बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का तर्जुमाः सारी तारीफ़ें पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

आज बहुत ही फ़ायदेमंद व दिलचस्प सभा आयोजित हुयी जो हमारे भविष्य और हमारे विचारों के लिए इंशाअल्लाह बहुत लाभदायक साबित होगी। मुझे इस बात पर बड़ी ख़ुशी है कि इस साल मैं इस जलसे को आयोजित करने में कामयाब हो सका। पिछले साल महिलाओं ने एक ख़त लिखा था जिसमें एतराज़ किया था कि आपने महिला दिवस को अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के क़सीदाख़ानों और नौहाख़ानों से अपनी मुलाक़ात से क्यों विशेष कर दिया? ठीक बात है, एतराज़ तर्किक है। इस मुलाक़ात के सिलसिले में महिला दिवस की कोई ख़ासियत नहीं है, हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के जन्म दिन के आस पास यह मुलाक़ात किसी भी दिन हो सकती है, अगर हम ज़िन्दा रहे तो भविष्य में भी इंशाअल्लाह यह मुलाक़ात होगी।

यह बैठक इस लम्हे तक पूरी तरह ज़नाना बैठक थी जो बड़े अहम विचारों से भरी हुयी थी। महिलाओं ने जो बातें बयान कीं वह बहुत अच्छी थीं और हक़ीक़त में मेरे लिए फ़ायदेमंद रहीं। अलबत्ता सिर्फ़ एक बार वह भी तेज़ी से और इस माइक पर बयान की जाने वाली बातों को सुनकर इन बातों की पुष्टि मुमकिन नहीं है। ग़ौर करना पड़ता है, सोचना होता है, इसलिए अपनी इन तहरीरों को ज़रूर मेरे हवाले कीजिए। जिन महिलाओं ने लिखे बग़ैर तक़रीरें कीं, वे भी अपनी बातो को लिखें, इससे इन बातो पर ज़्यादा गहराई से सोचा जा सकेगा और मुझे इनके बारे में सोचने और ग़ौर करने का मौक़ा मिल जाएगा। ताकि मैं इन लिखित बातों को कुछ लोगों को दूं जो इनके बारे में सोचें, इनकी स्टडी करें, आपकी बातों में कुछ सुझाव भी थे, इंशाअल्लाह इन सुझावों के बारे में कोई हल निकालें। शायद इनमें से कुछ सुझावों का संबंध मिसाल के तौर पर इन्क़ेलाब की कल्चरल काउंसिल से हो, तो वहाँ पेश किए जाएं या किसी भी दूसरी जगह। ख़ास तौर पर हमारी ज़ेहीन, कारामद, तजुर्बेकार, अक़्लमंद और समझदार महिलाओं को मुल्क के मुख़्तलिफ़ अहम ओहदों पर नियुक्त करने का विषयहै,  यह बहुत अहम विषय है। अलबत्ता यह बात मेरे ज़ेहन में है और हमें इसके लिए कोई रास्ता निकालना होगा, इंशाअल्लाह कोई रास्ता तलाश कर लेंगे, देखते हैं क्या किया जा सकता है। ख़ैर, आज आपने इन महिलाओं से बहुत अच्छी बातें सुनीं, मैं इस तराने की सारीफ़ करना न भूल जाउं जो इन बच्चियों ने पढ़ा, सच में तारीफ़ के क़ाबिल है, इसके शेर भी बहुत अच्छे थे और इसकी धुन भी बहुत अच्छी थी, साथ ही बहुत अच्छे तरीक़े से पेश किया गया। मैं इन सबका शुक्रिया अदा करता हूं।

मैं आज महिलाओं के बारे में कुछ बातें बयान करना चाहता हूं। मेरे ख़्याल में कुछ अहम बिन्दु हैं। शायद इनमें से कुछ बिन्दुओं का हम पहले भी ज़िक्र कर चुके हैं या आप में से कुछ ने इन्हें बयान किया है, लेकिन अगर इन पर बार बार ताकीद हो तो बेहतर है। मैं आप ईरान की स्कॉलर लड़कियों से जो यहाँ मौजूद हैं और उन सभी से जो इन बातों को सुन रहे हैं, पहले यह बात अर्ज़ करूं कि महिलाओं के मामले में हम पश्चिम के ढोंगी दावेदारों के सामने रक्षात्मक पोज़ीशन में नहीं बल्कि जवाब तलब करने की पोज़ीशन में हैं। रक्षात्मक पोज़ीशन नहीं है। बरसों पहले एक बार मुझसे युनिवर्सिटी में स्टूडेंट्स के सामने पूछा गया कि फ़लां मामले में आप अपने बचाव में क्या पेश करेंगे? मैंने कहा कि मैं रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक पोज़ीशन में हूं। औरतों के मामले में ऐसा है, दुनिया क़ुसूरवार है। यह जो मैं दुनिया कह रहा हूँ इसका मतलब यही मौजूदा पश्चिमी दुनिया, पश्चिमी फ़िलॉस्फ़ी और पश्चिमी कल्चर है। नया और बक़ौल ख़ुद उनके मॉडर्न पश्चिम, मुझे प्राचीन पश्चिम से कोई मतलब नहीं है, वह एक अलग बहस है। नया पश्चिम यानी यही पश्चिम जिसने क़रीब दो सौ साल पहले से ज़िन्दगी के सभी विषयों के बारे में अपना अलग नज़रिया पेश किया है, उससे हम जवाब तलब करते हैं, ये पश्चिम वाले औरत के मामले में बहुत गुनहगार हैं, क़ुसूरवार हैं, उन्होंने नुक़सान पहुंचाया है, अपराध किए हैं। इसलिए जो बातें हम बयान करते हैं उनका डिफ़ेन्सिव पहलू नहीं, इस्लामी नज़रिया, इस्लामी अक़ीदा और इस्लामी स्टैंड बयान करने का पहलू है। यहाँ तक कि अगर ये बातें, जो हम औरत के मसले में और औरत के विषय पर पेश करते है और अलहम्दो लिल्लाह देखते हैं कि आप जैसी महिलाएं, जिन्होंने यहाँ बातें पेश की हैं, पूरी गहराई से इन मामलों को समझती हैं, इन्हें बार बार दोहराइये, बयान कीजिए, यह उम्मीद भी है कि आप पश्चिम के जनमत पर वाक़ई प्रभाव डालने में कामयाब होंगी, क्योंकि उनकी महिलाएं वाक़ई तकलीफ़ में हैं। आज पश्चिमी औरतों का समाज कुछ मामलों में ऐसी पीड़ा में ग्रस्त है कि उसके बारे में उसे पता नहीं है और कुछ मामलों में पीड़ा के बारे में उसे पता है, उस पर भी आप प्रभाव डाल सकती हैं।

एक बात जो मैं पेश करना चाहता हूं, वह लिंग और औरत के मसले के बारे में इस्लाम के नज़रिये के तअल्लुक़ से है कि औरत और मर्द के विषय में इस्लाम का नज़रिया क्या है। मैं यहाँ संक्षेप में पेश करुंगा, उसकी व्याख्या, तफ़सील और आंशिक बातें तलाशना (2) आपका का काम है कि उस पर काम कीजिए, रिसर्च कीजिए। इस्लाम के नज़रिये के बारे में इस तरह से कहा जा सकता है कि इंसानी और इस्लामी पहलू से मूल्यांकन के मसले में इस्लाम के मद्देनज़र 'इंसान' है, औरत या मर्द की क़ैद नहीं है, दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। इंसानी व इस्लामी मूल्यों के मामले में औरत और मर्द की बराबरी, इस्लाम के निश्चित उसूलों में शामिल है, इसमें किसी तरह के शक की कोई गुंजाइश नहीं है। क़ुरआन मजीद की आयत में और यहाँ जिन आयतों की तिलावत की गयी, उन्हीं के क्रम में इस तरह फ़रमाया गया हैः बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, मोमिन मर्द और मोमिन औरतें, इताअत गुज़ार मर्द और इताअत गुज़ार औरतें, सच्चे मर्द और सच्ची औरतें, साबिर मर्द और साबिर औरतें, आजिज़ी करने वाले मर्द और आजिज़ी करने वाली औरतें, सदक़ा देने वाले मर्द और सदक़ा देने वाली औरतें, रोज़ादार मर्द और रोज़ादार औरतें, अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले मर्द और हिफ़ाज़त करने वाली औरतें और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले मर्द और औरतें। क़ुरआन मजीद औरत और मर्द के लिए दस ख़ूबियों को बयान करता है जो सभी अज्र व मुआवज़े में बराबर हैं। अल्लाह ने उनके लिए मग़फ़ेरत और बड़ा अज्र व सवाब मुहैया कर रखा है।(3) इस्लाम का नज़रिया यह है। या एक दूसरी आयत में कहा गया हैः मैं किसी अमल करने वाले के अमल को चाहे मर्द हो या औरत, कभी ज़ाया नहीं करता। (4) दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है। यानी इंसानी और इस्लामी क़द्र व क़ीमत तय करने के लेहाज़ से औरत और मर्द के बीच कोई फ़र्क़ नहीं है। इस्लाम औरत और मर्द को एक इंसान की निगाह से देखता है। दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है।

अलबत्ता एक दूसरे के सिलसिले में औरत और मर्द की ज़िम्मेदारियां अलग हैं, लेकिन संतुलन पाया जाता है। अल्लाह, क़ुरआन मजीद के सूरए बक़रा में फ़रमाता हैः औरतों के लिए वैसे ही हुक़ूक़ भी हैं जैसी ज़िम्मेदारियां भी हैं। (5) जितना उन्हें हक़ दिया गया है उसी के हिसाब से उनकी ज़िम्मेदारी भी है। एक चीज़ उन्हें दी गयी है तो उसी के हिसाब से उसके मुक़ाबले में एक चीज़ है यानी उनके कंधों पर रखी गई है और उनकी ज़िम्मेदारी है। मतलब यह कि जो भी ज़िम्मेदारी किसी के हवाले की गयी है, उसके मुक़ाबले में एक हक़ भी पाया जाता है। दोनों में से जिसे भी जो इम्तेयाज़ दिया गया है उसके मुक़ाबले में एक ज़िम्मेदारी मौजूद है, पूरी तरह से संतुलन है। यह औरत और मर्द के अधिकारों की बात है। इसलिए अधिकार और फ़रीज़े एक जैसे तो नहीं हैं लेकिन संतुलित हैं। एक मोहतरमा ने अपनी बातों में इसी चीज़ की तरफ़ इशारा किया, उन पर काम हुआ, उनके बारे में स्टडी की गयी, उसकी तफ़सील आप उन्हीं किताबों और तहरीरों वग़ैरह में देख सकती हैं।

जहाँ तक ज़िम्मेदारी क़ुबूल करने के सिलसिले में नज़रिये की बात है तो यहाँ औरत और मर्द की क़ुदरती ख़ासियतों को मद्देनज़र रखा गया है। मर्द और औरत के बीच, यानी ज़नाना फ़ितरत और मर्दाना फ़ितरत के बीच कुछ फ़र्क़ पाए जाते हैं। जिस्म में भी, रूह में भी, फ़िक्री मामलों में भी, कुछ फ़र्क़ मौजूद हैं, ज़िम्मेदारियां और फ़रीज़े इन्हीं फ़र्क़ों के मुताबिक़ रखे गए हैं। इन फ़र्क़ों का इन फ़रीज़ों पर प्रभाव पड़ता है जो मर्द और औरत के कंधों पर रखे गए हैं, यह ज़नाना फ़ितरत और मर्दाना फ़ितरत से संबंधित विषय है। दोनों में से किसी को भी अपनी फ़ितरत के ख़िलाफ़ कोई भी काम नहीं करना चाहिए। यह मर्द जो अपने रहन सहन, चेहरे के मेकप और दूसरी चीज़ों में औरतों की तरह दिखने की कोशिश करता है, वह औरत जो अपनी बातों और कामों को मर्द की तरह अंजाम देती है, दोनों ही ग़लत कर रहे हैं। तो यह बात निजी फ़रीज़ों और दूसरे लफ़्ज़ों में मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियों की थी जो घर के अंदर और घर के बाहर पायी जाती है।

अगर समाजी ज़िम्मेदारियों की बात की जाए तो औरत और मर्त की ज़िम्मेदारियां एक जैसी हैं। रोल अलग हैं लेकिन ज़िम्मेदारियां एक जैसी हैं। यानी मर्दों पर भी और औरतों पर भी जेहाद वाजिब है, अलबत्ता मर्द का जेहाद अलग तरह का है और औरत का जेहाद अलग तरह का है। मिसाल के तौर पर आठ वर्षीय पवित्र डिफ़ेन्स के दौर में, औरतों पर भी ज़िम्मेदारियां थीं, शरीअत के लेहाज़ से ज़िम्मेदारियां थीं और उन्होंनें अपनी ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाया। इस दौरान अगर औरतों ने मर्दों से बेहतर काम नहीं किया तो कम से कम मर्दों के बराबर तो काम किया ही है। अगर पवित्र डिफ़ेन्स में औरतों के रोल के बारे में लिखी गयी किताबें आपने नहीं पढ़ी हैं तो ज़रूर पढ़िए, कुछ किताबें लिखी गयी हैं। अल्लाह का शुक्र है कि इन चीज़ों के बारे में सोचा जा रहा है। हमारे अच्छे जवान, इन चीज़ों पर काम कर रहे हैं। फ़र्ज़ कीजिए कि शहीदों की बीवियों की ज़िन्दगी के बारे में जो किताबें लिखी गयी हैं, मुझे नहीं लगता कि आप इनमें से किसी भी किताब को पढ़िए और पढ़ने के दौरान दस बार आपके आंसू न निकलें, यह मुमकिन नहीं है! मतलब हम इस औरत के जेहाद को देखते हैं, मर्द जंग के मैदान में गया है लेकिन औरत जेहाद कर रही है, दोनों पर ही जेहाद वाजिब है। अच्छाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना औरत पर भी वाजिब है और मर्द पर भी वाजिब है, बस रोल अलग कर दिए गए हैं, रोल एक जैसे नहीं हैं। यह उन अलग अलग मैदानों में जिनका मैंने ज़िक्र किया, औरत के सिलसिले में और मर्द के सिलसिले में इस्लाम का नज़िरया है। तो यह एक विकसित नज़रिया भी है और न्यायपूर्ण भी हैः औरत अपने नुमायां मक़ाम पर, मर्द अपने नुमायां मक़ाम पर, पश्चिम में मूल्यांकन के लिए अपनाए जाने वाले पूंजीवादी सिस्टम के बरख़िलाफ़, दोनों ही को क़ानूनी, फ़िक्री, वैचारिक और व्यवहारिक पहलुओं से अलग अलग विशिष्टता हासिल है, अलबत्ता मैंने पहले ही अर्ज़ किया कि तथाकथित मॉडर्न वेस्ट की मैं बात कर रहा हूं।   

बुनियादी तौर पर पश्चिम की पूंजीवादी व्यवस्था, मर्दों के वर्चस्व वाली व्यवस्था है, यानी जो बात वह इस्लाम के बारे में कहते हैं, वह बकवास करते और झूठ बोलते हैं, बिल्कुल वही उनके बारे में लागू होती है, क्यों? इस सोच की जड़ यह है कि पूंजीवादी सिस्टम में पूंजी को इंसानियत से ऊपर रखा जाता है। इंसानों को पूंजी की सेवा में लगाया जाता है। जो इंसान ज़्यादा पूंजी हासिल करे, ज़्यादा संपत्ति इकट्ठा करे, उसकी वैल्यू ज़्यादा होती है। मर्द ज़्यादा ताक़तवर होता है, अफ़्रीक़ा में और अमरीका और दक्षिणी अमरीका वग़ैरह में सोने, हीरे जवाहेरात की कानों में खुदाई का काम मर्द किया करते थे, आर्थिक व व्यापारिक और इसी तरह के मामलों के ऊंचे ओहदे मर्दों के पास होते थे यानी पूंजीवादी सिस्टम में मर्द को औरत पर तरजीह हासिल है, क्योंकि इंसान पर पूंजी के रुझान की बात मर्द पर ज़्यादा लागू होती है। तो जब यह तय हो गया कि पूंजी, इंसानों की अहमियत व मक़ाम को तय करेगी, तो फिर इंसान एक जैसे नहीं हैं, बल्कि क़ुदरती तौर पर अलग अलग हैं। फिर हमने कहा कि इंसानों पर पूंजी के रुझान के इस नज़रिये के मुताबिक़, मर्द क़ुदरती तौर पर औरत से ऊंची जगह पर है। इसलिए आप देखते हैं कि पूंजीवादी सिस्टम में औरत से दो तरह से फ़ायदा उठाया जाता हैः एक ख़ुद काम के तअल्लुक़ से, यह बहुत अहम प्वाइंट है। इन मोहतरमा ने जो फ़रमाया कि पश्चिम में रहती थीं, उसूली तौर पर इन बिन्दुओं से बेहतर तौर पर आगाह हैं, जानती हैं, किताबों में और जहाँ जनरल नॉलेज की बातें होती हैं, वहाँ आप इस बात को देख सकती हैं। इस वक़्त भी पश्चिमी मुल्कों में एक ही काम के लिए औरतों की तनख़्वाह, मर्दों की तुलना में कम है, यानी वही काम जो मर्द करता है, उसे औरत से कराया जाता है और कम मज़दूरी दी जाती है क्योंकि वह कमज़ोर है, ऐसा ही होता है, यह एक तरह का शोषण हैं। उन्नीसवीं सदी और उसके बाद बीसवीं सदी में -ज्यादातर उन्नीसवीं सदी में- औरत की आज़ादी का मसला उठाने की एक वजह यह थी कि औरतों को घर से बाहर खींच लाएं और उन्हें कारख़ानों में ले जाकर कम मज़दूरी पर उनसे काम करावाएं, ग़लत फ़ायदा उठाया जाए।

यहीं पर मैं ब्रैकेट में एक बात कहता चलूं, अमरीका में बिल्कुल यही मामला अश्वेतों की आज़ादी के सिलसिले में पेश आया, सन 1860 में अमरीका की सिविल वॉर में, यानी क़रीब 160 साल पहले, कई बरसों तक चलने वाली इस सिविल वॉर में, चार बरस में 10 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए, यह जंग उत्तर और दक्षिण के बीच थी, इस जंग के बाद ग़ुलामों की आज़ादी, अश्वेतों की आज़ादी का मामला उठाया गया। दक्षिण में खेती थी जबकि उत्तर में इंडस्ट्रीज़ थीं। दक्षिण, ग़ुलामों का गढ़ था, ग़ुलाम ज़्यादातर दक्षिण में थे जो खेती के काम में लगे हुए थे, उत्तर वालों को सस्ते मज़दूरों की ज़रूरत थी, इन अश्वेतों की ज़रूरत थी, उत्तर वालों ने ग़ुलामों की आज़ादी का राग अलापना शुरू किया। अगर आपने अंकल टॉम्ज़ केबिन (Uncle Tom’s Cabin) नॉवेल पढ़ा होगा तो आप यह नज़र आएगा, यह क़रीब 200 साल पुरानी किताब है, अंकल टॉम्ज़ केबिन को क़रीब 200 साल पहले लिखा गया था, यह उसी वक़्त की किताब है। अश्वेतों को उकसाया जाता था, वह यहाँ से फ़रार हो जाते थे, उन्हें उस तरफ़ ले जाते थे, किस लिए? ताकि वे आज़ाद रहें? नहीं, बल्कि इसलिए कि उन्हें सस्ते मज़दूरों की ज़रूरत था, सस्ते मज़दूरों की! मुख़्तलिफ़ मामलों में पश्चिम के तथाकथित सिविलाइज़्ड लोगों की धोखाधड़ी इसी तरह की है। इस तरह के नमूने और मिसालें काफ़ी हैं।

एक जगह यह थी जहाँ औरत को नुक़सान पहुंचाया गया और उसे काम के मैदान में ढकेल दिया गया ताकि ख़र्च कम हो, ख़र्च कम हो जाए, वे कम पैसे ख़र्च करें, दूसरे यह कि चूंकि मर्द श्रेष्ठ लिंग का है इसलिए औरत मर्द के लिए आनंद का ज़रिया क़रार पाए, अलबत्ता मेरे लिए यह बहुत सख़्त है, किसी भी सभा में इस सिलसिले में बात करना वाक़ई मेरे लिए सख़्त है, ख़ास तौर पर ज़नाना बैठक में। लेकिन यह एक सच्चाई है, क्या किया जाए? उन्होंने हर काम किया ताकि औरत को इस बात का यक़ीन दिला सकें कि उसकी ख़ूबियां उसके उस रहन सहन पर निर्भर है जो मर्दों के लिए यौन आकर्षण को बढ़ा सके, उन्होंने हर मुमकिन कोशिश की। यह बहुत ही दुखद दास्तान है, मैंने इस बारे में बहुत सी चीज़ें पढ़ी हैं जिन्हें वाक़ई बयान नहीं किया जा सकता। एक अमरीकी मैग्ज़ीन में -जो 8-10 साल पहले मुझे लाकर दी गयी थी- एक बहुत बड़े अमरीकी पूंजीपति ने, जिसके दसियों मॉडर्न और ख़ूबसूरत रेस्त्रां वग़ैरह भी थे, एलान किया था कि उसके पास वैकेन्सी है, किसके लिए? नौजवान लड़कियों के लिए, जवान औरतों के लिए, जिनकी ख़ुसूसियतों का उसने ज़िक्र किया था, उनमें से एक शर्त यह थी कि उनका स्कर्ट घुटने से इतना ऊपर होना ज़रूरी है। उसने तस्वीर भी दी थी कि इस तरह होना चाहिए! यानी आप देखिए, व्यापार के लिए, इंडस्ट्रीज़ के लिए, गलियों में आम ज़िन्दगी के लिए इस तरह की योजना बनायी है कि वासना में डूबे मर्द अपनी आँखों से या दूसरी तरह आनंद ले सकें! हक़ीक़त में उन्होंने औरत की इज़्ज़त को कुचल दिया, उसके सम्मान को कुचल दिया। सबसे बुरी बात यही है जिसकी ओर मैंने इशारा किया। उन्होंने बात को यहाँ तक पहुंचा दिया कि ख़ुद औरत- जवान औरत या जवान लड़की- अपनी भलाई इसमें समझे कि इस तरह से सामने आए कि उसका सेक्शुअल पहलू मर्द की निगाह को अपनी तरफ़ मोड़ सके! और वह भी किस मर्द की निगाह को? जो गलियों और सड़कों पर चल रहा है। औरत को इस अंजाम तक पहुंचाना सबसे भारी वार था जो इन लोगों ने औरत पर किया। इसके अलावा भी बहुत से दूसरे मामले हैं जिनमें से बहुत सी बातों को आप लोग शायद जानती होंगी और पढ़ चुकी होंगी।

ख़ैर मर्दों के वर्चस्व वाले इस नज़रिये का नतीजा क्या हुआ? जब वेस्टर्न सिविलाइज़ेशन में मर्द, बेहतर दर्जे का माना जाता है और कल्चर पर मर्दों का वर्चस्व है तो नतीजा यह है कि औरत कोशिश करती है कि मर्द को अपना आइडियल बना ले और मर्द, औरत का आइडियल बन जाता है। औरत मर्दाना कामों के चक्कर में पड़ जाती है, नतीजा यह है। देखिए, क़ुरआन मजीद में एक आयत है जिसकी तरफ़ मेरे ख़्याल में आप में से एक महिला ने इशारा भी किया, अलबत्ता उन्होंने आयत नहीं पढ़ी, लेकिन मेरे ख़्याल में उनके मद्देनज़र यही आयत थी। पवित्र आयत कहती हैः ʺऔर अल्लाह काफ़िरों के लिए नूह और लूत की बीवियों की मिसाल बयान करता हैʺ काफ़िरों के लिए, औरतों के दो नमूने हैं, दो काफ़िर औरतें, काफ़िर औरतों के लिए नमूना और आइडियल हैः नूह की बीवी और लूत की बीवी, जिन्होंने अपने शौहरों से धोखा किया, ʺतो वह दोनों नेक बंदे अल्लाह के मुक़ाबले में उन्हें कुछ फ़ायदा नहीं पहुंचा सकेʺ (6) उनके शौहर हालांकि पैग़म्बर थे लेकिन फिर भी वे उनके काम नहीं आ सके, उन्हें फ़ायदा नहीं पहुंचा सके। यह काफ़िरों के लिए है। इसके बाद क़ुरआन मजीद फ़रमाता हैः और अल्लाह अहले ईमान के लिए फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता है (7) दो औरतों को आइडियल क़रार देता है सभी काफ़िर इंसानों के लिए, दो औरतों को नमूना क़रार देता है सभी मोमिन इंसानों के लिए, चाहे वे औरतें हों या मर्द। मतलब यह कि अगर दुनिया के सभी मर्द मोमिन बनना चाहते हैं तो उनके लिए आइडियल दो औरतें हैं, एक फ़िरऔन की बीवी और दूसरी हज़रत मरयम। ʺऔर अल्लाह अहले ईमान के लिए फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता हैʺ पाकदामनी की चोटी पर हैं, वही महिला जो इस बात का सबब बनीं कि जब हज़रत मूसा को पानी से निकाला गया तो उन्हें क़त्ल न किया जाए, ʺइसे क़त्ल न करोʺ (8) फिर हज़रत मूसा पर ईमान लायीं और आख़िर में यातनाएं दे दे कर उन्हें क़त्ल कर दिया गया। यह आइडियल हैं। और दूसरा नमूना, ʺइमरान की बेटी मरयमʺ हज़रत मरयम सलामुल्लाह अलैहा के बारे में क़ुरआन कहता हैः ʺजिन्होंने अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त कीʺ, अफ़सोस कि हमें इस सिलसिले में ज़्यादा मालूमात नहीं है कि मामला क्या था, हज़रत मरयम के बारे में कुछ वाक़ए थे कि इस अज़ीम महिला ने पूरी ताक़त से दृढ़ता दिखाई और पाकदामनी को बचाए रखा और दूसरी बातें, जो आप लोगों को मालूम हैं। यानी वेस्टर्न कल्चर के बिलकुल बरख़िलाफ़ जो मर्द को आइडियल क़रार देता है, क़ुरआन मजीद में औरत को अमल के लिए नमूना क़रार दिया गया है, सिर्फ़ औरतों के लिए नहीं, बल्कि तमाम इंसानों के लिए, चाहे वह कुफ़्र का मैदान हो या ईमान का मैदान हो। 

पश्चिम का घटियापन यहाँ ज़ाहिर होता है, ये लोग औरत पर, उसकी हैसियत पर, उसके सम्मान पर इतने ज़्यादा वार करने के बाद ख़ुद को महिला अधिकार का चैंपियन ज़ाहिर करते हैं! ये लोग दुनिया में औरतों के अधिकारों का शोर मचाकर ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं, यह बहुत ही घटियापन है। कभी ऐसा होता है कि किसी को किसी चीज़ के बारे में ख़ुफ़िया जानकारी होती हैं, कभी ऐसा होता है कि वह चीज़ खुल्लम खुल्ला है और मैं वाक़ई नाम लेना नहीं चाहता, इंसान उस चीज़ का नाम लेने में शर्म महसूस करता है, जो पिछले साल वेस्टर्न औरतों के सिलसिले में हुयी और यौन उत्पीड़न वग़ैरह के मामले सामने आए। इन सबके बावजूद वे कहते हैं कि हम औरतों के सपोर्टर हैं, महिला अधिकार के समर्थक हैं! पश्चिम की गंदी ज़बान में जिसे औरत की आज़ादी कहा जाता है, वे ये चीज़ें हैं। ये जो वे कहते हैं कि औरत की आज़ादी, तो आज़ादी से उनका मतलब, ये चीज़ें हैं, उनकी नज़र में आज़ादी यह है, ये चीज़ें आज़ादी तो नहीं है, ये तो खुली हुयी ग़ुलामी है, पूरी तरह बेइज़्ज़ती है।

अफ़सोस की बात है कि मुल्क के अंदर हम देर से इन बिन्दुओं को समझे, यानी इनमें से बहुत सी बातें इन्क़ेलाब के बाद हमारे लिए वाज़ेह हुयीं, वरना इन्क़ेलाब से पहले यहां भी बड़ी हस्तियों की यह सोच थी कि पश्चिम में औरत और मर्द के बीच तअल्लुक़ात की आज़ादी, मर्दों के दिल और आँखों के सेर हो जाने का सबब बनेगी और फिर यौन उत्पीड़न अंजाम नहीं पाएगा, इस तरह से सोचते थे! अब आप देखिए कि उनके मन और आँखें सेर हो गयीं या सेक्शुअल क्राइम सौ गुना बढ़ गए हैं क्योंकि यौन उत्पीड़न के वाक़यात हो रहे हैं? लगातार रिपोर्टें आ रही हैं। काम की जगहों पर, गलियों व बाज़ारों में, हर जगह, यहाँ तक कि फ़ौज जैसे बहुत ही अनुशासित विभाग में भी -फ़ौज में भी औरतें हैं- सेक्शुअल हमले होते हैं! सेक्शुअल हमला, आपसी रज़ामंदी से होने वाले गुनाह से अलग है। रज़ामंदी से होने वाला गुनाह अपनी जगह, इसके अलावा बलात्कार भी है। मतलब यह कि न सिर्फ़ उनके मन और आँखें सेर नहीं हुयीं बल्कि उनके अंदर हवसनाकी सैकड़ों गुना बढ़ गई है। यही वजह है कि आप देखते हैं कि पश्चिमी माहौल में सेक्शुअल स्लेवरी है, तमाम अख़लाक़ी व इंसानी हदों को लांघने की घटनाएं हैं, इन चीज़ों को आम करने और क़ानूनी दर्जा देने की कोशिश है जो सभी धर्मों में हराम हैं। यह समलैंगिकता और इस जैसी चीज़ें सिर्फ़ इस्लाम में मना नहीं हैं, बल्कि सभी धर्मों में इसे महापाप कहा गया है, वे इन्हें क़ानूनी अमल बना रहे हैं और उन्हें शर्म भी नहीं आती! इसलिए हमारे समाज में अमली तौर पर एक चीज़ वाजिब यह है कि हम सेक्शुअलिटी के मसले में पश्चिम के नज़रिये का पालन करने से बचें।

आप होशियार, विद्वान, समझदार और पढ़ी लिखी महिलाएं, अलहम्दो लिल्लाह हर जगह हैं और यहां जो तादाद है वह तो पूरे गुलिस्तान के एक फूल के बराबर है, पूरे मुल्क में अलहम्दो लिल्लाह समझदार, संजीदा, पढ़ी लिखी, जानकार महिलाएं बहुत ज़्यादा हैं, अल्लाह का शुक्र है। हमारी वह उम्मीद, कि ये जवान और मोमिन लड़कियां बड़ी हों और विद्वान महिलाओं में तब्दील हो जाएं, अलहम्दो लिल्लाह पूरी हो गयी। आपके अहम कामों में से एक यह है कि सेक्शुअलिटी के मसले और औरत के मसले में पश्चिमी कल्चर के नज़रिये के पीछे छिपे ख़तरों को सामने लाइये, सबको बताइये, कुछ लोग नहीं जानते। ख़ुद हमारे मुल्क में कुछ लोग नहीं जानते, विदेश में भी बहुत से लोग नहीं जानते। इस्लामी मुल्कों में लोग इस तरह की चीज़ें समझने के लिए बेक़रार हैं, जिन जगहों पर हम गए हैं, और हैं और हमारी मौजूदगी है और वहाँ की ख़बरें हम तक पहुंचती हैं, वहाँ ऐसा ही है। फिर पश्चिमी मुल्कों में भी ऐसा ही है। आज साइबर स्पेस के ज़रिए संपर्क बहुत आसान हो गया है। आप लोग साइबर स्पेस के ज़रिए संपर्क क़ायम कर सकती हैं, राह समतल कर सकती हैं ताकि वे लोग ध्यान दे सकें। इन बातों को मुख़्तसर लेकिन बोलती हुयी इबारतों के सांचे में, इबारतें मुख़्तसर और छोटी भी हों और बात को पूरी तरह पहुंचाने वाली भी हों, तैयार कीजिए और जमनत के समझने के लिए पेश कीजिए, फिर हैशटैग और इसी तरह की चीज़ों को इस्तेमाल कीजिए, आज कल यह चीज़ें आपके लिए बड़ा साधन हैं जो आपके अख़्तियार में हैं। तो यह भी एक प्वाइंट हुआः औरत और मर्द के मसले और सेक्शुअलिटी के मसले में फ़िक्री और अमली लेहाज़ से इस्लाम का नज़रिया।

महिलाओं के मसलों के बारे में एक दूसरा प्वाइंट, फ़ैमिली बनाने का मसला है जिसे अलहम्दो लिल्लाह यहाँ पर बात करने वाली कुछ महिलाओं की बातों में कई पहलुओं और कई नज़रियों से पेश किया गया और बहुत अच्छा था। सच में मुझे उनकी बातों से ख़ुशी हुयी। देखिए फ़ैमिली बनाना, वजूद के एक आम क़ानून व उसूल के तहत है, सृष्टि का आम क़ानून है, वह क़ानून, जोड़े का क़ानून है। पाक है वह ज़ात जिसने सब क़िस्म के जोड़े पैदा किए चाहे वनस्तियां हों जिसे ज़मीन उगाती है या ख़ुद उनके नफ़्स हों (इंसान) या वे चीज़ें हों जिनको ये नहीं जानते। (10) अल्लाह ने हर चीज़ में, हर वस्तु में –सारी चीज़ों को पैदा किया- हर चीज़ में जोड़े का नियम व क़ानून रखा है, इंसानों में जोड़ा है, जानवरों में जोड़ा है, वनस्पतियों में जोड़ा होता है, और जिसे वे नहीं जानते” कुछ चीज़ें हैं जो जोड़े में होती हैं लेकिन हम नहीं जानते, मिसाल के तौर पर पत्थरों में जोड़ा कैसे है, हम नहीं जानते, मुमकिन है भविष्य में इस राज़ से पर्दा उठे। आकाशीय ग्रहों में जोड़ा है, किस तरह है, हम नहीं जानते, भविष्य में शायद इस राज़ से पर्दा हटे। देखिए पाक है वह ज़ात जिसने सब क़िस्म के जोड़े पैदा किए चाहे वनस्पतियां हों, जिसे ज़मीन उगाती है या ख़ुद उनके नफ़्स हों (इंसान) या वे चीज़ें हों जिनको ये नहीं जानते।” तो यह जोड़ा होने का क़ानून है। यह जो मैंने पढ़ी, यह सूरए यासीन की आयत थी। दूसरी आयत, सूरए ज़ारियात की हैः और हमने हर चीज़ के जोड़े पैदा किए (हर चीज़ को दो दो क़िस्म का बनाया) ताकि तुम नसीहत हासिल करो। (11)

मैं यहाँ पर एक बार फिर ब्रैकेट में एक बात अर्ज़ कर दूं कि जोड़े का यह क़ानून, जो इस्लामी नज़रिये में इस तरह स्पष्ट है, हेगल और मार्क्स के डायलेक्टिक (द्वंद्वात्मक पद्धति) क़ानून के बिल्कुल उलट है। यानी हेगल के इस डायलेक्टिक क़ानून का बुनियादी तत्व, जिसे बाद में मार्क्स ने हेगल से लिया, समाज की तरक़्क़ी, इतिहास की हरकत और इंसान की तरक़्क़ी से विरोधाभास रखता है, यानी थेसिस और ऐन्टी थेसिस मौजूद है और इन दोनों से सिन्थेसिस वजूद में आता है। इस्लाम में ऐसा नहीं है, सिन्थेसिस थेसिस और ऐन्टी थेसिस से वजूद में नहीं आता, जोड़ा वजूद में आता है, जोड़े से, एक दूसरे के मिलाप से, साथ से (12) अगला रुतबा वजूद में आता है, अगली नस्ल वजूद में आती है, अगली हरकत वजूद में आती है, अगला मरहला वजूद में आता है, अलबत्ता इन सबके लिए काम और रिसर्च की ज़रूरत है। यह जो मैंने अर्ज़ किया, यह एक नज़रिया है, एक सोच है। तो जोड़ा, कायनात का एक आम नियम है। जोड़े का यह क़ानून जड़ी बूटियों में भी है, हैवानों में भी है, लेकिन इंसानों के सिलसिले में इस पुख़्ता क़ानून के लिए कुछ उसूल तय किए गए हैं, इंसान के सिलसिले में कुछ उसूल बनाए गए हैं। उसूल तय किए जाने की क्या वजह है? क्योंकि उसूलों के बिना भी जोड़ा वजूद में आ सकता था जिस तरह से दुनिया में कुछ जगहों पर है भी कि बे उसूली व बेक़ानूनी पायी जाती है। वजह यह है कि इंसान का काम, इंतेख़ाब और अख़्तियार की बुनियाद पर होता है। इंसान की तरफ़ से उठने वाला क़दम, उसकी तरक़्क़ी, उसके अपने अख़्तियार और चयन के बिना मुमकिन नहीं है। इस चयन व अख़्तियार को एक दायरे में होना चाहिए वरना कोई किसी चीज़ का चयन करेगा और कोई उसकी मुख़ालिफ़ चीज़ का चयन करेगा और इस तरह टकराव की स्थिति पैदा होगी।

समाज, इतिहास और इंसानी ज़िन्दगी में डिसिप्लिन (अनुशासन) क़ायम करने के लिए क़ानून ज़रूरी है, क़ानून हर जगह है, इंसान के जोड़ा बनाने के मसले में भी है। यह भी सिर्फ़ इस्लाम से मख़सूस नहीं है, आप दुनिया के सभी धर्मों में देखिए, जोड़ा बनाना एक क़ानून के तहत है, ईसाई धर्म में, यहूदी धर्म में, यहाँ तक बौद्ध धर्म में, दूसरी जगहों पर, दूसरे धर्मों में- जहां तक हमारी मालूमात है- एक क़ानून पाया जाता है कि जिसके तहत एक औरत और एक मर्द, एक दूसरे को जोड़े के लिए चुनते हैं। बेक़ानूनी यहाँ पर गुनाह है, जुर्म है, ज़ुल्म है, गड़बड़ी का सबब है, अफ़रातफ़री का सबब है। इन उसूलों और नियमों से फ़ैमिली फ़िट व स्वस्थ होती है, अगर इन उसूलों पर अमल किया गया तो फ़ैमिली स्वस्थ रहेगी, जब फ़ैमिली स्वस्थ होगी तो समाज स्वस्थ बन जाएगा। फ़ैमिली, समाज को वजूद देने वाली इकाई है, सेल है, जब फ़ैमिली फ़िट व स्वस्थ हो गयी तो फिर समाज भी फ़िट व स्वस्थ हो जाएगा।

ख़ैर, अब फ़ैमिली में, घर में औरत का क्या रोल है? आयतों और रिवायतों के मद्देनज़र मेरे मन में जो ख़ाका बनता है वह यह है कि औरत एक हवा है जो घर की फ़िज़ा में बसी हुयी है यानी जिस तरह आप सांस लेते हैं तो अगर हवा न हो तो सांस लेना मुमकिन नहीं है, औरत उसी हवा की तरह है, घर की औरत इस माहौल में सांस की तरह है। यह जो रिवायत में कहा गया है“औरत फूल है न कि कठोर पहलवान” (13) वह यहीं के लिए है, फ़ैमिली के लिए है, रैहाना का मतलब है फूल, ख़ुशबू, वही हवा जो फ़िज़ा में बस जाती है। अरबी ज़बान में क़हरमान, फ़ारसी ज़बान के क़हरमान के मानी से अलग है। अरबी में क़हरमान का मानी है मज़दूर, काम कराने वाला, और एक क़हरमाना नहीं है। फ़ैमिली में ऐसा नहीं है कि आप सोचें कि आपने शादी कर ली है तो सारे काम औरत के कांधों पर डाल दीजिए, जी नहीं। अगर वह अपनी मर्ज़ी से कोई काम करना चाहती है तो कोई बात नहीं, उसका अपना घर है, उसका दिल चाहता है कि कोई काम करे, उसने कर दिया, वरना किसी को हक़ नहीं है- चाहे वह शौहर हो या कोई और- कि उसे काम करने के लिए कहे, काम करने पर कोई उसे मजबूर करे। तो यह मामला ऐसा है।

फ़ैमिली में औरत कभी बीवी के रोल में सामने आती है, कभी माँ के रोल में ज़ाहिर होती है, दोनों की अपनी ख़ूबियां हैं। बीवी के रोल में औरत पहले मरहले में सुकून का सबब है। और फिर उसकी जिन्स से उसका जोड़ा (जीवन साथी) बनाया ताकि वह (उसकी रिफ़ाक़त में) सुकून हासिल करे” (14) सुकून। चूंकि ज़िन्दगी में हलचल होती है और मर्द ज़िन्दगी के इस समंदर में काम और हलचल में घिरा होता है, इसलिए जब वह घर पहुंचता है तो उसे सुकून की ज़रूरत होती है, आराम की ज़रूरत होती है। घर में यह सुकून व आराम औरत पैदा करती है। ताकि वह सुकून हासिल करे यानी मर्द औरत के साथ सुकून महसूस करे, औरत से सुकून है। बीवी की हैसियत से औरत का रोल सुकून और इश्क़ का रोल है, जैसा कि मैंने पहले इशारा किया शहीदों की बीवियों के बारे में लिखी गयी किताबों को पढ़िए, इश्क़ और सुकून क्या होता है, यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाएगा। यह मर्द जो जंग के मैदान में गया है- चाहे वह पाकीज़ा डिफ़ेन्स का मैदान हो, रौज़ों की रक्षा का मैदान हो या दूसरे सख़्त मैदान हों- किस तरह उस औरत के पहलू में सुकून महसूस करता है और उसके मन की हलचल सुकून में बदल जाती है और किस तरह इश्क़ उसे मज़बूती से क़ायम रखता है, उसे हिम्मत देता है, साहस देता है, ताक़त देता है ताकि वह काम कर सके। मतलब यह कि औरत, बीवी की हैसियत से ऐसी हैः सुकून का सबब, इश्क़ व इत्मेनान वगैरह का ज़रिया। मैंने सुकून की जो बात की हैः और फिर उसकी जिन्स से उसका जोड़ा (जीवन साथी) बनाया ताकि वह (उसकी रिफ़ाक़त में) सुकून हासिल करे यह एक आयत है, दूसरी आयत में कहा गया हैः उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिन्स से बीवियां पैदा कीं ताकि तुम उनसे सुकून हासिल करो और तुम्हारे बीच मोहब्बत व रमहत (नर्म दिली व हमदर्दी) पैदा कर दी है।” (15) मोवद्दत का मतलब है इश्क़, रहमत यानी मेहरबानी, मियां-बीवी के बीच इश्क़ व मेहरबानी का रिश्ता होता है। बीवी की हैसियत से औरत का रोल यह है, यह छोटा रोल नहीं है, बहुत अहम रोल है, बहुत बड़ा रोल है। यह बात बीवी से संबंधित है।

जहाँ तक माँ के रोल की बात है तो वह ज़िन्दगी प्रदान करने के अधिकार का रोल है, यानी औरत ऐसे लोगों को वजूद देती है जो उसकी ज़ात से वजूद पाते हैं। ऐसा ही है ना। वही है जो पेट में रखती है, वही है जो दुनिया में लाती है, वही है जो खिलाती-पिलाती है, वही है जो देखभाल करती है। इंसानों की जान माओं की मुट्ठी में है, बच्चों पर माँ का हक़ अस्तित्व का हक़ है। अल्लाह ने बच्चे के सिलसिले में माँ के दिल में जो मोहब्बत रखी है वह एक बेमिसाल चीज़ है बल्कि इस तरह का कोई और इश्क़ है ही नहीं, इस तरह का नहीं है जो अल्लाह ने माँ को दिया है। वह ज़िन्दगी देने के हक़ की मालिक है, फिर नस्ल का जारी रहना, माओं से नस्ल जारी रहती है, इंसान की नस्ल ममता की वजह से जारी रहती है।

माओं के ज़रिए क़ौमी पहचान बच्चों को मुंतक़िल होती हैं, क़ौमी पहचान बहुत अहम चीज़ है। मतलब यह कि एक क़ौम की पहचान, एक क़ौम की शख़्सियत पहले मरहले में माओं के ज़रिए हस्तांतरित होती है। ज़बान, तौर-तरीक़ा, अदब, परंपराएं, अच्छा अख़लाक़, अच्छी आदतें, ये सब पहले मरहले में माँ के ज़रिए हस्तांतरित होती हैं। बाप का भी गहरा असर है, लेकिन माँ से कम, माँ का असर सबसे ज़्यादा होता है।

दिलों में ईमान के बीज बोने वाली माएं हैं जो बच्चे को मोमिन बनाती हैं। ईमान कोई सबक़ नहीं है कि इंसान किसी को पढ़ा दे और वह सीख ले, ईमान उगाया जाता है, एक रूहानी ग्रोथ है जिसके लिए बीज होना ज़रूरी है, यह बीज माँ होती है, यह काम वह करती है। ईमान ही की तरह अख़लाक़ भी है। इसलिए माँ का रोल ग़ैर मामूली है।

ये दोनों रोल बहुत अहम हैं। बारंबार कह चुका हूं, मेरा नज़रिया भी यही है कि औरत की सबसे अहम और अस्ली ज़िम्मेदारियां यही हैं। इन मोहतरमा ने कहा कि वो हाउस वाइफ़ हैं, यह बहुत अच्छी बात है। इस्लाम की नज़र में एक औरत का अस्ली रोल, यही घरदारी का रोल है लेकिन अहम बात यह है कि घरदारी का मतलब घर में बैठे रहना नहीं है। कुछ लोग इन दोनों के सिलसिले में ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं। जब हम कहते हैं कि घरदारी तो वे सोचते हैं कि हम कह रहे हैं कि वे घर में बैठी रहें, कुछ न करें, कोई ज़िम्मेदारी अदा न करें, पढ़ाएं नहीं, संघर्ष न करें, समाजी काम न करें, सियासी सरगर्मियां अंजाम न दें, घरदारी का मतलब यह नहीं है। घरदारी का मतलब है आप घर की ज़िम्मेदारियां निभाएं और इसके साथ हर वह काम जो आप कर सकती हैं और जिसका शौक़ रखती हैं, उसे अंजाम दे सकें लेकिन ये सब घरदारी के तहत आते हैं। अगर कहीं पर दो बातों में से एक का चयन करना हो, बच्चे की जान बचाई जाए या ऑफ़िस का फ़लां काम अंजाम दिया जाए तो बच्चे की जान को तरजीह हासिल है, क्या इसमें कोई शक है? नहीं, किसी भी औरत को इसमें कोई शक नहीं है कि अगर बच्चे की जान ख़तरे में पड़ जाए या ऑफ़िस का काम ख़तरे में पड़ जाए तो बच्चे की जान को तरजीह हासिल है। बच्चे का अख़लाक़ भी इसी तरह है, बच्चे का ईमान भी इसी तरह है, बच्चे की तरबियत भी इसी तरह है। मतलब यह कि जिस तरह आप को बच्चे की जान बचाने के बारे में कोई शक नहीं है, उसी तरह उसकी तरबियत भी है। अलबत्ता कुछ मौक़ों पर किसी शैली से, किसी उपाय से, किसी तरकीब से दो बातों में से किसी एक के चयन की मजबूरी को हल किया जा सकता है लेकिन अगर हक़ीक़त में ऐसा हो कि दोनों में से किसी एक का ही चयन करना हो और कोई दूसरा चारा न हो तो यह, ऑफ़िस के काम पर तरजीह रखता है।

अलबत्ता जहाँ फ़रीज़े की बात है तो वह इस बात पर निर्भर है कि उस फ़रीज़े की अहमियत कितनी है। मैंने जान की मिसाल दी, लेकिन कभी ऐसा होता है कि एक फ़रीज़े की अहमियत बच्चे से, बीवी से और माँ बाप से भी ज़्यादा होती है। यही वजह है कि आप इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अर्ज़ करते हैः मेरे माँ बाप आप पर क़ुरबान। (15) कोई माँ बाप से बढ़ कर हो सकता है? उनकी जान आपकी जान पर क़ुरबान। या क़ुरआन मजीद की एक आयत में कहा गया हैः हे रसूल कह दीजिए कि अगर तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई”... यहाँ तक कि आख़िर में कहा गया हैः तुमको अल्लाह, उसके रसूल और अल्लाह के रास्ते में जेहाद करने से ज़्यादा अज़ीज़ हैं तो फिर इंतेज़ार करो।” (16) हमें उन्हें अल्लाह और अल्लाह की राह में जेहाद से ज़्यादा नहीं चाहना चाहिए, कुछ जगहें ऐसी हैं। जब फ़रीज़ा बड़ा हो जाए, उसमें अज़मत पैदा हो जाए, तो उसे बच्चे की जान पर भी तरजीह हासिल हो जाती है, लेकिन इन जगहों को छोड़कर, आम मौक़ों पर आरतों की ज़िम्मेदारियों का केन्द्र घर और फ़ैमिली है और वाक़ई औरत की मौजूदगी के बिना, औरत के सक्रियता के बिना, औरत के ज़िम्मेदारी के एहसास के बिना मुमकिन नहीं है कि घर चलाया जा सके और नहीं चलाया जा सकता, औरत के बग़ैर नहीं चलाया जा सकता। कभी फ़ैमिली में कुछ छोटी नाज़ुक गिरहें होती हैं, जो औरत की नाज़ुक उंगलियों के बिना नहीं खोली जा सकतीं। मर्द जितना भी ताक़तवर हो, वह कुछ गिरहों को नहीं खोल सकता। यह छोटी गिरहें और कभी कभार बड़ी उलझी हुई गिरहें, औरत की नाज़ुक उंगलियों के बिना खुल नहीं सकतीं। ख़ैर यह तो फ़ैमिली की बात हुयी।

अलबत्ता अगर हम फ़ैमिली के मामले में भी पश्चिम को देखना चाहें तो वहां तबाही है, बर्बादी है!  पश्चिम ने फ़ैमिली सिस्टम को तबाह कर दिया, वाक़ई तबाह कर दिया। अलबत्ता यह जो मैं कह रहा हूं कि उसने तबाह कर दिया, इसका मतलब यह नहीं है कि पश्चिम में फ़ैमिली है ही नहीं, क्यों नहीं बहुत से घराने, बड़े अच्छे घराने हैं, वाक़ई फ़ैमिली हैं, कुछ फ़ैमिली की शक्ल में हैं, कुछ फ़ैमिली तो नहीं उसके जैसी शक्ल में हैं। मैं एक पश्चिमी और अमरीकी तहरीर में पढ़ रहा था कि औरत और मर्द बच्चों को ठीक से देखने के लिए और एक घरेलू माहौल बनाने के लिए एक दूसरे से वक़्त तय करते हैं कि तुम फ़लां वक़्त अपने ऑफ़िस से आओ, औरत भी ऑफ़िस से आए, साथ में चाय पीएं या साथ में कुछ स्नैक्स लें, यानी एक निर्धारित वक़्त-मिसाल के तौर पर चार बजे से छह बजे तक- यह आए और वह भी आए, बच्चे तो स्कूल से आ ही चुके होंगे, सब आएं और एक साथ मिल कर चाय पिएं, यह हुयी फ़ैमिली! फिर यह अपने काम पर चली जाए और वह भी अपनी रात की पार्टियों में चला जाए, अपनी दोस्ती निभाए! यह फ़ैमिली नहीं है, यह तो सिर्फ़ फ़ैमिली का ज़ाहिरी रूप है।

पश्चिम ने इस तरह के मुख़्तलिफ़ मसलों के ज़रिए, जिनकी ओर मैंने पहले इशारा किया, फ़ैमिली सिस्टम को वाक़ई तबाह कर दिया जिसकी वजह से धीरे धीरे फ़ैमिली बिखर गयी, इसके ख़िलाफ़ ख़ुद पश्चिमी विचारकों ने एतराज़ किया, उनके बहुत से हमदर्दों, शुभचिंतकों और सुधारकों ने इस बात पर ध्यान दिया है और वे एतराज़ कर रहे हैं लेकिन मेरे ख़्याल में अब उनके पास कोई चारा नहीं बचा है, यानी कुछ पश्चिमी मुल्क़ों में पतन की रफ़्तार इतनी तेज़ हो गयी है कि अब उसे रोका नहीं जा सकता, तबाह होना है, मतलब यह कि अब फ़ैमिलियों में सुधार नहीं हो सकता। तो यह हुयी फ़ैमिली की बात।

कुछ और भी बातें हैं लेकिन अफ़सोस कि मैं अब तफ़सील से बात नहीं कर सकता, एक मसला हेजाब का है। हेजाब शरीअत का वाजिब हुक्म है, शरीअत है, शरीअत की नज़र से वाजिब है, हेजाब के वाजिब होने में किसी तरह का शक नहीं है, इसे सब जान लें। कोई इसमें शक करे, संदेह पैदा करे कि क्या हेजाब है? ज़रूरी है? लाज़िम है? नहीं, इसमें किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं है, शरीअत की तरफ़ से वाजिब है जिस पर अमल किया जाना चाहिए, लेकिन जो औरतें हेजाब का पूरी तरह से पालन नहीं करतीं, उन पर बे दीन और इन्क़ेलाब विरोधी होने का इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए, नहीं। मैं पहले भी बता चुका हूं, कभी जब मैं किसी सूबे के दौरे पर था, वहाँ मैंने ओलमा के बीच, वहाँ ओलमा इकट्ठा थे, मैंने कहा (17) कि आप लोग क्यों किसी औरत पर (बे दीन और इन्क़ेलाब विरोधी होने का) इल्ज़ाम लगाते हैं जिसके फ़र्ज़ कीजिए कि थोड़े से बाल (स्कार्फ़ से) बाहर निकले हुए हैं और रायज शब्दावली के मुताबिक़ वह बद हेजाब है- जबकि कहा जाना चाहिए की कमज़ोर हेजाब- मैंने कहा कि जब मैं इस शहर में दाख़िल हुआ तो इस्तेक़बाल के लिए मजमा इकट्ठा हुआ, शायद इस भीड़ में कम से कम एक तिहाई औरतें इस तरह की हैं, वे आँसू बहा रही हैं! उन्हें इन्क़ेलाब विरोधी नहीं कहा जा सकता। ये कैसी इन्क़ेलाब विरोधी हैं जो इतने शौक़ से, इतने जोश व जज़्बे के साथ आती हैं और मिसाल के तौर पर फ़लां धार्मिक या फ़लां इन्क़ेलाबी प्रोग्राम में शिरकत करती हैं? ये हमारे ही बच्चे हैं, ये हमारी ही बेटियां हैं। मैं अब तक कई बार ईद की नमाज़ के ख़ुतबों में यह बात दोहरा चुका हूं कि रमज़ान मुबारक के प्रोग्रामों में, शबे क़द्र में-मुझे तस्वीरें लाकर दिखाई जाती हैं, मैं ख़ुद तो वहाँ नहीं जा सकता लेकिन तस्वीर मेरे पास आती हैं- मुख़्तलिफ़ पहनावों के साथ औरतें आँसू बहाती हैं, मुझे उनके इस तरह से आँसू बहाने पर रश्क होता है! मैं कहता हूं कि काश मैं भी इस लड़की की तरह, इस जवान महिला की तरह आंसू बहा सकता, उस पर कैसे इल्ज़ाम लगाया जा सकता है? हाँ, ठीक काम नहीं है, बद हेजाबी या कमज़ोर हेजाब सही नहीं है, लेकिन यह इस बात का सबब नहीं बनता कि हम इन लोगों को धर्म और इन्क़ेलाब वग़ैरह के मैदान से बाहर निकाल दें या उन्हें इन मैदानों से बाहर समझें, क्यों? हम सब में कमियां हैं, कमियों को दूर करना चाहिए, हम जितना इन कमियों को दूर कर सकें उतना बेहतर है। तो यह एक दूसरे और हेजाब के मसले में एक प्वाइंट था।

एक दूसरा मासला, अफ़सोस कि जिसके बारे में बात करने का वक़्त नहीं है, इस्लामी जुम्हूरिया की ओर से महिलाओं की ख़िदमत है। इसे भूलना नहीं चाहिए। देखिए मेरे ख़्याल में आप में से किसी ने भी इन्क़ेलाब से पहले का ज़माना नहीं देखा है, हमने अपनी क़रीब आधी उम्र इन्क़ेलाब से पहले के ज़माने में गुज़ारी है। इन्क़ेलाब से पहले के ज़माने में विद्वान, समझदार, अक़्लमंद, पढ़ी लिखी और मुख़्तलिफ़ फ़ील्ड में रिसर्च करने वाली औरतें उंगलियों पर गिनी जा सकती थीं, इतनी ज़्यादा तादाद में महिला प्रोफ़ेसर, इतनी ज़्यादा स्पेशलिस्ट, सुपर स्पेशलिस्ट लेडी डॉक्टर्ज़, मुख़्तलिफ़ मैदानों में इतनी ज़्यादा रिसर्च करने वाली महिलाएं- यह जो मैं कह रहा कि मुख़्तलिफ़ मैदानों में तो वाक़ई बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहाँ मैं ख़ुद गया हूं, मैने देखा है, मुआयना किया है- मॉडर्न साइंस, एडवांस्ड टेक्नॉलोजीज़ के मैदान में महिला साइंटिस्ट, ग़ैर मामूली सलाहियत वाली महिलाएं, वहाँ काम कर रही हैं। इन्क़ेलाब से पहले के ज़माने में इसकी कलपना भी नहीं थी, यह वह काम है जो इन्क़ेलाब ने किया। इतनी बड़ी तादाद में स्टूडेंट्स, आप कुछ बरसों में देखते हैं कि छात्राओं की तादाद, छात्रों से ज़्यादा है ज़्यादा होती है। यह बहुत अहम बात है, इल्म हासिल करने का इतना रूझान।

इसके अलावा स्पोर्ट्स के मैदानों में, आप देखिए कि हमारी लड़कियां स्पोर्ट्स के मैदानों में जाती हैं, चैंपियन बनती है, हेजाब के साथ गोल्ड मेडल हासिल करती हैं, हेजाब के लिए इससे बेहतर कौन सा प्रचार  हो सकता है? इनमें से कुछ महिलाएं आयीं और उन्होंने अपने गोल्ड मेडल मुझे दिए। हालांकि मैंने वह उन्हीं को लौटा दिए कि वही संभाल कर रखें लेकिन मैं इस तरह की महिलाओं पर फ़ख़्र करता हूं। एक इंटरनैश्नल मैदान में जहाँ दसियों लाख लोग कैमरे के पीछे से देख रहे हैं, यह ईरानी लड़की वहां जाती है, गोल्ड मेडल हासिल करती है, उसके मुल्क का झंडा फहराया जाता है और वह हेजाब के साथ खड़ी हुयी है, हेजाब के लिए क्या इससे बेहतर और इससे ज़्यादा कोई परिचय हो सकता है? मुख़्तलिफ़ मैदानों में साइंस ओलंपियाड में, मुख़्तलिफ़ जगहों पर, हर जगह महिलाओं ने तरक़्क़ी है, वाक़ई ऐसा ही है। आप में से कुछ औरतों ने कहा कि औरतों को काम पर नहीं रखा जाता, प्लानिंग और फ़ैसलों में उनसे अमली तौर पर मदद नहीं ली जाती, जी हाँ, यह ग़लत है, इसमें कोई शक नहीं है, यह बुराई दूर होनी चाहिए लेकिन इतनी बड़ी तादाद में समझदार, पढ़ी लिखी, विद्वान, रिसर्च स्कॉलर्ज़, लेखक और एक्सपर्ट महिलाओं की मौजूदगी अहम बात है। शहीदों, शहीदों की बीवियों और शहीदों के घरवालों की ज़िन्दगी के बारे में जो किताबें मेरे पास आती हैं, मैं वाक़ई लुत्फ़ उठाता हूं, उन्हें ज़्यादातर महिलाओं ने लिखा है और इस मामले में मर्दों से आगे बढ़ गयी हैं। कितना अच्छा क़लम! कितना अच्छा लिखने का अंदाज़! महिला शायर भी बहुत अच्छी शायरा हैं। यही शेर जो सभा की एनाउंसर महिला (19) ने पढ़े, बहुत अच्छे शेर थे और उन्हीं के शेर थे। तो यह भी एक प्वाइंट था।

यह बात भी अर्ज़ कर दूं कि हालिया वाक़यों में, आपने देखा कि हेजाब के ख़िलाफ़ बहुत काम किया गया, किसने इन कोशिशों और कॉल्ज़ के ख़िलाफ़ दृढ़ता दिखाई? ख़ुद महिलाओं ने, औरतों ने प्रतिरोध किया। उन लोगों को इन्ही औरतों से उम्मीद थी जिन्हें आप बदहेजाब कहते हैं, उन्होंने उनसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी थी। उनको यह उम्मीद थी कि यही औरतें जिनका हेजाब आधा अधूरा है, पूरी तरह से हेजाब उतार देंगी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, मतलब यह कि उन्होंने उस कॉल देने वाले और प्रोपैगंडा करने वाले को थप्पड़ रसीद कर दिया।

आख़िरी बात जो मैं अर्ज़ करना चाहता हूं वह यह है कि हमने जो इतनी सारी बातें कीं, इतनी तारीफ़ें कीं, जो हक़ीक़त पर आधारित हैं, इसके बावजूद हमारे समाज में कुछ घरानों में औरतों पर ज़ुल्म होता है, मर्द अपनी जिस्मानी ताक़त की वजह से, चूंकि उसकी आवाज़ ज़्यादा भारी है, उसका क़द ज़्यादा लंबा है, उसके बाज़ू ज़्यादा भरे हुए हैं, औरत पर ज़ुल्म करता है, औरतों पर ज़ुल्म होता है, तो इसका हल क्या है? क्या किया जाए? हम घराने को भी तो बचाना चाहते हैं, इसका रास्ता यह है कि घराने और फ़ैमिली के भीतर आंतरिक नियम इतने मज़बूत हों कि कोई भी मर्द, औरतों पर ज़ुल्म न कर सके, यहाँ भी क़ानून को मज़लूम की मदद करनी चाहिए। अलबत्ता बहुत कम केस ऐसे हैं जिसमें बात इसके बिल्कुल उलट है यानी औरत ज़ुल्म करती है। कुछ ऐसे भी केस हैं लेकिन कम हैं और ज़्यादातर केस ऐसे हैं जिनका हमने पहले ज़िक्र किया। हमें उम्मीद है कि इंशाअल्लाह ये सभी मसले हल हो जाएंगे।

महिलाओं ने जो बातें बयान कीं, मेरे लिए फ़ायदेमंद रहीं। हमें उम्मीद है कि इनशाअल्लाह सारे मसले बेहतरीन तरीक़े से बेहतरीन नतीजे तक पहुंचेंगे। मैं अल्लाह से आप सभी के लिए सेहत व सलामती की दुआ करता हूं।

वस्सलामो अलैकुम वरहमतुल्लाहे व बरकातोह

 

(1)          इस्लामी इन्क़ेलाब के नेता की स्पीच से पहले मुल्क की कल्चरल व सोशल काउंसिल की सदस्य व रिसर्च स्कॉलर मोहतरमा आतेफ़ा ख़ादेमी, लेखक व हाउस वाइफ़ मोहतरमा परीचेहर जन्नती, जर्मनी की अदालतों में काम करने वाली क़ानून की माहिर मोहतरमा मरयम नक़्क़ाशान, डॉक्यूमेंट्री सिनेमा विभाग नैश्नल व इंटरनैश्नल ईनाम जीतने वाली मोहतरमा महदिया सादात महवर, शहीद बहिश्ती मेडिकल यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर मोहतरमा शहरज़ाद ज़ादे मोदर्रिस, जवान लड़कियों के मामलों में सरगर्म महिला मोहतरमा नगीन फ़राहानी और कम्यूनिकेशन साइंस में पीएचडी और उच्च धार्मिक शिक्षा केन्द्र की स्टूडेंट्स सारा तालेबी ने कुछ बातें पेश कीं।

(2)          सूरे अहज़ाब की आयत-5, बेशक मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, मोमिन मर्द और मोमिन औरतें, इताअत गुज़ार मर्द और इताअत गुज़ार औरतें, सच्चे मर्द और सच्ची औरतें, साबिर मर्द और साबिर औरतें, आजिज़ी करने वाले मर्द और आजिज़ी करने वाली औरतें, सदक़ा देने वाले मर्द सदक़ा देने वाली औरतें, रोज़ादार मर्द और रोज़ादार औरतें, अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले मर्द और हिफ़ाज़त करने वाली औरतें और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले मर्द और याद करने वाली औरतें, अल्लाह ने उनके लिए मग़फ़ेरत और बड़ा अज्र व सवाब मुहैया कर रखा है।

(3)          सूरे आले इमरान, आयत-195, मैं किसी अमल करने वाले के अमल को, चाहे मर्द हो या औरत, कभी बर्बाद नहीं करता।

(4)          सुरे बक़रा, आयत-228, शरीअत के हुक्म के मुताबिक़, औरतों के कुछ अधिकार हैं जिस तरह कि मर्दों के अधिकार हैं।

(5)          सूरे तहरीम, आयत-10, तो वह दोनों नेक  बंदे अल्लाह के मुक़ाबले में उन्हें कुछ भी फ़ायदा नहीं पहुंचा सके।

(6)          सूरे तहरीम, आयत-11, और अल्लाह अहले ईमान के लिए फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता है।

(7)          सूरे क़सस, आयत-9, इसे क़त्ल न करो

(8)          सूरे तहरीम, आयत-12, जिसने अपनी पाकदामनी की हिफ़ाज़त की।

(9)          सूरे यासीन, आयत-36, पाक है वह ज़ात जिसने सब क़िस्म के जोड़े पैदा पैदा किए हैं, चाहे जड़ी बूटियां हों जिन्हें ज़मीन उगाती है या ख़ुद उनके नुफ़ूस हों (इंसान) या वे चीज़ें जिनको ये नहीं जानते।

(10)        सूरे ज़ारयात, आयत-49, और हमने हर चीज़े के जोड़े पैदा किए (हर चीज़ को दो दो क़िस्म का बनाया) ताकि तुम नसीहत हासिल करो।

(11)        काफ़ी, जिल्द-11, पेज-170

(12)        सूरे आराफ़ आयत 189, और फिर उसकी जिन्स से उसका जोड़ा बनाया ताकि वह (उसकी रिफ़ाक़त में) सुकून हासिल करे।

(13)        सूरे रूम, आयत-21, उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिन्स से जोड़े पैदा किए ताकि तुम उनसे सुकून हासिल करो और तुम्हारे बीच मोहब्बत और रहमत (नर्मदिली व हमदर्दी) पैदा कर दी।

(14)        कामिलुल ज़ियारात, पेज-177 (ज़ियारत आशूरा)

(15)        सूरे तौबा, आयत-24, (हे रसूल) कह दीजिए कि अगर तुम्हारे बाप, तुम्हारे बेटे, तुम्हारे भाई...तुमको अल्लाह, उसके रसूल और अल्लाह की राह में जेहाद करने से ज़्यादा अज़ीज़ हैं तो फिर इन्तेज़ार करो।

(16)        उत्तरी ख़ुरासान सूबे के ओलमा और धार्मिक स्टूडेंट्स के बीच स्पीच, 30/9/2012

(17)        मोहतरमा नफ़ीसा सादात मूसवी।