रहबरे इंक़ेलाब आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इराक़ व सीरिया में पवित्र रौज़ों की हिफ़ाज़त के लिए अलग अलग मुल्कों से जाकर आतंकियों से मोर्चा लेने वाले मुजाहेदीन और रेज़िस्टेंस फ़्रंट के शहीदों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की आयोजक कमेटी से मुलाक़ात में तक़रीर की। 19 जून 2024 को होने वाली यह तक़रीर 29 जून 2024 को कान्फ़्रेंस हाल में जारी की गई। (1)
आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीच
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ अल्लाह के लिए जो पूरी कायनात का मालिक है, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा और उनकी पाक, पाकीज़ा और मासूम नस्ल पर।
सबसे पहले तो शुक्रिया अदा करता हूँ और बहुत ख़ुशी है कि यहां मौजूद लोग इस विचार को व्यवहारिक बना सके और आप पूरी संजीदगी से इस काम को अंजाम दे रहे हैं। अल्लाह की रहमत हो शहीद सुलैमानी पर, जनाब ने इशारा किया कि इस विचार और इस अमल को मरहूम शहीद सुलैमानी ने वजूद दिया था।
‘रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहेदीनʼ का विषय और रौज़ों के रक्षक नाम की यह हक़ीक़त, अक़्ल को हैरत में डालने वाली है, बहुत बड़ी हक़ीक़त है। इसके अनेक पहलू हैं और मेरे ख़याल में अगरचे बातचीत में और स्पीच वग़ैरह में इनमें से कुछ पहलुओं को बयान किया गया है, इनका ज़िक्र हुआ है लेकिन इन पहलुओं को व्यापक व संपूर्ण रूप में बयान किया जाना ज़रूरी है। मैंने आप अज़ीज़ भाइयों और बहनों की सेवा में अर्ज़ करने के लिए कुछ प्वाइंट नोट किए हैं जो उन्हीं अहम व हैरत में डालने वाले पहलुओं के बारे में हैं।
मैंने यहाँ चार पहलुओं को मद्देनज़र रखा है। एक तो उस अमल का ‘सांकेतिक पहलूʼ है। यानी मुख़्तलिफ़ जगहों से रौज़ों की ओर रवाना हो जाना और रौज़ों वग़ैरह की रक्षा के लिए होने वाली कोशिश एक सांकेतिक अर्थ रखती है। इसका एक सांकेतिक पहलू है जो मैं अभी अर्ज़ करुंगा। एक ‘इंक़ेलाब की वैश्विक नज़रʼ का पहलू है कि इंक़ेलाब की निगाहें इलाक़े के मुद्दों, वैश्विक मुद्दों और विश्व स्तर पर होने वाले बदलाव पर केन्द्रित हैं। इस पहलू से भी अध्ययन की ज़रूरत है, जिसके बारे में मैं अर्ज़ करुंगा। तीसरा पहलू यह है कि उस अमल ने बहुत बड़े ख़तरे को इस क्षेत्र से और ख़ास तौर पर हमारे मुल्क से दूर कर दिया। यह भी बहुत अहम मसला है जिस पर तफ़सील से बात नहीं हुयी है। अलबत्ता कभी कभी कुछ चीज़ें बयान की गयी हैं। चौथा मसला यह है कि इस वाक़ए ने दिखा दिया कि इंक़ेलाब चार दशक गुज़र जाने के बाद अभी भी अपने स्वाभाविक तब्दीलियों को दोबारा जन्म देने और वजूद में लाने की क्षमता रखता है जो इंक़ेलाब के आग़ाज़ में बहुत नुमायां थी। इन चारों में से हर प्वाइंट के बारे में संक्षेप में अर्ज़ करुंगा।
सांकेतिक पहलू यह है कि यह तो सही है कि अहलेबैत की ओर बढ़ना और उनके रौज़े की रक्षा हक़ीक़त में रौज़े का सम्मान करने के अर्थ में है लेकिन यह दरअस्ल उस पाकीज़ा हस्ती के संदेश और विचारधारा का सम्मान करने के अर्थ में है जो वहाँ दफ़्न है। जो चीज़ बहुत अहम है वह यही है। यानी अगर कोई उस सोच और उन लक्ष्यों का सम्मान न करता हो तो उसके लिए कोई वजह नहीं है कि वहाँ जाए और रौज़े की रक्षा करे या उस गुंबद की रक्षा करे, बचाव करे। जो लोग रौज़े की रक्षा के अभियान में शरीक हुए उनमें से कुछ ऐसे थे जो शिया नहीं थे। हम जानते हैं ऐसे लोगों को जो हमारे मुल्क से और दूसरी जगहों के थे और शिया नहीं थे। यानी मुमकिन है कि वे अहलेबैत की फ़िक़्ह पर अमल न करते हों, लेकिन अहलेबैत के लक्ष्यों को मानने वाले थे, यह बहुत अहम है।
अहलेबैत के बहुत आला लक्ष्य हैं जो कभी पुराने नहीं होंगे और सभी पाकीज़ा ज़मीरों और आज़ाद इंसानों की मांगों में सबसे ऊपर रहेंगे। जैसे न्याय, जैसे आज़ादी, जैसे ज़ालिम ताक़तों के ख़िलाफ़ संघर्ष, जैसे सत्य की राह में त्याग का ज़रूरी होना, क़ुरबानी देना। ये ऐसे आला अर्थ हैं जो इमामों की ज़िंदगी में मौजूद हैं। यह अमल उन्हीं लक्ष्यों की रक्षा और उनसे लगाव व आस्था का अमल था। यह बहुत अहम है। हम अगर इसी पहलू को, यानी आला लक्ष्यों की रक्षा के पहलू को, उस प्रचार के ज़रिए जिसका जनाब ने ज़िक्र किया, दुनिया के लोगों के कानों तक पहुंचाएं तो मानो हमने अहलेबैत के रौज़े की रक्षा में मदद की है और ख़ुद उन लक्ष्यों की भी मदद की है। क्योंकि ज़ाहिर है कि दुनिया में कुछ ऐसे ज़मीर मौजूद हैं जो दूषित नहीं हैं। आप ज़रा ग़ौर कीजिए, ख़ुद अमरीका में, आध्यात्मिक व नैतिक बुराइयों के इस केन्द्र में मुट्ठी भर नौजवान ग़ज़ा के मर्दों का, औरतों का समर्थन कर रहे हैं, जबकि उनमें बहुत से ऐसे हैं जिनको यह मालूम भी नहीं कि वह दुनिया के किस हिस्से में है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि दुनिया में हर जगह पाकीज़ा दिल व ज़मीर के लोग पाए जाते हैं। उन तक अपनी बात पहुंचाने की ज़रूरत है। उन पाकीज़ा ज़मीरों से बात करने की ज़रूरत है। हमें उनकी ओर से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिए। उनसे ग़फ़लत नहीं बरतना चाहिए। एक चीज़ जो उन तक पहुंचाने की ज़रूरत है वो यही आला लक्ष्य हैं। इन लक्ष्यों में ऐसी कशिश है कि नौजवान को घरबार, ज़िंदगी, बाप बेटे की मोहब्बत और शौहर बीवी के इश्क़ से उखाड़कर अपनी ओर खींच लेती है और अपनी रक्षा के लिए ले जाती है। यह पहला बिंदु है जो उस अमल में पाया जाता है।
उन लोगों की दुश्मनी, जो सबब बनी कि यह अभियान चल पड़े, यानी वो तत्व जिन्होंने रौज़ों के लिए ख़तरे पैदा किए, हक़ीक़त में इन्हीं आला लक्ष्यों के ख़िलाफ़ है। ऐसे लोग जो बरसों और सदियों पहले इस दुनिया से जा चुके हैं, जैसे मुतवक्किल अब्बासी। मुतवक्किल अब्बासी इमाम हुसैन की क़ब्र के ख़िलाफ़ है, वो अनादर क्यों कर रहा था? उस वक़्त से 150 साल पहले ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस नश्वर संसार से जा चुके थे, परवाज़ कर चुके थे, वो मौजूद नहीं थे। जो चीज़ मुतवक्किल को मजबूर कर रही थी कि वह उठे और यह हरकतें करे, हाथ काटे, पांव काटे, क़त्ल किया, पानी में डुबो दिया इस तरह की दूसरी करतूतें कीं, वह वही सच्चाई थी जो इस क़ब्र से परे, इस गुंबद से परे, इस मज़ार और इस ज़रीह से परे मौजूद है। वह उसी हक़ीक़त से परेशान था। अलबत्ता उसका चिंता का शिकार होना स्वाभाविक था, क्योंकि वह हक़ीक़त मुतवक्किल जैसे लोगों को कुचल देती है। इतिहास में हमेशा यही हुआ है। आज भी ऐसा ही है। यह पहला बिंदु।
दूसरा बिंदु हमने कहा कि इंक़ेलाब के वैश्विक विजन का विषय है। अभियानों के लिए एक ज़रूरी चीज़ यह होती है कि ख़ुद अपने दायरे में और अपनी मौजूदगी के दायरे में सीमित न हों। बल्कि अपने दायरे के बाहर भी नज़र रखें। ख़ास तौर पर ऐसे हालात में जो आज दुनिया में हैं कि कुछ ताक़तवर मुल्क हैं जो हमला कर सकते हैं। इस वक़्त दुनिया के मुल्कों में अमरीका की छावनियों की तादाद बहुत ज़्यादा है। दुनिया में हर जगह उनकी छावनियां हैं। ऐसे हालात में, जो भी आंदोलन, जो भी इंक़ेलाब, जो भी अभियान अपनी सीमा के भीतर सारा ध्यान केन्द्रित करेगा और बाहरी बदलाव व हालात से बेख़बर रहेगा, उसे निश्चित तौर पर नुक़सान उठाना पड़ेगा। इसलिए हर आंदोलन और हर अभियान के लिए, वो सामाजिक आंदोलन हो या राजनैतिक हो वैश्विक प्लेटफ़ार्म पर नज़र रखना, क्षेत्रीय हालात पर ध्यान देना, एक दूसरे के साथ परस्पर संवाद, संपर्क, संबंध वग़ैरह अहम ज़रूरतें हैं।
इस मैदान में बहुत ज़्यादा पुराने अतीत की बात नहीं है, हम कम से कम दो बार डसे गए। एक संवैधानिक क्रांति के मामले में और एक तेल के राष्ट्रीयकरण के आंदोलन के मसले में। संवैधानिक क्रांति के मसले में, शुरूआत में अंग्रेज़ों के जो हस्तक्षेप रहे वो तो अपनी जगह, मगर जब संवैधानिक क्रांति चल पड़ी और मज़बूती के साथ खड़ी हो गयी तो संवैधानिक क्रांति से दिलचस्पी रखने वालों, उसके ज़िम्मेदारों, हमदर्दों और संवैधानिक क्रांति पर काम करने वालों का ध्यान मुल्क के आंतरिक मसलों पर केन्द्रित हो गया, रस्साकशी, एक दूसरे से टकराव और विवाद के चलते विदेशी हालात की ओर से ध्यान हट गया। सब इस ओर से ग़ाफ़िल हो गए कि ब्रिटेन अपनी राजनीति के तक़ाज़े के मुताबिक़, मुमकिन है कि रज़ा ख़ान जैसे किसी शख़्स को लाकर संवैधानिक क्रांति वग़ैरह सबको बर्बाद कर सकता है, नतीजे में उन पर यह मुसीबत टूट पड़ी। ब्रिटेन के हस्तक्षेप की ओर से ग़फ़लत का नतीजा यह हुआ जैसा कि यह कथन मशहूर है कि सुबह आँख खुली तो नज़ारा यह था कि एक ग़ुंडा और ज़ालिम रज़ाख़ान सत्ता में पहुंच गया है। पहले सेनापति बना और फिर राजा बन गया। मैंने उसके किसी रिश्तेदार के वृतांत में रज़ाख़ान का यह जुमला पढ़ा है कि वह कहता हैः "अगर मुझे मालूम होता कि राजा बनना इतना आसान है तो बहुत पहले राजा बन गया होता।" यानी ये लोग ग़ाफ़िल हो गए। उन्हें सत्ता मिली तो अंग्रेज़ों ने हस्तक्षेप करके उसको सत्ता दिला दी। आप देखिए कि रज़ाख़ान को सत्ता, संवैधानिक क्रांति के 15 साल बाद मिली। यानी वक़्त ज़्यादा नहीं गुज़रा था। 15 साल के भीतर मुल्क में कैसे मसले पैदा हो गए कि ये लोग ग़ाफ़िल हो गए। यह एक मिसाल है।
दूसरी मिसाल तेल के राष्ट्रीयकरण की है। इतना जोश व उस्ताह, मुझे किसी हद तक अवाम का वह जोश व उत्साह याद है, वो प्रदर्शन, वो बैठकें जो हुआ करती थीं, हम मशहद में उसकी झलक देखते थे, लोगों का लगाव वग़ैरह, सब कुछ एक ऐसी बग़ावत से जिसे वाक़ई बहुत कमज़ोर और मूल्यहीन कहना चाहिए, ख़त्म हो गया। यानी वाक़ई उसमें वास्तविक फ़ौजी बग़ावत जैसी कोई चीज़ नहीं हुयी थी। मुट्ठी भर बदमाश व लफ़ंगे वग़ैरह जो तेहरान में ब्रिटेन के दूतावास के भीतर से अमरीकी पैसों के एक बैग की मदद से कंट्रोल हो रहे थे, अवाम द्वारा चुनी गई एक राष्ट्रीय सरकार को जो अवाम के भरपूर जोश व उत्साह से सत्ता में पहुंची थी, गिरा देते हैं, वह ख़त्म हो गयी, मिट गयी, उसका कोई नाम व निशान नहीं बचा, ग़फ़लत की वजह से।
आंतरिक मसलों में उलझ कर रह जाना और विदेशी ताक़तों के हस्तक्षेप की ओर से ग़ाफ़िल हो जाना, मुल्क को ऐसी मुसीबत में डाल देता है।
ईरान का इस्लामी इंक़ेलाब और ईरान का इस्लामी आंदोलन पहले दिन से इस पहलू पर नज़र रखे हुए था। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी शुरुआत की तक़रीरों में शाह की सरकार की शर्मनाक करतूतों का उल्लेख करने के साथ ही अमरीका का भी नाम लिया, ज़ायोनीवाद का नाम लिया, इस्राईल का नाम लिया। शुरू से ही उनका इन चीज़ों की ओर ध्यान था। आंदोलन के आग़ाज़ को क़रीब एक साल और दो तीन महीने ही गुज़रे थे कि इमाम ख़ुमैनी ने कैपिचुलेशन (2) के ख़िलाफ़ अपनी तक़रीर की। यानी इमाम ख़ुमैनी की नज़र कैपिचुलेशन पर थी, संसद में पास होने वाले बिल पर थी, मुल्क के आंतरिक मामलों में विदेशी ताक़तों के हस्तक्षेप पर थी। इंक़ेलाब की कामयाबी के शुरूआत के दिनों से ही इमाम ख़ुमैनी की नज़र मुल्क के बाहर के बदलाव पर थी। इमाम ख़ुमैनी के बयान आंतरिक मसलों को हल करने और आंतरिक मसलों पर ध्यान देने से भरे हुए हैं, लेकिन आप पाएंगे कि इमाम ख़ुमैनी के ज़्यादातर बयानों में विदेशी ख़तरों का ज़िक्र और मुल्क के लिए मुश्किल पैदा करने वाली चिंताओं का ज़िक्र है। वैश्विक दृष्टि, क्षेत्रीय दृष्टि, व्यापक दृष्टि, ग़ाफ़िल न होना, सिर्फ़ आंतरिक मसलों पर केन्द्रित न होना, उसी में न लगे रहना। यह चीज़ इंक़ेलाब के सिलसिले में मौजूद थी।
इसी की एक बुनियादी और अहम मिसाल यही हमारे मुजाहिदों का उन मुल्कों में जाना है जहाँ के लिए दुश्मन ने साज़िश तैयार की थी, अपनी योजनाएं बनायी थीं। वहाँ के लिए बहुत व्यवस्थित योजना बनायी गयी थी। सबसे पहले तो इराक़ में, सीरिया में और किसी हद तक लेबनान में, दुश्मन ने योजना बनायी थी और योजना बहुत ख़तरनाक थी। एक गिरोह को इस्लाम के नाम पर और धार्मिक जज़्बात की मदद से, जो बहुत अहम जज़्बा होता है और उसकी गतिविधियां बड़ी अहम होती हैं, अमरीका की मुट्ठी में और अमरीका के कंट्रोल के अंदर तैयार किया गया। दाइशी, जंग के मैदान में अल्लाहो अकबर का नारा लगाते थे और उनके घायलों को इस्राईल में, वहाँ के अस्पतालों में भर्ती किया जाता था और ज़ायोनी सरकार के बड़े बड़े नेता व अधिकारी उनका हाल चाल पूछने जाते थे। यह तो स्क्रीन पर आया और सबने देखा। यह बड़ी ख़तरनाक साज़िश थी। उस साज़िश का लक्ष्य क्षेत्र को अपने चंगुल में जकड़ना था, ईरान को अपने कंट्रोल में लेना था। यानी पूरे इलाक़े के साथ ही ईरान भी अमरीका के चंगुल में और साम्राज्यावाद के चंगुल में चला जाता। 7 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च किए। यानी वह रक़म जिसका अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष ने एलान किया (3)। इस इलाक़े में उन लोगों ने 7 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च कर दिए और सबका सब बर्बाद हुआ। उनका सारा पैसा बर्बाद हो गया। वो चाहते थे कि दाइश के ज़रिए इस्लाम के नाम पर सरकारें बनाएं और इस्लामी राष्ट्र ईरान के दोनों ओर हमारे पूरब में एक मुल्क में और पश्चिम में भी एक मुल्क के भीतर तकफ़ीरी इस्लाम क़ायम कर दें और इस्लामी जम्हूरिया को आर्थिक मुश्किलों के साथ साथ फ़िरक़ों, विचारों और आस्था के विवादों में उलझाकर ख़त्म कर दें, निगल जाएं, मिटा दें। रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिदों ने जो क़दम उठाया उससे यह साज़िश नाकाम हो गयी। यानी अलग अलग मुल्कों से बूढ़े और जवान लोगों का एक समूह इस्लामी गणराज्य के नेतृत्व में इस बड़ी साज़िश को नाकाम करने में कामयाब हुआ जिसे साम्राज्यवादी सिस्टम ने बड़ी बारीकी और ध्यान से तैयार किया था। तो इंक़ेलाब की वैश्विक नज़र बहुत अहमियत रखती है।
नया मिडिल ईस्ट जो वो कहते थे उससे मुराद यही मिडिल ईस्ट था जिसके यही हालात हों। पूरी तरह अमरीका के चंगुल में हो, इराक़ में भी और सीरिया में भी धर्म के नाम पर सरकार क़ायम हो लेकिन इस्राईल और अमरीका के प्रभाव में हो और इस्लामी गणराज्य पर दबाव डाले। रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिदों के व्यवहार ने इस पहलू से देखा जाए तो पूरे क्षेत्र को बचाया। यानी यह बहुत बड़ी बात है कि इलाक़े को बहुत बड़े ख़तरे से, बड़ी ख़तरनाक साज़िश की मुसीबतों से बचा लिया। यह दूसरा बिन्दु है।
तीसरा प्वाइंट जो हमने ज़िक्र किया वह क्या था? वह एक बड़ी आंतरिक साज़िश यानी अशांति की साज़िश को नाकाम बनाने के पहलू से था। दाइश और दूसरे गिरोह जो सीरिया और इराक़ में उसी की राह पर चलने वाले, उसके हमराह और उसके प्रतिद्वंदवी के तौर पर थे, अगर उसी ढांचे, उसी व्यूह के साथ आज तक मौजूद होते तो ईरान सहित पूरे क्षेत्र से शांति चली जाती। हमें अपने मुल्क में हर दिन कई बार शीराज़ के शाह चेराग़ (4) जैसे किरमान जैसे (5) वाक़ेआत देखना पड़ते। इराक़ में भी यही सब कुछ होता, सीरिया में भी यही सब चलता रहता उस वक़्त तक जब तक उनके हाथ में सत्ता न पहुंच जाती। रौज़ों की रक्षा करने वालों ने इस ख़तरे को दूर कर दिया।
बेशक वो इधर उधर छिपे बैठे हैं और अमरीका की छत्रछाया में अब भी हैं, दाइशी अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुए हैं। लेकिन उनका संस्थागत ढांचा ख़त्म हो चुका है। यह कल्पना कि अगर इस गिरोह को तितर बितर न किया गया होता तो क्या होता, वाक़ई बहुत चिंता पैदा कर देती है। ये निर्दयी लोग, ये बेरहम गिरोह ऐसी करतूतें कर रहा था जिसकी अतीत में मिसाल नहीं मिलती। कैमरे के सामने लोगों को ज़िंदा जला दें, पानी में ज़िंदा डुबो दें और उन्हें अमरीका का सपोर्ट भी हासिल रहे, पश्चिमी प्रोपैगंडा संस्थानों का सपोर्ट भी उन्हें हासिल रहे! जो करतूतें वो करते थे, उसकी वीडियोग्राफ़ी, फ़ोटोग्राफ़ी और उनकी इन सारी करतूतों में टेक्निकल बारीकियां जो होती थीं वो सब मुट्ठी पर अनपढ़ लोगों के बस की बात नहीं थी। उनकी मदद की जाती थी। उन्हें सपोर्ट मिल रहा था। यह साज़िश थी कि ये लोग आकर इस इलाक़े में अपने पांव जमा लें, ऐसी स्थिति में अमन व शांति नाम की कोई चीज़ नहीं रह जाएगी। एक अहम बिंदु यह था।
आख़िरी बिंदु यह है कि जो हमने अर्ज़ किया कि रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिदों के आगे आने से साबित हो गया कि इस्लामी इंक़ेलाब के भीतर वही इंक़ेलाब के आग़ाज़ के दौर का जोश व उत्साह पैदा करने और उसे जारी रखने की सलाहियत मौजूद है। यानी यह साबित हो गया। आम तौर पर आंदोलन के आग़ाज़ में बहुत जोश व उत्साह रहता है, फिर मुख़्तलिफ़ वजहों से वह जोश व उत्साह पहले तो कमज़ोर पड़ता है, उसके बाद पूरी तरह ख़त्म हो जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि उस आंदोलन की बिसात ही समेट दी जाए। हमने यह चीज़ अपने समकालीन इतिहास में देखी है। जैसे फ़्रांस का इंक़ेलाब, सोवियत संघ का इंक़ेलाब वग़ैरह में हमने देखा। फ़्रांस जैसे मुल्क में विशाल अवामी आंदोलन शुरू होता है और पूरे फ़्रांस को अपनी लपेट में ले लेता है। एक इंक़ेलाब आ जाता है। फिर बारह तेरह साल की मुद्दत में कुछ वाक़ए होते हैं, कुछ उतार चढ़ाव आते हैं, और ये सब उनकी आध्यात्मिक व नैतिक कमज़ोरी की निशानियां हैं, नतीजा यह निकलता है कि वो आंदोलन पूरी तरह मिट जाता है और नेपोलियन जैसा ज़ालिम तानाशाह सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेता है। आम तौर पर ऐसा ही होता है।
इस्लामी जम्हूरिया के सिलसिले में भी कुछ लोगों को उम्मीद थी कि यही हालात दोहराए जाएं लेकिन रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिदों की मौजूदगी ने साबित कर दिया कि चार दशक गुज़र जाने के बाद भी वह जज़्बा क़ायम है।
उन नौजवानों की जीवनी, जो अपने घरबार से और अपनी ज़िंदगी से जुदा होकर गए, मैंने उनमें कुछ किताबों का अध्ययन किया है, सचमुच हिलाकर कर रख देती है। एक नौजवान जिसके पास नौजवानी का आनंद उठाने के सारे संसाधन मौजूद हैं, जवानी गुज़ारने की सहूलतें मुहैया हैं, सुकून है, मोहब्बतों से, भौतिक संसाधनों से, शैक्षणिक तरक़्क़ी के साधनों से ख़ुद को अलग करता है और रवाना हो जाता है एक नज़रिए, एक आंदोलन, एक इंक़ेलाब, एक अभियान की रक्षा के लिए! यह बहुत बड़ी बात है। उन्होंने न तो इमाम ख़ुमैनी को देखा है, न जंग और पाकीज़ा डिफ़ेंस का ज़माना देखा है, लेकिन देखने में आता है कि उसी अंदाज़ से, उसी जज़्बे के साथ, कभी कभी तो उससे भी बेहतर अंदाज़ में, ज़्यादा बसीरत के साथ जाते हैं और उस अंदाज़ से जंग करते हैं। अपनी जान हथेली पर रखते हैं, उनमें कुछ शहीद होते हैं, कुछ शहीद नहीं होते। इससे यह पता चलता है कि इंक़ेलाब के अंदर यह अजीब सलाहियत मौजूद है। यह बहुत बड़ी बात है। अलबत्ता दूसरी मुख़्तलिफ़ शक्लों में जैसे यही इंक़ेलाब की सालगिरह की रैलियां हैं, या हैरत में डाल देने वाली बहुत बड़े पैमाने की शवयात्रा है जिसकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिलती, यही हालिया दिनों की शवयात्रा और शहीद सुलैमानी की शवयात्रा वग़ैरह वाक़ई दुनिया में कहीं भी इसकी कोई मिसाल नहीं दिखाई दी। हमने ये चीज़ें देखी थीं, लेकिन इनसे बढ़कर यही जंग के मैदान में रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिदों की मौजूदगी है। यहाँ तक कि उनमें से भी कुछ लोग कि जिन्हें भौतिक आयाम से समीक्षा की आदत पड़ गयी है, आप कुछ भी कीजिए, कोई भी दलील पेश कर दीजिए वह इस तर्क को अपने मन में उतारने और अपने मन को संतुष्ट करने पर तैयार नहीं हैं और कुछ को कहना पड़ाः
हर दरूनी कि ख़याल अंदेश शुद - चून दलील आरी ख़यालश बीश शुद
(जिसका मन ख़यालों और भ्रम का आदी हो गया हो अगर उसके लिए आप दलीलें लाएंगे तो उसका वहम बढ़ता ही जाएगा।) (6)
उनकी नज़र पश्चिम की ग़लत वैचारिक बुनियादों पर लगी रहती हैं, वो इस उम्मीद में थे कि यह इंक़ेलाब जो उस भौतिक सोच के ख़िलाफ़ आया धीरे धीरे कमज़ोर पड़ जाएगा। उनमें कुछ तो शुरू में इंक़ेलाबी थे, बाद में वो विरोधी या मुक़ाबला करने वाले पक्ष में बदल गए या कम से कम इंक़ेलाबी सोच से उन्होंने अपना रास्ता अलग कर लिया। वो कहते थे कि जो लोग पाकीज़ा डिफ़ेंस में गए अगर आज ज़िंदा होते तो हमारी तरह होते। अपने जैसा समझते हैं। मगर इन नौजवानों ने साबित कर दिया कि नहीं! यह ग़लत सोच है। ऐसा नहीं है। पाकीज़गी, बहादुरी, बलिदान, पाक नीयत और इंक़ेलाबी उसूलों पर गहरा ईमान और विश्वास उन नौजवानों में जो गए, वाक़ई हैरत में डाल देता है, वाक़ई एक बेमिसाल हक़ीक़त है। इंसान को हैरत होती है। अल्लाह की कृपा के अलावा, अल्लाह की ओर से मार्गदर्शन के अलावा, इमामों की मार्गदर्शक उंगली के इशारे के अवाला यह कोई और चीज़ नहीं हो सकती। अब उनमें जो बड़ी हस्तियां हैं जैसे शहीद सुलैमानी, शहीद हमदानी और दूसरे बुज़ुर्ग जो इस राह में शहीद हुए उनका रुतबा अपनी जगह है।
इससे मैं यह नतीजा निकालता हूँ कि रौज़ों की रक्षा करने वाले मुजाहिद और उनके घरवाले इस्लामी नेशन ईरान के लिए फ़ख़्र व सरबुलंदी का स्रोत हैं, इस्लामी इंक़ेलाब को बचाने और कामयाब बनाने का ज़रिया हैं। इस्लामी गणराज्य निश्चित तौर पर उन अज़ीज़ों, उन शहीदों, उनके घर वालों और उन मुजाहिदों का ऋणी है। अल्लाह उनके दर्जे बुलंद करे और उनकी पाक आत्माओं को पैग़म्बरे इस्लाम के साथ उठाए। उन्हें हमसे राज़ी रखे, हमें भी उनमें शामिल कर दे।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।
गुफ़्त हर मर्दी के बाशद बदगुमान - नशनवद उ रास्त रा बा सद निशान