बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

ख़ुदा का शुक्र है कि उसने एक बार फिर हमें यह मौक़ा दिया कि हम इस इमामबाड़े में आप भाइयों की सेवा में हाज़िर हों। आप सब का स्वागत है। और अभी शुरु में ही ताकि बाद में भूल न जाऊं, यह कहना चाहता हूं कि हमारी तरफ़ से शुक्रिया और हमारा सलाम, उन सभी को पहुंचा दें जिन्होंने मेहरबानी की और आप लोगों के ज़रिए, हमें सलाम भेजा है। सौभाग्य से यह मुलाक़ात, साल के सब से ज़्यादा फ़ज़ीलत वाले महीने और हफ़्तों में हो रही है, यानि रजब के महीने में। सच और इंसाफ़ की बात तो यह है कि रजब का महीना बहुत ही मुबारक महीना है। अल्लाह की रहमत, इस पूरे महीने उन सभी लोगों को अपने साये में रखती है जिनके दिलों में पालने वाले की याद बसी होती है। शायद यह कहा जा सकता है कि अल्लाह की सब से बड़ी नेमत, यानि पैग़म्बरे इस्लाम को हमारे लिए भेजना, इसी महीने में अंजाम पाया, यानि पैग़म्बरे इस्लाम को, उनका ओदहा औपचारिक रूप से इसी महीने में दिया गया, पैग़म्बरे इस्लाम की बेअसत, पूरी इंसानियत के लिए सब से बड़ी और बरकत वाली ईद है, सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं। हज़रत अमीरुल मोमेनीन की विलादत इसी महीने में हुई और दूसरे बहुत से मुबारक दिन इसी महीने में हैं। इन्शाअल्लाह आप सब और मैं नाचीज़ और दूसरे मोमिन भाई इस महीने की बरकतों से भरपूर फ़ायदा उठाने में कामयाब होंगे।

इस महीने में सब से अच्छा काम जो इन्सान कर सकता है शायद वह तौबा करना है। सच में हम सब को तौबा करने और अपने ख़ुदा की पनाह में जाने की ज़रूरत है। अल्लाह की तरफ़ से माफ़ी मिलना दुनिया और आख़ेरत में अल्लाह की तरफ़ से इन्सान को मिलने वाली सब से बड़ी नेमत है। यहां तक कि अल्लाह के क़रीबी बंदों, बल्कि पैग़म्बरों को भी, अल्लाह की मग़फ़ेरत और माफ़ी की ज़रूरत होती है। “ताकि अल्लाह तुम्हारे पहले और बाद के गुनाह बख़्श दे”(2) यह माफ़ी इस लिए है क्योंकि अल्लाह की इबादत और उसके हुक्म की पैरवी का हक़ कोई भी अदा नहीं कर सकता, तौबा इस लिए है। “हमने तेरी इबादत का हक़ अदा नहीं किया”। (3) कोई भी ऐसा नहीं है जो ख़ुदा की इबादत का, बंदगी का हक़ जैसा कि होना चाहिए वैसा अदा कर सके, चाहे जितनी कोशिश कर ले, नहीं कर सकता, यह तौबा इस लिए है। हम तो बहरहाल फंसे हुए हैं, हमारे जैसे लोग सिर से पैर तक ग़लतियों, रूहानी व आध्यात्मिक और दिल व अमल की समस्याओं में और हर तरह की कठिनाइयों में डूबे हुए हैं, इस लिए हमें तौबा की ज़्यादा ज़रूरत है, हम सब को तौबा करना चाहिए। रजब का महीना दुआ का महीना है, मदद मांगने का महीना है। अच्छी बात यह है कि इस महीने के लिए इमाम व मासूम अलैहिमुस्सलाम ने जो दुआएं बतायी हैं, जो दुआएं शब्दशः उनसे हवाले से लिखी गयी हैं, वह बहुत अच्छे, बहुत ऊंचे अर्थों वाली हैं, इन्शाअल्लाह इन से फ़ायदा उठाया जाएगा।

आज मैं जो बात करना चाहता हूं आप भाइयों से जहां तक हो सकेगा संक्षेप में, वह नमाज़े जुमा पढ़ाने के बारे में है। जुमा की नमाज़ एक विस्तृत विषय है, लेकिन आज मेरा इरादा उन ज़िम्मेदारियों के बारे बात करना है जो हम सब पर हैं क्योंकि बहरहाल मैं भी इमामे जुमा हूं, अगर अल्लाह क़ुबूल करे। हम जुमा के इमाम क्या करें और किस तरह से आगे बढ़ें? इस बारे में, मैं कुछ बातें कहना चाहता हूं।

सब से पहली बात तो यह है कि जुमा की नमाज़ पढ़ाना, बेहद कठिन कामों में से एक है और शायद ही कोई दूसरा काम इतना कठिन हो। इसकी वजह यह है कि इमामे जुमा को ख़ुदा के हुक्म का भी ध्यान रखना होता है और ख़ुदा के बंदों की ज़रूरतों पर भी ध्यान देना होता है, जुमा की नमाज़ में और उसके ख़ुत्बे में, ख़ुदा के लिए काम करने की नीयत और उस पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि अगर ऐसा न हो और इन्सान का दिल अल्लाह के लिए काम करने की नीयत से ख़ाली होगा तो फिर उसकी बातों में असर भी नहीं होगा, नमाज़ में बरकत नहीं होगी, यह तो ज़रूरी है ही, इसके साथ ख़ुदा के बंदों पर ध्यान देना भी ज़रूरी है। जुमा के अलावा जो दूसरी नमाज़ें होती हैं उसके बारे में शायर ने कहा है कि “मेरी पीठ, बंदों की तरफ़ और चेहरा ख़ुदा की तरफ़ होता है” लेकिन जुमा की नमाज़ में न केवल यह कि आप की पीठ लोगों की तरफ़ नहीं होती, बल्कि आप का चेहरा बंदों के सामने होता है, चेहरा ख़ुदा की तरफ़ भी होता है और उसके बंदों की तरफ़ भी होता है, इस लिए ख़ुदा की रज़ामंदी और मर्ज़ी को भी नज़र में रखना होता है और उसके बंदों के हितों और उनकी मर्ज़ी पर भी ध्यान देना होता है। तो है न बहुत कठिन काम, यह एक बेहद सख़्त काम है। जी तो बाद में मैं, बंदों की तरफ मुंह करने के बारे में कुछ बातें करूंगा, कुछ कहूंगा।

यहां पर इस्लाम के एक उसूल का ज़िक्र करना चाहता हूं और वह उसूल, इस्लामी और बुनियादी तौर पर इस्लामी जीवन में जनता की भूमिका। जनता, इस्लाम की नज़र में, क़ुरआन की नज़र में, सभी इस्लामी नियमों के मद्देनज़र, इस्लामी समाज को, इस्लामी समाज और इस्लामी समाज के वजूद को आगे बढ़ाने और क़ायम रखने के लिए,  उन पर बहुत ध्यान दिया गया है और उनका का रोल बहुत अहम है। आप हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह बयान देखें जो उन्होंने अपने इस मशहूर जुमले में कि “अगर लोग न होते, मददगार होने की दलील न होती ... तो मैं उसकी लगाम उसकी पीठ पर फेंक देता”।(4) यहा पर जनता के रोल पर भी ध्यान दिया गया है और उनके हक़ पर भी। “जनता की भूमिका” यानि जो ख़ुद को किसी तरह के हक़ का मालिक समझता है और कोई ज़िम्मेदारी क़ुबूल करना चाहता है अगर जनता उसके पास न जाए तो उस के लिए वाजिब नहीं है कि वह अपना वह हक़ लेने के लिए आगे बढ़ेः मैं उसकी लगाम उसकी पीठ पर फेंक देता, लोग न होते तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी भी न होती, कोई कर्तव्य नहीं होता। जनता की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है। यहां तक कि अमीरुलमोमेनीन हज़रत अली इब्ने अबू तालिब जैसी हस्ती भी, अगर उनके साथ जनता न हो, उनके आस पास लोग न हों तो वो कहते हैं कि मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है। अगर लोग आ गये तो फिर उन पर वाजिब हो जाता है कि वो ज़िम्मेदारी क़ुबूल करें, इस लिए हज़रत अली अलैहिमुस्सलाम ने वह ज़िम्मेदारी क़ुबूल कर ली, लोग आए उनके पास, उन पर दबाव डाला, आग्रह किया कि आप आएं और ख़िलाफ़त क़ुबूल करें, उन्होंने क़ुबूल कर लिया। जनता की भूमिका इतनी अहम है।

सिफ़्फ़ीन के बारे में जो ख़ुत्बा है उसमें हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बयान का यह हिस्सा बहुत अहम है कि “कोई भी इन्सान अपने हक़ के मामले में चाहे जितने बड़े दर्जे पर हो और दीन में उसकी फ़ज़ीलत चाहे जितनी हो वह अल्लाह की तरफ़ से अपने ऊपर डाली गयी ज़िम्मेदारी को पूरा करने करने के लिए मदद की ज़रूरत से परे नहीं होता”। (5) उसकी ख़ूबियां चाहे जितनी हों, उसका धर्म, उसका ज्ञान चाहे जितना हो कोई भी ऐसा नही है कि उसे लोगों की मदद की ज़रूरत न हो। यह जो” अल्लाह की तरफ़ से अपने ऊपर डाली गयी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए मदद की ज़रूरत से परे नहीं होता” कहा है यानि अगर वह अपने कर्तव्य को पूरा करना चाहता है, अगर वह अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करना चाहता है तो उसे जनता की मदद की ज़रूरत होती है।  वह जो “मदद” की बात की गयी है वह जनता की मदद है, यानि पूरे ख़ुत्बे में यह साबित किया गया है, इस जुमले से पहले जो कहा गया है और इसके बाद जो भी कहा गया है, उससे यही साबित होता है कि इस “मदद” से आशय जनता की मदद है, यानि हज़रत अली अलैहिस्सलाम को जनता की मदद की ज़रूरत होती है। अब यह जो हम “जनता” कहते हैं तो उसका मतलब पूरी जनता होती है चाहे वह लोग जिनका सामाजिक दर्जा हो, जैसे पढ़े लिखे हों, धर्म गुरु हों, राजनेता हों, एक सामाजिक हस्ती हों या आम लोग हों, सब की मदद की ज़रूरत है। इस लिए ख़ुदा ने अपने पैग़म्बर से कहा है कि “वह वही है जिसने तुम्हें मोमिनों की मदद से समर्थन दिया”। (6) बहुत अहम है! अल्लाह, मोमिनों को अपनी मदद में गिनवाता है, यानि अगर मोमिनीन, पैग़म्बरे इस्लाम की मदद न करते, तो पैग़म्बरे इस्लाम कामयाब नहीं होते। इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम ने पहला काम जो किया, वह मोमिन बनाना था, लोगों को मोमिन बनाया, उन्हों ईमान वाला बना दिया।

तो इस बुनियाद पर यह स्पष्ट है कि इस्लामी मक़सदों तक पहुंचने के लिए, हम उसे “इस्लामी व्यवस्था” का नाम भी दे सकते हैं, या आख़िर में वही “इस्लामी सभ्यता” तो वह जनता की उपस्थिति, जनता की तरफ़ से ध्यान दिये जाने और कोशिश किये जाने के अलावा किसी और रास्ते से मुमकिन नहीं है, जनता चाहे, जनता आए, जनता कोशिश करे तब यह होगा। यह हमारे लिए एक उसूल बन गया है, अब किसी के पास अगर कोई सरकारी ओहदा है, तो उसे चाहिए कि लोगों को अपनी तरफ़ लाने के लिए, लोगों को मैदान में बुलाने के लिए उसे कुछ न कुछ करना चाहिए, कभी कोई नमाज़े जुमा पढ़ाता है और ख़ुत्बा देता है, उसे अपनी तरह से यह काम करना चाहिए यानि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि “जनता” का जो विषय है वह एक इस्लामी उसूल है और उसके बिना कुछ नहीं किया जा सकता, मक़सद पूरे नहीं होंगे, ज़िदंगी नहीं मिलेगी। इस लिए इन्सान यह कह सकता है कि ख़ुदा ने नमाज़े जुमा को इसी लिए रखा ही है, नमाज़े जुमा और उसे दीनी अमल इसी लिए बनाया गया है ताकि मैदान में लोगों की उपस्थिति को यक़ीनी बनाया जा सके। जी हां जुमे के अलावा दूसरी नमाज़ें भी हैं, जिसका दिल चाहता है वह जमाअत से पढ़ने आता है जिसका दिल नहीं चाहता वह नहीं आता, लोग आते हैं, नमाज़ पढ़ते हैं और चले जाते हैं लेकिन जुमा की नमाज़ में, जो आता है उसके साथ बात की जाती है, उससे बातचीत की जाती है, उसके सामने विचार रखे जाते हैं, रास्ता और प्रोग्राम बताया जाता है। अस्ल में जुमा की नमाज़ इस लिए है ताकि जो लोग मैदान में हैं, उन्हें मैदान में ही रखा जाए, अगर वह इस काम में ढीला है तो उसे चुस्त बनाएं, उसे आगे बढ़ाएं, उसे मैदान में बनाए रखें, नमाज़ जुमा अस्ल में इस लिए है। सच में नमाज़ जुमा की इसे वजह समझा जा सकता हैः जनता की उपस्थिति और फिर, उनकी उपस्थिति को बेहतर बनाना।

जी हां जुमा का जो ख़ास हिस्सा है वह ख़ुत्बे हैं। दो रकअत तो हर नमाज़ में होती है, लेकिन जुमा की ख़ास बात उसके ख़ुत्बे हैं। जुमा की नमाज़ के ख़ुत्बों के बारे में रवायत में जो कहा गया है यानि जो बात लगभग सभी रवायतों में कही गयी है वह “नसीहत” है, ख़ुत्बे में लोगों को नसीहत करना, जुमा की नमाज़ के सिलसिले में सभी रवायतों में यह है। तो इस तरह से साफ़ हो जाता है कि जुमा के ख़ुत्बों का अस्ल बिन्दु नसीहत है। “नसीहत” का क्या मतलब होता है? जब हम नसीहत का नाम लेते हैं तो फ़ौरन हमारा दिमाग़ नैतिकता, आध्यात्म और रूहानियत वाली बातों की ओर चला जाता है। जी हां नैतिकता का उपदेश, एक बेहद अहम काम है जो किया जाना चाहिए यानि बुनियाद है, जिसके बारे में भी मैं बाद में एक बात कहूंगा, लेकिन सिर्फ़ उसका मतलब यही नहीं है, राजनीतिक उपदेश भी होता है, सामाजिक उपदेश भी होता है।

हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से फ़ज़्ल बिन शाज़ान ने जो रवायत बयान की है, यह जो गहरे अर्थों से भरी बात है उसमें कहा गया हैः “और वह उन्हें आने वाली चीज़ों के बारे में बताए”। यानी लोगों को आने वाली घटनाओं के बारे में बताए “उन घटनाओं के बारे में जिनमें उनके लिए फ़ायदा है या नुक़सान” (7) मतलब यह नहीं है कि हम वहां जाएं और बस यह कह दें “हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो” नहीं, बल्कि दुनिया व जहान की बातों की हर उस चीज़ की उनको जानकारी दें जो आप के सुनने वालों से ताल्लुक़ रखती हो, जिसमें उनका फ़ायदा या नुक़सान हो, उनसे बयान कीजिए, अगर आप का ख़ुत्बा सुनने वालों का कोई दुश्मन है जो उन्हें नुक़सान पहुंचा सकता है, तो उन्हें उस दुश्मन के बारे में बताएं, अगर कोई तरीक़ा हो जो उनको इस दुश्मन से बचा सकता हो तो उसके बारे में अपने सुनने वालों को बताएं, दुनिया की राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में उसे बताएं। “जो कुछ होने वाला है उसके बारे में उन्हें बताता है” जी हां, यह तो राजनीतिक बात ही होगी न, “राजनीतिक उपदेश” का यही मतलब है। वैसे यह भी पक्की बात है कि जब आप अपने सुनने  वालों को दुनिया व जहान की बातों की जानकारी दे रहे हैं तो फिर अपने देश के बारे में जानकारी देना ज़्यादा ज़रूरी है, अगर साज़िश है, अगर फ़ितना खड़ा किया जा रहा है, अगर कोई नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है, अगर कोई फ़ायदा है, अगर कोई सेवा है, अगर कोई ऐसा काम है जो किया जाना चाहिए, कोई काम है जो अधूरा पड़ा है, कोई काम है जो जनता के फ़ायदे में है और उसके बारे में जान कर उसे फ़ायदा पहुंच सकता है, तो उसकी जनता को जानकारी दी जानी चाहिए यह सब कुछ ख़ुत्बे में बयान करें। यह सब बातें कभी पुरानी भी नहीं होतीं, क्योंकि घटनाएं, हमेशा एक जैसी नहीं होतीं, आज कोई घटना है, तो हो सकता है कि अगले हफ़्ते कोई और घटना घटे, इन सब के बारे में लोगों को बताएं। 

सामाजिक उपेदश, हमारे अपने समाज में कुछ मुद्दे हैं जिनका राजनीतिक पहलू नहीं है लेकिन समाज के लिए बहुत ज़रूरी हैं, मान लें बच्चे पैदा करना या फिर आबादी की औसत उम्र जो एक बेहद ज़रूरी मुद्दा है। ईरानी क़ौम के दुश्मन दुनिया के एक कोने में बैठ कर, यह योजना बना रहे हैं कि ईरान की आबादी बढ़ने नहीं देंगे, ज़ाहिर सी बात है इतने ढेर सारे संसाधनों, स्ट्रैटेजिक भौगोलिक स्थिति और इस तरह की ख़ूबियों और इतनी योग्य जनता के साथ हमारे इस मुल्क की आबादी मिसाल के तौर पर 15 करोड़ या 20 करोड़ हो जाए तो क्या होगा! तो यह उनके लिए एक बड़ा ख़तरा है। इस लिए वे प्लान बना रहे हैं कि इसे रोका जाए। देश को आगे ले जाने वाले अगुवा कौन है? युवा हैं। आज से कुछ बरस पहले जब मुल्क के आंकड़े जारी किये जाते थे तो हम कहते थे कि देश की आबादी का इतना फ़ीसदी, बड़ा हिस्सा, जवान हैं, आज ऐसा नहीं है, आज उनका प्रतिशत कम हो गया है। अब अगर इससे भी ज़्यादा कम हो गया तो हमारा मुल्क एक बूढ़ा मुल्क बन जाएगा, फिर कोई तरक़्क़ी नहीं होगी, दुश्मनों की यह साज़िश है। मैंने एक बार अपनी एक तक़रीर में पूरी क़ौम से कहा (8) कि मैं भी उन लोगों में से हूं कि जिन्होंने ग़लती की और 90 के दशक में यह मुद्दा पेश किया और उसे जारी रखा। जी यह काम जो शुरु हुआ तो वह तो ठीक था, शुरुआत ठीक थी लेकिन फिर उसे जारी रखना ग़लत था, हमें यह ग़लत काम नहीं करना चाहिए था। यह एक सामाजिक मुद्दा है इस पर लोगों से बात की जानी चाहिए। नौजवानों की शादी का मामला, शादी की उम्र हमेशा बढ़ाते रहें, हमेशा टालते रहें! यह एक सामाजिक समस्या है, एक सोशल समस्या है, इसे लोगों के सामने बयान किये जाने की ज़रूरत है। नौजवानों को चाहे लड़की हो या लड़का, जहां तक हो सके अपने वक़्त पर शादी करना चाहिए। यह जो क़ुरआने मजीद की आयत है “अगर तुम ग़रीब होगे तो अल्लाह तुम्हें अपने फ़ज़्ल व करम से बेनियाज़ बना देगा और अल्लाह तो खुले हाथ वाला जानकार है”(9) यह हमारे लिए है, हम से कहा गया है, अल्लाह की बात है। हमें चाहिए कि हम यह बात लोगों तक पहुंचाएं। यह सब सामाजिक मुद्दे हैं, यह उपदेश हैं। सामाजिक उपदेश जो कहा जाता है वह यह है। फ़ुज़ूलख़र्ची, हमारे देश की एक समस्या इस वक़्त फ़ुज़ूलख़र्ची है। हम पानी के इस्तेमाल में फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं, रोटी में फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं, खाना बर्बाद करने में ज़्यादती करते हैं, घर के सामान में जिनके बस में है वह इन सब में फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं, बिजली के इस्तेमाल में हम फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं। यह सब सामाजिक मुद्दे हैं, उपदेश देना चाहिए, लोगों से कहना चाहिए, लोगों का ध्यान खींचना चाहिए इन मुद्दों की ओर और उन्हें इन कामों से रोकना चाहिए।

तो देखें! जुमा की नमाज़ उपदेश की जगह है और यह उपदेश भी सिर्फ़ नैतिक नहीं होना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी ने तहरीर (10) में जुमा के ख़ुत्बे के बारे में जो कुछ बयान किया है वह यह है कि वो कहते हैं कि इस्लामी मुल्कों की घटनाओं, मुल्क की स्वाधीनता से, दूसरे देशों से, हमारे मुल्क में दूसरों की दख़लअंदाज़ी से संबंधित जो कुछ है सब आप जनता से कहें, वो कहते हैं कि आप यह सब चीज़ें जुमे के ख़ुत्बे में बयान करें, आप की बात सुनने वाला जो भी हो, आम काम करने वाला, मज़दूर हो, या एक आम व्यापारी हो, उसे यह सब कुछ जानना चाहिए। जी तो इसका मतलब क्या है? इसका मतलब अपने सुनने वाले को वैचारिक रूप से आवश्यकता मुक्त कर देना है। आप उसके विचारों को मज़बूत कर देते हैं, यानि उसे दिल व दिमाग़ की ख़ूराक देते हैं जिसकी मदद से वह अपनी ज़िंदगी और अपने समाज के विभिन्न मुद्दों के बारे में सही तौर पर सोच सकेगा और सही फ़ैसला कर पाएगा। यह सब राजनीतिक व सामाजिक उपदेश है, नैतिक उपदेश भी अपनी जगह पर बहुत बड़ी चीज़ है क्योंकि इन्सान को रूहानी नर्मी और ख़ुद को सुधारने की बहुत ज़रूरत होती है। हमारे दिल दूषित हैं, बेकार की दोस्ती से, बेकार की दुश्मनी से, बेकार की ख़्वाहिशों से, बेकार के लगाव से। जी तो इन सब चीज़ों का हमारे अमल पर असर पड़ता है, यह हमें पीछे ले जाते हैं, फंसा देते हैं, और हम फंस चुके हैं, इस लिए हमें रूहानी नर्मी व सफ़ाई की ज़रूरत है। “पालने वाले! मेरा दिल अपनी मुहब्बत से, अपने डर से, अपने ऊपर ईमान व यक़ीन से, अपनी तरफ़ आने के शौक़ से भर दे”। (11)  दिल को अल्लाह का मक़ाम होना चाहिए, नर्म होना चाहिए, इसके लिए भी नैतिक उपदेश की ज़रूरत है। तौबा करना सिखाएं, ख़ुत्बे में एक और जिस चीज़ पर ज़ोर दिया गया है वह “अस्तग़फ़िरुल्लाह ली व लकुम” कहना है यानि ख़ुद के लिए भी तौबा करें और अपने सुनने वालों के लिए भी हम तौबा करें और उन्हें  तौबा करना सिखाएं भी। यह हमें ख़ुद सीखना चाहिए। तौबा करने का मतलत भी बस “अस्तग़फ़िरुल्लाह” कह देना नहीं है। नहजुल बलाग़ा का वह ख़ुत्बा काफ़ी मशहूर है जिसमें कहा गया हैः “तुम्हें मालूम है कि तौबा क्या है?” (12) तौबा की कई शर्तें हैं, उसके कई हिस्से हैं और उनके साथ ही तौबा सच्ची होती है। इस वक़्त हम इस बहस में नहीं जाएंगे। इस बुनियाद पर, यह जुमा की नमाज़ के ख़ुत्बों के बारे में एक बात थी कि जिसमें एक व्यापक उपदेश होना चाहिए। ख़ुत्बे के बारे में दूसरी बात भी है, ख़ुत्बे के बारे में और उसमें कही जाने वाली बात के बारे में, ख़ुत्बे में कही जाने वाली बात के बारे में भी और इमाम जुमा के रवैये के बारे में भी यह बात थी क्योंकि यह सब चीज़ें ख़ुत्बे के असर के लिए भी फ़ायदेमंद हैं और अहम बातें हैं।

एक और मुद्दा, ज़रूरत और सुनने वालों को पहचानना है। आप जो बात करना चाहते हैं, तो देखिए कि सुनने वाले को कौन सी बात की ज़रूरत है, सुनने वालों को पहचानें। हो सकता है कि हम कुछ लोगों के बीच ऐसी बात कहें जो उन लोगों के लिए ठीक हो लेकिन वही बात कहीं और कहना सही न हो यानि उनके लिए फ़ायदेमंद न हो। तो एक बात यह भी है कि हमें अपने सुनने वालों की पहचान होनी चाहिए। अब अगर आप के सुनने वालों में सब शामिल हैं, यानि मिले जुले हों, नौजवान हों, बूढ़े हों, औरतें हों, मर्द हों, बहुत पढ़े लिखे हों, कम पढ़े लिखे हों, सब तरह के हों तो इस तरह के मौक़े पर आप की कला और हुनर सामने आना चाहिए और हरेक को कुछ न कुछ दे दें, हर एक को कुछ न कुछ फ़ायदा हो जाए आप के ख़ुत्बे से। ख़ुद आप लोगों में से भी अक्सर लोग जवान हैं, आप लोगों को पता है कि आज के नौजवानों के दिमाग़ में अजीब व अजीब तरह की बातें आती जाती रहती हैं, जो आज से कुछ बरस पहले नहीं थीं, हमारी जवानी का दौर तो बहुत पहले की बात है, ज़मीन व आसमान का फ़र्क़ है, लेकिन अभी 20 बरस पहले तक भी नौजवानों के दिमाग़ में इस तरह की बातें नहीं आती थीं जो आजकल के नौजवानों के दिमाग़ में आती हैं। तरह तरह की बातें, एक से एक चीज़ें सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर। जी तो इस नौजवान के दिमाग़ में बहुत कुछ होता है, आप को यह जानना चाहिए कि उसकी समझ में क्या आता है, वह क्या चाहता है, उसके दिमाग़ में क्या है, क्या सवाल है, उसके सवालों के बारे में आप को मालूमात होनी चाहिए। अच्छा तो पहचाना कैसे जाए?  मिसाल के तौर पर आप किसी और शहर में रहते हों और सिर्फ़ हफ़्ते में एक दिन या दो दिन नमाज़ के लिए उस शहर में जाते हों, या उस शहर से संपर्क बहुत कम हो, तो फिर आप समझ नहीं सकते और न ही वहां की ज़रूरतों को जान सकते हैं। ज़रूरत समझने के लिए लोगों के साथ रहना ज़रूरी होता है। यहां पर वही बात है जो कहा जाता है कि इमामे जुमा को अवामी होना चाहिए, जनता से जुड़ा हुआ होना चाहिए, इमामे जुमा को लोगों के बीच में रहना चाहिए, लोगों के साथ रहना चाहिए, उसे लोगों के दिमाग़ की पहचान होनी चाहिए। सुनने वालों की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुत्बा देने के लिए एक ज़रूरी काम यह है कि आप स्टडी करें। इस्लाम में, इलाही ज्ञान बहुत ज़्यादा है और इन्सान की ज़िंदगी के हर पहलू के बारे में सब कुछ है, इन सब की मालूमात कैसे हासिल की जा सकती है? स्टडी करके, क़ुरआने मजीद पढ़ कर, हदीस पढ़ कर, दीनी किताबों में दिल लगा कर। स्टडी बहुत ज़रूरी है। किसी भी वक़्त किताब पढ़ने और अध्ययन की हमारी ज़रूरत ख़त्म नहीं होती। किताब पढ़ना ज़रूरी है और यह भी ज़रूरतों में शामिल है। इमाम जुमा के बारे में एक बात और है और वह यह कि उसे हमदर्द होना चाहिए, उसे जनता से लगाव होना चाहिए। हम लोगों से, बहुतों से स्वाभाविक रूप से जनता से लगाव रखते हैं, अपने शहर के लोगों से, अपने इलाक़े के लोगों से, अपने सुनने वालों से। हमारी जनता बहुत अच्छी है, हमारी जनता ईमान वाली है, लोग मोमिन हैं। यहां तक कि वे लोग भी जो व्यवहारिक रूप से उतने पाबंद नहीं हैं लेकिन ज़ाहिरी तौर पर दीनी हुक्म के बहुत पाबंद न होने का मतलब यह नहीं है कि उनके दिल में लगाव नहीं है, उनके दिलों में ख़ुदा है, उनके दिल में रूहानियत व आध्यात्म है, उनके दिलों में ईमान है। ज़ाहिर सी बात है कि कर्म और अमल में कमी हम सब करते हैं। हम में से कौन है जिसने दीन पर अमल में कमी नहीं की? सब ने किसी न किसी तरह से कमी की है। हमारी जनता, ईमान वाली है, हमारी जनता वफ़ादार है, जनता मुल्क के विभिन्न मामलों में उपस्थित और सक्रिय है। आप ग़ौर करें कि इन 40-45 बरसों में हमारे मुल्क में कितनी समस्याएं आयीं, हमारे ख़िलाफ़ कितनी साज़िशें की गयीं, किस तरह से हर तरफ़ से हम पर मीडिया, फ़ौज, अर्थ व्यवस्था और इस तरह के विभिन्न मैदानों में हमला किया गया तो इन हालात में इस्लामी व्यवस्था की हिफ़ाज़त किसने की? इसी जनता ने। यही जनता है जो जब सड़कों पर उतरने की ज़रूरत हुई तो सड़कों पर उतरी, जहां सब्र की ज़रूरत हुई वहां सब्र किया, जहां सर्मथन की ज़रूरत पड़ी, वहां समर्थन किया, जहां नारा लगाना हुआ वहां नारा लगाया, जहां जंग के मैदान में जाना ज़रूरी हुआ वहां जंग के मैदान में गयी।

इमाम ख़ुमैनी ने कहा है कि हमारे लोगों का ईमान, इस्लाम के शुरुआती दौर के लोगों के ईमान से ज़्यादा बेहतर है।(13) इमाम ख़ुमैनी ने बड़े ठोस अंदाज़ में यह बात कही है। कुछ लोगों को हैरत होती है, जी तो आप मिला लें। रसूल अकरम, कायनात की सब से बड़ी हस्ती थे, किसकी तुलना रसूल ख़ुदा से की जा सकती है कि हम कहें कि वह उससे हज़ार गुना बेहतर हैं, हज़ार गुना क्या है? यहां तक कि हम जिन बड़ी बड़ी हस्तियों को जानते हैं जैसे इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह, उनसे भी अगर कहें कि पैग़म्बरे इस्लाम एक अरब गुना बेहतर थे तब भी यह सही नहीं होगा, क्या इन लोगों की तुलना पैग़म्बरे इस्लाम से की जा सकती है? वह लोग, जो मदीना शहर में थे, उनके पास इस तरह की और पैग़म्बरे इस्लाम जैसी महान हस्ती थी, इन्क़ेलाब का शुरुआती दौर भी है, मिसाल के तौर पर इस इन्क़ेलाब का दूसरा बरस जब बद्र नामक जंग हुई थी, पैग़म्बरे इस्लाम उन्हें जंग के मैदान की तरफ़ ले जाते हैं। क़ुरआने मजीद में कहा गया है कि “और तुम्हारा दिल चाहता है कि ताक़तवर गुट के बजाए दूसरा गुट तुम्हारे हिस्से में आए” (14) दो हिस्से थे, दो गुट थे, एक गुट, जंग करने वालों का था जो काफ़िरों की तरफ़ से आ रहे थे, दूसरा गुट, व्यापारियों का था, क़ुरआन में कहा गया है कि तुम लोग उस गुट से मुक़ाबला करना चाहते थे जो व्यापारियों का था “और तुम्हारा दिल चाहता है कि ताक़तवर गुट के बजाए दूसरा गुट तुम्हारे हिस्से में आए” हालांकि यह लोग गये और जंग भी की और जीते भी ख़ुदा के शुक्र से, बहुत अच्छा रहा सब कुछ लेकिन उनकी दिली ख़्वाहिश यही थी। अब आप इस घटना की तुलना करें उस नौजवान से जिसकी पाक़ीज़ा डिफ़ेंस के दौरान एक प्यारी सी बीवी है, छोटा बच्चा है, मुहब्बत करने वाले मां बाप हैं, आरामदायक घर है, तभी इमाम ख़ुमैनी एक संदेश देते हैं, न उसने इमाम ख़ुमैनी को क़रीब से देखा है न ही उनसे मिला है, न ही करीब से उनकी बात सुनी है, बस रेडियो पर इमाम ख़ुमैनी का संदेश सुनाया गया, वह इन सब को छोड़ देता है और इमाम ख़ुमैनी के एक पैग़ाम की वजह से जाकर जंग के मैदान में दुश्मन से लोहा लेने लगता है। इसी तरह इराक़ व सीरिया में पवित्र रौज़ों की हिफ़ाज़त के दौरान भी यही हुआ, जबकि इन दो महान घटनाओं के दौरान 30 साल का फ़ासला था।

हमारे लोग इस तरह के हैं, हमारे यह लोग, मोमिन हैं, इन्क़ेलाब से लगाव रखते हैं, वफ़ादार हैं, हमारे लोग खुली आंख रखते हैं। तो इन की क़द्र की जानी चाहिए, उनसे  सही अर्थों में मुहब्बत करना चाहिए। हमारी जनता ने इस्लाम के लिए क़ुर्बानी में, मुल्क के लिए क़ुर्बानी में, इस्लामी व्यवस्था के लिए क़ुर्बानी में कोई कमी नहीं छोड़ी, जो कुछ हो सकता था और जो कुछ होना चाहिए था वह सब कुछ उन्होंने किया। यह भी एक बात है कि हमें जनता से प्यार करना चाहिए। अगर हम जनता से मुहब्बत करें, मुहब्बत दो तरफ़ा चीज़ होती है, आप जब जनता से मुहब्बत करेंगे तो जनता भी आप से मुहब्बत करेगी, वह भी आप से लगाव रखेगी और फिर जाकर आप की बातें उनके दिल पर असर करेंगी।

एक और बात भी है जो उसी उपदेश की बात की तरह है, और वह तक़वा का मामला है, तक़वे की तरफ़ बुलाने की बात भी ओलमा के फ़तवों और रवायतों में बार बार कही गयी है यानि यह कि इमामे जुमा को चाहिए कि वह लोगों को तक़वे की तरफ़ बुलाए। तक़वा यूं पहली नज़र में एक व्यक्तिगत मामला दिखायी देता है, तक़वा यानि “परहेज़गारी” और गुनाहों से बचना एक व्यक्तिगत काम है लेकिन दरअस्ल तक़वा भी एक सामाजिक मुद्दा है, यानि ऐसा काम है जो एक व्यक्ति से संबंधित तो होता है ही, उसके दिल और काम से संबंधित तो होता ही है लेकिन इसके साथ ही वह समाज से भी ताल्लुक़ रखता है, क्योंकि ख़ुदा ने फ़रमाया हैः “तक़वा और भलाई के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग करो”। (15) तो ज़ाहिर सी बात है तक़वा भी मिल जुल कर किया जाने वाला काम है, वह काम है जिसमें सहयोग किया जाता है। “तक़वा और भलाई के लिए एक दूसरे के साथ सहयोग करो”। जिन कामों में जनता का सहयोग असर रखता है उनमें तक़वा भी शामिल है।

तक़वा के बारे में राजनीतिक तक़वा होता है जिसमें राजनीतिक गुनाहों से परहेज़ किया जाता है। राजनीति का मैदान फिसलन भरा होता है। वैसे राजनीति तो सब को आनी चाहिए यानि इस्लामी दुनिया में, ऐसा कोई इलाक़ा नहीं है जो राजनीतिक न हो और इस्लाम तो एक राजनीतिक दीन है, जैसा कि पहले कही गयी बातों से यह समझ में आता है, सब को राजनीति की जानकारी रखनी चाहिए। लेकिन राजनीति एक फिसलन भरा मैदान है, अगर तक़वा न हो तो फिर इन्सान ग़लती कर बैठता है, फिसल जाता है। राजनीतिक जीवन में तक़वे और संयम की मदद से और आंखें खुली रख कर इन्सान ख़ुद को बहकने व फिसलने से रोक सकता है।

अगर राजनीतिक तक़वा होगा किसी के पास तो फिर उस पर दुश्मन की मनोवैज्ञानिक जंग का असर नहीं होगा। दुश्मन की मनोवैज्ञानिक जंग का एक नमूना यही “बुरा भला कहने वालों की बातें” हैं। कोई एक अच्छा काम करता है, चार फ़ुज़ूल लोग उसके पीछे पड़ जाता हैं कि तुमने यह काम क्यों किया, कोई एक अच्छी बात कहता है, तो दूसरे उसे धमकी देते हैं कि यह अच्छी बात कहीं क्यों। आजकल हालात यह हैं। अगर तक़वा होता है तो “बुरा कहने वालों की बातों से वह डरते नहीं” (17) यह जो क़ुरआने मजीद में “बुरा कहने वालों की बातों से वह डरते नहीं” की आयत आयी तो पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत सलमान की तरफ़ इशारा किया और उनसे कहा “तो अल्लाह ऐसे लोगों को लाएगा जिन्हें वह चाहता होगा और जो उसे चाहते होंगे”।(18) से आशय इनकी क़ौम के लोग हैं। दुश्मन के मनोवैज्ञानिक युद्ध से इस तरह मुक़ाबला होता है और यह साफ़्ट वॉर का एक नमूना है जिससे डरना नहीं चाहिए। “बुरा कहने वाले की बुराई” से नहीं डरना चाहिए।

जुमा की नमाज़ और ख़ुत्बों में एक और अहम बात, जो कि मेरी आख़िरी बात है, यह है कि आप अपने सुनने वालों और सभी लोगों को हर मैदान में मौजूद रहने की सिफ़ारिश करें। मिसाल के तौर पर सामाजिक मैदानों में और सोशल सर्विसेज़ के मैदान में उपस्थिति, जैसे किसी शहर में एक स्कूल बनाने की बात होती है, लोगों को इस काम में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे जितना हो सके, जैसे भी हो सके वह शामिल हो। मिसाल के तौर पर एक शहर में भले लोग, एक अस्पताल बनाना चाह रहे हों, इस तरह के काम करने वाले भले लोग हमेशा रहे हैं, आज भी हैं और इस तरह के काम करते हैं, या फिर यह तय करते हैं कि उन क़ैदियों की ‘दियत’ (ख़ून बहा या माली हर्जाना) अदा कर देंगे जो सिर्फ़ दियत की रक़म न होने की वजह से जेल में हैं और उन्हें जेल से रिहा करवा लेंगे, इस तरह के भले काम। इसके लिए लोगों का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि वे इस तरह के कामों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लें, यह एक मैदान है, यह सामाजिक मुद्दे का मैदान है।

इसी तरह राजनैतिक मैदान, जैसे इलेक्शन, चुनाव एक राजनीतिक मैदान की मिसाल है। मैंने चुनाव के बारे में कई बार यह बात दोहरायी है कि इलेक्शन, एक राजनीतिक मंच है कि जिसमें जनता की भागीदारी, सही अर्थों में ज़रूरी है, यानि यह जनता की ज़िम्मेदारी भी है और उनका हक़ भी है। चुनाव में शामिल होना सिर्फ़ ज़िम्मेदारी नहीं, हक़ भी है, आप का हक़ है, जनता का हक़ है कि वह चुने उन लोगों को जिन्हें वह चाहती है कि वे उसके लिए क़ानून बनाएं या क़ानून को लागू करें या सुप्रीम लीडर के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करें या एक्सपर्ट्स असेंबली के ज़रिए अपना सुप्रीम लीडर चुनें। यह जनता का हक़ है, उन्हें आगे बढ़ना और अपने इस हक़ का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे मैंने कहा कि यह मक़सद ज़बान से ही हासिल नहीं होता, यक़ीनी तौर पर ज़बान का असर है, ज़बान और बयान करना, जेहाद का ज़रिया है, सही अर्थों में, लोगों के लिए बयान करना, लोगों के लिए बोलना, लोगों के लिए बात करना सच में एक जेहाद है, लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है बल्कि जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया, इसके साथ काम भी होना चाहिए, अच्छे रवैये से, सब को जवाब देकर, जनता के बीच जाकर ख़ास तौर पर नौजवानों की बैठकों में शामिल होकर यह काम किया जाना चाहिए। यह तो कुछ बातें इमामे जुमा के बारे में थीं। इन्शाअल्लाह इसका अज्र व सवाब अल्लाह के पास, उसके मुश्किल होने के लिहाज़ से ज़्यादा है।

आज हमारा इन्टरनेशनल इस्लामी मुद्दा, ग़ज़ा है। ग़ज़ा के मामले में इन्सान को अल्लाह का हाथ व उसकी मदद नज़र आती है। इन लोगों ने, इन ताक़तवर मज़लूम लोगों ने पूरी दुनिया पर अपना असर डालने में कामयाबी हासिल कर ली है, आज पूरी दुनिया ग़ज़ा और फ़िलिस्तीन के लोगों के संघर्ष से प्रभावित है। आज दुनिया इन लोगों को हीरो की तरह देख रही है, यह सब हीरो हैं। दिलचस्प है कि दुनिया के लोग ग़ज़ा के बारे में एक साथ दो चीज़ें मान रहे हैं, एक तो यह कि वे मज़लूम हैं दूसरे यह कि वे जीत रहे हैं। आज पूरी दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो यह समझे कि अतिग्रहणकारी दुष्ट ज़ायोनी सरकार, ग़ज़ा की जंग में जीत गयी है, सब कह रहे हैं कि वह हार गयी है। दूसरी तरफ़ अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन, पूरी दुनिया के लोगों, दुनिया के राजनेताओं, चाहे मुसलमान हों या गैर मुस्लिम, सब की नज़रों में ज़ालिम है, ख़ूंख़ार है, बेरहम है और हारा हुआ, निराश है बिखरा हुआ है। यह सब्र और अल्लाह पर भरोसे की ख़ूबी है। ग़ज़ा के लोगों ने अपने पैर मज़बूती से जमा कर दर अस्ल इस्लाम का प्रचार किया है। पूरी दुनिया में, जिज्ञासा रखने वाले लोग आज यह जानना चाहते हैं कि वह कौन सी चीज़ है जिसकी वजह से फ़िलिस्तीनी जियाले इस तरह से मैदान में पैर जमाए डटे रहते हैं, वह क्या है, यह इस्लाम है क्या? इन लोगों ने इस्लाम को पहचनवाया है, बहुत से लोगों की नज़रों में क़ुरआने को लोकप्रिय बना दिया है। हे पालनहार! तुझे मुहम्मद व आले मुहम्मद का वास्ता! ग़ज़ा के जियालों, रेसिस्टेंस फ्रंट और ख़ास तौर पर ग़ज़ा के मज़लूम अवाम और वहां के मुजाहिदों की इज़्ज़त व ताक़त में हर दिन पहले से ज़्यादा वृद्धि कर।

यमन के लोगों और अंसारुल्लाह ने भी हक़ यह है कि सच में बहुत बड़ा काम किया है, ग़ज़ा के लोगों के समर्थन में उन्होंने जो काम किया है, सच में उसकी तारीफ़ और क़द्र की जानी चाहिए, इन्होंने ज़ायोनी शासन की गर्दन दबोच ली है। अमरीका ने धमकी दी, अमरीका से यह डरे नहीं! ऐसा ही होता है जब इन्सान ख़ुदा से डरता है, तो फ़िर उसके दिल में दूसरों का डर नहीं रहता। उन का काम सच में अल्लाह की राह में जेहाद की मिसाल है और हमें यक़ीन है कि इन्शाअल्लाह उनका यह जेहाद, यह रेसिस्टेंस, यह काम जारी रहेगा यहां तक कि उन्हें जीत मिल जाए, अल्लाह के हुक्म से।

अल्लाह उन सभी लोगों को जो उसकी राह में, अल्लाह को राज़ी करने की राह में क़दम बढ़ाते हैं, कामयाब करे। अल्लाह आप सब की हिफ़ाज़त करे और आप सब को इस राह में सही अर्थों में कामयाबी दे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

 

 

  1. इस मुलाक़ात के शुरु में, नमाज़े जुमा के इमामों के लिए नीति बनाने वाली परिषद के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम मुहम्मद जवाद हाज अकबरी ने एक रिपोर्ट पेश की।
  2. सूरए फ़त्ह, आयत 2
  3. सहीफ़ए सज्जादिया, दुआ 3
  4. नहजुलबलाग़ा, ख़ुत्बा 3
  5. नहजुलबलाग़ा, ख़ुत्बा 216
  6. सूरए अन्फ़ाल, आयत 62
  7. वसाएलुश्शीया, जिल्द 7 पेज 344
  8. बुजनूर्द के लोगों से मुलाक़ात में तक़रीर 2012-10-10
  9. सूरए नूर, आयत 32
  10. तहरीरुल वसीला किताब
  11. काफ़ी, जिल्द4 पेज 561
  12. नहजुलबलाग़ा, हिकमत 417
  13. सहीफए इमाम जिल्द 17 पेज 151, आईआरजीसी और बसीज बल के कमांडरों के बीच तक़रीर 1982-12-19
  14. सूरए अन्फ़ाल आयत 7
  15. सूरए माएदा, आयत 2
  16. सूरए माएदा आयत 54
  17. सूरए मायदा आयत 54