(जनाब) जाबिर ने (हदीस का यह हिस्सा) इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से रिवायत नक़्ल किया हैः “ज़कात से रिज़्क़ बढ़ता है” मसला ज़ाहिरी तौर पर हमारी भौतिकवादी नज़र में यह है कि जिस वक़्त हम ज़कात निकालते हैं, यानी सदक़े के तौर पर एक रक़म अलग करते हैं, अस्ल में अपनी चीज़ में कुछ कमी करते हैं, लेकिन मसले का भीतरी पहलू यह नहीं है, बल्कि हक़ीक़त यह है कि ज़कात से रिज़्क़ बढ़ता है और यह भी इस मानी में कि ज़कात निकालने का क़ुदरती असर यह होता है कि अल्लाह उसका बदला इंसान को भलाई की शक्ल में देता है और रिज़्क़ बढ़ा देता है, इससे ज़्यादा व्यापक निगाह से जब इंसान देखता है, ज़रा व्यापक अर्थ में, जिस वक़्त समाज में लोग ज़कात निकालने के आदी हो जाते हैं अर्थव्यवस्था में रौनक़ आ जाती है और जब अर्थव्यवस्था में रौनक़ आ जाए, अवाम के सभी तबक़ों, हर तरह के लोगों को इससे फ़ायदा पहुंचता है। दूसरे लफ़्ज़ों में इबादत का अस्ल मतलब यह भी हो सकता है। इसके बाद फ़रमाया है कि रोज़ा भी और हज भी दिल के सुकून का स्रोत है, दिल का सुकून अल्लाह की अज़ीम नेमतों में से एक है। 'सकीना' यानी दिल का सुकून व आराम, यह सुकून वही चीज़ है जो औलिया के पास थी और बेशुमार सख़्तियों व मुश्किलों में उनके दिल और रूह को आराम व सुकून हासिल रहता है।

इमाम ख़ामेनेई

03/02/2019