इस्लामी इन्क़ेलाब के नेता की मुख़्तलिफ़ मौक़ों की तक़रीरों की रौश्नी में हज़रत ज़हरा की शख़्सियत और सीरत का जायज़ा
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की ज़िन्दगी पर ध्यान देना चाहिए, नई सोच के साथ उनकी ज़िन्दगी को पहचानना चाहिए, उसे समझना चाहिए और सही अर्थों में उसे आइडियल बनाना चाहिए। (19/4/2014) हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शख़्सियत ठीक जवानी की हालत में उन सभी ग़ैरतमंद व मोमिन मर्द और औरत यहाँ तक ग़ैर मुसलमान मर्द और औरत के लिए आइडियल है जो आपकी महानता और रुतबे को पहचानते हैं। हमें उनकी ज़िन्दगी से सबक़ लेना चाहिए। (13/12/1989)
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा पर फ़रिश्तों का दुरूद व सलाम
रूहानी पहलुओं से देखा जाए तो हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा वह हस्ती हैं कि जब इबादत के लिए खड़ी होती हैं तो अल्लाह के बहुत ही क़रीबी हज़ारों फ़रिश्ते उनसे बातें करते थे, उन्हें सलाम करते थे, बधाई देते थे और वही बातें कहते थे जो फ़रिश्तों ने पहले पाक व पाकीज़ा हज़रत मरयम से कही थीं, वे कहते थेः हे फ़ातेमा बेशक अल्लाह ने आपको चुन लिया है, आपको पाकीज़ा बनाया है और पूरी कायनात की औरतों में से आपको चुन लिया है। (16/01/1990) रिवायतों में भी है कि हज़रत मरयम अपने दौर की औरतों की सरदार थीं लेकिन हज़रत फ़ातेमा ज़हरा, इतिहास के हर दौर की औरतों की सरदार हैं। (7/8/2004) यह जवान महिला, इतनी ज़्यादा इबादत करती थीं और नमाज़ें पढ़ती थीं कि आपके पैरों में सूजन आ जाती थी। (15/12/1992) जवानी की उम्र में वह रूहानी लेहाज़ से ऐसे दर्जे पर पहुंच जाती हैं कि फ़रिश्ते उनसे बात करते हैं और उन्हें हक़ीक़तों का इल्म देते हैं, हक़ीक़तें उनके सामने पेश करते हैं। (16/1/1990) दूसरी ओर वह सिद्दीक़ए कुबरा भी थीं। सिद्दीक़ का क्या मतलब है? सिद्दीक़ वह शख़्स है जो अपने मन से जो कुछ सोचता और ज़बान से कहता है, उस पर सच्चे मन से अमल करता है। (27/7/2005)
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के संघर्ष के मुख़्तलिफ़ पहलू
जब हम हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की इबादत और उनके रूहानी दर्जे की बात करते हैं तो कुछ लोग सोचते हैं कि वह इंसान जो इबादत कर रहा है और एक आबिद, इबादत के मेहराब में में रोने वाला, दुआएं मांगने वाला और ज़िक्र पढ़ने वाला, एक सियासी इंसान नहीं हो सकता। या कुछ लोग सोचते हैं कि जो सियासत वाला है वह यह नहीं कर सकता। अगर एक औरत है तो घरेलू औरत रहे। उनकी सोच यह है कि यह चीज़ें एक साथ जमा नहीं हो सकतीं। (13/12/1989) जबकि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने इन तीनों चीज़ों को एक दूसरे से अलग नहीं किया। (13/12/1989) और अगर हम उनकी ज़िन्दगी पर नज़र डालें तो देखेंगे कि यह ज़िन्दगी, जेहाद, जिद्दो जेहद, कोशिश, इन्क़ेलाबी काम, इन्क़ेलाबी सब्र, दर्स, सीखने सिखाने, तक़रीर, पैग़म्बर की हिमायत, इमाम की हिमायत, इस्लामी व्यवस्था का समर्थन करने के लेहाज़ से जिद्दो जेहद और संघर्ष का अथाह सागर है। (16/1/1990)
इनमें से कुछ पहलुओं की वज़ाहत
विलायत के अधिकार का इल्मी अंदाज़ में समर्थन
पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के इंतेक़ाल के बाद पेश आने वाली अहम सियासी घटनाओं में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा सच बयान करने के संघर्ष के लेहाज़ से सही अर्थों में एक अथक मेहनत करने वाली मुजाहेदा हैं। (13/12/1989) उस बहुत ही कठिन हालात में पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी मस्जिद में तशरीफ़ लाती हैं और बहुत ही हैरतअंगेज़ तक़रीर के ज़रिए तथ्यों को पेश कर देती हैं।(19/3/2017) यह सच बयान करने का अंदाज़, इल्मी अंदाज़ है। उस तक़रीर के आग़ाज़ में उनकी फ़सीह ज़बान से हिकमत और मारेफ़त के चश्मे फूटते हैं, उस तक़रीर में इस्लामी तालीम को सबसे ऊंची सतह पर बयान किया गया है और हम उसे समझ भी सकते हैं। (3/6/2010) यह ऐसा ख़ुतबा है जो अल्लामा मजलिसी के बक़ौल ʺबड़े बड़े वक्ताओं और विद्वानों को बैठ कर उसके लफ़्जों और जुमलों की तशरीह करना चाहिए!ʺ यह मानी से भरी हुई स्पीच है। (16/12/1992)
समाज की अगुवाई और हिदायत
समाजी मामलों में रोल अदा करने के लेहाज़ से हमारी रिवायतों और किताबों से पता चलता है कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के पास सिर्फ़ पैग़म्बरी और इमामत की ज़िम्मेदारी नहीं थी वरना रूहानी लेहाज़ से पैग़म्बरे इस्लाम और अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम और उनमें कोई फ़र्क़ नहीं था। अट्ठारह साल की उम्र में एक जवान महिला, रूहानियत, आत्मज्ञान औह हिकमत के सबसे ऊंचे स्थान पर पहुंच गयी हैं और अपनी बात कहने, सियासी व समाजी मामलों की समीक्षा, दूरअंदेशी और अपने ज़माने के सबसे कठिन मामलों का सामना करने की उनमें ताक़त आ गयी है। (29/11/1993) इसलिए पूरे यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि अगर फ़ातेमा ज़हरा मर्द होतीं तो पैग़म्बर होतीं। यह बहुत बड़ी बात है, बहुत ही हैरतअंगेज़ बात है... यानी एक मुकम्मल रहनुमा, एक पैग़म्बर की तरह, आम लोगों की हिदायत करने वाले की तरह। (19/3/2017)
संघर्ष में वालिद और शौहर की मददगार
औरत की हैसियत से संघर्ष और फ़ैमिली के भीतर ज़िम्मेदारी निभाने की नज़र से भी, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा नमूना हैं। मिसाल के तौर पर शेबे अबी तालिब की घटना में इस बच्ची ने पैग़म्बर के लिए नजात के फ़रिश्ते की तरह, अपने वालिद के लिए एक माँ की तरह, उस अज़ीम इंसान के लिए एक तीमारदार की तरह मुश्किलों को बर्दाश्त किया, पैग़म्बर के दुख में भागीदर बन गयीं।(16/12/1992) उसके बाद हज़रत अबू तालिब और हज़रत ख़दीजए कुबरा के इंतेक़ाल के बाद पैग़म्बरे इस्लाम बिल्कुल अकेले हैं, फ़ातेमा ज़हरा, यह कुछ साल की बच्ची वह अकेली हस्ती हैं जिससे पैग़म्बरे इस्लाम अपनी पूरी अज़मत के साथ जुड़े हुए हैं। यह जुमला “फ़ातेमा अपने बाप की माँ है” उसी वक़्त का है। (20/9/1994) इसके मुक़ाबले में जब एक आयत नाज़िल हुयी और मुसलमानों के लिए ज़रूरी क़रार दिया गया कि वे पैग़म्बरे इस्लाम को “हे अल्लाह के रसूल” कह कर पुकारा करें तो जब पैग़म्बरे इस्लाम अपने घर पहुंचे और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने आकर उन्हें सलाम किया और कहा “हे अल्लाह के पैग़म्बर आप पर सलाम हो” तो पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें गले से लगा लिया और कहाः यह तुम्हारे लिए नहीं है, तुम मुझे हे बाबा ही कहो, इससे मुझे सुकून मिलता है, इससे मुझे ख़ुशी मिलती है। यह पैग़म्बरे इस्लाम के नज़दीक हज़रत फ़ातेमा का दर्जा है, प्यार है। (12/3/1985) अगर शौहर की बात की जाए तो कोई भी साल बल्कि कोई भी छह महीना नहीं गुज़रा कि यह शौहर अल्लाह की राह में जेहाद के लिए रवाना न हुआ हो और जंग के मैदान में न गया हो और इस अज़ीम और क़ुरबानी देने वाली ख़ातून ने एक मुजाहिद मर्द, एक सिपाही और जंग के मैदान के एक मुस्तक़िल कमांडर का पूरी तरह साथ न दिया हो। (16/1/1990)
अमीरूल मोमेनीन अलैहिस्सलाम हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के बारे में फ़रमाते हैः उन्होंने हमारी शादीशुदा ज़िन्दगी के दौरान एक बार भी मुझे ग़ुस्सा नहीं दिलाया और एक बार भी मेरी बात मानने से इंकार नहीं किया। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा इतनी महान ख़ातून होने के बावजूद घर के माहौल में एक बीवी और घरेलू महिला हैं। (16/12/1992)
अपने अमल से अवाम को सादा जीवन गुज़ारने की तालीम
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के जेहाद का तरीक़ा यह था कि वह अपने अमल से समाज को तालीम देती थीं। इसकी मिसाल “हल अता” सूरा नाज़िल होने के हालात हैं कि जब उन्होंने अपनी और अपने घर के सभी लोगों की भूख को बर्दाश्त किया और यतीम, ग़रीब और क़ैदी की मदद की। तो हल अता सूरा नाज़िल हुआ (15/2/2020) और समाज के ध्यान को इन वैल्यूज़ की ओर मोड़ा। इसी तरह जब फ़तह और जंग में मिलने वाले माले ग़नीमत का रास्ता खुल गया तो पैग़म्बरे इस्लाम की बेटी ने दुनिया की लज़्ज़तों, शानो शौकत, ऐश व आराम, इन चीज़ों को अपने पास फटकने भी नहीं दिया जिनके लिए जवान लड़कियों और औरतों के दिल मचलते रहते हैं। 16/12/192)
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा हर मुसलमान इंसान के लिए नमूना
यह हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की ख़ुसूसियतें हैं। हमें उन्हें आइडियल और आदर्श के तौर पर देखना चाहिए और अपने आपको उनके क़रीब करना चाहिए। (30/3/2016) उन्हें आइडियल बनाने का मतलब यह है कि हम भी फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के रास्ते पर चलें। हम भी दरगुज़र करें, कुर्बानी दें, अल्लाह की इताअत करें, इबादत करें, हम भी तमाम हालात में हक़ को सामने लाने की कोशिश करें। हम भी किसी से न डरें। क्या हम यह नहीं कहते कि हज़रत फ़ातेमा अपने ज़माने के बड़े समाज के सामने अकेले डट गयीं? (26/12/1991) इसीलिए सियासी, समाजी और जेहादी पहलुओं से हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शख़्सियत एक ऐसी नुमायां शख़्सियत है जिससे दुनिया की सभी मुजाहिद, इन्क़ेलाबी, नुमायां और सियासी औरतें सीख हासिल कर सकती हैं। (16/1/1990)
आख़िरी बात यह है कि इस्लाम की इस अज़ीम महिला की ज़िन्दगी यह बताती है कि मुसलमान औरतें सियासत के मैदान में, काम के मैदान में उतरने के लिए और तालीम, इबादत, शौहरदारी और बच्चों की तरबियत के साथ समाज में सरगर्म रोल अदा करने के लिए हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की पैरवी कर सकती है। (8/12/1993)