इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 19 नवम्बर 2023 को सिपाहे पासदाराने इंक़ेलाब की एरोस्पेस फ़ोर्स की उपलब्धियों और आविष्कारों की प्रदर्शनी का मुआइना करने के बाद स्पीच दी। उन्होंने रिसर्च के बारे में कुछ निर्देश दिए और साथ ही ग़ज़ा पट्टी पर ज़ायोनी शासन के हमलों के बारे में भी बात की।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तक़रीर
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
यह आज का मुआइना मेरे लिए बहुत अच्छा रहा है। वैसे मुझे मालूम था कि आर्म्ड फ़ोर्सेज़, आईआरजीसी की एयरोस्पेस फ़ोर्स और डिफ़ेन्स मिनिस्ट्री में हमारे भाई, बहुत बड़े और अच्छे अच्छे काम कर रहे हैं, लेकिन ज़ाहिर सी बात है इन कामों को क़रीब से देखने की बात कुछ और है। अगर मुल्क के अलग अलग विभाग, जिनमें से एक आर्म्ड फ़ोर्सेज़ हैं, अपनी अपनी ज़रूरतों को पहचानें और फिर अपनी ज़रूरत के हिसाब से काम करें तो, मेरे ख़याल से मुल्क की तरक़्क़ी ज़्यादा तेज़ी से और ज़्यादा बेहतर तरीक़े से होगी, यह हमारे लिए एक सबक़ है। जो चीज़ निर्णायक है, वह वैज्ञानिक बारीकी और वैज्ञानिक काम और रिसर्च है और इसके साथ ही जज़्बे और पक्के इरादे का होना भी ज़रूरी है जो दरअस्ल ईमान का नतीजा होता है। ख़ुशक़िस्मती से हमारे नौजवान, जैसे आप हैं, जिस मैदान में भी पक्के इरादे और ईमान के साथ क़दम रखते हैं, वहां वह बड़े बड़े काम करने में कामयाब होते हैं। यहां पर भी इन्सान को उसी ठोस इरादे और ईमान की निशानियां नज़र आती हैं, इससे साफ़ पता चलता है कि जो कुछ किया गया है वह फ़ौलादी इरादे, निरंतर कोशिश और अपनी ज़िम्मेदारी के इल्म के साथ हुआ है, इस ज़िम्मेदारी में ईमान रखना बहुत असरदार होता है, इससे बहुत मदद मिलती है, अस्ल सहारा यही ईमान व यक़ीन है कि जो इन्सान में होता है। आप लोगों ने जो कुछ हासिल किया है जो नयी सोच की मदद से हासिल किया है, नयी सोच और अविष्कार बहुत अहम है, इसे गवांना नहीं चाहिए।
आज ख़ुदा के शुक्र से आप बहुत अच्छी पोज़ीशन पर हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह जो पोज़ीशन आज हमारी नज़र में अच्छी है, कल भी अच्छी रहे, नहीं! क्योंकि दूसरे भी काम कर रहे हैं, दूसरे भी आगे बढ़ रहे हैं। अलग अलग जगहों से हमें लगातार ख़बरें मिल रही हैं, फ़ौजी संस्थानों से, या ग़ैर फ़ौजी संस्थानों से जो ख़बरें मिल रही हैं उनसे यह पता चलता है कि पूरी दुनिया में तरक़्क़ी की राह पर आगे बढ़ना, एक सामूहिक और जारी रहने वाली प्रक्रिया है और सब लोग मिल कर काम कर रहे हैं। हमें यह कोशिश करना चाहिए कि हम पीछे न रह जाएं, पीछे न हो जाएं। अल्लाह का शुक्र है कि हमारे यहां यानि आप लोग और आप जैसे आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के दूसरे विभागों में तरक़्क़ी की राह पर आगे बढ़ने का सिलसिला जारी है और यह तेज़ भी है और अच्छा भी है, यानी तरक़्क़ी अच्छी है और बड़ी तेज़ी से इस राह पर आगे बढ़ा जा रहा है, बहुत अच्छी बात है लेकिन यह रफ़्तार कम हो गयी तो हम पीछे रह जाएंगे। क्योंकि दूसरे भी चल रहे हैं, काम कर रहे हैं, तरक़्क़ी कर रहे हैं। यक़ीनी तौर पर कुछ मैदानों में हमारी पोज़ीशन बहुत अच्छी है, जिनमें यह एक मैदान तो वही है जो यहां आज हमें दिखाया गया, लेकिन कुछ मैदानों में हमारी पोज़ीशन अच्छी नहीं है, हमारी पोज़ीशन इतनी अच्छी नहीं है, कमियां हैं, ख़ामियां हैं, उन्हें भी तलाश करना चाहिए, हमें अपनी ज़रूरतों को पहचानना चाहिए, फिर ज़रूरत को दूर करने की तरफ़ आगे बढ़ना चाहिए, यह ज़रूरी काम है और हर हाल में अल्लाह से हमें मदद तलब करना चाहिए।
मैं एक बात फ़िलिस्तीन में जो कुछ हो रहा है उस बारे में भी कहता चलूं जो अहम है। ग़ज़ा में जो कुछ हो रहा है उससे बहुत सी छुपी हुई सच्चाइयां दुनिया वालों के सामने आ गयीं। उन छुपी सच्चाइयों में से एक तो यह है कि पश्चिम के मशहूर और बड़े मुल्क, अपने तमात दावों के बावजूद, नस्ली भेदभाव के विरोधी नहीं हैं, बल्कि नस्ल परस्ती का समर्थन भी करते हैं। कैसे? क्योंकि ज़ायोनी शासन, नस्ल परस्ती का प्रतीक है। ज़ायोनी, ख़ुद को सब से ऊंची नस्ल का समझते हैं और दुनिया के दूसरे लोगों को, हर तरह के इन्सानों को जो यहूदी और ज़ायोनी नहीं हैं, उन्हें नीचा समझते हैं, यही वजह है कि जब वह कुछ ही दिनों में कई हज़ार बच्चों को क़त्ल कर देते हैं तो उन्हें कोई एहसासे गुनाह नहीं होता और उनके लिए ऐसा ही होता है जैसे कई हज़ार जानवरों को मिसाल के तौर पर, उन्होंने ख़त्म किया हो, ज़ायोनियों की सच्चाई यह है। तो अब अमरीका के राष्ट्रपति, जर्मन चांसलर, फ़्रांस के प्रेसिडेंट, ब्रिटेन के प्राइम मिनिस्टर इस क़िस्म की चीज़ का साथ देते हैं और इस क़िस्म की पहचान रखने वाली सरकार की मदद करते हैं, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि नस्लभेद जो आज दुनिया का एक अहम मुद्दा है, और इन्सानों की आंखें खुल गयी हैं, जिसकी वजह से नस्ल परस्ती को एक बेहद बुरा और घृणित रुजहान समझा जाता है, लेकिन इसके बावजूद यह सारे मशहूर लोग, नस्ल परस्ती में यक़ीन रखते हैं और नस्ल परस्ती का बिल्कुल विरोध नहीं करते, वर्ना अगर वो विरोधी होते तो फिर ग़ज़ा और फ़िलिस्तीन के मामले में उनका यह विरोध कहीं नज़र आना चाहिए था। युरोप के लोगों को, अमरीका के लोगों को और दुनिया के लोगों को इन हालात में अपना पक्ष साफ़ करना चाहिए, उन्हें यह ज़ाहिर कर देना चाहिए कि क्या वह भी अपने नेताओं की तरह नस्ल परस्ती के समर्थक हैं या नहीं, अगर नहीं हैं तो अपनी रुख़ साफ़ करें। एक तो यह बात है।
दूसरी बात यह है कि ज़ायोनी शासन, अपने सारे बड़बोलेपन के बावजूद जो वह अकसर दिखाता है, बमबारी करके, हमले करके, अब तक अपने मक़सद में नाकाम रहा है। शुरु से ही ज़ायोनियों ने कहा कि उनका मक़सद यह है कि मिसाल के तौर पर हमास या रेज़िस्टेंस को ख़त्म कर दें, उसे पछाड़ दें, घुटने टेकने पर मजबूर कर दें, अब तक वो यह काम नहीं कर पाए हैं, आज लगभग 40 दिन या उससे ज़्यादा वक़्त गुज़र चुका है जिसके दौरान वे अपनी पूरी फ़ौजी ताक़त के साथ, अपने सभी संसाधनों के साथ, इस क़िस्म का जुर्म कर रहे हैं और अपने मक़सद में कामयाब नहीं हुए हैं। यह जो आम लोगों पर बमबारी कर रहे हैं उसकी वजह भी यही है कि वे तिलमिलाहट का शिकार हैं, अपनी इस कमज़ोरी की वजह से तिलमिला रहे हैं। इस वक़्त ज़ायोनी शासन बहुत ग़ुस्से में है, दुखी है, इस लिए इतने बड़े पैमाने पर जुर्म कर रहा है, अस्पतालों पर हमला कर रहा है, बीमारों पर हमला कर रहा है, बच्चों पर हमला कर रहा है, औरतों पर हमला कर रहा है, क्योंकि वह हार चुका है। यह जो हमने कहा था कि “ज़ायोनी शासन हार चुका है” वह एक हक़ीक़त है।(2) किसी अस्पताल के अंदर घुस जाना या किसी के घर में अंदर चला जाना तो जीत नहीं है, जीत उस वक़्त होगी जब वह अपने सामने वाले पक्ष को, अपने ऊपर हमला करने वालों को, अपने सामने डटे सैनिकों को हरा दें, अब तक तो वे यह नहीं कर पाए हैं और इन्शाअल्लाह कर भी नहीं पाएंगे। यह मामला उस वक़्त और अहम हो जाता है जब इन्सान यह ग़ौर करता है कि “यह नाकामी” सिर्फ़ ज़ायोनी शासन की नहीं है, बल्कि अमरीका भी कुछ नहीं कर पाया, वह भी मैदान में है, अमरीका भी मैदान में है, ज़ायोनी शासन की मदद करने वाले पश्चिमी देश भी कुछ नहीं कर पाए। इन्सानी तारीख़ और हालात में यह बहुत अहम मुद्दा है, हम उस जगह पहुंच गये हैं जहां हर तरह से हथियारों से लैस एक सिस्टम, इस तरह के हालात में, अपने सामने वाले पक्ष को कि जिसके पास उस तरह का कोई संसाधन नज़र नहीं आता, हरा नहीं पा रहा हो! यह बहुत अहम बात है, यह एक सच्चाई है।
मुसलमान सरकारों की ज़िम्मेदारियों के बारे में भी एक बात कह दूं। कुछ मुसलमान सरकारें, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में और अपने बयानों में कभी कभी बमबारी की आलोचना कर देती हैं, कुछ तो वो भी नहीं करतीं, लेकिन यह काफ़ी नहीं है, इस सिलसिले को और ज़ायोनी शासन की शहरग को काट देना चाहिए, ज़ायोनी शासन तक तेल और ऊर्जा नहीं पहुंचने देना चाहिए, उन्हें चाहिए कि ज़ायोनी शासन के साथ अपने राजनीतिक संबंध कम से कम कुछ ही दिनों के लिए मिसाल के तौर पर एक साल या उससे भी कम समय के लिए, ख़त्म कर लेना चाहिए, अगर वह चाहती हैं कि यह जुर्म न हो, यह त्रासदी रुक जाए और ख़त्म हो जाए तो यह काम करना इन इस्लामी सरकारों की ज़िम्मेदारी है। अवाम को भी फ़िलिस्तीन के लोगों की मज़लूमियत को भूलना नहीं चाहिए, यह रैलियों और प्रदर्शनों का सिलसिला इन्शाअल्लाह जारी रहना चाहिए।
हमें फ़्यूचर से बहुत उम्मीद है, हम अल्लाह के वादे पर यक़ीन रखते हैं और इन्शाअल्लाह अल्लाह का वादा पूरा होगा और हमें अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना होगा, इन्शाअल्लाह हम अपनी ज़िम्मेदारी पर अमल करेंगे।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू