स्पीच इस प्रकार हैः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल पर ख़ास कर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।

सबसे पहले मैं आप सभी लोगों और चौदहवीं सरकार के सभी सदस्यों, आला अधिकारियों, कर्मचारियों, ख़ास तौर पर उन विभागों के लिए, जिन्होंने 12 दिवसीय परीक्षा के दौरान सक्रिय रोल अदा किया, जिनका ज़िक्र जनाब पेज़ेश्कियान ने किया, जैसे स्वास्थ्य मंत्रालय और दूसरे सभी विभागों के लिए अल्लाह से तौफ़ीक़ की दुआ करता हूं।

हमें जानकारी है कि इन 12 दिनों में वास्तविक मानी में इन विभागों ने बलिदान दिया। हम उन सभी के शुक्रगुज़ार हैं।

मैं सम्मानीय राष्ट्रपति का ख़ास तौर पर शुक्रिया अदा करता हूं जो अथक रूप से लाभदायक काम कर रहे हैं। इस तरह काम करना, इस जज़्बे के साथ काम करना और इस हौसले के साथ काम करना, वही चीज़ है जिसकी मुल्क को ज़रूरत है। इसमें उनका चीन का दौरा बहुत अच्छा था और जिससे बड़े वाक़यों की संभावना पैदा हो सकती है जिनकी मुल्क को आर्थिक लेहाज़ से भी और राजनैतिक लेहाज़ से भी ज़रूरत है; ख़ुशक़िस्मती से उनके इस दौरे में, एक मामले में यह संभावना पैदा हुयी है जिसके सिलसिले में कामयाबी मिली है और इंशाअल्लाह इसकी पैरवी की ज़रूरत है।

इससे पहले कि मैं बात शुरू करू, एक प्वाइंट जो मैंने नोट किया है, लेकिन मुनासिब समझता हूं कि पहले उसको पेश कर दूं; और वह बात यह है कि मुल्क में अधिकारियों में शामिल वे लोग जो अवाम से बात करते हैं, वे मुल्क की ताक़त, क्षमता और संसाधनों की बात करें, इस तरह कमज़ोरियों की दास्तां न बयान करें जिस तरह उन्होंने (2) आज यहाँ बात की है।

यह सही है कि हमारे अंदर कमज़ोरियां हैं, कमियां हैं, किस मुल्क में नहीं हैं? लेकिन हमारे अंदर ताक़त भी है, क्षमताएं भी हैं, काम हुए हैं, कोशिशें की गयी हैं, उन्हें बयान करें और अवाम को बताएं। इस संबंध में अख़बारों और मैग्ज़ीनों की भी ज़िम्मेदारी है, रेडियो और टीवी की भी ज़िम्मेदारी है लेकिन सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी ख़ुद अधिकारियों की है कि जब अवाम के सामने लाउड स्पीकर के सामने खड़े हों तो कमज़ोरी, अक्षमता और नाउम्मीदी की बातें न करें।

ख़ुद जनाब राष्ट्रपति अभी क़रीब क़रीब आधा घंटा बोले; उनकी स्पीच की सभी बातें ताक़त की हैं। अलबत्ता मैं कार्यपालिका के मामलों को जानता हूं, बरसों मैंनें ख़ुद कार्यपालिका के मामलों को देखा है, जानता हूं कि चाहने, फ़ैसला करने और काम होने में कम फ़ासेला नहीं होता। लेकिन ख़ुद यह बात कि इंसान चाहे, उसके अंदर जज़्बा हो, हिम्मत हो और यह उम्मीद हो कि वह यह काम कर सकेगा, यह इच्छाओं के पूरा होने का अहम तत्व है। यह वह ज़रूरी बात थी। मैं वाक़ई इन बातों के लिए जनाब पेज़ेश्कियान साहब का शुक्रिया अदा करता हूं।

अपने अज़ीज़ दोस्तों से कहूंगा कि अवाम की सेवा का जो मौक़ा मिला है उसकी क़द्र करें। पहली बात यह है कि यह मौक़ा हर एक को नहीं मिलता। हमें और आपको कुछ साल के लिए एक ज़िम्मेदारी मिलती है, कोई काम करते हैं, कोई मैदान मिलता है जिसमें आगे बढ़ सकते हैं, काम कर सकते हैं, अवाम की सेवा कर सकते हैं और उस मुद्दत में अल्लाह की रज़ामंदी हासिल कर सकते हैं। इस मौक़े को बर्बाद न होने दें। सेवा की इस ज़िंदगी के एक एक लम्हे का उपयोग करें। अगर हम इस नसीहत पर अमल करें और यह व्यवहारिक हो और  दो काम समानांतर करने, बेकार बैठने, कम काम करने और दूसरे मसलों में उलझने से बचें तो मेरे ख़याल में, जैसा कि कहा गया है, मुश्किलें हल हो जाएंगी और कम वक़्त में या अवसत मुद्दत में हल हो जाएंगी। ऐसा नहीं है कि आज कहें और फिर बरसों इंतेज़ार करें। ख़ास तौर पर आर्थिक मसलों में जिनका संबंध अवाम की आर्थिक स्थिति से है, बहुत गंभीरता से काम करने की ज़रूरत है।

विदेशी बदलाव के इंतेज़ार में नहीं रहना चाहिए। दुनिया में, राजनीति में, कूटनीति की दुनिया में होने वाले वाक़यों का इंतेज़ार न करें, बल्कि अपना काम करें। जिसके ज़िम्मे जो काम है वह उस काम को अंजाम दे। हमारे ज़िम्मे जो काम है, हम उसको अंजाम दे। "न जंग न सुलह" की इस हालत पर जो दुश्मन हम पर थोपे रखना चाहता है, काम और मेहनत के जज़्बे को हावी रखें। मुल्क के सामने ख़तरों और नुक़सानों में से एक यही "न जंग न सुलह" की हालत है जो अच्छी नहीं है, यह माहौल अच्छा नहीं है। हमें अपनी बातचीत, अपने व्यवहार और नतीजे को चिन्हित करके, इस हालत को, काम के जज़्बे को, मेहनत के जज़्बे को, हिम्मत और इरादे को हावी करना चाहिए।

राष्ट्रीय ताक़त और सम्मान को बढ़ाना, सरकार के अहम फ़रीज़ों में से है। पूरी दुनिया में यही है। दुनिया की सभी ताक़तों का फ़रीज़ा होता है कि राष्ट्रीय ताक़त और क्षमता को बढ़ाएं जिसमें क़ौमों के बीच एकता, उसका जज़्बा और प्रेरक तत्व सबसे अहम है। यानी ताक़त के तत्वों में, अगर गिनें तो सबसे अहम यहीं है कि क़ौम में एकता हो, उसमें जज़्बा हो, उम्मीद हो, जोश हो, अपने प्रदर्शन में, फ़रीज़े को अंजाम देने की पाबंदी में, क़ौम में यह जज़्बा पैदा करना चाहिए और अगर मौजूद हो तो उसे मज़बूत करना चाहिए ताकि यह जज़्बा कमज़ोर पड़ने न पाए।

काम में प्राथमिकताओं पर ध्यान देना चाहिए। काम ज़्यादा है और क्षमता, चाहे वह वित्तीय हो या मानवीय, जो काम होने हैं, उनसे कम होती है। इसलिए प्राथमिकताओं का निर्धारण होना चाहिए। आपात प्राथमिकताओं का निर्धारण, एक बुनियादी हैसियत रखता है; ये प्राथमिकताओं के मानदंड हैं। कुछ मामले त्वरित स्वभाव के होते हैं और कुछ में बुनियादी पहलू पाया जाता है। उन्हें प्राथमिकता हासिल होती है। इन प्राथमिकताओं पर ध्यान दें। प्रबंधन के बुनियादी तत्वों में से एक यही है यानी यह कि इंसान यह समझ सके यह तय कर सके कि कौन से मामले प्राथमिकता रखते हैं।

मैं जनाब डॉक्टर आरिफ़ (3) का शुक्रिया अदा करना चाहता था। मुझे जानकारी है कि जो फ़ैसले होते हैं, उनसे संबंधित मामलों और कामों की कितनी पैरवी करते हैं कि यह भूल न जाए और यह रह न जाए। वे मेहनत करते हैं, काम करते हैं, मुझे इस सिलसिले में उनकी मेहनत और सरगर्मियों की जानकारी है।

सरकारें अवाम की आम और संयुक्त ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदार होती हैं। वे संयुक्त ज़रूरतें जिन्हें पूरा करना सरकारों की ज़िम्मेदारी होती है, अर्थव्यवस्था, मेडिकल, संस्कृति, जीवन शैली और पर्यावरण वग़ैरह हैं। हमें यह मालूम करना है कि इनमें प्राथमिकता किसको हासिल है। इन बुनियादी मामलों में प्राथमिकता किसको हासिल है। आप जानते हैं कि इस्लामी सिस्टम मौलिक तौर पर, इस्लामी शिक्षाओं और क़ानूनों पर अमल के लिए है। कोई दूसरी बात करे तो हक़ीक़त के ख़िलाफ़ है। पहले दिन से इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) का नारा यह था कि अल्लाह के लिए, पाक लक्ष्यों के लिए, अल्लाह की शिक्षाओं के लिए और अल्लाह के हुक्म के लिए काम करना चाहिए। आपने उसके बाद अवाम से कहा और अवाम भी ज़्यादातर धार्मिक जज़्बे के साथ उठे और आगे बढ़े। (इसलिए) इस्लामी सिस्टम में काम अल्लाह के लिए होता है, उन लक्ष्यों के लिए होता है।

एक बात जिसकी मैं ताकीद करना चाहता हूं, वह पैरवी है, कभी राष्ट्रपति की सतह पर होनी चाहिए, अलहम्दुलिल्लाह यह है, यह वाक़ई पैरवी करते हैं। अपने प्रांतीय दौरों में, अवाम से संपर्क में, मंत्रालयों में जाकर, कर्मचारियों और आला अधिकारियों से मिलकर, यह पैरवी बहुत अहम है और बहुत फ़ायदेमंद भी है। लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है, बल्कि पैरवी ख़ुद ढांचे में सिस्टम में होनी चाहिए। मध्य दर्जे के अफ़सरों में भी होनी चाहिए। कभी कभी आप मंत्री लोग कोई फ़ैसला करते हैं, वह फ़ैसला आपको स्वीकार्य भी होता है और चाहते भी हैं कि काम हो, उसका हुक्म भी देते हैं, आपका सहायक भी आला अधिकारियों को हुक्म देता है, लेकिन दो तीन माध्यमों के बाद यह मामला लगातार कमज़ोर पड़ता जाता है और फिर ख़त्म हो जाता है। निचली सतह पर पहुंचते पहुंचते तो बाक़ी ही नहीं रहता! जबकि काम निचली सतह पर ही होना होता है। यह निचली सतह के कर्मचारी हैं जो काम करते हैं। मंत्री और आला अधिकारी तो सिर्फ़ हुक्म देते हैं, पैरवी बहुत अहम है और निचली सतह तक नतीजा हासिल करने तक, आख़िर तक पैरवी होनी चाहिए।

ख़ुशक़िस्मती सै आज मुल्क में सर्वसम्मिति की संभावना है; आज यह चीज़ है। मुल्क के तीनों विभागों (कार्यपालिका, विधिपालिका और न्यायपालिका) के प्रमुखों में सहमति, समरसता और तैयारी पायी जाती है; बहुत से फ़ैसलों में और निर्णायक मामलों में ये एक साथ हैं, इसलिए आज सर्वसम्मति हासिल करना मेरे ख़याल में अतीत की तुलना में ज़्यादा आसान है। इस मौक़े से फ़ायदा उठाना चाहिए। जिन मामलों में सर्वसम्मित हो, उन्हें आगे बढ़ाएं। ये काम भी वाक़ई बहुत अहम हैं। ये कुछ बिंदु जो उन्होंने बयान किए हैं, एक यही सरकार के ढांचे को हल्का करने का मसला है; यानी कुछ विभागों को कम करने की बात है जिनका वजूद और न होना, बराबर है। या किसी विभागों में कर्मचारियों की तादाद घटाने का विषय है। किसी मंत्रालय और संस्था में कर्मचारियों की तादाद कम करने का मसला है। ये काम अहम हैं और मुश्किल भी। यह आसान काम नहीं हैं। लेकिन आज समरसता पायी जाती है तो ये काम किए जा सकते हैं। इन्हें अंजाम देना चाहिए। यह काम करने की ज़रूरत है। यह बड़ा मौक़ा है। काम के तरीक़े अलग अलग हैं, रुकावटें भी हैं; लेकिन उन्हें दूर करने की ज़रूरत है।

अर्थव्यवस्था के बारे में जो मुल्क का एक अहम मसला है, मेरी कुछ सिफ़ारिशें हैं जिन्हें पेश करुंगा। अलबत्ता कहने के लिए बातें बहुत हैं, जैसा कि इशारा किया, कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन कम से कम जो है वह बयान करना है।

पहली बात कारख़ानों को फिर से चालू करने की है, जो लोग इस काम से जुड़े हुए हैं और वास्तविक आर्थिक समस्याओं और व्यवहारिक अर्थव्यवस्था को समझते हैं, वे सभी इस बात पर सहमत हैं कि जितना उत्पादन बढ़ेगा, उतनी ही देश की आर्थिक प्रगति होगी। उत्पादन पर ध्यान दें, प्रोडकशन यूनिट्स को चालू करें। अभी इस बात की तरफ़ इशारा किया गया कि कुछ कारख़ानों की बिजली कट जाती है, कभी-कभी आपात स्थिति हो सकती है लेकिन जब आपात स्थिति न हो तो उत्पादन की समस्या पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। यह मेरी पहली सिफ़ारिश है।

मेरी दूसरी सिफ़ारिश यह है कि बुनियादी आवश्यकताओं की चीज़ें समय पर उपलब्ध कराई जाएं, यह देश की एक समस्या है। कुछ मामलों में, संबंधित ज़िम्मेदार व्यक्ति ने मुझे रिपोर्ट दी है, मुझे क्यों रिपोर्ट दी, मैं नहीं जानता लेकिन उन्होंने मुझे रिपोर्ट दी है कि अमुक चीज़ महत्वपूर्ण बुनियादी आवश्यकता की चीज़ों में शामिल है, उसे इस अवधि के लिए होना चाहिए, इस अवधि के एक तिहाई के बराबर, मैं अवधि का ज़िक्र नहीं करना चाहता लेकिन यह ख़तरा है। हमें बुनियादी आवश्यकताओं की चीज़ें समय पर मुहैया करानी चाहिए। चीज़ों का भंडार, ज़रूरत के हिसाब से होना चाहिए। ख़तरों की संभावना है, हम हमेशा ख़तरों का पूर्वानुमान नहीं कर सकते, कभी कोई मुश्किल आ सकती है। हो सकता है कि कोई चीज़ अभी आयात की जा सकती हो और किसी समय में आयात न की जा सकती हो, इसको भी ध्यान में रखना चाहिए। इन ख़तरों को नज़र में रखा जाए। इसलिए देश में बुनियादी आवश्यकताओं की चीज़ों की मात्रा संतोषजनक होनी चाहिए। अगर देश में बुनियादी ज़रूरत का सामान समय पर मौजूद हो तो इसका सीधा संबंध जनता के दस्तरख़ान से है, यानी इस स्थिति में बाज़ार में अस्थायी और मनमानी महंगाई नहीं होगी और खाद्य सुरक्षा को कोई ख़तरा नहीं होगा। यह एक समस्या है।

बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों के बारे में एक बात जो कई बरसों से कही जा रही है, वह इस तरह की चीज़ों को काम्पटेटिव बनाने से संबंधित है। बुनियादी ज़रूरत की कुछ चीज़ों के आयात पर एकाधिकार है, एकाधिकार बुरी चीज़ है। एकाधिकार से संस्थाओं के हाथ बंध जाते हैं। जिन देशों से आयात किया जाता है और जो लोग आयात का काम करते हैं, उनके बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। उनके बीच प्रतिस्पर्धा पैदा करने की ज़रूरत है। इससे देश में सामान लाने में मदद मिलेगी। कहा जाता है कि अगर हम प्रतिस्पर्धा पैदा कर दें तो बाहर से ख़रीदी जाने वाली चीज़ों की विदेशी मुद्रा की क़ीमत भी कम होगी और देश के अंदर रियाल में भी उनकी क़ीमत गिर जाएगी। यह बहुत अच्छी बात होगी। यह मुद्दा बहुत अहम है।

जनता की अर्थव्यवस्था का मामला देश के अहम मुद्दों में है, जैसा कि अभी राष्ट्रपति महोदय ने भी इशारा किया, ऐसा काम किया जाए कि जनता बुनियादी ज़रूरत की कुछ चीज़ें, मिसाल के तौर पर दस या उससे कुछ कम, क़ीमतें बढ़ने की चिंता के बिना हासिल कर सके। यानी ऐसा न हो कि आज एक क़ीमत है और कल महंगाई की वजह से क़ीमत दोगुनी हो जाए। कुछ लोग कूपन(4) की बात करते हैं और जो लोग विशेषज्ञ हैं, इस फ़ील्ड से जुड़े हुए हैं, वे इसकी पुष्टि करते हैं, मैं ख़ुद इस बारे में ज़्यादा नहीं जानता लेकिन मेरा ख़याल है कि इस पर काम किया जाना चाहिए। कहा जाता है कि कूपन को डिजिटल भी किया जा सकता है। यानी इसकी बुनियाद मौजूद है, इससे काम लिया जा सकता है, मतलब यह कि ऐसा इंतज़ाम किया जा सकता है कि जनता लगभग दस तरह की चीज़ें क़ीमत बढ़ने की किसी परेशानी और चिंता के बिना हासिल कर सकती है। तो यह एक सिफ़ारिश इस सिलसिले में भी है।

दूसरी चीज़ों के संबंध में भी बाज़ार में अनुशासन की चिंता करनी चाहिए। यानी लोग यह न समझें कि बाज़ार को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है, आज एक क़ीमत है और कल अजीब तरीक़े से क़ीमत ऊपर चली गई। यहाँ एक क़ीमत है और उधर दूसरी क़ीमत है! यह हालत जो बाज़ार के बेलगाम हो जाने की स्थिति होती है, जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचाती है। यह नहीं होना चाहिए कि लोग यह हालत महसूस करने लगें।

चीज़ों के भंडार के बारे में भी यह कहना अनुचित नहीं है कि सर्दियों के लिए गैस का भंडार अहम मुद्दों में से है। अभी से गैस के आयात आदि का काम शुरू कर देना चाहिए ताकि सर्दियों में देश को कोई मुश्किल पेश न आए। तुर्कमनिस्तान या दूसरी जगहों से गैस आयात की जा सकती है।

आवास का मामला भी अहम मुद्दों में से है, घर का मामला वास्तव में बुनियादी समस्या है। इस सिलसिले में मेरे सामने सुझाव पेश किए जाते हैं, चूंकि यह काम मेरा नहीं है, मेरे हाथ में यह काम नहीं है, इसलिए मैं यह सुझाव ज़िम्मेदार अधिकारियों को भेज देता हूँ।

आवास की समस्या किसी हद तक, पूरी तरह से हल न हो तब भी किसी हद तक हल करने के संबंध में सुझाव पेश किए जाते हैं, सम्मानीय अधिकारी यह सुझाव सुनें, उन पर ग़ौर करें, उन पर काम करें ताकि इंशाअल्लाह नतीजा हासिल हो सके।

तेल का मुद्दा भी एक अहम विषय है। इशारा किया गया कि उत्पादन और निर्यात दोनों में बढ़ोतरी हुई है फिर भी तेल उत्पादन जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत अहम है, स्पष्ट रूप से बहुत कम है। हमारे तेल निकालने के तरीक़े पुराने हैं, संसाधन भी पुराने हैं और हम दुनिया के कई तेल उत्पादक देशों से पीछे हैं। आज के युवा छात्रों और शिक्षित युवाओं की मदद से हम निश्चित रूप से यह काम कर सकते हैं। उनसे मदद लीजिए। पिछली सरकारों के समय में भी हमने इस कठिन समस्या के बारे में अनुभव किया है। एक कठिन समस्या सामने थी, तो दो-तीन छात्र मेरे पास आए और कहा कि वे इस समस्या को हल कर देंगे। मैंने उन्हें मंत्री के पास भेज दिया। बाद में पेट्रोलियम मंत्री ने बताया कि समस्या हल हो गई है। इसका मतलब है कि कुछ युवा छात्र और शिक्षित युवा शायद तेल उत्पादन और तेल निकालने के तरीक़े में बदलाव ला सकते हैं। तेल निर्यात के मामले में भी हमें अधिक सक्रियता की ज़रूरत है। यानी ख़रीदारों की संख्या बढ़ाने और उनमें विविधता लाने के लिए काम करने की ज़रूरत है। यह मुद्दा भी अहम है और इंशाल्लाह इस पर काम किया जाएगा।

मैं एक सलाह फ़ुज़ूलख़र्ची के बारे में दूंगा। हम सचमुच फ़ुज़ूलख़र्ची करते हैं! मैंने कुछ साल पहले, फ़ुज़ूलख़र्ची न करने को साल का नारा घोषित किया था।(5) अब मुझे उस नारे के शब्द याद नहीं हैं, लेकिन मतलब यह था कि लोग फ़ुज़ूलख़र्ची न करें। कुछ लोग मेरे पास आए और कहा कि सबसे ज़्यादा फ़ुज़ूलख़र्ची तो आप ख़ुद करते हैं, सबसे ज़्यादा फ़ुज़ूलख़र्ची सरकार करती है, हमने देखा कि लोग सच कहते हैं। बिजली, गैस, पानी, यहाँ तक कि इमारतों आदि में, यात्राओं के संबंध में, फ़ुज़ूलख़र्ची हो रही है। ग़ैर ज़रूरी यात्राओं की क्या ज़रूरत है? बहुत सी यात्राएँ ऐसी हैं जिनकी कोई ज़रूरत नहीं है। और फिर यात्रा में ज़रूरत से दो गुना और तीन गुना ज़्यादा लोगों को साथ ले जाया जाता है। इसकी क्या ज़रूरत है? अगर कहीं जाना ज़रूरी हो तो कम लोग, जितनों की ज़रूरत हो, उतने ही जाएँ। या उदाहरण के लिए मान लीजिए कि यात्रा में महँगे होटलों में ठहरना, यह सब फ़ुज़ूलख़र्ची है। यह फ़ुज़ूलख़र्ची नहीं होनी चाहिए। जब आमदनी कम हो तो ख़र्च भी कम होना चाहिए।

अगर तुम्हारी आमदनी नहीं है तो कम ख़र्च करो

क्योंकि मल्लाह एक गीत गाते हैं

कि अगर पहाड़ों पर बारिश नहीं होगी

तो दजला नदी एक साल में सूख जाएगी।(6)

पहले आमदनी के स्रोत उपलब्ध हों, तब ख़र्च के बारे में सोचा जाए।

मेरी आख़री बात ग़ज़ा और उन अपराधों के बारे में है जो ये दुष्ट ज़ायोनी कर रहे हैं। वाक़ई इतने अपराधों पर हैरत होती है, इतने पीड़ादायक अपराध! इन्हे शर्म भी नहीं आती, खुल्लम खुल्ला ज़बान पर लाते हैं और कहते हैं कि हम कर रहे हैं, हम ऐसा करना चाहते और करेंगे। इसका इलाज होना चाहिए। यह सही है कि अमरीका इसका समर्थक है और अमरीका एक बड़ी शक्ति है, इसमें संदेह नहीं है लेकिन इससे निपटने का रास्ता बंद नहीं है। एतेराज़ करने वाले मुल्कों को, जिनमें इस्लामी और ग़ैर इस्लामी मुल्क दोनों शामिल हैं, ख़ास तौर पर इस्लामी मुल्कों को चाहिए कि वे ज़ायोनी शासन से अपने व्यापारिक संबंध पूरी तरह ख़त्म कर दें, यहां तक कि राजनैतिक संबंध भी, उसे अलग थलग कर दें। आज दुष्ट ज़ायोनी शासन दुनिया की सबसे अलग थलग सरकार है, दुनिया की सबसे घृणित सरकार है, इस में कोई शक नहीं लेकिन उसे इससे भी ज़्यादा अलग थलग करना संभव है, उसके रास्ते बंद कर देने चाहिए। यह सभी सरकारों का कर्तव्य है। मेरे विचार में हमारी एक मूल कूटनीति यह होनी चाहिए कि हम अन्य सरकारों से अनुरोध करें और ज़ोर दें कि वे इस सरकार के साथ अपने संबंध तोड़ लें, सबसे पहले व्यापारिक संबंध और उसके बाद राजनीतिक संबंध तोड़ लें।

मैं यहाँ कुछ शब्द उन बोलने वालों और लिखने वालों से कहना चाहूंगा, जो अख़बारों में लिखते हैं, लेख लिखते हैं, रेडियो और टीवी पर बोलते हैं, सोशल मीडिया पर बयान जारी करते हैं। मैं उनसे कहूंगा कि वे कोशिश करें कि अपने देश के अहित में न बोलें। अपने देश की कमज़ोरियां बयान न करें, बल्कि लोगों के बीच ताक़त और शक्ति के पहलुओं को उजागर करें, उस शक्ति की बात करें जो वास्तव में हैं, उन क्षमताओं का उल्लेख करें जो देश में हैं, उन्हें जनता के बीच बयान करें।

इंशा अल्लाह, अल्लाह आप सभी को सफलता प्रदान करे, आपकी मदद करे कि आप अपना अहम और गंभीर दायित्व उत्तम तरीक़े से निभा सकें। हम आपके लिए दुआ करेंगे।

आप सब पर अल्लाह का सलाम, उसकी रहमत और बरकत हो

1. इस बैठक में सबसे पहले राष्ट्रपति मस्ऊद पिज़िश्कियान ने एक रिपोर्ट पेश की 

2. राष्ट्रपति 

3. उपराष्ट्रपति मुहम्मद रज़ा आरिफ़ 

4. ख़र्च के मानकों में सुधार, नए साल के के अवसर पर दिया गया भाषण, (21-3-2009)

5. कुछ देशों में बुनियादी ज़रूरत की चीज़ों के लिए सरकार की तरफ़ से जनता को कूपन दिए जाते हैं और लोग वे कूपन देकर विशेष दुकानों से सरकारी दर पर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें खरीद सकते हैं।

6. गुलिस्ताने सादी, सातवां अध्याय