आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तक़रीरः

बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

 

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार और हमारे नबी हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा और उनकी सबसे नेक, सबसे पाक, चुनी हुयी, हिदायत याफ़्ता, हिदायत करने वाली, मासूम और सम्मानित नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

 

 आप सबका स्वागत है। मैं बहुत बहुत ख़ुश हूं कि एक बार फिर मुझे यह मौक़ा मिला कि आप एलीट्स के साथ एक बैठक करूं। यहां पर लोगों ने बातें बयान की हैं, उन पर मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूं लेकिन इस सिलसिले में मैं दो बातें कहना चाहता हूं।

 पहली बात तो यह कि लगभग यह सारे मुद्दे, अब शायद एक दो मामले अलग हों, इम्प्लिमेंटेशन के मुद्दे हैं और इम्प्लिमेंटेशन के मुद्दों की पैरवी सरकारी विभागों को करनी चाहिए। यक़ीनी तौर पर हम भी उसकी पैरवी करते हैं और मेरा कहना है कि यह जो बातें कही गयी हैं उन्हें लिखा जाए, इन बातों का सार निकाला जाए, जायज़ा लिया जाए और फिर संबंधित सरकारी विभागों तक हम उन बातों को पहुंचा देंगे, बस बात यह है कि आप जब सरकारी ओहदेदारों से मुलाक़ात करते हैं जो ख़ुशक़िस्मती से इस सिलसिले में काफ़ी काम कर रहे हैं, ख़ुश क़िस्मती से आज हमारे मुल्क में काम में दिलचस्पी रखने वाला, पैरवी करने वाला और ध्यान रखने वाला प्रेज़िडेंट है, तो यह सब मुद्दे पेश करें ताकि अल्लाह की मदद से उन्हें हल किया जाए। यह तो एक बात है।

दूसरी बात यह है कि एक ज़माने में सरकारी ओहदेदारों और एलीट्स के बीच दूरी बहुत ज़्यादा थी लेकिन आज ऐसा नही है। आज जैसे नौजवानों की एक बड़ी तादाद सरकारी ओहदों पर मौजूद है, चाहे मिनिस्ट्री हो या फिर विभाग हों, या फिर दूसरे ओहदे हों, तो फिर यह सब बातें उनसे क्यों नहीं कही जातीं? वही भाई, जो कल यहां खड़े होकर आप लोगों की तरह अपनी राय पेश करते थे आज वही देश की सरकार में मौजूद हैं, अब भी वह नौजवानों में शामिल हैं, बूढ़े या अधेड़ भी नहीं हुए हैं, आप लोगों की ही तरह नौजवान हैं, आप उनसे क्यों नहीं जुड़ते, क्योंकि एक चैनल नहीं बनता और उन तक यह बातें नहीं पहुंचतीं? मुल्क के विभिन्न विभागों में, इस बारे में सोचा जाना चाहिए। मिसाल के तौर पर कार इंडस्ट्री की बात की गयी। इस वक़्त इंडस्ट्री की मिनिस्ट्री में बहुत से एलीट्स नौजवान मौजूद हैं, कार इंडस्ट्री का मुद्दा वहां पेश करें, यह बहुत अहम मुद्दा भी है। या और दूसरे जो मुद्दे यहां पेश किये गये हैं, एक मामला, पिछड़े इलाक़ों का था। हां तो सरकार ने पिछड़े इलाक़ों के लिए ख़ास इंतेज़ाम कर रखा है, (2) वहां पर भी नौजवान हैं, बल्कि मुझे लगता है कि बहुत से स्टूडेंट्स भी जो अभी पढ़ रहे हैं, वहां काम कर रहे हैं, तो यह सब बातें उन्हें बताएं, उनके सामने पेश करें, वहां पैरवी करें, इसी पर संतोष न करें कि यहां भाषण दे दें। यक़ीनी तौर पर यहां पर जो नज़रिया पेश किया गया, जो राय ज़ाहिर की गयी वह बहुत अच्छी थी, और हम इन्शाअल्लाह उसका नोटिस लेंगे। मेरा कहना है कि इन सब मुद्दों की पैरवी आप करें, हम भी करेंगे, शायद मैं ख़ुद प्रेज़िडेंट साहब से यहां पेश किये गये कुछ मुद्दों के बारे में बात करूं लेकिन मेरे  ख़्याल से आप लोगों को इस सिलसिले में थोड़ा व्यवहारिक क़दम उठाना चाहिए।

 एलीट्स और सांइस के मैदान में तरक़्क़ी के बारे में मैंने दो-तीन बातें नोट की हैं जिनका यहां ज़िक्र करूंगा। पहली बात तो यह है कि हमारे मुल्क में साइंस के मैदान में तरक़्क़ी का सफ़र लगभग दो दशक या उससे थोड़ा ज़्यादा वक़्त से शुरु हुआ है, शुरुआत अच्छी रही, यानि एक आंदोलन शुरु हुआ, स्टूडेंट्स और युनिवर्सिटियों में दो-तीन नारे दिये गये, जैसे “मुल्क की वैज्ञानिक सीमाओं से आगे बढ़ना चहिए” या “ साफ़्टवेयर आंदोलन” उस दौर में यह जो कुछ नारे लगाए गये वो पूरी तरह से असरदार साबित हुए मतलब युनिवर्सिटी की सतह पर चहल पहल और जोश पैदा हुआ और सौभाग्य से यह स्थिति जारी भी रही यानि यह नहीं था कि फ़ौरन ही जोश पैदा हुआ और फिर ठंडा हो गया बल्कि जारी रहा। दरअस्ल, सांइस के मैदान में तेज़ी से बढ़ने वाला एक मिशन शुरु हुआ, यह एक सच्चाई है। जब युनिवर्सिटियों में सांइस के मैदान में तरक़्क़ी और ज्ञान-विज्ञान की सीमाओं को पार करने जैसे कुछ नारे लगाये गये तो सच में एक तेज़ मिशन शुरु हुआ इतनी तेज़ी से कि ज्ञान-विज्ञान के मैदान में काम करने वाले दुनिया के बड़े बड़े इदारों ने, उस वक़्त कहा था कि ईरान में वैज्ञानिक विकास की रफ़्तार, दुनिया की औसत रफ़्तार से 13 या 12 गुना ज़्यादा है! जी तो यह बहुत अहम मुद्दा है। यह हुआ है। मैंने उसी वक़्त यानि इससे कई बरस पहले, वैज्ञानिकों और यूनिवर्सिटियों से जुड़े लोगों के साथ कई बैठकों में कुछ बातें कही थीं।(3) जो यह थीं कि मैंने कहा था कि यह कहा जा रहा है कि वैज्ञानिक विकास की हमारी रफ़्तार तेज़ है लेकिन हमें इस पर घमंड नहीं करना चाहिए, हमें यह सोच कर धोखे में नहीं रहना चाहिए कि हमारी तरक़्क़ी की रफ़्तार बहुत तेज़ है क्योंकि इतनी तेज़ रफ़्तार तरक़्क़ी के बावजूद हम साइंस के मैदान में पीछे हैं, हम विज्ञान जगत में ज्ञान विज्ञान में पीछे हैं। वैसे मैंने इस “पीछे रहने” का मतलब कई बैठकों में बताया है जो अब यहां मैं दोहराना नहीं चाहता। हम पीछे हैं, इस पीछे रहने की वजह भी  यह है कि एक लंबे वक़्त तक, तानाशाहों की हुकूमतों के दौरान, घंमडी बादशाहों की हुकूमत के दौरान, चाहे वे पहलवी शासक हों या फिर क़ाजारी शासकों का दौर हो, हर ज़माने में, हमारा मुल्क, ज्ञान-विज्ञान के मैदान में बेहद चमकते अतीत के बावजूद, ज्ञान-विज्ञान की लिस्ट में दुनिया में सबसे नीचे था, कुछ भी नहीं था उसके पास, कुछ भी नहीं।

आज मैं यह कहना चाहता हूं कि मैं यह कहना चाहता हूं कि हमें वैज्ञानिक गतिविधियों के एक नये चरण में दाख़िल होने की तैयारी करनी चाहिए, मतलब यह सही है कि वैज्ञानिक क्षेत्र में हमने छलांग लगायी है, अच्छे काम हुए हैं, कहीं कहीं वैज्ञानिक क्षेत्र में हमारी पोज़ीशन काफ़ी अच्छी भी हुई है, दुनिया में हमारी वैज्ञानिक पोज़ीशन अपेक्षाकृत अच्छी है, यह सब तो है लेकिन आज हमें अपने मुल्क की यूनिवर्सिटियों की तरफ़ से एक वैज्ञानिक आंदोलन की ज़रूरत है ताकि हम पीछे न रह जाएं। हमने काम शुरु किया है, लेकिन दूसरे भी काम कर रहे हैं, यहां तक कि इलाक़े के कुछ मुल्कों में भी ईरान की तरक़्क़ी देख कर साइंस के मैदान में आगे बढ़ने का शौक़ पैदा हुआ, आज जब हम आंकड़ें देखते हैं तो हमें पता चलता है कि वह बहुत आगे आ गये हैं। अब यह ख़तरा पैदा हो गया है कि हम इस वैज्ञानिक दौड़ में पीछे रह जाएं, सच में यह चिंता है। आप सबको पता है और मैंने कई बार कहा है कि “ज्ञान, ताक़त होती है”। (4) अगर हम चाहते हैं कि हमारा मुल्क दुनिया में मुल्कों के लिए जो ख़तरे आम तौर पर पैदा होते हैं उनसे बचे और दूर रहे तो सबसे पहली स्टेज पर अहम काम यह है कि हम साइंस के मैदान में तरक़्क़ी करें, अगर हम पीछे रह गये तो कमज़ोर रहेंगे, हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम पीछे न रह जाएं। पीछे न रह जाने के लिए मैं जिन कोशिशों की बात करता हूं उनमें सब से पहले तो भौतिक पुंजिनिवेश है यानि सरकार, वैज्ञानिक विकास और ज्ञान-विज्ञान के मैदान में इन्वेस्मेंट करे, जिसके बारे में मैंने बार-बार कहा है कि यह ख़र्च नहीं है, यह इन्वेस्टमेंट, दर अस्ल कई गुना ज़्यादा आमदनी के लिए हालात बनाना है, कई गुना ज़्यादा आमदनी, इसी तरह हमें निजी सेक्टरों का भी ज्ञान-विज्ञान में इन्वेस्टमेंट के लिए हौसला बढ़ाना चाहिए। तो भौतिक पुंजीनिवेश भी ज़रूरी है और इसी तरह वैज्ञानिक आविष्कार का इन्वेस्टमेंट भी ज़रूरी है यानि नॉलिज सेन्टरों की यह कोशिश हो कि वह नयी नयी राहें तलाश करें, नयी तकनीक तलाश करें और कम समय लेने वाले रास्ते ढूंढे। हमें इसका संकल्प करना चाहिए, एक दो तरफ़ा इन्वेस्टमेंट, भौतिक भी और वैज्ञानिक भी, दोनों ज़रूरी है। इस बुनियाद पर, मेरी पहली बात यह है कि मुल्क की वैज्ञानिक बिरादरी को, मुल्क के एलीट्स को आज एक नये आंदोलन की ज़रूरत है, एक नये मिशन की ज़रूरत है और यह नया आंदोलन इस सरकार की मदद से और उन नौजवान ओहदेदारों के सहयोग से होना चहिए जो सरकार में मौजूद हैं और इसी तरह आप एलीट्स के संकल्प से जिनमें से कुछ लोग यहां मौजूद हैं इन सबकी मदद से यह काम होना चाहिए, यह तो मेरी पहली बात है।

दूसरी बात, दूसरा मुद्दा, हमारे मुल्क में जो आज अवसर उपलब्ध है उसके बारे में है। जी हां योग्यता रखने वाली एक क़ौम, आगे बढ़ सकती है, लेकिन यह नहीं होता कि हमेशा उसे इसका मौक़ा भी मिलता रहे। मैं भविष्य के बारे में कोई ग़लतफ़हमी पैदा नहीं करना चाहता, नहीं मेरी नज़र में हमारा फ़्यूचर, उम्मीदों और उजालों से भरा है, भविष्य उज्जवल है लेकिन हमारा तजुर्बा और हमारा अतीत हमें यह बताता है हमें मौजूदा दौर से फ़ायदा उठाना चाहिए, मौजूदा हालात से, मौजूदा मौक़े से भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए। कभी यह होता है कि किसी क़ौम की राह में, हर मैदान में, राजनीति में, समाज में, ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में, ऐसी ढलान पैदा हो जाती है जिस पर चढ़ कर ऊपर जाने का मन तो होता है लेकिन ताक़त नहीं होती, कभी यह भी होता है, क्योंकि उसके लिए ज़रूरी चीज़ें नहीं होतीं, जो संसाधन होने चाहिए वह नहीं होते, इरादा होता है, ताक़त नहीं होती। कभी कभी तो इरादा भी नहीं होता, निराशा की वजह से, ख़ुद पर भरोसा न होने की वजह से, अपनी योग्यता में यक़ीन न होने की वजह से, या फिर हालात को न समझने की वजह से। इस बुनियाद पर कभी यह भी होता है कि आगे बढ़ने का इरादा भी नहीं होता। यहां तक कि कभी तानाशाही दौर की तरह तरक़्क़ी को या इस ढलान से ऊपर चढ़ने को पूरी तरह से अंसभव समझा जाता है! सच में हमारे अतीत में ऐसा समय भी गुज़रा है जब यह कहा जाता था कि यह तो हो ही नहीं सकता। शाह के ज़माने के प्राइम मिनिस्टर की वह मिट्टी के लोटे की मशहूर घटना (5) आप सबने सुनी है। जब तेल इंडस्ट्री, तेल के मैदान में अपने पैरों पर खड़े होने और तेल के नेशनलाइज़ेशन की बात हुई थी, मुसद्दिक़ के सत्ता में आने से पहले, यह मेरे बचपन की घटना है, लेकिन मुझे याद है, उस ज़माने की संसद में डॉक्टर मुसद्दिक़ की अगुवाई में एक छोटा सा धड़ा था जो यह आग्रह करता था कि हमें अपने मुल्क में तेल की इंडस्ट्री का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए, हमारे तेल ब्रिटेन के हाथ में था, कहते थे कि इसका नेशनलाइज़ेशन किया जाना चाहिए, उस ज़माने में हमारे मुल्क के प्राइम मिनिस्टर ने एक दिन तक़रीर की और कहा कि “यह लोग यह क्या कह रहे हैं कि हम तेल इंडस्ट्री का राष्ट्रीयकरण कर लें, क्या ईरानी क़ौम तेल की इंडस्ट्री संभाल सकती है? हम एक “ लूलहंग” तो सही तरह से बना नहीं सकते”। आप को पता है “लूलहंग” क्या है? “लूलहंग” दरअस्ल मिट्टी का लोटा होता है, मैंने देखा है, पुराने ज़माने में बहुत से गांवों में मिट्टी का लोटा बनाया जाता था, तांबा या लोहे वग़ैरा से जो कि उस ज़माने में आम था, बल्कि गावों में मिट्टी से बनाया जाता था। प्राइम मिनिस्टर का कहना था कि “हमारे बस में मिट्टी का लोटा यानि लूलहंग बनाना ही है, कोई ईरानी कैसे तेल की इंडस्ट्री को संभाल सकता है?” यह बात उस वक़्त मशहूर हो गयी थी। अच्छा तो उस वक़्त तेल इंडस्ट्री क्या थी जिसे संभालना था? यही आबादान की तेल रिफ़ायनरी थी, जिस चीज़ को संभालने की बात हो रही थी यही आबादान रिफ़ायनरी थी। कहते थे कि ईरानी रिफ़ायनरी कैसे संभाल सकता है? मतलब यह उस वक़्त के लोगों का मानना था। तो इस तरह की स्थिति भी पैदा हो जाती है, अब उस तरह से नहीं पैदा होती लेकिन कभी कभी आगे बढ़ने का इरादा कमज़ोर हो जाता है। आज मैं जब अपने मुल्क पर नज़र डालता हूं, मुल्क के आम हालात पर ग़ौर करता हूं, तो ख़ुदा के शुक्र से मुझे यह नज़र आता है कि इस तरह के प्राब्लम्स नहीं हैं, यानि आगे बढ़ने का संकल्प भी नज़र आता है और आगे बढ़ने की ताक़त भी और मेरा कहना जो है यह कोई नारा नहीं है यह हक़ीक़त है। हमारे पास दसियों लाख, इस आंकड़े पर ग़ौर करें ! बड़े साफ़ आंकड़े हैं, ऐसे स्टूडेंट्स हैं जो या तो पढ़ाई पूरी कर चुके हैं या फिर पढ़ रहे हैं, हमारे पास स्टूडेंट्स हैं, दसियों लाख! यह पुंजी मामूली है? अगर हम यह भी मान लें कि उनमें से सब के दिल में संकल्प नहीं पाया था तब भी उनकी एक बड़ी तादाद में हौसला भरा है, हमारे मुल्क में इन्क़ेलाबी जज़्बा मौजूद है, उसका असर है। यही जो हमारे कुछ नौजवानों ने यहां तक़रीर की और कहा कि “ हम तैयार हैं”  “ हमारा सुझाव है” यह बहुत क़ीमती चीज़ है। तो हमारे यहां इरादा भी है, जज़्बा भी है, फ़ैसला भी तरक़्क़ी करने का, और इसकी ताक़त भी है, तो फिर हमें इससे फ़ायदा उठाना चाहिए। अगर हम आज जो यह “ चाहत और ताक़त” के इस अवसर से फ़ायदा नहीं उठाते, जो कि आज मौजूद है, तो हमने ज़ुल्म किया है, इस मौक़े से किसको फ़ायदा उठाना चाहिए, ओहदेदारों को फ़ायदा उठाना चाहिए, एलीट्स को भी फ़ायदा उठाना चाहिए और इसी तरह ज्ञान-विज्ञान के केन्द्रों को भी इस अवसर से लाभ उठाना चाहिए, अगर फ़ायदा नहीं उठाया तो हमने ज़ुल्म किया, अपने मुल्क पर ज़ुल्म किया, अपने इतिहास पर ज़ुल्म किया। हम सब ज़िम्मेदार हैं, मैं भी ज़िम्मेदार हूं, सरकारी ओहदेदार भी ज़िम्मेदार हैं, आप नौजवान भी ज़िम्मेदार हैं, ज्ञान-विज्ञान से संबंधित मंत्रालयों के मंत्री भी और ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र भी जिन पर कुछ ज़िम्मेदारियां हैं वह भी इस मामले में ज़िम्मेदार हैं। हम सबको कोशिश करनी चाहिए कि यह ज्ञान विज्ञान का आंदोलन, यह नया काम जिसकी मुझे उम्मीद है, यानि एक नया आंदोलन, शार्टकट, नयी छलांग, नया संकल्प यह सब हो जाए। यह वह ज़िम्मेदारी है जो सबके कांधों पर है।

ज़िम्मेदारी की बात आयी तो इसी सिलसिले में मैंने तीसरी बात भी लिखी है जिसे अब यहां कहना चाहता हूं और वह यह बात है कि ज्ञान, ज़िम्मेदार बनाता है, दूसरी तमाम पूंजियों की तरह, दूसरी तमाम तरह की दौलत की तरह। दौलत, ज़िम्मेदारी की वजह बनती है, वैचारिक पूंजी, आर्थिक पूंजी, ताक़त की पूंजी, यह सब ज़िम्मेदारी की वजह बनती हैं। जो भी चीज़ अल्लाह ने आप को दी है, उसके बदले में आप पर कोई ज़िम्मेदारी भी डाली है और निर्धारित की है, ज्ञान भी इसी तरह का क़ीमती ख़ज़ाना है। आपके पास जो ज्ञान है वह आप को जवाबदेह बनाता है। “ जवाबदेह बनाता है” का क्या मतलब है? यानि आपको अपने ज्ञान से लोगों को फ़ायदा पहुंचाना चाहिए और उस भरोसे को भी लोगों के फ़ायदा में इस्तेमाल करना चाहिए जो इस ज्ञान की वजह से आप पर लोग करते हैं। किसी मौक़े पर ज्ञान रखने वाला व्यक्ति समाज में अपनी इज़्ज़त और भरोसे की वजह से उस भरोसे और इज़्ज़त को लोगों के लिए अपने ज्ञान के मैदान से हट कर दूसरे मामले में भी इस्तेमाल कर सकता है, यह एक ज़िम्मेदारी है। आप ने अगर एटमी मैदान में, मेडिकल में, फ़िज़िक्स में, मैनेजमेंट में या ज्ञान-विज्ञान के किसी भी मैदान में किसी जगह पहुंचने में कामयाब रहे, तो स्वाभाविक रूप से इसे दो तरफ़ से आप पर ज़िम्मेदारी आ जाती है यानि आप के ज्ञान को भी जनता के फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इस ज्ञान की वजह से आपको जो इज़्ज़त और भरोसा मिला है उसे भी उनके लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जो बात कही है वही सब कुछ और आख़िरी बात है। वह कहते हैं कि “ अल्लाह ने ज्ञानियों से यह वादा लिया है कि वह ज़ालिम के भरे पेट को और पीड़ित के भूखे पेट को स्वीकार न करें”। (6) यानि हमें रिएक्शन दिखाना चाहिए, प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए। आज ग़ज़्ज़ा के मामले में, यह रिएक्शन की ज़िम्मेदारी, हम सब पर है, हमें रिएक्शन दिखाना चाहिए, कुछ लोग भूखे हैं, कुछ लोगों पर बमबारी की जा रही है, कुछ लोगों को सौ सौ करके शहीद किया जा रहा है। यह जो पूरी दुनिया में मोर्चाबंदी हो रही है, मुल्क में, चाहे युनिवर्सिटी का ज्ञानी हो यार फिर धार्मिक मदरसे का, सबसे पहले उसे यह कोशिश करनी चाहिए कि सत्य व हक़ की पहचान करे, हक़ का पता चल जाए और फिर वह हक़ के साथ खड़ा हो जाए, लापरवाही, लापरवाही के साथ देखना, ज्ञानी व पढ़े लिखे लोगों के लिए सही नहीं है।

अगली बात यह प्रचलित ऑप्रेशनल तरीक़े के बारे में है कि जिसके बारे में ख़ुद मैं कई बार बात कर चुका हूं, वह वैज्ञानिक आलेखों का मामला है। मैंने इस बारे में दो तीन बार चर्चा की है। (7) मुझे यह लगता था कि पहले जो मैं चेतावनी दे चुका हूं वही काफ़ी हैं, यानि काम हो गया है लेकिन अब सुना है कि ऐसा नहीं है। वैज्ञानिक रिसर्च पेपर को अकादमिक बोर्ड के प्रमोशन की शर्त बना देना, मेरे ख़्याल से कोई तार्किक औचित्य नहीं है, यानि सच में यह बात गले से नीचे नहीं उतरती। मुझे इस बात में कोई शक नहीं है कि हमें दुनिया में वैज्ञानिक दौड़ में हिस्सा लेना चाहिए, भाग लेना चाहिए, शामिल होना चाहिए, यह काम तो ज़रूर होना चाहिए लेकिन यह कि हम अपने सभी टीचरों और युनिवर्सिटी के अकादमिक बोर्ड के मेंबरों के लिए यह ज़रूरी कर दें कि अगर आप को प्रमोशन चाहिए तो जाकर दुनिया की अमुक मशहूर मैगज़ीन में या फिर अमुक वैज्ञानिक सेंटर में इम्तेहान दें, आर्टिकल लिखने का यही मतलब है, यानि यह साफ़ हो जाए कि उस सेन्टर की नज़र में आप का वैज्ञानिक स्तर क्या है? मेरी नज़र में यह तार्किक नहीं है। हां रिसर्च आर्टिकल लिखना अच्छी बात है जहां तक यह बात है कि हमारे मुल्क के कुछ मशहूर प्रोफ़ेसर व टीचर, अपनी अपनी फ़ील्ड में रिसर्च करें, उनके हवाला और ध्यान दिये जाने लायक़ आर्टिकल दुनिया भर में छापें जाएं तो मैं पूरी तरह से इससे सहमत हूं, यह काम ज़रूर करना चाहिए, लेकिन यह कि हम प्रमोशन की शर्त आर्टिकल लिखने को बना दें यानि यह हर टीचर के लिए आम शर्त बना दें तो यह मेरी नज़र में कोई तार्किक काम नहीं है। यक़ीनी तौर पर अच्छे आर्टिकल, मुल्क की वैज्ञानिक छवि और ख्याति को बेहतर कर सकते हैं, यह तो सही है लेकिन इसके लिए सही राह तलाश करना चाहिए और मुल्क में ज्ञान-विज्ञान के ज़िम्मेदारों को ऐसा रास्ता तलाश करना चाहिए जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुल्क का वैज्ञानिक दर्जा नीचे न होने पाए। मैंने आर्टिकल और रिसर्च थीसिस के बारे में बार बार कहा है (8) कि रिसर्च आर्टिकल, थीसिस और लेखों का मक़सद, मुल्क की प्राब्लम्स को ख़त्म करने में मदद होना चाहिए, अस्ली मक़सद यह है। मेरी वह बात न भूलें जो अभी मैंने कही है कि दुनिया में वैज्ञानिक दौड़ और कंप्टीशन में शामिल होना ज़रूरी है, लेकिन अस्ल मक़सद यह है कि हम आलेखों से, इस रिसर्च से, मुल्क का कोई मामला सुलझा लें। यही सब मुद्दे जिनके बारे में यहां कहा गया, पर्यावरण का मामला, देसी इलाज का मामला, वाहन का मामला, तो यह सब मुल्क के मुद्दे हैं और इसी तरह के सैकड़ों मुद्दे हैं, अगर हम इन्हें वैज्ञानिक तरीक़े से, वैज्ञानिक शैली से जानकार लोगों की तरह सुलझाना चाहते हैं तो हमें इसी तरह के आर्टिकल और रिसर्च की ज़रूरत होगी तो हमारे आर्टिकल, हमारे स्टूडेंट्स के थीसिस में इन समस्याओं पर ध्यान दिया जाए ताकि उन्हें हल किया जाए। सच में हर मैदान में इसकी ज़रूरत है, हेल्थ, हाउसिंग, सिक्योरिटी से लेकर, खाने पीने, घर परिवार, पर्यावरण से लेकर सरकारी ढांचे में सुधार, सरकारी ढांचे में सुधार तक! यह भी एक सब्जेक्ट है, इसी तरह इन्टरनेशनल रिलेशन्स तक यह सब वो मैदान हैं जिनके बारे में रिसर्च की जानी चाहिए, स्टडी की जानी चाहिए यह सब होना चाहिए। हम बस अख़बार में ही न फंसे रहें जिसे अंग्रेज़ी में जरनॉलिस्टक कहा जाता है यानि कोई आगे बढ़े और मिसाल के तौर पर किसी अख़बार में इन्टरनेशनल रिलेशन्स या राजनीति वग़ैरा के बारे में कोई आर्टिकल लिख दे, हम इसी पर संतुष्ट न रहें, बल्कि सही तौर पर रिसर्च की जानी चाहिए।

 

इस सिलसिले में आख़िरी, ओहदेदारों की ज़िम्मेदारियों के बारे में है। बड़ी अच्छी बात यह है कि यहां मिनिस्टर्स, डिप्टी प्रेज़िडेंट और बहुत से ओहदेदार मौजूद हैं। इस बारे में संक्षेप में मैं जो बात कह सकता हूं वह यह है कि ओहदेदारों को कुछ इस तरह के काम करने चाहिए जिनसे एलीट्स को यह महसूस हो कि वह फ़ायदेमंद हैं। आज कल यही जो लोगों की ज़बानों और अख़बारों में पलायन और मुल्क से जाने की बातें हैं और कुछ लोग इस बारे में कुछ ज़्यादा ही बड़ी बड़ी बातें बोलने लगते हैं, उसकी वजह यह है कि इन एलीट्स को लगता है कि उनका यहां कोई काम नहीं है। मैंने इस से पहले भी कहा है (9) एक एलीट, मुल्क के मैनेजमेंट से दो उम्मीदें रखता हैः एक यह कि उसके पास रोज़गार हो, काम रहे, वह काम करे और दूसरा यह कि उसके लिए रिसर्च और एजूकेशन जारी रखने का मौक़ा हो। एलीट्स को दूसरे मुल्कों में खींचने वाली एक चीज़ यह है कि वहां रिचर्च और आगे बढ़ने व तरक़्क़ी करने का मौक़ा होता है हमें चाहिए कि यह सब कुछ और रोज़गार का उनके लिए मुल्क के अंदर इंतेज़ाम करें। मैं आज यहां पर यह कहना चाहता हूं कि अगर हम एलीट्स की उम्मीदों को एक जुमले में बयान करना चाहें तो वह यह है कि एलीट्स चाहते हैं कि उन्हें यह महसूस हो कि वह मुल्क में फ़ायदेमंद हैं।

इसके लिए कुछ राहें हैं। आज ख़ुशक़िस्मती से दो तीन बार नॉलिज बेस्ड कंपनियों की बात हुई मैंने भी लिख लिया है, एलीट्स को उनके फ़ायदेमंद होने का एहसास दिलाने का एक बेहतरीन रास्ता, नॉलिज बेस्ड कंपनियां बनाना है। नॉलिज बेस्ड कंपनियां, मुल्क को आर्थिक विकास भी देती हैं, मुल्क में ताज़गी पैदा करती हैं, वैज्ञानिक तरक़्क़ी की वजह बनती हैं और एलीट्स को मुल्क में बाक़ी भी रखती हैं और इस तरह से मुल्क के एलीट्स से फ़ायदा भी उठाया जाता है। इस बुनियाद पर मैं ज़ोर देता हूं कि नॉलिज बेस्ट कंपनियों को मज़बूत करें और इन कंपनियों को मज़बूत करने का एक रास्ता यह है कि इन कंपनियों में बनायी जाने वाली चीज़ों को बाहर से न लाया जाए। अभी कुछ दिनों पहले, कुछ शिकायतें मुझे मिलीं कि नॉलिज बेस्ड कंपनियों का कहना है कि “ हम यह चीज़ बनाते हैं, अमुक सरकारी विभाग में वह चीज़ इस्तेमाल होती है, लेकिन वह उसे बाहर से लाता है। “क्यों? हमें मुल्क के अंदर बनने वाली चीज़ों को इस्तेमाल करना सीखना चाहिए, आदत बना लेनी चाहिए, ख़ास तौर पर सरकारी विभागों को जो इन प्रोडक्ट्स के सबसे बड़े ग्राहक होते हैं। यह बात जो बार बार दोहरायी जाती है, वह सबसे पहले हम लोगों से कही जाती है, ख़ुद ओहदेदारों से की जाती है, विभागों से कही जाती है, सरकारी विभागों से कही जाती है, उनको मुल्क के अंदर बनने वाली चीज़ें इस्तेमाल करना चाहिए और सबसे पहले इन्ही नॉलिज बेस्ड कंपनियों की चीज़ें इस्तेमाल करना चाहिए।

 जी तो मेरी बातें ख़त्म हुईं। एक छोटी सी बात, एक लफ़्ज़ फ़िलिस्तीन और ग़ज़्ज़ा के हालात के बारे में कहता चलूं। फ़िलिस्तीन के मामले में, आज दुनिया अपनी आंखों से जो कुछ देख रही है वह इस नाजायज़ हुकूमत की तरफ़ से जातीय सफ़ाये का भयानक अपराध है, यह पूरी दुनिया देख रही है। कुछ मुल्कों के ओहदेदारों ने जब हमारे मुल्क के ओहदेदारों से बात की तो ज़ायोनी शासन के बचाव में उनका यह कहना था कि फ़िलिस्तीनियों ने क्यों आम नागरिकों को मारा। सबसे पहली बात तो यह दावा, ग़लत है, यानि बुनियादी तौर पर तो वो लोग जो ज़ायोनी बस्तियों में रहते हैं, वो आम नागरिक नहीं हैं, सबके पास हथियार होते हैं। लेकिन अगर हम मान भी लें कि वह आम नागरिक हैं तो कितने आम नागरिक मारे गये? उससे सौ गुना ज़्यादा आम नागरिकों, बच्चों, महिलाओं, जवानों और बूढ़ों को ज़ायोनी शासन मार रहा है। ग़ज़्ज़ा की इन इमारतों में सैनिक तो नहीं रहते, सैनिक अपनी जगह पर हैं, उन्हें भी मालूम है, यह लोग वही आम नागरिक हैं। भीड़-भाड़ वाली जगह को चुनते हैं और बमबारी कर देते हैं। ग़ज़्ज़ा में फ़िलिस्तीनी, यही कुछ दिनों में कितने हज़ार फ़िलिस्तीनी मारे गये! यह अपराध पूरी दुनिया की आंखों के सामने हो रहा है। इन सब पर मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए, अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन पर अब यक़ीनी तौर पर मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए, उन सबके ख़िलाफ़ अदालती कार्यवाही होनी चाहिए, अमरीकी सरकार को भी इस सिलसिले में जवाब देना चाहिए।

हमें मिलने वाली जानकारियों के मुताबिक़, आजकल जो नीति अपनायी गयी है, यानि हालिया हफ़्तों में ज़ायोनी शासन के भीतर जो कुछ किया जा रहा है वह अमरीकी कर रहे हैं, यानि नीतिकार, अमरीकी हैं और यह जो कुछ भी हो रहा है वह अमरीकी नीति है। अमरीकियों को अपनी ज़िम्मेदारियों पर ध्यान देना चाहिए वह इन सबके ज़िम्मेदार हैं। बमबारी फ़ौरन रोकी जानी चाहिए। पूरी दुनिया के मुसलमान, ग़ुस्से में हैं, सच में ग़ुस्से में हैं, उसकी निशानियां आप देख रहे हैं जैसे आम लोगों की रैलियां, सिर्फ़ इस्लामी मुल्कों में ही नहीं, बल्कि लॉस एंजलिस में, हालैंड में, फ्रांस में, यूरोपीय मुल्कों में, पश्चिमी देशों में, लोग सड़कों पर निकल रहे हैं मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम सब निकल रहे हैं, इस्लामी मुल्कों में तो सबको मालूम है कि क्या हो रहा है। लोग ग़ुस्से में हैं। अगर यह अपराध जारी रहा, तो मुसलमानों में बेचैनी बढ़ जाएगी, रेज़िस्टेंस मोर्चा बेचैन हो जाएगा, फिर उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा, यह जान लें। फिर कोई किसी से यह उम्मीद न रखे कि वह “अमुक गिरोह को अमुक काम करने से रोक ले” जब यह बेचैन हो जाएंगे तो फिर उन्हें कोई रोक नहीं सकता, यह एक सच्चाई है जो है। वैसे ज़ायोनी शासन जो भी कर ले इस मामले में उसे जो शर्मनाक हार हुई है उसकी भरपाई नहीं हो सकती(10) जी आख़िरी बात कह दी, शुक्रिया।

 

              वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

 

1 इस मुलाक़ात के शुरु में 7 एलीट्स ने तक़रीर की और साइंस टेक्नालॉजी व नॉलिज बेस्ड इकोनॉमी के मामले में डिप्टी प्रेज़िडेंट और नेशनल एलीट फाउंडेशन के डायरेक्टर रुहुल्लाह देहक़ानी ने एक रिपोर्ट पेश की।

2 मुल्क में ग्रामीण और पिछड़े इलाक़ों की तरक़्क़ी के लिए काम करने वाला विभाग

3 युनिवर्सिटियों और शिक्षा व तकनीकी केन्द्रों के ओहदेदारों से मुलाक़ात (11/11/2015)

4 शरहे नहजुलबलाग़ा, इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 20, पेज 319

5 पहलवी शाही सरकार के प्राइम मिनिस्टर फील्ड मार्शल हाज अली रज़्म आरा ने कुछ सांसदों की ओर से तेल की इंडस्ट्री के नेशनलाइज़ेशन की मांग के जवाब में ईरानी क़ौम का मज़ाक़ उड़ाते हुए चिल्ला कर कहा था कि जो क़ौम मिट्टी का लोटा सही से नहीं बना पाती वह किस तरह से तेल इंडस्ट्री को  संभाल पाएगी?”

6 एललुश्शराए, जिल्द 1, पेज 151

7 मुल्क के ग़ैर मामूली योग्यता रखने वालों से भेंट में तक़रीर, 18/09/2017

8 युनिवर्सिटियों और शिक्षा व तकनीकी सेन्टरों के ज़िम्मेदारों से मुलाक़ात 10/06/2018

9 मुल्क के ग़ैर मामूली योग्यता रखने वालों से भेंट में तक़रीर,19/10/2022

10 वहां मौजूद लोगों ने “इस्राईल मुर्दाबाद” के नारे लगाए।