रहबरे इंक़ेलाब की स्पीच 

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

आप सब का बहुत बहुत स्वागत है, सम्मानीय महिलाएं, बहनें, बेटियां, मेरी बच्चियां, आप सब मेरी बच्चियां हैं, और कल के ईरान की वास्तुकार आप सब हैं। यह मुलाक़ात अब तक बहुत ही अर्थपूर्ण और फ़ायदेमंद रही है। मैं प्रोग्राम पेश करने वाले सभी लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं। तराना पेश करने वाली बच्चियों का शुक्रिया अदा करता हूं, उनका तराना भी अच्छा था यानि शेर के बोल अच्छे थे, और उसकी धुन भी अच्छी थी और इन्होंने बहुत अच्छी तरह उसे पेश किया। क़ुरआने मजीद की तिलावत करने वाले क़ारी का भी मैं शुक्रिया अदा करता हूं। बड़े अच्छे अंदाज़ में मीठी ज़बान में बात करने वाले एनाउंसर साहब का भी शुक्रिया अदा करता हूं। शहीदों की पत्नियों, शहीदों की माओं, शहीदों के बच्चों का भी जो सब यहां हैं दिल की गहराइयों से शुक्रिया अदा करता हूं और सब को सलाम करता हूं।  यहां तक़रीर करने वाली श्रीमती ज़कज़ाकी का भी मैं शुक्रिया अदा करता हूं। यह 6 शहीदों की मां हैं। इन के 3 बेटे एक घटना में और 3 बेटे एक और घटना में शहीद हुए और यह पहाड़ की तरह सब्र करके डटी रहीं और बरसों जेल की कठनाइयां भी सहन करती रहीं। उन फ़िलिस्तीनी महिला का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिनकी वीडियो अभी यहां दिखायी गयी, ज़िम्मेदारों से मेरी गुज़ारिश है कि मेरा शुक्रिया उन तक पहुंचा दिया जाए और उन्हें सलामती की दुआ दें और कहें कि मैं हमेशा, हर रात लगातार उन के लिए दुआ करता हूं।

यहां पर जो बातें की गयीं वह बहुत अच्छी थीं, यानी वाक़ई अगर मैं अब कुछ भी  न कहूं और यहां इन महिलाओं ने जो बातें बयान की हैं उन्ही को काफ़ी समझूं तो भी इस बैठक का फ़ायदा मिल जाएगा। जो कुछ भी खेल के बारे में, महिलाओं के क़ानूनी अधिकारों के बारे में, धार्मिक कला के बारे में, साइबर स्पेस और आर्टिफिशल इंटेलीजेंस की तरफ़ से चिंताओं के बारे में, मुल्क के ग़ैर मामूली सलाहियत रखने वाले प्रतिभावानों और उनके बारे में योजनाओं के सिलसिले में, हाउस वाइफ़ और माओं को सम्मान दिये जाने के बारें में, साइबर स्पेस की बुरी स्थिति के बारे में जो कुछ कहा गया, महिला चिकित्सकों और अस्पतालों में महिला मरीज़ों का ध्यान रखे जाने के बारे में जो कुछ भी कहा गया है वह सब बातें बिल्कुल सही थीं। शिकायतें और सुझाव हमें मिलना चाहिए, वैसे यह हमारा काम नहीं है, सरकारी ओहदेदारों का काम है लेकिन फिर भी हम सिफ़ारिश करते हैं, ज़ोर देते हैं और सरकारी ओहदेदारों से कहते हैं कि इन सब मुद्दों पर ध्यान दें इन्शाअल्लाह, अल्लाह करे कि यह काम हो जाए।

यह बैठक हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के जन्म दिन के करीब़ आयोजित की गयी है जिन्हें जन्तत की महिलाओं की सरदार कहा गया है। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बारे में जो भी कहा गया है, चाहे वह पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा हो, चाहे इमाम अली अलैहिस्सलाम ने या चाहे दूसरे इमामों ने उनके बारे में जो कुछ कहा है, वह सब इस महान हस्ती की अतुलनीय महानता का सुबूत है, यानी वाक़ई हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की महानता की, पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत और ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी संतान के अलावा किसी और इन्सान से तुलना नहीं की जा सकती, उनका दर्जा बहुत बुलंद है। मैं बस एक हदीस पढ़ूंगा जिसे आप ने बारम्बार सुना है, यह वह हदीस है जिसे शिया मुसलमानों ने भी लिखा है और सुन्नी मुसलमानों ने भी लिखा है। वह हदीस यह है कि “बेशक अल्लाह फ़ातेमा के ग़ुस्से से ग़ुस्सा होता है और उनकी रज़ामंदी से राज़ामंद होता है”।(3) यानी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अगर ग़ुस्सा हो जाएं तो अल्लाह भी ग़ुस्सा हो जाता है और अगर वह ख़ुश होती हैं तो वह भी ख़ुश हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो भी इन्सान, जो मुसलमान, अल्लाह को ख़ुश करना चाहता है उसे ऐसा काम करना चाहिए जिससे फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ख़ुश हों। उनकी सिफ़ारिशों, उनके पाठ, उनके रुख़, उनकी भावनाओं पर अगर ध्यान दिया जाए, उनका अगर ख़याल रखा जाए, तो अल्लाह ख़ुश होता है। किसी इन्सान के लिए इससे बड़ी ख़ूबी और महानता क्या हो सकती है, चाहे औरत हो या मर्द?

मेरी नज़र में मुसलमान औरत को, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा से बेहतर आदर्श नहीं मिल सकता। चाहे उनका बचपन हो, चाहे उनकी नौजवानी का दौर हो, चाहे उनकी जवानी का दौर हो, चाहे घर के अंदर हों, चाहे अपने पिता के साथ उनका बर्ताव हो, या पति के साथ, बच्चों के साथ या फिर अपने घर में काम करनी वाली नौकरानी के साथ या फिर समाज में उनका सुलूक हो, राजनीति में, ख़िलाफ़त के मामले में हर जगह उनका अंदाज़, उनका व्यवहार आदर्श है और अहम बात यह है कि यह महानता, यह सब कुछ, यह हर मैदान में आदर्श बनने का काम, बहुत छोटी उम्र में हुआ है। ज़्यादा से ज़्यादा 25 साल, फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की उम्र 18 साल से लेकर 25 साल तक बतायी गयी है। यह आदर्श है। हमारी बेटियां, हमारी औरतें, हमारे इस्लामी समाज की महिलाएं कोशिश करें कि इसी भावना, इसी हौसले के साथ फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की राह पर आगे बढ़ें, घर गृहस्थी के मामले में, सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों  में और ज्ञान विज्ञान के मैदान में भी बस फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को ज्ञान अल्लाह ने दिया था और हम और आप को ज्ञान हासिल करना पड़ेगा लेकिन अगर आप कोशिश करेंगी तो अल्लाह आप की भी मदद करेगा, हर मैदान में उन्हें अपने लिए आदर्श बनाएं और हमें बनाना चाहिए और उनकी राह पर चलना चाहिए। यह कुछ बातें थी उस महान हस्ती के लिए।

जहां तक “महिला” के मुद्दे की बात है तो आप सब ख़ुदा के शुक्र से जानकार और पढ़ी लिखी हैं और आप को पता है कि इस्लाम ने महिलाओं के बारे में क्या नज़रिया पेश किया है। इस लिए कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है कि मैं उसके बारे में बात करूं लेकिन फिर भी मैं कुछ बातें कहना चाहूंगा।

महिलाओं के मामले में, स्त्रीत्व की पहचान, महिला की पहचान, महिलाओं की वैल्यू, महिलाधिकार, महिला के कर्तव्य, महिलाओं की आज़ादी, महिलाओं की सीमाएं, इन सब में हर सब्जेक्ट काफ़ी जटिल, अहम और निर्णायक मुद्दा है। आज अगर हम दुनिया पर एक नज़र डालें तो हम देखेंगे कि इन सभी मुद्दों के बारे में दो तरह का नज़रिया, दो प्रकार की विचारधारा पायी जाती हैः एक विचारधारा, पश्चिम की प्रचलित विचारधारा है कि जिसका चलन पश्चिम के अलावा दूसरे देशों में भी हो गया है। इसी प्रकार इन सभी मुद्दों के बारे में एक नज़रिया इस्लामी नज़रिया है, यह दोनों विचारधाराएं एक दूसरे के मुक़ाबले में हैं, दो रुख़ हैं और हर एक का इन सभी मुद्दों और सवालों के बारे में अपना एक नज़रिया है, इस लिए इन सभी मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है और जवाब तलाश किया जा सकता है लेकिन यहां पर एक बात है और वह बात मेरी नज़र में अहम है। वह यह बात है कि पश्चिम की सांस्कृतिक व्यवस्था, इन मुद्दों पर बहस के लिए तैयार नहीं है, इन मुद्दों के बारे में बहस, चर्चा व रिसर्च से दूर भागती है। पश्चिमी संस्कृति, पश्चिमी सभ्यता, पश्चिमी व्यवस्था, यानी पश्चिम की संस्कृति, सभ्यता की व्यवस्था, इन मुद्दों के बारे में बहुत से सवालों के जवाब देने के लिए आगे नहीं आती, आगे बढ़ कर चर्चा पर तैयार नहीं होती, बल्कि मामले को, हंगामा, शोर शराबा करके, कला व सिनेमा, साइबर स्पेस वग़ैरा का इस्तेमाल करके आगे बढ़ती है। वह अपने नज़रियो को, अपने रुख़ को कि जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता, अपने पास मौजूद दूसरे साधनों की मदद से आगे बढ़ाती है, इन मुद्दों पर चर्चा व बहस करने के लिए तैयार नहीं होती, इन मुद्दों पर सवालों के जवाब देने पर तैयार नहीं होती। इसकी वजह यह है कि पश्चिम के पास तर्क नाम की कोई चीज़ है ही नहीं और यह पश्चिम और उनके पीछे चलने वाले कुछ देशों में महिलाओं के बारे में हर दिन बुरे से बुरा और मूर्खतापूर्ण होते जा रहे व्यवहार के पीछे कोई तर्क नहीं है, इस लिए वह चर्चा पर तैयार नहीं होते, अपना तर्क पेश करने पर तैयार नहीं होते। क्या वजह है कि पश्चिमी माहौल में महिलाएं, अपने सम्मान और अपने स्त्रीत्तव की सुरक्षा की ओर से हर दिन पहले से ज़्यादा लापरवाह होती जा रही हैं और क्या वजह है कि महिलाओं का सम्मान पहले से ज़्यादा कम किया जा रहा है? क्यों युरोप व अमरीका में मीटिंग्स और सरकारी कार्यक्रमों में महिलाएं यहां तक कि आधे शरीर को ढांके बिना इन मीटिंग्स में हिस्सा ले सकती हैं लेकिन मर्दों को पूरा लिबास पहन कर आना होता है बल्कि टाई और बो भी लगा कर आना पड़ता है? क्यों? क्यों महिलाएं उस तरह से आ सकती हैं लेकिन अगर मिसाल के तौर पर कोई मर्द किसी मीटिंग में हाफ पैंट पहन कर आ जाए तो यह शिष्टाचार के ख़िलाफ हो जाएगा? इसकी वजह क्या है? औरत मिनी स्कर्ट में मीटिंग में आए तो कोई बात नहीं लेकिन अगर मर्द के कपड़े ज़रा सा भी कम हों तो बुरी बात है, क्यों? क्यों पश्चिमी माहौल में वेश्यावृत्ति हर दिन बढ़ती जा रही है ? यह हो रहा है। क्योंकि समलैंगिता एक विकसित शैली समझी जाने लगी है कि अगर इससे कोई इन्कार कर दे तो उसे एक पिछड़ा हुआ इन्सान, एक पिछड़ी हुई क़ौम का आदमी समझा जाता है? क्यों? इसका राजनीति के मैदान में भी प्रचार किया जाता है, सामाजिक मैदान में भी उसे बढ़ावा दिया जाता है, विभिन्न देशों के राष्ट्रपति, मुल्क के बड़े बड़े नेता उसका प्रचार करते हैं और कुछ लोग तो इस पर गर्व भी करते हैं कि हम इस तरह के हैं! क्यों? इसका क्या तर्क है? क्यों आवारापन को बढ़ावा देने वाले पश्चिम के माहौल में एक साथ तीन या चार लोगों के बीच अवैध संबंध हर दिन बढ़ रहा है? यह आंकड़ें उन्होंने ख़ुद दिये हैं और हमारे पास जो जानकारियां हैं उनके आधार पर हम यह कह रहे हैं। यह कोई ढकी छुपी बात नहीं है, सब के सामने है। वह सारी चीज़ें जो घराने की नींव को ही ख़त्म कर देने वाली हैं, पश्चिमी समाज में बढ़ रही हैं। यह सारी चीज़ें घराने की नींव को ध्वस्त कर देने वाली हैं। फ्री सेक्स और ज़ोर ज़बरदस्ती की घटनाओं में ज़्यादती, घराने को ख़त्म कर देती है। मैंने कुछ बरस पहले (4) अमरीका के एक प्रेज़ीडेंट (5) की एक किताब से हवाले से कहा था, आंकड़े सच में भयानक हैं, यौन उत्पीड़न के आंकड़ें, आवारापन के आंकड़े। ज़ोर ज़बरदस्ती पर सज़ा नहीं हैं, ज़ोर ज़बरदस्ती करने वाले को सज़ा नहीं दी जाती लेकिन हिजाब पर सज़ा है! एक घटिया आदमी, एक ग़ुंडा एक पर्देदार औरत को परेशान करता है, फिर जब उसे अदालत में बुलाया जाता है तो अदालत में ही उस औरत को चाक़ू मार कर क़त्ल कर देता है! इसमें कोई बुराई नहीं! (6) अब मिसाल के तौर पर उसे कुछ समय के लिए जेल में डाल दिया जाता है लेकिन हिजाब के ख़िलाफ़ उसके हमले और हिजाब के ख़िलाफ़ उसकी कार्यवाही की एक बुरे काम के रूप में आलोचना नहीं की जाती, क्यों? इन सवालों का कोई जवाब नहीं देता, यह सवाल बिना जवाब के हैं, क्योंकि उनके पास तर्क ही नहीं है। एक ईरानी से मिसाल के तौर पर एक ईरानी अधिकारी से जिसने किसी बड़े युरोपीय या अमरीका के सम्मेलन में भाग लिया हो उससे पूछा जाए कि क्या आप समलैंगिता के समर्थक हैं, अब अगर वह कहे कि नहीं तो उसका मज़ाक उड़ाया जाता है, इसकी वजह क्या है? इसके पीछे क्या तर्क है? कोई जवाब नहीं है, यानि पश्चिम, महिलाओं के मामले में, उनके संबंधित मुद्दों और महिलाओं के सिलसिले में उसका जो रवैया है उसके बारे में कोई तर्क नहीं रखता और यही वजह है कि वह इन मुद्दों पर चर्चा व बहस व बातचीत से भागता है।

मैंने कहा कि वो अपने नज़रिये को अपने पास मौजूद संसाधनों की मदद से आगे बढ़ाते हैं और इस तरह के कामों में उन्हें अच्छी तरह से महारत भी हासिल है। फ़िल्में बनाते हैं, किताबें लिखते हैं, आर्टिकल छापते हैं, पैसे देते हैं, कला, संस्कृति और राजनीति में सक्रिय बड़ी बड़ी हस्तियों को अपने लिए बोलने पर तैयार करते हैं, इन्टरनेश्नल सेंटर बनाते हैं, महिलाओं के लिए और यह इन्टरनेशनल कही जाने वाली संस्थाएं उन देशों को नंबर देती हैं जो उनके नज़रिए को न मानते हों, उनके बारे में यह संस्थाएं फ़ैसला करती हैं और लिस्ट में बिल्कुल आख़िरी पायदान पर उनका नाम लिखा जाता है।

जी तो इस बारे में बातें बहुत हैं और मैंने भी इस बारे में बहुत बातें की हैं। कल मुझे एक किताब दी गयी जो दरअस्ल मेरी ही तक़रीरें थीं जो छापी गयी थीं, मैंने इससे पहले नहीं देखा था, जब देखा तो पता चला कि आज यहां तक़रीर के लिए बहुत सी चीज़ें जो मैंने दिमाग़ में रखी थीं वह सब इस किताब में हैं और पहले भी बार बार कही जा चुकी है, हमने इन सब मुद्दों पर बहुत बातें की हैं। मैं बस एक जुम्ले में कहना चाहता हूं कि महिला जैसे बेहद अहम व महत्वपूर्ण मामले में पश्चिमी सभ्यता व नीति का निचोड़ दो चीज़ें हैं, एक “मुनाफ़ा हासिल करना” दूसरे “सुखभोग” अब इन दोनों की अपनी व्याख्या है। इसी मुनाफ़ा हासिल करने के बारे में मैंने कभी बातें की थीं लेकिन आज यहां इस बारे में बात करने का समय नहीं है। यह तो महिलाओं के बारे में पश्चिम का व्यवहार है।

महिलाओं के बारे में इस्लाम का रवैया इससे बिल्कुल उलट है, इस्लाम का व्यवहार तार्किक है, दलील के साथ है, स्पष्ट है। इस्लाम में “महिला” का मुद्दा, इस्लाम की मज़बूती का एक बिन्दु है, यह मैं कह रहा हूं। कोई यह न सोचे कि हमें महिलओं के विषय में बैठ कर जवाब देना पड़ेगा, जी नहीं, इस्लाम के पास महिलाओं से संबंधित सभी मुद्दों में मज़बूत तर्क और बौद्धिक दलील है, चाहे वह जगह हो जहां वह मर्द और औरत में फ़र्क़ नहीं रखता, चाहे वह जगह हो जहां मर्द व औरत के फ़र्क को रेखांकित करता है, इन सब के लिए इस्लाम के पास मज़बूत तर्क है।

इस्लाम कहीं पूरी तरह से मर्द व औरत के फ़र्क़ को नज़रअदांज़ करता है। वहां मामला मर्द व औरत का नहीं है, बात इन्सान के सम्मान की हैः “ और हमने आदम की संतान को सम्मान दिया...” (7) यहां पर मर्द व औरत की बात नहीं है। मर्द व औरत में इन्सानी मान्यताएं एक जैसी हैं और मर्द के मुक़ाबले में मान्यता के लिहाज़ से मर्द औरत की कोई बात ही नहीं है, “और मोमिन मर्द और मोमिन औरतों में से कुछ, कुछ के सरपरस्त हैं जो अच्छे कामों का हुक्म देते और बुरे कामों  से रोकते हैं...” (8) इसी तरह “बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, मोमिन मर्द और मोमिन औरतें और समर्पण के साथ इताअत करने वाले मर्द और समर्पण के साथ इताअत करने वाली औरतें...” (9) सूरए अहज़ाब। यह सब लोग अल्लाह की नज़र में रूहानी दर्जे में एक जैसे हैं यानि न इसे उस पर और न उसे इस पर तरजीह है और दोनों को एक जैसी योग्यताओं के साथ इस राह पर लगाया गया है और सब कुछ उनके इरादे पर निर्भर है, ऐसी औरतें हैं जिन के दर्जे तक कोई मर्द नहीं पहुंच सकता। इस बुनियाद पर, मर्द औरत की बात ही नहीं है।

यक़ीनी तौर पर इसी रूहानी मामले में, किसी ख़ास वजह से ख़ास जगहों पर अल्लाह  ने महिला को तरजीह दी है जैसे यही जो आयत यहां पढ़ी गयी “और अल्लाह ने ईमान वालों के लिए फ़िरऔन की बीवी की मिसाल दी”। (10) हज़रत मूसा के मामले में, ऐसे लोग हैं जिनका हज़रत मूसा के साथ ताल्लुक़ के लिहाज़ से ख़ास तौर पर नाम लिया गया है और उनका ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया है, जनाब हारून हैं, हज़रत ख़िज़्र हैं, वह हज़रत मूसा के दोस्त हैं, कुछ लोग हैं कि जिनका ख़ास तौर पर क़ुरआने मजीद में ज़िक्र हुआ है लेकिन किसी के बारे में यह नहीं कहा गया कि वो आदर्श हैं। क़ुरआन में “मसल” कहा गया यानि आदर्श व नमूना। अल्लाह ने सभी ईमान वालों के लिए दो औरतों को आदर्श कहा है, जिनमें से एक फ़िरऔन की बीवी हैं, दूसरी हज़रत मरयम हैं, “और इमरान की बेटी मरयम जिन्होंने अपनी इज़्ज़त सुरक्षित रखी” (11) जी तो यहां अल्लाह ने एक ख़ास वजह से हज़रत मूसा को मोमेनीन के लिए मिसाल और आदर्श नहीं कहा, फ़िरऔन की बीवी का ज़िक्र किया जो हज़रत मूसा की मुंहबोली मां थीं, ख़ुद हज़रत ईसा का ज़िक्र नहीं किया, उनकी मां का नाम लिया यह एक तरह से तरजीह देना और औरत को आगे रखना है, कुछ वजहों से कि मेरी नज़र में उसकी वजह भी साफ़ है, क्योंकि मर्दों में दुनियावी हालात, बदन की बनावट और कुछ ख़ूबियों की वजह से एक तरह से ख़ुद को बेहतर समझने की भावना होती है, ख़ास तौर पर उस दौर में जब क़ुरआने मजीद नाज़िल हुआ था, ख़ुदा मर्दों में ख़ुद को बड़ा समझने की इस भावना को नकारना चाहता हैः यह क्या बात हुई? क्योंकि मिसाल के तौर पर मर्द की आवाज़ भारी है, चूंकि उसका क़द लंबा है, क्योंकि डील डौल अच्छा है, तो उसका दर्जा भी ज़्यादा होगा? नहीं, उसे इसी औरत की इसी महिला की पैरवी करना होगी और उसे अपना आदर्श बनाना होगा। या एक रवायत में है कि एक मर्द पैग़म्बरे इस्लाम के पास आता है और कहता हैः मैं किसके साथ ज़्यादा नेकी करूं? पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः “अपनी मां के साथ” (12) वह फिर पूछता है कि उसके बाद किसके साथ? पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि उसके बाद भी अपनी मां के साथ, तीसरी बार पूछता है कि अच्छा तो उसके बाद किसके साथ नेकी करूं? तो इस बार भी पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि अपनी मां के साथ, यानि पैग़म्बरे इस्लाम तीन बार मां का नाम लेते हैं। उसके बाद वह व्यक्ति पूछता है कि फिर उसके बाद किसके साथ नेकी करूं? तो पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि अपने बाप के साथ, यानि मां, बाप से तीन दर्जा आगे है। इससे घराने में महिला की पोज़ीशन का पता चलता है, यह इसी बात पर ज़ोर देने के लिए है। यानि मैं यह कहना चाहता हूं कि रूहानी सफ़र में, इलाही व रूहानी तरक़्क़ी में, सच्चे मानवीय मूल्यों में, मर्द औरत में कोई फ़र्क़ नहीं हैं, सिवाए कुछ मौक़ों के कि जहां एक को दूसरे पर तरजीह दी गयी है और वहां भी औरत को मर्द पर तरजीह दी गयी है, जहां तक मेरी नज़र है, मुझे इसके अलावा और कुछ नज़र नहीं आया। यह वह जगह है जहां मर्द औरत में फ़र्क़ नहीं है।

सामाजिक ज़िम्मेदारियों में भी यही स्थिति है। इमाम ख़ुमैनी रिज़वानुल्लाह अलैह ने एक बार कहा था कि राजनीति और मुल्क के भविष्य निर्धारण में रोल अदा करना, महिलाओं की ज़िम्मेदारी और उनका कर्तव्य, हक़ और फ़र्ज़ है। (13) यानि इमाम ख़ुमैनी ने महिलाओं के लिए यह ज़रूरी कर दिया कि वो मुल्क के फ़ैसलों में मुल्क की बुनियादी ज़िम्मेदारियों में भूमिका निभाएं और दख़्ल दें और यह ख़ुद एक चर्चा का बड़ा विषय है, यानि इस मैदान में मर्द और औरत के बीच कोई फ़र्क़ नहीं है।

एक और मुद्दा समाज के कामों पर ध्यान देना हैः “जिसने दिन इस हालत में  गुज़ारा कि मुसलमानों के मामलों पर कोई ध्यान न दिया हो तो वह मुसलमान नहीं”। (14) यह जो कहा है कि “वह मुसलमान नहीं” तो इसका मतलब यह है कि चाहे वह मर्द हो या औरत। आप की सुबह होती है, आप घरेलू औरत हैं, आफ़िस में काम करती हैं, नौकरी करती हैं, कारख़ाना चलाती हैं, जो भी काम करती हैं, आप को समाज की चिंता करना चाहिए, यानि यह ध्यान रखना चाहिए कि समाज की क्या हालत है? अब आप कितनी मदद कर सकती हैं, क्या भूमिका निभा सकती हैं, वह अलग बात है, हर कोई एक भूमिका निभा सकता है, लेकिन ध्यान सब को देना होगा, यह ध्यान देना, ख़याल रखना, चिंता करना, सब के लिए है। यहां पर भी मर्द व औरत में कोई फ़र्क़ नहीं है। या यही हदीस कि “जिसने यह सुना कि कोई आदमी पुकार रहा है हे मुसलमानो मदद!” (15) यह महिला जो अभी बात कर रही थीं, उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीन के मामले में, ग़ज़्ज़ा के मामले में हमारी राहें बंद हैं, वरना अगर हमारे बस में होता तो हम आते। अब आप यह समझें कि यह ख़ातून एक डॉक्टर हैं, यह वहां जा सकती थीं और वहां जाकर बीमारों, घायलों, बच्चों और महिलाओं का इलाज कर सकती थीं। हर एक की अपनी एक भूमिका होती है लेकिन अस्ल बात, यह ध्यान देना, ज़िम्मेदारी समझना, अपना फ़र्ज़ समझना, यह सब के लिए है, मर्द व औरत की कोई बात ही नहीं। इस्लाम ने इसे साफ़ शब्दों में बयान किया है, यह वो चीज़ें हैं जो इस्लाम में पूरी तरह से स्पष्ट हैं और इस्लाम ने इन्हें बयान किया है। लेकिन घर परिवार की ज़िम्मेदारी में बिल्कुल ऐसा नही है, घर की ज़िम्मेदारियां एक जैसी नहीं हैं, हर एक की अपनी ज़िम्मेदारी है। साधन, जिस्मानी व दिमाग़ी ताक़त, इन सब के लिहाज़ से ज़िम्मेदारी बांटी गयी हैं। यहां पर मर्द औरत में फ़र्क़ रखा गया है। यह जो “जेंडर इक्वालिटी” का नारा बिना किसी शर्त के लगाया जाता है वह ग़लत है। लैंगिक समानता हर जगह स्वीकारीय नहीं है, कुछ जगहों पर ठीक है, बराबर हैं, लेकिन बहुत सी जगहों पर दोनों समान नहीं हैं और हो भी नहीं सकते। सही चीज़ “जेन्डर जस्टिस” है। लैंगिक न्याय हर जगह स्वीकारीय है। जस्टिस यानि हर चीज़ को उसकी सही जगह पर रखा जाए। महिला की मानसिक बनावट, उसकी शारीरिक बनावट, उसकी भावनाओं का तकाज़ा कुछ और होता है। बच्चे पैदा करना, बच्चों की परवरिश और पालन पोषण महिला का काम है, मर्द के बस का यह सब नहीं है और अल्लाह ने उसे इन सब कामों के लिए नहीं बनाया है, वह किसी और काम के लिए बनाया गया है, घर से बाहर का काम, घर की समस्याओं का समाधान करना उसका काम है लेकिन घर के अधिकारों में दोनों बराबर हैं, “उनके लिए वही हक़ है जितनी उन पर अच्चाई करने की ज़िम्मेदारी है” (16) यानि घर में जितना हक़ मर्द का है उतना ही हक़ औरत का भी है, यह क़ुरआने मजीद की आयत में कहा गया है। तो घराने में हक़ के लिहाज़ से दोनों बराबर हैं लेकिन घर की ज़िम्मेदारियों में दोनों बराबर नहीं हैं। यक़ीनी तौर पर कुछ चीज़ें हैं जिन के सिलसिले में महिलाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए जिनकी कुछ मिसालें अभी जो एक मोहतरमा ने तक़रीर की उसमें थीं और मैंने उन्हें लिख भी लिया है। जैसे महिलाओं की सुरक्षा का मामला, घर के अदंर उनकी सुरक्षा। बीवी को अपने शौहर के साथ शांति का एहसास, सुरक्षा का एहसास होना चाहिए, घर की चार दीवारी शांति व सुरक्षा की जगह है। अगर शौहर का रवैया ऐसा हो कि उससे महिला को घर के अदंर सुरक्षा का एहसास न हो, शौहर बुरा भला कहता हो, या फिर उससे बहुत बड़ी और बुरी हरकत करता हो यानि हाथ उठाता हो तो यह किसी भी दशा में स्वीकारीय नहीं है। इसका समाधान क्या है? इसका समाधान कड़े क़ानून हैं। मैं ने यह बार बार कहा है (17) कड़े क़ानून बनाए जाने चाहिए। संसद में पेश होने वाले कुछ क़ानूनों का यहां ज़िक्र किया गया, जी तो इसे हर हाल में आगे बढ़ाया जाना चाहिए। हम भी सिफ़ारिश कर देंगे लेकिन आप लोग पैरवी करें। उस मर्द को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए जो घर को अपनी बीवी के लिए असुरक्षित बना देता है, घर के बाहर भी यही होना चाहिए। यह तो एक बात है।

दूसरी बात सामाजिक ज़िम्मेदारियां और मैनेजमेंट है जिसके बारे में कुछ महिलाओं ने मुझ से सवाल किया है। यहां पर भी जेन्डर का फ़र्क़ नहीं हैं। तरह तरह के ओहदों पर चाहे वे सरकारी हों या सामाजी, महिलाओं की मौजूदगी पर कोई पाबंदी नहीं है। अब मिसाल के तौर पर अमरीकियों ने हमारे एक पड़ोसी मुल्क के लिए यह ज़रूरी कर दिया था कि संस्थाओं में मिसाल के तौर पर 25 फ़ीसद औरतों का होना ज़रूरी है, यह ज़रूरी करना और ज़बरदस्ती थोपना, ग़लत है। क्यों 25 फ़ीसद? 35 फ़ीसद क्यों नहीं? 20 फ़ीसद क्यों नहीं? यह फ़ीसद निर्धारित करना, यह तय कर देना कि इतने मर्दों के साथ इतनी औरतें काम करें, इन सब का कोई मतलब नहीं, यहां पर कसौटी, योग्यता को तरजीह देना है। कभी यह होता है कि एक पढ़ी लिखी अनुभवी व योग्य महिला मिसाल के तौर पर एक मिनिस्ट्री के लिए उस मर्द से बेहतर है जिसे इस मिनिस्ट्री के लिए उम्मीदवार बनाया गया है तो वहां इस महिला को मंत्री बनना चाहिए। पार्लियामेंट की मेंबरशिप के बारे में भी यही है। मिसाल के तौर पर किसी शहर में, एक या दो लोग संसद सदस्य होते हैं, एक या दो औरतें उम्मीदवार हैं, एक या दो मर्द उम्मीदवार हैं तो यहां पर यह देखना चाहिए कि कौन ज़्यादा योग्य है, योग्यता पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। यहां पर किसी भी तरह की तरजीह नहीं है, किसी भी तरह की सीमा नहीं है, यानि इस्लाम का नज़रिया यह है। बात, योग्य को तरजीह देने की है। यक़ीनी तौर पर महिला इन सब ओहदों पर रह सकती है लेकिन यह सब कुछ इस तरह से हो कि महिलाओं की बुनियादी ज़िम्मेदारी यानि घर गृहस्थी और बच्चे पैदा करने के काम से दूर न हो यहां तक कि बहुत से काम तो औरतों पर ‘वाजिबे किफ़ाई’ (18) हैं जैसे डॉक्टर बनना। महिला डॉक्टर बनना वाजिब है इस हद तक कि ज़रूरत के हिसाब से महिला डॉक्टर मुल्क में रहें इस लिए महिलाओं को मेडिकल पढ़ना चाहिए। इसी तरह औरतों के लिए टीचर बनना वाजिबे किफ़ाई है। अब यह हो सकता है कि यह वाजिबे किफ़ाई कभी घर बार संभालने या बच्चे पैदा करने या फिर घर संभालने वाली औरतों के लिए जो आराम ज़रूरी होता है और जिसके लिए उन्हें छुट्टी की ज़रूरत होती है, या घर के काम के लिए छुट्टी चाहिए होती है या फिर ड्यूटी का टाइम ऐसा होना चाहिए जिसके साथ वे अपने घर का काम भी कर सकें और इस इन सब कामों में टकराव हो तो फिर यह मुल्क के ओहदेदारों की ज़िम्मेदारी है कि इसका कोई रास्ता तलाश करें। यानि तादाद इतनी बढ़ा दें कि मिसाल के तौर पर अगर कोई महिला टीचर हफ़्ते में 5 दिन स्कूल में आती है तो अगर मिसाल के तौर पर 4 ही दिन आए तो उसकी कमी न रहे और दूसरी टीचर उसकी कमी पूरी कर दे, इसी तरह मेडिकल में भी। इस आधार पर, कामों में, मैनेजमेंट में औरतों की मौजूदगी की कोई सीमा नहीं है और अगर घर और बाहर के कामों में टकराव हो तो उसे कुछ इस तरह से हल किया जाए कि दोनों में से कोई भी काम रुका न रहे। वैसे मेरी नज़र में टकराव होता नहीं इस तरह का, मैं बहुत सी महिलाओं को जानता हूं जो भारी सामाजिक ज़िम्मेदारी रखती हैं, चाहे वह यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक ज़िम्मेदारी हो या फिर उससे अलग, इसके साथ ही उन्होंने कई बच्चे भी पाल कर बड़े कर दिये हैं, और बहुत अच्छी तरह से यह काम किया है। इस बुनियाद पर घर और बाहर के काम में टकराव नहीं है।

दो अहम बातें इस्लाम की नज़र में हैं, यानि यह जो मैंने कहा कि रास्ता खुला है महिलाओं के लिए हर काम का, सामाजिक काम राजनीतिक गतिविधियां लेकिन यह सब दो अहम बातों के साथ है कि जिस के बारे में इस्लाम संवेदनशील हैः एक चीज़ तो घर परिवार है जिसका मैंने ज़िक्र किया और दूसरा मामला, सेक्शुअल अट्रैक्शन के ख़तरे का है! इस्लाम इस पर संवेदनशील है। इस्लाम हमें ऐसे माहौल से दूर रहने को कहता है जहां का माहौल इस प्रकार का हो कि सेक्शुअल अट्रैक्शन इन्सान को ग़लती की ओर ले जाए जो बहुत ही ख़तरनाक ग़लती है और उससे मर्द व औरत को समस्या हो जाए। इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।  हिजाब इसी लिए है, हिजाब उन चीज़ों में से है जो सेक्शुअल अट्रैक्शन को सीमित कर सकता है, इसी लिए इस्लाम में हिजाब पर ज़ोर दिया गया है। सूरए अहज़ाब में कहा गया हैः “और जब तुम उनसे किसी सामान का सवाल करो तो पर्दे के पीछे से उनसे मांगो”। (19) जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के घर जाते हैं मिसाल के तौर पर कोई मेहमान है और वह खाना लेना चाहता है तो उसे पैग़म्बरे इस्लाम की बीवी के सामने नहीं जाना है बल्कि वह खाना वह पर्दे के पीछे से ले यानि इतनी बारीकी से बताया गया है इसी तरह सूरए अहज़ाब की एक और आयत में इसी तरह की बात कही गयी है।

इस बुनियाद पर इन दो संवेदनशील बातों पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत हैः हिजाब पर सही अर्थ में ध्यान दिया जाना चाहिए, और उसी तरह घर के काम काज और मां की जो भूमिका है और जो सब से अहम भूमिका है उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। शायद यह कहा जा सकता हो कि इस दुनिया में सब से अहम भूमिका “मां” की होती है। क्योंकि अगर मां नहीं होगी, कोई बच्चा पैदा नहीं करेगा, कोई गर्भवती नहीं होगा, कोई दूध नहीं पिलाएगा तो फिर इन्सानों का वजूद ही ख़त्म हो जाएगा। इस बुनियाद पर मां होना इस कायनात में सब से बड़ा और अहम रोल है। इस्लाम इसे अहम समझता है आप भी इसे अहम समझें, इस पर ध्यान दें। इसी तरह वह सेक्शुअल अट्रैक्शन के मामले पर भी ध्यान दें। बहुत से काम आपसी समझ से भी हो जाते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि घर में काम करना औरत की ज़िम्मेदारी है! जी नहीं, औरत का यह बिल्कुल फ़र्ज़ नहीं है कि वह घर में काम करे। खाना पकाना, कपड़े धोना, साफ़ सफ़ाई करना औरत की ज़िम्मेदारी नहीं है, यह सब काम मर्द और औरत के बीच आपसी समझबूझ से होना चाहिए। बहुत से मर्द यह सब काम करते हैं यानि घर के काम करते हैं, अपनी बीवी की मदद करते हैं, घर के कुछ कामों की ज़िम्मेदारी वह ख़ुद लेता है, बहरहाल यह औरत की ज़िम्मेदारी नहीं है यह सब जान लें।

यह जो इस्लाम में शादी की उम्र पर ज़ोर दिया गया है उसका भी ख़याल रखा जाना चाहिए और शादी की उम्र ज़्यादा नहीं होनी चाहिए, युवाओं को जल्दी शादी करना चाहिए और इसकी वजह भी वही सेक्शुअल अट्रैक्शन के ख़तरे को रोकना है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बच्चों की शादी कर दी जाए जैसा कि कहा जाता है। जी नहीं, युवा, किशोर मर्द, औरत, लड़की, लड़का, जितने सही वक़्त पर शादी कर सकें उतना ही इस्लाम की नज़र में अच्छा है और ज़ाहिर सी बात है यह ख़ुद उनके लिए भी बहुत अच्छा है और समाज के लिए भी अच्छा है। इस बुनियाद पर अगर हम हिजाब को देखें तो इसे महिलाओं को वंचित करने वाली चीज़ की नज़र से न देखें, यह वंचित होना नहीं है, यह दरअस्ल कुछ हासिल करना है, हिजाब से हिफ़ाज़त होती है, यह हिफ़ाज़त की वजह बनता है इससे बचाव होता है।

आज इस्लमी जुम्हूरिया के अंदर, हालांकि हम सही अर्थों में अब भी “इस्लामी” नहीं हो पाए हैं, मैंने बार बार यह कहा है, हम अधूरे इस्लामी हैं, लेकिन इसके बावजूद आप देखते हैं कि इसी जुम्हूरी इस्लामी ईरान में महिलाओं का विकास इतना है कि जिसकी तुलना अतीत से नहीं की जा सकती। साइंस में, रिसर्च में, सामाजिक गतिविधियों में, कला में, खेल कूद और सभी मैदानों में, इतनी ढेर सारी महिला वैज्ञानिक, इतनी ढेर सारी महिला प्रोफ़ेसर, इतनी पढ़ी लिखी औरतें, इतनी लेखक महिलाएं विभिन्न प्रकार की लेखन शैलियों में, साइंस, कला, कहानी, शायरी साहित्य हर मैदान में लिखने वाली महिलाएं हैं, इन्क़ेलाब से पहले हमारे मुल्क में इसका दसवां हिस्सा भी औरतें इस मैदान में नहीं थीं, मैं पूरी तरह से समाज से जुड़ा था और मुझे पता है। आज ख़ुदा के शुक्र से इस मैदान में मुल्क मालामाल है और यह इस्लाम की बरकत से है, हालांकि जैसा कि हमने कहा कि इस्लामी जुम्हूरिया अब भी अधूरा है और हम पूरी तरह से इस्लाम को लागू नहीं कर पाए, अगर पूरी तरह से लागू कर ले जाएं तो जो कुछ आज हमारे पास है उससे कई गुना ज़्यादा और कई गुना बेहतर होगा।

मैं आख़िर में चुनाव के बारे में भी कुछ बातें कर लूं। इस इलेक्शन के मामले में भी जिसके बारे में मैंने कुछ दिन पहले ज़ोर दिया था, (20) आप महिलाएं रोल अदा कर सकती हैं। आप सब का सब से अहम रोल घर के अंदर है, माएं भूमिका अदा कर सकती हैं, अपने बच्चों को अपने पति को चुनाव के बारे में सक्रिय रहने और रिसर्च करने पर तैयार कर सकती हैं। महिलाएं लोगों की पहचान, रणनीति और धड़ों को जानने के मामले में मर्दों के मुक़ाबले में ज़्यादा बारीक नज़र रखती हैं और बहुत से बारीक बिन्दु देख लेती हैं इस लिए चुनावी उम्मीदवारों की पहचान में, बैलेट बाक्स तक जाने के मामले में और घर के अंदर व बाहर अहम रोल अदा कर सकती हैं।

आप सब से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई, थोड़ी देर हो गई और ‘ज़ोहर’ का वक़्त गुज़र गया। अल्लाह आप सब को कामयाब करे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू  

  1. इस मुलाक़ात की शुरुआत में 10 महिलाओं और लड़कियों ने अपने सुझाव और राय पेश की।
  2. अलआलम टीवी चैनल की रिपोर्टर श्रीमती इसरा अलबुहैसी ने वीडियो लिंक के ज़रिए गज़्ज़ा से अपनी बात रखी।
  3. आमाली मुफ़ीद पेज 95
  4. मुल्क की चुनी महिलाओं से मुलाक़ात में तक़रीर 19/04/2014
  5. जिमी कार्टर की किताब “A CALL TO ACTION: Women, Religion, Violence, and Power”
  6. जूलाई 2009 में जर्मनी में मिस्र की मर्वा शरबीनी को एलेक्सिस वेन्ज़ नामक जर्मन ने अदालत में चाक़ू के 18 वार करके मार डाला।
  7. सूरए इसरा, आयत 70
  8. सूरए तौबा, आयत 71 
  9. सूरए अहज़ाब, आयत 35
  10. सूरए तहरीम, आयत 11
  11. सूरए तहरीम, आयत 12
  12. काफ़ी, जिल्द 2 पेज 159
  13. सहीफ़ए इमाम, जिल्द 6 पेज 301, क़ुम में महिलाओं के बीच तक़रीर 04/03/1979
  14. काफ़ी जिल्द 2 पेज 163 कुछ बदले शब्दों के साथ
  15. काफ़ी जिल्द 2 पेज 164
  16. सूरए बक़रह, आयत 228
  17. महिलाओं से मुलाक़ात में तक़रीर 04/01/2023
  18. वाजिब किफ़ाई वह वाजिब होता है जो सब पर वाजिब होता है लेकिन अगर किसी एक ने वह काम कर दिया तो बाक़ी सब की ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है और अगर किसी ने नहीं किया तो सब ज़िम्मेदार होते हैं ।
  19. सूरए अहज़ाब, आयत 53
  20. ख़ुज़िस्तान व किरमान के लोगों से मुलाक़ात में तक़रीर 2023-12-23