नहीं मांगते और ख़ुद हेदायत याफ़्ता भी हैं।

8- सूरए यासीन, आयत 22, 23, और 25,  मैं क्यों उस हस्ती की इबादत न करूं जिसने मुझे पैदा किया है और तुम सब उसी की तरफ़ लौटाए जाओगे? क्या मैं उसे छोड़कर ऐसे ख़ुदाओं को अख़्तियार करूं... मैं तो तुम्हारे परवरदिगार पर ईमान ले आया हूं तुम मेरी बात (कान खोल कर) सुनो (और ईमान ले आओ)

9- ईरानी संसद के बारहवें दौर के और विशेषज्ञ असेंबली के चुनाव जो 1 मार्च 2024 को होंगे।