हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के शुभ जन्म दिवस के क़रीब आने के उपलक्ष्य में होने वाली इस मुलाक़ात में उन्होंने औरत की पहचान, मान्यताओं, अधिकारों, ज़िम्मेदारियों, आज़ादियों और हदबंदियों को बहुत ही अहम व निर्णायक मसला बताते हुए कहा कि इस अहम मसले के बारे में इस्लाम और पश्चिम के दो मूल नज़रिए पाए जाते हैं जो एक दूसरे के विरुद्ध हैं।

उन्होंने इस बात का ज़िक्र करते हुए कि पश्चिम का कल्चरल सिस्टम औरतों के अहम मुद्दों पर बहस से गुरेज़ करता है, कहा कि चूंकि औरतों के संबंध में पश्चिम वालों के पास कोई तर्क नहीं है इसलिए वो हर सवाल व विषय का सामना होते ही कोशिश करते हैं कि अपनी बात को हंगामा और शोर-शराबा करके और इसी तरह राजनैतिक व ग़ैर राजनैतिक हस्तियों को ख़रीद कर, कला, साहित्य, साइबरस्पेस और सोशल मीडिया को हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करके और महिलाओं से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय केन्द्रों पर कंट्रोल करके अपनी बात को आगे बढ़ाएं।

उन्होंने पश्चिम में नैतिक गिरावट की गंभीर स्थिति को दर्शाने वाले सरकारी आंकड़ों की ओर इशारा करते हुए कहा कि क्यों, पश्चिम में हर उस बात को दिन ब दिन ज़्यादा बढ़ावा मिलता है जिससे फ़ैमिली सिस्टम टूटता है जबकि इसके मुक़ाबले में हेजाब करने वाली महिलाओं पर हमला करने वालों की न तो गंभीर अंदाज़ में निंदा होती है और न ही उनसे सख़्ती से निपटा जाता है?

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने औरतों के बारे में इस्लाम के रवैये को पश्चिम के रवैये कि बरख़िलाफ़ तर्कपूर्ण व विवेकपूर्ण बताया और कहा कि औरत का मसला, इस्लाम के मज़बूत पहलुओं में से एक है और यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि औरत के मसले में हम जवाबदेह हैं।

उन्होंने इंसानी महानता और मूल्यों में औरत और मर्द की समानता को इस्लाम के ठोस तर्क का एक पहलू बताया और कहा कि मानवीय मूल्यों और आत्मिक उत्थान में औरत और मर्द को किसी भी हालत में एक दूसरे पर वरीयता हासिल नहीं है।

उन्होंने कहा कि आत्मिक पहलुओं के लेहाज़ से अल्लाह ने कभी कभी औरतों को मर्दों पर वरीयता भी दी है जैसा कि फ़िरऔन की बीवी और हज़रत मरयम जैसी महिलाओं को सभी मोमिन इंसानों के लिए आइडियल के तौर पर पेश किया है।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने समाज में सरगर्म रहने और सामाजिक ज़िम्मेदारियां निभाने को औरत और मर्द के लिए एक जैसा मैदान क़रार दिया और कहा कि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के बक़ौल राजनीति और मुल्क के बुनियादी मसलों में सक्रिय रोल निभाना औरत का अधिकार और उसकी ज़िम्मेदारी है और इसी के साथ रिवायतों के मुताबिक़, ग़ज़ा के आजके मसले जैसे मुसलमानों के अहम मामलों पर ध्यान सहित सामाजिक मामलों में काम करना सभी की ज़िम्मेदारी है।

उन्होंने घरेलू ज़िम्मेदारियों को एक ऐसा विषय बताया जिसके सिलसिले में अपनी शारीरिक व आत्मिक सलाहियत व ताक़त के मद्देनज़र औरत और मर्द की अलग अलग ज़िम्मेदारियां हैं। उन्होंने कहा कि इस आधार पर लिंग समानता (Gender equality) का नारा, जिसे लोग निरपेक्ष रूप में बयान करते हैं, ग़लत है और जो चीज़ सही है वो लिंग न्याय (Gender justice) है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने बच्चों की पैदाइश और परवरिश जैसे औरतों से मख़सूस फ़रीज़े को उनकी आत्मिक, शारीरिक और भावनात्मक संरचना के मुताबिक़ बताया और कहा कि अगरचे औरत और मर्द की घरेलू ज़िम्मेदारियां अलग अलग हैं लेकिन क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ उनके घरेलू अधिकार बराबर हैं।

उन्होंने नस्ल बढ़ाने और इंसानी ज़िन्दगी के जारी रहने को निश्चित बनाने के सबब माँ के रोल को इंसान की पैदाइश का सबसे अहम व श्रेष्ठ रोल बताते हुए कहा कि यह सोच पूरी तरह ग़लत है कि घर का काम, औरत की ज़िम्मेदारी है बल्कि घर का काम आपसी सहमति से होने चाहिए।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने घर में औरत पर हिंसा जैसी मुश्किलों से निपटने के लिए ऐसे क़ानून बनाना ज़रूरी बताया जिनमें उन मर्दों के लिए सख़्त सज़ाएं हों जो घर के माहौल को औरत के लिए असुरक्षित बना देते हैं।

उन्होंने अपने ख़िताब के दूसरे भाग में, इस्लामी गणराज्य के मुख़्तलिफ़ विभागों में औरतों की तरक़्क़ी को, इंक़ेलाब से पहले की तुलना में दस गुना ज़्यादा बताया और कहा कि यह तरक़्क़ी ऐसी हालत में हासिल हुयी है कि हम अभी तक सही अर्थ में मुल्क को इस्लामी नहीं बना सके हैं और वो पूरी तरह इस्लामी नहीं हो पाया और अगर इस्लाम पूरी तरह से लागू हो जाए तो ये कामयाबियां कई गुना बढ़ जाएंगी।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने योग्यता को मंत्री पद या संसद की सदस्यता जैसे पदों पर सामाजिक व राजनैतिक ज़िम्मेदारी देने की एकमात्र कसौटी बताया। उन्होंने अपने ख़िताब के आख़िर में मार्च 2024 के आगामी चुनावों की ओर इशारा करते हुए समाज और फ़ैमिली में इस सिलसिले में महिलाओं के रोल को ज़रूरी बताया।