विश्व विख्यात कमांडर जनरल क़ासिम सुलैमानी की तीसरी बरसी के मौक़े पर शहीद के परिवार और बर्सी के कार्यक्रमों का आयोजन करने वाली कमेटी के सदस्यों ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात की। 1 जनवरी 2023 को होने वाली इस मुलाक़ात में आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने शहीद सुलैमानी के व्यक्तित्व और उनकी ख़ुसूसियतों के बारे में बात की और कुछ अहम निर्देश दिए। (1)
स्पीच का हिंदी अनुवादः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का तर्जुमाः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
बहुत शुक्रिया आपकी इस ब्रीफ़िंग के लिए जो जनाब सलामी साहब ने दी और आदरणीय महिलाओं ने पेश की। हमारे प्यारे शहीद की तारीफ़ और उनके बारे में बड़े अच्छे और अहम जुमले जो इंसान के मन में उतर जाते हैं, इसी तरह उन कामों और सरगर्मियों का ज़िक्र जो आप हमारे इस अज़ीज़ की बरसी पर अंजाम दे रहे हैं। ये सारी वे चीज़ें हैं जो इंसान को ख़ुश करती हैं। अल्लाह का शुक्र कि शहीद के घरवाले भी, शहीद सुलैमानी की शहादत के बाद समाज में पुरजोश तरीक़े से सरगर्म हैं। यह भी हमारे प्रिय शहीद के ख़ून की बरकतों में है और यह हमारे लिए भी ख़ुशी की बात है।
ख़ैर, बातें तो बहुत की गयी हैं। इन दिनों इंसान अख़बार में, टीवी पर, इसकी, उसकी ज़बान से, जुमे की नमाज़ के ख़ुतबों में, हर जगह जहाँ जहाँ उसकी आँख कान काम करते हैं, अल्हमदो लिल्लाह शहीद क़ासिम सुलैमानी का ज़िक्र है। इससे इंसान ख़ुश होता है। हर कोई किसी न किसी अंदाज़ में उनके बारे में बात करता और उनकी तारीफ़ करता है, अलहम्दोलिल्लाह, अल्लाह का शुक्र है। जब ये चीज़ें दिखाई देती हैं तो ख़ुशी होती है। पिछले साल शहीद सुलैमानी की दूसरी बरसी थी, मैं पूरे समाज और दूसरी सतह पर देख रहा था, जो ख़बरें आ रही थीं, मैं महसूस कर रहा था कि बिना किसी प्रचार के, कहीं से कोई हुक्म जारी हुए बिना, लोग ख़ुद बख़ुद इस शहीद को श्रद्धांजलि पेश कर रहे थे। इस साल भी ऐसा ही है। अलहम्दोलिल्लाह इन मामलों में हमारे सामने कोई मुश्किल और कमी नहीं है।
शहीद सुलैमानी की बात की जाए तो कभी हम इस महान इंसान के व्यक्तिगत मामलों और व्यक्तिगत ख़ूबियों के बारे में बात करते हैं, जो बहुत अच्छा व बड़ा चैप्टर है। वह बहादुर थे, मोमिन थे, ज़िम्मेदार थे, जोखिम उठाने वाले थे, बुद्धिमान थे, अक़्लमंद थे, जब भी उन्हें यह लगता था कि कोई काम होना चाहिए या हो सकता है तो वह क़दम आगे बढ़ाते थे। उनके काम में रुकना, अनिर्णय की स्थिति और शक की गुंजाइश नहीं थी। ये उनकी निजी ख़ूबियां थीं। इस तरह की नुमायां ख़ूबियां उनमें काफ़ी थीं। सबसे बढ़ कर यह कि वह पाक नीयत इंसान थे। वह इस फ़िक्र में नहीं रहते थे कि उनका नाम हो, हैसियत बने, लोग जानें वग़ैरह वग़ैरह, पाक नीयती बहुत अहम है और मुझे लगता है कि उनका ख़ुलूस व पाक नीयती ही थी कि अल्लाह ने इस तरह उन्हें बदला दिया। यह दुनिया में मिलने वाला बदला है। यह सम्मान, यह श्रद्धांजलि, तारीफ़ और पता नहीं क्या क्या, ये सब शहीद सुलैमानी के कामों का दुनिया में मिलने वाला बदला है, आख़ेरत के बारे में हमारा दिमाग़, हमारी अक़्लें सोच भी नहीं सकतीं। वे इन चीज़ों से कहीं बुलंद हैं कि हम लोग उसके बारे में सोच भी सकें लेकिन यही चीज़ें जो हम दुनिया में देख रहे हैं, वह उनकी पाक नीयती का बदला है, यह भी उनकी व्यक्तिगत ख़ूबियों में से एक थी। बहुत साफ़ मन के थे, सच्चे इंसान थे, सीधी बात करते थे, हालांकि वे जटिल सियासी मामलों में सरगर्म होते थे, आगे बढ़ते थे और बड़े अच्छे अंदाज़ में काम भी करते थे लेकिन इसी के साथ वे बड़े बेलाग और धोखे से पाक इंसान थे। यह बहुत अहम है। वह जिस फ़ील्ड में भी काम करते थे, इसी अंदाज़ से करते थे। यह उनकी व्यक्तिगत ख़ूबियां हैं, ये वे चीज़ें हैं जिनसे हम इस सिलसिले में फ़ायदा उठा सकते हैं कि इन ख़ूबियों को देखें और इन्हें अपने अंदर पैदा करें। अगर ये ख़ूबियां हम में नहीं हैं तो इन्हें पैदा करें। हम वाक़ई ज़िम्मेदार बनें, वाक़ई नेक नीयत बनें, हक़ीक़त में अल्लाह के लिए काम करें, बेलाग और साफ़ मन वाले बनें। यह इस तरह की ख़ूबियां हैं।
दूसरा हिस्सा, शहीद सुलैमानी के काम से जुड़ी ख़ूबियों का है, यानी उनके काम की फ़ील्ड का है। मैं जब नज़र डालता हूं तो देखता हूं कि लोग ज़्यादातर दाइश के ख़िलाफ़ शहीद क़ासिम सुलैमानी की कोशिशों का ज़िक्र करते हैं, चाहे वह इराक़ में हो या सीरिया में, ठीक है, यह वाक़ई बहुत अहम काम था, हक़ीक़त में दाइश एक बला थी और है और शहीद सुलैमानी ने इस मैदान में बहुत अच्छा काम किया, अच्छी तरह आगे बढ़े, बहुत अच्छी तरह इस इम्तेहान में कामयाब हुए और उन तमाम व्यक्तिगत ख़ूबियों को जिनमें से कुछ की ओर मैंने इशारा किया, इस मामले में इस्तेमाल किया और बड़े फ़ितने का, जो दिन ब दिन फैलता ही जा रहा था, सिर कुचल दिया और उसकी बहुत सी जड़ों को काट दिया, यह बहुत अहम हिस्सा है, लेकिन शहीद क़ासिम सुलैमानी का सबसे अहम काम यह नहीं था बल्कि यह उनके कामों में से एक था। उनका ज़्यादा अहम काम, जिसे वह ओहदा संभालते ही अंजाम देने की कोशिश में थे, इलाक़े में रेज़िस्टेंस फ़्रंट को मज़बूत बनाना था, वही चीज़ जिसको लेकर साम्राज्यवाद बहुत नाराज़ है, मुख़्तलिफ़ मामलों में बराबर हमसे इस बात पर बहस करता है, तकरार करता है, “आप क्यों इलाक़े में सरगर्म हैं? क्यों फ़लां हुकूमत, फ़लां गिरोह या फ़लां शख़्स को सपोर्ट करते हैं?” यानी प्रतिरोध का मामला।
आज हमारे इलाक़े में एक हक़ीक़त मौजूद है जिसे हम रेज़िस्टेंस कहते हैं। यह रेज़िस्टेंस सिर्फ़ ज़ायोनी हुकूमत के मुक़ाबले में नहीं है बल्कि साम्राज्यवाद के वर्चस्व के मुक़ाबले में भी है। अलबत्ता बड़ा शैतान अमरीका ही साम्राज्यवाद का सरग़ना है, लेकिन यह सिर्फ़ अमरीका तक सीमित नहीं है, बल्कि दूसरी साम्राज्यवादी ताक़तें भी हैं। ये रेजिस्टेंस इन सब ताक़तों के मुक़ाबले में है। शहीद क़ासिम सुलैमानी ने, मेरी नज़र में, मेरे तजुर्बे के मुताबिक़ और जो कुछ मैंने महसूस किया उसके मुताबिक़, रेज़िस्टेंस के इस मोर्चे में नई जान डाल दी और उसके सामने एक नया रास्ता खोल दिया। उन्होंने इस मोर्चे को जोश व जज़्बे के लेहाज़ से भी लैस किया और भौतिक लेहाज़ से भी लैस किया। शहीद सुलैमानी के बारे में हमारे बेहद अज़ीज़ जनाब सैय्यद हसन नसरुल्लाह साबह की गवाही, जो वाक़ई एक बेमिसाल इंसान हैं, इस सिलसिले में एक अहम अध्याय है। वह गवाही देते हैं कि शहीद सुलैमानी ने रेजिस्टेंस को दोबारा ज़िन्दा किया। हम ख़ुद भी क़रीब से देखते थे कि इस सिलसिले में उनकी कोशिश, बड़ी नुमायां और अहम कोशिश थी। शहीद सुलैमानी का बुनियादी काम, हक़ीक़त में यही था, यानी रेज़िस्टेंस की हिफ़ाज़त, रेज़िस्टेंस को बढ़ावा देना, रेज़िस्टेंस को लैस करना तथा भौतिक व जोश व जज़्बे के लेहाज़ से रेजिस्टेंस में नई जान डालना। वह इन लोगों में मनोबल जगाते थे, मानसिक ख़ूबियां जगाते थे, रास्ता दिखाते थे, कभी उनका हाथ पकड़ते और उन्हें उस दिशा में ले जाते थे जहाँ उन्हें आत्मिक व मानसिक लेहाज़ से जाना चाहिए, भौतिक लेहाज़ से भी उन्होंने उनका हाथ मज़बूत किया।
हम भूले नहीं हैं, मैं ख़ुद उन बरसों की स्पीच में कहा करता था कि फ़िलिस्तीनी पत्थरों के ज़रिए लड़ रहे हैं, वाक़ई उस वक़्त फ़िलिस्तीनी, हाथ में पत्थर लेकर लड़ते थे, उनके पास कोई दूसरी चीज़ नहीं थी। अब आप उन हालात की आज के फ़िलिस्तीन से तुलना कीजिए, चाहे वह ग़ज़्ज़ा के हालात हों या जो कुछ वेस्ट बैंक में हो रहा है, क्या उनकी तुलना की जा सकती है? मतलब यह है कि रेज़िस्टेंस ने उन्हें ज़िन्दा कर दिया, दूसरा जीवन दिया, आंतरिक संसाधन से, पाक डिफ़ेन्स के दौर के अपने तजुर्बों के सहारे, दूसरों से मिलने वाले अच्छे सुझाव के ज़रिए। शहीद सुलैमानी ने इस सिलसिले में बहुत बड़ा कारनामा किया। इसे जारी रहना चाहिए। क़ाआनी साहब ने अलहम्दो लिल्लाह बहुत अच्छा काम किया है, ख़ूब आगे बढ़े हैं और कुछ मामलों में उन्होंने उस कमी को अल्लाह के करम से पूरा कर दिया है। काम आगे बढ़ रहा है और उसे आगे बढ़ना ही चाहिए, मतलब यह कि रास्ता और दिशा यही है, इलाक़े में रेजिस्टेंस की दिशा बहुत अहम मामला है। रेजिस्टेंस का पूरा मोर्चा ख़ुद को इस्लाम का बाज़ू, इस्लामी सिस्टम का बाज़ू समझता है, यह एक मामला है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
शहीद क़ासिम सुलैमानी के बारे में एक दूसरा बिन्दु जो मैं बयान करना चाहता हूं यह है कि उनकी ख़ूबियां बेमिसाल हैं लेकिन जो लोग भी उनके बारे में बात करते हैं उन्हें इस बात का ध्यान रहे कि शहीद सुलैमानी की ख़ूबियों को इस तरह बयान न करें कि उन्हें हासिल करना नामुमकिन लगने लगे। यह एक ज़िन्दा इंसान की ख़ूबियां हैं जो हमारे सामने है। “जो खाना खाता है और बाज़ारों में चलता फिरता है” (2) मतलब यह कि ऐसा न हो कि यह सोच पैदा हो जाए कि यह मक़ाम हासिल करना नामुमकिन है! जी नहीं! शहीद सुलैमानी ज़िन्दा थे और किसी को भी उनकी ख़ूबियों के बारे में पता नहीं था। इस वक़्त भी ऐसे लोग हैं जिनके बारे में किसी को नहीं पता कि वे कौन हैं। अगर उन्हें शहादत नसीब हो तो शायद वे जो कुछ हैं, उसके कुछ हिस्से सामने आ जाएं, समझ में आ जाएं, जान लिए जाएं। इस प्वाइंट पर ध्यान दीजिए।
एक और बात जो हमारी बातचीत का आख़िरी प्वाइंट है, यह है कि शहीद सुलैमानी का नाम ज़िन्दा रहना चाहिए। सभी शहीदों के नाम ज़िन्दा रहने चाहिए। ऐसा न हो कि उन पर फ़रामोशी की गर्द बैठ जाए। शहीद क़ासिम सुलैमानी सबसे नुमायां शहीदों में शामिल हैं। उनका नाम ज़िन्दा रहना चाहिए। उनके ज़िन्दा रहने के एक हिस्से का संबंध हमारी और आपकी कोशिशों से है और इसके एक हिस्से का तअल्लुक़ अल्लाह से है, अल्लाह का काम है जिसका हमसे कोई तअल्लुक़ नहीं है और ख़ुद अल्लाह उनका नाम ज़िन्दा रखेगा, लेकिन एक हिस्सा बहरहाल हमारा और आपका काम है। बिल्कुल इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के विषय की तरह। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अल्लाह ने ज़िन्दा रखा है लेकिन अगर हम और आप मजलिस न करें, मातम न करें, ज़िक्र न करें, मिंबर पर न जाएं, उन पर पड़ने वाली मुसीबतों को बयान न करें तो यह चीज़ अमली शक्ल अख़्तियार नहीं कर पाएगी। मतलब यह कि अल्लाह के इरादे के लिए संसाधन ज़रूरी हैं, अल्लाह ख़ुद ही संसाधन भी पैदा करता है, लेकिन उन संसाधनों के ज़रिए काम अंजाम पाता है और वे संसाधन हम और आप हैं। और तेरे ही लुत्फ़ से संसाधन मुहैया होते हैं (3) लेकिन संसाधन को मौजूद होना चाहिए और ये सब सबब हैं।
तो हमें, जो संसाधन के तौर पर हैं, किस तरह काम करना चाहिए? अभी जब मैं आ रहा था तो टीवी पर किरमान के शहीदों के मज़ार और शहीद क़ासिम सुलैमानी के मज़ार के आस-पास के मंज़र दिखाए जा रहे थे, बहुत ज़्यादा भीड़ थी। यह भीड़ बहरहाल है लेकिन कब तक रहेगी? कितने साल तक? हम इसका अंदाज़ा नहीं लगा सकते, लेकिन हम ऐसा काम कर सकते हैं कि यह यक़ीनी हो जाए, किस तरह? मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से शहीद सुलैमानी की व्यक्तिगत व सामाजिक ख़ूबियों को ज़िन्दा रख कर और ख़ास तौर पर कला के ज़रिए। यह तरीक़ा है, आपने बताया, इन मोहतरमा ने भी बताया कि मुख़्तलिफ़ वर्गों के लिए किताबें तैय्यार करने का प्लान है, यह अच्छा है लेकिन किताब, काम का एक हिस्सा है, डॉक्यूमेंट्री बनाना, फ़िल्म बनाना, सीरियल बनाना, कहानी की शक्ल में उनका ज़िक्र, ये सब अहम है, उनका असर होता है। ख़ुद शहीद सुलैमानी के बारे में भी और ख़ास तौर पर अबू महदी अलमोहन्दिस रिज़वानुल्लाह अलैह के बारे में भी कि वाक़ई वह भी एक बेमिसाल इंसान थे, बहुत ही अज़ीम थे। वह भी पाक नीयत के इंसान थे, उनकी पाक नीयती की वजह से ही अल्लाह ने इस तरह उन्हें अपने लुत्फ़ और अपनी रहमत अता की और इसी तरह उनके दूसरे साथी और दूसरे लोग भी हैं जो उनके साथ शहीद हुए। या जो लोग जंग के मैदान में और दूसरी जगहों पर उनके साथ रहे, इन चीज़ों को फैलाना चाहिए, उनकी यादों को बाक़ी रखने के लिए मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से ख़ास तौर पर कला के ज़रिए बाक़ी रखने के लिए कोई प्रोग्राम बनाया जाना चाहिए।
अल्लाह उनके दर्जे बुलंद करे इंशाअल्लाह अल्लाह हमें उनसे मिला दे इंशाअल्लाह। हमें उनकी क़द्र समझने की तौफ़ीक़ धे। उनकी तवज्जो, उनकी दुआ और उनकी शिफ़ाअत हमें नसीब हो इंशाअल्लाह। जैसे दुनिया में हमारी बड़ी क़ुरबत थी, हम बहुत अच्छे दोस्थ थे, अल्लाह करे कि आख़ेरत में भी हम ऐसी ही रहें, हमारी आपस में क़ुरबत रहे। हमारा रिश्ता बेहतरीन रहे, हमारी दोस्ती रहे, इंशाअल्लाह।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह