सुप्रीम लीडर आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई की वेबसाइट Khamenei.ir हुज्जतुल इस्लाम आली की स्पीच के कुछ हिस्सों को पेश कर रही है।

"अगर धार्मिक स्रोत, पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की रवायत की बुनियाद पर रिसर्च की जाए तो इसका निचोड़ यह है कि तीन तरह के गुनाह हैं जबकि दूसरी ओर तीन तरह की इबादतें भी हैं।

अगर हम इन इबादतों को समझ जाएं तो फिर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के मिशन की महानता और क़द्र हमारे लिए ज़ाहिर हो जाएगी। पहली क़िस्म व्यक्तिगत इबादतों की है और इसे हर शख़्स अकेले अंजाम देता है। अगर इंसान धर्म पर अमल करता हो तो वह इबादत का दर्जा रखने वाले अमल को अकेले ही अंजाम दे सकता है जैसे नमाज़ पढ़ सकता है, मुसतहेब नमाज़ पढ़ सकता है और अलग तरह की दुआ व विर्द पढ़ सकता है। ये व्यक्तिगत इबादतें हैं जिनका अपनी जगह सवाब है। इसके ठीक मुक़ाबले में व्यक्तिगत गुनाह है। मिसाल के तौर पर कोई अपने घर के अंदर कोई गुनाह करता है। जैसे जान बूझकर नमाज़ नहीं पढ़ता और रोज़ा नहीं रखता। तो यह काम वह अकेले करता है इसलिए यह व्यक्तिगत गुनाह है जिसकी अपनी सज़ा और अज़ाब है।

इबादतों और गुनाहों की दूसरी क़िस्म सामूहिक है जो कुछ लोगों के मिलकर करने से अंजाम पाती है। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ग्रुप छोटा हो या बड़ा। मिसाल के तौर पर सामूहिक रूप से (जमाअत की शक्ल में) नमाज़ पढ़ना, दान देना, सामाजिक भलाई के कर्म, माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक, रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव या सामाजिक सेवाएं। अगर कोई इनमें से किसी भी काम को अल्लाह की ख़ुशी के लिए अंजाम दे तो इस बात में कोई शक नहीं कि उसने इबादत की है और ये सामूहिक इबादत है। स्वाभाविक रूप से सामूहिक इबादतों का सवाब व्यक्तिगत इबादतों से ज़्यादा है क्योंकि काम का दायरा बड़ा होता है। सामूहिक इबादत की तरह सामूहिक गुनाह भी हैं, जैसे पीठ पीछे बुराई करना, किसी पर झूठा इल्ज़ाम लगाना, किसी मोमिन के बारे में बुरी बात मन में रखना वग़ैरह। इन गुनाहों का असर पूरे समाज पर पड़ता है और भ्रष्टाचार, नफ़रत और मतभेद का कारण बनता है। या ग़बन, जमाख़ोरी, कालाबाज़ारी, महंगा बेचना, रिश्वत, ब्याज का लेन-देन वग़ैरह जो सामूहिक बुराई व पाप है। स्वाभाविक रूप से सामूहिक गुनाह की बुराई, व्यक्तिगत गुनाह से कहीं ज़्यादा है।

तीसरी क़िस्म ऐसी इबादत है जिसका संबंध पूरे इतिहास से है। पूरे इतिहास से जुड़ी इबादक का मतलब यह है कि मैं कोई ऐसा काम करूं कि सभी पैग़म्बर, अल्लाह के दोस्त और अच्छे लोगों की इबादत में भागीदार बन जाऊं। यह हमारी धार्मिक शिक्षा से मिलने वाली अजीब चीज़ है। इन इबादतों की कसौटी, व्यक्तिगत और सामूहिक इबादत से बहुत अलग है। अगर हक़ की बहाली और स्थापना में किसी भी तरह की मदद करे, पैग़म्बर और अल्लाह के दोस्तों के मोर्चे में काम करे तो वह अपनी कोशिश भर पूरे इतिहास के पैग़म्बरों और अल्लाह के ख़ास बंदों के सवाब में भागीदार हो जाता है। पूरे इतिहास से जुड़ी इबादत यानी आप कोई ऐसा काम करें कि आपका वजूद इतना व्यापक हो जाए कि आपको अल्लाह के ख़ास बंदों मशक़्क़तों में शामिल मान लिया जाए। यह होगी ऐतिहासिक इबादत और इसका सवाब भी बहुत ज़्यादा है।

यह कोई ख़याली, सांकेतिक, शायराना और अवास्तविक बात नहीं है। सच में इस वक़्त जो भी अल्लाह की इच्छा को व्यवहारिक बनाने, सत्य का बोलबाला करने के लिए मेहनत करता है, वह पैग़म्बरे इस्लाम और अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम के लशकर का हिस्सा है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने रैयान बिन शबीब से फ़रमायाः

जब भी तुम्हें शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद आए तो कहो  काश! मैं भी आपके साथ होता। तुम्हारी यह आरज़ू होनी चाहिए। अगर तुम्हारी यह आरज़ू होगी तो तुम्हें उन लोगों जैसा पुन्य मिलेगा जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ थे, यानी तुम उनके सवाब में शामिल हो जाओगे। यही वह इबादत है जिसका सवाब पूरे इतिहास से जुड़ा हुआ है। मैं करबला में नहीं था, लेकिन अपनी आरज़ू से, अपनी इच्छा से और अपने कर्म से उस मोर्चे में शामिल हो सकता हूं।

अगर मेरा रुझान, आरज़ू और मोहब्बत सत्य के मोर्चे के साथ होगी, तो मैं इस मोर्चे के लोगों के साथ हो जाउंगा। जिसका दिल किसी मोर्चे की मोहब्बत से भरा होगा वह मोर्चा और उसके लोग, उसकी पहचान का हिस्सा बन जाएंगे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के मुताबिक़, हर कोई अपने महबूब के साथ होता है, यहाँ तक कि क़यामत में भी वह उसके साथ होगा। कुछ लोगों का क़यामत में इस तरह उठाए जाने का राज़ यही है कि उनके मन पैग़म्बर और अल्लाह के ख़ास बंदों में लगा हुआ हैं।

जिसका मन जिस मोर्चे के साथ होगा, वह उस मोर्चे के साथ है। अलबत्ता यह सिर्फ़ सत्य के मोर्चे की बात नहीं है। अगर किसी का जिस्म सत्य के मोर्चे में है लेकिन उसका रुझान, उसका मन और उसकी इच्छा शैतानी मोर्चे के साथ होगी तो वह उसी शैतानी मोर्चे में है। रुझान, आरज़ू और नीयत इंसान की पोज़ीशन और मोर्चे के चयन में निर्णायक है।

पूरे इतिहास से जुड़ी इबादत के मुक़ाबले में पूरे इतिहास से जुड़ा गुनाह भी है। पूरे इतिहास से जुड़ा गुनाह यह है कि अल्लाह के ख़ास बंदों की विलायत या संप्रभुता पर हमला करे और कुछ ऐसा करे जिससे अल्लाह के ख़ास बंदों की संप्रभुता या विलायत कमज़ोर हो।

शैतान के मोर्चे की सबसे बड़ी कोशिश यह थी कि वह लोगों को सत्य के मोर्चे के सरदार से अलग कर दे। पैग़म्बरे इस्लाम के बाद अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) सत्य कि विलायत के सरदार और प्रतीक थे। हज़रत ज़हरा (स.अ.) की ज़िम्मेदारी और मिशन सत्य के मोर्चे और अमीरुल मोमेनीन की वास्तविक विलायत की रक्षा थी। वह जानती थीं कि अगर उनको बचा लिया गया तो सत्य का मोर्चा बाक़ी रहेगा और अगर उन्हें ख़त्म कर दिया गया तो सत्य का मोर्चा ख़त्म हो जाएगा। इतिहास से जुड़ी इबादत यह है कि सत्य के मोर्चे में पैग़म्बरों और अल्लाह के दोस्तों के साथ हो जाएं। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अ.स.) की इबादत यह है कि सत्य के मोर्चे और उसके सरदार की रक्षा करें। वह जानती थीं कि अगर इस मोर्चे के सरदार पर वार किया गया तो मानो पैग़म्बर और क़ुरआन पर वार कर दिया गया और फिर सत्य का कोई मोर्चा बाक़ी नहीं बचेगा कि मैं और आप इतिहास से जुड़ी इबादत कर सकें। इस तरह पूरे इतिहास पर हज़रत ज़हरा का एहसान है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के स्वर्गवास के बाद अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) की ज़िम्मेदारी थी ख़ामोशी। यही वह जगह है जहाँ हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.अ.) को मैदान में आना चाहिए वहां उनका मिशन ख़ामोशी नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत ज़हरा की इतनी ख़ूबियां बयान कर दी थीं कि वह सत्य की कसौटी बन गईं तो हज़रत ज़हरा (स.अ.) मैदान में आयीं और उन्होंने सत्य बयान करने का जेहाद किया। पूरे इतिहास में ऐसी जगह जहाँ मर्द कि ज़िम्मेदारी ख़ामोशी थी, दो औरतें मैदान में आयीं और उन्होंने पूरे धर्म को बचा लिया। पहली हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.अ.) थीं और दूसरी उनकी महान बेटी हज़रत ज़ैनब (स.अ.) थीं। उन्होंने उस वक़्त जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का मिशन ख़ामोशी थी, सत्य को बयान करने का जेहाद किया।

देखिए ‘सत्य को बयान करने का जेहाद’ ऐसी शब्दावली है जिसे हमारे सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनेई लंबे समय से इस्तेमाल कर रहे हैं और उसकी बहुत अहमियत है। इस वक़्त सॉफ़्ट वॉर की सबसे अहम क़िस्मों में से एक नैरेटिव या विमर्श पेश करने की जंग है। 20 साल से ज़्यादा वक़्त हो चुका है जब अमरीका के एक थिंक टैंक में एक स्ट्रैटिजी पेश की गयी थी कि भविष्य की अस्ल जंग फ़ौजी जंग नहीं होगी, बल्कि विमर्श खड़ा करने की जंग होगी। जो भी किसी घटना या वाक़ए के बारे में बेहतर नैरेटिव पेश कर सकेगा, वह जनमत को अपनी मुट्ठी में ले सकेगा। लोगों की पसंद को बदल सकेगा और किसी समाज की राय को कंट्रोल कर सकेगा। यक़ीनी तौर पर इंटरनेट और मीडिया के दौर में जो भी अपनी बात को प्रभावी तरीक़े से पेश करेगा वही मैदान का फ़ातेह होगा।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.अ.) ने सत्य को बयान करने का जेहाद किया। वह सत्य को खुल कर बयान करती थीं। यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के स्वर्गवास पर उनका रोना भी एक तरह से सत्य को बयान करने और व्याख्या करने का जेहाद था। कुछ लोग अमीरुल मोमेनीन (अ.स.) से कहते थे कि फ़ातेमा से कहिए कि वह या तो दिन में रोएं या रात में, हमें सुकून व क़रार नहीं है।

यह बताइये कि क्या हज़रत ज़हरा हाथ में लाउड्स्पीकर लेती थीं कि उनके रोने की आवाज़ पूरे मदीना में सुनाई दे? हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा मासूमा हैं। वह ख़ुद जानती हैं कि दूसरों को उनकी आवाज़ नहीं सुननी चाहिए, लेकिन बात कुछ और थी। जब वह औरतों के बीच बैठती थीं तो अपने रोने के दौरान शेर पढ़ा करती थीं। वह अपने रोने के दौरान पैग़म्बरे इस्लाम के उद्देश्य, ग़दीर की घटना और पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के बारे में बात करती थीं और उनको पहचनवाती थीं। जब वे औरतें अपने घरों को जाती थीं तो ये बातें बयान करती थीं। ज़ाहिर सी बात है कि इस काम पर बहुत एतेराज़ होता था।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स.अ.) के सत्य को बयान करने के जेहाद की एक और मिसाल उनकी तक़रीरें हैं। उनकी दो मुख्य तक़रीरें हैं। पहली स्पीच बहुत ही अहम है जो ख़ुतबए फेदक के नाम से मशूहर है जबकि दूसरी तक़रीर उस वक़्त की जब आप घायल हो गयी थीं। जब आप घाव की वजह से बिस्तर पर थीं तो मोहाजिरों और अंसार की औरतें उन्हें देखने को आयीं और हज़रत ज़हरा ने छोटी सी तक़रीर में सच्चाइयां बयान कीं।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के सत्य को बयान करने के जेहाद की एक और मिसाल यह है कि वह रातों को अमीरुल मोमेनीन के साथ मुसलमानों के घरों में जाती थीं और उनसे कहती थीं कि ग़दीर में तुमसे जो वचन लिया गया था क्या तुमने उसे भुला दिया? पैग़म्बर ने तुमसे जो वादा लिया था, क्या तुमने उसे बुला दिया? इन बातों से वह सत्य को सामने लातीं और हुज्जत तमाम करती थीं।"

(धर्मगुरू हुज्जतुल इस्लाम आली की स्पीच का एक भाग)