इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की वेबसाइट KHAMENEI.IR ने ज़ायोनी सरकार की तरफ़ से थोपी गई हालिया बारह दिवसीय जंग में इस्लामी गणराज्य ईरान की फ़तह और मुल्क का नेतृत्व करने में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के रोल की व्यापक समीक्षा के लिए "फ़तह की रवायत" शीर्षक के तहत इंटरव्यूज़ का एक सिलसिला शुरू किया है, जिसमें मुल्क के अनेक विभागों के माहिरों से बात की गयी है।
इसी क्रम में, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के सलाहकार, राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद के सचिव और इस परिषद में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के प्रतिनिधि डाक्टर अली लारीजानी का इंटरव्यू लिया गया है। उन्होंने KHAMENEI.IR के इस तफ़सीली इंटरव्यू में, युद्ध विराम के दौरान ज़ायोनी सरकार के साथ पेश आने वाले वाक़यों और इस्लामी गणराज्य के सामने मौजूद मसलों और चुनौतियों पर चर्चा की जिनमें परमाणु वार्ता, राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद की ज़िम्मेदारियां, रेज़िस्टेंस मोर्चे के मसले, स्नैपबैक मेकनिज़्म की स्थिति, रक्षा क्षेत्र की कमियों को दूर करने और सैन्य हमले की क्षमता बढ़ाने और इसी तरह के दूसरे विषय शामिल हैं। इंटरव्यू पेश है।
सवालः सबसे पहले यह बताइये कि मौजूदा हालात में, जब आपको यह नई ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है, राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद के ज़िम्मे कौन से अहम काम हैं? क्योंकि चुनौतियां अनेक हैं और उन्हें देखते हुए क्या इस सिलसिले में ढांचे में, शैली में या रवैये में आप कुछ बदलाव करेंगे?
जवाबः बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम। मैं कहूंगा कि इस परिषद की सबसे अहम ज़िम्मेदारी यह है कि वह चुनौतियों को इस तरह संचालित करे कि जिसके नतीजे में राष्ट्रीय विकास के लिए एक सुकून का माहौल बने और अवाम अपनी उम्मीद और प्लानिंग के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ार सकें, क्योंकि चुनौतियां हमेशा रहती हैं, हो सकता है कि आज जंग या दूसरी चीज़ों की शक्ल में हों, कल कुछ दूसरे मामले रहे हों, क्षेत्रीय मुद्दे, अंतर्राषट्रीय मुद्दे भी हैं। आख़िर में, कूटनीति के मैदान में, महारत और रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ और सैन्य फ़ोर्सेज़ के हालात का तक़ाज़ा रहा हो कि ये एक दूसरे से मिल जाएं ताकि मुल्क के राष्ट्रीय हितों की रक्षा हो सके और हक़ीक़त में, मुल्क और सरकार के लिए तरक़्क़ी व विकास का संतुलित रास्ता मुहैया हो सके। ज़ाहिर है कि अब चूंकि हम एक जंग में उलझे हुए हैं और फ़िलहाल हमले रुके होने की स्थिति है, इसलिए यह एक अहम विषय है जिस पर हमें ध्यान देना चाहिए और ऐसी सलाहियतें पैदा करनी चाहिएं कि दुश्मन किसी दुस्साहस की हिम्मत न कर सके; इसी के साथ इस परिषद के सामने परमाणु मसले, क्षेत्रीय मामले और दूसरे मुद्दे भी हैं।
सवालः इस तैयारी के लिए परिषद ने क्या उपाय अपनाए हैं? शायद यह कहना बेहतर होगाः इन दिनों वे लोग जिन तक संभवतः आपकी किसी न किसी तरह पहुंच है, उनका पहला सवाल यह है कि दोबारा जंग होगी या नहीं? आज का आम सवाल यही है। दूसरा सवाल यह है कि हम इसके लिए कितना तैयार हैं?
जवाबः इस सवाल का जवाब किसी हद तक हमसे संबंधित है और किसी हद तक दुश्मन से संबंधित है क्योंकि सभी मामले हमारे हाथ में नहीं हैं; लेकिन सबसे अहम मसला यह देखना है कि जो काम किए जा सकते हैं उनके ज़रिए, जंग को कैसे दूर किया जाए। मेरा ख़याल है कि इस मामले में कई तत्व प्रभावी हो सकते हैं।
पहला मसला राष्ट्रीय एकता है, जैसा कि 12 दिवसीय जंग में राष्ट्रीय एकता का तत्व बहुत प्रभावी था। यह कि उन दिनों ईरानियों की समझ बहुत उच्च स्तर की थी और उन्होंने दुश्मन और प्रतिद्वंदवी के बारे में सही समीक्षा की और सभी मतभेदों के बावजूद, इस बात को माना कि ईरान और ईरान के हितों की रक्षा करनी चाहिए, यह बहुत बड़ी अक़्लमंदी है। इसकी रक्षा करनी चाहिए; इस मानी में कि सरकार, क़ौम और सबको कोशिश करनी चाहिए कि यह एकता और समरस्ता बनी रहे। यह एक बिन्दु हुआ। हमने जो दौरे किए, उनमें से एक में, एक मुल्क के नेता ने कहा था कि दुनिया ने ईरानियो की एकता को महसूस किया! इसलिए यह एक राष्ट्रीय संपत्ति है और इसकी रक्षा के अनेत तत्व हैं जिन पर मैं आपका वक़्त नहीं लेना चाहता।
दूसरा बिंदु यह है कि स्थिरता के अहम तत्वों में से एक यह है कि अवाम को अपनी ज़िंदगी में न्यूनतम स्तर की सही, सुविधाएं हासिल रहें। यह सही है कि जंग है, लेकिन फिर भी अवाम की ज़िंदगी के मामलों को इस तरह चलाना चाहिए कि उसमें स्थिरता रहे। यह उन विषयों में से एक है जिन पर हम इस वक़्त बात कर रहे हैं, और मेरे ख़याल में सरकार और ख़ुद राष्ट्रपति भी इम मामले के प्रति पाबंद हैं और ध्यान देते हैं, और इसे इंसाफ़ का एक हिस्सा समझते हैं। इसलिए, अवाम की ज़रूरतों की एक सतह को अच्छी तरह पूरा किया जाना चाहिए जो कि ग़ैर जंगी हालात में एक तरह से है और जंग के हालात में दूसरी तरह से है। यह दूसरा बिन्दु भी है जिसके बारे में मेरे ख़याल में कोई हल निकाला जाना चाहिए।
अगला बिंदु सैन्य संसाधनों की रक्षा और तरक़्क़ी है। हमारे पास अच्छे साधन थे जभी तो दुश्मन ख़ुद ही जंग शुरू करने के बावजूद, जंग के अंत के लिए छटपटाने लगा। अब यह अलग बात है कि वह बाहर प्रोपैगंडा कर रहे हैं कि वे बहुत कामयाब रहे लेकिन क़रीब सभी अहम मुल्कों और क़ौमों ने इस बात को समझ लिया है कि हमारे दुश्मन को इस जंग में रणनैतिक हार मिली है, जिसकी अनेक वजहे हैं। यह बात ईरान के लिए भी फ़ायदेमंद है और दुश्मन के लिए भी प्रेरणादायक हो सकती है। क्योंकि जो दुश्मन रणनैतिक तौर पर सफल नहीं हुआ, वह स्वाभाविक है कि इस बात की कोशिश करेगा कि किसी तरह दोबारा सफल हो जाए। उसे निराश किया जा सकता है। इस तरह से कि हमें मुल्क से सैन्य साधनों और सुरक्षा के साधनों को बेहतर बनाना होगा और हमारे काम में जो कुछ कमियां थीं, उन्हें दूर करना होगा। तो हमारा कुछ वक़्त उस पर लगेगा कि हमारी कमियां कहाँ थीं, उन्हें सूक्ष्मता और वास्तविक निगाहों के साथ देखें और फिर कमियों को दूर करें और अपने संसाधनों को ज़्यादा मज़बूत बनाएं। तो यह भी काम का एक हिस्सा है।
मेरी सिफ़ारिश वाक़ई यह है कि मुल्क के अंदर इस बिंदु पर ध्यान दिया जाए कि हमारी जंग अभी ख़त्म नहीं हुयी है; राजनैतिक धड़ों के साथ साथ वे लोग भी जिनके पास प्लेटफ़ार्म हैं, इस बात का ख़याल रखें कि हम एक अहम पोज़ीशन में हैं। अलबत्ता ईरान की डिटरेंस की सलाहियत बहुत ज़्यादा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इस वक़्त जंग हो रही है, लेकिन हमें यह जान लेना चाहिए कि एक जंग शुरू हो चुकी है और उस जंग में सिर्फ़ हमले रुके है; इसलिए हमें तैयार रहना चाहिए और अपनी एकता क़ायम रखनी चाहिए।
बहरहाल इस जंग के अहम बिन्दुओं में से एक इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के उपाय थे। उन्होंने पहले दिन से ही बहुत ग़ौर से मामलों पर नज़र रखी, उपाय अपनाए, कमांडरों को नियुक्त किया, जंग के मामलों को अंजाम दिया और अवाम से बात की। इसलिए इन हालात में इस नेता और इस रहनुमा का पूरा सपोर्ट किया जाना चाहिए, अलबत्ता इसका तार्किक पहलू भी बहुत मज़बूत है। हो सकता है कि कुछ राजनैतिक मामलों में लोगों की अलग राय हो लेकिन जब हम एक बड़े संकट में हों तो हमें ज़रूर उस शख़्स का भरपूर सपोर्ट करना चाहिए जो रहनुमा है और हक़ीक़त में जंग की कमान संभाले हुए है। मेरे ख़याल में यह ज़माने के हालात की समझ का एक अहम हिस्सा है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मतभेद नहीं है; समाज में मतभेद बहुत हो सकते हैं, राजनेताओं में भी मतभेद हो सकते हैं, दलों में भी मतभेद हो सकते हैं; मसला यह है कि समय और स्थान के हालात और उस स्थिति से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए जिसमें अवाम हैं क्योंकि यह चीज़ कभी कभी ऐसे हालात पैदा कर देती हैं जो दुश्मन को हमारे ख़िलाफ़ गतिविधियों के लिए उकसाते हैं। इसलिए यह पहलु भी मेरे ख़याल में अहम है और इस पर ध्यान देना चाहिए।
सवालः क्या राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद इस लेहाज़ से भी किसी तरह के मामले में दाख़िल हो सकती है?
जवाबः राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद के पास इस सिलसिले में मेकनिज़्म मौजूद रहे हैं, इस सिलसिले में कुछ बातें मंज़ूर भी हुयी हैं; इसलिए ज़रूरी नहीं है कि फिर से कुछ चीज़ें मंज़ूर की जाएं क्योंकि यह पहले से मौजूद थीं और मुझे जानकारी है कि अतीत में भी वह इस दिशा में काम कर रहे थे; यानी अहम बात यह है कि यह मेकनिज़्म अपनी सरगर्मियां अंजाम दे; मतलब, माहिरों, पत्रकारों और लेखकों के साथ संपर्क रखे और उन्हें क़ायल करे। हमने अतीत में भी यह बैठकें कीं और उनके सामने हालात को बयान किया। अलबत्ता मेरे ख़याल में उनमें से ज़्यादातर लोगों में वैचारिक पुख़्तगी भी मौजूद है; जब उनके सामने अच्छी तरह से स्थिति को स्पष्ट कर दिया जाए तो वे सैद्धांतिक फ़ैसले करते हैं।
सवालः डाक्टर साहब! यह बात सही है कि दुश्मन को इस जंग में रणनैतिक हार मिली लेकिन हमारे यहाँ भी सैन्य मामलों और कुछ दूसरे मामलों में टैक्टिकल कमियां और वास्तविक शून्य थे। चूंकि इस सिलसिले में सिस्टम की योजना का केन्द्र राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद है इसलिए शायद जनमत यह चाहता हो कि संभावित हद तक उसे एक रिपोर्ट दी जाए और बताया जाए कि आने वाले संभावित टकराव से पहले, अगर वह होने वाला है, तो सुरक्षा, सैन्य और मीडिया क्षेत्र की कमियों को दूर करने के लिए क्या हो रहा है?
जवाबः जहाँ तक रक्षा पहलू की बात है तो इस सिलसिले में राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद में एक अहम फ़ैसला लिया गया और वह रक्षा परिषद का गठन था। यह रक्षा परिषद, राष्ट्रीय सुरक्षा की सर्वोच्च परिषद के तहत आती है और उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ रक्षा मामलों और आर्म्ड फ़ोर्सेज़ की कमियों को दूर करना और उन्हीं मामलों का हल निकालना है, जिसका मेकनिज़्म मुहैया कर दिया गया है और वे काम में लगे हुए हैं, उसकी एक बैठक भी हो चुकी है और कमियों पर गहरी नज़र रखी जा रही है। इस सिलसिले में, आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के जनरल स्टाफ़ ने कुछ ज़िम्मेदारियां सभाली हैं और उन पर काम कर रहा है, रक्षा मंत्रालय ज़रूरतों को पूरा करने में लगा है; सभी काम कर रहे हैं, ख़ास तौर पर आईआरजीसी के कमांडर और एरोस्पेस के कमांडर, सब कोशिश कर रहे हैं कि अगर हमने इस राह में कुछ कमियां पायी थीं तो जहाँ तक मुमकिन हो उन्हें दूर करें। ख़ास तौर पर माहिरों और प्रतिभाशाली और माहिर नौजवानों की सलाहियतों से भी अच्छी तरह फ़ायदा उठाया जा रहा है। हमने सचिवालय में भी इस वजह से कि हम सचमुच नई जंगों के दौर में दाख़िल हो चुके हैं, रक्षा टेक्नॉलोजी का एक विभाग बनाया है जो इसी विषय पर केन्द्रित है और काम में लगा हुआ है। इसलिए हमने इस सिलसिले में काम शुरू कर दिए हैं और मैं व्यक्तिगत रूप से बहुत आशावान हूं क्योंकि यूनिवर्सिटियों में बहुत से माहिर इस प्रकिया से जुड़ गए हैं।
सवालः इस सिलसिले में क्या नए हथियारों और उपकरणों की ख़रीदारी भी विचाराधीन है?
जवाबः जी हाँ, वह भी थी; हमारा ज़्यादा ध्यान आंतरिक मसलों पर है लेकिन हम दूसरों की मदद से भी फ़ायदा उठाते हैं। एक और पहलू उन कमियों को दूर करना है जो सुरक्षा के क्षेत्र में मौजूद हैं, जिनके बारे में इस सिलसिले में बैठके हो रही हैं; यह एक ऐसी कमी है जिसे ज़रूर दूर होना चाहिए। अलबत्ता इसमें सिर्फ़ मानवीय पहलू नहीं है; यानी मिसाल के तौर पर हम जब "घुसपैठ" कहते हैं, तो यह न सोचा जाए कि ज़रूर कोई मानवीय तत्व इसमें लिप्त है, जी हाँ, यह भी है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मानवीय तत्व नहीं है, लेकिन दूसरे तत्व भी हैं।
सवालः हमारे जनमत के सामने एक बिन्दु स्पष्ट नहीं है और अब तक उसका उचित जवाब नहीं दिया गया और दुश्मन ने प्रोपैगंडे के मैदान में उससे ग़लत फ़ायदा भी उठाया है, वह यह है कि "घुसपैठ" के बारे में अवाम और जनमत को एक साफ़ रिपोर्ट नहीं दी गयी है कि वह किस हद तक थी? अगर मुल्क की सुरक्षा के अधिकारी के लिए इस विषय पर ज़्यादा साफ़ अंदाज़ में बात करना मुमकिन है तो कृपा करके इस बारे में और साफ़ साफ़ बताएं।
जवाबः बहुत ज़रूरी नहीं कि हम ज़्यादा तफ़सील में जाएं क्योंकि यह निश्चित तौर पर नुक़सानदेह हो सकता है लेकिन इन मामलों पर ज़रूर काम किया जाना चाहिए। अहम बात यह है कि इस मसले पर ध्यान दिया गया है और इस पर काम किया जा रहा है। आम सोच यह है कि अस्ल मसला वे लोग हैं जो मिसाल के तौर पर गलियों में, सड़कों पर या कहीं और घूम रहे हैं और दुश्मन को सूचनाएं दे रहे हैं, हालांकि ऐसा नहीं है; यानी जब आप घुसपैठ के मैदान को देखते हैं, तो आप समझ जाते हैं कि नई टेक्नॉलोजी और बहुत सारी मालूमात का आपसी संबंध, उनसे कहीं ज़्यादा बाहरी एजेंसियों की मदद कर सकता है। इसलिए मालूमात पर तकनीकी लेहाज़ से कंट्रोल इस सिलसिले में बहुत मददगार साबित हो सकता है और यह पहलु सबसे बड़ा मसला है। इसिलए दूसरे जो काम करते हैं वे सिर्फ़ मैनफ़ोर्स को वहाँ भेजना नहीं है। यह पुराना तरीक़ा है, अलबत्ता यह भी है, यह नहीं कि नहीं है, लेकिन ज़्यादा अहम यह है कि ख़ुफ़िया एजेंसियां हासिल हुयी सूचनाओं और उनके आपसी संबंध से कुछ अहम सूचनाएं हासिल कर सकती हैं और कार्यवाहियों के दौरान उन्हें बेहतरीन तरीक़े से इस्तेमाल कर सकती हैं। इसलिए मामले के इस पहलू पर ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए।
सवालः डॉक्टर साहब! शायद इस दौरान आपकी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के साथ भी कुछ बैठकें हुयी होंगी और अब भी हो रही होंगी। पहली मुलाक़ात और पहली बैठक में जो आपने यह नई ज़िम्मेदारी और पद संभालने के बाद उनके साथ की, उनका आपसे सबसे अहम मुतालबा क्या था और क्या है?
जवाबः उनका मुख्य मुतालबा यह था कि हम अपनी पूरी कोशिश करें कि मुल्क के राष्ट्रीय हितों की अच्छी तरह रक्षा हो और हम स्थायी सुरक्षा हासिल कर सकें। यह एक लंबी बात है और इसमें अनेक आंतरिक, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषय शामिल होते हैं। उनकी सैद्धांतिक सोच यह है कि दृढ़ता और ताक़त से यह काम जारी रखा जाए। उनकी शैली भी यही है। मैंने इस पूरी जंग के दौरान उनमें कभी भी इस रास्ते के बारे में तनिक भी संदेह नहीं देखा जिस पर वे चल रहे हैं।
सवालः आप उस दौरान भी उनसे संपर्क में थे?
जवाबः जी हाँ, संपर्क में था और उनके निर्देश पूरी तरह हमें मिलते थे। हमारी कुछ बैठकें भी हुयी थीं, हम अपने विचार और नज़रिए उन्हें भेजते रहते थे, उनकी फ़ीडबैक भी हमें मिलती थी और यह बात पूरी तरह स्पष्ट थी। अब जंग के बाद तो हमारे संपर्क पहले से भी ज़्यादा हैं। वे अपनी राय पर बहुत भरोसे के साथ क़दम उठाते हैं और उनका यह रवैया इमाम ख़ुमैनी के रवैये से बहुत ज़्यादा समानता रखता है। इम ख़ुमैनी जब पेरिस में थे तो एक बार मरहूम शहीद मुतह्हरी उनसे मिलने गए थे और कुछ दिन उनकी सेवा में रहे; जब वे वापस लौटे, तो मैं और उनके बेटे अली मुतह्हरी उन्हें लेने के लिए एयरपोर्ट गए। रास्ते में हमने उनसे पूछा कि आपने इमाम ख़ुमैनी को कैसा पाया? उन्होंने जवाब दिया कि मैंने उन्हें राह पर ईमान रखने वाला, अवाम पर भरोसा करने वाला, अल्लाह पर ईमान रखने वाला और अल्लाह पर भरोसा करने वाला पाया। उन्होंने बाद में एक किताब में भी यह बात बयान की कि इमाम ख़ुमैनी में ईमान के चार पहलू बहुत स्पष्ट थेः लक्ष्य पर ईमान, राह पर ईमान, क़ौम पर ईमान, अल्लाह पर ईमान। हालिया जंग के दौरान मैंने हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनेई में भी यही हालत देखी; यानी उनके क़दम पूरे यक़ीन व इत्मेनान के साथ उठते हैं और यह उन रहनुमाओं की ख़ुसूसियतें हैं जो अल्लाह के रास्ते पर चलते हैं और लक्ष्य पर नज़र रखते हैं।
सवालः अब एक दूसरे विषय पर बात करते हैं। जैसा कि आपने भी हल्का सा इशारा किया, हम वार्ता कर रहे थे कि दुश्मन ने अमली तौर पर वार्ता की मेज़ पर बमबारी कर दी इसलिए निश्चित तौर पर मौजूदा हालात में वार्ता और 13 जून से पहले की वार्ता के बारे में हमारी सोच अलग है। आपके ख़याल में क्या अब भी मुमकिन है कि इन हालात में कूटनीति काम करे और अगर काम करती है तो इसकी क्या शर्ते हैं?
जवाबः मेरी हमेशा से यही सिफ़ारिश रही है कि ईरान कभी भी कूटनीति को न छोड़े क्योंकि कूटनीति अपने आप में एक साधन है। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने एक बार फ़रमाया था कि वार्ता का परचम हमेशा आपके हाथ में होना चाहिए; यह पूरी तरह सही है। हक़ीक़त में, कूटनीति सरकार के काम का एक हिस्सा है और इसे छोड़ने का कोई फ़ायदा नहीं है; अहम यह है कि हम किस वक़्त और किस तरह इससे फ़ायदा उठाएं। अगर दुश्मन कूटनीति के मंच को नुमाइश या थियेटर के मंच में बदलना चाहता है तो ऐसी कूटनीति से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। या अगर उसका लक्ष्य कूटनीति से किसी दूसरे काम का औचित्य दर्शाना है तो ज़ाहिर है कि यह कूटनीति, उसकी नज़र में कूटनीति की तरह नहीं थी वह हक़ीक़त में उससे फ़ायदा हासिल करना नहीं चाहता। लेकिन अगर कूटनीति इसलिए हो कि हम जंग नहीं चाहते, हम सुलह चाहते हैं तो यही कूटनीति की जगह है तब यह वास्तविक कूटनीति है। मैं इस वक़्त स्थिति को इस तरह से पाता हूं यानी महसूस कर रहा हूं कि ये लोग कूटनीति को बहाना तराशने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं; लेकिन इसके बावजूद हम यह न कहें कि कूटनीति को छोड़ रहे हैं। यह बिंदु कि वार्ता की शर्तें क्या हों और वार्ता किस वक़्त नतीजा देगी वार्ता उस वक़्त नतीजा देगी जब सामने वाले पक्ष को यह बात समझ में आ जाए कि जंग का कोई फ़ायदा नहीं है और मिसाल के तौर पर वह चाहता हो कि मसलों को वार्ता के ज़रिए हल करे; लेकिन अगर वार्ता को किसी दूसरी कार्यवाही के लिए बहाना क़रार दे, तो यह वार्ता सही नहीं है। इसलिए, इस स्थिति में हमारी शर्त यह है कि आइये वास्तविक वार्ता करें। अगर जंग चाहते हैं तो जाइये अपना काम कीजिए, जब आपको पछतावा होने लगे तब वार्ता के लिए आ जाइयेगा; लेकिन अगर वाक़ई इस नतीजे पर पहुंच गए कि इस दृढ़ और डटी हुयी क़ौम को जंग के ज़रिए नहीं झुका सकते -ये बकवास जो वे कर रहे हैं कि हम ईरान पर सरेंडर के लिए दबाव डालें कि जिसका जवाब इस्लामी इंक़ेलाब के नेता भी दे चुके हैं और इस जंग में भी उन्हें समझ में आ गया कि ईरानी सरेंडर होने वाले नहीं हैं- वास्तविक वार्ता की शर्त यह है कि आप इस बात को समझें।
सवालः डॉक्टर साहब! 12 दिवसीय जंग के बाद रेज़िस्टेंस मोर्चे और रेज़िस्टेंस गुटों के सिलसिले में इस्लामी गणराज्य का नज़रिया क्या होगा? आपने इराक़ का दौरा किया था, एक दौरा लेबनान का भी किया था। इस वक़्त लेबनान में हिज़्बुल्लाह पर हथियार रखने के लिए बहुत ज़्यादा दबाव डाला जा रहा है, जो काम इस्राईली सीधे तौर पर जंग में नहीं कर पाए थे! दूसरी ओर विश्व मीडिया में यह समीक्षा हो रही है कि वे गुट कमज़ोर होते जा रहे हैं जिनका इस्लामी गणराज्य "रेज़िस्टेंस मोर्चे" की हैसियत से सपोर्ट करता था।
जवाबः अगर वे कमज़ोर हो गए हैं तो यह लोग इस पर इतना इसरार क्यों कर रहे हैं और इतना दबाव क्यों डाल रहे हैं? अगर वे कमज़ोर हो गए तो कमज़ोर हो गए ना? आम तौर पर वहाँ दबाव डाला जाता है जहाँ सामने वाला मज़बूत हो। जब वह कमज़ोर है तो कमज़ोर है ना। मेरे ख़याल में यह अजीब व ग़रीब बातों में से एक है। अगर हम इन वाक़यों से पहले और चार पाँच साल पहले मीडिया की समीक्षाओं की बात करें तो उस वक़्त रेज़िस्टेंस मोर्चे के कमज़ोर पड़ने की बात नहीं थी, ठीक है ना? लेकिन देखिए कि वे रेज़िस्टेंस और रेज़िस्टेंस से ईरान के संबंध के बारे में क्या कहते थे, वे कहते थे कि ईरान ग़लती कर रहा है, यह कोई चीज़ नहीं है, ये ईरान के लिए बोझ हैं! आम तौर पर वे यही कहते थे कि यह कोई अहम चीज़ नहीं है। ईरान ख़ुद को उनके लिए बर्बाद कर रहा है और ये तो किसी गिनती में नहीं हैं! अब वे कह रहे हैं कि रेज़िस्टेंस मोर्चा कमज़ोर हो गया है, लेकिन उस वक़्त जब उनके ख़याल में यह कमज़ोर नहीं था, तब भी वे यही बात दूसरी तरह से कहते थे। अब वे कह रहे हैं कि ये कमज़ोर हैं; अच्छा, अगर ये कमज़ोर हैं, तो इन्हें छोड़ दो, इनका पीछा छोड़ दो; तुम इनके ख़िलाफ़ इतनी साज़िश क्यों कर रहे हो?
मेरे ख़याल में उन्होंने पिछले दो साल में ख़ुद अपने लिए और क्षेत्र के लोगों के लिए बहुत सी मुसीबतें पैदा की हैं; लोगों को मारा, लोगों को घायल किया, उन्हें भूखा रखा लेकिन यह एक ऐसी सरकार के अपराध हैं जिसकी कोई रेडलाइन नहीं है, वह जो चाहती है, करती है और पश्चिम ने इस बर्बरता को मान लिया है।
अब सवाल यह हैः तुम जो कहते हो कि तुमने हमास को ख़त्म कर दिया है, तो अब ग़ज़ा पर क़ब्ज़ा करने से क्यों डर रहे हो? तुमने लोगों को क़त्ल किया, शहीद किया, लोगों को भूखा रखा, लेकिन फिर भी तुम हमास को ख़त्म नहीं कर सके, यह ख़त्म क्यों नहीं हो रहा? यह उनके अपने हाथ में है; जब तुम लोगों को मार रहे हो और ख़त्म करते हो, उनके घर वाले होते हैं, नौजवान होते हैं; तुम उन्हें वहाँ ला खड़ा करते हो कि वे तुम्हारा मुक़ाबला करें। हिज़्बुल्लाह कब वजूद में आया? हिज़्बुल्लाह तब वजूद में आया जब इस्राईल ने सीधे तौर पर बैरूत पर क़ब्ज़ा कर लिया; जब उसने बैरूत पर क़ब्ज़ा कर लिया, तो किस मुल्क के लोग किसी दूसरे मुल्क के वर्चस्व और क़ब्ज़े को क़ुबूल करने के लिए तैयार होते हैं? इसलिए कुछ नौजवानों ने कहा कि हमें अपनी रक्षा करनी चाहिए और यह हिज़्बुल्लाह के गठित होने की बुनियाद बना। अब वे कहते हैं कि हिज़्बुल्लाह को ईरान ने बनाया! नहीं, उन्होंने ख़ुद अपने रवैये से हिज़्बुल्लाह को पैदा किया। जी हाँ हम ने मदद की; हम झूठ नहीं बोलते, हम कहते हैं कि हम ने मदद की, आगे भी मदद करेंगे, लेकिन हिज़्बुल्लाह की बुनियाद ख़ुद लेबनानी क़ौम ने रखी। और यह उसके लिए एक संपत्ति बन गया; यानी एक छोटा सा देश, इस्राईल के ख़िलाफ़ रेज़िस्टेंस के लायक़ हो गया।
हमास भी ऐसा ही है; जब तुम आए और एक मुल्क पर क़ब्ज़ा कर लिया और फिर कहते हो कि तुम्हारी कोई जगह नहीं है, तुम अपनी ज़मीनें दूसरों को दे दो, तो लोग तुम्हारे मुक़ाबले में डट जाएंगे। इराक़ में भी यही हालात पैदा हुए; जब अमरीकियों ने इराक़ पर क़ब्ज़ा किया, तो रेज़िस्टेंस आंदोलन वजूद में आए; क्योंकि तुमने क़ब्ज़ा किया और लोगों पर ज़ुल्म किया और वह भी उस मूर्खतापूर्ण रवैये के साथ जो तुम्हारे फ़ौजियों का था। यमन में रेज़िस्टेंस क्यों वजूद में आया? हौसी हमेशा से थे और सरकार से उनके मतभेद रहते थे लेकिन जब उन्होंने यमन पर बमबारी शुरू की तो उन्होंने कहा कि अब हमें रेज़िस्टेंस करना होगा और रेज़िस्टेंस आंदोलन वजूद में आया।
इसलिए रेज़िस्टेंस उनके रवैये से पैदा हुआ है और यह जितना ज़्यादा दबाव डालेंगे, रेज़िस्टेंस उतना ज़्यादा होता जाएगा। वे कहते हैं कि हमने वार कर दिया, ठीक है, हिज़्बुल्लाह पर वार कर दिया लेकिन सवाल यह है कि हिज़्बुल्लाह ने फिर से ख़ुद को तैयार किया कि नहीं? उनके अंदर इतने मुजाहिद नौजवान थे कि उन्होंने अपने आपको फिर से तैयार करना शुरू कर दिया। मिस्टर बर्जेन्सकी जो कभी अमरीका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके हैं, उनकी एक किताब है जिसमें उन्होंने कुछ कलाकारों के कुछ शेर भी ज़िक्र किए हैं, उस किताब में वे कहते हैं कि हमें वेस्ट एशिया में एक नए रुझान का सामना है और वह नौजवानों में राजनैतिक चेतना और अमरीका से नफ़रत है फिर वे मिसाल देते हैं कि जैसे सेनेगाल के एक शायर ने इस तरह कविता कही है। यह एक हक़ीक़त है। जब अमरीकी दबाव डालते हैं और कहते हैं कि हमारा नज़रिया "ताक़त के बल पर शांति और सुलह" क़ायम करना है, तो ताक़त के बल पर शांति और सुलह का क्या मतलब है? इसका क्या मतलब है? इसका वास्तविक अनुवाद कीजिए।
यानी सरेंडर हो जाना।
या तो सरेंडर या फिर जंग। कौन ग़ैरतमंद इंसान इस सरेंडर को क़ुबूल करेगा? फिर यह नेतनयाहू, जो उससे भी ज़्यादा मूर्ख है, वह भी यही दोहराता है और कहता है कि मेरा भी यही नज़रिया है! वह ख़ुद को इस बात में शामिल करना चाहता है। न तो इसका कोई नतीजा निकलता है और न ही उसका कोई नतीजा निकलेगा। जब नेतनयाहू कहता है कि मैं एक छोटे मुल्क के तौर पर ताक़त के ज़रिए शांति क़ायम करना चाहता हूं, तो इसका मतलब यह है कि वह क्षेत्र के मुल्कों जैसे सऊदी अरब, मिस्र, जॉर्डन या कुवैत से कह रहा है कि तुम सबको या तो मेरे सामने सरेंडर होना होगा या जंग करनी होगी! तो इस तरह वह सबको चौकन्ना कर देता है और इसीलिए क्षेत्र की मौजूदा स्थिति यह है कि सब इस्राईल के ख़िलाफ़ एक रक्षात्मक मुद्रा रखते हैं। अलबत्ता हो सकता है कि वे हमसे भी मतभेद रखते हों, मैं नहीं कहता कि वे हमारी तरह सोचते हैं लेकिन वे इस्राईल के रवैये पर एतेराज़ कर रहे हैं और समझ रहे है कि ईरान उसके मुक़ाबले में एक बांध है। तो यह एक बिंदु है। इसलिए मेरे ख़याल में, रेज़िस्टेंस न सिर्फ़ ज़िंदा है बल्कि हरकत में भी है।
सवालः 12 दिवसीय जंग के बाद इस्लामी गणराज्य की नीति अब भी वही पुरानी नीति यानी रेज़िस्टेंस मोर्चे का सपोर्ट और उसे मज़बूत करना है?
जवाबः इस बात में कोई शक नहीं है कि हमेशा वक़्त के हिसाब से फ़ैसला करना चाहिए लेकिन इस्लामी गणराज्य ने हमेशा रेज़िस्टेंस का सपोर्ट किया है क्योंकि वह इसे एक अस्ली आंदोलन और संपत्ति समझता है। क्या इन लोगों ने इस्राईल को छोड़ दिया? क्या इस वक़्त अमरीका ने इस्राईल को छोड़ दिया? वह लगातार उसकी मदद कर रहा है। अगर ईरान मौजूदा सलाहियतों और गुंजाइशों का सपोर्ट न करे, कि वे कहते हैं कि हम इस्लाम के हितों का सपोर्ट करते हैं और ईरान के हमदर्द हैं, तो यह एक तरह की राजनैतिक नासमझी होगी। ईरान को अपने संसाधन को इस्तेमाल करना चाहिए। जब दुश्मन, अपनी सभी छोटी बड़ी सलाहियतों को इस्तेमाल कर रहा है तो हम क्यों अपनी सलाहियतों को इस्तेमाल न करें?
जी हाँ! मैंने देखा कि कभी कभी कहा जाता है कि रेज़िस्टेंस ने हमारे लिए कुछ नहीं किया! हक़ीक़त में, वे आपके मन को प्रभावित करना चाहते हैं और आपको यह समझाना चाहते हैं कि रेज़िस्टेंस ग्रुप आपके गले का तौक़ हैं और आप पर बोझ हैं, उन्हें छोड़ दीजिए, शर्तों पर सुलह हो सकती है। एक बार मैं दुनिया के एक ऐसे मुल्क के नेता से बात कर रहा था जो इस वक़्त सुरक्षा परिषद का सदस्य भी है, मैंने कहा कि यह अंतर्राष्ट्रीय क़ानून आपने क्यों बनाए हैं? जब वे हम पर हमला करते हैं और आप लोग जो सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं, कुछ नहीं करते, तो फिर यह अंतर्राष्ट्रीय नियम किस लिए हैं? उन्होंने कहा कि यह नियम बेकार हैं, इसलिए कि अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफ़ार्म का मतलब ताक़त है! बात यह है। अगर आप अपनी सलाहियत की रक्षा नहीं करेंगे, तो आप चोट खाएंगे। यह बहुत बुरी चीज़ है; अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफ़ार्म ऐसा ही है, जंगल की तरह है फिर भी यह ऐसी हक़ीक़त है जो मौजूद है। अब आप उसे मानें या न मानें; अगर नहीं मानते तो ज़्यादा चोट खाएंगे।
इसलिए आपको अपनी ताक़त के तत्वों को मज़बूत करना चाहिए। चाहे वे मुल्क के भीतर हों, आपके अवाम, आपके अवाम अहम हैं, अवाम का ख़याल रखिए, उनकी एकता का ख़याल रखिए, उनकी ज़रूरतें पूरी कीजिए, लोगों के साथ दोस्ताना रवैया रखिए, लोगों के साथ तानाशाही भरे अंदाज़ से बात न कीजिए, उनके जज़्बात को समझने की कोशिश कीजिए। क्षेत्र में भी आपके पास साधन हैं; अपने साधनों के साथ क्षेत्र में एकजुट रहिए। यह सोचना कि मिसाल के तौर पर हिज़्बुल्लाह या रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ हमारे ऊपर बोझ हैं, एक रणनैतिक ग़लती है। मेरे ख़याल में, उन्हें भी हमारी मदद की ज़रूरत है और हमें भी उनकी मदद से फ़ायदा उठाना चाहिए; क्योंकि एकांतवास अख़्तियार करना, ईरान की राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में भी नहीं है।
सवालः आपने लेबनान का जो दौरा किया था उसमें जनाब शैख़ नईम क़ासिम से भी मुलाक़ात की थी। ज़रा तफ़सील से बताइये कि उस दौरे में और दूसरे दौरों के दौरान जो मुलाक़ातें हुयीं उनके मद्देनज़र हिज़्बुल्लाह को फिर से खड़ा करने के बारे में आपकी समीक्षा क्या है?
जवाबः मैं पहले भी इस बारे में बात कर चुका हूं। मैंने हिज़्बुल्लाह के मुजाहिदों और उनके रहनुमा को अपने रास्ते में मज़बूत संकल्प का पाया। आज भी हिज़्बुल्लाह के नेतृत्व और उनके नौजवान सबके इरादे मज़बूत हैं। और नौजवान भी स्वागत समारोह में या शहीद नसरुल्लाह के मज़ार पर जहाँ हमने उनसे बात की, आपने वह नस्ल देखी जो उसका सिर्फ़ एक छोटा सा नमूना था, किसी ने उन्हे बुलाया नहीं था, बल्कि वे ख़ुद आए थे। उनका जज़्बा यह है; उन्हें महसूस होता है कि उन पर ज़ुल्म हो रहा है, इसलिए वे लेबनान की रक्षा के लिए अपनी जानें क़ुर्बान करने को तैयार हैं। अब कुछ लोग आकर कहते हैं कि तुम्हें हथियार डाल देना चाहिए! हम क्यों हथियार डालें? हम किसके सामने हथियार डालें? वे दुखी हैं।
हमारी पोज़ीशन भी हमेशा यही रही है कि लोग राष्ट्रीय वार्ता के ज़रिए अपने मसले ख़ुद हल करें और आज भी हमारी यही सैद्धांतिक पोज़ीशन है। अलबत्ता हमने कभी भी रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ पर कोई चीज़ थोपी नहीं है। वे कहते हैं कि यह ईरान से जुड़े हुए हैं; हाँ वे जुड़े हुए हैं, क्योंकि वे हमारे भाई हें, इस मानी में नहीं कि वे हमारे हुक्म को मानते हैं। हमारी शैली हर्गिज़ यह नहीं है और हमारा मानना है कि वे ख़ुद परिपक्वता रखते हैं और फ़ैसले कर सकते हैं। ईरान के बर्ताव और दूसरों के बर्ताव में फ़र्क़ बिल्कुल यहीं पर है; उनकी रणनीति यह है कि या तो हमारे सामने हथियार डाल दो या फिर जंग करो, लेकिन हमारा ख़याल है कि उनके अक़्ली परिपक्वता का सम्मान कीजिए। हम कहते हैं कि क्षेत्र आत्म निर्भर और मज़बूत होना चाहिए, न सिर्फ़ हमें मज़बूत होना चाहिए बल्कि लेबनान की सरकार भी मज़बूत होनी चाहिए, इराक़ की सरकार भी मज़बूत होनी चाहिए, सऊदी सरकार भी मज़बूत होनी चाहिए। हम नहीं कहते कि यह निचले दर्जे पर हों और हम उन पर हावी हों; हम वर्चस्व नहीं चाहते, हम भाईचारे और समझदारी भरे सहयोग को मानते हैं और हमारा यह मानना है कि क्षेत्र में आत्मनिर्भर और ताक़तवर सरकारें होनी चाहिए। हम हमेशा रेज़िस्टेंस का सपोर्ट करेंगे और इस्लामी गणराज्य की रणनीति रेज़िस्टेंस का सपोर्ट करने पर आधारित है।
सवालः अगर आप सहमत हों तो परमाणु ऊर्जा के विषय पर बात करते हैं। आपको परमाणु मामले में आईएईए के साथ बात करने का लंबा अनुभव रहा है। हालिया वाक़ए और इस जंग में आईएईए के रवैये के बारे में आप क्या कहेंगे और यह बताइये कि इस्लामी गणराज्य की इस विषय पर मुख़्तलिफ़ आयाम से आईएईए के साथ संबंध को लेकर क्या योजना है, क्या क़ानूनी राह है?
जवाबः जहाँ तक मुझे जानकारी है, जनाब अलबरादई के ज़माने से और उनके बाद की पीढ़ी जो इन साहब (राफ़ाएल ग्रोसी) तक पहुंची वाक़ई आईएईए कभी भी आज के जितनी विध्वंसक स्थिति में नहीं थी! यानी ये लोग थोड़ा बहुत तो तार्किक व्यवहार करते थे; यह बात सही है कि वह पश्चिम के प्रभाव में काम करते हैं, लेकिन थोड़ा बहुत अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के तक़ाज़ों का लेहाज़ करते थे। इस शख़्स ने मानो ज़ायोनी दुश्मन और अमरीका को ब्लैंक चेक दे दिया हो; यानी इस जंग में उसने आग में घी का काम किया था। सेफ़गार्ड नियमों में आया है कि एजेंसी, एनपीटी के सदस्य देशों का सपोर्ट करे, फ़ौरन निदेशक मंडल की बैठक करे और नतीजे को सुरक्षा परिषद को पेश करे लेकिन कितनी शर्मनाक बात है कि यह शख़्स खड़ा तमाशा देखता रहा, यहाँ तक कि निंदा भी नहीं की। जनाब अलबरादई जो थे, बहुत समझदारी भरा व्यवहार करते थे; बहरहाल इन लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव तो हमेशा रहता है, लेकिन किसी न किसी उपाय से एक पेशावराना सेंटर की साख की किसी हद तक रक्षा करते थे। मैं नहीं कहता कि सौ फ़ीसदी, लेकिन किसी हद तक रक्षा करते थे कि कम से कम ज़ाहिर ऐसा हो कि पेशावराना काम कर रहे हैं। इस शख़्स ने तो सब कुछ छोड़कर समर्पण कर दिया। जंग तो आख़िरी उपाय है; हमसे जंग हुयी, हमारे परमाणु प्रतिष्ठानों पर बमबारी की गयी लेकिन एजेंसी ने भर्त्सना में एक बयान तक जारी न किया! सचमुच शर्मनाक है।
मेरी नज़र में पहले ख़ुद एजेंसी की स्थिति के बारे में सोचना होगा कि यह एजेंसी क्या उपयोगिता रखती है। इस वक़्त मुल्क यह सवाल कर रहे हैं कि आईएईए की क्या उपयोगिता है। हम एनपीटी के सदस्य हैं? हमें आईएईए से सहयोग करने का क्या फ़ायदा हासिल होगा? हम यह नहीं कह रहे हैं कि एनपीटी से निकल जाएं; मैं यह कह रहा हूं कि यह हमारे अवाम और पूरे मुल्क के लिए एक तार्किक सवाल है।
सवालः क्या एनपीटी से निकल जाना, इस्लामी गणराज्य ईरान के सामने मौजूद विकल्पों में से एक है?
जवाबः यह मान्यता हमेशा रहती है। अलबत्ता मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अभी कोई ऐसा कर रहा है क्योंकि यह काम भी रणनैतिक तरीक़े से होना चाहिए और हमें देखना होगा कि इसका कोई फ़ायदा है भी या नहीं। हम परमाणु बम की कोशिश में नहीं हैं, जब कोई मुल्क एटम बम चाहता हो तो उसे एनपीटी नहीं क़ुबूल करना चाहिए और जब वह बम की कोशिश में नहीं है तो उसे एनपीटी ज़रूर क़ुबूल करना चाहिए औ उसे क़ुबूल न करने की कोई वजह नहीं है लेकिन हक़ीक़त यह है कि हमारे लिए एनपीटी की कोई उपयोगिता नहीं रही है।
देखिए! जब भी आप इन मामलों के मुक़ाबले में ताक़त के साथ क़दम उठाएंगे तो आपका काम आगे बढ़ेगा, अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफ़ार्म ऐसा ही है, लेकिन अगर आप यह सोचें कि मिसाल के तौर पर कूटनीति के मैदान में नर्म रवैया अख़्तियार करने से मसले हमल हो जाएंगे, तो ऐसा नही है। अगर आप के पास ताक़त होगी, तो आपका काम चलेगा; इसलिए ईरान को ताक़त हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।
सवालः इस बात का हमारी परमाणु नीति में क्या अर्थ होगा?
जवाबः हमारी परमाणु नीति में इसका अर्थ यह है कि आप वार्ता को कभी न छोड़ें लेकिन वार्ता में हथियार न डालें, बल्कि तर्कपूर्ण और समझदारी भरा हल पेश करें। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लचक न दिखाई जाए, लचक ऐसी जगह दिखाई जाए जहाँ उनका मक़सद मसला हल करना हो। मिसाल के तौर पर, कभी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने भी "बहादुरी भरी लचक" की बात की थी। यह उस जगह के लिए जहाँ सामने वाला पक्ष भी ऐसा करना चाहता है, लेकिन अगर वह यह कहे कि आपको झुकना होगा, तो ऐसी स्थिति में हथियार नहीं डालना चाहिए, बल्कि डट जाना चाहिए।
सवालः डॉक्टर साहब! आने वाले हफ़्तों में, हम स्नैपबैक मेकनिज़्म की स्थिति का सामना कर रहे हैं, जिस पर कई महीने पहले से बहस जारी है। इस मसले में योरोप वालों का मुख्य रोल रहा है और वे इसे ईरान के ख़िलाफ़ धमकी के हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। आपकी इस हथियार और योरोप वालों के इस रवैये के बारे में क्या समीक्षा है?
योरोप वालों का रवैया ज़ाहिर है कि वे क्या कर रहे हैं, उसकी समीक्षा की ज़रूरत नहीं है, यह दिन की तरह स्प्षट बात है, वे अमरीका की प्लानिंग को लागू कर रहे हैं लेकिन इस मामले में मतभेद मौजूद है। बहुत से मुल्कों जैसे रूस और चीन ने भी बयान जारी किए हैं और उनका मानना है कि यह मेकनिज़्म उस वक़्त के लिए बनाया गया था जब कोई पक्ष परमाणु समझौते पर अमल न करे। कौन पाबंदी नहीं कर रहा था? उन्होंने हमारे परमाणु प्रतिष्ठानों पर बमबारी की, तो फिर आप हमारे ख़िलाफ़ स्नैपबैक मेकनिज़्म क्यों इस्तेमाल कर रहे हैं? अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों पर अमल के लेहाज़ से यह स्थिति बहुत ही दुखद है। यह तो वही बात हुयी कि करे कोई भरे कोई। अंतर्राष्ट्रीय स्थिति बहुत ही अजीब चीज़ है और उसमें ऐसे दुखद वाक़ए होते हैं। इसलिए मतभेद मौजूद है।
अगला मतभेद यह है कि अगर आप स्नैपबैक मेकनिज़्म इस्तेमाल करना चाहते हैं, तो आप फ़ौरन सुरक्षा परिषद नहीं जा सकते, पहले तो आपको अपना मुतालबा पेश करना होगा, माहिरो की एक कमेटी है, फिर मंत्रियों की एक कमेटी है, फिर इनकी समीक्षा हो, फिर उसे सुरक्षा परिषद ले जाया जाएगा। यह लोग सीधे तौर पर सुरक्षा परिषद चले गए हैं!
अगला बिंदु यह है कि अमरीका समझौते से निकल चुका है; अब कितने लोग बाक़ी हैं? छह पक्ष बाक़ी हैं; ईरान, रूस, चीन और तीन योरोपीय मुल्क हैं। तो यह तीन के मुक़ाबले तीन हो गए। आप कैसे फ़ैसला करना चाहते हैं? इसलिए अगर सात मुल्क होते तो बहुमत का कोई मतलब निकलता इस वक़्त तो तीन के मुक़ाबले तीन हैं। यानी अगर वे उसूलों के मुताबिक़ क़दम उठाना चाहें तो यह इतना आसान नहीं है।
इसका तार्किक रास्ता यह था कि वे वार्ता के ज़रिए मसला हल करते लेकिन ये लोग दबाव के ज़रिए हासिल करना चाहते हैं। दबाव भी दो क़िस्म का होता हैः एक अमरीकी तरीक़ा है जिसमें उन्होंने बमबारी की और दूसरा उनका तरीक़ा है जिसमें उन्होंने उसे हमारे ऊपर थोप दिया है कि या तो हम यह करेंगे या वह! लेकिन जो कुछ समझौते में है, वह यह है। इसलिए मतभेद मौजूद है।
सवालः डॉक्टर साहब पिछली बात के परिप्रेक्ष्य में ऐसा लगता है कि स्नैपबैक मेकनिज़्म लागू किया जा रहा है और वे उसे सक्रिय कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में ईरान का क्या जवाब होगा?
जवाबः इस वक़्त मुल्क में समीक्षा की जा रही है और जहाँ तक मेरी जानकारी में है कुछ मुल्क भी वार्ता की कोशिश कर रहे हैं ताकि यह प्रक्रिया रोकी जाए। रूस और चीन की भी अलग पोज़ीशन है और वे उसके ख़िलाफ़ हैं।
सवालः अगर वे मुद्दत बढ़ाने का सुझाव दें तो क्या ईरान उसे मानेगा?
जवाबः इस मसले में मतभेद है। हमारा नज़रिया यह नहीं है। कुछ मुल्कों ने यह पेशकश की है लेकिन ईरान उसे नहीं मानता। यानी उसका मानना है कि यह भी एक नई परम्परा बन जाएगी जहाँ वे हर थोड़ी मुद्दत में आकर कहेंगे कि छह महीने हो गए हैं, अगली बार एक साल कर दें। हमारा एक समझौता था कि दस साल के भीतर यह ख़त्म हो जाना चाहिए था, अब इसमें और खींचतान की और इज़ाफ़ा करने की कोई गुंजाइश नहीं है। ईरान सचमुच इसे नहीं मानता। अलबत्ता मुल्क में भी कुछ लोगों ने कहा कि बेहतर होगा कि हम यह छह महीने की बात मान लें लेकिन कुल मिलाकर हम इसे नहीं मानते।
सवालः मतलब यह कि सुरक्षा परिषद ने भी इस बारे में फ़ैसला नहीं किया है?
जवाबः नहीं, इस मामले के लिए सुरक्षा परिषद में कुछ चरण हैं जिन्हें ज़रूर तय किया जाना चाहिए। जैसा कि मैंने कहा, स्नैपबैक मेकनिज़्म के इस्तेमाल के तरीक़े पर मतभेद पाया जाता है और इस मतभेद में अहम मुल्क भी शामिल हैं। अगर मामला सुरक्षा परिषद में पहुंचता है तो वहाँ भी इस पर बहस होगी। वहाँ यह फ़ैसला किया जा सकेगा कि इसे सक्रिय किया जाए या नहीं।
सवालः अगर ऐसा होता हैं तो इस मसले के लिए इस्लामी गणराज्य की क्या रणनीति होगी? यह शायद सबसे बुरी संभावित स्थिति है!
जवाबः हम उस वक़्त भी सोच समझकर क़दम उठाएंगे। आप सबसे बुरी संभावित स्थिति को मद्देनज़र रखें लेकिन अभी उस स्थिति तक पहुंचने में वक़्त है।