तक़रीर का अनुवादः

बस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व नबी अबिल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक, पाकीज़ा व मासूम नस्ल पर ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्ससलाम पर।

प्रिय भाइयो, बहनो! मुल्क के सबसे अच्छे व महान वर्ग का एक नमूना और मुल्क के सेवक! आप सबका बहुत बहुत स्वागत है। अपने प्रिय भाई और शिक्षा मंत्रालय के आदरणीय प्रभारी की गुफ़्तगू का शुक्रगुज़ार हूं, उन्होंने बहुत अच्छी व अहम बातें बयान कीं। उन्होंने अंजाम पाने वाले कामों के बारे में जो जानकारियां दीं, जिनमें कुछ के बारे में मुझे जानकारी नहीं थी, वे बहुत अहम हैं। जिन कामों के बारे में उन्होंने कहा कि वे भी होने वाले हैं और उनके संबंध में कार्यवाही की जाने वाली है, वे भी बहुत अहम हैं। कमर कस लेनी चाहिए, ये सारे काम हो सकते हैं। अगर कोई यह सोचे कि यह महत्वाकांक्षा और उन बुलंद मंज़िलों तक जाने की बात है, जहां तक हमारे हाथ नहीं पहुंच सकते तो निश्चित तौर पर वह ग़लत सोच रहा है। ये सारी चीज़ें जो उन्होंने कहीं, वे हमारी अपेक्षाएं हैं और उन पर अमल मुमकिन है, सिर्फ़ संकल्प और हौसले की ज़रूरत है, काम की जानकारी की ज़रूरत है, लगन की ज़रूरत है और इंशा अल्लाह इस तरह की कोशिशों की अल्लाह मदद करेगा। आप लोगों ने जो तराना पढ़ा, मैं उसका भी शुक्रिया अदा करता हूं, एक अलग तरह का तराना था जो तौहीद से शुरू हुआ, उस्ताद की तारीफ़ करते हुए आगे बढ़ा, इंसाफ़ की बात तो यही है कि अल्लाह की तारीफ़ के बाद इंसान, उस्ताद की तारीफ़ करे, बहुत अच्छा तराना था।

हम अपने अज़ीज़ शहीद मरहूम आयतुल्लाह मुतह्हरी को श्रद्धांजलि पेश करते हैं जो सही मानी में उस्ताद थे। वे सभी ख़ुसूसियतें, जिनकी अपेक्षा हम अपने स्कूलों के टीचरों या यूनिवर्सिटी के उस्तादों से रखते हैं, उनमें मौजूद थीं। उनके पास इल्म था, वे ज़िम्मेदार थे, बहुत तवज्जो से काम करते थे, निरंतरता से काम करते थे, उनके कामों में अनुशासन होता था। अलहम्दो लिल्लाह उनकी शहादत भी मुल्क के लिए बरकतों का सबब बनी। ख़ुद वह तो ऊंचे दर्जे पर पहुंचे, साथ ही उस शहादत की वजह से उनकी किताबें, समाज के दिल में घर गर गयीं और मैं सिफ़ारिश करता हूं कि उनकी रचनाएं और उनकी स्पीच से तैयार की गयी किताबें ज़रूर पढ़ें ख़ास तौर पर उस्ताद उन्हें ज़रूर देखें।

ख़ैर यह बैठक अस्ल में पहले तो मुल्क की टीचर्ज़ सोसायटी की क़द्रदानी के लिए है। मैं हर साल इस क़द्रदानी को अपनी ज़िम्मेदारी समझता हूं और दूसरे यह कि इसमें शिक्षा व प्रशिक्षा के सिलसिले में कुछ बिन्दु पेश किए जाते हैं। आज भी मैं इस सिलसिले में कुछ बातें पेश करना चाहता हूं।

मेरे ख़याल में, टीचर के सिलसिले में मुझे सबसे पहले जो बात अर्ज़ करनी चाहिए, वह टीचर्ज़ सोसायटी का शुक्रिया अदा करना है, मुल्क के दूर दराज़ इलाक़ों में इस्लामी सिस्टम, इस्लाम और मुसलमानों के ये गुमनाम सिपाही ख़ामोशी से काम कर रहे हैं, जद्दो-जेहद कर रहे हैं, बहुत कठिनाइयों व परेशानियों में काम कर रहे हैं। हक़ीक़त में टीचर्ज़ की यह सोसायटी क़ौम के बच्चों की तरबियत कर रही है और उन्हें एक रौशन मुस्तक़बिल के लिए तैयार कर रही है। सारे के सारे टीचर्ज़ भी, दूसरी सभी सोसायटियों और मुख़्तलिफ़ तबक़ों की तरह, एक जैसे नहीं हैं लेकिन टीचर के सिलसिले में आम राय वही है जो मैंने अर्ज़ की। उन्हें संसाधन की कमी का भी सामना है जो सिर्फ़ आज की बात नहीं है। अतीत में भी टीचर मुख़्तलिफ़ तरह के इम्तेहानों में कामयाब रहे हैं। पाकीज़ा डिफ़ेन्स के दौर में मुल्क के क़रीब 5000 टीचर्ज़ शहीद हुए, चार हज़ार नौ सौ कुछ टीचर जंग में शहीद हुए, उन स्टूडेंट की तादाद जो ज़्यादातर टीचरों की नसीहतों के तहत मोर्चे पर गए और शहीद हुए, क़रीब 36000 है। ये स्टूडेंट हो सकता है कि फ़ैमिली, मस्जिद और साथियों के प्रभाव में भी गए हों लेकिन स्कूल और कॉलेज के वे ज़्यादातर नौजवान जो मोर्चे पर गए, वे टीचरों की नसीहत के प्रभाव में गए थे।

जो काम टीचर ने अपने ज़िम्मे लिया है, ज़िम्मेदार टीचर ने, वह मेरे ख़याल में मुल्क का सबसे अहम काम है यानी बच्चों की शिक्षा और तरबियत, यानी मुल्क के मुस्तक़बिल की तामीर। टीचर, हक़ीक़त में मुल्क के मुस्तक़बिल के आर्किटेक्ट हैं। आज आप मुल्क के ‘कल’ की तामीर कर रहे हैं। अगर आप एक जागरुक, पढ़े लिखे, चिंतन शक्ति रखने वाले, विचारक, समझदार, बा-ईमान, मज़बूत इरादे वाले, शरीअत और इस्लामी अख़ालाक़ के पाबंद, क़ौमी ज़िम्मेदारी की भावना से लैस इंसान की तरबियत कर सकें तो यह मुल्क की सबसे बड़ी ख़िदमत होगी, मतलब यह कि किसी दूसरी सेवा से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। हमारे बच्चों की तरबियत का यह मामला, ईरानी बच्चे की ज़ेहानत के मद्देनज़र कई गुना ज़्यादा अहम हो जाता है और दोहरी अहमियत हासिल कर लेता है। अगर हमारे सामने ज़ेहनी लेहाज़ से औसत दर्जे के बच्चों और नौजवानों की सोसायटी होती तो वह एक दूसरी बात होती, अब जबकि हमारे सामने ज़ेहानत के वैश्विक औसत से बेहतर नौजवान सोसायटी है तो अलग बात है। यह एक महासंपत्ति है। अगर हम इस मूल्यवान वजूद, यानी ज़हीन नौजवान, जिसने अपनी ज़ेहानत ओलंपियाड में, विश्व स्तर के कंप्टीशन और हर चीज़ में साबित की है, तरबियत न करें और उसे उसकी शान के अनुकूल मक़ाम तक न पहुंचाएं तो वाक़ई यह ज़ुल्म होगा, यह एक क़ीमती हीरा है, इसे अच्छी तरह तराशना चाहिए।  

तो यह टीचर का रोल और उसका दर्जा है। बहुत अहम दर्जा है, बहुत ऊंचा दर्जा है, ज़िम्मेदारी भी उसी के हिसाब से ज़्यादा है, ज़िम्मेदारी भी भारी है। चूंकि हमने इस सिलसिले में काफ़ी बातें कही हैं, मैंने भी बातें कही हैं और सभी ने बातें कही हैं, इसलिए मैं संक्षेप में कुछ अहम बातें पेश करता हूं।

एक बात यह कि टीचर, स्टूडेंट को अपने बच्चे की तरह समझे। अपने बेटे के बारे में, अपनी बेटी के बारे में आपकी क्या आरज़ू है? क्या आप नहीं चाहते कि वह कामयाब हो? क्या आप नहीं चाहते कि वे नाम कमाएं? क्या आप नहीं चाहते कि वे समझदार हों? क्या आप नहीं चाहते कि वे पढ़े लिखे हों? क्या आप नहीं चाहते कि वे बाअदब हों जिससे समाज में, घराने में उनका सम्मान हो? अपने बच्चे के संबंध में इंसान यही चीज़ें तो चाहता है। यही चीज़ें अपने स्टूडेंट के बारे में भी चाहें। यानी पहले चरण में आपका काम पढ़ाना है लेकिन हर क्लास के दौरान, मैंने बार बार कहा है कि मिसाल के तौर पर मैथ्स या फ़िज़िक्स का टीचर, पढ़ाते हुए एक लफ़्ज़ कहता है, जिसका असर उस जवान पर, मुझ जैसे उपदेशक की एक घंटे की स्पीच से कहीं ज़्यादा होता है। सिर्फ़ एक लफ़्ज़ से, ये चीज़ें हमने देखी हैं, अपने किरदार से, रवैये से, बयान से, ईमान से, ख़ैरख़्वाही से, उस शिष्य में इंसानी सलाहियतों को परवान चढ़ाइये। फ़र्ज़ कीजिए कि यह आप ही का बेटा या बेटी है जिसकी आप परवरिश कर रहे हैं यह टीचर से इंसान की पहली अपेक्षा है। अलबत्ता यह चीज़ तरबियत के विषय से हट कर है जिसके बारे में मैं बाद में अर्ज़ करुंगा, तरबियत का मामला एक अलग विषय है, कुछ लोग इन्हें आपस में मिला देते हैं। जो लोग तरबियत के पहलू को ख़त्म करना चाहते थे, वे कहते थे कि टीचर, शिक्षा देने के साथ ही तरबियत भी करे, यह बात आधी अधूरी है लेकिन शिक्षा के दौरान सही मानी में तरबियत की जा सकती है, मगर तरबियत अपनी जगह पर।

एक दूसरी बात स्टूडेंट्स को उन सेंटरों में जाने के लिए प्रेरित करना है जो बरकत पैदा करने वाले हैं, जैसे मस्जिदें, अंजुमनें। यह बात तजुर्बे से साबित हो चुकी है कि जो नौजवान मस्जिद आता जाता है, मस्जिद से जुड़ा हुआ है, वह समाज के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद होता है यानी इस बात की संभावना ज़्यादा है। ऐसा नहीं है कि मस्जिद में जाने वाला नौजवान या कोई और भटक नहीं सकता, क्यों नहीं, सारी संभावना पायी जाती है लेकिन यह बैकग्राउंड बहुत क़ीमती है।

टीचर के रवैये के बारे में एक दूसरी बात, स्कूल में स्टूडेंट के बाक़ायदा जाने के लिए कोशिश करना है। इस कोरोना की बीमारी से और ऑनलाइन क्लासेज़ से वाक़ई नुक़सान पहुंचा, मुल्क के शिक्षा के सिस्टम में गड़बड़ी पैदा हुयी। मुमकिन है कि यह कहा जाए कि साइबर स्पेस, वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग और इसी तरह की दूसरी चीज़ों से पढ़ाया जा सकता है लेकिन स्टूडेंट को पढ़ने और सबक़ सुनने के अलावा शिक्षा के माहौल में हाज़िर होने की ज़रूरत है, उसे इस बात की ज़रूरत है कि वह अपनी उम्र के बच्चों के बीच, अपने साथ काम करने वालों के दरमियान और अपने जैसे स्टूडेंट्स के बीच रहे, इससे सहयोग बढ़ता है, यह बहुत अहम है। कोशिश की जाए कि स्टूडेंट स्कूल जाए, स्कूल बहुत अहम है। यह एक बात हुयी, हमने अर्ज़ किया कि कोरोना से नुक़सान पहुंचा, ये फ़ितने, ये हंगामे और ऐसी ही दूसरी चीज़ें भी नुक़सान पहुंचाती हैं, सड़कों वग़ैरह पर जो ये लोग अशांति पैदा करते हैं, उससे मुल्क को जो नुक़सान होते हैं, उनमें से एक यही है कि स्कूलों को ग़ैर सुरक्षित कर दिया जाता है। या यही प्वॉइज़निंग और इसी तरह के दूसरे मसले, अब चाहे इनमें हक़ीक़त हो या अफ़वाह हो, अगर इसमें दुश्मन का हाथ हो और ज़ाहिरी तौर पर ऐसा ही है, तो यह वाक़ई मुल्क और शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के लिए बहुत बड़ा नुक़सान है क्योंकि यह चीज़ स्कूल जाने से रोकती है।

प्रिय व आदरणीय टीचरों से जिन चीज़ों की अपेक्षा है उनमें से एक यह है कि इस मुल्क के बच्चों में ईरानी और इस्लामी पहचान और क़ौमी शख़्सियत की भावना को ज़िन्दा करें। ज़बान का मसला अहम है, राष्ट्रीयता का मसला अहम है, क़ौमी परचम का मसला अहम है, बच्चे में इनसे लगाव होना चाहिए, ये ज़रूरी चीज़े हैं, बुनियादी चीज़ें हैं। स्टूडेंट में इस पहचान को, क़ौमी और व्यक्तिगत पहचान की भावना को ज़िन्दा कीजिए, स्टूडेंट को अपने ईरानी होने पर फ़ख़्र करना चाहिए, अलबत्ता उसे फ़ख़्र है। यह चीज़ सिर्फ़ यह कहने से कि “फ़ख़्र कीजिए” और सिफ़ारिश करने से सही नहीं होगी। मैं बाद में जब सिलेबस की किताबों के सिलसिले में कुछ बातें अर्ज़ करुंगा तो उसी वक़्त इस बारे में भी कुछ बातें अर्ज़ करुंगा, फ़ख़्र के लायक़ क़ौमी शख़्सियतें, सांस्कृतिक इतिहास, इज़्ज़त व ताक़त का इतिहास जब बच्चों और नौजवानों को दिखाया जाता है तो उनमें इज़्ज़त का एहसास पैता होता है। दूसरों के पास कोई तारीख़ ही नहीं है तो वे अपने लिए इतिहास गढ़ते हैं और उसकी फ़िल्म यहाँ भेजते हैं जो हमारे टेलीविजन से प्रसारित होती है, न उनके पास ऐसे क़ौमी नायक हैं और न ऐसी शख़्सियतें हैं लेकिन वे गढ़ते हैं, आर्ट है, फ़िल्म बनाने का आर्ट है। हमारे यहाँ वीरता व बहादुरी से भरा हुआ और उच्च मानवीय व समाजी ख़ूबियों से मालामाल इतना शानदार अतीत है, उनके बारे में कोई नहीं जानता, यह भी एक अहम बात है।

तो मैंने अर्ज़ किया कि टीचरों से हमारी कुछ अपेक्षाएं हैं। टीचर से हमारी अपेक्षा है कि वह ज़िम्मेदारी महसूस करे और यह एक सही अपेक्षा है, लेकिन इसके मुक़ाबले में, टीचर के सिलसिले में भी ज़िम्मेदारी महसूस की जाए, इंसाफ़ से काम लेना चाहिए, जब सिस्टम को टीचर सोसायटी से कोई अपेक्षा है तो उसे इस सोसायटी के संबंध में ज़िम्मेदारी का भी एहसास होना चाहिए। ज़िम्मेदारी का यह अहसास सभी लेहाज़ से हो। सिर्फ़ आर्थिक मसला नहीं है। अलबत्ता आर्थिक पहलु बहुत अहम है लेकिन सिर्फ़ वही नहीं है, तजुर्बा हासिल होना, महारत हासिल होना, वे चीज़ें जिनके बारे में शिक्षा व प्रशिक्षा मंत्रालय के आदरणीय प्रभारी ने अपनी स्पीच में कहा कि टीचर्ज़ के संबंध में ये काम होने चाहिए या हम अंजाम देना चाहते हैं, ये ज़िम्मेदारियों में शामिल हैं, ये वो काम हैं जिन्हें किया ही जाना चाहिए, ये टीचर के सिलसिले में सरकार की ओर से ज़िम्मेदारी का एहसास है, जैसे ड्यूटी के दौरान शिक्षा, टीचर्ज़ ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी के मसलों पर ध्यान, ये टीचर्ज़ ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी भी बहुत अहम है और टीचर्ज़ ट्रेनिंग से संबंधित सभी विभाग बहुत अहम है, उनका ख़याल रखा जाना बहुत अहम व ज़रूरी है।

कुछ बातें शिक्षा व तरबियत के विषय पर भी कहना चाहता हूं। एक, मुल्क के प्रबंधन सिस्टम में शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग का अहम मक़ाम है। सवाल यह है कि मुल्क को चलाने में शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग का क्या स्थान है? पहले तो यही बात कुछ लोगों को समझनी चाहिए। मेरे ख़याल में अब भी कुछ लोग, मुल्क की बहुआयामी तरक़्क़ी में शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के रोल को समझे नहीं हैं। अतीत में मुल्क के कुछ अधिकारी स्ट्रैटेजिक ग़लती करते थे जिससे हमें नुक़सान भी पहुंचा है और वह, बुनियादी हैसियत रखने वाले इस विभाग को मामूली समझना है। कुछ अधिकारी इस विभाग की क़द्र व अज़मत और इसके असर के पहलुओं को नहीं समझ पाए, कुछ ने इसे एक डिस्टर्ब करने वाले और एक ऐसे विभाग के तौर पर देखा जिस पर ख़र्च ही ख़र्च होता। ये बातें जो मैं अर्ज़ कर रहा हूं, यह मैंने ख़ुद लोगों से सुनी हैं, मुझसे कहा जाता था कि मिसाल के तौर पर मुल्क के बजट का इतना हिस्सा, शिक्षा व तरबियत पर ख़र्च होता है, इसका नतीजा क्या है? इसका नतीजा आउट सोर्सिंग है जिसके बारे में, मैं बाद में कुछ अर्ज़ करुंगा। मतलब यह कि शिक्षा व तरबियत के विभाग को एक डिस्टर्ब करने वाले विभाग के तौर पर देखते थे, इसका नतीजा बहुत साफ़ है।   

मेरे ख़याल में तरक़्क़ी के दुर्गम मोड़ों से गुज़रना, -हम मुल्क की बहुआयामी तरक़्क़ी के लिए कोशिश कर रहे हैं और इस राह में कठिन मोड़ मौजूद हैं- शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग की मदद के बिना मुमकिन नहीं है। आंज इंसान आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक यहां तक कि राजनैतिक मैदान के माहिरों से सुनता है कि जब मुल्क की बुनियादी मुश्किलों और कठिन स्थिति के बारे में बात की जाती है तो वे उनका हल स्कूल में तलाश करते हैं:  अगर बीस साल पहले या पच्चीस साल पहले हमने स्कूल पर उस तरह ध्यान दिया होता जिस तरह ध्यान देना चाहिए था तो आज फ़ुलां मुश्किल न होती, यह बात माहिर लोग कहते हैं, यह बात विशेषज्ञ लोग कहते हैं और वे सही कहते हैं, यह बिलकुल सही ख़याल है। इलाज यह है कि स्कूल में सुधार किया जाए, स्कूल के लिए और बच्चों और नौजवानों के लए सही योजना बनाई जाए, प्रोग्राम बनाए जाएं, यह एक मौजूदा सच्चाई है। तो शिक्षा व तरबियत विभाग के संबंध में यह सोच होनी चाहिए और अगर यह सोच हुयी तब इसी बुनियाद पर योजना बनने की उम्मीद पायी जाती है और अगर सही योजना बनी और साहस दिखाया गया तो जैसा कि मैंने कहा यह चीज़ व्यवहारिक होने लायक़ है, व्यवहारिक होगी, यानी ऐसी कोई चीज़ नहीं है जो असंभव हो, ये सारी चीज़ें मुमकिन हैं। सबसे पहले सही सोच होनी चाहिए, उसके बाद साहस और मुसलसल काम होना चाहिए। तो हमारी पहली बात, शिक्षा व प्रशिक्षा जैसे बुनियादी विभाग की अहमियत को समझने की है, यह बात सभी समझ लें, लोग भी, ख़ुद शिक्षा विभाग भी और मुल्क के अधिकारी भी, विधि पालिका और ज़्यादातर कार्यपालिका में योजना बनाने और फ़ैसला लेने वाले भी जान लें कि इस विभाग की अहमियत कितनी ज़्यादा है।   

एक और अहम बात जिसे शिक्षा विभाग में आम तौर पर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है और इस पर ध्यान नहीं दिया जाता, इस विभाग के प्रबंधन में स्थिरता का विषय है। इतने बड़े व अहम विभाग में हम अस्थिरता देख रहे हैं। शायर के बक़ौलः (फ़ारसी शेर का अनुवादः) जो भी आया उसने एक नई इमारत बनायी/ फिर वह घर दूसरे के हवाले करके चला गया।(2)

एक आता है, अपना प्रोग्राम तैयार करता है, काम शुरू करता है, उसके चले जाने के बाद काम अधूरा रह जाता है, फिर दूसरा आ जाता है। यहाँ मुझे रिपोर्ट दी गयी है -अलबत्ता यह बात मैं ख़ुद भी समझ सकता था लेकिन यह  बात रिपोर्टों में भी थी- कि सन 2013 से अब तक दस साल में हमने शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में 5 मंत्री और 4 प्रभारी देखे! यह बहुत ही अजीब चीज़ है। हमारे दूसरे मंत्रालयों में जैसे विदेश मंत्रालय में या कृषि मंत्रालय में सात साल, आठ साल, कभी इससे भी ज़्यादा एक मंत्री दो दो सरकारों में काम करता था, शिक्षा विभाग के प्रबंधन में इस तरह की अस्थिरता क्यों है? देखिए, देर से नतीजा देने वाले सभी विभागों के प्रबंधन में स्थिरता की ज़रूरत होती है, जिसमें शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग भी है जिसके काम के नतीजे बहुत देर में सामने आते हैं, यानी आज आप एक नौजवान के बारे में प्लानिंग कर रहे हैं, उसका असर अगले बीस साल में या तीस साल में ज़ाहिर होगा। ऐसे कामों के प्रबंधन में स्थिरता की ज़रूरत होती है। जब मंत्री बदल जाता है तो बहुत से दूसरे लोग भी बदल जाते हैं, उसके सहायक बदल जाते हैं, दूसरे अधिकारी बदल जाते हैं, मिडिल लेयर के अधिकारी भी बदल जाते हैं, मैंने तो यहां तक सुना है कि मंत्री के आने जाने से स्कूल का प्रिंसपल तक बदल जाता है। यह भी एक मसला है।

शिक्षा विभाग के संबंध में एक दूसरा प्वाइंट -और यह भी इस विभाग के संबंध में बुनियादी बातों में से एक है- शिक्षा व प्रशिक्षा के सिस्टम और उसके ढांचे का मुल्क की ज़रूरतों के मुताबिक़ होना या न होना है। हमारी शिक्षा व तरबियत का ढांचा -मिसाल के तौर पर स्कूल और कॉलेज की क्लासों की स्थिति या क्षेत्र के लेहाज़ से प्रोग्रामिंग और ऐसी ही दूसरी चीज़ें- और इसी तरह इस विशाल विभाग में सिलेबस और विषयों की तरतीब (क्रम), मुल्क की ज़रूरतों से कितना मेल खाती है? ये बहुत अहम बातों में से एक है। मुल्क के शिक्षा व संस्कृति क्षेत्र के आला अधिकारी ख़ास तौर पर शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के आला अधिकारी इस पर चिंतन करें। अलबत्ता कल्चरल क्रांति की उच्च काउंसिल में भी इस पर ग़ौर किया जाना चाहिए और शिक्षा व प्रशिक्षा की उच्च काउंसिल भी इस पर ग़ौर करे, शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के प्रबंधन अधिकारी भी इस विषय पर सोचें। हमें मुल्क में किस चीज़ की ज़रूरत है और हम इस वक़्त अपने बच्चों को क्या चीज़ सिखा रहे हैं? क्या यह चीज़ उसके कल के लिए फ़ायदेमंद होगी? मुल्क को विचारक और बुद्धिजीवियों की ज़रूरत है, लेकिन क्या मानव संसाधन की ज़रूरत नहीं है? मुल्क को जितनी कॉग्निटिव स्किल्ज़ की ज़रूरत है उतनी ही ज़रूरत काम करने वालें बाज़ुओं की भी है, मुल्क की सतह पर, सभी विभागों में इसे किस तरह व्यवस्थित किया जाए? हमें जितनी चिंतन शक्ति रखने वाली फ़ोर्स की ज़रूरत है उतनी ही उसे व्यवहारिक बनाने वाली फ़ोर्स की ज़रूरत है।    

इस वक़्त हमारे कालेजों में जो शिक्षा प्रचलित हैं, क्या वह तकनीक और महारत पर आधारित शिक्षा के संतुलन में है? मैंने इससे पहले की सरकारों को तकनीकी और महारत पर आधारित शिक्षा के बारे में कितनी सिफ़ारिश की! (3)

ख़ैर, अब उन्होंने बताया है कि इस में कुछ इज़ाफ़ा हुआ है, लेकिन इसका अनुपात संतुलित होना चाहिए। या मिसाल के तौर पर क्या हमारे शिक्षा सिस्टम में काम की माहिर वर्कफ़ोर्स की ट्रेनिंग होती है? काम में महारत, मुख़्तिलफ़ सेवाओं, प्रोडक्शन वग़ैरह में। शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग को इस बारे में सोचना चाहिए। या हमारे कालेजों की मौजूदा प्रक्रिया, मौजूदा सिस्टम, यूनिवर्सिटी की तरफ़ ले जाने वाला सिस्टम है, मतलब यह कि इस वक़्त जो प्रक्रिया है वह स्कूल और कॉलेज से यूनिवर्सिटी की ओर जाने वाला कोरिडोर है, क्या यह ज़रूरी है? क्या वाक़ई सभी को इस रास्ते से गुज़रते हुए यूनिवर्सिटी पहुंचना चाहिए? क्या यह ज़रूरी है? क्या यह मुल्क के लिए फ़ायदेमंद है? मैंने अभी कुछ दिन पहले अज़ीज़ मज़दूरों की सभा में, जो यहां थे, कहा था (4) कि हम इंटरमीडिएट करने वाली एक बड़ी तादाद को ग्रेजुएट और ग्रेजुएट्स को बेरोज़गार, असंतुष्ट व एतेराज़ करने वाले पोस्ट ग्रेजुएट में बदल रहे हैं, जो अपनी जगह ठीक लगते हैं, उन्होंने इतनी ज़्यादा शिक्षा हासिल की है और उनकी शिक्षा के लेहाज़ से मुनासिब रोज़गार नहीं है। वाक़ई इन बातों पर ग़ौर किया जाना चाहिए, इनका ख़याल रखा जाना चाहिए।

क्या हम अपने मानव संसाधन को जो भौतिक संसाधन से ज़्यादा क़ीमती हैं, सही अनुपात में वितरित कर रहे हैं? हमारे मानव संसाधन, हमारे ये बच्चे और नौजवान ही तो हैं, शिक्षा की मुख़्तलिफ़ शाखाओं में उनका वितरण सही अनुपात में है? यह बात अहम है। बहरहाल शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में बुनियादी नीति, मुल्क के भविष्य के लिए लाभदायक शिक्षा ही होनी चाहिए ना? हमें कल मुल्क में किस चीज़ की ज़रूरत है? इस पर ग़ौर करना चाहिए। कुछ साल पहले एक दोस्त ने, जो शिक्षा के क्षेत्र में सरगर्म थे, कहा कि हमारे मुल्क में, आबादी के अनुपात में, अमरीका से ज़्यादा इंजीनियर हैं! वे लोग किस चीज़ पर ज़्यादा काम करते हैं? ह्यूमैनिटीज़ पर, क्यों? इसलिए कि जो चीज़ दुनिया को चलाती है वे ह्यूमैनिटीज़ के सब्जेक्ट हैं, राजनीति है, मैनेजमंट है, ये चीज़ें हैं जो दुनिया की नीतियों को, दुनिया के काम को आगे बढ़ा रही हैं और उन्हें चला रही हैं, वे लोग इन पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। मैं इसकी सिफ़ारिश नहीं करना चाह रहा हूं, मैं यह नहीं कहना चाह रहा हूं कि इंजीनियरिंग को रोक दिया जाए या मिसाल के तौर पर आर्ट्स के साथ क्या किया जाए, नहीं, बल्कि इस चीज़ पर ध्यान दिया जाए कि मुल्क को आज और कल किस चीज़ की ज़रूरत है, हमें इस नौजवान को किस चीज़ के लिए ट्रेनिंग देनी चाहिए। फ़ायदेमंद इल्म, वह इल्म जो मुल्क के मुस्तक़बिल के लिए फ़ायदेमंद हो, इस बात पर शिक्षा व प्रक्षिशा विभाग के अधिकारियों को सबसे ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। यह एक बात है।

एक दूसरी बात शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में बदलाव का विषय और बदलाव के इस दस्तावेज़ (5) का विषय है जो आख़िरकार काफ़ी मुद्दत बाद और काफ़ी देर से तैयार हुआ। बदलाव के इस्तावेज़ के बारे में मैंने पिछले बरसों में जब हमारी यह मुलाक़ात होती थी, बार बार कहा है (6) फिर कहूंगा, अब इस बात की उम्मीद है कि इंशा अल्लाह विभाग में इस बात का संकल्प होगा कि वह इन कामों को अंजाम दे। सबसे पहले तो यह कि बदलाव के दस्तावेज़ को निरंतर अपटूडेट होना चाहिए। यह सही है कि बदलाव की दस्तावेज़ तैयार हो गयी है और वह अच्छी दस्तावेज़ भी है, लेकिन वह क़ुरआन की आयत नहीं है, यह भी न हो कि हर दिन उसे एक नई शक्ल दे दें, लेकिन माहिरों की राय लेकर अपटूडेट करते रहें, इसे संपूर्ण करते रहें।

दूसरे यह कि बदलाव की दस्तावेज़ को व्यवहारिक बनाने के लिए एक रोडमैप की ज़रूरत है, यह रोडमैप अब तक तैयार नहीं हुआ है, यानी मुझे इसकी तैयारी की ख़बर नहीं है, जो कुछ मुझे बताया गया है वह यही है। बदलाव की दस्तावेज़ को व्यवहारिक बनाने के लिए रोडमैप तैयार नहीं हुआ है, यही वजह है कि स्कूल में बदलाव की दस्तावेज़ व्यवहारिक रूप में नज़र नहीं आती। बदलाव की दस्तावेज़ अच्छी चीज़ है, इसमें बड़ी अच्छी बातें हैं लेकिन हक़ीक़त में, हमें शिक्षा व प्रशिक्षा के माहौल में इस दस्तावेज़ का कोई असर या निशान नज़र नहीं आता। इसलिए बदलाव की दस्तावेज़ के सिलसिले में एक अहम बिन्दु यह है कि इसके लिए रोडमैप तैयार किया जाए, इसकी प्लानिंग की जाए।

तीसरी बात यह है कि इस रोडमैप को सरकार और संसद की ओर से सपोर्ट मिले। अगर शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में कुछ लोगों ने बैठकर माहिर लोगों से सलाह व मशविरा किया, चर्चा की और आख़िरकार बदलाव के दस्तावेज़ पर अमल के लिए एक रोडमैप तैयार किया लेकिन जब उसके लिए बजट तय करना चाहा तो लगातार मुश्किलें सामने आयीं, सरकार की ओर से मुश्किलों का सामना हुआ, संसद में इस पर एतराज़ किया गया, तो यह काम आगे नहीं बढ़ेगा। सरकार और संसद मदद करें।

दूसरे यह कि बदलाव की दस्तावेज़ के लिए कोई प्रतिस्पर्धी न बनाया जाए। बदलाव की दस्तावेज़ एक ठोस, मज़बूत और अच्छी दस्तावेज़ है, अब किसी कोने से कोई दूसरी दस्तावेज़ बदलाव के लिए सिर न उभार ले और सभी को चकरा दे कि अब क्या करें, क्या न करें।

एक और बात यह कि इस रोडमैप में, जिसकी ओर मैंने इशारा किया ऐसे इन्डेक्स हों जिसका अंदाज़ा लगाया जा सके। आम तौर पर अंदाज़ा लगाने योग्य इन्डेक्स, मेक़दार बताने वाले इंडेक्स होते हैं लेकिन कुछ मौक़ों पर शायद क्वांटिटी बताने वाला इंडेक्स मुमकिन न हो लेकिन उसी चीज़ का क्वालिटी के लेहाज़ से अंदाज़ा मुमकिन हो सकता है, मतलब यह कि इसके लिए कुछ इंडेक्स तय कर दिए जाएं और फिर लगातार शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के प्रदर्शन को देखा जाए कि क्या इस चीज़ ने व्यवहारिक रूप लिया? क्या इस राह में कामयाबी मिली? काम हुआ या नहीं? ये सब ज़रूरी है- यानी सिर्फ़ यही काफ़ी नहीं है कि हमने एक दस्तावेज़ तैयार कर दी है। अलबत्ता मैंने सुना है- जनाब ने (7) भी कहा- कि ग्यारह साल बाद इस दस्तावेज़ पर अमल के लिए बजट में अलग से रक़म तय की गयी है, बहुत अच्छी बात है, अल्लाह मुबारक करे! अगर यह व्यवहारिक हो जाए, काम आगे बढ़ जाए इंशा अल्लाह तो बहुत अच्छा है। तो यह भी शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के सिलसिले में एक अहम बात थी।

शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के मामलों के बारे में एक दूसरी अहम बात, टीचर की भर्ती है और यह वाक़ई बहुत अहम मामला है। आज हमें अच्छे व ज़िम्मेदार टीचर्ज़ की कमी का सामना है। पूरे मुल्क में बहुत ज़्यादा टीचर्ज़ जी जान से काम कर रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं है, हम जानते हैं, हमे जानकारी है लेकिन इसके साथ ही हमें इस कमी की भी जानकारी है। हमें कमी का सामना है और यह कमी इस वजह से है कि अतीत में इसका अंदाज़ा नहीं लगाया गया। देखिए, यह जो मैंने कहा “दीर्घकालिक काम” इनमें से एक यही है। अतीत में इसका अंदाज़ा नहीं लगाया गया। यहाँ तक कि उस वक़्त भी जब तय पाया था कि टीचर्ज़ ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी क़ायम हो, कुछ लोग कहते थे कि इस यूनिवर्सिटी का कोई फ़ायदा नहीं, इससे कुछ नहीं हो सकता, अलहम्दो लिल्लाह यूनिवर्सिटी कामयाब रही, हालांकि इसकी गुंजाइश कम है। टीचर्ज़ ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी की गुंजाइश अगर दुगुना भी हो जाए तब भी शायद कम हो, इसकी गुंजाइश बढ़ाने की ज़रूरत है, इसके इन्फ़्रास्ट्रक्चर में विस्तार किए जाने की ज़रूरत है, वाक़ई इसकी मदद होनी चाहिए। इसका हल यह हैः हमें पूंजीनिवेश करना चाहिए। अगर उपयोगी और ज़िम्मेदार टीचर की ज़रूरत को मानते हैं- जो कि निश्चित तौर पर है और इसे मानने के सिवा कोई चारा नहीं है यानी सभी टीचर की ज़रूरत को मानें- तो इसके लिए पूंजीनिवेश की ज़रूरत है, कोशिश ज़रूरी है। टीचर्ज़ ट्रेनिंग के सेन्टरों की, जिनमें सबसे अहम यही टीचर्ज़ ट्रेनिंग यूनिवर्सिटी है, मदद की जाए ताकि वे काम को आगे बढ़ा सकें, उनके इन्फ़्रास्ट्रक्चर को भी बेहतर किया जाए और उनकी गुंजाइश को भी बढ़ाया जाना चाहिए।

अलबत्ता इनके अलावा नौकरी के दौरान टीचर की पेशेवराना सलाहियतों और आम सलाहियतों पर भी नज़र रखी जानी चाहिए, यानी सिर्फ़ भर्ती के वक़्त सलाहियत को देखने की अहमियत नहीं है, शुरू में देखना भी अहम है लेकिन उसके पूरे कार्यकाल में भी उन सलाहियतों का जारी रहना अहम है और उसका रास्ता यह है कि भर्ती के वक़्त सेलेक्शन के जो उसूल हैं, उससे किसी तरह का समझौता न हो, उसमें कुछ सख़्तियां हैं, उसूलों के तहत होने वाली भर्तियां थोड़ी सख़्त होती हैं लेकिन उस सख़्ती को उसूलों का रंग फीका पड़ने की वजह नहीं बनने देना चाहिए।

रिटायर्ड अनुभवी टीचरों की भी सेवा लेनी चाहिए। मैं एक ऐसे टीचर को जानता था जिन्होंने क़रीब 70 साल तक पूरे ख़ुलूस के साथ पढ़ाया था, यह कोई मामूली बात है? वे नब्बे साल से कुछ ज़्यादा ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद इस दुनिया से गए, उन्होंने उम्र के अंत तक स्कूल को नहीं छोड़ा, वे स्कूल जाते थे और आते थे, ऐसे लोग बहुत क़ीमती हैं। ऐसा टीचर अगर स्कूल में एक लफ़्ज़ भी सिखाए और चंद स्टूडेंट्स को ही देखे तब भी उसकी बहुत क़द्र व क़ीमत है। इन्हे महफ़ूज़ रखिए।

एक दूसरी बात, और यह भी काफ़ी अहम है, पाठयक्रम के बारे में है। इन बरसों में इस सिलसिले में बहुत सी बातें कही गयी हैं, उनका असर भी हुआ है, किताबों में अच्छे काम भी अंजाम पाए हैं, लेकिन सिलेबस की किताब से इंसान को जो अपेक्षा होती है वह यह है कि सिलेबस की किताब बच्चों और नौजवान नस्ल के लिए प्रेरणा से भरी हो, मतलब यह कि वह किताब ऐसी हो कि बच्चों और नौजवानों में शौक़ पैदा कर दे। किताब के संकलन की शैली, चाहे सब्जेक्ट की हो, कोई फ़र्क़ नहीं है, चाहे आर्ट्स की हो, गणित की हो, फ़िज़िक्स की हो, ऐसी होनी चाहिए कि स्टूडेंट में शौक़ पैदा कर दे, टीचर की क्वालिटी और उसके रवैये का अहम रोल है लेकिन इस सिलसिले में किताब काफ़ी बड़ा रोल अदा कर सकती है।

इस्लामी विषयों को किताबों में शामिल होना चाहिए, जैसा कि मैंने अर्ज़ किया, ये सभी सिलेबस के विषयों में आ सकते हैं लेकिन सही अनुपात के साथ, आर्ट्स की किताबों में एक तरह से, फ़िज़िक्स की किताबों में दूसरी तरह से, लेकिन आ सकते हैं, इस्लामी विषय भी, इस्लामी और ईरानी हस्तियां भी। साइंस की किताबों में ईरान की क़ाबिले फ़ख़्र हस्तियों को पहचनवाया जाए। हम कभी पूरी दुनिया में इल्म व साइंस में सबसे आगे थे। मैंने जानकार लोगों से सुना है कि कुछ साल पहले, यानी दस, बीस या तीस साल पहले, मुझे सही से याद नहीं है, यूरोप के अहम साइंटिफ़िक सेंटर में बू अली सीना की किताब 'क़ानून' को बहुत अहमियत हासिल थी और उसका अनुवाद किया गया था। जिस वक़्त मुझे यह बात बतायी गयी थी, क़ानून किताब का जिसे बू अली सीना ने अरबी में लिखा है, फ़ारसी में भी अनुवाद नहीं हुआ था जबकि यूरोप की ज़बानों में, अंग्रेज़ी में, फ़्रेंच में इसका अनुवाद हो चुका था। अलबत्ता बाद में इसका फ़ारसी में अनुवाद हुआ, एक बुहत ही अच्छे अनुवादक ने (8) ज़हमत की और वाक़ई क़ानून किताब का बहुत ही अच्छा अनुवाद किया जो मेरे पास मौजूद है। मतलब यह कि ऐसा है, हम अपनी अहम व क़ाबिले फ़ख़्र इल्मी व साइंसी हस्तियों से अपने बच्चों और नौजवानों को परिचित करवाएं, उनकी वैज्ञानिक खोज से परिचित कराएं। दुनिया के साइंस के इतिहास में ईरानियों ने बड़े कारनामे अंजाम दिए हैं, ये बातें हम अपने बच्चों को बताएं, ये चीज़ें उन्हें प्रेरित करती है, शौक़ दिलाती है।

अलबत्ता किताब लिखने का अंदाज़ भी दिलचस्प होना चाहिए, अपटूडेट होना चाहिए, क्रिएटिव होना चाहिए। यह जो कहा जाता है कि वक़्त बदल गया है और वक़्त बदलता है -इसे मैं भी मानता हूं- कुछ लोग जो यह कहते हैं कि वक़्त बदल जाता है, उनकी मुराद यह है कि उसूल बदल जाते हैं। हक़ीक़त यह है कि उसूल नहीं बदलते, सदियां गुज़रने के बाद भी उसूल नहीं बदलते। इंसाफ़ का उसूल, दुनिया के आग़ाज़ से अब तक ठोस उसूल के तौर पर मौजूद रहा है, ये उसूल तो नहीं बदलता, मोहब्बत का उसूल अब भी इसी तरह है, उसूल और बुनियाद नहीं बदलती। जो चीज़ बदलती है वह इमारत का ज़ाहिरी रूप है, उनमें से एक यही है, लेबास पहनने का तरीक़ा, पढ़ने का तरीक़ा, किताब लिखने का तरीक़ा, लेख लिखने का तरीक़ा, शेर कहने का तरीक़ा, ये बदलते हैं, किताब को नए अंदाज़ और नए तरीक़े से लिखिए।

एक और बात जिसकी ओर मैंने पहले इशारा किया, आउटसोर्सिंग का विषय है। यह सोच अतीत में मुल्क के कुछ अधिकारियों के मन में थी कि हम शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग को सरकार से अलग करके प्राइवेट सेक्टर को दे दें और भारी ख़र्च तथा बजट के बोझ को शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के कांधे से हटा दें! उनका बहुत शुक्रिया! मुल्क को तबाह करने के लिए कितनी अच्छी सोच है। शिक्षा व प्रशिक्षा सरकार की ज़िम्मेदारी है और कोई भी सिस्टम इसे ख़ुद से दूर नहीं कर सकता, यह सिस्टम का अभिन्न अंग है। मुल्क में शिक्षा व प्रशिक्षा, इस मुल्क के सत्ताधारी सिस्टम के ज़िम्मे है, पूरी दुनिया में ऐसा ही है। कुछ चीज़ों में अपवाद है जैसे यही प्राइवेट स्कूल जो मुल्क में मौजूद हैं, ये अपवाद चीज़ है। शिक्षा व प्रशिक्षा का काम और शिक्षा व प्रशिक्षा का सिस्टम सरकार का काम है, हमारे संविधान में भी इसे साफ़ लफ़्ज़ों में बयान किया गया है। इसलिए शिक्षा व प्रशिक्षा की आउटसोर्सिंग का कोई मतलब ही नहीं है, सत्ताधारी सिस्टम की यह ज़िम्मेदारी किसी दूसरे को नहीं सौंपी जा सकती। यह एक बात हुयी। 

इस बारे में कि यह ज़िम्मेदारी सरकार की है- मैं दो प्वाइंट्स पेश करना चाहता हूं और ये दो प्वाइंट्स भी अहम हैं। एक मसला सरकारी स्कूलों का है। सरकारी स्कूलों को अच्छा करना अहम है। मुल्क में ऐसा नहीं होना चाहिए कि जब कहा जाए कि सरकारी स्कूल तो पहला ख़याल जो इंसान के मन में आए वह स्कूल की कमज़ोरी का हो, ऐसा नहीं होना चाहिए। अच्छे टीचर्ज़, अच्छे ट्रेनर, तरबियत करने वाले अच्छे लोग, ज़िम्मेदार टीचर और शिक्षा का अच्छा माहौल सरकारी स्कूलों में होना चाहिए। यह पहली बात। जब हम सरकारी स्कूलों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देंगे तो इसका मतलब यह होगा कि अगर किसी की आर्थिक स्थिति अच्छी न हो कि वह प्राइवेट स्कूल में नाम लिखवा सके तो वह कमज़ोर स्कूल में जाने पर मजबूर हो, इसका मतलब यह है कि जिसके पास आर्थिक बुनियाद ही न हो, उसकी इल्मी बुनियाद भी न हो। यह सरासर नाइंसाफ़ी है, यह नाइंसाफ़ी किसी भी हालत में क़ाबिले क़ुबूल नहीं है। तो एक बात यह हुयी कि सरकारी स्कूलों को अच्छी शिक्षा, अच्छे टीचर, शिक्षा के अच्छे माहौल से सुसज्जित होना चाहिए।

दूसरा मसला प्राइवेट स्कूलों का है। अलबत्ता कुछ ग़ैर सरकारी स्कूलों ने वाक़ई क्रिएटिविटी का प्रदर्शन किया है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, उनकी क्रिएटिविटी से फ़ायदा उठाया जाना चाहिए, लेकिन ग़ैर सरकारी स्कूलों की भी निगरानी की जानी चाहिए। शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग को इन स्कूलों की निगरानी से ख़ुद को दूर नहीं रखना चाहिए। अलबत्ता मैंने अर्ज़ किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि इन स्कूलों की क्रिएटिविटी और उनमें अंजाम पाने वाले नए कामों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए या उन्हें रोक दिया जाए, इसका यह मतलब क़तई नहीं है।

आख़िरी और बहुत ही अहम बात, तरबियत की है। मैंने सुना है कि शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में प्रशिक्षा के मामलों पर काफ़ी ध्यान दिया जाता है और दिया गया है- जो ग़नीमत है और हमें शुक्रिया अदा करना चाहिए- लेकिन तरबियत के ये प्रोग्राम, स्कूलों में होने चाहिए। स्कूलों में तरबियत के ये प्रोग्राम शायद हों, हो सकता है कि कुछ स्कूलों में हों, तरबियत का सिरा स्कूलों तक फैला होना चाहिए। बहुत से स्कूलों में तरबियत के मामलों का सहायक नहीं है, अधिकारी नहीं है, निश्चित तौर पर होना चाहिए। मुझे जो रिपोर्ट दी गयी है उसमें इसका फ़ीसद काफ़ी ज़्यादा है लेकिन चूंकि मुझे सही आंकड़े की जानकारी नहीं है इसलिए पेश नहीं करुंगा। बहरहाल स्कूलों में तरबियत के मामलों के सहायक नहीं हैं।

तरबियत के सिलसिले में एक दूसरी बात यह है कि तरबियत का काम, आकर्षक होना चाहिए, बच्चों को दूर भगाने वाला नहीं होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए कि बच्चे उसकी ओर खिंचे चले आएं। क़ौमी पहचान को मज़बूत बनाना, वतन से इश्क की भावना को मज़बूत करना, क़ौमी परचम से लगाव की भावना को मज़बूत करना, इस्लामी व ईरानी जीवन शैली की तालीम ऐसे अस्ली व सबसे अहम काम हैं जिन्हें अंजाम पाना चाहिए।

हमें शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के भविष्य की ओर से काफ़ी उम्मीदें हैं। अल्लाह मदद करेगा इंशा अल्लाह और आप आदरणीय टीचर बड़े बड़े काम अंजाम दे सकते हैं। इंशा अल्लाह जितनी जल्दी मुमकिन हो शिक्षा व प्रशिक्षा मंत्री तय हो और इस विभाग के अधिकारी पूरी तनमयता के साथ काम के सिलसिले में डट जाएं और काम को आगे बढ़ाएं। हम शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के शहीदों की आत्मा पर दुरूद भेजते हैं और कामना करते हैं कि अल्लाह हमें भी उनसे मिला दे और इमाम महदी अलैहिस्सलाम के पाक दिल को हम सभी से राज़ी व ख़ुश कर दे और इमाम ख़ुमैनी की पाक आत्मा को भी हमसे राज़ी व ख़ुश कर दे।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रमहत व बरकत हो।

1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में शिक्षा व प्रशिक्षा मंत्रालय के कार्यवाहक जनाब रज़ा मुराद सहराई ने एक रिपोर्ट पेश की

2 सादी, गुलिस्तान, प्रस्तावना

3 15/1/1992 को शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग के मंत्री, सहायक और महाप्रबंधकों से मुलाक़ात में स्पीच

4 29/4/2023 को मज़दूरों से मुलाक़ात में स्पीच

5 शिक्षा व प्रशिक्षा विभाग में बुनियादी बदलाव का दस्तावेज़

6 11/5/2022 को टीचरों से मुलाक़ात

7 शिक्षा व प्रशिक्षा मंत्रालय के कार्यवाहक

8 जनाब अब्दुर्रहमान शरफ़ कन्दी