बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

 

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व नबी हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा और उनकी सबसे नेक, सबसे पाक, चुनी हुयी, हिदायत याफ़्ता, हिदायत करने वाली, मासूम और सम्मानित नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

मैं अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं कि उसने मुझे यह तौफ़ीक़ दी कि मैं इस अर्थपूर्ण और बड़ी बैठक में भाग लूं। इसी तरह मैं उन लोगों का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने इस बैठक का इंतेज़ाम किया है। इसी तरह उन भाई, बहनों का भी शुक्रिया अदा करता हूं जिन्होंने बैठक के शुरू में यानी इस एक-डेढ़ घंटे के दौरान प्रोग्राम पेश किये, क़ुरआने मजीद की अच्छी तिलावत, ज़बरदस्त तराने, बोल भी अच्छे थे और धुन भी अच्छी थी, अच्छे अच्छे क़सीदे और तक़रीरों में भी बहुत अच्छी बातें बतायी गयीं। लगभग वह तमाम बातें जो पाक़ीज़ा डिफ़ेंस और आम लोगों के उससे ताल्लुक़ के बारे में हमारे दिमाग़ में हैं, वह सब इन भाई बहनों की तक़रीरों में मौजूद थीं, लेकिन इन सब बातों पर सोच विचार की ज़रूरत है, उन पर ग़ौर किये जाने की ज़रूरत है, इसका कोई रास्ता ज़रूर निकलेगा इन्शाअल्लाह।

यहां पर मैं जो कहना चाहता हूं वह यह है कि पाकीज़ा डिफ़ेंस, हमारे मुल्क की तारीख़ का एक अहम और ख़ास दौर है। इस दौर को, इस अहम घटना को हमें सही तौर पर पहचानना चाहिए और उसे अपनी अगली पीढ़ियों के दिमाग़ में बिठाना चाहिए। मुझे पक्का यक़ीन है कि अगर हमारी आने वाली नस्लें, पाकीज़ा डिफ़ेंस के अहम और अर्थपूर्ण पहलुओं को पहचान लें और यह जान जाएं कि इस अहम घटना में किस तरह से ईरानी क़ौम, जीत की चोटी पर खड़ी होने में कामयाब हुई और वहां ताक़त व गर्व के साथ खड़ी रही तो उनके लिए इस पहचान में बड़े-बड़े सबक़ होंगे और बड़े-बड़े काम हो जाएंगे इसका मुझे पूरा यक़ीन है। इस घटना की अहमियत को जानना चाहिए। बहुत काम हुआ है, किताबें लिखी गयी हैं, फ़िल्में बनायी गयीं हैं, यादें बयान की गयी हैं, लेकिन अब भी मेरी नज़र में इस मैदान में बहुत से काम बाक़ी हैं। हम अब तक पाकीज़ा डिफ़ेंस की इस रंगारंग और अहम पेंटिंग की एक  एक बारीकी को न समझ पाएं हैं और न ही समझा पाए हैं, उसे अभी हम दूर से देख रहे हैं लेकिन अगर हम इस तस्वीर के क़रीब जाएं तो हमें उसके हर हिस्से में, इतनी ख़ूबसूरती, इतनी बारीकी और इतने अर्थ नज़र आएंगे कि हम हैरत में पड़ जाएंगे, उसका हर हिस्सा इस तरह का है, इस लिए उसे पहचनवाने की ज़रूरत है।

वैसे यह तो ज़ाहिर है कि मैं इस बैठक में इस मक़सद को पूरा करने का इरादा नहीं रखता, यह मुमकिन भी  नहीं है, यह एक बहुत बड़ा और व्यापक काम है, लेकिन उसका एक पहलू ज़रूर बयान करना चाहूंगा। हम इस घटना की अहमियत और महानता को जानना चाहते हैं, इस घटना की महानता और अहमियत को कई पहलुओं से, कई नज़रियों से देखा जा सकता हैः एक तो उस चीज़ के पहलू से जिसका डिफ़ेंस किया जा रहा था। चूंकि मामला पाकीज़ा डिफ़ेंस का है, यानी हम किस चीज़ का बचाव कर रहे थे, यह तो एक पहलू। अगर हम इस पहलु से देखें तो इस महान घटना के अहम हिस्से हमारे सामने आ जाएंगे। एक दूसरा पहलु यह है कि हम देखें कि यह डिफ़ेंस किस के सामने किया जा रहा था, किसने हमला किया था जिसकी वजह से बचाव करना ज़रूरी हो गया था, यह एक दूसरा पहलु है जो मेरी नज़र में अहम है। तीसरा नज़रिया और पहलु यह है कि यह डिफ़ेंस किस के ज़रिए हुआ है, बचाव करने वाले कौन लोग थे, यह भी एक अनोखी और अहम चीज़ है और मैं आगे चल कर इनमें से हरेक के बारे में कुछ बातें कहूंगा। चौथा पहलु यह है कि इस डिफ़ेंस का नतीजा और उपलब्धियां क्या थीं। अब मैंने तो 4 पहलुओं का ज़िक्र किया है लेकिन इस घटना पर और भी कई पहलुओं से नज़र डाली जा सकती है। तो एक बात तो यह है कि हमें यह देखना चाहिए, सोचना चाहिए, रिसर्च करना चाहिए कि डिफ़ेंस किस चीज़ का हुआ है, दूसरे यह कि डिफ़ेंस किसके सामने हुआ है, तीसरे यह कि किन लोगों के ज़रिए डिफ़ेंस हुआ है और चौथे यह कि इस डिफ़ेंस का नतीजा क्या निकला। मेरी नज़र में इनमें से हर एक पहलु बहुत अहम है, हर एक के बारे में हमे सोचना चाहिए, स्टडी करना चाहिए यह बहुत अहम है।

जहां तक यह सवाल है कि “किस चीज़ का डिफ़ेंस हो रहा था” तो पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान इस्लामी इन्क़ेलाब, इस्लमी जुम्हूरिया जो इस्लामी इन्क़ेलाब का फल था, इसी तरह मुल्क की अखंडता का बचाव किया जा रहा था, यह वह तीन अहम चीज़ें थीं जिनका डिफ़ेंस किया जा रहा था। सामने वाले पक्ष ने इन तीनों चीज़ों पर हमला किया था। वैसे दुश्मन के मोर्चे का बुनियादी व अहम मक़सद, जिसके बारे में दूसरे हिस्से में बात होगी, अखंडता नहीं था, यह तो सद्दाम का मक़सद था, उनका निशाना तो इन्क़ेलाब था, दुश्मनों के मोर्चे का मक़सद यह था कि वह इस बेमिसाल व अहम व बड़े इन्क़ेलाब को तबाह कर दे जो ईरानी जनता के बलिदानों से कामयाब हुआ था। हम इस इन्क़ेलाब को बेमिसाल क्यों कहते हैं? क्योंकि यह एक ऐसी घटना थी जिसकी मिसाल उससे पहले आने वाले दुनिया के बड़े-बड़े इन्क़ेलाबों में नहीं मिलती। यह इन्क़ेलाब, अवामी था, दीनी था, शुद्ध था और किसी बाहरी ताक़त से जुड़ा नहीं था। एक पूरी क़ौम का इन्क़ेलाब था, अवामी इन्क़ेलाब था, फ़ौज की बग़ावत या किसी पार्टी के इन्क़ेलाब की तरह नहीं था। यह इन्क़ेलाब, मुल्क पर पंजे गड़ाए, करप्ट व पिटठू शासन को हटाने में, ख़त्म करने में और हमारे मुल्क में एक नया सिस्टम लाने, एक नयी चीज़ पेश करने में कामयाब हुआ था। नयी चीज़ व नया सिस्टम यानी इस्लामी जुम्हूरी सिस्टम, यानी डेमोक्रेसी, इस्लामी यानी धार्मिक। दीनी जुम्हूरीयत, एक नयी चीज़ थी दुनिया में। तारीख़ में दीनी हुकूमतें गुज़री हैं लेकिन उनमें डेमोक्रेसी की बात नहीं थी, तारीख़ में डेमोक्रेटिक सरकारें, सच में या फिर नाम की, गुज़री हैं लेकिन उनमें दीन की बात नहीं थी। एक ऐसी सरकार, एक ऐसा सिस्टम जिसमें दीन व दुनिया, दुनिया व आख़ेरत, जनता और ख़ुदा, सब रहें और उसे बनाने में सब का रोल रहे, उसकी दुनिया में मिसाल नहीं मिलती, लेकिन ईरान में यह काम हो गया था, वह उसे ख़त्म करना चाहते थे, उसे हराना चाहते थे, और इस्लामी जुम्हूरिया को ख़त्म करना चाहते थे, उनका अस्ल मक़सद यह था। अब तक वो इसी मक़सद पर काम कर रहे हैं, आज तक वो विभिन्न बहानों से सामने आते हैं लेकिन जो लोग इस्लामी जुम्हूरिया से भिड़ रहे हैं, उससे मुक़ाबला कर रहे हैं, उसके ख़िलाफ़ दुश्मनी कर रहे हैं, उनकी प्राब्लम, “इस्लामी जुम्हूरिया” है, इधर उधर के मुद्दों का नंबर बाद में आता है अस्ल मुद्दा यही है और उस दौर में भी अस्ल मक़सद यही था।

यक़ीनी तौर पर इस दौरान एक बुरे, लालची और सभी इन्सानी ख़ूबियों से दूर सद्दाम जैसे तानाशाह का एक और भी मक़सद था और वह यह कि इस्लामी जुम्मूरिया को ख़त्म करने के साथ ही, ईरान की अखंडता पर भी हमला करे, लूट मार करे और ईरान के तेल से मालामाल व दौलत से भरे इलाक़े को अलग करके ले ले। यह भी मक़सद था, लेकिन इस मामले के दूसरे लोग इस चीज़ को अहमियत नहीं देते थे, उनका अस्ल मक़सद, इस्लामी जुम्हूरिया की तबाही था। मामला बहुत अलग होता है जब एक जंग इस लिए होती है ताकि दो मुल्कों के बीच सरहदें बदल दी जाएं और जब एक जंग इस लिए होती है कि उस चीज़ को तबाह कर दिया जाए जो एक पूरी क़ौम की पहचान हो। दुनिया में जंगें बहुत होती हैं, सरहदी जंगें होती हैं, इलाक़ों पर क़ब्ज़े के लिए जंग होती है, लेकिन जो जंग इस लिए होती है कि एक क़ौम की पहचान, एक मुल्क का सब कुछ, एक क़ौम के बलिदानों के फल यानी इस्लामी इन्क़ेलाब को, तबाह कर दिया जाए तो वह दुनिया की दूसरी जंगों से अलग होती है, यह घटना, उन सब घटनाओं से बहुत अलग है। इस बुनियाद पर जिस चीज़ का डिफ़ेंस किया जा रहा था, वह यह बुनियादी और अहम चीज़ थी। बात सिर्फ़ यह नहीं थी कि मुल्क की कोई सरहद आगे बढ़ जाएगी या पीछे हटा दी जाएगी और भौगोलिक सीमाएं बदल जाएंगी, अगर वही होता तब भी मामला गंभीर था, लेकिन इसकी अहमियत की, उसकी अहमियत से बराबरी नहीं की जा सकती। यह तो उस पहलु से जिसका बचाव किया जा रहा था, डिफ़ेंस का मुद्दा।

जहां तक दूसरे पहलु की बात है यानी “हमला करने वाले कौन थे” तो अगर हम इस पहलु से इस को देखें तो यक़ीनी तौर पर पाकीज़ा डिफ़ेंस की अहमीयत और उसकी महानता सामने आ जाएगी। कभी यह होता है कि एक मुल्क किसी दूसरे मुल्क पर हमला करता है, या दो मुल्कों, तीन मुल्कों का एक गठजोड़, दो हुकूमतों का, दो ताक़तों का मिल कर एक मुल्क पर हमला होता है। लेकिन कभी यह होता है कि एक मुल्क पर पूरी दुनिया टूट पड़ती है, मामला यह था। यह जो मैं कह रहा हूं यह बढ़ा चढ़ा कर की जाने वाली बात नहीं है, “पूरी दुनिया” भी जो मैं कह रहा हूं उसका मतलब दुनिया के एक कोने में पड़ा कोई बेअसर मुल्क नहीं, उस दौर की दुनिया की सारी बड़ी ताक़तें एक मोर्चे पर जमा हो गयी थीं और हम पर होने वाले इस हमले में, इस्लामी जुम्हूरिया और इस्लामी इंक़ेलाब के ख़िलाफ़ होने वाले इस हमले में शामिल थीं।

अमरीका एक तरह से, युरोप के अलग अलग देश अपने अपने तरीक़े से, हर मुल्क किसी न किसी तरीक़े से इस जंग में शामिल था जबकि सोवियत यूनियन की अगुवाई में उस दौर का पूर्वी ब्लॉक अपने तरीक़े से इस जंग का हिसा बना था। कहा जाता है कि ईरान पर हमले के लिए उकसाने वाले अस्ल में अमरीकी थे, इस बारे में कुछ दस्तावेज़ भी सामने आए हैं, लेकिन मैंने इस बारे में स्टडी नहीं की है, दस्तावेज़ भी अपनी आखों से नहीं देखा है लेकिन कहा यही जाता है, हर तरफ़ यही कहा जा रहा था और यह बात आम थी कि ईरान पर हमले के लिए भड़काने वाले अस्ल लोग अमरीकी थे, उसके बाद जंग के दौरान सब से बड़ी मदद जो ख़ुफिया जानकारियों के ज़रिए होती है, वह भी अमरीकियों ने सद्दाम को दीं। वह दौर आज के दौर जैसा नहीं था, बहुत ज़्यादा चीज़ें नहीं थीं, हवाई नक़्शे बड़ी आसानी से अमरीकियों के मिल जाते थे, वे हमारी पोज़ीशन का, हमारे सिपाहियों की पोज़ीशन का नक़्शा तैयार करते और हमेशा उन्हें दिया करते थे, यह पक्की बात है कि अमरीकी इस तरह की मदद करते थे, और जंग की रणनीति यानी टैक्टिक शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसके लिए हमारे दोस्त “वे ऑफ़ एक्शन” का शब्द इस्तेमाल करना ज़्यादा पसंद करते हैं, वह टैक्टिक व रणनीति सद्दाम को दी जाती थी। या युरोपीय, फ्रांसीसी, यह लोग बेहद माडर्न हवाई जंगी साधन और उपकरण इराक़ को देते थे, मिराज फ़ाइटर हवाई जहाज़, डसॉल्ट सुपर एटेंडर्ड फ़ाइटर प्लेन, एक्सोस्ट मिसाइल यह उस दौर के बेहद माडर्न हथियार थे जो सद्दाम को दिये गये थे।

जर्मन लोगों ने केमिकल हथियार बनाने के लिए ज़रूरी चीज़ें सद्दाम को दी थीं और उसकी मदद की थी जिसकी वजह से ईरान बल्कि ख़ुद इराक़ में, हलब्चे और इस तरह के कई इलाक़ों में कितनी भयानक ट्रेजडी हुई। आज यह लोग जो दुनिया के हर इलाक़े में बड़े-बड़े दावे करते फिरते हैं, वे इस तरह के भयानक अपराध कर चुके हैं। पूर्वी ब्लॉक, पूर्व सोवियत युनियन और पूर्वी युरोप के मुल्कों ने, ज़मीन से लेकर आसमान तक में जंग के लिए जो भी चाहा सब कुछ सद्दाम को दिया जो कुछ उसे चाहिए था सब दिया। चूंकि मिसाइल महंगा था इस लिए यह फ़ैसला किया गया कि तेहरान तक गोलाबारी करने वाला तोपख़ाना सद्दाम को दिया जाए और दे भी दिया गया, यानी सद्दाम का तोपख़ाना ऐसा बनाया गया कि उससे तेहरान को निशाना बनाया जा सके और ख़र्चा भी ज़्यादा न हो और वह तेहरान में समस्याएं पैदा कर दे। उनसे जो बन पड़ा वह सब सद्दाम के लिए किया। ख़ुद हमारे इलाक़े के अरबों ने, अरब मुल्कों ने, बेहिसाब पैसे उसे दिये। यह जो सारी चीज़ें उसने युरोपीय मुल्कों से इम्पोर्ट कीं और ख़रीदीं उसका पेमेंट उन पैसों से हुआ जो हमारे दोस्तों ने सद्दाम को दिया था, पैसे भी दिये और ट्रांस्पोर्टेशन के लिए रास्ता भी दिया। परशियन गल्फ़ के सरहदी इलाक़े में सामान और मशीन व हथियारों से भरे ट्रकों की आवाजाही रहती थी और उनके ज़रिए यह सामान इराक़ पहुंचाया जाता था, यानी सब ने मदद की, सब ने। हमला इन लोगों ने किया था, हमारा क्या हाल था? हमारे पास कोई मददगार नहीं था, हमें तो वह सामान व हथियार भी नहीं दिया जाता था जिसकी क़ीमत अदा करने पर हम तैयार थे, बस कभी किसी मौक़े पर मुश्किल से कुछ मिल जाता। कुछ मिसालें हैं जब हम क़ीमत से कई गुना ज़्यादा रक़म अदा करके और बड़ी मुश्किलों से कुछ सामान ख़रीदने और उसे मुल्क में लाने में कामयाब हुए लेकिन उसका इस असमान लड़ाई पर कोई असर नहीं था। यानी इस असमानता को ज़रा भी कम नहीं कर पायी थीं वो चीज़ें, यह भी न हो पाया।

जी तो इस तरह की जंग में, इस तरह के टकराव में ईरानी क़ौम, जीत की चोटी पर खड़ी होकर पूरी दुनिया से अपना लोहा मनवाने में कामयाब हुई, महानता व बड़ाई यह है।

तीसरे पहलु में भी यानी “डिफ़ेंस करने वाले कौन थे” बहुत ही ग़ैर मामूली चीज़ें हैं। ईरान में फ़ौज थी, सिपाहे पासदारान आईआरजीसी थी, आईआरजीसी की युनिटों की शक्ल में स्वयं सेवी बल था, यह लगभग वही सब कुछ है जो दुनिया में होता है, यानी हथियारबंद युनिटें होती हैं जो लड़ती हैं, लेकिन यहां मुद्दा सिर्फ़ यही नहीं था, यही बात नहीं थी। जी, डिफ़ेंस करने वालों का ज़ाहिरी रुप, फ़ौज, आईआरजीसी या यही दुनिया में प्रचलित युनिटें थीं लेकिन अंदर से कुछ और था, उसके अदंर जो रूप था वह दुनिया की फ़ौजों से बिल्कुल अलग था।

सब से पहले तो सुप्रीम कमांडर, इमाम ख़ुमैनी, अल्लाह वाले इन्सान थे, एक बेमिसाल अल्लाह वाली हस्ती थे जो इल्म, सोच, तजुर्बे वाले और हर तरह से पक्के इन्सान होने के साथ ही साथ, इन सब के साथ ही एक साफ़ सुथरी व पाकीज़ा रूह के मालिक थे, इस लिए उनके वजूद में बरकत थी। मिसाल के तौर पर जब वो कहते थे कि “पावे” को बचाना चाहिए (2) मैंने ख़ुद मरहूम चमरान से सुना है, वो कहते थे कि “जैसे ही दोपहर 2 बजे इमाम ख़ुमैनी का पैग़ाम रेडियो पर प्रसारित हुआ, यह लोग पावे में दुश्मन के घेरे में थे, उनके चारों तरफ़ दुश्मन का क़ब्ज़ा था, अचानक जैसे ही यह पैग़ाम प्रसारित हुआ, जबकि फ़ोर्स नहीं पहुंची थी, शायद अभी कुमक चली भी नहीं थी, हमने देखा के घेराबंदी टूट गयी”। इस पैग़ाम की बरकत थी, इस पैग़ाम का असर था, इसे मैंने ख़ुद प्यारे शहीद चमरान से सुना है। या जब इमाम ख़ुमैनी ने कहा कि आबादान की घेराबंदी तोड़ दी जाए (3) तो फिर उस पर कोई चर्चा नहीं हुई, घेराबंदी तोड़ दी गयी। बहुत से मामलों में जैसे सूसनगिर्द के मामले में और जो इस शहर पर हमले के बारे में असमंजस पाया जाता था, कि जाकर डिफ़ेंस करें या न करें, क्योंकि बहुत सी प्राब्लम्स थीं, जब इमाम ख़ुमैनी का पैग़ाम किसी के ज़रिए पहुंचा, मामला सुलझ गया। वह इस तरह के कमांडर थे, इतनी बरकतों वाले, इतने असर वाले क्योंकि वहो एक रूहानी हस्ती थे, बरकत वाले थे।

उसके बाद पाकीज़ा डिफ़ेंस पर दीन का जो रंग था, दीन का रंग। जब दीन का रंग होता है तो उसका नतीजा यह होता है कि नौजवान, शहादत के शौक़ में आगे बढ़ता है, यह जो शहीदों की ज़िंदगी के बारे में लिखा गया है उनकी जीवनी लिखी गयी है उसे पढ़ें, नौजवान शहादत की आरज़ू के साथ शहादत के शौक़ के साथ जाता है, रोता है मोर्चे पर जाने के लिए, ताकि शायद उसे शहादत नसीब हो जाए, दीन के असर का नतीजा यह होता है। घराने, मां, बाप, बीवी, ख़ुशी से इस बात पर तैयार हो जाते थे कि उनका प्यारा नौजवान, अल्लाह की राह में मोर्चे पर जाए। मैंने शहीदों की माओं से बहुत मुलाक़ातें की हैं मिसाल के तौर पर एक मां के एक या दो बेटे शहीद हो गये थे, वो कहती थीं कि अगर मेरे दस बेटे होते तो मैं उन सब को भी शहीद होने के लिए भेज देती, वो सच कहती थीं, दिल से कहती थीं। आज इसी एग्ज़ीबिशन में हमें कुछ मिसालें पेश की गयीं। जैसे एक ख़ातून, 9 शहीदों की मां थीं, यह कोई मामूली बात नहीं है, 9 शहीदों की मां, 8 शहीदों की मां, क्या कोई सोच सकता है? लेकिन यह हुआ है। ख़ुद मैंने कुर्दिस्तान में एक घराना देखा है जिसके 7 लोग, जो मुझे याद है 7 लोग शहीद हो गये थे, पहली बार जब उनसे मिला था तो उनकी मां ज़िंदा थीं, बाप भी ज़िंदा थे, फिर बाप का इंतेक़ाल हो गया। एक घर से 7 शहीद, क्या दीन के अलावा कोई और ताक़त यह करवा सकती थी? दीन का मामला। डिफ़ेंस करने वाले यह लोग थे।

लॉजिस्टिक्स के अलग अलग मैदानों में, घराने, घरेलु औरतें और दूसरे लोग भी थे, सिपाहियों के कामों के लिए, ख़ून से सने सिपाहियों के कपड़ों को धोने वाले, ख़ून का हौज़, नाम की किताब भी लिखी जा चुकी है (4) जिसका एक बार मैंने ज़िक्र किया है (5) और इस तरह के काम, कुल मिला कर यह कहना चाहिए कि ईरान की पूरी क़ौम इससे जुड़ी थी। यह नहीं कह रहा हूं कि क़ौम का एक एक आदमी जुड़ा था लेकिन आम जनता और समाज के विभिन्न वर्ग के लोग, इस काम में शामिल थे, यह काम किसी ख़ास गुट का नहीं था कि जो छावनियों से निकल कर मोर्चे पर जाकर जंग करके वापस लौट आता हो। किसी भी घटना की महानता को इस पहलु से अच्छी तरह समझा जा सकता है और इस तरह की बातों से। मेरे ख़्याल से इस बारे में, ख़ास तौर पर इस तीसरे पहलु के बारे में बयान करने वाले और आर्ट की शक्ल में बहुत से काम हो सकते हैं, सिर्फ़ किताबें ही नहीं लिखी जा सकतीं। वैसे मुझे यहां बताया गया कि “ख़ून का हौज़” नामक किताब के आधार पर एक फ़िल्म बनायी जा रही है, इस तरह के बहुत से आर्ट व कला के मैदान में अच्छे काम किये जा सकते हैं और इन्शाअल्लाह काम होगा, अब तक बहुत से काम किये हैं लेकिन उनकी तादाद ज़्यादा होनी चाहिए।

जहां तक उपलब्धियों और नतीजों की बात है तो वह कोई एक दो तो नहीं हैं, अब अगर कोई इस मैदान में क़दम रखना चाहे और यह देखना चाहे कि पाकीज़ा डिफ़ेंस की उपलब्धियां और नतीजे क्या थे, तो दसियों जिल्द की किताब तैयार हो जाएगी। मैं इस बारे में दो तीन बातें कहता चलूं। सब से पहली बात तो यह कि इस से मुल्क टुकड़ों में बंटने से बच गया जो ज़ाहिर सी बात है, अहम काम है, यानी पूरी दुनिया सद्दाम के साथ खड़ी थी, हमारी सरहदों को बदलने के लिए, 8 बरसों तक ज़ोर लगाया, आख़िर में हमारे मुल्क की एक इंच ज़मीन न ले सके, यह आसान काम नहीं है, छोटा काम नहीं है, बहुत अहम है। तो यह तो एक उपलब्धि है, लेकिन दूसरी उपलब्धियां इससे कहीं ज़्यादा अहम हैं।

एक और उपलब्धि यह थी कि ईरानी क़ौम ने अपनी योग्यता और महानता की खोज कर ली थी। आप ज़रा ग़ौर करें, यहां जिन युवकों व युवतियों ने आकर तक़रीर की, वह सब बार बार यही कह रहे थे कि हमें मुल्क को चलाने के लिए, मैनेजमेंट के लिए, अर्थ व्यवस्था और दूसरे मैदानों में मैनेजमेंट के लिए, थोपी गयी जंग और पाकीज़ा डिफ़ेंस का तरीक़ा अपनाना चाहिए, इसका क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान हर मैदान में ईरानी क़ौम की योग्यताएं इस तरह से निखर कर सामने आयी हैं कि अब सब यही चाहते हैं कि मुल्क के सभी विभागों में मैनेजमेंट के लिए, तरक़्क़ी के लिए और मुल्क की महानता के लिए उसी की पैरवी करें और उसी राह पर चलें, यानी पाकीज़ा डिफ़ेंस ने ईरानी क़ौम के सामने एक ऐसा आईना रख दिया जिसकी मदद से ईरानी क़ौम ने ख़ुद को पहचान लिया। पूरी तारीख़ में हम से जो कहा गया था और हमारे साथ जो किया गया था वह सब इसके उलट था, उससे अलग था, काजारी दौर में, पहलवी दौर में हमेशा हमें यह समझाया गया कि हम कुछ नहीं कर सकते, हम कुछ नहीं हैं, हम किसी क़ाबिल नहीं हैं और  दुनिया की बड़ी ताक़तें, एक इशारे में हमारा वजूद इस ज़मीन से मिटा सकती हैं, हमें यह सिखाया गया था। हमेशा हम से कहा जाता था कि हमें इन बड़ी ताक़तों से सीखना चाहिए, उनके पीछे पीछे चलना चाहिए, उनसे मांगना चाहिए। पाकीज़ा डिफ़ेंस ने यह साबित कर दिया कि नहीं! जिन लोगों से कुछ लोगों की उम्मीदें और सांसें जुड़ी हैं वही सब एक होकर आगे आते हैं एक क़ौम के ख़िलाफ़ एकजुट होकर काम करते हैं लेकिन उस क़ौम का कुछ बिगाड़ नहीं पाते, यह चीज़ ईरानी क़ौम ने साबित कर दी। यानी हमने अपनी ताक़त खोज ली। हम यह समझ गये कि मिसाल के तौर पर शहीद हसन बाक़ेरी जैसा एक नौजवान, मैं ज़िंदा लोगों का नाम नहीं लेना चाहता हालांकि ज़िंदा लोगों में भी इस तरह के बहुत लोग हैं, वह जंग के मैदान में आते हैं, कुछ ही दिनों में एक स्ट्रैटेजिस्ट बन जाते हैं, जंग और डिफ़ेंस के रणनीतिकार बन जाते हैं। यह योग्यता कोई मामूली चीज़ नहीं है, यह योग्यता कहां छुपी थी? शहीद हसन बाक़ेरी एक नौजवान थे, एक अख़बार के रिपोर्टर थे, जुम्हूरी इस्लामी अख़बार में आर्टिकल लिखते थे, उनकी यह योग्यता निखर कर सामने आयी। इस तरह की योग्यताओं की हज़ारों मिसालें हमारे सामने हैं, मिसाल के तौर इंजीनियरिंग के मैदान में योग्यताएं, अरवंद रूद जैसी उफनती  नदी पर पुल बनाया और दुश्मन की गोलाबारी के दौरान उस पर से सैनिकों की टुकड़ियां गुज़र गयीं, क्या यह कोई छोटा काम है? क्या यह काम मुमकिन था? दुश्मन को यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है, लेकिन हो गया। यह एक गुंजाइश व योग्यता थी, यह एक योग्यता थी, जो छुपी थी, फिर निखर कर सामने आ गयी। यह भी एक अहम उपलब्धि है। उस दौर में हमारे नौजवानों ने पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान जो काम किये हैं उनके मद्देनज़र हम पूरे यक़ीन से यह कह सकते हैं कि आज भी हमारे नौजवान हमारे मुल्क की सभी प्राब्लम्स को ख़त्म कर सकते हैं। यह जो कहा गया है कि “बदलते हालात में मर्दों के जौहर खुलते हैं” (6) वह सिर्फ़ लोगों के बारे में ही नहीं है, यह पूरे समाज के बारे में भी है, किसी भी क़ौम को कठिन परिस्थितियों और सख़्त हालात में पहचाना जा सकता है। हम ख़ुद को पहचानते ही नहीं थे, दूसरे भी हमें नहीं पहचानते थे, दुनिया ने भी हमें पहचाना नहीं था, पाकीज़ा डिफ़ेंस में, ख़ुद हमने, ख़ुद को पहचाना और दूसरों ने भी हमें पहचान लिया। दुनिया में जो लोग बड़े-बड़े दावे करते थे उनकी भी समझ में आ गया।

पाकीज़ा डिफ़ेंस की एक और उपलब्धि मुल्क को सुरक्षित बनाना है, मुल्क को महफ़ूज़ बनाना। यानी पाकीज़ा डिफ़ेंस ने, हमारे मुल्क को संभावित सैन्य हमले से काफ़ी हद तक सुरक्षित कर दिया। दुश्मनों ने बार बार कहा कि सैन्य विकल्प भी मेज़ पर है, लेकिन यह विकल्प मेज़ पर ही पड़ा रहा, हिला नहीं वहां से, क्योंकि उन्हें पता था कि अगर उन्होंने इस मैदान में क़दम रख दिये तो फिर जो होगा उसकी शुरुआत उनके हाथ में होगी लेकिन उसे ख़त्म करना उनके बस में नहीं होगा, इसे पाकीज़ा डिफ़ेंस ने साबित कर दिया है। यह भी एक उपलब्धि है। गहरा व सच्चा ईमान, पक्का व ठोस इरादा, ईरानी नौजवानों की सूझ बूझ, सिविल व सैन्य अधिकारियों की ओर से नयी खोज और नये रास्ते, अंतरराष्ट्रीय ग़ुंडों को क़ाबू में रखने की योग्यता, यह वह ख़ूबियां थीं जो पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान हमारी क़ौम में हमारे सिपाहियों में निखर कर सामने आयीं और देखी गयीं। तो ख़ुद क़ौम ने भी इन ख़ूबियों को पहचाना और ज़ाहिर सी बात है जब हम इन ख़ूबियों को पहचान लेंगे और हमारी यह समझ में आ जाएगा कि हमारे अंदर यह योग्यताएं हैं तो फिर हमारी उम्मीद भी बढ़ जाएगी, हमारी ताज़गी बढ़ जाएगी और हम अपनी इन योग्यताओं से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाने की कोशिश करेंगे। दूसरे मैदानों में भी हम अपनी इन योग्यताओं से फ़ायदा उठा सकते हैं, यह पाकीज़ा डिफ़ेंस की एक अहम ख़ूबी है।

पाकीज़ा डिफ़ेंस की एक उपलब्धि यह थीः पाकीज़ा डिफ़ेंस ने हमारी सरहदों के दायरे को बढ़ा दिया, मेरा मतलब भौगोलिक सरहदें नहीं हैं, हमारा मक़सद भी यह नहीं था कि हम अपनी सरहदों को आगे बढ़ाएं, न उस दौर में, न आज के दौर में, हम अपनी भौगोलिक सरहदों को बढ़ाने की कोशिश में नहीं हैं, पाकीज़ा डिफ़ेंस ने हमारी दूसरी क़िस्म की सरहदों को फैला दिया। मिसाल के तौर पर “रेसिस्टेंस” की सरहद को फैला दिया, यह एक मिसाल है। आज “रेसिस्टेंस” और “ रेसिस्टेंस की बात” सब को पता है, फ़िलिस्तीन में रेसिस्टेंस है, पश्चिमी एशिया में, और बहुत सारे मुल्कों में रेसिस्टेंस है, इराक़ में रेसिस्टेंस है, ईरान में भी कई मैदानों में रेसिस्टेंस है, यह “रेसिस्टेंस” की बात दुनिया में पाकीज़ा डिफ़ेंस ने पेश की और इस अर्थ को उसने आगे बढ़ाया और दुनिया के कई इलाक़ों में इस अर्थ को स्थापित किया। शायद ख़ुद हमें भी आसानी से यक़ीन न आए कि ईरानी क़ौम ने किस तरह दूर दराज़ के मुल्कों पर अपनी छाप छोड़ी है, लेकिन उन पर असर हुआ है, हमें पता नहीं। मैं मुल्कों का नाम नहीं लेना चाहता, पूरब में भी यानी एशिया में, अफ़्रीक़ा में और लेटिन अमरीका में भी, ईरानी क़ौम के बहुत से काम, वहां के बहुत से लोगों के लिए आइडियल हैं, यह सरहदों का फैलना है। हमारी सोच और नज़रिये की सरहद का विस्तार हुआ है। यह किसी भी क़ौम की सब से अहम कामयाबी होती है कि वह अपना कल्चर, अपना नज़रिया, अपनी मालूमात और अपनी ख़्वाहिश को दुनिया में फैला सके, यह काम मुख्य रूप से पाकीज़ा डिफ़ेंस के ज़रिए किया गया, पाकीज़ा डिफ़ेंस के 8 बरसों में इस मैदान में चमत्कार हुआ है।

पाकीज़ा डिफ़ेंस ने आत्मविश्वास बढ़ाया। अच्छा तो अब हम यह देखना चाहते हैं कि यह जो रेसिस्टेंस की बात करते हैं तो यह किस के सामने डट जाने की बात है। हमारा इलाक़ा, यह जो पश्चिमी एशिया का इलाक़ा है, कई वजहों से उन इलाक़ों में शामिल हैं जिन पर दुनिया की साम्राज्यवादी ताक़ती की नज़रें गड़ी हुई हैं, इसकी क़ुदरती दौलत की वजह से, इसकी भौगोलिक पोज़ीशन की वजह से, इस्लाम का सेन्टर होने की वजह से, यह इलाक़ा बहुत सी वजहों से हमेशा बड़ी ताक़तों की नज़रों में रहा है और उन्होंने हमेशा इस इलाक़े में दख़ल देने की कोशिश की है, आज भी आप देख रहे हैं जहां भी इन बड़ी ताक़तों का बस चलता है, आगे बढ़ कर दख़ल देती हैं, रेसिस्टेंस इन के मुक़ाबले में है। ऐसी ज़ोर ज़बरदस्ती करने वाली ताक़तों के सामने डट जाने का कल्चर फैला है जिन्हें हमारे इलाक़े में रहने का कोई हक़ ही नहीं है। यह जो आप देखते हैं कि इलाक़े में ईरान की मौजूदगी से अमरीका और दूसरे कुछ मुल्क चीख़ पुकार मचाने लगते हैं तो उसकी वजह यह है, इसका मतलब यह है कि ईरान यहां मौजूद है, दख़ल दे रहा है, जबकि हम दख़ल नहीं देते। हां मौजूद हैं, लेकिन हमारी यह मौजूदगी फ़िज़िकल नहीं है। दूसरों की तो हमारे इलाक़े के बहुत से मुल्कों में बाक़ायदा तौर पर छावनियां हैं, हमारी तो नहीं है लेकिन हम नैतिक तौर पर मौजूद हैं। हमारी नैतिक मौजूदगी उनसे ज़्यादा है, उनकी चीख़ इस वजह से निकल रही है, यह पाकीज़ा डिफ़ेंस की देन है।

पाकीज़ा डिफ़ेंस की एक बरकत, ख़ुद हमारे मुल्क के अदंर भी रेसिस्टें की सोच की मज़बूती और फैलाव है। मेरे प्यारो! जंग को 30 बरस से ज़्यादा का वक़्त गुज़र चुका है, इन 30-35 बरसों में हम पर बहुत हमले हुए हैं, बड़ी साज़िशें की गयी हैं, अलग अलग मैदानों में। बहुत से मौक़ों पर आम लोगों का ध्यान नहीं गया लेकिन साज़िशें थीं, जब कि कुछ हमले और साज़िशें सब की आंखों के सामने हुए जिन्हें आप लोगों ने ख़ुद पिछले बरसों में देखा है। ईरानी क़ौम के सामने सारे फ़ितने और साज़िशें नाकाम हो गयीं, क्यों? क्योंकि ईरानी क़ौम के अंदर रेसिस्टें जड़ पकड़ा चुका है। यह जो 30-35 बरसों से मुल्क में रेसिस्टेंस का कल्चर अपनी जड़ें फैला चुका है तो वह 8 बरस पाकीज़ा डिफ़ेंस के दौरान रेसिस्टेंस की वजह से है। पाकीज़ा डिफ़ेंस का हमारे मुल्क पर बहुत बड़ा एहसान है। कुछ लोग एतेराज़ करते हैं, कुछ लोग शक करते हैं, कुछ लोग सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर  पेश करते हैं, कुछ लोग पाकीज़ा डिफ़ेंस के बारे में सफ़ेद झूठ बोलते हैं, इन लोगों के मुक़ाबले में जो लोग सच्चाई बयान कर सकते हैं वह बयान करें। पाकीज़ा जेहाद और पाकीज़ा डिफ़ेंस की महानता को हमें ज़्यादा से ज़्यादा बयान करना चाहिए, बताना चाहिए, समझाना चाहिए, यह हमारी ज़िम्मेदारी है।

यह जो काम हो रहे हैं कि जिनमें से कुछ की रिपोर्ट यहां पेश की गयी, अच्छे हैं लेकिन इसे सौ गुना बढ़ाना चाहिए, हम यह कर सकते हैं, करने वाले भी हमारे पास हैं, इसके लिए ज़रूरी योग्यताएं भी हैं। हम आर्ट के मैदान में काम कर सकते हैं, हम अच्छी फ़िल्में बना सकते हैं, हम अच्छी किताबें लिख सकते हैं, हम इन घटनाओं की बुनियाद पर अच्छे नॉवेल लिख सकते हैं, हम यह सब कर सकते हैं बस इसके लिए यह ध्यान रहना चाहिए कि हम आर्ट के मैदान में किये जाने वाले अपने कामों में अस्ल मक़सद को न भूल जाएं, मक़सद ग़ायब न हो जाए। कभी आर्ट के मैदान में कोई काम होता है जिसका मक़सद इस राह में मदद देना होता है लेकिन जो होता है वह कुछ और होता है, इसकी वजह यह है कि रास्ते में ही हैरानी और सोच में ख़राबी पैदा हो जाती है जिससे मक़सद दिमाग़ से निकल जाता है, गुम हो जाता है, हमें ध्यान रखना चाहिए। आर्ट के मैदान में बहुत ज़्यादा काम होना चाहिए, जिसके बस में जो हो वह करे। यह आज हमारी पाकीज़ा डिफ़ेंस के बारे में बातें थीं।

यहां पर बस मैं आर्म्ड फ़ोर्सेज़ के बारे में एक बात कहता चलूं वह भी इसी दिन की वजह से है। हमारी आर्म्ड फ़ोर्सेज़ ने थोपी गयी जंग के दौरान बहुत मेहनत की, बड़ी कोशिशें कीं, सच में बहुत से मैदानों में बड़े बड़े बलिदान दिये। अब मैं उनके बारे में कुछ बातें कहना चाहूंगा।

सब से पहली बात तो कि आर्म्ड फोर्सेज़ हर मुल्क की इज़्ज़त होती हैं, उनकी मौजूदगी, उसकी कार्यवाहियां, वह बुनियादी चीज़ है जिसके बिना कोई मुल्क बाक़ी नहीं रह सकता। यही वजह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसी हस्ती कहती है कि “फ़ौज, जनता के लिए क़िला है” (7) यह अमीरुल मोमेनीन कह रहे हैं, मामूली बात नहीं है,“फ़ौज, जनता के लिए क़िला है” यानी आर्म्ड फ़ोर्सेज़, जनता को सुरक्षित रखती हैं। उनकी क़द्र करना चाहिए। आर्म्ड फ़ोर्सेज़ की ताक़त और इज़्ज़त ज़रूरी चीज़ समझना चाहिए। फ़ौज की इज़्ज़त करना हमें ख़ुद के लिए ज़रूरी समझना चाहिए। आर्म्ड फ़ोर्सेज़ इस तरह की हैं, मुल्क को महफ़ूज़ बनाती हैं, सुरक्षा, सब कुछ है। अगर सुरक्षा न होगी तो इल्म नहीं होगा, इकोनॉमी भी नहीं होगी, घरानों का चैन व सुकून भी नहीं होगा, आराम नहीं होगा। किसी भी मुल्क के लिए सेक्युरिटी सब कुछ है। आर्म्ड फ़ोर्सेज़, सुरक्षा लाती हैं। हर लिहाज़ से उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए, उनकी क़द्र की जानी चाहिए, उनकी मेहनत की इज़्ज़त की जानी चाहिए, चाहे सरहदों की सुरक्षा करने वाला सिपाही हो चाहे मुल्क के अंदर सेक्युरिटी को यक़ीनी बनाने वाला सिपाही हो। कुछ सिपाही सरहदों पर तैनात होते हैं ताकि बाहर से असुरक्षा, मुल्क के अंदर न आए, कुछ सिपाही, मुल्क के अंदर अशांति पैदा करने वालों को रोके रखते हैं, उनका काम भी अहम है। इन सब पर ध्यान दिया जाना चाहिए। दुश्मन इन सब मैदानों में नज़र गाड़े बैठा है। हमारे दुश्मन एक काम जो करते हैं वह आर्म्ड फ़ोर्सेज़ की वैल्यूज़ को नुक़सान पहुंचाना है या उनकी इज़्ज़त व पोज़ीशन को कम और कमज़ोर करना है, इसके लिए वो तरह तरह के तरीक़े इस्तेमाल करते हैं, इस बारे में काम करते हैं, आंखें खुली रखने की ज़रूरत है।

मैं यहां पर ख़ुद आर्म्ड फ़ोर्सेज़ से एक बात कहना चाहता हूं जो मेरी नज़र में बहुत अहम है और वह यह है कि इस्लाम में ताक़त की परिभाषा, वर्चस्व नहीं है। जबकि दुनिया के सिस्टम में उसका यही मतलब होता है, ताक़त का मतलब वर्चस्व होता है। वर्चस्व यानी ख़ुद को दूसरों से बड़ा समझना, ख़ुद को दूसरों से बेहतर समझना, ख़ुद को दूसरों पर थोपना, अपना बोझ दूसरों के कांधों पर डालना है, दूसरों को कम समझना है, दुनिया की ज़बान में ताक़त का यह मतलब होता है। जो ताक़तवर हो जाता है, वह वर्चस्व चाहता है। क़ुरआन में जिन बातों को बुरा कहा गया है उनमें से एक यही वर्चस्व है “बेशक फ़िरऔन ने ज़मीन पर ख़ुद को बड़ा समझा” (8) यह वर्चस्व है। इस्लाम में ताक़त की ज़बान, ख़ुद को बड़ा समझना नहीं है, बल्कि आप की ताक़त जितनी ज़्यादा होती है, आप की योग्यताएं, चाहे आप की अपनी योग्यताएं चाहे आप की क़ानूनी योग्यताएं हों वो जितनी ज़्यादा होती जाती हैं उतनी ही आप में विनम्रता आती जाती है, लचक बढ़ जाती है, ख़ुदा की याद ज़्यादा हो जाती है।

मालिके अश्तर का वाक़या आप सब लोगों ने सुना होगा, मालिके अश्तर, इमाम अली अलैहिस्सलाम की फ़ौज के एक बहादुर, ताक़तवर, समझदार कमांडर हैं, अमीरुल मोमेनीन के मज़बूत बाज़ू, वो ऐसी हस्ती हैं, वो कूफ़ा में जा रहे थे, शायद यह घटना कूफ़ा की है, एक लड़के ने जो उन्हें नहीं पहचानता था, उनका मज़ाक़ उड़ाना शुरु कर दिया। शायद उनके कपड़े या पगड़ी को देख कर उसने मज़ाक़ उड़ाना शुरु कर दिया। कुछ मज़ाक़ उड़ाया, हंसा और कुछ कह कर चला गया। जब मालिके अश्तर वहां से चले गये तो एक आदमी ने उस लड़के से कहा कि तुम्हें मालूम है जिसका तुमने मज़ाक़ उड़ाया है वह कौन है? उसने कहाः नहीं, तो उस आदमी ने उसे बतायाः वह मालिके अश्तर हैं। लड़का डर गया, कहने लगा अब यह मालिके अश्तर जिनके साथ मेरा इस तरह का रवैया था वो मेरे या मेरे घर वालों के साथ क्या करेंगे? कहने लगा अब मैं क्या करूं? उस आदमी ने कहा कि जाओ और उन से माफ़ी मांगों। वह लड़का उनसे माफ़ी मांगने के लिए पीछे पीछे गया तो उसने देखा कि मालिके अश्तर मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने लगे, यह लड़का ठहरा रहा और जब उनकी नमाज़ ख़त्म हो गयी तो आगे बढ़ कर कहने लगा कि मुझे माफ़ कर दीजिए मैंने आप को पहचाना नहीं, मैंने आप की बेइज़्ज़ती की तो आप मुझे माफ़ कर दीजिए। मालिके अश्तर ने कहा कि मैं मस्जिद आया और दो रकअत नमाज़ पढ़ी ताकि तेरे लिए दुआ करूं। अस्ल में इस तरह की बदतमीज़ी करने वाले को दुआ की ज़रूरत होती है, उसके लिए दुआ करना चाहिए तो मालिके अश्तर ने कहा कि मैं तुम्हारे लिए दुआ करने यहां आया हूं। यह मालिके अश्तर हैं, ग़ौर करें।

आप का फ़ौजी ओहदा और आप की ताक़त जितनी ज़्यादा हो, ऊपर हो, आप को उतनी ही विनम्रता दिखाना चाहिए, उतना ही दूसरों के लिए नर्म दिल होना चाहिए। ताक़त और मीठे बोल में कोई विरोधाभास नहीं है, ताक़त और मेहरबानी व नर्म रवैये में कोई विरोधाभास नहीं है। आप ने सुना यह साहब(9) बता रहे थे कि एक नौजवान लड़का, दंगों में शामिल होता है, फिर जेल जाता है और उसके बाद उसे माफ़ कर दिया जाता है और वह जेल से रिहा हो जाता है। फिर मोर्चों पर जाने वाले क़ाफ़िले “राहीयाने नूर” में शामिल होता है, मोर्चे देखने के लिए नहीं, बल्कि सैर सपाटे के लिए और कहता है कि चलो घूम फिर लूंगा। फिर वहां जाता है, कुछ लोगों की बातें सुनता है, आंसू बहने लगते हैं, हिचकी लेकर रोता है और कहता है कि यह बुज़दिली थी, यानी दंगों में ख़ुद के शामिल होने को बुज़दिली कहता है। ताक़त और नर्म ज़बान में कोई टकराव नहीं। कभी कभी नर्म ज़बान से ज़्यादा और बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती है। हां कुछ जगहों पर ज़रूरी होता है कि इन्सान दूसरी तरह का रवैया अपनाए, हर जगह की अपनी अलग ज़रूरत होती है। आर्म्ड फ़ोर्सेज़ को अपनी क़द्र करना चाहिए, अपने काम की इज़्ज़त करना चाहिए, अहमियत देना चाहिए, उस पर गर्व करना चाहिए, लोगों को भी उनकी क़द्र करना चाहिए।

हम सब को यह जान लेना चाहिए कि हम ख़ुदा की राह में और उसके लिए काम करते हैं, आगे बढ़ते हैं, बात करते हैं, तो ख़ुदा हमारी मदद करेगा, यह अल्लाह का वादा हैः “ अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा” (10)  “और अल्लाह उसकी ज़रूर मदद करता है जो उसकी मदद करता है” (11) अगर आप की नीयत अल्लाह का काम करना है, तो यक़ीनी तौर पर अल्लाह आप की मदद करेगा, कभी अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली मदद के तरीक़े का हमें पता चल जाता है, हम ख़ुद समझ जाते हैं, कभी नहीं समझते, हम देखते हैं कि हमारी मदद की गयी, हमारा काम हो गया, मुश्किल ख़त्म हो गयी, यह अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली मदद होती है। हमें अपनी नीयतों को इलाही करना चाहिए। इलाही नीयत का यह मतलब नहीं है कि जब भी हम कुछ करना चाहें तो वहीं पर मिसाल के तौर पर यह कहें कि हम यह काम कर रहे हैं अल्लाह के लिए। जी नहीं, यही जो आप लोगों पर नर्मी करें, यह इलाही नीयत का नतीजा है, यही जो आप अपने मुल्क की ख़िदमत करना चाहते हैं, यह एक इलाही नीयत से किया जाने वाला काम है। यही जो आप कुछ लोगों को सही रास्ता दिखाने के लिए आर्ट के मैदान में कोई काम करते हैं वह इलाही नीयत है। अगर हम इलाही नीयत के साथ काम करेंगे तो अल्लाह भी मदद करेगा।

वस्सलामो अलैकुम व रहमुल्लाहे व बरकातुहू

  1. इस मुलाक़ात के शुरु में जेहाद व रेसिटेंस के मैदान में काम करने वाले जनाब मीसम सालेही, श्रीमती ज़हरा बुर्ज़गर, श्रीमती सुमैया बुरुजर्दी, जनाब सईद अल्लामियान, जनाम हमीद पारसा ने तक़रीर की। इसी तरह पाकीज़ा डिफ़ेंस की रचनाओं व मूल्यों के सरंक्षण फ़ाउंडेशन के प्रमुख ब्रिगेडियर बहमन कारगर ने अपनी रिपोर्ट पेश की।
  2. सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 9 पेज 285
  3.  सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 13 पेज 317
  4. फ़ातेमा सादात मीर आली की किताब “हौज़े ख़ून”
  5. 16 अक्तूबर 2021 को ज़न्जान के शहीदों पर सेमीनार के ज़िम्मेदारों के बीच तक़रीर
  6. नहजुल बलाग़ा, हिकमत 217
  7. नहजुल बलाग़ा, ख़त 53
  8. सूरए क़सस, आयत 4
  9. हमीद रज़ा पारसी की तरफ़ इशारा किया जिन्होंने राहियाने नूर क़ाफ़िले के बारे में बातें बतायी थीं।
  10. सूरए मुहम्मद, आयत 7
  11. सूरए हज, आयत 40