रहबरे इंक़िलाब आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामनेई ने 3 जून 2025 को हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम के यौम-ए शहादत के मौक़े पर मजलिस-ए अज़ा के इख़्तिताम पर एक मुख़्तसर ख़िताब किया। आप ने अपने इस ख़िताब में इस नुक्ते पर रौशनी डाली कि कर्बला के वाक़ए के बाद इमाम अलैहिमुस्सलाम ने उम्मत की इस्लाह के लिए किस तरीक़े से काम किया। ख़िताब के कुछ हिस्से पेश किए जा रहे हैं।
यह जो इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के अस्हाब के बारे में कहा जाता है कि "चार हज़ार थे", यह तादाद कहाँ से आई? किस ने उन्हें तैयार किया? आप के बक़ौल, किस ने चार सौ को चार हज़ार बना दिया? मैं ने इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की इस रिवायत को कई बार इन मजालिस में पढ़ा है कि "इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बाद सब लोग मुरतद्द हो गए सिवाए तीन के"। कुछ में "सिवाए तीन के" है, तो एक रिवायत में मसलन "सिवाए पाँच के" भी है। यानी वाक़ए आशूरा ने इस्लामी दुनिया के सब लोगों के दिलों में ऐसा ख़ौफ़ पैदा कर दिया था कि जब उन्होंने देखा कि यह हुकूमत इतनी ज़ालिम है, इतनी बे-रहम है कि फ़रज़ंदे रसूल को भी नहीं छोड़ती और इस तरह उन के साथ और नबी के ख़ानदान के साथ सुलूक करती है! तो दिलों पर ऐसा रौब तारी हुआ कि हज़रत सज्जाद अलैहिस्सलाम के इर्द-गिर्द सिर्फ़ यह तीन या चार या पाँच लोग ही बाक़ी रहे। और यह सब भी मदीना में नहीं थे; इन में से एक दो मसलन कूफ़ा में थे। इन चार पाँच लोगों को हज़रत ने तक़रीबन 35 साल के अर्से में [जमा किया] और आहिस्ता आहिस्ता ज़मीन हमवार की।
फिर जब इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का ज़माना आया, तो यह जमाअत बढ़ गई; इसी रिवायत में है कि "फिर लोग जुड़ते गए और तादाद बढ़ गई"। आहिस्ता आहिस्ता लोग शामिल होते गए, आ कर जुड़ते गए। कौन उन्हें शामिल कर रहा था? इमाम बाक़िर। क्योंकि दिलों से ख़ौफ़ दूर करने के लिए सिर्फ़ दीनी बहसें और फ़िक़्ह बयान करना काफ़ी नहीं होता; और चीज़ों की ज़रूरत होती है। आज दुनिया में देखिए, किसी और तरीक़े से हरकत करनी पड़ती है, किसी और अंदाज़ में बात करनी पड़ती है ताकि इंसान इन तीन चार लोगों को सैकड़ों और फिर हज़ारों में तब्दील कर सके; यह काम इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने किया।
और यह जो कहा जाता है कि इमाम सादिक़ और इमाम बाक़िर ने बनी उमय्या और बनी अब्बास के दरमियान टकराव का फ़ाएदा उठाया, यह इमाम बाक़िर के ज़माने का मुआमला नहीं है; उस वक़्त क़तअन कोई झगड़ा नहीं था। हज़रत 95 से 114 हिजरी तक, उन्नीस साल सख़्त तरीन हालात में रहे; यानी वह हिशाम के ज़माने में थे और हिशाम से पहले बनी उमय्या और बनी मरवान के चंद दूसरे ज़ालिम व जाबिर हुक्मरानों के दौर में, हज़रत उन के मुक़ाबले में थे और उन के होते हुए भी यह काम किया; यानी फ़िक्र को फैलाने और इस मैदान में शामिल अफ़राद की तादाद बढ़ाने की यह तासीर और ताक़त, इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का काम है। दूसरे अइम्मा में से किसी के बारे में हमारे पास ऐसी सूरत-ए हाल नहीं है। अलबत्ता आख़िरी इमामों — यानी हज़रत हादी-ए नक़ी, हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी, हज़रत इमाम हसन अस्करी — के ज़माने में एक दूसरी क़िस्म की सूरतेहाल थी, लेकिन इमाम बाक़िर के ज़माने वाली शक्ल नहीं थी। उन की हालत यह थी कि उन्हें जिलावतन कर दिया गया; यानी शाम बुलवाया गया। आप जानते हैं कि इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम अकेले इमाम हैं जिन्हें दो बार शाम में क़ैदी बना कर ले जाया गया: एक बार चार साल की उम्र में यज़ीद के ज़माने में, और एक बार हिशाम के ज़माने में जब उन्हें और इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को एक साथ ले जाया गया। इस सफ़र में कुछ अहम वाक़िआत पेश आए जो बहुत अहम हैं; यानी उन पर इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी में ख़ास तवज्जोह देनी चाहिए।
फिर, वह इस पर इकतफ़ा नहीं करते। यह जो जद्दोजहद की गई, उसे जारी रखना ज़रूरी था, तो उन्होंने वसीयत की कि मिना में दस दिन तक मेरी अज़ादारी करो! इमाम को अज़ादारी की ज़रूरत नहीं, लेकिन वह यह चाहते हैं। मिना में लोग फ़ारिग़ होते हैं, दुनिया भर से आते हैं, फिर देखते हैं कि अज़ादारी की मजलिस है, [पूछते हैं] यह किस की है, क्यों अज़ादारी कर रहे हो, यहाँ क्यों, क्या हुआ है; इस तरह इमाम बाक़िर का पैग़ाम इस्लामी दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचता है। यह एक बहुत अहम सियासी तदबीर है।
(1) इख़्तिसासे मुफ़ीद, पेज नं 64