इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 16 जूलाई 2025 को न्यायपालिका के प्रमुख और अधिकारियों से मुलाक़ात में इस विभाग की अहमियत और ज़िम्मेदारियों के बारे में बात की। उन्होंने ज़ायोनी सरकार के अग्रेशन और उसके बाद ईरान की ऐतिहासिक जवाबी कार्यवाही के पहलुओं पर रौशनी डाली।
ख़ेताब इस प्रकार हैः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम (1)
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी पाक व पाकीज़ा और चुनी हुई नस्ल पर ख़ास कर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
अज़ीज़ भाइयो आप सब का स्वागत है! उम्मीद है कि यह बैठक जो उन वजहों से जो मालूम हैं, विलंब से अंजाम पा रही है, इंशाअल्लाह न्यायपालिका के लिए भी और मुल्क के लिए भी फ़ायदेमंद और प्रभावी होगी। मैं न्यायपालिका के सभी सदस्यों का, इसके प्रमुख से लेकर पूरे मुल्क में अपने फ़रीज़े को अंजाम देने में सरगर्म उसके सभी सदस्यों का शुक्रगुज़ार हूं।
जनाब मोहसिनी साहब ने अंजाम पा चुके काम के बारे में जो कुछ बयान किया उससे बहुत ख़ुशी हुयी, बहुत अच्छा है। मेरी सिफ़ारिश यह है कि अंजाम पाने वाले कामों के साथ, हमेशा उन कामों को मद्देनज़र रखना चाहिए जो अंजाम नहीं पाए हैं और उन्हें अंजाम पाना चाहिए। यानी उनमें हमेशा एक तरह का अनुपात होना चाहिए। कभी कभी ऐसा होता है कि इंसान सौ अच्छे काम करके ख़ुश होता है कि सौ अच्छे काम अंजाम पा गए लेकिन जब ध्यान देता है तो पता चलता है कि दो सौ काम अंजाम नहीं पाए, तो ख़ुशी कुछ कम हो जाती है। अलबत्ता में यह दावा हरगिज़ नहीं करता कि पिछले बरस न्यायपालिका की हालत यही थी, नहीं, अच्छे काम बहुत हुए हैं। हमारे पास इसकी रिपोर्ट है और सही है, लेकिन हमेशा अंजाम पाने वाले कामों के साथ ही उन कामों को भी मद्देनज़र रखें जिन्हें अंजाम पाना था लेकिन अंजाम नहीं पा सके।
न्यायपालिका के बारे में हर साल बहुत तफ़सील से जायज़ा लेता हूं और इस संबंध में बात करता हूं। मेरे ख़याल में न्यायपालिका के बारे में जो बातें कहने की थीं, और जिनकी सिफ़ारिश ज़रूरी थी, वह कही गयी हैं और बार बार कही गयी हैं। मैं सिर्फ़ दो बिंदुओं का ज़िक्र करना चाहता हूं और उसके बाद एक मसला बयान करुंगा।
पहला बिन्दु मुक़द्मों की पैरवी का है, चाहे मुल्क के भीतर हों या अंतर्राष्ट्रीय मुक़दमे हों। अभी हाल ही में जो अपराध हुए हैं, उनकी पैरवी भी बहुत ज़रूरी और अहम है। इससे पहले पिछले बरसों के मामलों में हमें यह काम करने चाहिए थे लेकिन हमने कोताही की। इस बार कोताही न करें। अगर हमने उसकी पैरवी की होती और अंतर्राष्ट्रीय अदालतों में और इसी तरह मुल्क की अदालतों में मुक़दमें दायर किए होते, चाहे बीस साल लग जाएं, लगने दें, लेकिन यह काम किया जाए, मुजरिम का गरेबान पकड़ा जाए। मुमकिन है कोई अंतर्राष्ट्रीय अदालत इंसान को मुलज़िम क़रार न दे और हक़ीक़त यही हो कि उसका किसी ताक़त से संबंध हो। मगर कभी मुमकिन है कि ऐसा हो लेकिन मुमकिन है कि कभी ऐसा न हो बल्कि कोई ऐसा जज मिल जाए जो आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार हो। यह पहला बिन्दु है, इसकी संजीदगी से पैरवी करें। पूरी होशियारी के साथ, पूरी ताक़त से, सभी पहलुओं को मद्देनज़र रखते हुए, इंशाअल्लाह, पैरवी करें।
दूसरा बिन्दु यह है कि न्यायपालिका के लिए की जाने वाली सभी सिफ़ारिशों का निचोड़ एक लफ़्ज़ है और वह यह है कि अवाम का न्यायपालिका पर भरोसा हो। यह बात मैंने अनेक बार इन बैठकों में कही है। हमें ऐसा काम करना चाहिए कि मुल्क के किसी सुदूर क्षेत्र में, किसी गाव में, किसी सुदूर शहर में, किसी पर ज़ुल्म हो तो वह कहे कि मैं अदालत का दरवाज़ा खटखटाउंगा, अदालत में जाउंगा। यानी ऐसी हालत हो कि सब यह समझें कि वह अदालत जाएंगे तो उनके मसले हल हो जाएंगे। इस तरह का भरोसा पैदा होना चाहिए। यह बहुत मुश्किल काम है, बहुत सख़्त है। अलबत्ता हर मुक़दमे और न्यायिक मामले में एक पक्ष राज़ी होता है और दूसरा असंतुष्ट। लेकिन जब वह देखता है कि फ़ैसला क़ानून के मुताबिक़, सही तौर पर, बारीकियों को मद्देनज़र रखकर किया गया है तो दिल में उसको क़ुबूल करता है, अगरचे मुमकिन है कि उस पर राज़ी न हो। कोशिश करें कि यह हालत पैदा हो। अवाम में भरोसा हो। उन्हें यक़ीन हो कि न्यायपालिका उनके मसलों को हल करती है।
इसके लिए सबसे अहम काम, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अभियान है। पहले चरण में ख़ुद न्यायपालिका के भीतर भ्रष्टाचार को दूर करना है। इस संबंध में मैंने न्यायपालिका प्रमुख जनाब मोहसिनी साहब से बार बार बात की है। उन्होंने भी कुछ काम दिए हैं, उनसे पहले के अध्यक्षों ने भी किए हैं और उसके बाद न्यायपालिका के बाहर, भ्रष्टाचार दूर किया जाए। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अभियान से अवाम में उम्मीद पैदा होती है, भरोसा पैदा होता है। यह दो बातें न्यायपालिका के संबंध में पेश करना चाहता था।
लेकिन जो बात अर्ज़ करनी है वह यह है कि हालिया थोपी गयी जंग में अवाम ने बड़ा कारनामा अंजाम दिया है। यह बड़ा कारनामा आप्रेशन नहीं था, बल्कि इरादा था, संकल्प था और आत्मविश्वास था। कोई क़ौम, कोई मुल्क, किसी मुल्क की फ़ौज, अपने भीतर इस आत्मविश्वास को देखे कि वह अमरीका जैसी बड़ी ताक़त से और इस इलाक़े में उसके पालतू कुत्ते यानी ज़ायोनी सरकार से सीधे तौर पर मुक़ाबले के लिए तैयार है, ख़ुद यह इरादा और यह आत्मविश्वास बहुत अहम है। एक वक़्त था, हम से पहले भी और हमारी नौजवानी के ज़माने में भी, इंक़ेलाब से पहले, अमरीका के नाम से ही लोग डर जाते थे, उसका सामना और मुक़ाबला करने की तो बात ही दूर थी। चाहे ज़बानी मुक़ाबला हो या व्यवहारिक तौर पर मुक़ाबला हो। पिछले शाही सिस्टम के लोगों की याद्दाश्त में जो बरसों बाद सामने आयी, तकरार के साथ जो बात लिखी हुयी है वह यह है कि आला अधिकारी अमरीका के किसी काम से नाराज़ थे, मिसाल के तौर पर तेल के मसले में या कुछ दूसरे मसलों में, नाराज़ थे, उनका मूड ख़राब था लेकिन कहते थे कि कुछ न कहो, उनके अंदर यहाँ तक कि निजी बैठकों में भी, अकेले में एतेराज़ करने और बोलने की हिम्मत नहीं थी।
अब वही क़ौम है जो अमरीका की आँख में आँख डालकर खड़ी हो जाती है, उससे नहीं डरती बल्कि उसको डराती है और व्यवहारिक तौर पर जो भी उससे बन पड़ता है, अंजाम देती है। यह व्यवहारिक तौर पर क़दम उठाने का मसला बाद में आता है, इससे पहले वही जज़्बा और दृढ़ता है। यह राष्ट्रीय संकल्प, यह राष्ट्रीय साहस, यह वह चीज़ है जो मुल्क का सिर ऊंचा करेगी। यह वही चीज़ है जो ईरान को महान बनाएगी। मैंने कहा कि पचास साल बाद यह होना चाहिए। यह इरादा वही मूल तत्व है जो ईरान को वहाँ पहुंचा सकता है।
मैं जो बात पेश कर रहा हूं, सबको जान लेना चाहिए, दोस्तों को भी जान लेना चाहिए और दुश्मनों को भी और ख़ुद ईरानी क़ौम को भी मालूम होना चाहिए, वह यह है कि ईरानी क़ौम किसी भी मैदान में कमज़ोर पक्ष के तौर पर ज़ाहिर नहीं होगी। इसलिए कि हमारे पास सभी ज़रूरी तत्व मौजूद हैं, तर्क भी है और ताक़त भी। हम कूटनीति के मैदान में भी और सैन्य मैदान में भी, इंशाअल्लाह जब उतरेंगे, कामयाब रहेंगे। अलबत्ता जंग में वार लगाया भी जाता है और वार लगता भी है। जंग में यह अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि कोई घटना न हो। लेकिन अलहम्दुलिल्लाह हमारे हाथ ख़ाली नहीं है। कूटनीति के मैदान में भी हमारे हाथ ख़ाली नहीं हैं और अल्लाह की तौफ़ीक़ से सैन्य मैदान में भी हम ख़ाली हाथ नहीं हैं।
लेकिन यह अहम वाक़ेया जो पेश आया, हालिया वाक़ए में, हम ने जंग में पहल नहीं की, यह सब जानते हैं। यह सही है कि हम ज़ायोनी सरकार को कैंसर समझते हैं और उसका सपोर्ट करने की वजह से अमरीका को अपराधी मानते हैं लेकिन हमने जंग में पहल नहीं की। हम ने जंग शुरू नहीं की। लेकिन जब दुश्मन ने हमला कर दिया तो हमारा जवाब विनाशकारी थी। सभी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए, मालूम होना चाहिए। क्योंकि दुश्मन इस मसले में संदेह पैदा करना चाहता है। हम जंग में डटे रहे। इसका सुबूत और इसकी साफ़ दलील यह है कि जंग में हमारे सामने वाला पक्ष अमरीकी सरकार का सहारा लेने पर मजबूर हो गया। अगर उसकी कमर टूट न गयी होती, अगर वह गिर न गयी होती, अगर असहाय न हो गयी होती, अगर अपनी रक्षा करने में सक्षम होती तो इस तरह अमरीका से मदद न मांगती। उसने अमरीका का सहारा लिया। यानी देख लिया कि इस्लामी गणराज्य ईरान से जीत नहीं पाएगी।
यह ज़ायोनी सरकार की हालत हुई। ख़ुद अमरीका की भी यही हालत हुई। जब अमरीका ने हमला किया तो उस पर हमारा जवाबी हमला बहुत सीरियस था। अब इंशाअल्लाह कुछ समय गुज़र जाए, कुछ महीने या कुछ साल बाद जब सेंसर ख़त्म होगा तो पता चलेगा कि ईरान ने क्या किया। जो केंद्र ईरान के हमले का निशाना बना, वह इस इलाक़े में अमरीका का ग़ैर-मामूली केंद्र था। हमारा वार बहुत भारी था। हालांकि अमरीका और (उस जैसे) दूसरों पर इससे भी ज़्यादा भारी वार लगाए जा सकते हैं। इंशाअल्लाह। यह व्यवहारिक क़दम की बात है।
इस घटना में एक बहुत अहम बात है और वह है राष्ट्रीय जज़्बा। सैन्य, संगठनात्मक, गुप्तचर और सुरक्षा पहलुओं से अलग, इस घटना में जो पहलू उभर कर सामने आया, वह है राष्ट्रीय जज़्बा। हमलावरों ने यह समझा था, यह योजना बनाई थी और अपने तौर पर यह अनुमान लगाया था, वास्तव में उन्होंने यह हिसाब-किताब लगाया था, इसके लिए उन्होंने बैठ कर हिसाब-किताब लगाया था, योजना तैयार की थी कि ईरान पर हमला करेंगे, उसके अहम केंद्रों को निशाना बनाएंगे और ईरान की सरकार और इस्लामी व्यवस्था के कुछ लोगों को समाप्त कर देंगे तो स्वाभाविक रूप से व्यवस्था कमज़ोर हो जाएगी। फिर मुनाफ़ेक़ीन के ख़ुफ़िया केंद्र, राजशाही के बचे-खुचे तत्व, उनके ख़रीदे हुए एजेंट, ग़ुंडे और बदमाश सक्रिय हो जाएंगे। दुश्मन ने अपने तौर पर यह हिसाब-किताब लगाया था। जो लोग डॉलर लेकर अपने ही देशवासियों की गाड़ियां जलाते हैं, वे बाहर आ जाएंगे। समाज में ऐसे तत्व हैं लेकिन मज़बूत व्यवस्था काम कर रही हो तो ये चुप रहते हैं। दुश्मन ने सोचा था कि व्यवस्था के कमज़ोर होते ही ये लोग सक्रिय हो जाएंगे, समाज में सिर उठाएंगे, लोगों को भड़काएंगे और उन्हें व्यवस्था के ख़िलाफ़ सड़कों पर लाने की जान तोड़ कोशिश करेंगे। संक्षेप में यह कि वे व्यवस्था को उखाड़ फेंकेंगे। उन्होंने यह सपना देखा था।
वास्तव में क्या हुआ? वास्तव में इसके विपरीत हुआ। बिल्कुल इसके उलट हुआ। दुश्मन के हमले ने साबित कर दिया कि ये लोग जो अनुमान लगाते हैं, चाहे राजनैतिक क्षेत्र से संबंधित हो या अन्य क्षेत्रों से, सही नहीं हैं। दुश्मन का चेहरा बेनक़ाब हो गया। दुश्मन के छिपे हुए लक्ष्य, जिन्हें वह अपने बयानों में किसी तरह प्रकट नहीं होने देता, बहुत हद तक स्पष्ट हो गए। वह आठ-नौ महीने बैठकर किसी कार्यवाही की, सैन्य कार्यवाही की योजना बनाते हैं। लोग समझते हैं कि नहीं, कोई ख़बर नहीं है, कोई बात नहीं है। जनता समझ गई कि ऐसा नहीं है। अल्लाह ने उनकी साज़िश नाकाम बना दी। उनकी इस साज़िशी योजना को ख़ुदा ने नाकाम बनाया। अल्लाह ने जनता को सरकार और व्यवस्था का समर्थक बनाकर मैदान में उतारा। जनता मैदान में उतरी लेकिन दुश्मन ने जो योजना बनाई थी, उसके अनुसार नहीं बल्कि उसकी विपरीत दिशा में, जनता व्यवस्था के समर्थन में मैदान में आई और जान-माल से उसका समर्थन किया। टीवी पर विभिन्न लोगों के बयान आपने देखे जो विभिन्न वेशभूषा में, विभिन्न रूपों में और विभिन्न पोशाकों में प्रकट हुए, कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये लोग सामने आकर इस तरह बलिदानी अंदाज़ में बोलेंगे। हालांकि बोलने में और करने में अंतर होता है लेकिन ख़ुद इस तरह बोलना भी अपने आप में अहम है, इससे पता चलता है कि वह भावना मौजूद है जिसकी वजह से इंसान इस तरह बोलता है। यह बहुत अहम है। किसी को यक़ीन नहीं था कि यह होगा। सभी विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के साथ यहां तक कि विरोधी राजनैतिक रुझान रखने के बावजूद, बिल्कुल अलग धार्मिक रुझान के बावजूद, सभी एक साथ खड़े हो गए और एक बड़ी एकता, महान राष्ट्रीय एकजुटता का नज़ारा पेश किया।
मैं यह कहना चाहता हूँ कि इसकी रक्षा करें। सभी इसकी रक्षा करें। पत्रकार अपने तरीक़े से, न्यायाधीश अपने ढंग से, सरकारी अधिकारी अलग तरह से, धार्मिक विद्वान अपने तौर पर, जुमे की नमाज़ के इमाम अपने तरीक़े से, हर किसी का कर्तव्य है कि इस स्थिति को सुरक्षित रखे। इसमें और राजनैतिक रुझान के मतभेद में कोई विरोधाभास नहीं है। धार्मिक विचारों के मतभेद और इसमें कोई टकराव नहीं है। एक सच्चाई की रक्षा में, देश की रक्षा में, व्यवस्था की रक्षा में और अज़ीज़ ईरान की रक्षा में सभी का एक साथ डट जाना। (इसे सुरक्षित रखा जाए।)
अलबत्ता कुछ काम ज़रूरी हैं और कुछ काम नुक़सानदायक हैं। तबयीन (स्पष्टीकरण देना, बयान करना) ज़रूरी है। उन भ्रांतियों को दूर करना ज़रूरी है जो कभी-कभी पैदा हो जाती हैं लेकिन अनावश्यक आपत्तियां और छोटे-छोटे मुद्दों पर बहस करना और हंगामा खड़ा करना नुक़सानदायक है। दोनों में अंतर है। ख़ुद भ्रांति दूर करने की जो बात मैंने कही, यह काम भी अलग-अलग तरीक़ों से किया जा सकता है। यह काम ऐसे बेहतरीन तरीक़े से किया जाए कि देश के लिए कोई समस्या खड़ी न हो।
ज़बान से और बातों में व्यवस्था से वफ़ादारी दिखाना लाभदायक और आवश्यक है। आवश्यक भी है और फ़ायदेमंद भी है। जिस विषय पर चर्चा हो रही है, उस संदर्भ में व्यवस्था की नीतियों का समर्थन और उन्हें स्वीकार करना ज़रूरी है लेकिन लोगों के बीच जो विचारात्मक मतभेद होते हैं, उन्हें गहरा करना और यह कहना कि यह इस गुट से है, वह उस गुट से है, यह बात इस तरह है, यह नुक़सानदायक है। इसलिए कुछ काम ज़रूरी हैं और कुछ काम हानिकारक हैं। हमें इन्हें अलग करना होगा।
जनता का उत्साह और जोश ज़रूरी है। आज ईरानी जनता में एक जोश पाया जाता है, ख़ासकर युवाओं में यह जोश ज़्यादा है, यह बहुत अच्छी बात है। यह आवश्यक है लेकिन जल्दबाज़ी नुक़सानदेह है। जल्दबाज़ी करें और शोर मचाएं कि यह क्यों नहीं हुआ? यह काम क्यों नहीं किया? कोई कार्यवाही क्यों नहीं की? यह हानिकारक है। यह जानना ज़रूरी है कि कौन सा काम करना चाहिए और कौन सा काम नुक़सानदायक है। इसीलिए ये बातें और सिफ़ारिशें मैंने की हैं।
मेरा अंतिम सुझाव यह है कि आज ख़ुदा का शुक्र है कि ज़िम्मेदार संस्थान जो काम कर रहे हैं, चाहे वे सैन्य संगठन हों या कूटनीति के मैदान में काम करने वाले संस्थान हों, दोनों ही सही ढंग से और सही दिशा में काम कर रहे हैं। दोनों की सक्रियता आवश्यक है। दोनों को पूरी मेहनत से अपना काम करना चाहिए लेकिन सही दिशा और मार्ग पर ध्यान रहे। विशेष रूप से कूटनीति के क्षेत्र में सही दिशा और मार्ग पर ध्यान देना बेहद अहम है। इस पर पूरा ध्यान दिया जाए। पूरे ध्यान से काम किया जाए, इंशा अल्लाह।
हो सकता है कि किसी को किसी सैन्य या कूटनीतिक मामले में, किसी अधिकारी पर आपत्ति हो। मैं यह नहीं कहता कि आपत्ति न करें, क्यों नहीं! लेकिन आपत्ति और आलोचना का अंदाज़ सहनीय होना चाहिए। दूसरे, जांच-पड़ताल के बाद, जानकारी हासिल करने के बाद ही आपत्ति या आलोचना की जाए। कई बार अख़बारों में या अन्य जगहों पर मैं कुछ बातें देखता हूं, कुछ लोग ऐसी बातें करते हैं और ऐसी आपत्तियां करते हैं जो उनकी बेख़बरी को दर्शाती हैं। वे जानते ही नहीं कि कौन सा काम हुआ है, क्या होना चाहिए था और नहीं हुआ और मिसाल के तौर पर इसे होना चाहिए। उन्हें इसकी जानकारी नहीं है। सही जानकारी हासिल करें और फिर उचित तरीक़े अपने विचार व्यक्त करें। अधिकारी पूरे जोश और शक्ति से, इंशाअल्लाह अपने काम जारी रखें और सभी, सभी जान लें कि इस पवित्र आयत के अनुसार जिसे इन साहब(2) ने अभी पढ़ा है: बेशक अल्लाह उसकी मदद करेगा जो उसकी मदद करेगा(3) अल्लाह ने इस्लामी व्यवस्था के अंतर्गत और क़ुरआन व इस्लाम की छत्रछाया में, ईरानी राष्ट्र के लिए, इस मदद को सुनिश्चित बना दिया है और ईरानी राष्ट्र निश्चित रूप से विजयी होगा।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।