सामर्रा कोई बड़ा शहर नहीं था बल्कि ऐसा शहर और दारुल ख़िलाफ़ा था जिसे नया नया बसाया गया था और वहां हुकूमत के ख़ास लोग, अधिकारी वग़ैरा रहते थे। अवाम की बस इतनी ही तादाद वहां थी कि रोज़मर्रा की ज़रूरत उनसे पूरी हो जाए। सामर्रा बग़दाद के बाद नया बसाया जाने वाला शहर था। इसी सामर्रा शहर में इन दोनों हस्तियों इमाम अली नक़ी और इमाम हसन असकरी अलैहिमुस्सलाम ने संपर्क और सूचना का ऐसा विशाल नेटवर्क बनाया कि वह इस्लामी दुनिया के कोने कोने तक फैल गया। यानी हम इमामों की ज़िंदगी के इन पहलुओं को जब देखते हैं तब समझ में आता है कि वे क्या कर रहे थे। एक बात यह भी है कि सिर्फ़ नमाज़, रोज़े, तहारत और नजासत वग़ैरा के मसाएल नहीं बयान करते थे। बल्कि उसी इस्लामी मफ़हूम में इमाम की हैसियत से काम कर रहे थे और लोगों तक अपना पैग़ाम पहुंचा रहे थे।

 

आप देखते हैं कि इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम को मदीना से सामर्रा लाया गया और जवानी में, 42 साल की उम्र में हज़रत को शहीद कर दिया गया। हज़रत इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को 28 साल की उम्र में शहीद कर दिया गया। यह सारी चीज़ें साबित करती हैं कि पूरी तारीख़ में इमामों, आपके शीयों और सहाबियों ने बड़ा अज़ीम मिशन मुसलसल जारी रखा है। हालांकि हुकूमत बड़ी बेरहम थी, क्रूरता से पेश आती थी लेकिन इसके बावजूद इमाम अपने मिशन में कामयाब रहे।

इमाम ख़ामेनेई

10 मई 2003