बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

सबसे पहले तो मैं आप भाइयों व बहनों को ख़ुश आमदीद कहता हूं जो इस हुसैनी सभा में हाज़िर हुए हैं और अल्लाह की कृपा से इस सभा में शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शोक सभा की ख़ुशबू रच बस गयी है।

मातमी अंजुमनें, हमारे मुस्लिम समाज में हुसैनी आंदोलन की चमकती किरन

हमारे अवाम के लिए मातमी अंजुमनों का विषय रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा है और लोगों के ज़ेहन और आँखों को इन्हें देखने की आदत है। लेकिन अगर कोई ज़्यादा बारीकी और हक़ीक़त की नज़रों से देखे तो यह हमारे मुस्लिम समाज में हुसैनी आंदोलन की झलक का आईना और इस महान ख़ुदाई आंदोलन की लगातार जारी बर्कतों और भलाइयों में से एक है। इमाम हुसैन इब्ने अली अलैहिस्सलाम के आंदोलन के सिलसिले में आप ईरान के अवाम और दुनिया भर के शियों की अज़ादारी के रिकॉर्ड पर ध्यान दें तो आप देखेंगे कि अज़ादारी की यह परंपरा व रिवायत मौजूदा शक्ल में सभी दौर में अनेक तरह के सामाजिक हालात में मौजूद रही है।  दुश्मन शियों की इस पवित्र व मातमी रिवायत को उनसे नहीं छीन सके और यह चीज़ अज़ादारी के संबंध में अवाम के दिलों और मुसलमानों के ईमान और आस्था में पाई जाने वाली गहराई को बताती है, चाहे यह अज़ादारी की शोकसभा की शक्ल में हो या मातमी अंजुमनों की शक्ल में हो।

रज़ा ख़ान के घुटन भरे दौर में भी मजलिसों और अज़ादारी का सिलसिला नहीं रुका

इन अंजुमनों की क्षमताएं बहुत ज़्यादा हैं। आप देखिए कि रज़ा ख़ान के घुटन भरे दौर में भी, जब अवाम हर क़दम पर, छोटे से छोटे क़दम पर भी रज़ा ख़ान की तानाशाही के एजेंट जो इस्लाम के ख़िलाफ़ और शियों के मातमी रीति रिवाजों के विरोधी थे, पैनी नज़र रखते थे और उन पर कड़ाई करते थे, दबाव डालते थे और सज़ाएं देते थे, यहाँ तक कि घरों के भीतर और सुबह की अज़ान से पहले होने वाली मजलिसों पर भी नज़र रखते थे और अगर वह किसी मजलिस या मर्सिया पढ़ने वाले को देखते कि वह सुबह की अज़ान से पहले एक जगह से दूसरी जगह जा रहा है और अगर उन्हें मालूम होता कि यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के किसी मुसलमान आशिक़ के घर में चुपके से मर्सिया पढ़ने जा रहा है तो वह उसका पीछा करते और कभी कभी जेल में भी डाल देते थे। ऐसे हालात में भी मातमी अंजुमनों का काम नहीं रुका, उस दौर में जो लोग थे, उन्होंने हमें बताया कि नवीं और दसवीं मोहर्रम और इन दो दिनों से पहले और बाद के दिनों में लोग, शहरों से बाहर चले जाते थे, आबादी से दूर चले जाते थे, हाइवे से दूर, कभी कभी खंडहरों में, रज़ा ख़ान की पुलिस की पहुंच से दूर ग्रामीण इलाक़ों में, वहाँ जाकर मातमी जुलूस निकालते और अज़ादारी करते थे। यह कैसा ईमान है? कैसी अटूट अक़ीदत व मोहब्बत है जो इन मातमी अंजुमनों के ज़रिए आगे बढ़ती है? यह मामले का एक रुख़ है।

सन 1963 के आंदोलन और इस्लामी इंक़ेलाब में मातमी अंजुमनों का प्रदर्शन में रोल और उनकी इंक़ेलाबी भूमिका

उस वक़्त जब तेहरान और कुछ दूसरी जगहों के लोग और उलमा और आंदोनल के नेतृत्व की रक्षा के लिए 12 मोहर्रम और 5 जून सन 1963 को प्रोटेस्ट करना चाहते थे तो वे मातमी अंजुमनों की शक्ल में ही बाहर निकलते हैं और तेहरान की सड़कों पर मातम करते हैं, ज़ंजीर का मातम करते हैं और अज़ादारी करते हैं लेकिन उनके नौहे, ज़ालिम, तानाशाह व भ्रष्ट पहलवी शासन के ख़िलाफ़ एतेराज़ से भरे होते हैं जिसने उनके इमाम व नेता, इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह को 5 जून सन 1963 को गिरफ़्तार कर लिया था, अर्थात ये मातमी जुलूस, इंक़ेलाबी स्वरूप हासिल कर लेता है और इसमें हैरत की कोई बात नहीं है, ख़ुद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का वाक़ेआ, एक इंक़ेलाबी वाक़ेआ है, उनके आंदोलन का जो असर बाक़ी है, उसे इसी दिशा और इसी मक़सद की राह में आगे बढ़ना भी चाहिए। आंदोलन के आख़िरी साल में इंक़ेलाब की कामयाबी भी निःसंदेह बड़ी हद तक इन्हीं मातमी अंजुमनों की देन है। पूरे मुल्क में हर जगह सन 1979 के आशूरा और मोहर्रम में लोगों ने मातमी अंजुमनों को इस दुष्ट शासन के ख़िलाफ़ क़ौम के भरपूर एतेराज़ जताने, इमाम ख़ुमैनी और इस्लामी व्यवस्था का समर्थन करने का ज़रिया बना दिया। तो यह मातमी अंजुमनों की क्षमताएं हैं। घुटन के दौर में, लोगों के छोटे छोटे गुट रज़ा ख़ान की पुलिस की नज़रों से दूर, एकांत में और आबादी से दूर जगहों पर वजूद में आते थे और फिर सन 1979 में और उसके बाद के बरसों में पूरी दुनिया के लोगों की नज़रों के सामने और दुनिया भर के टीवी कैमरों के सामने ये अंजुमनें अपना काम करती रही हैं, यह ईरानी क़ौम के रुझान और उनकी इच्छा को प्रदर्शित करती है। ये अंजुमनें कितनी अहम हैं।

मातमी अंजुमनें, पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत से हमारी क़ौम की आस्था व लगाव की हिफ़ाज़त का ज़रिया

इन सबके अलावा पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत से इश्क़ व लगाव, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से इश्क़, शहीदों के सरदार के साथियों से इश्क़ व आस्था, आशूर की घटना पर गहरा दुख, इन मातमी अंजुमनों की असली पहचान है। यह आम बात नहीं हैं। कोई यह न सोचे कि मातमी अंजुमनें यूंही एक चीज़ है, अगर हुई तो हुई, न हुई तो न हुई, ऐसा नहीं है। मातमी अंजुमनें, अस्ल में पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत से हमारी क़ौम की आस्था व लगाव की हिफ़ाज़त का ज़रिया हैं, मौजूदा दौर को आशूरा के दिन से जोड़ने वाली मज़बूत कड़ियां हैं, उस दिन की भावनाओं की तसवीर हमारे लिए आज पेश करती हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद को ताज़ा करती हैं। बरसों से इस्लाम, क़ुरआन और अहलेबैत के दुश्मन पूरी कोशिश में लगे हैं कि समाज के माहौल को,  अज़ादारी से दूर कर दें लेकिन जब मोहर्रम आता है, आशूर के दिन आते हैं, ये हुसैनी अंजुमनें काम करने लगती हैं, सड़कों पर, गलियों में, लोगों की ज़िन्दगी के माहौल में बारिश के पानी की तरह जो गंदगी को धो देता और माहौल को साफ़ बना देता है, उसी तरह ये अंजुमनें भी समाज के माहौल को धो देती हैं और माहौल में दुश्मन की ओर से तैयार की गयी, फैलाई गयी ग़लत बातों को धोकर माहौल को पाक बना देती हैं।  

अंजुमनों के ज़िम्मेदारों और अवाम की ओर से मौकिबों और मातमी दस्तों की क़द्रदानी ज़रूरी

इन अंजुमनों की बहुत ज़्यादा क़द्र कीजिए, आप भी, जो इन अंजुमनों के ज़िम्मेदार हैं, सच में इस काम को एक अहम व बुनियादी काम समझिए, ईमान व मोहब्बत की वजह से पैदा होने वाली ज़िम्मेदारी समझिए और अक़ीदत व लगाव से पैदा होने वाली ज़िम्मेदारी समझिए और मातमी अंजुमनों के मामले को अहमियत दीजिए और इनको बेहतर से बेहतर बनाने के लिए जो भी काम मुमकिन हो, कीजिए, इसी तरह अवाम भी इन अंजुमनों की क़द्र करें। लोग स्वाभाविक तौर पर मातमी अंजुमनों के मेंबर होते हैं। आप देखते हैं कि वह अज़ादारी के इन मौकिबों में जाते हैं-हर कोई अपने अपने तौर पर- इन अंजुमनों में शामिल हो जाते हैं और उनके साथ अज़ादारी करते हैं, उनकी अज़ादारी को देखते हैं, आंसू बहाते हैं और उनकी हालत, ग़मज़दा इंसानों और अज़ादारी वाली हो जाती है। बहुत बड़ा वाक़ेआ है।

पहले और दूसरे पहलवी हुक्मरानों की मातमी अंजुमनों को कमज़ोर और ख़त्म करने की कोशिश

दुनिया में कहीं भी कोई ऐसा साधन नहीं है कि जिसके मुक़ाबले में दुश्मन की सभी तलवारें कुन्द हों, दुश्मन के सभी प्रोपैगंडे इस साधन के मुक़ाबले में नाकाम हो जाएं। बहुत कोशिश की गयी कि इसे ख़त्म कर दिया जाए लेकिन दुश्मन के हाथ नाकामी ही लगी। यह रज़ा ख़ान के दौर की बात है। उसके बाद बहुत कोशिश की गयी कि इसे रास्ते से हटा दिया जाए, पलट दिया जाए। मैंने दूसरे पहलवी शासक की सरकश हुकूमत के दौर में देखा था और जानता था कि समाज के अनेक हल्क़ों में इन मातमी अंजुमनों को बुरे लोगों के हाथों में दिया जाता था ताकि अंजुमनों को लोगों की नज़रों से गिरा दिया जाए लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके। मातमी अंजुमनें, मातमी अंजुमनें ही रहीं, अज़ादारी की अंजुमनें, अज़ादारी की अंजुमनें ही रहीं। यह माना जा सकता है कि कुछ दिनों तक कुछ ख़राब लोग किसी अंजुमन में रहे हों, लेकिन वह ख़त्म हो गए, मिट गए जबकि अंजुमनें बाक़ी रहीं जैसा कि सच्चाई का मेज़ाज होता है। बहुत ज़्यादा कोशिश की गयी ताकि इन अंजुमनों को हुसैनी माहौल से निकाल दिया जाए, लेकिन इसमें नाकामी ही हाथ लगी।

हुसैनी आंदोलन के परचमदारों में बड़े धर्मगुरू, आरिफ़ और आम लोग सब शामिल

आप प्यारे भाइयों से मेरी दर्ख़्वास्त है कि अपने आपको हुसैनी आंदोलन का परचमदार समझें। हुसैनी अज़ादारी की पताका आपके हाथ में है। यह बहुत बड़ा दर्जा है, यह बड़ी पाकीज़ा ज़िम्मेदारी है। अगर आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन ख़त्म हो गया होता तो इमाम हुसैन को फिर अलमदार की ज़रूरत न होती, लेकिन बात यह है कि हुसैनी आंदोलन, उनके मासूम बेटे हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के आंदोलन तक बाक़ी है, हमारी जानें फ़िदा हों वक़्त के महान इमाम, अल्लाह की आख़िरी हुज्जत पर अल्लाह उने जल्द से जल्द प्रकट करे। यह आंदोलन ख़त्म होने वाला तो नहीं है। जैसे जैसे वक़्त गुज़रा है, वैसे वैसे हुसैनी आंदोलन का दायरा फैलता गया है, उसमें छिपे गहरे अर्थ और स्पष्ट होते गए, इस आंदोलन के हर हिस्से का एक परचमदार है। वरिष्ठ मातमी जगत, हुसैनी आंदोलन का एक भाग है और इसके अलमदार वरिष्ठ धर्मगुरू हैं, अध्यात्म व आत्मज्ञान की दुनिया, हुसैनी आंदोलन का एक हिस्सा है और  इसके परचमदार, आत्मज्ञानी हैं, आम ज़िन्दगी का विशाल मैदान जो इस्लाम की ओर बढ़ रहा है और इस्लामी आंदोलन, इस्लामी इंक़ेलाब और इस्लामी हुकूमत, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन का एक हिस्सा है, इसके भी ख़ास अलमदार हैं, अवाम के बीच इस आंदोलन के कल्चर का बाक़ी रहना भी इस आंदोलन का एक हिस्सा है, इसके अलमदार वह लोग हैं जो हुसैनी अज़ादारी का आयोजन करते हैं, जिसमें आप भी हैं। आप इमाम हुसैन के आंदोलन के परचमदार हैं, इस परचम की क़द्र को समझिए, जो सकी शान के लायक़ है, उस तरह से यह काम अंजाम दीजिए।  

इस्लामी इंक़ेलाब से पहले और बाद में अवाम में ईमान को बाक़ी रखने और उसे बढ़ाने में मातमी अंजुमनों का सार्थक रोल

आपने देखा कि सन 1979 में आपकी इन्हीं मातमी अंजुमनों ने अवाम के बीच सच्चाई को पहुंचाने में कितना बड़ा रोल अदा किया। लोग सड़कों पर रास्ता चलते थे और अज़ादारी के नौहे उनके लिए उस वक़्त की बेहतरीन राजनैतिक व इंक़ेलाबी टिप्पणी हुआ करती थीं जो सच्चाई को बयां करते थे, सन 1963 में भी ऐसा ही था, थोपी गयी जंग के ज़माने में भी ऐसा ही था। आज भी ऐसा ही है। आज आप देख रहे हैं कि इस्लामी जगत को किस तरह के दुश्मनों का सामना है? आज आप देख रहे हैं कि दुष्ट ज़ायोनी, दुनिया में क्या कर रहे हैं? आप देख रहे हैं कि अमरीका, अंतर्राष्ट्रीय बदमाश व तानाशाह की हैसियत से आज किस तरह इस्लाम और इस्लामी आंदोलन का मुख़ालिफ़ है? आप देख रहे हैं कि किस तरह दुनिया भर के सरकश आज इस्लाम के ख़िलाफ़ दुश्मनी रखते हैं? क्योंकि इस्लाम और क़ुरआन ने उन्हें तमांचा लगाया है। दूसरी ओर आप यह भी देख रहे हैं कि किस तरह दुनिया में हर जगह मुस्लिम क़ौमों की भावना इस्लामी आदेश, इस्लामी शिक्षाओं और इस्लामी शासन के लिए मचल रहे हैं? अतीत में इस्लामी मुल्कों के अवाम संवेदनहीनता के शिकार थे, कोई क़दम नहीं उठाते थे, कोशिश नहीं करते थे, इस्लाम के लिए उनका दिल नहीं तड़पता था लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज दुनिया में हर जगह मुस्लम क़ौमें चाहे शिया हों या ग़ैर शिया, यह चीज़ शियों से विशेष नहीं है, इस इस्लामी मरकज़ अर्थात इस्लामी देश ईरान में इस्लाम के लहराते पर्चम से लगाव और मोहब्बत का एहसास करते हैं। और आप दुश्मन की इच्छा के ख़िलाफ़ दुनिया में इस्लाम की दिन ब दिन तरक़्क़ी व असर को देख रहे हैं। आप देख रहे हैं कि अल्लाह की कृपा से इस्लामी ईरान दुनिया में दिन ब दिन ज़्यादा लोकप्रिय होता गया और ज़्यादा पसंद किया जा रहा है और इसी तरह मुस्लिम जगत से भी लगाव बढ़ता जा रहा है। ये सारी वे बातें हैं जिन्हें आपकी मातमी अंजुमनें खुल्लम खुल्ला बयां कर सकती हैं।

अज़ादारी से क़मा की बिदअत को दूर करने के सिलसिले में इमाम हुसैन के आशिक़ नौजवानों की जागरुकता

हुसैनी अज़ादारों का मातम वह ज़रिया है जो अहलेबैत अलैहिस्सलाम की मोहब्बत और विलायत को एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक पहुंचा सकता है। दुश्मन आपके मातमी रीति-रिवाजों को आपके हाथों से छीनने न पाए। दुश्मनों का एक रास्ता यह है कि उन्हें ग़लत रीति रिवाजों और अंधविश्वास से दूषित कर दें। मगर इस साल आप लोगों की जागरुकता और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आशिक़ और मोमिन नौजवानों के मज़बूत ईमान की बदौलत दुश्मन के हाथों का बहाना बनने वाली एक चीज़ का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से ख़त्म हो गया, वह क़मा लगाने का मसला था। हुसैनी अंजुमनों की आज़ादारी-अर्थात यही आम अज़ादारी जो सदियों से जारी है और लोग घरों से बाहर निकल आते हैं, सड़कों पर अज़ादारी करते हैं और ग़म ज़ाहिर करने के लिए मातम करते है-हुसैनी आंदोलन का बड़ा अहम प्लेटफ़ार्म है जो हमारे मुल्क में हर जगह और जहाँ भी अहलेबैत के चाहने वाले, उनसे अक़ीदत रखने वाले, ख़ास तौर पर शिया हैं, वहाँ इसकी रौनक़ है और दिन ब दिन इसकी रौनक़ बढ़नी चाहिए।

इमाम हुसैन, उनका ख़ानदान और आशूरा के शहीद, अज़ादारों के ईमान के मुहाफ़िज़

लोग, अंजुमन की क़द्रदानी करें। ख़ुद मातमी अंजुमनों को इस पूंजी की क़द्र समझनी चाहिए और इंशाअल्लाह शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, उनका ख़ानदान, उनके साथी और महान आशूरा के शहीद अपनी महान आत्मा के साथ आपके इस ईमानी, इस्लामी और ज़ज़्बाती अमल के मुहाफ़िज़ हैं।

हमें उम्मीद है कि दिन ब दिन यह  हुसैनी मरकज़ तरक़्क़ी करते रहेंगे और यह पर्चम और ज़्यादा बुलंद होगा और इंशाअल्लाह आप सब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अपना इनाम पाएंगे और हम सब हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम की अज़ादारी की सेवा करने वालों में शामिल होंगे, अपनी उम्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम के पाक घराने की मोहब्बत में पूरी करेंगे और इंशाअल्लाह उनके रास्ते पर चलते हुए शहादत भी हमें हासिल होगी।

और आप पर सलाम, अल्लाह की रहमत और बर्कत हो

 (1)         इस मुलाक़ात के शुरू में साज़माने तबलीग़ाते इस्लामी संस्था के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन महमूद मोहम्मदी इराक़ी ने छोटी सी स्पीच दी।