आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीचः

बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

 

आप सभी भाइयों और बहनों का स्वागत है जो नीशापुर और सब्ज़वार से लंबी दूरी तय करके यहां तशरीफ़ लाए और इस इमामबाड़े को मोहब्बत से भरे अपने दिल और वजूद से रौनक़ बख़्शी।

आईआरजीसी के नीशापुर और सब्ज़वार शहर के इन दो अज़ीज़ कमांडरों की स्पीच के लिए दिल की गहराई से शुक्रगुज़ार हूं। दोनों सज्जनों ने बहुत अच्छी स्पीच दी और इस तरह की सभाओं में जिन बातों पर ध्यान देना ज़रूरी होता है, उन्हें बयान किया।

ख़ुशी हुयी कि अलहम्दो लिल्लाह इन दोनों भाइयों में इन बातों की समीक्षा करने की वैचारिक व मानसिक सलाहियत है। मैंने दो तीन बातें नोट की हैं जिन्हें अर्ज़ करुंगा।

शहीदों की याद में कान्फ़्रेंस का आयोजन, करबला की याद को ज़िन्दा रखने की कोशिश

पहली बात, इस अहम कान्फ़्रेंस की व्यवस्था करने वालों का शुक्रिया, यह बात बहुत अहम है। मेरी नज़र में, यह काम जो आप कर रहे हैं, यानी इन कान्फ्रेंसों का आयोजन, ख़ुद बड़ा जेहाद है। यह काम जो आप कर रहे हैं, जेहाद है, इस काम की क़द्र कीजिए।  

यह वह जेहाद है जिसने करबला में बहाए गए पाक ख़ून को व्यर्थ नहीं होने दिया। यह वही जेहाद है जिसने इस्लाम के बुज़ुर्गों, धर्म की बुज़ुर्ग हस्तियों और शियों की बड़ी हस्तियों की एक हज़ार साल की सेवाओं को आज तक ज़िन्दा रखा है और अगर आप जैसे लोग कोशिश न करते तो ऐसे लोग थे जो इन सेवाओं को तारीख़ से मिटे का इरादा रखते थे, जो चाहते थे कि आध्यात्मिक महानता की निशानियां क़ौमों में ज़िन्दा न रहें, जो उनको मूल्यहीन व ख़त्म करना चाहते थे। आपने बहुत बार सुना है कि इस बात की कोशिश हुयी कि करबला ख़त्म हो जाए, ज़मीन न रहे, क़त्लगाह न रहे, शहीदों की याद न रहे। ऐसे लोग अब भी हैं, आज भी कुछ लोगों का फ़ायदा व हित इसमें है कि धर्म की राह में संघर्ष की याद बाक़ी न रहे, उन कोशिशों की याद बाक़ी न रहे, जो पाक ख़ून बहाया गया, उसकी याद बाक़ी न रहे। आज साम्राज्यवादी ताक़तें नहीं चाहती हैं कि हमारे शहीदों की याद और हमारे शहीदों के नाम इस मुल्क के क़ाबिले फ़ख़्र परचमों पर रहें।

आप इस शैतानी व दुष्ट कोशिशों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं, यह हुआ जेहाद। जो लोग हक़ की राह में कोशिश व संघर्ष करते हैं उनके दुश्मन सबसे पहले वे लोग होते हैं जिनके हाथ में असत्य का झंडा होता है, जो उन्हें कामयाब नहीं होने देना चाहते, वे नहीं चाहते कि उनकी याद और उनका नाम बाक़ी रहे।

दिलों को खींचना शहादत की ख़ासियत है, एक दूसरे मज़हब के नौजवान को उसके दोस्त की शहादत मजबूर करती हैं कि वह जनाब अलवी मरहूम (1) की सेवा में जाकर मुसलमान हो जाए, शिया हो जाए और फिर मोर्चे पर जाकर ख़ुद भी शहीद हो जाए, यह शहादत की ख़ासियत है। एक नौजवान की शहादत एक दोस्त की शहादत, एक साथी की शहादत, माहौल में शहादत का नूर भर देती है, दिलों को अपनी ओर खींचती है। यह साम्राज्यवादियों के हित के ख़िलाफ़ है, असत्य वालों के हित के ख़िलाफ़ है, इसलिए इसके ख़िलाफ़ कोशिश करते हैं। कुछ लोग देश के अंदर यह काम करते हैं। आप जेहाद कर रहे हैं (इसलिए) उनके मुक़ाबले पर डट गए हैं।

मुख़्तलिफ़ तरीक़ों और भरपूर हिम्मत से शहीदों की परवरिश करने वालों की याद को बाक़ी रखना ज़रूरी

शहीद की याद को बाक़ी रखना जेहाद है, शहीद की परवरिश करने वालों की याद को बाक़ी रखना भी जेहाद है। शहीद की परवरिश करने वाले कौन हैं? माँ, बाप, उस्ताद, बीवी, अच्छा दोस्त, ये शहीद की परवरिश करने वाले हैं, इनकी याद मनाना भी जेहाद है। जिन लोगों ने पाक डिफ़ेन्स के दौरान और उसके बाद आज तक इसका सपोर्ट किया है, उनकी याद भी जेहाद है, उस महिला की याद भी जेहाद है जो “सदख़ुरू” या किसी और जगह अपने घर में दस तंदूर लगाती है ताकि जंग के जियालों के लिए, रोटी पकाए, उसकी याद को ज़िन्दा रखना ख़ुद अपने आप में जेहाद है। इनकी याद बाक़ी रखना चाहिए।

इन यादों को बाक़ी रखना चाहिए, किस ज़रिए से बाक़ी रखा जाए? कुछ दोस्तों ने कहा कि किताब, लिखित रूप में और दीवारों पर लिखी जाने वाली इबारतों जैसे कामों से। यह सब काम अच्छे हैं, लेकिन कोशिश करें यह काम हो, कोशिश करें कि आर्ट और कला से इस मुहिम में मदद लें। ये वाक़ए, चित्रकारी, उपन्यास, शायरी, पुरकशिश फ़िल्मों और अवाम के लिए स्टेज किए जाने वाले ड्रामों का विषय बन सकते हैं। आर्ट और कला की मुख़्तलिफ़ फ़ील्ड में इनसे काम लिया जा सकता है। ये वे चीज़ें हैं जिन्हें होना चाहिए, ये अहम काम हैं। आपने इन दो शहरों में जो यह कान्फ़्रेंस आयोजित की, इस सिलसिले को जारी रखिए, यानी इस जेहाद को अधूरा न रहने दीजिए, यह महान काम है।

यह हमारी पहली बात है कि आप ख़ुद अपने इस काम की क़द्र को पहचानें और जहाँ तक मुमकिन हो, पूरी ताक़त और महारत से, हिम्मत से, लगातार कोशिश से और एकजुट होकर इंशाअल्लाह इसे अंजाम दें।

 

नीशापूर और सब्ज़वार, इस्लामी सभ्यता के ख़ज़ाने

दूसरी बात जो मैंने अर्ज़ करने के लिए नोट की है, नीशापूर और सब्ज़वार की तारीफ़ है, हमारा एक बड़ा फ़रीज़ा यह है कि अपने शहरों की ख़ुसूसियतों से जो उनकी पहचान हैं, अपने नौजवानों को आगाह करें। यह काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह अंजाम नहीं दिया जा रहा है, इंक़ेलाब से पहले तो यह काम ज़ीरों या क़रीब क़रीब ज़ीरो था। 

मैं बहुत बार सब्ज़वार और नीशापूर आया हूं, स्चीपें दी हैं, लोगों से संपर्क में रहा हूं, उस ज़माने में ये बातें नहीं थीं और इन शहरों के अज़ीम व यादगार अतीत को अहमियत नहीं दी जाती थी। नीशापूर और सब्ज़वार दो ख़ज़ाने हैं, इस्लामी तारीख़, हमारी इस्लामी सभ्यता और ईरानी सभ्यता के ख़ज़ाने। इन दोनों ख़ज़ानों की रक्षा ज़रूरी है। इनको पहचनवाने की ज़रूरत है।

जो रिपोर्ट पेश की गयी हैं, उसमें कहा गया है कि इन शहरों पर थीसेस लिखे जाने की ज़रूरत है, हाँ होना चाहिए, इन्हें पहचानने की ज़रूरत है। नीशापूर और सब्ज़वार के नौजवानों को मालूम होना चाहिए कि वे किन हक़ीक़तों, किन ख़ूबियों और आध्यात्म, इल्म और तारीख़ के लेहाज़ से कैसी अज़मतों और शान के वारिस हैं, ये इन नौजवानों को मालूम होना चाहिए ताकि इन्हें अपनी पहचान का एहसास हो। अपनी हैसियत का एहसास हो। 

हमें इन दोनों शहरों को दो पुरानी बस्तियों या दो पुराने व ऐतिहासिक शहरों की हैसियत से ही नहीं देखना चाहिए, नहीं बल्कि यह, नीशापूर भी और सब्ज़वार भी, हमारी इस्लामी सभ्यता के दो सच्चे व चश्मदीद गवाह हैं, सभ्यता की रिवायत करने वाले हैं, कल्चर की रिवायत करने वाले हैं और वह भी ज़बानी नहीं बल्कि चश्मदीद रिवायत करने वाले हैं जिन्हें महसूस भी किया जा सकता है और देखा भी जा सकता है।

फ़ज़्ल इबने शाज़ान नीशापूरी से लेकर हज़ार साल बाद यानी मुल्ला हादी सब्ज़वारी के दौर तक, देखें कि ये हज़ार बरस पर आधारित ज़माना चमकते सितारों से भरा हुआ है। उस दौर को देखते है कि यादगार वाक़यों से भरा पड़ा है, अज़ीम सभ्यता से संबंधित यादगार वाक़ए। फ़ज़्ल इब्ने शाज़ान और हाजी मुल्ला हादी, अत्तार नीशापूरी और हमीद सब्ज़वारी के बीच यह संतुलन व अनुपात कितना आकर्षक है। इन दोनों हस्तियों के बीच क़रीब 700 बरस का फ़ासला है, दोनों ने इस्लाम के लिए काम किया, धर्म के लिए काम किया, क़ौम के लिए काम किया, ईरानी क़ौम के वैचारिक आधारों के विकास के लिए काम किया।

 

शहीदों और शहरों की क़ाबिले फ़ख़्र हस्तियों को पहचनवाने की ज़रूरत

मैं दो चार लोगों का नाम लूंगा (लेकिन) इन दोनों शहरों की तारीख़ में ऐसी सैकड़ों बल्कि हज़ारों हस्तियां मौजूद हैं, इन्हे पहचानने की ज़रूरत है, इन्हें पहचनवाने की ज़रूरत है। दूसरों के पास इतिहास नहीं है, अपना इतिहास गढ़ लेते हैं, हक़ीक़त के उलट इतिहास लिखते हैं।

आप देखें यहाँ तक कि हमारे टीवी चैनल पर दिखाते हैं कि एक मुल्क जिसकी कोई शानदार और ख़ास तारीख़ नहीं है, सौ डेढ़ सौ क़िस्तों पर आधारित सीरियल तैयार करता है, अपनी तारीख़ गढ़ता है, अपनी फ़िलॉस्फ़ी गढ़कर पेश करता है, अपनी हुकूमत बनाते हैं।  हमारे पास है (लेकिन) हमें याद नहीं है।

शरहे लुम्आ दमिश्क़ीया” आज हमारे धार्मिक स्टूडेंट्स के कोर्स की किताब है। ख़ुद लुमआ किताब, सब्ज़वारियों की दरख़्वास्त पर लिखी गयी थी। सब्ज़वारियों ने “सरबे दारान” के ज़माने में सीरिया में शहीदे अव्वल (3) को ख़त लिखाः जनाब हमने हुकूमत बनायी है आप यहाँ आकर रहें। शहीद ने लिखा कि मैं नहीं आ सकता लेकिन यह किताब आपके लिए भेज रहा हूं।” लुम्आ अस्ल में ख़ुरासानियों की रचना है। आज इस किताब की व्याख्या पाँच सौ छह सौ साल बाद, हमारे कोर्स की किताबों में है। यह मामूली बाते हैं? ये छोटी बातें हैं? ये आपके शहर की पहचान हैं। इस पहचान से हमारे नौजवानों को अवगत होना चाहिए। ये आपके शहरों के बारे में कुछ बातें थीं।

मैंने इन दो शहरों के बारे में बात की है, ईरान के बाक़ी शहर भी, बल्कि पूरा मुल्क ही थोड़ा बहुत इसी तरह है। अलबत्ता ज़्यादातर शहर, सभी नहीं।  यह अतीत, ये गर्व करने वाली बातें और ये क़ीमती इतिहास हमारे मुल्क के बहुत से दूसरे शहरों का भी है। अब चूंकि मैं ख़ुद ख़ुरासानी हूं, इन दोनों शहरों के बारे में जानता हूं, इनका ज़िक्र किया, वरना हर जगह ऐसा ही है। यही बात हैं, इन्हें ज़िन्दा रखें। यह आपके शहरों की पहचान है।

शहीदों की अज़मत और आला रुतबा

इसके बाद शहीदों की तारीफ़, जिसका हक़ हम ज़बान से अदा नहीं कर सकते। वाक़ई अगर इंसान शहीदों के बारे में बोलना चाहे तो ज़बान शहीदों की महानता और अहमियत को बयान करने का हक़ अदा नहीं कर पाती। उनकी बातें, उनका रास्ता, उनकी शैली, उनकी वसीयत, ये सब पाठ हैं। उनके वसीयतनामे वाक़ई पाठ हैं। इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) ने अवाम के बीच अपनी स्पीच में ताकीद की है कि शहीदों के वसीयतनामे को पढ़ें।(4)  वाक़ई पढ़ने के क़ाबिल हैं। एक वसीयतनामा, मोमिन, पुरजोश और जान की बाज़ी लगाते वक़्त ज़ख़्मी हुए नौजवान शहीद नासिर बाग़ानी (5) का है। इस शहीद की उम्र क़रीब बीस साल थी। इस शहीद का वसीयतनामा ऐसा है कि इसको दस बार पढ़ें! बीस बार पढ़ें! मैंने इसको बार बार पढ़ा है, वह नौजवान थे। शहीद नूर अली शूस्तरी (6) अधेड़ उम्र के शहीद हैं। उन्होंने अल्लाह की राह में जेहाद, संघर्ष और बलिदान में उम्र गुज़ार दी, उनका वसीयतनामा हिकमत से भरा हुआ है। इस वसीयतनामे की कुछ लाइनें पढ़ें तो पूरी हिकमत नज़र आती है। मैं शहीद शूस्तरी को क़रीब से जानता था, आम मुलाक़ातों से यह अहसास नहीं होता कि उनकी शख़्सियत में इतनी गहराई है, लेकिन है।

शहीदों को आइडियल बनाना

ये वसीयतनामे पाठ हैं, आइडियल हैं। मुझ जैसे इंसान के लिए शहीदों की तारीफ़ का हक़ अदा कर पाना मुमकिन नहीं है, (यानी) ये इससे कहीं ऊंचे, आला, लतीफ़ और पाक हैं कि हम उनकी तारीफ़ कर सकें, लेकिन हमें चाहिए कि हम उन्हें अपने लिए आइडियल बनाएं। ये सब आइडियल हैं। शहीद आइडियल हैं।

शहीद शूस्तरी एक तरह से, शहीद ब्रूनसी (7) एक तरह से, शहीद बाग़ानी एक तरह से, शहीद बाग़ानी एक तरह से, शहीद हमीद रज़ा अद्दाग़ी (8)- जिनकी शहादत से मुल्क के अवाम में हलचल मच गयी- एक और तरह से, ये सब आइडियल हैं। इनमें से हर एक, किसी न किसी तरह, एक रुख़ से, एक पहलू से हमारे लिए आइडियल बन सकता है। मैंने तीन चार शहीदों का नाम लिया है, नीशापूर और सब्ज़वार में कुल मिलाकर साढ़े चार हज़ार शहीद हैं, जिनमें से हर एक ब्रूनसी और बाग़ानी समझा जा सकता है, हर एक की कहानी अलग है, हर एक का मसला अलग है, उनका नाम लेना चाहे तो इंसान को शर्मिन्दगी होती है (यानी उनकी तादाद बहुत ज़्यादा है)।

अलहम्दो लिल्लाह मुल्क में शहीदों के हालात लिखने की शैली चल पड़ी है, इसे बढ़ावा मिलना चाहिए, उनके हालात ज़्यादा से ज़्यादा लेकिन बेहतर और पूरी तरह कलात्मक अंदाज़ में लिखे जाएं, नौजवान उन किताबों को पढ़ें, सभी पढ़े और इंशाअल्लाह फ़ायदा उठाएं।

हमारी दुआ है कि अल्लाह हमें उनके साथ इंशाअल्लाह महशूर करे, हमें उनका अनुयायी क़रार दे, हमें उनकी शिफ़ाअत से महरूम न करे, इन शहीदों की पाक आत्माओं को हमसे राज़ी करे और हमारे इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) की आत्मा को जिन्होंने इस आंदोलन को वजूद दिया, इंशाअल्लाह, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के साथ महशूर फ़रमाए।

मैं आप सबको यहाँ तशरीफ़ लाने और इन कॉन्फ़्रेंसों के आयोजन पर दिल की गहराइयों से शुक्रिया अदा करता हूं, आप सभी के लिए, अल्लाह से तौफ़ीक़ की दुआ करता हूं और आपके ज़रिए सब्ज़वार और नीशापूर के अवाम की सेवा में पुरख़ुलूस सलाम अर्ज़ करता हूं।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।

1  इस मुलाक़ात के शुरू में, सब्ज़वार के स्वयंसेवी बल ‘बसीज’ के कमांडर व कॉन्फ़्रेंस के संयोजक कर्नल हादी मोवह्हेदी निया और नीशापूर की बसीज के कमांडर व कॉन्फ़्रेंस के संयोजक कर्नल अली नीक निया ने, रिपोर्टें पेश कीं।

2  हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद मोहम्मद हसन अलवी सब्ज़वारी

3  शैख़ शम्सुद्दीन मोहम्मद बिन मक्की, शहीदे अव्वल के नाम से मशहूर, लुम्आ दमिश्क़िया के लेखक

4  सहीफ़ए इमाम, जिल्द-14, पेज-491, अवाम के मुख़्तलिफ़ वर्गों के बीच स्पीच (22/6/1981) “ ये वसीयतनामे जो इन अज़ीज़ों ने लिखे हैं, इनका अध्ययन करें, पचास साल इबादत की अल्लाह क़ुबूल करे, एक दिन इन वसीयतनामों को उठाकर पढ़ें और ग़ौर करें...”

5  शहीद नासेरुद्दीन बाग़ानी इमाम सादिक़ यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट थे, जो आठ वर्षीय पाकीज़ा डिफ़ेन्स के दौरान मोर्चे पर गए और 1 मार्च सन 1986 को करबला ऑप्रेशन-5 में शहीद हुए।

6  शहीद ब्रिगेडियर नूर अली शूस्तरी (आईआरजीसी के क़ुद्स हेडक्वार्टर के कमांडर) 18 अक्तूबर सन 2009 को “सीस्तान व बलोचिस्तान की क़ौमों के बीच एकता कॉन्फ़्रेंस” में जो पशीन के बलोच क़बीलों की शिरकत से जारी थी, आतंकवादियों के आत्मघाती बम धमाके में, आईआरजीसी के कुछ दूसरे कमांडरों के साथ शहीद हो गए।

7  शहीद अब्दुल हुसैन ब्रूनसी, पाकीज़ा डिफ़ेन्स के दौरान, जवादुल आइम्मा अट्ठारहवीं ब्रिगेड के कमांडर थे और 13 मार्च 1985 को “बद्र ऑप्रेशन” में शहीद हुए।

8 शहीद हमीद रज़ा अद्दाग़ी, ग़ैरतमंद सब्ज़वारी नौजवान थे जो जारी साल 28 अप्रैल को एक लड़की का यौन उत्पीड़न करने वाले असामाजिक तत्वों के मुक़ाबले में उतरे और चाक़ुओं के वार से शहीद हो गए।