22 अगस्त 2025 को ज़ायनी सरकार के प्रधान मंत्री बिनयामिन नेतनयाहू का एक इंटरव्यू आई-24 नेटवर्क पर प्रसारित हुआ जिसमें उन्होंने साफ़ तौर पर "ग्रेटर इस्राईल" के सपने का ज़िक्र किया और उसे अपना आध्यात्मिक और ऐतिहासिक मिशन कहा।
यह स्पष्ट बयान हक़ीक़त में रेज़िस्टेंस के सपोर्टरों के इस विचार की पुष्टि करता है कि ज़ायोनी सरकार ज़मीनी विस्तारवाद और सुरक्षा के नाम पर विस्तारवाद की कोशिश कर रही है और यह विस्तारवाद 1948 और 1967 में क़ब्ज़ा किए गए इलाक़ों तक सीमित नहीं है। यह ऐसी स्थिति में है जब कई अरब और ग़ैर अरब गुट और मुल्क टू-स्टेट समाधान और ज़ायोनी सरकार से संबंध सामान्य करने के विचार के समर्थक हैं ताकि वेस्ट एशिया में स्थिरता और शांति आए और वे इस आधार पर रेज़िस्टेंस को क्षेत्र के लिए एक महंगी चीज़ समझते हैं हालांकि इस मामले में सही समझ, क्षेत्र के हालात की ज़्यादा सही समीक्षा पेश कर सकती है।
"ग्रेटर इस्राईल" का ख़याल एक केन्द्रीय नज़रिए के तौर पर, इस्राईल के ज़मीनी विस्तारवाद में बुनियादी रोल अदा करता है। यह ख़याल, जिसकी जड़ें "इस्राईल की सरज़मीन" के विचार की ग़लत धार्मिक और ऐतिहासिक व्याख्याओं से मिलती हैं, विस्तारवाद के कार्यक्षेत्र और भुगोल को साफ़ तौर से बयान करता है। इस ख़याल का प्रचार करने वाले पैदाइश, आंकड़े, द्विवचन और हिज़क़ील जैसी किताबों के हवालों की बुनियाद पर नील से फ़ुरात तक के इलाक़ों पर दावा करते हैं। नज़रिये पर आधारित यह परिप्रेक्ष्य, विस्तारवादी करतूतों को आध्यात्मिक और ऐतिहासिक कवर देता है और इसे एक निरे राजनैतिक प्रोग्राम की जगह, पहचान पर आधारित मिशन में बदल देता है।
पश्चिम यहाँ तक कि इस्लामी जगत की ज़्यादातर तहरीरों में इस बात की कोशिश की गयी है कि इस नज़रिए को दाएं बाज़ू के चरमपंथी ज़ायोनी धड़ों से जोड़ा जाए जो ज़ायोनी सरकार की राजनैतिक ताक़त पर छाए अस्ल धड़े से अलग हैं। फिर भी अगर ग़ौर से देखा जाए तो यह बात साफ़ हो जाती है कि यह नज़रिया, इस्राईल के रणनैतिक फ़ैसलों और व्यवहारिक कार्यवाहियों के लिए प्रेरणा का तत्व रहा है। इसी सोच के ज़रिए सैन्यवाद, बड़े पैमाने पर सुरक्षा विभागों का गठन, मुख़्तलिफ़ तरह के सुरक्षा बफ़र ज़ोन का निर्माण, क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवस्था का गठन, ज़ायोनी कालोनियों का निर्माण और नाजायज़ तौर पर क़ब्ज़ा किए गए इलाक़ों पर सैन्य कंट्रोल जैसी नीतियों को न सिर्फ़ यह कि वैध ठहराया नहीं जा सकता बल्कि इस लक्ष्य को हासिल करने की राह में ज़रूरी क़दम क़रार दिया जाता है। यह नज़रिया रखने वाले दल और आंदोलन, इसे सरकारी नीति में बदल कर विस्तारवादी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी राजनैतिक संकल्प मुहैया करते हैं और उसे ज़मीन पर उपनिवेशवादी और भौगोलिक तथ्य के रूप में इस तरह पेश करते हैं जिसे नकारा न जा सके। निश्चित तौर पर यह नज़रिया ज़्यादा गहरा और व्यापक है और ग्रेटर इस्राईल के नज़रिए को सिर्फ़ एक चरमपंथी और कम अहमियत वाले गुटों से संबंधित समझना एक सतही और गुमराह करने वाली समीक्षा है जो ज़मीनी तथ्यों और ज़ायोनी सरकार के विस्तारवादी इतिहास को नज़रअंदाज़ करता है। मिसाल के तौर पर 27 मार्च सन 1992 को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने अपने बयान में फ़रमाया, "ज़ायोनी अपने लक्ष्यों से पीछे नहीं हटे हैं। उन्होंने "नील से फ़ुरात तक" के अपने घोषित लक्ष्य को वापस नहीं लिया है। उनका इरादा अब भी यही है कि वे नील से फ़ुरात तक के इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लें! अलबत्ता ज़ायोनियों की रणनीति यह है कि पहले धोखा और फ़रेब से अपने क़दम मज़बूत करें और जब क़दम जम जाएं तो दबाव, हमले, क़त्ल, लूट और हिंसा के ज़रिए जहाँ तक मुमकिन हो आगे बढ़ें! जब भी उन्हें किसी गंभीर मुक़ाबले का सामना होता है, चाहे वह राजनैतिक हो या सैन्य, वे रुक जाते हैं और दोबारा धोखा और साज़िश की राह अपनाते हैं ताकि मक्कारी से एक क़दम और आगे बढ़ सकें! जब वे एक क़दम आगे बढ़ जाते हैं तो दोबारा वही दबाव और हिंसा की राह अपनाते हैं। यह वह काम है जो वे 60-70 साल से आज तक करते आ रहे हैं।"
इस नज़रिए को व्यवहारिक बनाने के लिए ज़ायोनी सरकार द्वारा उठाए गए व्यवहारिक क़दम
यह नज़रिया चाहे गुप्त हो या घोषित, ज़ायोनीवाद की रणनीति पर हावी एक बड़े नज़िरए में बदल चुका है जो इस सरकार के मुख्य राजनैतिक और सैन्य धड़ों की गतिविधियों को तय करता है। निम्नलिखित बिंदुओं को इसके सुबूत के तौर पर देखा जा सकता है।
1 सरकारी अधिकारियों के बयानः नेतनयाहू के अलावा दूसरे सरकारी अधिकारियों ने भी ग्रेटर इस्राईल के बारे में सीधे तौर पर या इन्डायरेक्ट तौर पर अपने विचार ज़ाहिर किए हैं जिनमें सबसे अहम बिन गोरियन का बयान है। इस शासन के संस्थापक और पहले प्रधान मंत्री डेविड बिन गोरियन का, अपने बेटे आमोस को 5 अक्तूबर 1937 को पील कान्फ़्रेंस के बाद लिखा गया ख़त सबसे स्पष्ट दस्तावेज़ों में से एक है जिससे ज़ाहिर होता है कि "ग्रेटर इस्राईल" का ख़याल एक मामूली आरज़ू नहीं थी बल्कि शुरू से ही ज़ायोनी योजना के मुख्य योजनाकारों के मन में मौजूद एक योजना थी जिसने रोडमैप को तय कर दिया था। बिन गोरियन ने उस ख़त में लिखा थाः "(पील कमीशन की सिफ़ारिश के मुताबिक़) एक आंशिक यहूदी राज्य, हमारी मंज़िल नहीं है, बल्कि यह राह का सिर्फ़ आग़ाज़ है...हम अपनी ताक़त बढ़ाएंगे और ताक़त में किसी भी तरह का इज़ाफ़ा, पूरी सरज़मीन को अपने आधिपत्य में लेने में हमारी मदद करेगा...हम (सरहदों के) बंटवारे का अंत करेंगे और पूरे फ़िलिस्तीन में अपना विस्तार बंद नहीं करेंगे।"
एहूद ओलमर्ट ने भी 29 मार्च 2006 को चुनाव के बाद खुलकर कहा था, "हज़ारों साल से हम ग्रेटर इस्राईल के सपने को अपने दिलों में बसाए हुए हैं। यह सरज़मीन हमेशा के लिए, अपनी ऐतिहासिक सरहदों के साथ हमारी आत्मा के साथ जुड़ी रहेगी। हम कभी भी अपने दिलों को इन जगहों से जुदा नहीं करेंगे जो हमारी संस्कृति का पालना है और जहाँ से एक क़ौम के तौर पर हमारी सबसे क़ीमती यादें जुड़ी हुयी हैं।
इन बयानों से पता चलता है कि ज़ायोनी शासन के सरग़ना, चाहे उनकी राजनैतिक और धार्मिक सोच जैसी भी हो, आख़िरकार ग्रेटर इस्राईल के ख़याल को क्षेत्र पर वर्चस्व के लिए यहूदियों के बड़े नज़रिए के तौर पर मानते हैं और ग्रेटर इस्राईल का दावा ज़ायोनियों के दरमियान किसी ख़ास वर्ग तक सीमित नहीं है।
2 फ़िलिस्तीनी इलाक़ों को ज़ायोनी शासन में मिलाने को योजनाः वेस्ट बैंक और गोलान हाइट्स को 55 साल से ज़्यादा मुद्दत से नाजायज़ क़ब्ज़े में बाक़ी रखना और उनके सरकारी तौर पर विलय की कोशिश इस बात की गवाह है। यह नाजायज़ क़ब्ज़ा सिर्फ़ एक सामयिक सुरक्षा मसला नहीं है बल्कि ज़मीन, संसाधन (ख़ौस तौर पर पानी) और लोगों पर कंट्रोल का एक एकीकृत सिस्टम है जो ज़ायोनी शासन की विस्तारवादी योजना को लागू करने का मौक़ा देता है। लेबर पार्टी के एक अहम मंत्री यगाल आलोन ने 1967 की जंग के फ़ौरन बाद वेस्ट बैंक को इस्राईल में शामिल करने की योजना पेश की थी। उस योजना के तहत जॉर्डन घाटी को "इस्राईल की सुरक्षा की सरहद" के तौर पर स्थायी रूप से इस्राईल की सरज़मीन में शामिल किया जाना था। रणनैतिक आयाम से यह घाटी और सुरक्षा क़दम, पूरब और दो नदियों के बीच (मौजूदा इराक़) की ओर पहला क़दम समझे जाते थे।
3 सैन्य और सुरक्षा गतिविधियाः क्षेत्रीय विस्तार वाली सैन्य और सुरक्षा गतिविधियां, जैसे 1956 और 1967 की जंगों में सीना प्रायद्वीप पर नाजायज़ क़ब्ज़े के लिए सुरक्षा हरकतें और सीरिया में "डेविड कोरिडोर" बनाने के लिए सैन्य गतिविधियां "नील से फ़ुरात तक" के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सबसे स्पष्ट क़दम समझे जा सकते हैं।
4 ज़ायोनी कालोनियों का निर्माणः ज़ायोनी शासन में ज़ायोनी कालोनियों के निर्माण को पार्टी स्तर से ऊपर उठकर एक योजना के तौर पर आगे बढ़ाया जा रहा है। अगरचे दक्षिणपंथी दल इन कालोनियों का सबसे ज़्यादा प्रचार करते हैं लेकिन वेस्ट बैंक और पूर्वी बैतुल मुक़द्दस में ज़ायोनी कालोनियों का निर्माण, "वामपंथी" या लेबर पार्टी जैसे कथित मध्यमार्गी दलों के सत्ता में होने के दौर में भी व्यापक स्तर पर जारी रही हैं। मिसाल के तौर पर 1967 की जंग के बाद ज़ायोनी कालोनियों के निर्माण की सबसे बड़ी लहर लेबर पार्टी लुई एश्कोल सरकार के दौर में शुरू हुयी। इस्हाक़ राबिन, जो ज़ाहिरी तौर पर शांति पसंद शख़्सियत के तौर पर जाने जाते हैं, ख़ुद कई ज़ायोनी कालोनियों की बुनियाद रखने वालों में से थे। इससे पता चलता है कि ज़ायोनी कालोनियों का निर्माण, भौगोलिक और डेमोग्रेफ़िक तथ्यों को बदलने और ग्रेटर इस्राईल के नज़रिए को धीरे धीरे आगे बढ़ाने की एक रणनीति है, चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो।
ग्रेटर इस्राईल के नज़रिए के संभावित नतीजे
अगर ग्रेटर इस्राईल के नज़रिए से गंभीरता से निपटा न गया और इसके ख़िलाफ़ भरपूर रेज़िस्टेंस न दिखाया गया तो यह क्षेत्रीय और इस्लामी और अरब मुल्कों में आंतरिक स्तर पर संकटों और चुनौतियों का कारण बन सकता है जिनमें सबसे अहम यह हैं:
1 क्षेत्र की हक़ीक़तों पर आधारित क्षेत्रीय अनुशासन का नष्ट होनाः इस नज़रिए के व्यवहारिक होने का मतलब मौजूदा सरहदों और अनेक मुल्कों की राष्ट्रीय संप्रभुता पर असर डालना है जिसमें फ़िलिस्तीन, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, मिस्र और सऊदी अरब के कुछ हिस्से शामिल हैं। यह स्थिति क्षेत्र को अस्थिरता के एक स्थायी भंवर में ढकेल देगी और ईरानी और तुर्की जैसे आस-पास के इलाक़े व्यापक स्तर पर विदेशी हस्तक्षेप में घिर जाएंगे। इस योजना का लागू होना क्षेत्र के सभी मुल्कों यहाँ तक कि विश्व ताक़तों की डायरेक्ट या इनडायरेक्ट भागीदारी से एक विनाशकारी जंग के शुरू होने के अर्थ में होगा।
2 अस्थिरता में इज़ाफ़ाः "ग्रेटर इस्राईल" के नज़रिए के व्यवहारिक होने का कम से कम असर, आस पास के मुल्कों की स्वाधीनता कमज़ोर पड़ने की शक्ल में सामने आएगा। राष्ट्रीय सरकारों का अंत और उनकी जगह ज़ायोनियों के पिट्ठू तत्वों का आना, सत्ता में गंभीर शून्य पैदा करेगा। इसके नतीजे में आंतरिक झड़पें, बग़ावतें, नस्ली और मज़हबी जंगें होंगी जिनका ध्रुव मुल्क के भीतर और मुल्क के बाहर की ताक़तों के नेटवर्क होंगे।
3 मानव त्रासदीः इस योजना के व्यवहारिक होने के लिए नस्ली सफ़ाए, ताक़त के बल पर विस्थापन और जातीय सफ़ाए की ज़रूरत होगी जो इस वक़्त जो कुछ ग़ज़ा पट्टी में हो रहा है, उससे कहीं बड़े पैमाने पर होगा। यह चीज़ दूसरे विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी मानव त्रासदी को जन्म देगी। इससे शरणार्थियों और बेघर लोगों का तूफ़ान खड़ा होगा जो न सिर्फ़ क्षेत्र बल्कि योरोप और पूरी दुनिया को अभूतपूर्ण संकट से ग्रस्त कर देगा।
4 सांस्कृतिक हेरीटेज की तबाहीः ग्रेटर इस्राईल की योजना क्षेत्र के सबसे समृद्ध सांस्कृतिक धरोहरों और प्राचीन सभ्यताओं के अंत का कारण बनेगी और क़ौमों की राष्ट्रीय पहचान को मिटा देगी। इस दावे के सुबूत के तौर पर बैतुल मुक़द्दस में तथ्यों को बदलने के लिए ज़ायोनी सरकार की ओर से जान बूझकर की गई करतूतों को पेश किया जा सकता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि एक विस्तारवादी योजना और क्षेत्र की शांति, सुरक्षा, स्थिरता और मज़बूती के लिए एक गंभीर ख़तरे की हैसियत से ग्रेटर इस्राईल के नज़रिए से निपटना ज़रूरी है। यह नज़रिया, जिसकी ज़ायोनी अधिकारियों ने खुल्लम खुल्ला पुष्टी की है, क्षेत्रीय अनुशासन के विनाश, मानव त्रासदी और सांस्कृतिक धरोहरों के मिटने का कारण बन सकता है। अगर इस नज़रिए के ख़िलाफ़ गंभीर क़दम नहीं उठाया गया और एकजुट होकर रेज़िस्टेंस नहीं दिखाया गया तो इस्लामी और अरब मुल्कों को बहुत सख़्त चुनौतियों का सामना करना होगा जो न सिर्फ़ उनकी राष्ट्रीय संप्रभुता को ख़तरे में डालेगा बल्कि विश्व स्तर पर बड़े पैमाने पर मानवीय और सामाजिक संकट भी पैदा कर सकता है। इसलिए इस ख़तरे से निपटने के लिए एक संगठित मोर्चा बनाना और प्रभावी रणनीति अपनाना, वेस्ट एशिया के इलाक़े के मुल्कों और इस्लामी जगत की पहचान की रक्षा और उनकी सुरक्षा को बनाए रखने के लिए निर्णायक काम है।