इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने 23 अक्तूबर 2024 को फ़ार्स प्रांत के शहीदों पर राष्ट्रीय कान्फ़्रेंस के प्रबंधकों से मुलाक़ात में इस प्रांत के इतिहास, अज़ीम हस्तियों और शानदार अतीत के बारे में स्पीच दी। यह स्पीच कान्फ़्रेंस के आयोजन के दिन 29 अक्तूबर को कान्फ़्रेंस में दिखाई गयी।(1)
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता का ख़ेताब
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा और मासूम नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
अज़ीज़ भाइयो व बहनो! आप सबका स्वागत है। आदरणीय जुमे के इमाम के इस संक्षिप्त और गहरे बयान और इसी तरह आदरणीय कमांडर की आकर्षक व संपूर्ण तहरीर के लिए उनका शुक्रगुज़ार हूं।
धर्म, बहादुरी और कला का योग, ईरानी सभ्यता की एक ख़ुसूसियत
हमारे प्यारे वतन की सभ्यता की ख़ुसूसियतों में से एक, जिस पर हमेशा ध्यान देना चाहिए, यह है कि यह धर्म, बहादुरी और कला के संगम में कामयाब रहा है। दुनिया की बहुत सी जगहों पर धर्म अपने रास्ते पर अलग चलता है, अलबत्ता अगर हो तो, कला अपना काम करती है, बहादुरी भी अगर कहीं होती है तो उसकी अपनी जगह है। इस्लामी ईरान में इन तीनों तत्वों का योग एक आकर्षक व दिलचस्प चीज़ है जो आज कल की नहीं है, यह ख़ुद इस्लाम से ली गयी है। ख़ुद क़ुरआन मजीद में: "मगर जो साहिबे ईमान हैं वह सबसे बढ़कर ख़ुदा से मोहब्बत करते हैं..."(2) (सूरए बक़रह, आयत-165) भी है "जिनसे वह मोहब्बत करता होगा और वह उससे मोहब्बत करते होंगे..." (3) (सूरए मायदा, आयत-54) साथ ही "अल्लाह की राह में उन लोगों से जंग करना चाहिए" (4) सूरए निसा, आयत-74, जहाँ कहा गया हैः "जो लोग ईमान लाए हैं वह तो अल्लाह की राह में जंग करते हैं और जो काफ़िर हैं वह शैतान की राह में जंग करते हैं।"(5) सूरए निसा आयत-76, सूरए फ़तह, आयत-29, "वे काफ़िरों पर सख़्त हैं।" (6) सूरए फ़तह, आयत-29, भी है और "वे आपस में मेहरबान हैं।"(7) सूरए फ़तह, आयत-29, भी है।
मतलब यह कि ख़ुद क़ुरआन मजीद, धर्म और इलाही मतों, महान वीरता और कला का संगम है, ख़ुद क़ुरआन मजीद कला का एक उत्कृष्ट नमूना है, एक कमाल की कलाकृति है, इसके अलावा क़ुरआन मजीद में इश्क़ और मोहब्बत वग़ैरह की तरफ़ भी इशारा किया गया है और पढ़ने वालों के लिए इसकी तस्वीर पेश की गई है। यह हमारे इतिहास में मौजूद है।
शीराज़ धर्म, बहादुरी और कला के संगम का बेहतरीन नमूना
अगर इसे अतिश्योक्ति न समझा जाए तो मैं अर्ज़ करूं कि शायद हमारे मुल्क की वह बेहतरीन जगह जहाँ इन तीनों तत्वों का योग बहुत साफ़ तौर पर नज़र आता है, फ़ार्स और शीराज़ है। यह बात हम कहें या कोई और कहे वाक़ई सौ फ़ीसदी सही है। शीराज़ एक ऐसी जगह है जहाँ ये तीनों तत्व एक दूसरे के साथ जुड़े हुए दिखाई देते हैं। हज़रत अहमद बिन मूसा (शाह चेराग़) अलैहिस्सलाम से लेकर दूसरे इमामज़ादों तक जो इस प्रांत और इस शहर में हैं, बाद के ज़मानों तक और आज तक इन मोहतरमा शहीद करबासी (8) तक जो कुछ दिन पहले शहीद हुयीं, ये तीनों तत्व, इन सभी युगों में एक दूसरे के साथ और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
धर्म, बहादुरी और कला के संगम के नमूने
मुल्क के सबसे मशहूर और सबसे लोकप्रिय शायर यानी हाफ़िज़ शीराज़ी, क़ुरआन के हाफ़िज़ हैं जो "क़ुरआन को चौदह क़िराअतों से पढ़ते हैं" (9) ग़ज़ल के इस शायर को जिन्हें मधुर वाणी कहा जाता था, क़ुरआन मजीद, 14 क़िराअतों यानी क़ुरआन की तिलावत के 14 अलग अलग अंदाज़ से पूरी तरह याद था। क़िराअतों के अंतर के साथ जो तिलावत की जाती है हमने बहुत कम ऐसे क़ारी देखे हैं जो तारीख़ के मशहूर 7 क़ारियों की क़िराअत की महारत रखते हैं। इनमें से हर एक के दो दो रावी हैं और इस तरह चौदह रवायत हो जाती है। इसके बाद वह (एक दूसरी ग़ज़ल में) कहते हैं: "मैंने जो कुछ किया वह क़ुरआन की दौलत से किया"(10) मतलब यह कि उनके शेर भी क़ुरआन के हैं, उनकी कला भी क़ुरआन ही की है, उनकी मारेफ़त बी क़ुरआन ही की है, उनका आत्मज्ञान भी क़ुरआन ही का है, उनका पाक अंतर्मन भी क़ुरआन ही की देन है, उन्हें हर चीज़ क़ुरआन से मिली है। क्या धर्म और कला का इससे सुंदर संगम कुछ और हो सकता है कि धर्म और कला इस तरह आपस में मिल जाए? इस तरह उनकी बहादुरी और रणक्षेत्र के कारनामे भी हैं। ख़ुद हज़रत अहमद बिन मूसा (शाह चेराग़) अलैहिस्सलाम से लेकर अब्बास दौरान (11) तक मशहूर शहीदों तक जिनमें शहीद मुर्तज़ा जावेदी, शहीद अली सुलतानी और यही मोहतरमा मासूमा करबासी से लेकर प्रांत के बड़े शहीदों तक जिनमें से कुछ का हमारे आदरणीय कमांडर (12) ने नाम लिया, यह 15 हज़ार शहीद, पंद्रह हज़ार आइडियल और मुख़्तलिफ़ मैदानों में शहीदों के 15 हज़ार रोल माडल हैं।
मुल्क और क्षेत्र के वाक़यों में प्रांत की प्रभावी व फ़ख़्र के क़ाबिल हस्तियों का रोल
योरोपीय साम्राज्यवाद के साथ पहली जंग, फ़ार्स के शासक इमाम क़ुली ख़ान ने की थी और वह पुर्तगालियों को हुर्मुज़ से बाहर खदेड़ने में कामयाब हुए थे। हमारे मुल्क में पहली साफ़्ट वार मीरज़ा शीराज़ी ने की थी। तंबाकू को हराम क़रार देना, साफ़्ट वार थी, सबसे बड़ी जंग और वह भी ऐसी जंग जिसने मुल्क में अंग्रेज़ों के आर्थिक वर्चस्व की बिसात लपेट दी। यही काम गांधी जी ने भारत में किया लेकिन मीरज़ा शीराज़ी के 30 साल बाद। यानी इस बेनज़ीर साफ़्ट वार में पहल मीरज़ा शीराज़ी ने की। ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ इराक़ियों के सबसे मज़बूत प्रतिरोध की कमान मीरज़ा शीराज़ी ने संभाली थी। इस्लामी सरकार का पहला सिक्का मरहूम सैयद अब्दुल हुसैन लारी ने शीराज़, जहरुम और लार में ढाला, इस्लामी सरकार का गठन किया। अलबत्ता वह सरकार स्थिर न रह सकी और वह उसे जारी न रख सके लेकिन उन्होंने क़दम उठाया, शुरूआत की। ये सब फ़ख़्र के क़ाबिल कारनामे हैं। अगर हम ख़ुद अपने ज़माने की तरफ़ लौटें तो हम शहीद दस्तग़ैब जैसे आलिम, आत्मज्ञानी और संत को देखते हैं। सचमुच शहीद दत्सग़ैब अध्यात्म और आत्मज्ञान के प्रतीक थे, वह अख़लाक़ के भी प्रतीक थे और जेहाद के भी प्रतीक थे। सन 1962 और 1963 में जब यह संघर्ष शुरू ही हुआ था और हम क़ुम में थे, मरहूम शैख़ बहाउद्दीन महल्लाती और शीराज़ के दूसरे धर्मगुरू बैठकें आयोजित करते थे जिनके प्रवक्ता मरहूम दस्तग़ैब थे और जहाँ तक मुझे याद है शीराज़ की जामा मस्जिद में इकट्ठा होते थे और तक़रीर वग़ैरह किया करते थे। यह सिलसिला उनकी शहादत तक जारी रहा। मतलब यह कि फ़ार्स में हर तरह के शहीद हैं, हर मैदान में इस सरज़मीन के शहीदों ने अपनी क़ुरबानी पेश की है और ख़ुद को नुमायां बनाकर पेश किया है, यह शीराज़ की पहचान है, यह फ़ार्स का आई कार्ड है।
धर्म, बहादुरी और कला के योग का क्रम
उन लोगों ने बेवक़ूफ़ी की जिन्होंने यह सोचा कि वे शीराज़ के ओछे जश्न जैसी चीज़ के ज़रिए शीराज़ को अहलेबैत का हरम और धर्म व ईमान का केन्द्र होने से दूर करके उसे भोग-विलास की जगह बना सकते हैं, यह उनकी ग़लतफ़हमी थी, सही मानी में उन्होंने बेवक़ूफ़ी की! शीराज़ के महान धर्मगुरू यानी मुल्ला सदरा रहमतुल्लाह अलैह ने, जो हमारी नज़र में दुनिया में दर्शनशास्त्र की सबसे नुमायां हस्तियों में से एक हैं, उन्होंने अपने शेर में, उनके बहुत कम शेर बाक़ी रह गए हैं, कहा हैः
लोक परलोक के संघर्ष में फ़तह इश्क़ की ही है
अगरचे इसमें उसके सारे सिपाही शहीद होंगे (13)
यह एक दर्शनशास्त्र के माहिर धर्मगुरू का शेर है। मतलब यह है कि यह जज़्बा, धर्म, बहादुरी और कला का यह सुदंर संयोग लगातार जारी है। मरहूम दस्तग़ैब भी आत्मज्ञानी थे, शायर भी थे और अध्यात्म की वादी की भी सैर करते थे, हम उनके बारे में क़रीब से उन चीज़ों को जानते थे, दूसरे लोग भी जानते थे, ये चीज़ें बहुत अहम हैं।
हमारी क़ौम की ख़ुसूसियतों में धर्म पर अमल, बहादुरी और कला को पेश करने की ज़रूरत
आपकी कान्फ़्रेंस मुल्क को यह दिखाए, इस चीज़ को मुल्क में स्थापित करे, आपको यह दिखाना चाहिए कि एक सभ्य, मारेफ़त रखने वाली और प्रगतिशील क़ौम के लिए जो चीज़ अहम है वह यह है कि वह दीनदार हो, बाहदुर हो और कला रखती हो, ये तीनों चीज़ें एक साथ हों। कला, धर्म की सेवा में, धर्म, बहादुरी की सेवा में और बहादुरी क़ौम की तरक़्क़ी की सेवा में, ये चीज़ें अहम हैं। आपकी कान्फ़्रेंस से यह बात निकलकर आनी चाहिए, यह चीज़ दिखाई देनी चाहिए। अब आप इसे किताब के ज़रिए सामने लाएं, शेर के ज़रिए सामने लाएं, तराने के ज़रिए सामने लाएं या मिसाल के तौर पर ड्रामे के ज़रिए सामने लाएं, बहरहाल ये चीज़ सामने आनी चाहिए, आपको इसे दिखाना चाहिए, यह वह चीज़ है जिसकी हमारी क़ौम को ज़रूरत है। आज भी पहलवी दौर के बेवक़ूफ़ों की तरह के लोग मौजूद हैं जो कला को अध्यात्म से अलग करना चाहते हैं, कला को बहादुरी से अलग करना चाहते हैं, उन्हें कभी एक दूसरे के मुख़ालिफ़ रास्तों पर ले जाना चाहते हैं, आज भी हमारे अज़ीज़ मुल्क में और हमारी इस क़ीमती चारदीवारी में इन लोगों की सूरत में उस मशीनरी का बचा खुचा कचरा पाया जाता है। हमें इन तीनों पहलुओं की रक्षा करनी चाहिए।
लोगों पर कान्फ़्रेंस के असर की समीक्षा
मेरी एक पुरज़ोर सिफ़ारिश, जिसे मैंने यहाँ नोट कर रखा है, यह हैः कान्फ़्रेंस के प्रभाव की समीक्षा कीजिए। चूंकि आप असर डालना चाहते हैं न! तो ठीक है, समीक्षा कीजिए, देखिए मिसाल के तौर पर एक साल में, इस कान्फ़्रेंस ने, जिसे आपने इतनी ज़हमतों और कोशिशों से आयोजित किया है, जनमत पर, आपकी जवान नस्ल के व्यवहार पर क्या असर डाला? आपकी युवा पीढ़ी में कितने लोगों में धर्म पर अमल, मस्जिद जाने, उनमें वैचारिक परिपक्वता के लिए कोशिश, उनके किताब पढ़ने, सही सोचने और सही दिशा में आगे बढ़ने में तरक़्क़ी हुयी? इसकी समीक्षा कीजिए, इसका रास्ता ढूंढिए, आप यह कर सकते हैं, अलबत्ता यह आसान काम नहीं है। इस समीक्षा को जासूसी करने और किसी उंगली उठाने वग़ैरह के अर्थ में न लिया जाए, इन रास्तों पर नहीं जाना चाहिए, सही तरीक़े से देखना और सही तरीक़े से पहचानना मक़सद होना चाहिए।
सेवा का रुझान, आपके काम के असर की समीक्षा करने की एक कसौटी
सेवा का रुझान, इस कान्फ़्रेंस के असर में से एक है। आप देखिए कि जवान नस्ल में सेवा का कितना रुझान पैदा हुआ है, वैचारिक सेवा, जेहादी सेवा, सेवा के मैदानों में मौजूदगीः जेहादी कैंप, डेव्लपमेंट की तैयारी, जंगी सेंटरों में जाने और पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान हमारे अज़ीज़ फ़ौजियों और स्वंयसेवियों की जद्दोजेहद के असर को देखने के लिए जाने वाले कारवां, आप देखिए कि इन चीज़ों की ओर कितना रुझान बढ़ा है। अगर आपने देखा कि कोई प्रगति नहीं हुयी है तो फिर अपने काम पर लौट जाइये और देखिए कि मुश्किल कहाँ है, उसका असर क्यों नहीं पड़ा? अगर आपने देखा कि प्रगति हुयी है तो फिर देखिए कि तरक़्क़ी के क्या कारक हैं? इसे मज़बूत कीजिए। वह चीज़ जो उस नौजवान को आगे बढ़ाने में कामयाब हुयी है वह क्या है?
हमारी ओर से वाक़यों और कारनामों को बयान करने में कमज़ोरी और इसे मज़बूत बनाने की ज़रूरत
हमारी आज की जवान नस्ल को अपने मुल्क के गर्व से भरे अतीत को पहचानने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर इंक़ेलाब से संबंधित पिछले कुछ दशकों के अतीत की पहचान। हम वाक़यों को सही तरीक़े से बयान करने में कमज़ोर हैं। मिसाल के तौर पर क्या हमारी जवान पीढ़ी, जासूसी के अड्डे (अमरीकी दूतावास) पर क़ब्ज़ा किए जाने के पहलुओं को सही तरीक़े से से जानती और पहचानती है? क्या वे 8 साल की जंग शुरू होने की अस्ल हक़ीक़त को जानते हैं? अगर किसी के मन में यह सवाल आए कि हमने क्यों 8 साल तक जंग की कि इतने सारे जवानों को खो दिया तो क्या उन्हें इसका जवाब मालूम है? क्या वे जानते हैं कि क्या वजह थी कि ऐसा हुआ? यह सब बयान होना चाहिए, सही तरीक़े से बयान होना चाहिए। बेहम्दिल्लाह मैं देखता हूं कि इस सिलसिले में अच्छे काम हो रहे हैं, कुछ किताबों, कुछ तहरीरों और कुछ कामों को मैं, जहाँ तक मुझे मौक़ा मिलता है, देखता हूं। ख़ैर तो यह इन मुद्दों के बारे में कुछ बातें थीं।
वेस्ट एशिया के वाक़ये, ऐतिहासिक वाक़ए
आज हमें क्षेत्र में एक बुनियादी और अहम मसले का सामना है। यही वेस्ट एशिया से संबंधित मसले, लेबनान के मसले, ग़ज़ा के मसले, वेस्ट बैंक के मसले, ये ऐतिहासिक वाक़ए हैं। इनमें से हर वाक़ेया किसी एक दिशा, एक आंदोलन और एक ऐतिहासिक मूवमेंट का स्रोत बन सकता है। अगर शहीद सिनवार (14) जैसे लोग न होते जो आख़िरी लम्हे तक लड़ते रहे तो क्षेत्र का भविष्य किसी और तरह का होता, अब किसी और तरह का है। अगर शहीद सैयद हसन नसरुल्लाह जैसे अज़ीम लोग न होते जो जेहाद, बुद्धि, बहादुरी, बलिदान और क़ुरबानी को एक साथ मैदान में ले आए तो आंदोलन किसी और तरह का होता, अब जब ऐसे लोग हैं तो आंदोलन किसी और तरह का है। ये बातें बहुत अहम हैं।
अपने लक्ष्य को हासिल करने और रेज़िस्टेंस मोर्चे को ख़त्म करने में ज़ायोनी शासन की नाकामी
जो चीज़ आज तक हुई है, वह एक बड़ी हार है, सिर्फ़ ज़ायोनी शासन की ही नहीं बल्कि पश्चिमी सभ्यता की, पश्चिमी कल्चर की, पश्चिम के दावों की, उनकी एक बड़ी हार हुयी है। ज़ायोनी शासन को शिकस्त हुयी इसलिए कि वह सोच रहा था कि बड़ी आसानी से रेज़िस्टेंस गिरोहों को, रेज़िस्टेंस को ख़त्म कर देगा, मिटा देगा, आज आप देख रहे हैं कि उसने 50 हज़ार से ज़्यादा निहत्थे और आम लोगों को शहीद किया है, रेज़िस्टेंस के कई बड़े नेताओं को शहीद किया है लेकिन रेज़िस्टेंस के मोर्चे पर तनिक भी असर नहीं पड़ा, रेज़िस्टेंस मोर्चा उसी ताक़त के साथ, उसी संकल्प के साथ आज लड़ रहा है, क्या यह ज़ायोनी शासन की शिकस्त नहीं है? यह बहुत बड़ी शिकस्त ही तो है। इतने पैसे बहाए, इतनी कोशिशें कीं, अमरीका अपनी पूरी ताक़त से उनकी मदद के लिए आया, बहुत से योरोपीय मुल्क भी आए, ज़ायोनियों ने इतने ज़्यादा जुर्म किए, पूरी दुनिया में उनकी छवि इतनी घटिया, बुरी और घिनौनी हो गयी कि अमरीका तक की सड़कों पर उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किए गए, अमरीका की युनिवर्सिटियों में उनके ख़िलाफ़ रैलियां निकाली गयीं, जबकि रेज़िस्टेंस मोर्चा बाक़ी है, हमास है, जेहाद (इस्लामी) है, हिज़्बुल्लाह है, वेस्ट बैंक के लोग और लड़ने वाले जवान हैं, दूसरी जगहों पर भी लड़ने में व्यस्त हैं। यह एक बड़ी शिकस्त है, यह सबसे बड़ी शिकस्त है।
वेस्ट एशिया के वाक़यों में पश्चिमी सभ्यता और कल्चर की शिकस्त
लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है, इससे भी बड़ी शिकस्त, पश्चिमी सभ्यता की शिकस्त है, पश्चिम वालों ने दिखा दिया कि इन कुछ बरसों में या कुछ सदियों में जो वे मानवाधिकार वग़ैरह का दम भरते हैं, वह सफ़ेद झूठ है; इस जंग ने दिखा दिया, साबित कर दिया। 10 हज़ार बच्चे क़त्ल कर दिए गए, कोई मज़ाक़ है? बच्चा, मासूमियत का प्रतीक है, कोमलता का प्रतीक है, वह बुनियादी बिन्दु है जो मानवीय जज़्बात में हलचल मचा देता है, ऐसे 10 हज़ार मासूम बच्चों को इस्राईल ने 2 टन वज़नी बमों और तरह तरह के हथियारों से मार दिया और पश्चिम वालों के कान पर जूं तक न रेंगी। पश्चिमी राजनेता रुस्वा हो गए, पश्चिम की राजनीति ज़लील हो गयी, उन्हें शिकस्त हो गयी, यह एक बड़ी शिकस्त है। अब कोई पश्चिमी सभ्यता की बात न करे! पश्चिमी सभ्यता यह है। यह पश्चिमी सभ्यता है जिसके लिए इस बात की कोई अहमियत नहीं है कि अपने लोगों से मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से पैसे ले और उसे छोटे और मासूम बच्चों को क़त्ल करने के लिए भेज दे, घराने तबाह हो जाएं, दसियों हज़ार बच्चे शहीद हो जाएं, कई हज़ार अनाथ हो जाएं, यह पश्चिमी सभ्यता है। अब अगर कोई पश्चिमी संस्कृति पर एतेराज़ करे और उसे महत्वहीन बताए तो किसी को मलामत नहीं करनी चाहिए कि जनाब आप ऐसा न कहिए! नहीं! पश्चिमी कल्चर यह है, पश्चिमी सभ्यता यह है, इसी का नतीजा है। यह पश्चिम को होने वाली सबसे बड़ी शिकस्त है।
ज़ायोनी शासन के सपोर्टर शैतानी मोर्चे के मुक़ाबले में रेज़िस्टेंस मोर्चे की लामबंदी
ज़ायोनी शासन की पीठ पर एक शैतानी मोर्चे का हाथ है, एक शैतानी मोर्चे ने ज़ायोनी शासन के सपोर्ट में लामबंदी कर रखी है और रेज़िस्टेंस मोर्चा, उस शैतानी मोर्चे के मुक़ाबले में है। यह रेज़िस्टेंस मोर्चा, उस शैतानी मोर्चे के मुक़ाबले में डटा हुआ है और अल्लाह की तौफ़ीक़ से जीत रेज़िस्टेंस मोर्चे की ही है।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत हो।
1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में शीराज़ के इमामे जुमा और कान्फ़्रेंस की पालिसी बनाने वाली टीम के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन लुत्फ़ुल्लाह देजकाम और फ़ार्स प्रांत में आईआरजीसी की फ़ज्र ब्रिगेड के कमांडर और कान्फ़्रेंस के सेक्रेटरी ब्रिगेडियर जनरल यदुल्लाह बू-अली ने कुछ बातें बयान कीं।
2 सूरए बक़रा, आयत-165 "मगर जो साहिबे ईमान हैं वह सबसे बढ़कर ख़ुदा से मोहब्बत करते हैं"
3 सूरए मायदा, आयत-54, "जिनसे वह मोहब्बत करता होगा और वह उससे मोहब्बत करते होंगे..."
4 सूरए निसा, आयत-74, अल्लाह की राह में उन लोगों से जंग करना चाहिए
5 सूरए निसा आयत-76 जो लोग ईमान लाए हैं वह तो अल्लाह की राह में जंग करते हैं और जो काफ़िर हैं वह शैतान की राह में जंग करते हैं।
6 सूरए फ़तह, आयत-29, वे काफ़िरों पर सख़्त हैं।
7 सूरए फ़तह, आयत-29, वे आपस में मेहरबान हैं।
8 मोहतरमा मासूमा करबासी और उनके शौहर जनाब रज़ा अवाज़ा (लेबनानी नागरिक) 19 अक्तूबर 2024 को लेबनान में ज़ायोनी फ़ौज के ड्रोन हमले और उनकी गाड़ी पर राकेट फ़ायर किए जाने की वजह से शहीद हो गए।
9 हाफ़िज़ की एक ग़ज़ल के मक़ते (वह आख़िरी शेर जिसमें शायर का नाम होता है) की ओर इशारा हैः हाफ़िज़ अगर तुम क़ुरआन को चौदह रवायतों के मुताबिक़ भी पढ़ते हो तब भी हक़ तक पहुंचने का रास्ता इश्क़ व मोहब्बत ही है।
10 हाफ़िज़ की एक ग़ज़ल का मक़ताः हाफ़िज़ की तरह सुबह सवेरे उठना और सेहत तलब करना, मैंने जो कुछ भी किया वह क़ुरआन की दौलत से किया।
11 वायु सेना के एक पायलट शहीद अब्बास दौरान जो बग़दाद पर हमले में अपने मिशन के दौरान शहीद हुए
12 फ़ार्स प्रांत में आईआरजीसी के कमांडर
13 रज़ा क़ुली ख़ान हेदायत, रियाज़ुल आरेफ़ीन, सद्र शीराज़ी
14 हमास के पोलित ब्यूरो के पूर्व प्रमुख, शहीद यहया सिनवार जो 17 अक्तूबर 2024 को ग़ज़ा में ज़ायोनी फ़ौजियों के हाथों शहीद हुए।