मई दिवस और लेबर सप्ताह के मौक़े पर लेबर तबक़ों के बीच स्पीच

रहबरे इंक़ेलाब की तक़रीरः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार नबी अबिल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक व मासूम नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

आप सबका बहुत बहुत स्वागत है। हमें उम्मीद है कि इन्शाअल्लाह हमारी लेबर सोसायटी, जिसका छोटा सा नमूना आप लोग हैं, इस गुलिस्तान का गुलदस्ता हैं, हमेशा अल्लाह का करम आपके शामिले हाल रहे और आप मुल्क को दिन ब दिन फ़ायदा पहुंचाते रहें। अगर लेबर सोसायटी तरक़्क़ी करे, उसके मुद्दे हल हो जाएं, वह इल्मी, वैचारिक और रोज़गार की नज़र से तरक़्क़ी हासिल कर ले तो निश्चित तौर पर तरक़्क़ी हासिल होगी और क़ौम को सुकून मिलेगा।

आदरणीय मंत्री जी की बातें अहम थीं, उनके बयान में, बाद में किए जाने वाले कामों से संबंधित जो भाग था, इंशाअल्लाह उसके बारे में कोशिश करें, उन्हें देखते रहें, निश्चित तौर पर नतीजा निकलेगा, इन्शाअल्लाह। जिस हिस्से में उन्होंने कहा कि काम अंजाम पा चुके हैं, उसमें अहम प्वाइंट्स थे, मैंने ध्यान से सुना। मैं मुर्तज़वी साहब से जिस चीज़ की दरख़्वास्त करना चाहता हूं -चूंकि उनके काम का रेकॉर्ड अच्छा है, पहले जिन जगहों पर उन्होंने काम किया, वहाँ अच्छा काम किया- वो यह है कि आंकड़ों पर पूरा ध्यान दें, ख़ास तौर पर कुछ अहम विभागों पर, जैसे रोज़गार मुहैया करने का विषय। मुख़्तलिफ़ सरकारों में कुछ काम हुए, आंकड़े पेश किए जाते थे, फिर जब उन पर ग़ौर करता था तो उनमें लापरवाही नज़र आती थी। यह कोशिश करें कि ऐसा न हो,  जैसे बीमे का विषय, रोज़गार का विषय, हाउसिंग का विषय, जिन चीज़ों का उन्होने ज़िक्र किया वह सच में बहुत अहम हैं, काफ़ी अहम हैं। ध्यान रहे कि आंकड़े बिल्कु सही हों, क्योंकि अधिकारी और मंत्री ख़ुद तो एक-एक काम नहीं देख सकता बल्कि उसे रिपोर्ट दी जाती है। ध्यान रहे कि आंकड़े बिल्कुल सही हों। जिन कामों के बारे में यह कह रहे हैं कि अंजाम पा गए हैं, अगर वे वाक़ई अंजाम पा गए हैं तो बड़े क़दम उठाए गए हैं और वाक़ई यह ग़नीमत है। ऐसा काम कीजिए कि मुल्क के मज़दूरों की यह बड़ी तादाद, ये हमारे प्यारे भाई और बहनें, ख़ुश हों, उनका मनोबल ऊंचा हो।

अब आते हैं उस चीज़ की तरफ़ जो मैंने पेश करने के लिए तैयार की है। यह बैठक जो हर साल होती है, पहले तो यह कि इसलिए है कि समाज में मज़दूर की क़द्र को ऊंची आवाज़ में बताया जाए, जिस चीज़ का हमारा दिल चाहता है, वह यह है, मज़दूर की क़द्र व क़ीमत पता चल जाए। अलबत्ता लेबर शब्द अपने भीतर बहुत ही व्यापक अर्थ लिए हुए है, इस वक़्त मेरी मुराद उद्योग, खेती और सेवा क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूर हैं- मुझे रिसर्च स्कॉलर्ज़ और प्रोफ़ेसरों के बारे में अभी कुछ नहीं कहना है, वह भी एक तरह से लेबर की कैटेगरी में आते हैं लेकिन फ़िलहाल वे मेरे मद्देनज़र नहीं हैं- यही आप लोग और मुल्क की लेबर सोसायटी मेरे मद्देनज़र है। इस सोसायटी की क़द्र की जानी चाहिए। मेरी ताकीद है कि यह काम होना चाहिए। दूसरे यह कि हमारे मन में कुछ बातें और नसीहतें आती हैं जिन्हें हम अधिकारियों से भी और प्यारे मज़दूरों से भी अर्ज़ करना चाहते हैं ताकि इंशाअल्लाह लेबर सोसायटी को आगे ले जा सकें।

मैं रोज़गार, मज़दूर और मज़दूरों के सिलसिले में हम सबकी जो ज़िम्मेदारियां हैं, उनके बारे में कुछ बातें पेश करुंगा।

सबसे पहले तो यह कि हम मज़दूर की अहमियत किस तरह समझें? काम की अहमियत से। समाज में काम की क्या अहमियत है? काम की अहमियत से मज़दूर की अहमियत समझी जा सकती है। काम, समाज की ज़िन्दगी है। काम, लोगों की ज़िन्दगी में रीढ़ की हड्डी की तरह है, काम न हो तो कुछ भी नहीं है। जो खाना हम खाते हैं, जो लेबास हम पहनते हैं, वे संसाधन जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी में इस्तेमाल करते हैं और हमारी ज़िन्दगी उन पर निर्भर है, इस सबका स्रोत काम है। काम कौन करता है? मज़दूर। तो मज़दूर की अहमियत क्या है? मज़दूर की अहमियत समाज की ज़िन्दगी की अहमियत जितनी है, लोगों की ज़िन्दगी जितनी है, यह बात सभी जान लें, यह बात सभी समझ लें। ख़ुद मज़दूर भी इस प्वाइंट पर ध्यान दें, अपनी क़द्र व क़ीमत समझिए, मैं अपनी बातचीत के अंत में इस क़द्रदानी के बारे में कुछ बातें पेश करुंगा। अगर समाज में काम न हो तो पूरी की पूरी राष्ट्रीय संपदा ठप्प पड़ी रहेगी। हमारे यहाँ खदानें हैं, संसाधन हैं, ज़मीन है, पानी है, अगर काम हो तो ये सारी चीज़ें बरकत का स्रोत होंगी, खदानों से खनिज पदार्थ निकाले जाएंगे, पानी और मिट्टी को इस्तेमाल किया जाएगा, ज़िन्दगी आगे बढ़ती रहेगी। अगर काम न हुआ तो यह सारी सलाहियतें मुर्दा और बेकार रह जाएंगी। काम, सलाहियतों को निखारता है, यह काम की अहमियत है। जब हमने काम की अहमियत को समझ लिया तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि मज़दूर की कितनी अहमियत है। यह एक बात हुयी। पहले चरण में हम सबको अपने बारे में, मज़दूर के बारे में और लेबर सोसायटी के बारे में यह पहचान होनी चाहिए।

जब हम काम पैदा करने और रोज़गार पैदा करने की अहमियत को समझ गए, जिसे रोज़गार कहा जाता है, यानी वाक़ई काम! कुछ रोज़गार ऐसे होते हैं जिनके भीतर वाक़ई काम नहीं होता, जब उस रोज़गार में लगते हैं तो लाभदायक काम सामने नहीं आता, वह मद्देनज़र नहीं है, अगर आठ घंटे, सात घंटे, पांच घंटे, कुछ कम या कुछ ज़्यादा फ़ुलां सेंटर में आते जाते हैं तो वाक़ई पाँच घंटे काम होना चाहिए, सात घंटे काम होना चाहिए, हमें काम पैदा करना चाहिए। सही मानी में काम मुख़्तलिफ़ पहुलओं से अहम है। सबसे पहले तो यह कि मुल्क को काम की ज़रूरत है, समाज को काम की ज़रूरत है और जैसा कि हमने कहा, अगर काम न हो तो ज़िन्दगी नहीं है। दूसरे यह कि मज़दूर को अपनी ज़िन्दगी चलाने के लिए काम की ज़रूरत है। तीसरे यह कि मज़दूर को काम की मानसिक व आध्यात्मिक नज़र से ज़रूरत है। अल्लाह ने इंसान को इस तरह का पैदा किया है कि बेरोज़गारी उसे काहिल बना देती है, काम उसे ख़ुशी देता है, इसलिए काम की ज़रूरत सिर्फ़ ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए नहीं है, आध्यात्मिक लेहाज़ से भी हमें काम की ज़रूरत है, इंसान को काम की ज़रूरत है। चौथे यह कि काम, भ्रष्टाचार को रोकता है, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार की जड़ है। बहुत से भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी की वजह से होते हैं।

हमने आज से कुछ साल पहले, तीन चार साल पहले, उस वक़्त की सरकार के साथ सामाजिक मुद्दों को चिन्हित करने के लिए एक काम शुरू किया था। यहाँ तक कि मैं ख़ुद बैठकों में शरीक होता था- कई कई घंटे की बैठकें होती थीं- ताकि सामाजिक मुश्किलों के बारे में काम हो सके, सोचा जा सके। मैं ख़ुद जिस नतीजे पर पहुंचा, वह यह है कि इनमें से बहुत से मुद्दों की जड़ बेरोज़गारी है, नशे की लत बेरोज़गारी की वजह से है, भ्रष्टाचार बेरोज़गारी की वजह से है, चोरी, बेरोज़गारी की वजह से होती है, तलाक़ और फ़ैमिली का बिखराव बेरोज़गारी की वजह से होता है, देखिए, वे विभाग जिन पर काम पैदा करने की ज़िम्मेदारी है- लेबर मंत्रालय पर रोज़गार पैदा करने की ज़िम्मेदारी नहीं हैं, ज़्यादातर दूसरे मंत्रालयों पर काम पैदा करने की ज़िम्मेदारी है- जान लें कि काम पैदा करना, रोज़गार पैदा करना, सही मानी में समाज के लिए कितना अहम है, वह पूंजी निवेश करें, यह एक बात हुयी।

एक दूसरी बात जो मैं पेश करना चाहता हूं, यह है कि हमें इस बात की ज़रूरत है कि आमदनी और काम के बीच एक सीधा संबंध हो, यानी हमारे इस प्यारे क़ारी ने जो यह आयत पढ़ी, और यह कि इंसान के लिए वही कुछ है जिसकी वह कोशिश करता है।(2) इसके मुताबिक़, आय, कोशिश और मेहनत से होनी चाहिए, काम से होनी चाहिए, जिद्दो जेहद से होनी चाहिए। समाज को इस तरह परवान चढ़ाना चाहिए, यह बहुत सख़्त काम है, इसका क्या मतलब? मतलब यह कि बहुत सी बेहिसाब दौलत हासिल करने का तरीक़ा ग़लत है। हमें मुल्क में बिना मेहनत हासिल होने वाली भारी रक़म के कल्चर को रोकना होगा। मैंने अर्ज़ किया कि यह कठिन काम है और लंबी मुद्दत लेगा, लेकिन इसे अंजाम पाना चाहिए। बहुत से बिचौलिए, बहुत से मामले, बहुत सी दलालियां, कुछ जगहों पर रिश्वत देना और रिश्वत लेना, मुल्क के कुछ विभागों में ब्याज का चलन, या वीआईपी सिस्टम के फ़ुलां शख़्स से संबंध के कारण बहुत ही आसान और बिना काम किए हुए इनकम आने लगे, ये सब समाज के लिए नुक़सानदेह है। आमदनी का काम से सीधा संबंध होना चाहिए। मैंने जो कहा उसका मतलब यह नहीं है कि कल आप, या सरकारी विभाग या मैं ख़ुद, ये काम अंजाम दे डालें। मैं चाहता हूं कि समाज में इस कल्चर को बढ़ावा मिले। काम से आमदनी के संबंध का कल्चर। बहुत से भेदभाव वाला व्यवहार, बहुत से ऐश भरे काम, बहुत सी नुक़सानदेह धन दौलत- जिसके बुरे असर इंसान समाज में देखता है और जो लोग समाज में ‘मुतरेफ़ीन’ (फ़ुज़ूलख़र्च) (3) की मिसाल हैं, जिसका क़ुरआन में ज़िक्र हुआ है (4)- इनमें से बहुत सी चीज़ें इस वजह से हैं कि काम से आमदनी और फ़ायदे का संबंध कट गया है, काम नहीं है लेकिन आमदनी है, यह नहीं हो सकता, आमदनी काम की वजह से होनी चाहिए।

अगर हमने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष किया तो इस कल्चर को फैला सकेंगे। भ्रष्टाचार से संघर्ष बहुत अहम विषय है। भ्रष्टाचार क्या है? भ्रष्टाचार, रिश्वत है, भ्रष्टाचार, वीआईपी के नाम पर खाना है, भ्रष्टाचार ब्याज है, ये सब भ्रष्टाचार हैं, बुराइयां हैं। इनसे संघर्ष में जो भी क़दम उठाया जाएगा, वह इस कल्चर को बढ़ावा देने की राह में हक़ीक़ी क़दम होगा, जिसे मैंने अर्ज़ किया। अलबत्ता मैंने क़रीब 20 साल पहले, भ्रष्टाचार के संबंध में एक तफ़सीली रिपोर्ट लिखी थी, सन 2000 या 2001 की बात होगी। (5) उसमें भी मैंने कहा था कि भ्रष्टाचार से मुक़ाबला जारी रहना चाहिए, पुरानी कहानियों की ज़बान में कहें तो भ्रष्टाचार सात सिरों वाले ड्रैगन की तरह है कि अगर आपने उसका एक सिर काट दिया तब भी उसके छह सिर ज़िन्दा बाक़ी रहते हैं, काम करते रहते हैं। यह संघर्ष व्यापक होना चाहिए। अगर उसी वक़्त सरकारों और आदरणीय अधिकारियों ने इस सिलसिले में गंभीरता से काम किया होता तो आज हमारी हालत बेहतर होती। अलहम्दो लिल्लाह, इस बात की उम्मीद है कि अवामी सरकार और इन्क़ेलाबी संसद, भ्रष्टाचर से मुक़ाबले के इस काम को संजीदगी से आगे बढ़ाएगी।

मेरी अर्ज़ है कि अगर एक अधिकारी में, आंतरिक स्तर पर भ्रष्टाचार से संघर्ष की हिम्मत नहीं होगी तो फिर उसमें विदेशी भ्रष्टाचार से मुक़ाबले की हिम्मत तो बिल्कुल ही नहीं होगी। मिसाल के तौर पर फ़ुलां शख़्स, एकाधिकार वाले व्यापार से ग़लत फ़ायदा उठा रहा है, तो उसे रोका जाना चाहिए, सख़्त है। फ़ुलां शख़्स, बैंक की क्रेडिट से ग़लत फ़ायदा हासिल कर रहा है, फ़ुलां शख़्स बैंक के क़र्ज़ नहीं लौटा रहा है, उससे निमटा जाना चाहिए। अगर आप यहां मुक़ाबला नहीं कर सके तो, वहाँ जहाँ अमरीका जैसी या कोई दूसरी धौंस जमाने वाली सरकार, जब इस बात पर अड़ जाएगी कि एटमी ऊर्जा के मामले में आपको ऐसा करना होगा, वैसा नहीं, तो आप मुक़ाबला नहीं कर पाएंगे। जब आपके पास यहाँ मुक़ाबले की ताक़त नहीं है तो वहाँ भी मुक़ाबले की ताक़त नहीं होगी। बात यह है।

एक दूसरी बात, मज़दूर के सिलसिले में ज़िम्मेदारियों के बारे में है। मैं एक बार फिर कहता हूं:  ये बातें जो मंत्री जी ने यहाँ कही हैं, बहुत अच्छी हैं, ये बड़े अहम काम हैं, लेकिन इस बात पर पूरा ध्यान रहे कि ये काम पूरी तरह अंजाम पाने चाहिए। मज़दूर के सिलसिले में ज़िम्मेदारियां, ज़्यादातर वही हैं जिनका ज़िक्र किया गया। मैं एक इशारा करता चलूं। हम सभी मज़दूरों की तारीफ़ करते हैं, मज़दूर की तारीफ़ बहुत अच्छी बात है और यह लोगों को मज़दूर के रुतबे से आगाह करती है, लेकिन ज़बानी तारीफ़ काफ़ी नहीं है। शायर के बक़ौलः मैं आपकी ज़बानी मुहब्बत के क़ुरबान! (6) काम करना चाहिए, कोशिश करनी चाहिए, मदद करनी चाहिए।

एक बात जिसे सभी को जानना चाहिए, सरकारी अधिकारियों को भी, उद्यमियों और पूंजी निवेशकों को भी चूंकि बहुत से काम उनके पैसे और उनके संसाधन पर निर्भर हैं, सभी को जान लेना चाहिए कि अगर इस बात की कोशिश की गयी कि मज़दूर की ज़िन्दगी का स्तर बेहतर हो तो मुल्क की स्थिति बेहतर होगी। जब मज़दूर मानसिक लेहाज़ से सुकून में होगा, वह अपने रोज़गार की ओर से निश्चिंत होगा, उसे सुकून हासिल होगा, उसकी ज़िन्दगी आराम से गुज़र रही होगी तो काम का स्टैंडर्ड ऊपर जाएगा, प्रोडक्ट की क्वालिटी बेहतर हो जाएगी। न सिर्फ़ विश्व व्यापार के स्तर पर बल्कि देश के भीतर व्यापार में भी हमारी एक मुश्किल प्रोडक्ट की क्वालिटी है। अगर मज़दूर ख़ुश होगा और वह यह जान लेगा कि उसकी ज़िन्दगी आसानी से गुज़रेगी, वह यह जान लेगा कि उसकी नौकरी को कोई ख़तरा नहीं है, उसे सुकून हासिल होगा तो उसका काम बेहतर होगा, काम का स्टैंडर्ड बेहतर होगा, काम का स्तर बेहतर होगा, यह बात सभी को जान लेनी चाहिए। इसलिए मज़दूर की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए की जाने वाली हर कोशिश अस्ल में, काम को बेहतर बनाने की कोशिश है, प्रोडक्ट की क्वालिटी बेहतर बनाने की कोशिश है, मुल्क की तरक़्क़ी के लिए की जाने वाली कोशिश है, यानी पूंजीनिवेश है। अगर हम लेबर सोसायटी की मुश्किलों को हल करने की कोशिश करें तो हक़ीक़त में हमने पूंजीनिवेश किया है, यह ख़र्च नहीं है, यह पूंजीनिवेश है। यह बात सभी जान लें, अधिकारी भी जान लें, उन कामों के बारे में जो मुल्क से संबंधित हैं चाहे वे सरकारी हों या ग़ैर सरकारी और इसी तरह कारख़ानों के मालिक, विनेशक, उद्यमि वग़ैरह भी जान लें।

ख़ैर, पैदावार, मुल्क की रीढ़ की हड्डी है यानी मुल्क की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी प्रोडक्शन है और प्रोडक्शन की रीढ़ की हड्डी मज़दूर है। हमें मज़दूर यानी इस रीढ़ की हड्डी को कमज़ोर नहीं होने देना चाहिए। हमने इस साल, साल के नारे में कहाः प्रोडक्शन में वृद्धि। तो प्रोडक्शन में वृद्धि कैसे होती है? प्रोडक्शन में तरक़्क़ी के एक अहम भाग का संबंध मज़दूरों से है। अगर वे ख़ुशी और दिलचस्पी के साथ काम करें तो ऐसा होता है। इसलिए इस प्वाइंट पर ध्यान दें आदरणीय अधिकारी भी और निवेश करने वाले, रोज़गार पैदा करने वाले और वर्कशाप वग़ैरह बनाने वाले भी ध्यान दें कि प्रोडक्शन में तरक़्क़ी के लिए स्थिति बेहतर बनाने के लिए उन्हें मज़दूर की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने को एक बुनियादी उसूल समझना चाहिए।

एक दूसरी बात काम की आमदनी का न्यायपूर्ण वितरण है। हमने ठोस बुनियादों वाली अर्थव्यवस्था की नीतियों में इस सिलसिले में एक अनुच्छेद रखा था और उस पर बहस भी की थी, काफ़ी पहले इस पर बहस व चर्चा हो चुकी है। मानव संसाधन की हैसियत से मज़दूर पर कि जो एक मानव ज़ख़ीरा है, मानव संपत्ति है जिसका असर भौतिक संपत्ति से ज़्यादा है, काम के नतीजे यानी प्रोडक्ट की वैल्यू तय करने में, ध्यान दिया जाना चाहिए। मैं यहीं पर इस बात से एक नतीजा निकालना चाहता हूं और वह यह है कि अगर हम चाहते हैं कि प्रोडक्ट की वैल्यू में मज़दूर का हिस्सा ज़्यादा हो तो हमें मज़दूर की ट्रेनिंग, महारत और तजुर्बे को बढ़ाने की योजना बनानी चाहिए और यह बात आदरणीय मंत्री की बातचीत में भी थी, यह बहुत संजीदा बात है। किसी काम के नतीजे की क़द्र व क़ीमत तय करने में माहिर, तजुर्बेकार, प्रशिक्षित और क्रिएटिव मज़दूर का हिस्सा, काफ़ी ज़्यादा होता है, उसी अनुपात से आमदनी में उसका हिस्सा भी ज़्यादा होता है। अब इसके मानी यह नहीं है कि हम निवेशक वग़ैरह के मुक़ाबले में मोर्चा खड़ा करना चाहते हैं, नहीं! मैं किसी भी हालत में इसका सुझाव नहीं दूंगा। निवेशक, उद्यमी और मज़दूर, एक दूसरे के लिए अभिन्न अंग की तरह हैं, अगर यह न हो तो वह कुछ नहीं कर सकता, वह न हो तो यह कुछ नहीं कर सकता, दोनों एक दूसरे की ज़रूरत हैं। जो चीज़ इस न्यायपूर्ण हिस्सेदारी को सुनिश्चित कर सकती है वह न्याय और न्याय का माहौल है, उस चीज़ के विपरीत जिसका नारा कम्युनिस्ट लगाते थे लेकिन उस पर अमल नहीं करते थे, वे झूठ बोलते थे। वे जंग के माहौल, टकराव के माहौल और ऐसी ही बातों को बढ़ावा देते थे, व्यवहारिक तौर पर यह साबित हो गया कि उन्हें ग़लतफ़हमी थी, यह उनकी बहुत बड़ी ग़लती थी, उन्हें कोई नतीजा भी हासिल नहीं हुआ, व्यवहारिक तौर पर वे अपने नारों के पाबंद भी नहीं थे। इंसाफ़ के माहौल, सहयोग के माहौल, हमदिली के माहौल, अल्लाह को निगाह रखने वाला समझने का माहौल होना चाहिए ताकि कामयाब हो सकें। अलबत्ता कुछ मौक़ों पर पूंजी, मज़दूर के अधिकार के हनन का सबब बनती है, उसे रोका जाना चाहिए। दूसरी तरफ़ मुमकिन है कि उसके लिए कुछ सीमाएं पायी जाती हों, उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। यह भी एक प्वाइंट था।

एक दूसरी बात यह है कि यह बात जो मैंने कही, उससे मैं यह नतीजा निकालता हूं कि मज़दूर की सलाहियतों को निखारने की राह समतल करना, एक फ़रीज़ा है। एक हदीस है जिसे मैंने नोट किया है, हदीस में कहा गया हैः जो किसी मज़दूर को उसकी मज़दूरी न देने का ज़ुल्म करे, अल्लाह उसके कर्म को तबाह कर देता है और उस पर जन्नत की ख़ुशबू हराम हो जाती है। अगर कोई किसी मज़दूर पर ज़ुल्म करे, उसकी मज़दूरी के सिलसिले में ज़ुल्म करे तो उसके सभी भले कर्म बर्बाद हो जाते हैं। हदीस में ‘हब्त’ शब्द आया है जिसका मानी है तबाह हो जाना, ख़त्म हो जाना और अल्लाह ऐसे शख़्स पर जन्नत की ख़ुशबू को हराम कर देता है! यह काम ऐसा है। अब सवाल यह है कि यह ज़ुल्म है क्या? क्या ज़ुल्म यह है कि सिर्फ़ उसकी मज़दूरी न दें? हाँ ठीक है, यह एक बड़ा ज़ुल्म है लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है, मुझे लगता है कि बीमा, इलाज, महारत के स्तर को बढ़ाने, ट्रेनिंग, इनोवेशन का मौक़ा न देना वग़रैह भी ज़ुल्म हैं। मतलब यह कि अगर आप चाहते हैं कि मज़दूर पर ज़ुल्म न हो तो उसको महारत के स्तर को ऊपर उठाने का मौक़ा मुहैया कीजिए, राह समतल कीजिए, बीमे के मसले को हल कीजिए, इलाज के मसले को, फ़ैमिली के स्वास्थ्य के मसले को, रोज़गार की सेक्युरिटी के मसले को हल कीजिए, इन चीज़ों का न होना भी ज़ुल्म है। ख़ैर तो यह भी एक बात हुयी। 

एक दूसरा प्वाइंट जो शायद हमारी आख़िरी बात हो, यह है कि हमारी लेबर सोसायटी आज तक इन्क़ेलाब और सिस्टम की वफ़ादार रही है। देखिए (लेबर सोसायटी के) 14000 शहीद, हक़ीक़त में मज़दूरों के हाथ में गर्व करने के लायक़ 14000 परचम हैं। ये लोग जो शहीद हुए -चूंकि मैं शहीदों के हालात का अध्ययन करता हूं, इसलिए जानता हूं कि- इनमें से कुछ मज़दूर थे, फ़ैमिली वाले भी थे, उनके दो, तीन, चार बच्चे भी थे, लेकिन उन्होंने ज़िम्मेदारी महसूस की, देखा कि दुश्मन ने मुल्क, इन्क़ेलाब और सिस्टम पर हमला किया है, उन्होंने अपना फ़र्ज़ समझा और बच्चों को अल्लाह के सहारे छोड़ कर जंग के मैदान में गए और शहीद हो गए। अलहम्दो लिल्लाह उनसे कई गुना ज़्यादा लोग गए थे लेकिन अल्लाह की कृपा से ज़िन्दा हैं, शहीद नहीं हुए लेकिन बहरहाल 14000 शहीद! मामूली बात नहीं है।

मेरे ख़याल में सिस्टम से लेबर सोसायटी की वफ़ादारी की सबसे अहम निशानी, इन दशकों के दौरान उनका रवैया और व्यवहार रहा है। इन्क़ेलाब की कामयाबी के आग़ाज़ के दिनों में कुछ ग्रुप्स ने कोशिश की थी, मुल्क के भीतर कुछ ग्रुप्स कोशिश कर रहे थे और उनका टार्गेट था मज़दूरों को सड़क पर ले आएं, वर्कशॉप्स और कारख़ाने बंद हो जाएं और इन्क़ेलाब शिकस्त खा जाए। ये उन गिरोहों की कोशिश थी। फिर वे धीरे धीरे किनारे लग गए और इस मामले में ज़्यादातर विदेशी दुश्मन शामिल हो गए, यह सिलसिला आज तक जारी है। उन्होंने उकसाया भी और लेबर सोसायटी को सिस्टम के मुक़ाबले में खड़ा करने के लिए सतही और ग़ैर हक़ीक़ी नारों के ज़रिए कोशिश भी की। लेबर सोसायटी ने समझदारी का परिचय दिया, डट गयी, यह बहुत अहम है। यह कि लेबर सोसायटी रेडियो, टीवी, इंटरनेट वग़ैरह पर किए जाने वाले इतने ज़्यादा प्रोपैगंडों का असर न ले, वह काम न करे जो दुश्मन चाहते हैं और उसे पता हो कि वह क्या कर रही है, मेरे ख़याल में यह लेबर सोसायटी का बड़ा जेहाद है, यह बहुत क़ीमती है। लेबर तबक़े ने दुश्मन की चालों के मुक़ाबले में समझदारी का परिचय दिया। लेबर सोसायटी को सिस्टम के मुक़ाबले पर लाने की बहुत कोशिश की गयी लेकिन अल्लाह की मदद से दुश्मन ऐसा न कर सके, आइंदा भी वे कोशिश करेंगे, इस वक़्त भी वे कोशिश कर रहे हैं। मगर इस वक़्त भी और भविष्य में भी अल्लाह की मदद से वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। अलबत्ता मज़दूरों के कुछ एतेराज़ थे, जिनमें से कुछ जहाँ तक मेरी मालूमात हैं, सही थे। सैलरी देर से मिलने पर एतेराज़, ग़लत तरीक़े से काम और जगह सिपुर्द किए जाने पर एतेराज़। कभी किसी जगह को, किसी अहम काम की जगह को ग़लत तरीक़े से, बुरे तरीक़े और भ्रष्टाचार से किसी के हवाले कर देते हैं, मज़दूर वहाँ मौजूद है, वह सब कुछ क़रीब से देख रहा है, एतेराज़ करता है, यह सरकार की मदद है, यह सिस्टम की मदद है, यह सिस्टम को सूचित करना है। इस तरह के मामले में भी न्यायपालिका जैसे ज़िम्मेदार विभागों ने छानबीन की तो उन्होंने पाया कि मज़दूर सही कह रहे हैं, इन हालिया मामलों में- मुझे इनमें से कुछ मामलों के बारे में क़रीब से जानकारी थी- लेबर सोसायटी ने दुश्मन और अपने बीच में सीमा क़ायम कर ली थी, मज़दूरों ने फ़ुलां मामले और फ़ुलां जगह के एतेराज़ से दुश्मन को फ़ायदा नहीं उठाने दिया, उन्होंने कहा कि हमें इस काम पर एतेराज़ है लेकिन हम दुश्मन से बेज़ार हैं, सिस्टम के दोस्त हैं, साथ हैं। मज़दूरों का क़दम यह है।

एक और बात जो पेश करना चाहता हू, जिसकी तरफ़ मैंने शुरू में इशारा किया था। रोज़गार पैदा करने के मसले के बारे में, वह यह है कि मुल्क के अधिकारियों को शिक्षित बेरोज़गार जवानों के बारे में सोचना चाहिए। हमारे यहाँ बड़ी तादाद जवान नस्ल की है, दो तरह के नौजवान हैं जिनके बारे में संजीदगी से सोचने की ज़रूरत हैः एक वह शिक्षित बेरोज़गार जवान हैं जिनके पास उनकी शिक्षा के अनुकूल काम नहीं हैं, हमारा जन संपर्क विभाग कभी कभी परिवारों से मुलाक़ात करता है और उसकी रिपोर्ट मुझे दी जाती है, मुझे मालूम पड़ता है कि मिसाल के तौर पर किसी सब्जेक्ट का शिक्षित जवान है, उसने डिप्लोमा भी किया है लेकिन इस वक़्त एक बहुत ही मामूली काम कर रहा है, यानी अपनी शान के मुताबिक़ काम नहीं कर रहा है, इस तरह के बहुत से जवान हैं, उनके बारे में सोचना चाहिए, यह बहुत अहम काम है। ये जवान, मुल्क की संपत्ति हैं, उन्हें यूं ही बेकार नहीं रहना चाहिए। कुछ ऐसे भी जवान हैं जो न पढ़ना चाहते हैं, न काम करना चाहते हैं, वाक़ई राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों के माहिरों को बैठकर उनके बारे में कुछ सोचना चाहिए, सरकार की मदद करें ताकि उनके लिए कुछ सोचा जा सके। अफ़सोस कि मुल्क में इस तरह के जवान भी हैं, ऐसे जवान जिनके पास काम नहीं है और वे काम की तलाश में भी नहीं हैं, शिक्षा हासिल नहीं करते और शिक्षा हासिल करना भी नहीं चाहते। मुल्क में इस तरह के जवानों की भी अच्छी ख़ासी तादाद है। ये भी संपत्ति हैं, इसे बर्बाद नहीं होना चाहिए। वाक़ई उनके लिए भी ज़रूर कुछ सोचा जाना चाहिए। यह वह काम है जिसे आर्थिक व मानवीय मामलों के माहिर लोगों को ज़रूर अंजाम देना चाहिए।

बहरहाल लेबर सोसायटी के सिलसिले में मेरी राय एक तरफ़ क़द्रदानी और सम्मान की है -हम सही मानी में दिल की गहराइयों से आपका सम्मान करते और आपकी महानता को समझते हैं- एक तरफ़ हमारा मानना है कि मुल्क में मज़दूरों के जीवन स्तर में एक ज़बर्दस्त बदलाव आना चाहिए, इंशाअल्लाह जो कोशिशें हो रही हैं, उनसे ज़रूर कामयाबी मिलेगी, दूसरी ओर दुश्मन के मुक़ाबले में डटे रहने और दुश्मन के बहकावे में न आने की वजह से लेबर सोसायटी की हम दिल से सराहना करते हैं और आपके लिए बरकत व भलाई की आरज़ू रखते हैं। अल्लाह आपकी हिफ़ाज़त करे, आपको सलामत रखे इंशाअल्लाह, और इमाम महदी अलैहिस्सलाम का पाकीज़ा दिल और इमाम ख़ुमैनी की पाकीज़ा रूह आपसे राज़ी व ख़ुश रहे।

और आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत और बरकत हो।

1 इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में, लेबर मंत्री जनाब सौलत मुर्तज़वी ने एक रिपोर्ट पेश की

2 सूरए नज्म आयत-39, “और यह कि इंसान के लिए वही कुछ है जिसकी वह कोशिश करता है।”

3 उस शख़्स को कहते हैं जो बहुत ज़्यादा नेमत मिलने की वजह से ग़ाफ़िल, घमंडी हो गया और सरकशी पर उतर आया हो।

4 सूरए वाक़ेया, आयत-45

5 आर्थिक भ्रष्टाचार के बारे में 30/4/2001 को तीनों पालिकाओं के प्रमुखों को आठ बिंदुओं पर आधारित पत्र

6 चाहे दिल से हमें दोस्त न रखते हो/ मगर ज़बान से मोहब्बत के इज़हार पर ही क़ुर्बान हो जाऊं