इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने मुल्क के दीनी मदरसों से तअल्लुक़ रखने वाले ओलमा, छात्रों और मुबल्लिग़ों से ख़ेताब किया। 12 जुलाई 2023 के इस भाषण में उन्होंने तबलीग़ की वर्तमान स्थिति ज़रूरी तक़ाज़ों को बयान किया। (1)
तक़रीर का अनुवाद पेश हैः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, पाकीज़ा और चुनिंदा नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
सम्मानीय छात्रों और ओलमा की इस सभा में मौजूदगी बहुत आनंददायक है। मेरी हमेशा एक आरज़ू यह रही है कि मदरसे में, छात्रों और ओलमा के बीच, दिलों पर हुकूमत करने वाले धार्मिक केन्द्रों और मदरसों में सांस लूं और ज़िन्दगी गुज़ारूं। मैं इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) की सेवा में था और आपने मुझे दूसरी बार राष्ट्रपति का इलेक्शन लड़ने के लिए कहा तो मैंने अर्ज़ किया कि जनाब मैं पहला कार्यकाल ख़त्म होने के बाद, मेरा दिल चाहता है जाकर क़ुम में रहूं। आपने फ़रमाया कि मेरा भी दिल चाहता है कि क़ुम जाऊं लेकिन नहीं हो सकता। यह हमारी आरज़ू है कि आपके बीच रहूं, आपके साथ रहूं, आपके साथ काम करूं, आप अज़ीज़ भाई और बहन, सबसे ज़्यादा मोतबर तबक़ों में से हैं जिनके साथ इंसान बहुत सुकून से काम कर सकता है, मेहनत कर सकता है। जो बातें जनाब आराफ़ी ने बयान की हैं, वे बहुत अच्छी हैं। यहाँ आने से पहले, इस कोरिडोर में नुमाइश का आयोजन किया गया था जिनमें कामों और सरगर्मियों को दिखाया गया था, इससे भी मुझे बहुत ख़ुशी हुयी। यहाँ मदरसों के फ़रीज़ों के बारे में जो कुछ कहा गया और इस नुमाइश में जिस चीज़ को चित्रित किया गया, उसकी यह नाचीज़ सौ फ़ीसदी हिमायत करता है।
मदरसों और मदरसों से संबंध रखने वालों के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है, अलग अलग पहलुओं से बात की जा सकती है। आज चर्चा के लिए जिस विषय को मैंने चुना है, वह तबलीग़ का विषय है। इस बारे में जो सूचनाएं मिलती हैं उनके मद्देनज़र, मुझे तबलीग़ के संबंध में कई आयामों से चिंता है! जी हाँ, ये सभी सरगर्मियां जिनका ज़िक्र हुआ, बयान की गयीं और उनकी रिपोर्ट पेश की गयी, हक़ीक़त हैं, सही हैं, जानता हूं, लेकिन हमारी ज़रूरत इनसे ज़्यादा है! इस बड़ी आबादी वाले बड़े मुल्क में तबलीग़ की इतनी गुंजाइश है कि जितना काम हो रहा है, हम उससे कई गुना ज़्यादा काम करें तब भी मेरे ख़याल में यह ज़रूरत पूरी नहीं होगी। हमें तबलीग़ की भी ज़रूरत है, वाज़-व-नसीहत की भी ज़रूरत है और रिसर्च की भी ज़रूरत है, अगर हमारी तबलीग़ रिसर्च पर आधारित न हो तो बेअसर व बेफ़ायदा होगी। अपनी रिपोर्ट के आख़िर में, मैं कुछ बातें इस बारे में अर्ज़ करुंगा। आज के लिए मैंने तबलीग़ के संबंध में कुछ प्वाइंट्स लिखे हैं जिन्हें आप अज़ीज़ों के सामने पेश करुंगा।
आज मदरसों में जो सोच पायी जाती है, उसमें तबलीग़ दूसरे दर्जे की तरजीह है। पहले मर्तबे में दूसरी बातें जैसे इल्मी मक़ाम वग़ैरह आता है और तबलीग़ का दूसरा दर्जा है। हमें इससे आगे सोचना चाहिए। तबलीग़ का दर्जा पहला है। मैं यह अर्ज़ करना चाहता हूं, यह क्यों कह रहा हूं? इसलिए कि हम धर्म का मक़सद क्या समझते हैं? अल्लाह का धर्म हम इंसानों के साथ क्या करने आया है? एक आख़िरी मक़सद है कि हमें अल्लाह का उत्तराधिकारी बनने के रास्ते पर और संपूर्ण इंसान बनने के रास्ते पर डाले और बुलंदियों की तरफ़ ले जाए। अब जितनी हमारे भीतर क्षमता हो। यह धर्म का आख़िरी मक़सद है। आरंभिक और मध्यम सतह के भी लक्ष्य हैं, जैसे न्याय क़ायम होना: ताकि लोग इंसाफ़ के लिए उठ खड़े हों...(2) या इस्लामी सिस्टम का गठनः और मैंने कोई पैग़म्बर नहीं भेजा मगर इसलिए कि तौफ़ीक़े इलाही से उसकी पैरवी करें...(3) सूचना का केन्द्र धर्म है, यानी इस्लामी सिस्टम का गठन धर्म के लक्ष्य में शामिल है, यह मीडियम स्तर का लक्ष्य है। या नेकियों का चलन होना, नेकियों का फैलना और बुराइयों का अंत, पाकीज़ा बातों और भले कर्म को रवाज देनाः "उसकी पाकीज़ा बातें ऊपर जाती हैं और उसका अच्छा काम उसको बुलंदी अता करता है..." (4) ये धर्म के लक्ष्य हैं, इनमें से जिसे भी आप मद्देनज़र रखें, उस तक पहुंचने का साधन तबलीग़ है, बिना तबलीग़ के मुमकिन नहीं है। अब किसी शख़्स को अल्लाह की ओर से कोई इशारा हो जाए या उसके दिल में नूर पहुंच जाए तो यह अपवाद है, यह अलग बात है। लेकिन लोगों तक इन लक्ष्यों और ऐसे ही दूसरे लक्ष्यों के साथ अल्लाह का धर्म बिना तबलीग़ के नहीं पहुंच सकता, इसलिए तबलीग़, पहले दर्जे की हैसियत रखती है, पहला मर्तबा रखती है। इस वजह से आप देखिए कि क़ुरआन में तबलीग़ पर बहुत ताकीद की गयी है।
मैंने इसी बात के मद्देनज़र क़ुरआन की आयतों और लफ़्ज़ों की सूचि पर नज़र डाली तो पाया कि 'बलाग़' या 'बलाग़ुल मुबीन' क़ुरआन में बारह तेरह जगह आया है। "बलाग़ुन मुबीन" यानी ऐसा पहुंचाना कि संदेह की गुंजाइश न रहेः "और खुलेआम पैग़ाम पहुंचाने के अलावा हमारा और कोई फ़रीज़ा नहीं है।" (5) संदेह की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए। बलाग़ यानी पहुंचाना, मन और कान तक संदेश पहुंचाना, इसको क़ुरआन में बार बार दोहराया गया है। बारह तेरह बार तकरार हुयी है, पैग़म्बरों की ज़बान ने इसे बार बार दोहराया है। अल्लाह की ओर से पैग़म्बर को ख़िताब करके इसकी तकरार की गयी हैः "तुम्हारे ज़िम्मे सिर्फ़ पैग़ाम पहुंचाना है..." (6) इसी बलाग़ से "जो लोग ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचाते हैं और उससे डरते हैं और ख़ुदा के अलावा किसी से नहीं डरते" (7) (भी मुराद है) जिस आयत की आदरणीय क़ारी साहब ने तिलावत की है। और इस सिलसिले में अनेक आयते भी हैं। "हम अपने परवरदिगार का पैग़ाम तुम तक पहुंचाते रहे" (8) "जो कुछ आपके परवरदिगार की तरफ़ से आप पर नाज़िल हुआ, उसको पहुंचा दें।" (9)
बलाग़ के पर्यायवाची शब्द भी क़ुरआन में बहुत हैं: तबलीग़ यानी दावत देना, क़ुरआन में इसकी कई बार तकरार हुयी है। "हिकमत और अच्छी वाज़ व नसीहत के ज़रिए अपने परवरदिगार की तरफ़ लोगों को बुलाएं" (10) "जब ख़ुदा और पैग़म्बर तुम्हे उस चीज़ की तरफ़ बुलाएं जो तुम्हें हयात बख़्शती है, तो उनकी दावत पर लब्बैक कहो..." (11) इसी तरह ऐसी बहुत सी आयतें है जिनमें 'दावत' शब्द है। 'इनज़ार' और 'तबशीर' डराने और ख़ुशख़बरी देने के भी शब्द हैं। ये सब दावत के मानी में हैं। ये सब तबलीग़ है। आप देखें कि क़ुरआन करीम में कितनी ज़्यादा जगहों पर तबलीग़ पर बल दिया गया है। क़ुरआन मजीद पैग़म्बरों को तबलीग़ का ज़िम्मेदार बताता है, पैग़म्बरों के वारिसों के बारे में क्या है? "बेशक ओलमा, पैग़म्बरों के वारिस हैं" (12) आप भी तो पैग़म्बरों के वारिस हैं। आपके फ़रीज़े की बुनियाद तबलीग़ है। आपको तबलीग़ करना है, अल्लाह के पैग़ाम को लोगों के मन और कानों तक पहुंचाएं, किसके कानों और दिल तक? पूरी इंसानियत (के कानों और दिलों तक) अलबत्ता कुछ प्राथमिकताएं भी हैं, स्वाभाविक तौर पर आपके अपने समाज को ज़्यादा प्राथमिकता हासिल है। कुछ जगहों को प्राथमिकता हासिल है और कुछ जगहों को कम अहमियत हासिल है, लेकिन सब तक पहुंचना चाहिए। हम तबलीग़ की अहमियत को इस तरह देखते हैं।
इसीलिए आप देखते हैं कि मदरसों में शुरू से ही तबलीग़ का चलन रहा है। मैं इस सिलसिले में ज़्यादा रिसर्च और (किताबों का) अध्ययन नहीं कर सका हूं। यानी देखने का वक़्त नहीं निकाल सका। ज़ेहन में यह है कि शैख़ सदूक़ के ज़माने से, या शैख़ सदूक़ (रिज़वानुल्लाह अलैह) की अनेक किताबें, सब तबलीग़ हैं। अमाली तबलीग़ है, ख़ेसाल तबलीग़ है, उयूने अख़बारे रेज़ा तबलीग़ है, ये सब तबलीग़ की किताबें हैं। सिर्फ़ तबलीग़े दीन नहीं है, तबलीग़े अख़लाक़ है, तबलीग़े धर्म है, तबलीग़े तौहीद है, वही जो कुछ हमें अंजाम देना चाहिए। मुख़्तलिफ़ शहरों के सवालों के जवाब में, शैख़ मुफ़ीद (रिज़वानुल्लाह अलैह) के जो मुख़्तलिफ़ रिसाले हैं, ये रिसाले कुछ साल पहले, शैख़ मुफ़ीद कान्फ़्रेंस (13) के मौक़े पर छप चुके हैं। ये सब तबलीग़ हैं। शैख़ तूसी ने, अपनी गहरे अर्थ वाली फ़िक़ह से कि जिसमें बहुत मेहनत लगी, अमाली भी दी है, शैख़ तूसी की अमाली तबलीग़ है। सैयद मुर्तज़ा की अमाली, तबलीग़ है। मैंने अर्ज़ किया कि मुझे वक़्त नहीं मिला कि ज़्यादा देखता- आपके पास ज़्यादा वक़्त है और ज़्यादा हौसला है (देख सकते हैं)- कि बाद की सदियों में मदरसों में तबलीग़ किस तरह अंजाम पायी थी, लेकिन हालिया सदियों में, मजलिसी (रिज़वानुल्लाह अलैह)- मजलिसी बहुत अज़ीम हस्ती हैं, उन्हें कम न समझिए, बहुत अज़ीम हस्ती हैं। उन्होंने बेहारुल अनवार और हदीस, हदीस बयान करने के विषयों पर दूसरी अनेक किताबों के साथ ही, हक़्क़ुल यक़ीन और हयातुल क़ुलूब जैसी फ़ारसी की किताबें भी लिखी हैं। यह किस लिए है? तबलीग़ ही तो है। नराक़ी मरहूम ने भी फ़ारसी में किताब लिखी है, बाद में भी यही शैली रही है, मिसाल के तौर पर तफ़सीर मिनहजुस्- सादेक़ीन (14) और ऐसी ही दूसरी फ़ारसी किताबें हैं, फ़ारसी में किसके लिए लिखी गईं? फ़ारसी ओलमा वग़ैरह के लिए नहीं है, यह अवाम के लिए तबलीग़ है, यानी ओलमा तबलीग़ की परंपरा को अहमियत दिया करते थे। अब यह मिंबर से की जाने वाली तबलीग़ कबसे है, मुझे वक़्त नहीं मिल सका (कि देखता), दिल चाहता था कि अगर मुमकिन हो तो देखूं, लेकिन यही नवीं और दसवीं सदी में मुल्ला हुसैन काशेफ़ी सब्ज़वारी या मिसाल के तौर पर दसवीं सदी में वाएज़ क़ज़वीनी- जो बड़े शायर भी हैं- मेरे ज़ेहन में यह है कि यह मिंबर पर बैठते थे। मिंबर पर तक़रीरें किया करते थे। मिंबर पर तबलीग़ की यह परंपरा उस वक़्त से है। रौज़तुश्शोहदा किताब, मुल्ला हुसैन काशेफ़ी ने लिखी है, हम मजलिसों में जो मसाएब पढ़ते हैं वह हक़ीक़त में उन्हीं की किताब से लिए गए हैं और इसी तरह बाद के बड़े ओलमा हैं जैसे शैख़ जाफ़र शूश्तरी (मिंबर पर बैठते थे) शैख़ जाफ़र शूश्तरी वाज़ व नसीहत के लिए मशहूर हैं। धर्मगुरू हैं, बड़े धर्मगुरू हैं साथ ही मिंबर पर भी बैठते थे, अलबत्ता यह शैख़ जाफ़र काशेफ़ुल ग़ेता नहीं थे, (वह और थे) या मरहूम हाज आक़ा रेज़ा हमदानी वाएज़, बड़े आलिम थे। उन्हें ग़लती से हाज रज़ा हमदानी न समझें जिन्होंने मिस्बाहुल फ़क़ीह लिकी है, वह कोई और थे। हदयतुन्नमला इला रईसिल मिल्लह लिखने वाले वाएज़ थे। ख़ुद हमारे ज़माने में दार्शनिक मरहूम मीरज़ा अबुल हसन क़ज़वीनी थे। इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) ने जवानी में उनसे फ़िक़्ह पढ़ी थी, बड़े आलिम थे। उन्हें मैंने ख़ुद देखा था। इसी तेहरान की जामा मस्जिद के एक हॉल में नमाज़ पढ़ते थे, मिंबर से तक़रीरें किया करते थे और लोग उनकी तक़रीरें सुना करते थे। ये लोग मिंबर से तक़रीर को अपनी शान के ख़िलाफ़ नहीं समझते थे। ख़ुद हमारे मशहद में, मरहूम हाज मीरज़ा हुसैन सब्ज़वारी और मरहूम हाज आक़ा हसन क़ुम्मी मिंबर से तक़रीरें किया करते थे। यानी तबलीग़ की परंपरा चाहे लिखित रूप में हो या मिंबर से तबलीग़ के रूप में या शायरी के ज़रिए, मदरसों में मौजूद रही है, इससे इसकी अहमियत का पता चलता है।
मैंने अर्ज़ किया कि मदरसों की प्राथमिकता तबलीग़ है। हर दौर में इसी तरह था। लेकिन ख़ास तौर पर हमारे दौर में इसकी अहमियत बढ़ गयी है, इसलिए कि हमारे दौर में एक बात ऐसी हुयी है जो इस्लाम के आग़ाज़ से अब तक की एक हज़ार साल की तारीख़ में नहीं हुयी थी, वह इस्लामी हुकूमत है। मुल्क को चलाने के लिए इस्लामी शक्ल में राजनैतिक व्यवस्था का गठन इससे पहले नहीं हुआ था। जब स्थिति यह हो तो इस्लाम से दुश्मनी में शिद्दत भी स्वाभाविक है, इस वक़्त आप जानते हैं, देख रहे हैं और मुशाहेदा कर रहे हैं। यह दुश्मनी इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि हमारे लिए सामान्य सी बात बन चुकी है और अनेक तरह की दुश्मनियां हमें नज़र नहीं आतीं। इसलिए हमारे दौर में तबलीग़ की अहमियत बढ़ जाती है, इस लेहाज़ से भी कि इस्लामी सिस्टम में, सिस्टम की बुनियाद अवाम और उनका ईमान है और अगर अवाम का ईमान न हो तो सिस्टम भी बाक़ी नहीं रहेगा। इमाम (ख़ुमैनी ने) फ़रमाया सिस्टम की रक्षा सबसे बड़ा फ़रीज़ा है, (15) कभी कभी ज़ेहन में आता है कि सबसे बड़ा फ़रीज़ा है तो अवाम के ईमान की रक्षा वाजिब हो जाती है, इस लेहाज़ से तबलीग़ की अहमियत बढ़ जाती है। दूसरे इस लेहाज़ से कि यह वैज्ञानिक बदलाव (16) का दौर है। आज पैग़ाम फैलाने के मुख़्तलिफ़ तरह के तरीक़े मौजूद हैं जिनके बारे में अतीत में सोचा भी नहीं जाता था, टीवी और सैटेलाइट से लेकर इंटरनेट और पोस्ट इंटरनेट दौर तक, ये जो नए आविष्कार हुए हैं, आर्टिफ़िशल इंटेलीजेन्स वग़ैरह। और नए आविष्कार आने वाले हैं।
इन हालात में और इस स्थिति में जब दुश्मन के हाथ में तेज़ धार (17) और ख़ून बहाने वाली नंगी तलवार मौजूद है तो हमें क्या करना चाहिए? यहाँ तबलीग़ की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। आज विरोधियों और दुश्मनों के हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर दोनों तरह के साधनों में इनोवेशन आ चुका है जिसकी ओर मैंने इशारा किया। सॉफ़्टवेयर पैग़ाम को क़ाबिले यक़ीन बनाने के तरीक़े ईजाद कर दिए हैं -ये चीज़ें जिन्हें अतीत में कोई नहीं जानता था- साइंटिफ़िक सपोर्ट और मनोवैज्ञानिक हथकंडों से काम करते हैं। ये सॉफ़्टवेयर के साधन हैं, ये बहुत अहम हैं। इस तरह बात करते हैं, ऐसी फ़िल्में बनाते हैं, ऐसा मंज़र खींचते हैं और अख़बारों में ऐसी सुर्ख़ियां लगाते हैं कि जो देखता है उसके सही होने में शक नहीं करता, जबकि सौ फ़ीसदी ग़लत होती है। आज हमें इनका सामना है। अगर इन चीज़ों से ग़फ़लत की, अगर मदरसों ने तबलीग़ की अहमियत, तबलीग़ की संवेदनशीलता और तबलीग़ के फ़रीज़े की अहमियत की ओर से ग़फ़लत की तो ऐसे नुक़सान का सामना करना पड़ेगा जिसकी भरपाई आसानी से मुमकिन नहीं होगी। नामुमकिन नहीं कह रहा हूं लेकिन आसानी से मुमकिन नहीं होगी और कलचर के लेहाज़ से बहुत बड़ा बदलाव हो जाएगा। अगर ख़ुदा नख़्वास्ता (18) कलचर के लेहाज़ से बदल गए तो उसे ठीक करना और उसकी भरपाई मामूली काम नहीं होगा। इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) कुछ चीज़ों के बारे में बार बार फ़रमाया करते थे कि अगर ऐसा हो गया तो इस्लाम पर ऐसा वार लगेगा कि जिसका असर लंबी मुद्दत तक बाक़ी रहेगा (19) बात यह है। अगर हमने लापरवाही की तो यह होगा। अगर ग़फ़लत की, तो बड़े गुनाहों को भी लोग बुरा समझना छोड़ देंगे। ‘गुनाहाने कबीरा’ को बुरा नहीं समझा जाएगा बल्कि वह आम बात हो जाएगी। आप देख रहे हैं कि पश्चिम में यह हो गया है। पश्चिम में क़दम ब क़दम इस राह में आगे बढ़ रहे हैं। उनके यहाँ ऐसी-ऐसी बातें हो रही हैं जिनको दोहराना अच्छा नहीं लगता। यानी इंसान की बात और ज़बान की शान इससे ऊपर है कि इनको दोहराया जाए, लेकिन है। अगर तबलीग़ को हमने अहमियत न दी तो हमारा समाज भी इसका शिकार हो जाएगा।
ये बातें जो मैंने अर्ज़ कीं और यह सोच जो पेश की इसमें कोई शक नहीं है, इनमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है, लेकिन अब आज की बहस को, ज़्यादा फ़ायदेमंद बनाने के लिए मैंने कुछ प्वाइंट नोट किए हैं जिन्हें पेश करुंगा।
तबलीग़ में पहला बिन्दु आडियंस की शिनाख़्त है। अगर सही तबलीग़ करना चाहते हैं तो पहले अपने मुख़ातब को पहचानें। मैं मिसाल के तौर पर अर्ज़ कर रहा हूं कि आज जनरल नॉलेज का स्तर -नौजवानों में भी और दूसरों में भी- अतीत के मुक़ाबले में इतना ऊंचा है कि दोनों की तुलना नहीं की जा सकती, वाक़ई तुलना नहीं की जा सकती। मेरी तबलीग़ी सरगर्मियों की ज़िंदगी, जो 60 साल से कुछ ज़्यादा है, नौजवानों के बीच गुज़री है, नौजवानों के साथ मशहद में मेरी सभाएं हुआ करती थीं, जिसमें नौजवान, यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स और यूनिवर्सिटियों से जुड़े (दूसरे लोग भी) आया करते थे। यूनिवर्सिटियों और कालेजों के स्टूडेंट्स उस ज़माने में भी उनकी सोच बहुत अच्छी थी- नौजवानों की सोच अच्छी थी लेकिन आज से उसकी तुलना नहीं की जा सकती, सोच का स्तर ऊपर उठ चुका है। इस हक़ीक़त को मद्देनज़र रखे बिना तबलीग़ बेअसर होगी। हमें यह मालूम होना चाहिए कि सामने वाला सोच के किस स्तर पर है ताकि हम अपनी बात, उसका स्वरूप और अंदाज़ उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ तैयार कर सकें, इसके बिना (तबलीग़) फ़ायदेमंद नहीं होगी। हमारे नौजवानों की सोच का स्तर, हमारे नौजवानों और आडियंस की सोच का स्तर ऊपर उठ चुका है, इसके साथ ही एक मुश्किल यह भी है कि मीडिया साधनों की विविधता और साइबर स्पेस की दुनिया में गूंजने वाली आवाज़ों की विविधता और शोर-शराबे में एक आवाज़ को हाशिए पर ढकेल दिया गया है और वह ख़ानदानी वैल्यूज़ को ट्रांसफ़र करने वाली आवाज़ है। माँ बाप अपने बच्चों को बहुत कुछ सिखा दिया करते थे। हमारे अवाम में बहुत से लोग होंगे जिनको ज़्यादा मात्रा में धार्मिक जानकारी, धार्मिक ज्ञान माँ बाप से पहुंचता था, यह आवाज़ आज कमज़ोर हो गयी है, मीडिया की विविधता में यह आवाज़ दब गयी है। यह आडियंस के बारे में एक बात है। एक तो आडियंस के पास बहुत बातें हैं, तरह-तरह की बातें उनके मन में आती हैं और दूसरे इस ओर भी मुश्किल है।
अतीत में हम नौजवानों को नसीहत करते थे और उन्हें बुरे लोगों की दोस्ती के बारे में सचेत करते थे, बुरी संगत से (रोकते थे) आज बुरा साथी उनकी जेब में है। बुरे साथी का पेज सक्रीन आँखों के सामने है, इसमें सब कुछ है। इस आडियंस को पहचानें। अगर हमारी तबलीग़ी बातें, हमारा तबलीग़ का तरीक़ा, हमारे आडियंस की आज की स्थिति और हालत के मुताबिक़ न हो तो हम नाकाम रहेंगे। यह पहला प्वाइंट है। मुमकिन है कि इस आयत में (और हमने हर क़ौम में उसी की ज़बान का पैग़म्बर भेजा है) (20) एक मतलब यही हो। यह बात कि तुर्क ज़बान वालों के बीच कोई पैग़म्बर भेजें तो उसकी ज़बान तुर्की होनी चाहिए, यह तो सीधी सी बात है, इसके बिना तो कोई मतलब ही नहीं है, लेकिन मैं समझता हूं कि यह भी मुमकिन है कि (और हमने हर क़ौम में उसी की ज़बान का पैग़म्बर भेजा है) का मतलब यह हो कि वह क़ौम की वैचारिक सतह के मुताबिक़ बोले और बात करे और बयान करे। यह पहला प्वाइंट। तो पहला प्वाइंट हुआ आडियंस की पहचान।
दूसरा प्वाइंट यह है कि तबलीग़ सिर्फ़ संदेह का जवाब देना नहीं है, बचाव करते रहना नहीं है, ऐसा नहीं है कि हम बैठ के बस यह देखें कि क्या संदेह पाया जाता है, संदेह की रोकथाम करें, या उस संदेह का जवाब दें, हाँ यह काम वाजिब है, ज़रूरी है लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है, सामने वाले की एक वैचारिक बुनियाद है, उस पर हमला करने की भी ज़रूरत है, सामने वाले के पास कहने के लिए कुछ है, सोच है, तर्क है, उस तर्क की बुनियाद ग़लत है, हमें इन बातों को पहचानना है। तबलीग़ में हमले का निशाना बनने वाला मोर्चा होता है। अगर हमले का यह मोर्चा वाक़ई मौजूद हो तो मैदान की पहचान ज़रूरी है, यानी आपको मालूम होना चाहिए कि जब आपको नौजवानों के मन में मौजूद संदेहों की भरमार का सामना होगा तो आपका प्रतिद्वंदवी कौन होगा। हमारा प्रतिद्वंदवी कौन है? फ़र्ज़ करें कि संपादकीय लिखने वाले किसी राइटर ने, किसी अख़बार में कॉलम लिखने वाले ने या ट्वीट करने वाले किसी व्यक्ति ने किसी चैनल पर कुछ कहा है, तो हमें किसका सामना है? यह कौन है? क्या वह ख़ुद यह काम कर रहा है? इस बात का बहुत इमकान है कि परदे के पीछे कोई और है तो यह पर्दे के पीछे कौन है? इसको पहचानें।
देखें एक दिन इस मुल्क में -अलबत्ता उन दिनों आप (और कोई क़ाबिले ज़िक्र चीज़ नहीं थी) (21), (22) पचास साठ बरस पहले की बात है- तूदे पार्टी वाले सरगर्म थे, प्रचारिक काम वग़ैरह करते थे। ज़ाहिर में यह तूदे पार्टी में शामिल एक नौजवान है, किसी मौलवी या ग़ैर नौजवान के पास मिसाल के तौर पर मेरे पास आया और अपनी बात मेरे मन में बिठाना चाहता है, ज़ाहिर में यह बात थी लेकिन अस्ल बात यह नहीं थी, अस्ल माजरा यह नहीं था। अस्ल बात यह थी कि तूदे पार्टी "पूर्व सोवियत यूनियन" के बड़े पैमाने पर वैचारिक सिस्टम से जुड़ी हुयी थी। तूदे पार्टी वालों को वैचारिक ख़ुराक वहाँ से मिलती थी। वहीं से उनकी आर्थिक मदद भी होती थी और वैचारिक ख़ुराक भी मिलती थी। इसका मतलब यह हुआ कि आपको मार्कसिज़्म का सामना है। इसलिए यहाँ हमारे दौर के दूरदर्शी विद्वान जैसे मरहूम अल्लामा तबातबाई, उनका जवाब देने में नहीं लगे, मार्कसिज़्म का जवाब दिया, रियलिज़्म की यह शैली, मार्कसिज़्म की वैचारिक बुनियादों का जवाब है। प्रतिद्वंदवी की वैचारिक बुनियादों का पता लगाकर उनको टार्गेट करें, शहीद मुतह्हरी (रहमतुल्लाह अलैह) के भी बहुत से काम इस तरह के हैं, यानी कार्यक्षेत्र को पहचानें और पता लगाएं कि हमारा प्रतिद्वंदवी कौन है?
आज हम देखते हैं कि मार्कसिज़्म का कोई वजूद नहीं है लेकिन एक और मैदान में, एक और प्रतिद्वंदवी हमारे मुक़ाबले में है, आज यह मुक़ाबला है। यह टकराव दो मोर्चों के बीच है, अगर इन दोनों मोर्चों को पहचान लें तो यह समझ जाएंगे कि जिसने हमारे सामने सिर उठाया है, वह आत्मनिर्भर है या सामने वाले मोर्चे से जुड़ा हुआ है। ये दोनों मोर्चे क्या हैं? एक मोर्चा इस्लामी सिस्टम का मोर्चा है- जिसके बारे में मैं बाद में अर्ज़ करुंगा। एक मोर्चा झूठा मोर्चा है जिसने ख़ुद को लिबरल डेमोक्रेटिक का नाम दिया है, जबकि न लिबरल है और न ही डेमोक्रेटिक है। लिबरल डेमोक्रेसी का झूठा दावा करता है। अगर तुम लिबरल हो तो तुमने उपनिवेश क्यों बनाया? पुराने पारंपरिक साम्राज्यवाद, नए साम्राज्यवाद और पोस्ट मॉडर्न साम्राज्यवाद। कैसे लिबरल हो, कैसे आज़ादी पसंद हो और कैसे आज़ाद सोच वाले हो कि भारत जैसे करोड़ों की आबादी के मुल्क को लंबी मुद्दत तक, सौ साल से ज़्यादा मुद्दत तक उपनिवेश बनाते हो, उसको अपने क़ब्ज़े में रखते हो, उसकी सारी दौलत निकाल ले जाते हो, उसको ग़रीब बना देते हो। यह नेहरू के लफ़्ज़ हैं। नेहरू भातर के स्वतंत्रता संग्रामियों में थे जो बाद में प्रधान मंत्री बने, लिखते और वज़ाहत करते हैं कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारत क्या था और उनके आने के बाद क्या हो गया। तुम लिबरल हो? यह लिबरलिज़्म है? इसी तरह फ़्रांसीसियों ने सौ साल से ज़्यादा मुद्दत तक अलजीरिया में जुर्म किया, लोगों का क़त्ल किया। कितने लोगों का क़त्ले आम हुआ, यह लिखा है मालूम है लेकिन मुझे इस वक़्त याद नहीं आ रहा है, अलजीरिया में कुछ बरस में हज़ारों, शायद दसियों हज़ार का क़त्ले आम हुआ है। ट्यूनीशिया में भी इसी तरह और उत्तरी अफ़्रीक़ा की कुछ दूसरी जगहों पर भी क्राइम किए। ये डेमोक्रेट भी नहीं हैं। झूठ बोलते हैं, इसलिए कि (इसी नाम से) कुछ जगहों पर हुकूमतें थोपते हैं, डेमोक्रेसी के समर्थक नहीं हैं। जो डेमोक्रेसी उनकी बात न माने, उसके सौ फ़ीसदी विरोधी हैं, यह एक मोर्चा है।
देखिए कोई यह न कहे कि यह गुज़री हुयी बातें हैं, हाँ भारत के मामले को (तक़रीबन) 100 बरस गुज़र गए। अलजीरिया के मामले को 60-70 बरस गुज़र गए, लेकिन जिन्होंने भारत और अलजीरिया में ये सब कुछ किया उनकी आदत और स्वभाव आज भी वही है। आज भी वे इसके लिए तैयार हैं कि एक बेसहारा और बेबस युक्रेनी क़ौम को आगे ढकेल दें ताकि अमरीका की हथियार बनाने वाली कंपनियों की जेब भर सके। अस्ल मामला यह है। युक्रेन का अस्ल मामला यह हैः वह जंग करे, उसके लोग मारे जाएं ताकि उनके हथियार बिक सकें, ताकि यूरोप वाले हथियार ख़रीदने पर मजबूर हों। हथियार बनाएं, हथियार दें और कंपनियों की जेब भरे। ये वही हैं। सीरिया का तेल चोरी करने पर तैयार हैं और चोरी कर रहे हैं। लोगों के ख़याल में चोर छोटा और घटिया आदमी होता है, अमरीका जैसी सरकार, सीरिया का तेल चोरी कर रही है, बहुत सुकून से, सबकी आँखों के सामने, ये वही हैं, बिल्कुल नहीं बदले हैं। यह एक मोर्चा।
इसके मुक़ाबले में एक सिस्टम है, जो इस्लाम पर टिका है, इस्लाम से लिया गया है, साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ है, मुख़तलिफ़ क़ौमों के मामलों में हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ है, यह मुख़ालेफ़त पायी जाती है। ये दोनों मोर्चे एक दूसरे के आमने सामने हैं। आप देखते हैं कि कभी कभी ऐसा प्रोपैगंडा किया जाता है जिसमें इस सिस्टम की बुनियादों पर सवालिया निशान लगाया जाता है, ये कौन करता है? जब हम जाँच करते हैं, पता लगाते है -और पता लगाने के संसाधन अल्लाह की कृपा से हमारे पास हैं- तो समझ जाते हैं कि उसकी जड़ें कहाँ हैं। लेकिन जिसके पास ये साधन नहीं हैं वह भी जब देखता है तो उसको भी समझना चाहिए। जिसने इंक़ेलाब के ख़िलाफ़ लेख लिखा है वह विदेश में पनाह लिए है या मिसाल के तौर पर मुल्क के भीतर- कि उनकी तादाद कम है- वह सामने वाला पक्ष नहीं है, सामने वाला पक्ष सरकारी मशीनरी है, लड़ाई सभ्यता की है। यह दुनिया के स्तर पर लड़ाई है। मुक़ाबले ये हैं। अलबत्ता सब कुछ यही नहीं है। इस अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबले में दूसरे काम भी करते हैं, इस टकराव में नुक़सान कम करने के लिए कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें कूटनीति जैसे काम की ज़िम्मेदारी दी जाती है। उसूलों की रक्षा के साथ इसमें कोई हरज नहीं है, होनी चाहिए, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि हमारा सामना किससे है, हम किसके मुक़ाबले पर हैं, इसके बिना सही तबलीग़ नहीं होगी।
अलबत्ता आज पश्चिम हमेशा से ज़्यादा कमज़ोर पोज़ीशन में है। इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) ने अमरीका को बड़े शैतान का नाम दिया है। (23) हक़ीक़त यही है। अमरीका में बुराई और शैतानी करतूतों का संग्रह है, उसी को तबलीग़ के हमलों का निशाना बनाया जा सकता है, यह जो मैं कहता हूं कि रक्षात्मक पोज़ीशन में न रहें, इसका मौक़ा यही है। आज अमरीकियों की दुष्टता और शैतानी स्वभाव राजनीति में है। क़ौमों से पेश आने के तरीक़े में है, ख़ुद अपनी क़ौम से पेश आने के तरीक़े में भी है। नस्ल परस्ती और वर्ग भेद में है। यौनेच्छा के मामलों में है, बेरहमी में है, ये सब कमज़ोर पहलू हैं। जहाँ भी जाते हैं निर्दयी रवैया (अपनाते हैं ) इक्कीस बाईस साल पहले जब अमरीकी इराक़ में दाख़िल हुए, उसके कुछ मंज़र टीवी पर दिखाए गए हैं, तो वहाँ लोगों के साथ वह काम किया जिसकी कलपना से भी इंसान कांपने लगता है, इराक़ के लोगों के साथ, बात बेरहम सद्दाम की नहीं थी, तो पहला प्वाइंट मुख़ातब की पहचान है। दूसरा प्वाइंट यह है कि रक्षात्मक पोज़ीशन न अपनाएं। इस पर निर्भर न रहें। अलबत्ता रक्षा ज़रूरी है, वाजिब है लेकिन पोज़ीशन आक्रामक होनी चाहिए। ये सब आपके हमलों का निशाना बन सकते हैं, लेकिन शर्त यह है कि वैश्विक मामलों को पहचानें, दुनिया की राजनीति की हालत और मोर्चों को जानें और फिर फ़ैक्ट्स बयान करें, सही देखें और सही बयान करें। यह दूसरा प्वाइंट।
अज़ीज़ भाइयो और बहनो! तीसरा प्वाइंट यह है कि तबलीग़ में जेहादी जज़्बे की ज़रूरत होती है। सभी कामों के लिए जेहादी जज़्बा हो तो काम तेज़ी से आगे बढ़ते हैं, लेकिन जेहादी जज़्बे के बिना तबलीग़ बेजान होती है। अगर जेहादी जज़्बा न हो तो पहली बात यह है कि कभी कभी इंसान मैदान को समझने में ग़लती करता है और ग़लत देखता है और कभी कभी ग़लत शैली अपनाता है। जब जेहादी हालत हो तो आम तौर पर सही देखता है और हमेशा अच्छा काम करता है और आगे बढ़ता है। जब हम जेहादी जज़्बे की बात करते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि इल्मी और अख़लाक़ी क़ाबिलियत वग़ैरह ज़रूरी नहीं है, क्यों नहीं। यह अपनी जगह पर वाजिब हैं लेकिन जेहादी जज़्बा भी ज़रूरी है। यह जेहादी जज़्बा इस आयत के मद्देनज़र हैः और न वह कुफ़्फ़ार के दिल दुखाने वाला कोई क़दम उठाते हैं न किसी भी दुश्मन से कुछ हासिल करते हैं मगर यह कि उनके नेक अमल को लिख लिया जाता है कि अल्लाह किसी भी नेक अमल करने वाले के अज्र व सवाब को ज़ाया नहीं करता है। (24) जो काम कुफ़्फ़ार को ग़ुस्से में ले आए वह भला कर्म है। आयत में (यनालौना मिन्ह) यानी वार लगाना, (नाला) दो मानी में इस्तेमाल होता है लेकिन जब (मिन) के साथ हो (ला यनालौना मिन अदुव्विन नैला), तो इसके मानी यह हैं कि उस पर कोई वार नहीं लगाता (इल्ला कुतेबा लहुम बेहि अमलुन सालेह), लेकिन यह कि उसके लिए भला कर्म लिखा जाता है। यह बेहतरीन जेहाद है। ओलमा को बीच मैदान में होना चाहिए। उन्हें मायूस नहीं होना चाहिए। जेहादी अमल की ख़ूबी यह है। एकांत में बैठना, कभी कोई इशारा कर देना, कोई नसीहत कर देना, कोई पैग़ाम दे देना जो ईसाई धर्मगुरू करते हैं, काफ़ी नहीं है। अलबत्ता ईसाई धर्मगुरू भी कई तरह के हैं, कुछ गिरजाघर में बंद रहते थे, यानी उन्होंने ख़ुद को क़ैद कर लिया, कुछ इसके विपरीत साम्राज्य का फ़्रंट लाइन दस्ता बन गए। लैटिन अमरीका और अफ़्रीक़ा वग़ैरह में, साम्राज्यवादियों और उनके फ़ौजियों से पहले पादरी पहुंचे, लोगों को इसके लिए तैयार किया कि वह आएं और उनको तबाह कर दें। कुछ इस तरह आए। लेकिन इस्लाम में ओलमा, अल्लाह के लिए जेहाद, अल्लाह की मदद से जेहाद और अल्लाह की राह में जेहाद के बीच मैदान में होते हैं और मायूस नहीं होते। जब संघर्ष का यह तत्व इल्मी आयाम और इल्मी कामों के साथ हो तो तबलीग़ का असर निश्चित है। यह भी एक प्वाइंट है।
इसके बाद का प्वाइंट नौजवानों और नौजवान नस्ल पर ख़ास तौर से ध्यान देने का है। मुल्क का भविष्य यही बनाएंगे। अलबत्ता दूसरे वर्गों की ओर से ग़फ़लत नहीं होनी चाहिए, बुद्धिजीवियों के वर्ग, अपना नज़रिया रखने वाले लोगों, ओलमा, वैज्ञानिकों, कलाकारों, लेखकों और शायरों, इन सबके लिए वैचारिक ख़ुराक मुहैया होनी चाहिए, तैयार होनी चाहिए। कुछ साल पहले मुल्क के सिनेमा से जुड़े बहुत से लोग शायद पचास साठ लोग यहाँ आए, इस इमामबाड़े के ऊपरी हिस्से में मुझसे उनकी मुलाक़ात हुयी। (25) उन्होंने बातें कीं और शिकवे किए। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि हम कभी कभी उनसे ज़्यादा अपेक्षा करने लगते हैं, हमने कब उन्हें ज़रूरी उसूल बताए कि उनसे शिकवा करें कि इन उसूलों के मुताबिक़ फ़िल्म क्यों नहीं बनायी? हमें चाहिए कि उन्हें ज़रूरी मैटर मुहैया करें, एक काम यह भी है, यह सही है, यानी तबलीग़ में मुख़्तलिफ़ विभागों में, विचारकों, कलाकारों, लेखकों, वक्ताओं पर भी ध्यान दिया जाए लेकिन सबसे अहम नौजवान वर्ग है। मुल्क का भविष्य उनके हाथ में है, उनके अख़्तियार में है, उनका ईमान ठोस होना चाहिए, उनके मन संदेह से ख़ाली होने चाहिए।
नौजवानों को धर्म पर अमल के लिए प्रेरित करने के साधन बहुत अहम हैं। हमारे पास ऐसे नौजवान हैं कि जिन्हें हुसैनी जज़्बा, हुसैनी इंक़ेलाब और हुसैन की मोहब्बत सही रास्ते पर ले जाती है, संघर्ष के रास्ते पर डालती है, लेकिन इबादत के मामले में वे कमज़ोर हैं। इबादत के मामले बहुत अहमियत रखते हैं। नमाज़ सबसे अच्छा कर्म है। सभी कर्मों से ऊपर है, भलाई है, सबसे अच्छा अमल है, मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ करें कभी कभी नमाज़ के वक़्त की ओर से ग़फ़लत करते हैं, इस तरह के लोग हैं। जो चीज़ इन नौजवानों को इबादतों की ओर ले जाती है वह इन अंजुमनों की आकर्षक ख़ुसूसियतों में से है। यह अहम है। मस्जिदों में जाकर इबादत करना, मस्जिदों को ज़िन्दा रखना, वाजिब कामों में से है। अलबत्ता मुल्क के स्तर पर आबादी के लेहाज़ से हमारे पास मस्जिदें कम हैं, लेकिन जो हैं, उनमें से कुछ या शायद बहुत सी मस्जिदें आबाद नहीं हैं। ज़्यादा से ज़्यादा यह होता है कि नमाज़ के वक़्त खोलते हैं, नमाज़ वहाँ पढ़ी जाती है फिर मस्जिद के दरवाज़े बंद कर देते हैं! लेकिन अंजुमनें अच्छी हैं, अंजुमन उन चीज़ों में है जो नौजवानों में शौक़ पैदा करती हैं।
नसीहत की ओर से ग़फ़लत नहीं होनी चाहिए। मैंने शुरू में भी अर्ज़ किया। हम सबको नसीहत की ज़रूरत है, सब, बिना किसी अपवाद के, नसीहत के मोहताज हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि हम कुछ चीज़ें जानते हैं लेकिन सुनने का जो असर होता है वह जानने का नहीं होता, नसीहत सुनने की ज़रूरत होती है। अच्छी नसीहत। ये वे बातें हैं जो मैंने फ़ायदेमंद व प्रभावी होने के लेहाज़ से अर्ज़ कीं।
आख़िरी बात- मेरी नज़र में यह आख़िरी बात कई आयाम से अहम प्वाइंट्स में से है- यह है कि हम यह जो चाहते हैं उन्हें किस तरह से व्यवहार में ला सकते हैं। मैंने कहा, आप ख़ुद भी शायद जो कुछ मैंने कहा है, उससे दुगुना ज़्यादा जानते थे, मैंने भी कह दिया, अब इन पर अमल कैसे किया जाए? अहम यह है। मैं देखता हूं कि तबलीग़ का काम बहुत अच्छी तरह से हो रहा है, लिखित शक्ल में भी और मिंबरों से तक़रीर की शक्ल में भी। अच्छी तबलीग़ हो रही है लेकिन जितनी होनी चाहिए उससे कम है। क्वान्टिटी के लेहाज़ से हम बहुत पीछे हैं। गुंजाइश के बराबर या जितनी ज़रूरत है उसके नज़दीक पहुंचने के लिए, इन ख़ुसूसियतों के साथ ओलमा के लिए धार्मिक इल्म के बड़े सेंटरों की ज़रूरत है। मदरसों में, सिर्फ़ इसी मक़सद के लिए सेंटर क़ायम करने की ज़रूरत हैः तबलीग़ करने वालों की ट्रेनिंग के लिए, इसके साथ ही वैचारिक रिसर्च और इल्मी बुनियादें भी मज़बूत होनी चाहिए। यानी यह जो हम कहते हैं कि "हम तबलीग़ पर ताकीद करते हैं" इसको इस बात का बहाना नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग यह कहने लगें कि तो फिर किफ़ाया न पढ़ें, "दरसे ख़ारिज" लेक्चर की क्लासेज़ में न जाएं! नहीं ये इल्मी बुनियादें ज़रूरी हैं, लेकिन मामले के इस पहलू पर ध्यान बहुत ज़रूरी है। हमें एक बुनियादी सेंटर की ज़रूरत है। पहले दर्जे पर क़ुम का धार्मिक केन्द्र है, जब क़ुम में यह काम हो जाए और तजुर्बा हासिल हो जाए तो फिर पूरे मुल्क के मदरसों में भी इसको दोहराया जा सकता है, ऐसे सेंटर का गठन जिसे मौजूदा दौर में तबलीग़ के काम की विषयवस्तु तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए। कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें आज के दौर में मिंबर से बयान करना मुनासिब है। मुमकिन है कि कल उसका असर ख़त्म हो जाए। बेफ़ायदा हो जाए, पिछले साल कहा होता तो मुनासिब था, इस साल (नहीं) यानी दुनिया इस तरह आगे बढ़ रही है और घटनाएं एक के बाद एक हो रही हैं। तबलीग़ के लिए ज़रूरी विषयवस्तु को आज की ज़रूरत के एतेबार से तैयार करना चाहिए। इसके लिए किताब और सुन्नत के स्रोत इतने गहरे अर्थों से भरे हुए हैं कि कभी ख़त्म नहीं होंगे। क़ुरआन मजीद से इतना फ़ायदा उठा सकते है, नई विषयवस्तु और क़ुरआन तथा हदीस पर आधारित बातें इतनी ज़्यादा निकाल सकते हैं जो इस पूरे मैदान को भर देंगी। तो इस अज़ीम सेंटर की एक ज़िम्मेदारी विषयवस्तु तैयार करने की है।
दूसरी ज़िम्मेदारी प्रभावी तबलीग़ की शैली को सुव्यवस्थित करना है। हमारे तबलीग़ करने के तरीक़े सीमित हैं। ज़्यादा प्रभावी तरीक़े भी हो सकते हैं। इन तरीक़ों को उस सेंटर में तैयार और सुव्यवस्थित करने की ज़रूरत है। इस मामले में पश्चिम वाले हमसे आगे हैं, उनके पास नए नए तरीक़े और पैग़ाम को प्रभावी बनाने की शैलियां हैं। हम इस मैदान में पीछे हैं। नए तरीक़े तैयार और सुव्यवस्थित करना ज़रूरी है। सही मानी में स्पीच देने की कला सिखाएं। यह दूसरी ज़िम्मेदारी है।
इसके बाद तबलीग़ करने वालों की ट्रेनिंग है। उस सेंटर में सही मानी में तबलीग़ करने वाले मुबल्लिग़ तैयार किए जाने की ज़रूरत है। जिस तरह हम मुजतहिद तैयार करते हैं, तबलीग़ करने वाले भी तैयार करें। अल्लाह की कृपा से क़ुम में ज़िम्मेदार लोगों ने फ़िक़्ह के क्षेत्र में अभियान शुरू किया है। समकालीन फ़िक़्ह पर रिसर्च कर रहे हैं, फ़िक्ह के लेहाज़ से आज के दौर के मसलों पर काम कर रहे हैं, ये बहुत अहम है। इसको जारी रहना चाहिए, इसी तरह हमें तबलीग़ करने वाले भी तैयार करना चाहिए। ऐसे तबलीग़ करने वाले जो प्रभावी हों, हर जगह फैल सकें और क्वान्टिटी के लेहाज़ उनकी तादाद काफ़ी होनी चाहिए। कुछ जगहों और इलाक़ों के बारे में इंसान को पता होता है- यानी मुझे पता है- कि ये अवाम के बीच सक्रिय धर्मगुरू के वजूद से महरूम हैं, एक दो जगहें नहीं बल्कि ऐसी जगहें ज़्यादा हैं। मिसाल के तौर पर मुल्क के सेन्टर में, ख़ुद तेहरान में कमी है, इस तरह की जगहें हैं जहाँ ओलमा की कमी है, तबलीग़ करने वालों की कमी है, आध्यात्मिक संदेश पहुंचाने वालों की कमी है। ये सेंटर इस कमी को दूर करे। इसलिए जो काम ज़रूर होना चाहिए और बुनियादी कामों में से है और आज आप शुरू करेंगे तो पाँच साल बाद नतीजा सामने आएगा। वह यह है कि इस तरह का एक सेंटर क़ायम किया जाए जो इन ज़िम्मेदारियों पर काम करे जो कही गयी हैं। बहुत ख़ुश हूं कि आपका दीदार हुआ। शहीदों और इमाम ख़ुमैनी की पाक रूप पर सलाम।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत हो
1 इस मुलाक़ात में पहले, मुल्क के धार्मिक केन्द्रों के प्रमुख आयतुल्लाह अली रज़ा आराफ़ी ने कुछ बातें बयान कीं।
2 सूरए हदीद, आयत-25 (ताकि लोग इंसाफ़ के लिए उठ खड़े हों...)
3 सूरए निसा, आयत-64, (और मैंने कोई पैग़म्बर नहीं भेजा मगर इसलिए कि तौफ़ीक़े इलाही से उसकी पैरवी करें...)
4 सूरए फ़ातिर, आयत-10, (उसकी पाकीज़ा बातें ऊपर जाती हैं और उसका अच्छा काम उसको बुलंदी अता करता है...)
5 सूरए यासीन, आयत-17, (और आशकारा पैग़ाम पहुंचाने के अलावा हमारा और कोई फ़रीज़ा नहीं है।)
6 सूरए आले इमरान, आयत-20, (तुम्हारे ज़िम्मे सिर्फ़ पैग़ाम पहुंचाना है...)
7 सूरए आले इमरान, आयत-39, (जो लोग ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचाते हैं और उससे डरते हैं और ख़ुदा के अलावा किसी से नहीं डरते)
8 सूरए आराफ़, आयत-62, (हम अपने परवरदिगार का पैग़ाम तुम तक पहुंचाते रहे)
9 सूरए मायदा, आयत-67, (जो कुछ आपके परवरदिगार की तरफ़ से आप पर नाज़िल हुआ, उसको पहुंचा दें।)
10 सूरए नहल, आयत-125 (हिकमत और अच्छे वाज़ व नसीहत के ज़रिए अपने परवरदिगार की तरफ़ लोगों को बुलाएं)
11 सूरए अनफ़ाल, आयत-24, (जब ख़ुदा और पैग़म्बर तुम्हे उस चीज़ की तरफ़ बुलाएं जो तुम्हें हयात बख़्शती है, तो उनकी दावत पर लब्बैक कहो...)
12 अमाली शैख़ सदूक़, पेज-60
13 शैख़ मुफ़ीद अलैहिर्रहमा के इंतेक़ाल के हज़ार साल की बरसी के मौक़े पर “शैख़ मुफ़ीद सहस्त्राब्दी कान्फ़्रेंस” 17-19 अप्रैल 1993 को क़ुम में आयोजित हुयी
14 “शैख़ मुफ़ीद विश्व सहस्त्राब्दी कान्फ़्रेंस” के लिए 17/4/1993 के संदेश को देखें।
15 सहीफ़ए इमाम, जिल्द-19, पेज-146, इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी की सालगिरह पर ईरानी क़ौम के नाम 11/2/1984 का संदेश
16 इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने “ततव्वुर” लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है जिसका मतलब होता है 'डेवलपमेंट'
17 इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने “अख़तह” लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है जिसका मतलब होता है नियाम से निकली हुयी तलवार
18 रहबर ने अरबी का फ़िकरह इस्तेमाल किया ला समहल्लाह यानी अल्लाह न करे।
19 सहीफ़ए इमाम, जिल्द-17, पेज-383, इस्लामी गणराज्य के अधिकारियों से 21/3/1983 का ख़िताब
20 सूरए इब्राहीम, आयत-4, (और हमने हर क़ौम में उसी की ज़बान का पैग़म्बर भेजा है)
21 सूरए दहर, से लिया गया, (और कोई क़ाबिले ज़िक्र चीज़ नहीं थी)
22 सब हंस पड़े
23, सहीफ़ए इमाम, जिल्द-16, पेज-154, इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के स्थापना दिवस पर ईरानी क़ौम के नाम 1/4/1982 का संदेश
24 सूरए तौबा, आयत-120, न किसी भी दुश्मन से कुछ हासिल करते हैं मगर यह कि उनके नेक अमल को लिख लिया जाता है कि अल्लाह किसी भी नेक अमल करने वाले के अज्र व सवाब को ज़ाया नहीं करता है।
25 सिनेमा और टेलीविजन के निर्देशकों से 13/6/2006 की मुलाक़ात में स्पीच को देखें