स्टूडेंट्स के साथ रमज़ान के मुबारक महीने में मुलाक़ात (27 रमज़ान सन 1444 हिजरी क़मरी)

 

स्पीच का अनुवादः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के परवरदिगार के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनकी पाकीज़ा नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

इस बैठक से मेरी अपेक्षा यही थी कि ठोस बातें अच्छे अंदाज़ में बयान की जाएं और अलहम्दो लिल्लाह ऐसा ही हुआ। हो सकता है कि आपने जो कुछ कहा है और जो बातें की हैं, उनमें से कुछ बातों से मैं सहमत न हूं लेकिन बात को बयान करने के तरीक़े और प्वांइट्स को पेश करने के अंदाज़ से मैं बहुत ख़ुश हूं और अल्लाह का शुक्र अदा करता हूं। रमज़ान के मुबारक महीने के आख़िरी कुछ दिन हैं, आप लोगों के पास मौक़ा था कि सोचें, अध्ययन करें और प्वाइंट्स को सही ऑर्डर में तैयार करें। अगर वक़्त होता तो मुश्किल नहीं थी, दूसरे दस लोग भी अपनी बातें पेश करते लेकिन वक़्त धीरे-धीरे इफ़्तार की ओर बढ़ रहा, दूसरी बातें रह जाएंगी और बैठक अधूरी रह जाएगी।

मैं अपनी बातें पेश करने से पहले दो तीन बातें, उन्हीं चीज़ों के बारे में अर्ज़ करना चाहता हूं जो आप लोगों ने कही हैं। पहले तो यह कि कुछ लोगों ने मुझ तक कुछ लोगों का सलाम पहुंचाया, मेरी दरख़्वास्त है कि मेरा सलाम भी उन भाइयों और बहनो तक पहुंचा दीजिए जिन्होंने आपके ज़रिए मुझे सलाम कहलवाया है, ख़ास तौर पर शहीदों के घरवालों को। जहाँ तक मेरी पैदाइश की सालगिरह की बात है तो यह तवज्जो के क़ाबिल नहीं है, बहुत ही कम अहमियत वाला छोटा वाक़या है। जो बातें, एतेराज़ और सुझाव की शक्ल में बयान की गईं, वे बहस योग्य हैं, उन पर कहाँ बहस की जाए? ऐसा नहीं है कि यह बहुत स्पष्ट है, बहरहाल क़ाबिले एतेराज़ और बहस योग्य है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर हम आपके इन सुझावों को योजना आयोग के हवाले कर दें- जिसमें विदित रूप से एक बदलाव भी आया है- ताकि वह उन पर काम करे तो यह अच्छा काम है, आप अपने सुझाव को इस विभाग के हवाले करें या हम ज़रिया बन जाएं, हमारा दफ़्तर ज़रिया बन जाए और वह आपको वहाँ जाकर बात करने और तफ़सीली बात करने के लिए कहे और आप इन्शाअल्लाह किसी स्वीकार्य संयुक्त बिन्दु तक पहुंच जाएं।

जहाँ तक प्राइवेटाइज़ेशन की बात है, जिसके बारे में आप में से कुछ लोगों ने बात की, उसे दोहराया और बाहर भी यही बातें की जाती हैं तो वह दलील सही नहीं है जो आपने बयान की। अगर इस पर सही तरीक़े से अमल नहीं हुआ तो ठीक है! यह मुमकिन है कि किसी भी अच्छे क़ानून पर, ख़राब तरीक़े से अमल किया जाए। यह कि मुल्क के संसाधन को, प्रोडक्शन के साधनों को, कारख़ानों को, जिन में अच्छा काम हो रहा था, सरकार के हाथ में दे दिया जाए तो बात यह है कि सरकार बड़ी बड़ी प्रोडक्शन यूनिट्स और कारख़ानों को सही तरीक़े से नहीं चला सकती, सरकार यह नहीं कर सकती, मुश्किलें पैदा हो जाती हैं, भ्रष्टाचार होने लगता है। इन बरसों में ऐसी कितनी मुश्किलें पैदा हुयीं हैं। इन मुश्किलों का हल सिर्फ़ निजीकरण था, हक़ीक़त में कोई दूसरा रास्ता नहीं था। और यह काम अचानक अंजाम नहीं पाया है, सोच विचार, अध्ययन, अंदाज़ा लगाने और घंटों बहस के बाद अंजाम पाया है। हाँ मैं यह बात मानता हूं कि निजीकरण से मेरी जो अपेक्षा थी, वह अब तक पूरी नहीं हुयी है लेकिन अच्छे काम भी हुए हैं। यह जो आप कह रहे हैं कि किसी सरकारी यूनिट को, निजी सेक्टर दे दिया गया है और वह यूनिट सरकार को उसके डॉलर वापस नहीं दे रही है, यह सही नहीं है। जो डॉलर वापस नहीं दे रही है, वह वही यूनिट है जो फ़िलहाल सरकारी है, यह वह एतेराज़ है जो ख़ुद मैंने हाल ही में सरकारी अधिकारियों (2) के सामने पेश किया, इसे दोहराया और इस बात को कई बार पेश किया यानी वे ख़ुद सरकारी यूनिट्स हैं जो व्यापार कर रही हैं, काम कर रही हैं, मुल्क के बाहर भी लेन-देन कर रही हैं, लेकिन वे अपने डॉलर्ज़ रिज़र्व बैंक को नहीं लौटा रही हैं, मतलब यह कि इस बात का संबंध निजी सेक्टर से नहीं है। अलबत्ता निजी सेक्टर के सिलसिले में कुछ एतेराज़ हैं, उसकी निगरानी की ज़रूरत है, भरपूर तवज्जो से काम करने की ज़रूरत है, क़ानून पर अमल करने की ज़रूरत है, ये सारी बातें ज़रूरी हैं, इसमें कोई शक नहीं है।

जहाँ तक कार्यपालिका, विधिपालिका और न्यायपालिका के अध्यक्षों की आर्थिक बैठक की बात है तो यह अस्थायी चीज़ है, दूसरी बात यह कि यह कुछ ख़ास मक़सद के लिए है, मैंने चार बातें तय कर दीं और उनकों बता दियाः एक बजट का विषय है, बजट बनाना और बजट में सुधार, हमारे बड़े मुद्दों में से एक यह बजट है और तीन दूसरी बातें, इस बैठक के मक़सद यही हैं। अलबत्ता जैसा होना चाहिए, अब तक तो वैसा नहीं हुआ है लेकिन उसका इलाज, बैठक को ख़त्म कर देना नहीं है, उसका इलाज यह है कि हम पूरी नज़र रखें कि यह काम अंजाम पाएं। कुछ मुद्दों के हल न होने की वजह आला ओहदेदारों के बीच सहमति का न होना है, इसे किस तरह हल किया जाए? इसे इस तरह हल किया जा सकता है कि हम उनसे कहें कि वे साथ बैठें, बहस और बातचीत करें और संयुक्त फ़ैसला करें और उस पर अमल करें, यह कमेटी इसलिए बनी है।

बहरहाल उम्मीद है कि जो कुछ आप चाहते हैं और कहते हैं- और मैं जानता हूं कि आप दिल से कहते हैं, जो कुछ कहते हैं वह आपका नज़रिया है- अल्लाह तौफ़ीक़ दे कि जिस हद तक मेरे ज़िम्मे है वह अंजाम पाए, जिस हद तक दूसरे अधिकारियों के ज़िम्मे है, इंशाअल्लाह वह भी अंजाम पाए। आज की बातों को बयान करने की ज़बान बहुत अच्छी थी, यानी पूरी तरह अच्छी और संजीदा थी। मैं “अच्छी ज़बान में बात पेश करने” के विषय पर ताकीद करता हूं, इसका असर पड़ता है।

ख़ैर, रमज़ान का महीना रूहानियत और इबादत की ईद है जो ख़त्म हुआ चाहता है, इंशाअल्लाह रमज़ान के दूसरे महीने भी आपके सामने होंगे, आप जवानों के सामने दसियों रमज़ान के महीने आएंगे, उनसे फ़ायदा उठाइये, अध्यात्म की बहार, इबादत व बंदगी की बहार। जवानी भी बहार है, उम्र की बहार है। तो रमज़ान के महीने में जवान के लिए दोहरी बहार है, बहार में बहार है, इससे फ़ायदा उठाइये। शबे क़द्र से आप जो फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, उसमें और मुझ जैसी उम्र के लोग जो फ़ायदा उठा सकते हैं, उसमें बहुत फ़र्क़ है। आप कहीं ज़्यादा फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, इसे ग़नीमत समझिए, इसकी क़द्र कीजिए। 

यह ख़ूबसूरत संगम, यानी दो बहारों का मिलन, एक दूसरी जगह, पाकीज़ा डिफ़ेन्स के दौरान भी सामने आया था, वहाँ भी तरक़्क़ी और उत्थान के दो मौक़े संयुक्त रूप से एक दूसरे के साथ आ गए थे। डिफ़ेन्स का मोर्चा यानी जान देने का मोर्चा, मतलब यह कि जो भी वहाँ जाता है वह आम तौर पर अपनी जान देने या अपने जिस्म के अंग को क़ुर्बान करने के लिए तैयार होता है, यह बहुत बड़ा बलिदान है। वे सभी लोग जो इस बलिदान की वादी में क़दम रखते हैं, मोर्चा उन्हें बुलंदी पर ले जाता है, आत्मोत्थान देता है लेकिन जो लोग मोर्चे पर गए- जिनमें ज़्यादातर जवान थे- उनके सामने मसला दूसरी तरह से था। ये नौजवान जो जंग के मैदान में पहुंचे उनका कर्म और उनका आत्मोत्थान ऐसा था कि महान इमाम ख़ुमैनी जैसी हस्ती, जिन्हें बरसों के आत्मज्ञान और अध्यात्म का अनुभव था, उनकी पोज़ीशन पर रश्क करती थी! मुझे नहीं पता कि आप शहीदों की जीवनी की किताबें पढ़ते हैं या नहीं, मैं पढ़ता हूं, आंसू बहाता हूं और फ़ायदा उठाता हूं, मैं सच में फ़ायदा उठाता हूं। मुझे लगता है कि आप को जो काम ज़रूर करने चाहिए, उनमें से एक इन अज़ीज़ शहीदों की जीवनी का, ख़ास तौर पर उनमें से कुछ की, जिनमें बहुत ज़्यादा अध्यात्म है, अध्ययन कीजिए, इन शहीदों से पेरणा लीजिए, मुझे लगता है कि आपको भी रमज़ान मुबारक से फ़ायदा उठाना चाहिए, अब तो दो तीन दिन से ज़्यादा नहीं बचे हैं, लेकिन अगले बरसों में जो आपके सामने हैं, उनमें फ़ायदा उठाइयेगा, अभी से ख़ुद को अगले रमज़ान के महीने के लिए तैयार कीजिए।

एक नसीहत मैं बार बार कर चुका हूं, मैंने देखा कि जिन दोस्तों ने यहाँ पर बात की, उनमें दो तीन लोगों ने भी उसी को दोहराया है- जिसे मेरी पूरी तरह ताईद हासिल है- वह यह कि स्टूडेंट्स को, स्टूडेंट्स सोसायटी को एक मज़बूत वैचारिक बुनियाद की ज़रूरत है। यह उनकी निश्चित ज़रूरत है, मैंने इसकी हमेशा नसीहत की और सिफ़ारिश की है, मैं एक बार फिर इस पर बल देना चाहता हूं। अगर एक नौजवान ख़ौस तौर पर नौजवान के अक़ीदे की बुनियाद मज़बूत हों, तो उसका दिल मज़बूत हो जाता है, उसके क़दम ठोस हो जाते हैं, आगे की ओर उसकी हरकत जारी रहती है, फिर कोई थकन नहीं होती। दिल का इत्मेनान इस बात का सबब बनता है कि ईमान भी बढ़ता जाए, ख़ुद ईमान भी इत्मीनान लाता है, दिल में इत्मीनान और दिल में सुकून भी, ईमान को बढ़ाते हैं। “वह अल्लाह वही है जिसने अहले ईमान के दिलों में सुकून व इत्मेनान उतारा ताकि वो अपने (पहले) ईमान के साथ ईमान में और बढ़ जाएं।” (3) पहले मोमिन थे लेकिन अल्लाह ने उनके दिल में सुकून अता किया तो आत्मिक व ईश्वरीय हक़ीक़तों पर भरोसे की वजह से यह ईमान और बढ़ जाता है।

अब सवाल यह है कि अक़ीदे की ये बुनियादें क्या हैं? इस्लाम में व्यक्तिगत, दिली, सामाजिक, राजनैतिक और अंतर्राष्ट्रीय नज़रियों की बुनियाद पायी जाती हैं, ये सब इस्लाम में हैं, आज़ादी का मसला भी अक़ीदे का मसला है जिसे इस्लाम में पेश किया गया है, इंसाफ़ का विषय, सबसे अहम अक़ीदे के विषयों में से एक है। इन्हें हल करना चाहिए, नौजवान स्टूडेंट्स को इन चीज़ों के बारे में सोचना चाहिए, इन पर काम करना चाहिए और इनकी गहराई तक पहुंचना चाहिए। किताब पढ़िए, नहजुल बलाग़ा पढ़िए, क़ुरआन की तिलावत के दौरान ग़ौर कीजिए। फ़र्ज़ कीजिए कि इंसाफ़ के बारे में, अलबत्ता न्याय का एक नमूना, आर्थिक, सामाजिक और ऐसे ही मैदानों में असमानता का अंत है, लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है, यह इसकी एक अहम बात है। इंसाफ़ हमारे व्यक्तिगत फ़ैसलों से शुरू होता है, इसाफ़ हमारे व्यक्तिगत कामों से, हमारे बात करने से, लोगों के बारे में, कामों के बारे में हमारे फ़ैसलों से शुरू होता है। ख़बरदार किसी क़ौम से दुश्मनी तुम्हे इस बात पर आमादा न करे कि तुम इंसाफ़ न करो, और अद्ल से फिर जाओ, अद्ल करो(4)। अगर किसी से हमारी मुख़ालेफ़त भी है, दुश्मनी भी, वैचारिक मतभेद भी है, तब भी हमें उसके सिलसिले में ज़ुल्म नहीं करना चाहिए। सबसे ज़्यादा मुसीबत पैदा करने वाला मसला यह होगा कि क़यामत में कोई काफ़िर मेरा गरेबान पकड़ ले और कहे कि तुमने मुझ पर फ़ुलां जगह ज़ुल्म किया, वाक़ई इससे सख़्त चीज़ कोई नहीं है! या क़यामत के दिन अल्लाह के दुश्मन का मेरी गर्दन पर कोई हक़ हो, मेरा गरेबान पकड़े और कहे कि तुमने मुझ पर ज़ुल्म किया। मतलब यह कि इंसाफ़ इस तरह का होता है। अंतर्राष्ट्रीय इंसाफ़, यह जो हम साम्राज्यवाद के मुक़ाबले की बात दोहराते हैं, यह इंसाफ़ की सबसे अहम मिसालों में से एक है। कुछ लोग तो इंसाफ़ तो चाहते हैं लेकिन उनका ख़याल नहीं कि साम्राज्यवाद, अमरीका और ज़ायोनीवाद से मुक़ाबला भी, इंसाफ़ पसंदी की मिसाल में शामिल है, बिल्कुल है! ऐसा ही है।

आज़ादी, आज़ादी बहुत अहम है, इस्लाम में आज़ादी के नज़रिये का सबसे अहम हिस्सा, इस भौतिक ढांचे से आज़ादी है। भौतिकवादी सोच कहती है कि आप एक दिन दुनिया में आए, कुछ साल यहां ज़िन्दगी गुज़ारेंगे, फिर ख़त्म हो जाएंगे, हम सब ख़त्म होने वाले हैं। इस भौतिक पिंजरे में आपको कुछ आज़ादियां दी जाती हैं, वासना की आज़ादी, ग़ुस्से की आज़ादी, ज़ुल्म की आज़ादी, हर तरह की आज़ादी, यह आज़ादी नहीं है। आज़ादी वह है जो इस्लाम ने दी है। इस्लाम हमें भौतिक ढांचे में सामित नहीं करता। (5) आप बाक़ी रहने के लिए पैदा किए गए हैं, न कि ख़त्म होने के लिए। हम ख़त्म नहीं होंगे। बक़ौल मौलाना रूमः मरने का और नदी से कूदने का वक़्त आ गया, इस दुनिया में अल्लाह की ज़ात के सिवा हर चीज़ मिटने वाली है। (6)

मरना अंजाम नहीं है, मरना एक नए चरण और हक़ीक़त में अस्ली मरहले की शुरुआत है। जब आप इस नज़र से देखेंगे तो फिर आप उत्थान हासिल कर सकते हैं और फिर आपके आगे बढ़ने, तरक़्क़ी करने और ऊपर उठने की कोई हद नहीं रहती। यह आज़ादी है। ज़िन्दगी की सभी आज़ादियां, चाहे वह व्यक्तिगत हो, अक़ीदे की आज़ादी हो, रूढ़ीवाद, संकीर्णता, तरह तरह के पिछड़ेपन, ग़ैर ज़रूरी तअस्सुब से मुक्ति, बड़ी ताक़तों के चंगुल से रिहाई, तानाशाहों की क़ैद से रिहाई, यह सब इसी इस्लामी आज़ादी की बुनियाद पर है, इन पर ग़ौर कीजिए, इन पर काम कीजिए, इसका रास्ता यह नहीं है कि मिसाल के तौर पर मैं आकर आधे घंटे आपसे बात करुं। आप ख़ुद काम कीजिए, सोचिए, किताब पढ़िए।

या ‘इंतेज़ारे फ़रज’ का विषय, हमारी वैचारिक व धार्मिक बुनियादों में से एक अहम बुनियाद ‘रिहाई का इंतेज़ार’ है। ‘इंतेज़ारे फ़रज’ का मतलब यह है कि सभी कठिनाइयां और सख़्तियां दूर और ख़त्म हो सकती हैं।  यह नहीं है कि बैठ कर इंतेज़ार कीजिए, नहीं बल्कि आपका दिल, पूरी तरह से तैयार रहे। जिस तरह हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के मामले में उनकी माँ से कहा गयाः “बेशक हम इसे तेरी तरफ़ वापस लौटा देंगे और इसे रसूलों में से बनाएंगे।” (7) हम इस बच्चे को तुम्हें लौटा देंगे और इसे पैग़म्बरो में क़रार देंगे और वह तुम्हें मुक्ति दिलाएगा। इस बात ने बनी इस्राईल को मज़बूत बना दिया। फ़िरऔन के मिस्र में बनी इस्राईल ने बरसों प्रतिरोध किया था, अलबत्ता बाद में वे लोग ख़राब हो गए लेकिन उन्होंने बरसों प्रतिरोध किया था, यही प्रतिरोध था जो मूसा को लाया और फिर उन्होंने अपना अभियान शुरू किया और बनी इस्राईल उनके पीछे चल पड़े और इस अभियान का नतीजा फ़िरऔन और उसके मानने वालों की तबाही के रूप में सामने आया। यह इंतेज़ारे फ़रज है। इंतेज़ारे फ़रज का मतलब है, उन सभी कमियों के अंत का इंतेजार, जो अभी आपने बयान कीं, इससे दस गुना ज़्यादा कमियां हैं जिनका आपने ज़िक्र नहीं किया। इंतेज़ारे फ़रज का मतलब यह है, यानी तैयार होना, सोचना, किसी भी गतिरोध और बंद गली को ध्यान में न लाना, गतिरोध और बंद गली में पहुंच जाने की सोच बहुत बुरी चीज़ है। यह इंतेज़ारे फ़रज़ का मतलब है, इस चीज़ को मद्देनज़र रखिए।

अलबत्ता अल्लाह ने क़ुरआने मजीद में बार बार कहा हैः “अल्लाह ने लिख दिया है कि मैं और मेरे रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम) ही ग़ालिब रहेंगे।” (8) “अल्लाह ने लिख दिया” यानी अल्लाह का अटल क़ानून है कि पैग़म्बरों के रास्ते को ग़लबा हासिल होगा और इसमें कोई शक नहीं। “बेशक अल्लाह अहले ईमान की तरफ़ से बचाव करता है।” (9) अल्लाह मोमेनीन की रक्षा करेगा, इसमें कोई शक नहीं। या “और हम चाहते हैं कि उन लोगों पर एहसान करें जिन्हें ज़मीन में कमज़ोर कर दिया गया था और उन्हें पेशवा बनाएं” (10) इसमें कोई शक नहीं है, यह अल्लाह का वादा है। ख़ुद हमने भी हक़ीक़तों को देखा है, कभी हम इन बातों के लिए क़ुरआन, नहजुल बलाग़ा और सहीफ़ए सज्जादिया से हवाला दिया करते थे, लेकिन हमने इन्हें ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में भी देखा है। आप अभी जवान हैं, इंशाअल्लाह जब आप की उम्र मेरी जितनी हो जाएगी, मुझसे भी दस बीस साल ज़्यादा आपकी उम्र होगी तो आप ऐसी बहुत सी बातें देखेंगे। हमने अपनी इस उम्र में देखा है, इन्क़ेलाब की कामयाबी को देखा है जो असत्य पर सत्य का ग़लबा था। कोई भी सोच नहीं सकता था, कोई सोच भी नहीं सकता था। मरहूम आयतुल्लाह तालेक़ानी साहब ने ख़ुद मुझसे कहा था कि जिस दिन इमाम ख़ुमैनी ने कहा की शाह को जाना होगा (11) हमने कहा था कि जनाब आप क्या बात कर रहे हैं! तालेक़ानी साहब आम आदमी नहीं थे, मतलब यह कि मरहूम आयतुल्लाह तालेक़ानी जैसा इंसान, एक ज़बरदस्त और तजुर्बेकार, जिद्दो जेहद करने वाला इंसान भी यह उम्मीद नहीं कर रहा था, लेकिन ऐसा हुआ, इन्क़ेलाब क़ामयाब हुआ, अल्लाह ने लिख दिया है कि मैं और मेरे रसूल (सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम) ही ग़ालिब रहेंगे।”

या थोपी गयी जंग, आप लोग तो ख़ैर नहीं थे, आपने नहीं देखा। थोपी गयी जंग एक अजीब घटना थी, सभी हमारे ख़िलाफ़ थे, अमरीका हमारे ख़िलाफ़ था, पूर्व सोवियत यूनियन हमारे ख़िलाफ़ था, नेटो हमारे ख़िलाफ़ था, मुसलमान मुल्क हमारे ख़िलाफ़ थे, हमारा पड़ोसी तुर्किये हमारे ख़िलाफ़ था, सभी! लेकिन हम फ़ातेह रहे। एक ऐसी जंग में, जिसमें सभी हमारे ख़िलाफ़ थे, हमें फ़तह हासिल हुई। इसलिए हमारे तजुर्बे भी इसी बात की तरफ़ इशारा करते हैं। इन्तेज़ारे फ़रज का मतलब यह है। इंतेज़ारे फ़रज सिर्फ़ यही नहीं है कि हम मुंतज़िर बैठे रहें और दुआ करें कि अल्लाह, इमाम महदी को ज़ाहिर कर दे, अलबत्ता यह भी वाजिब कामों में से एक है, हमें दुआ करनी चाहिए, हमें यह चाहना चाहिए, इसके लिए काम करना चाहिए। इंतेज़ारे फ़रज का मतलब यह है कि उन सभी कामों में, जो मुश्किल हैं, हमारे मद्देनज़र फ़रज के आने का अक़ीदा, यक़ीनी अक़ीदों में से एक होना चाहिए और यह है भी। इंसान इंतेज़ार करे। अलबत्ता इसकी शर्तें हैं, हमें काम करना चाहिए। रोटी का नवाला खाने की फ़रज का इंतेज़ार, रोटी की दुकान पर जाना, रोटी ख़रीदना और घर लाना ही तो है, वरना हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से रोटी ख़ुद बख़ुद तो आएगी नहीं। कोई काम होना चाहिए ताकि फ़रज अंजाम पाए। ये वे बुनियादें हैं जिनमें काम करना ज़रूरी है, इस तरह की बुनियादें काफ़ी हैं। या तौहीद की बुनियाद -अल्लाह के अलावा दूसरे की हुक्मरानी मना है, तौहीद यानी अल्लाह के अलावा दूसरे का इंकार- और इसी तरह दूसरी बातें जो काफ़ी हैं, इन बुनियादों पर काम कीजिए, ख़ास कर आप यूनियनों को इन बुनियादों पर काम करना चाहिए। किसी एक सीमित बिन्दु पर केन्द्रित मत रहिए, बड़े पैमाने पर नज़र रखिए, सभी मुद्दों को देखिए। मेरे ख़्याल में यहाँ पर जो मरहूम शहीद मुतह्हरी, शहीद बहिश्ती, मरहूम मिस्बाह यज़्दी साहब वग़ैरह का जो नाम लिया गया है, बहुत अच्छी बात है, इन लोगों की किताबें, अच्छी किताबें हैं। हमारे नौजवानों का तजुर्बा भी अच्छा है, मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि एक नौजवान स्वयंसेवी, तेहरान के क़रीब कुछ काम कर रहा है, सरगर्मियां अंजाम दे रहा है, जैसे शहीद मुस्तफ़ा सद्रज़ादे। उनके बारे में दो तीन किताबें लिखी गयीं जिन्हें मैने पढ़ा है, पढ़ कर पता चलता है कि वह किस तरह काम करने और आगे बढ़ने के लिए बेताब थे। इंसान, इन लोगों को देखे और आगे बढ़े, यह पहला प्वाइंट था, जिसे मैंने पेश किया।

स्टूडेंट्स के बारे में कुछ बातें कहना चाहता हूं। मुझे तेज़ी से बयान करना होगा ताकि इन सारी बातों को पेश कर सकूं। पहला प्वाइंट यह है, यह बात जान लीजिए, मेरी अटल राय यह हैः स्टूडेंट्स की सक्रियता, ख़ुद स्टूडेंट्स की तरह मुल्क के लिए एक अवसर है। कुछ लोग स्टूडेंट्स की सरगर्मियों या किसी भी तरह की सक्रियता से जो अंजाम पाती है, अलबत्ता स्वस्थ सरगर्मियों की बात है, अभी उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करुंगा, संभवतः ख़तरे का आभास करें, लेकिन यह ग़लतफ़हमी है, स्टूडेंट्स के काम और उनकी सरगर्मियां मुल्क के लिए मौक़ा हैं, स्टूडेंटस के मुतालबे मुल्क के लिए अवसर हैं, स्टूडेंट्स का बोलना मौक़ा है, स्टूडेंट्स मुल्क की घटनाओं के बारे में जो ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं, वह भी मौक़ा है। यह जो आप यहाँ आते हैं और शौक़ से, जोश के साथ कोई एतेराज़ करते हैं, यह मुल्क के लिए पूंजी है, यह मुल्क के लिए मूल्य की हैसियत रखती है। कमियों को दूर करने के लिए स्टूडेंट्स सोसायटी और नौजवान स्टूडेंट्स में जो जोश है, वह एक पूंजी है। मुख़्तलिफ़ घटनाओं में, चाहे वे प्राकृतिक आपदाएं हों, चाहे राजनैतिक घटनाएं हों, जैसे क़ुद्स दिवस, 11 फ़रवरी वगैरह की रैलियों में, स्टूडेंट्स की पुरजोश भागीदारी, ये सब पूंजी है। राजनैतिक व आर्थिक मुद्दों तथा कुछ फ़ैसलों के बारे में राय का इज़हार, मौक़ा है। स्टूडेंट्स का अपनी राय का इज़हार करना मौक़ा है। मैं यह नहीं कहता कि सही है, इस प्वाइंट पर ध्यान रहे। मुमकिन है कोई राय सही हो, कोई सही न हो लेकिन ख़ुद राय का इज़हार, सोचना, मुद्दों के बारे में ग़ौर करना, यह मुल्क के लिए मौक़ा है। अलबत्ता कुछ कमियां भी हैं। स्टूडेंट्स की सरगर्मियों में कमी नहीं आनी चाहिए, इस बात का ख़याल रहे। अलबत्ता जवानों को यक़ीन नहीं आता कि बूढ़े भी कभी जवान थे, लेकिन हमने भी इसका तजुर्बा किया है और हम जानते हैं कि जवानी का वक़्त कैसा होता है।

जवानी में ग़लती की संभावना कम नहीं है, इसकी संभावना ज़्यादा है, मुख़्तलिफ़ बातें पेश आती हैं, चौकन्ना रहिए। स्टूडेंट्स की सरगर्मियों में जो कमियां हैं, उन्हे दूर करना चाहिए, उन्हें स्वस्थ बनाना चाहिए। फूट पैदा न हो, विभाजन न हो, स्टूडेंट की सरगर्मियों से स्टूडेंट्स सोसायटी दो धड़ों में विभाजित न हो जाए, यह बहुत अहम मसलों में से एक है। यह फूट और धड़ेबंदी दुश्मन की इच्छा है। सरगर्मियों को हक़ीक़त पर आधारित होना चाहिए। मिसाल के तौर पर आप यहाँ आते हैं, कोई सुझाव देते हैं, उस सुझाव पर काम में वक़्त लगेगा, पैसे लगेंगे, हो सकता है कि उसका ख़र्च अदा करना मुमकिन न हो, या फ़ौरन मुमकिन न हो, इन सब बातों पर भी ध्यान दीजिए। मतलब यह कि स्टूडेंट सोसायटी की सरगर्मियां और उसकी मांग व्यवहारिक होनी चाहिए। जहाँ तक मुमकिन हो इल्मी और प्रैक्टिकल हल के सुझाव के साथ होनी चाहिए, पहले तो इल्मी यानी वैज्ञानिक हल हो और दूसरे यह की वह व्यवहारिक भी हो, यानी सिर्फ़ काग़ज़ पर न हो, ऐसा काम हो, जिसे अंजाम दिया जा सकता हो। आप में से जो भी व्यवहारिक रूप से क़दम रखेगा -आप में से कुछ की दरख़्वास्त भी यही थी कि क्यों जवानों को बीच मैदान में नहीं लाया जाता, ज़रूर लाना चाहिए- तो आपकी राय बदल जाएगी क्योंकि आप फ़ैक्ट्स को देखेंगे, मुश्किलों को देखेंगे, काम की कठिनाइयों को देखेंगे।

एक बार एक साहब इमाम ख़ुमैनी के पास गए, सरकार के ख़िलाफ़ कुछ शिकायत की थी। इमाम ख़ुमैनी ने उनकी बातें सुनीं -जैसा कि उन्होंने मुझसे नक़्ल किया- उसके बाद उनके जवाब में सिर्फ़ इतना ही कहाः “मुल्क चलाना कठिन काम है।ʺ हक़ीक़त में सख़्त है।(12) अगर हम एक दूसरे की ही जवाबदेही तय करते रहेंगे तो काम आगे नहीं बढ़ेंगे। लोगों की बातें सुननी चाहिए। लोगों की बातें कहाँ सुनने को मिलेंगी? सभी मसलों में तो लोग अपनी बात नहीं रखते और उनकी सिर्फ़ एक राय भी नहीं होती। सोचना चाहिए, अध्ययन करना चाहिए। अवाम की राय की एक प्रक्रिया होती है। अवाम की बात यही है जो इस वक़्त मौजूद है, यानी वह एक शख़्स को राष्ट्रपति के तौर पर चुनते हैं, तो यह अवाम की बात है। कुछ लोगों को सांसद के तौर पर चुनते हैं, यह अवाम की बात है, अवाम की बातों को इसी तरह तो समझा जा सकता है ना?

अभी हमारे एक भाई ने कहा कि रेफ़्रेन्डम, इस तरह से कहा कि “अगर आप शुरू से उन सभी मुद्दों में जो पेश आए हैं, रेफ़्रेन्डम कराते तो इस वक़्त रेफ़्रेन्डम पर यह संवेदनशीलता नहीं होती।” दुनिया में कहाँ यह काम किया जाता है? क्या मुल्क के मुख़्तलिफ़ मुद्दे ऐसे हैं जिन पर रेफ़्रेन्डम कराया जाए? क्या वे सभी लोग जिन्हें रेफ़्रेन्डम में भाग लेना चाहिए और जो लोग भाग लेते हैं, मुद्दों की समीक्षा कर सकते हैं? यह कैसी बात है? उन मुद्दों पर कैसे रेफ़्रेन्डम कराया जा सकता है जिनमें प्रोपैगन्डा किया जा सकता है, हर ओर से बात की जा सकती है? एक मुद्दे पर रेफ़्रेन्डम कराने के लिए मुल्क को छह महीने तक बहस, बातचीत और मतभेद में उलझाए रखते हैं ताकि किसी एक मुद्दे पर रेफ़्रेन्डम कराया जा सके। हम सभी मुद्दों पर रेफ़्रेन्डम कराएं? मतलब यह कि बातें ऐसी नहीं हैं कि इंसान इस तरह से यूंही उनसे गुज़र जाए।

एक बड़ी मुश्किल जल्दबाज़ी है। जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। स्टूडेंट की ज़बान सिर्फ़ मुश्किलें और मुद्दे बयान करने वाली न हो। मैं यह नहीं कहता कि मुश्किलों को बयान न कीजिए लेकिन सिर्फ़ मुश्किलें ही बयान न कीजिए। मुल्क में बहुत सी अच्छी बातें हैं, स्टूडेंट उन्हें भी बयान करे, वह भी बयान करे और यह भी बयान करे यानी ऐसा न हो कि वह सिर्फ़ उन चीजों और मुश्किलों को फैलाने वाला हो। एक स्टूडेंट को तेज़ मेज़ाज का नहीं होना चाहिए, सतही सोच वाला नहीं होना चाहिए। लोकल मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा न बना दिया जाए। मिसाल के तौर पर कभी मुल्क के किसी क्षेत्र में कोई घटना होती है, कोई वाक़या हो जाता है, फ़ुलां स्टूडेंट यूनियन आए और उसे एक क़ौमी मुद्दा बना दे, यह ग़लती है, यह मुल्क के लिए नुक़सानदेह है। यह मुश्किल से दूर भागना नहीं है या मुश्किल का हल नहीं है, यह मुल्क के नुक़सान में है कि एक मामूली और लोकल मुश्किल को क़ौमी मुद्दे में बदल दिया जाए।

स्टूडेंट की नीयत दिखावे की न हो, देखिए! मैं इस बात पर ताकीद करता हूं। न तो स्टूडेंट और न ही स्टूडेंट युनियन को ऐसा नहीं होना चाहिए कि दिखावे के लिए कोई बात करे, इससे काम की बरकत जाती रहती है, बात की बरकत ख़त्म हो जाती है, बात बेअसर हो जाती है और साथ ही उसमें नुक़सान भी है।

स्टूडेंट साइबर स्पेस में न खो जाए। इधर उधर से की जाने वाली सभी बातों के साथ साथ साइबर स्पेस मुल्क में है ही, सोशल मीडिया है, इंटरनेट है। कुछ लोग बैठे हुए हैं कि साइबर स्पेस की तरफ़ से उन्हें लगातार समीक्षाएं, ख़बरें, मुद्दे मुहैया होते रहें! यह ग़लत है। आप साइबर स्पेस पर हावी हो जाइये, आप साइबर स्पेस को गाइड कीजिए, आपकी ओर से साइबर स्पेस पर सोच, ख़बर और समीक्षा जाए, इसके बरख़िलाफ़ न हो। यह सब स्टूडेंट्स की सरगर्मियों की मुश्किलें हैं। बाईमान और फ़िक्रमंद स्टूडेंट की, जो कभी हमसे पूछते हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी क्या है -कभी लिखते हैं, कभी दफ़्तर में आते हैं और दोस्तों से बात करते हैं जिससे पता चलता है कि वे फ़िक्रमंद हैं और कुछ करना चाहते हैं- एक ज़िम्मेदारी यही है कि स्टूडेंट्स के अहम कामों को, स्टूडेंट्स की सरगर्मियों को, जो मुल्क के लिए अच्छा मौक़ा और मूल्यवान है, इस तरह की कमियों से दूर करें।

स्टूडेंट्स के सिलसिले में दूसरा प्वाइंटः ये जो बातें मैं अर्ज़ कर रहा हूं उनके साथ, आपके सवालों का जवाब नहीं देना चाहता -यानी मैं इस वक़्त इसकी कोशिश नहीं कर रहा हूं, इस सीमित वक़्त में यह काम किया भी नहीं जा सकता- मैं चाहता हूं कि आप अपने कामों को ठोस बुनियाद दीजिए यानी अपने सामने ऊंचे क्षितिज को देखते हुए अपने अमल को निर्धारित कीजिए। आप हरकत करने वाले और आगे बढ़ने वाले हैं, यानी मुल्क के बेहतरीन नौजवान ज़्यादातर हमारे स्टूडेंट्स हैं और आप मोमिन स्टूडेट्स आगे बढ़ना चाहते हैं। मैं चाहता हूं कि यह मंज़िल हासिल हो। सबसे दूर क्षितिज पर निगाह रखिए। मुझसे पूछते हैं कि आपकी नज़र में एक अच्छे, बुलंद हौसले वाले और भविष्य पर नज़र रखने वाले स्टूडेंट की ज़िम्मेदारी क्या है? मेरा जवाब यह हैः पहले अपने समाज की सोच में और हक़ीक़त में बदलाव और फिर दुनिया की सोच और हक़ीक़त में बदलाव। आपको हैरत हुयी? स्टूडेंट मिसाल के तौर पर दुनिया की हक़ीक़त को बदल सकता है? इसमें कोई तअज्जुब नहीं है। आप आज स्टूडेंट हैं लेकिन आज का यही स्टूडेंट कल का राजनैतिक मामलों का ज़िम्मेदार है, मुल्क के किसी अहम विभाग को चलाने वाला है। यह जो आज मुल्क के अधिकारी हैं, कल आपकी ही तरह स्टूडेंट्स थे, इस वक़्त मुल्क को चला रहे हैं, राजनैतिक, आर्थिक, कूटनैतिक सतह पर मुल्क को चला रहे हैं। आज का स्टूडेंट कल का दार्शनिक है, कल का रिसर्च स्कॉलर है, आज का स्टूडेंट संस्कृति और मीडिया के मैदान में कल का प्रभावी कार्यकर्ता है, आज का स्टूडेंट कल किसी विभाग का प्रमुख, कल का थिंक टैंक और कल का प्रभावी तत्व है। इंसान हमेशा तो जवान और स्टूडेंट रहने वाला नहीं है, आप आज इस तरह राह समतल कर सकते हैं कि जब आप इन्हीं तत्वों में बदल गए जिनका मैंने ज़िक्र किया तो सही अर्थों में प्रभावी हों, समाज की सोच को भी बदलिए और उसकी हक़ीक़त को भी बदलिए। आज सभी कहते हैं- हमने भी कहा और दूसरे सभी कहते हैं- कि दुनिया बदल रही है, इस बदलाव को कौन वजूद में लाता है? बुद्धिजीवी, सक्रिय लोग, बड़े काम अंजाम देने वाले लोग, यही लोग बदलाव लाते हैं। वे आप ही लोग हैं, आप आज स्टूडेंट हैं, कल आप वही होंगे जो वह बदलाव ला सकता है। इसलिए हमारी अपेक्षा यह है कि आप भविष्य को इस तरह देखिए।

अलबत्ता वह शख़्स जो कल बदलाव ला सकता है, ज़रूरी नहीं कि वह एक नुमायां मोमिन, अल्लाह से डरने वाला और वफ़ादार हो, कभी कुछ लोग रास्ते से भटक भी जाते हैं। कोशिश कीजिए कि रास्ते से न हटिए, कोशिश कीजिए कि सही रास्ते पर आगे बढ़िए, आप उस तरह के कल की ओर बढ़ रहे हैं। अपने ढांचे को, अपने वैचारिक ढांचे को, ईमानी ढांचे को, बौद्धिक ढांचे को आज ही से मज़बूत बनाइये ताकि उस तरह के कल के लिए तैयार हो सकें। यहाँ पर मेरे ख़्याल में चार बुनियादी बाते हैं: धर्म, बुद्धि, ज्ञान और इरादा। यह चार चीज़ें ज़रूरी हैं। धार्मिक ढांचा, वैज्ञानिक ढांचा, बौद्धिक ढांचा और इरादे व संकल्प का ढांचा। अटल व ठोस इरादा, इन चीज़ों को अपने भीतर मज़बूत कीजिए। जो भी इन चीज़ों को अपने भीतर ज़्यादा मज़बूत करेगा, कल उसके प्रभावी होने की संभावना ज़्यादा होगी। कुछ लोग चोटी पर पहुंच जाते हैं, कुछ लोग चोटी तक नहीं पहुंच पाते लेकिन किसी हद तक वे भी बाअसर होते हैं। यह इस बात पर निर्भर होता है कि आप, ख़ुद को कितना तैयार करते हैं। यह एक बात हुयी।

स्टूडेंट सोसायटी के बारे में दूसरी बात। जब हम कहते हैं कि स्टूडेंट तो इस लफ़्ज़ से हमारी आँखों के सामने कई शीर्षक उभर कर आते हैं, हमारे मन में चित्र बनते हैं। मिसाल के तौर पर जब हम कहते हैं स्टूडेंट तो इल्म का हासिल करना, जवान होना, सरगर्म होना, नई नई चीज़ों का पता लगाने वाला, भ्रष्टाचार से नफ़रत, अन्याय से नफ़रत जैसे मानवीय जज़्बे और ऐसी ही बातें हमारे मन में आती हैं, लेकिन मेरे ख़याल में इन सबसे ज़्यादा अहम, बुनियादी विचारधारा का स्वामी होना है जिसकी ओर मैंने पहले भी इशारा किया। वैचारिक बुनियाद को मज़बूत कीजिए, ठोस कीजिए। देखिए, मैं यह नहीं कहना चाहता कि फ़िलहाल आप दूसरे प्रोग्रामों को किनारे रखकर सोचने और अध्ययन में लग जाएं, नहीं, इन्हें एक साथ अंजाम देना चाहिए, यानी अमल के साथ ही ग़ौर व फ़िक्र, अध्ययन और आत्मनिर्माण में आगे बढ़ने की संभावना इस हालत में कहीं ज़्यादा है कि इंसान सारे काम छोड़ कर बैठ जाए, स्टूडेंट की सारी सरगर्मियों को छोड़कर मिसाल के तौर पर सिर्फ़ अच्छी किताबों के अध्ययन में लग जाए। धार्मिक स्रोतों से लगाव पैदा कीजिए, गहरी सोच और ईमानदार विचारकों से संपर्क बनाइये। आज विचारकों के बीच अच्छे धर्मगुरू और विचारक मौजूद हैं।

मैंने आपसे अर्ज़ करने के लिए यहाँ एक बात और नोट की है और वह यह है कि हमें दुश्मन की चाल और उसकी स्ट्रैटेजी की पहचान के सिलसिले में अपटूडेट होना चाहिए, हम सबको अपटूडेट होना चाहिए। अलबत्ता कुछ लोग हैं कि जैसे ही हम “दुश्मन” लफ़्ज़ ज़बान पर लाते हैं, वे चिढ़ जाते हैं कि फिर उन्होंने सब कुछ विदेशी दुश्मनों की गर्दन पर डाल दिया! मानो जब हम कहते हैं कि “हमारे दुश्मन हैं” तो हम अपनी कमज़ोरियों, कमियों और सुस्ती का इंकार करना चाहते हैं। नहीं, ये सब हैं लेकिन उसे भी नहीं भूलना चाहिए। दुश्मन है, हम चाहें या न चाहें, समझें या न समझें, दुश्मन मौजूद है, काम भी कर रहा है, लगातार काम कर रहा है, दुश्मन पैसे ख़र्च कर रहे हैं, संसाधन मुहैया कर रहे हैं, सत्य के मोर्चे के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं। हम चाहे ग़ाफ़िल रहें, वह ग़ाफ़िल नहीं होता। “जो ग़फ़लत करता है, उसकी ओर से ग़फ़लत नहीं की जाती” (13) ऐसा नहीं है कि अगर आपको बंकर में नींद आ गयी तो दुश्मन के बंकर में भी नींद छायी होगी और वह भी सो रहा होगा, नहीं। हो सकता है कि आप सो रहे हों और वह जाग रहा हो। इसलिए दुश्मन है और उसका इंकार नहीं किया जा सकता।

दुश्मन की स्ट्रैटेजी यह है कि हम ख़ुद अपनी तरफ़ से बदगुमान हो जाएं। एक भाई ने यहाँ उम्मीद के विषय पर बात की, उनकी बात अच्छी है और मैं उनकी बातों को रद्द नहीं करता, लेकिन मैं इस बात को नहीं मानता कि निराशा का ज़्यादातर स्रोत भीतरी होता है। जी हाँ! भीतर कुछ मुश्किलें ज़रूर मौजूद हैं और हम उन मुश्किलों को समझते हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि यह मुश्किलें पुरजोश नौजवान स्टूडेंट को निराश कर दें। पुरजोश नौजवान स्टूडेंट, किसी और तरीक़े से मायूस होता है, जब प्रोफ़ेसर या फ़ुलां इंसान जिसमें प्रतिबद्धता नहीं है, जवान के पास बैठता है- व्यक्तिगत तौर पर और यही काम दूसरी शक्ल में और सामूहिक तौर पर बड़े पैमाने पर भी किया जाता है- और कहता है कि “तुम किस ख़ुशफ़हमी के साथ यहाँ पढ़ाई कर रहे हो? छोड़ो और जाओ!” जिद्दो जेहद करने वाले नौजवान से कहता है कि “तुम डॉलर की फ़ुलां क़ीमत, कई साल से इन्फ़लेशन की फ़ुलां दर, किस उम्मीद और किस ख़ुशफ़हमी के साथ यहाँ पढ़ रहे और काम कर रहे हो?” मायूसी का शिकार हो जाता है, प्रभावित होता है। अलबत्ता मोमिन, जिद्दो जेहद करने वाले, जागरुक जवान का जवाब, दो टूक और साफ़ है कि “हाँ, मुल्क में मुश्किलें हैं, लेकिन मैं इसलिए पढ़ रहा हूं कि दसियों साल तक इस मुल्क में ज़िन्दगी गुज़ारने का इरादा रखता हूं, ताकि सैकड़ों साल तक मेरे बच्चे, मेरी आने वाली नस्ल, मेरे हमवतन इस मुल्क में ज़िन्दगी गुज़ार सकें, मैं मुश्किलों को दूर करना चाहता हूं, मैं इसलिए पढ़ रहा हूं ताकि मुश्किल को ख़त्म कर दूं, मैं जिद्दो जेहद कर रहा हूं ताकि मुश्किल को दूर कर दूं।” मुसलमान नौजवान का जवाब यह है। लेकिन वह अपना काम करता रहता है और कुछ लोगों पर असर भी डालता है। तो यह एक मिसाल थी।

हमें अपने आप से बदगुमान करने की एक दूसरी मिसाल यह है कि दुश्मन का तरह तरह का मीडिया यह साबित करने पर तुला है कि ईरानी क़ौम अपने धार्मिक अक़ीदे से मुंह मोड़ चुकी है, अपने इन्क़ेलाबी जज़्बे से मुंह मोड़ चुकी है। वे इस बात पर अड़े हुए हैं और बार बार यह बात दोहराते रहते हैं, उनके कुछ पिट्ठू यहाँ भी हैं जो कहते हैं, इंटरनेट पर कहते हैं, अख़बारों में कहते हैं, अपनी तरह तरह की बातों में कहते हैं कि लोगों ने धर्म की ओर से मुंह मोड़ लिया है। वे ये बातें दोहराते रहते हैं, एक इंसान जो ग़फ़लत का शिकार हो और वह ग़ौर व फ़िक्र न करे, वह उनकी बात को मान लेता है, यक़ीन कर लेता है, लेकिन शबे क़द्र आ गयी, अचानक आप देखते हैं कि इस साल (दुआ व आमाल) की सभाएं पिछले साल की सभाओं से कहीं ज़्यादा हैं, क़ुद्स दिवस की रैलियों में लोगों की तादाद, पिछले साल से ज़्यादा है, 22 बहमन (11 फ़रवरी) के जुलूसों में लोगों की तादाद, पिछले साल से दुगुना ज़्यादा है। यानी जो कुछ वे कह रहे हैं, हक़ीक़त उसके बरख़िलाफ़ है लेकिन वह वसवसा डालता रहता है। मैंने कहा कि “बार बार वसवसा डालने बार बार पसपा होने वाले के शर से, जो लोगों के दिलों में वसवसा डालता है, ख़्वाह वह जिनों में से हो या इंसानों में से।” (14) इंसानों में यही लोग हैं जो मुसलसल वसवसा डालते रहते हैं।

एक दूसरी मिसाल, फ़र्ज़ कीजिए की चार पूंजिपतियों या उद्यमियों ने मुल्क छोड़ दिया, उन्होंने अपने पैसे लिए और एक दूसरे मुल्क चले गए। कहा जाता है, ʺदेखो! तुम किस उम्मीद में यहाँ आर्थिक सरगर्मियां अंजाम देना चाहते हो? लोग तो जा रहे हैं।” हाँ ठीक है, चार लोग चले गए हैं, चालीस मुल्क में ही रुके हुए हैं और काम कर रहे हैं। हज़ारों नॉलेज बेस्ड कंपनियां बनती जा रही हैं, जवान नौकरी पर लग रहे हैं, समाज की सच्चाई यह है लेकिन दुश्मन अपनी कोशिश करता रहता है ताकि सभी को नाउम्मीद कर सके। यह दुश्मन की प्लानिंग है। तो इस बात पर ध्यान रहे कि आज दुश्मन की प्लानिंग, हमें अपने आप से बदगुमान करना है। वे चाहते हैं कि हमें ख़ुद से ही बदगुमान कर दें, हम अपनी सरकार से बदगुमान हो जाएं, अपने स्टूडेंट्स के माहौल से बद्गुमान हो जाएं, अपने अवाम से बद्गुमान हो जाएं! नहीं, मुल्क आगे बढ़ रहा है, अच्छी तरह से आगे बढ़ रहा है।

अलबत्ता हमारे यहां कमियां भी हैं, अगर अपेक्षा की बात की जाए तो मुझे आप लोगों से बहुत ज़्यादा अपेक्षाएं है और मैं आप लोगों से ज़्यादा एतेराज़ भी करता हूं। अलबत्ता हमेशा यह ज़रूरी नहीं होता कि इंसान खुल्लम खुल्ला बात करे लेकिन मैं कहता हूं, एतेराज़ करता हूं। मैं देख रहा हूं कि हम आगे बढ़ रहे हैं। अलहम्दो लिल्लाह मुल्क आगे बढ़ रहा है। पहले हमारे मुल्क में इतने मोमिन, सरगर्म, पुरजोश, अच्छी सोच वाले नौजवान नहीं थे लेकिन अलहम्दो लिल्लाह आज हैं। तो यह भी एक अहम बात है।

एक दूसरी बात यह है कि दुश्मन, ईरानी नौजवान से दुश्मनी रखता है। आप यह बात जान लीजिए, हमारे जवान यह बात जान लें, आप लोग, दूसरों से ज़्यादा इस बात पर ध्यान दें, मुल्क के सभी जवान भी जान लें कि दुश्मन, साम्राज्यवाद, ज़ायोनी कार्टल्ज़ (15) जो यूरोप और अमरीका पर छाए हुए हैं, इस बात में शक नहीं कि इस्लामी गणराज्य के अधिकारियों के कट्टर दुश्मन हैं, अगर उन्हें मौक़ा मिले तो उनके टुकड़े टुकड़े कर दें लेकिन वे ईरानी जवानों के ज़्यादा कट्टर दुश्मन हैं, क्यों? इसलिए कि अगर आप जवान, जवानों की उमंग, जज़्बा और मुल्क में जवान नस्ल न हों तो मुल्क के अधिकारी भी कुछ नहीं कर सकते। काम अस्ल में जवान नस्ल करती है, तरक़्क़ी और आगे बढ़ना जवानों के हाथ में है इसलिए ये लोग जवानों से द्वेष रखते हैं। इन्क़ेलाब की कामयाबी के आग़ाज़ से आज तक ये जवान ही थे जिन्होंने मुख़्तलिफ़ मोर्चों पर, मुख़्तलिफ़ मैदानों में बड़े बड़े काम अपने ज़िम्मे लिए और उन्हें आगे बढ़ाया। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मुल्क के अधिकारी ध्यान दें और अलहम्दो लिल्लाह वे ध्यान देते भी हैं, बहुत से नौजवानों की सलाहियतों से फ़ायदा उठाते हैं लेकिन इससे ज़्यादा फ़ायदा उठाया जाना चाहिए। मुख़्तलिफ़ मैदानों में ईरान की जवान नस्ल ने काम किया है।

मैंने यहाँ नोट किया हैः सरकारी प्रबंधन के मैदान में -सरकारी मैनेजर- शहीद मूसा कलांतरी और शहीद तुंदगोयान जैसे जवान थे, ये मंत्री थे, सभी जवान, या शहीद क़न्दी, शहीद अब्बासपूर, ये सब शहीद हुए, ये जवान थे। ये सभी जिनके मैं नाम ले रहा हूं, कुछ लोगों के नाम और लूंगा, ये सब बीस से तीस और तीस से चालीस साल के बीच की उम्र के थे यानी बीस साल से लेकर उन्तालीस चालीस साल की उम्र के थे। सरकारी मैनेजमेंट के मैदान में ये लोग थे। मरहूम मूसा कलांतरी ने कहाः मैं जुमे की नमाज़ में दूसरी या तीसरी लाइन में बैठा हुआ था। एक शख़्स मेरे बग़ल में बैठा हुआ था। अगली लाइन में शहीद अब्बासपूर थे -वो भी मंत्री थे और शहीद हुए- कलांतरी ने बताया कि जो शख़्स मेरे बग़ल में बैठा हुआ था, उसने अब्बासपूर की ओर इशारा किया और कहा कि देखो, मंत्री आकर नमाज़े जमाअत में बैठे हैं! देखो बात कहाँ तक पहुंच गयी है। इन्क़ेलाब की कामयाबी के आग़ाज़ के दिनों की बात है। शहीद कलांतरी ने, जिनका बड़ा प्यारा तुर्क लहजा था, उससे कहा कि मैं इससे भी अजीब बात तुम्हें बताऊं, मैं भी मंत्री हूं! (16) ये अच्छे मंत्री थे, अच्छे प्रशासनिक अधिकारी थे। फ़ौजी मैदान में शहीद हिम्मत, शहीद ख़र्राज़ी, शहीद बाबाई, शहीद हसन बाक़ेरी, शहीद शीरूदी, शहीद अर्देस्तानी, शहीद सैयाद शीराज़ी- अलबत्ता जब सैयाद शहीद हुए तो उनकी उम्र ज़्यादा थी लेकिन जब वह जंग में शामिल थे तो उनकी उम्र उतनी ही थी जितनी मैंने बतायी- इन लोगों ने जंग के नक़्शे को बदल दिया, जंग का नक़्शा पलट दिया और उसे सभी रूढ़ीवादी और साम्राज्यवादी घटकों के ख़िलाफ़ इस्लामी गणराज्य की ताक़त में बदल दिया।

आर्ट और साहित्य के मैदान में, शहीद आवीनी, मरहूम सलहशूर, मरहूम तालिबज़ादे। अलबत्ता उनकी उम्र ज़्यादा थी लेकिन उन्होंने अपनी जवानी में बहुत ज़्यादा काम किया था और उनके जैसे लोग कम नहीं हैं। इल्म, साइंस और रिसर्च के मैदान में शहीद तेहरानी मुक़द्दम, मरहूम आश्तियानी, शहीद मजीद शहरयारी, शहीद रेज़ाई नेजाद, शहीद अहमदी रौशन। हमारे जवान ये लोग हैं। यह सिलसिला आज तक जारी है, इसी आपके ज़माने में, इसी आपके दौर में, शहीद होजजी, मुस्तफ़ा सद्रज़ादे, आरमान अलीवेर्दी, रूहुल्लाह अजमियान। ये सब नुमायां हैं, वाक़ई बहुत बड़ी शख़्सियतें हैं। हज़ारों, दसियों हज़ार, लाखों ज़िम्मेदार ईरानी जवान आज मौजूद हैं, ये इंजन हैं, ये मुल्क को और सिस्टम को आगे बढ़ाने वाले इंजन हैं, इनमें से हर एक, किसी न किसी विभाग में हैं। आप सब, आप में से हर एक, ऐसा होना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि शहीद हो जाइये, अल्लाह करे कि आप शहीद न हों -अलबत्ता बुढ़ापे में कोई हरज नहीं है, आप जब 70-80 साल के हो जाएं, तब शहीद हों लेकिन इस वक़्त, जब तक आप जवान हैं, हमें आपसे काम है, आप शहीद न हों- लेकिन शहीदों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारिए, वाक़ई इन लोगों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारिए, इन लोगों की तरह आगे बढ़िए। तो शैतानी ताक़ते इस जवान तबक़े की मुखर विरोधी हैं।

प्रिय जवानो! पूरी संजीदगी से रौशन रास्ते पर आगे बढ़िए, इन्क़ेलाब, इस्लाम, मुल्क और सिस्टम वग़ैरह की रौशन राह पर संजीदगी से आगे बढ़िए, मुल्क को आपकी ज़रूरत है। इस राह में आपको महत्वकांक्षा की ज़रूरत है- वे कुछ चीज़ें जिनकी वाक़ई आपको ज़रूरत है, उनमें से एक महात्वाकांक्षा है- आपको उम्मीद की ज़रूरत है, आपको अक़्लमंदी की ज़रूरत है। बात यह है। महत्वाकांक्षा यानी वही दूर के क्षितिज पर नज़र रखना, जिसकी ओर मैंने इशारा किया, अगर यह न हो तो आगे बढ़ना मुमकिन नहीं है। महत्वाकांक्षा, आगे ले जाने वाला इंजन है, उम्मीद उस इंजन का ईंधन है, अगर उम्मीद न हो तो यह इंजन काम नहीं करेगा, महत्वाकांक्षा दिल में रह जाएगी और इंसान सिर्फ़ हसरत लिए रह जाएगा अगर उम्मीद न हुयी तो। अक़्लमंदी, उस इंजन की स्टियरिंग है, अक़्लमंदी के साथ सोचिए, अक़्ल से काम लीजिए और आगे बढ़िए।

यूनिवर्सिटी के बारे में भी मुझे कुछ बात कहनी है, आप लोगों ने भी कुछ इशारे किए और आपकी बातें बिल्कुल सही हैं, आपने जो एतेराज़ किए हैं वे सभी सही हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि सच में एक व्यापक साइंटिफ़िक प्लान की कमी, हमारी यूनिवर्सिटी की बहुत बड़ी कमी है। हम नहीं जानते कि सब्जेक्ट्स के हिसाब से स्टूडेंट्स को मुख़्तलिफ़ यूनिवर्सिटियों में किस आधार पर भेजा जाता है। यह इल्मी व साइंटिफ़िक विषय, मुल्क की ज़रूरत के होने चाहिए, मुल्क के काम आने चाहिए। फ़ुलां सब्जेक्ट में हमें कितने स्टूडेंट्स की ज़रूरत है? उनके बारे में सोचा जाना चाहिए, उन पर काम होना चाहिए। मैं चाहता हूं कि साइंस व टेक्नालोजी के मंत्री (17) भी -जो यहीं मौजूद होंगे- इन बातों को फ़ॉलोअप करें और ये उन सबसे अहम कामों में से एक है, जो अंजाम पाने चाहिए। ईरान में कुछ ऐसे सब्जेक्ट भी हैं जो ज़रूरत के नहीं हैं, उन सब्जेक्ट्स में नौकरी भी नहीं है तो फिर उसका फ़ायदा क्या है? यूनिवर्सिटी के कुछ काम और कुछ सब्जेक्ट्स ऐसे हैं जिनकी ज़रूरत ही नहीं है। इस वक़्त हमारे पास काम के लिए तैयार ऐसे शायद कई लाख इंटर पास लोग हैं जो मुख़्तलिफ़ विभाग में काम कर सकते हैं, हम उन्हें यूनिवर्सिटी में लाते हैं, कुछ मुद्दत बाद हम कई लाख ग्रेजुएट या मास्टर्ज़ किए हुए बेरोज़गार, नौकरी की तवक़्क़ो रखने वाले और ग़ुस्से से भरे हुए लोग मुल्क के हवाले कर देते हैं। हम सोचें और देखें कि हमें किस चीज़ की ज़रूरत है, अपनी ज़रूरत के हिसाब से आगे बढ़ें। अगर हमारे पास पढ़ाई पूरी कर चुके बेरोज़गार हैं तो आप जान लीजिए कि हमारे एजुकेशन और ट्रेनिंग के सिस्मट में कमी है। अगर कोई मुल्क के फ़ायदे के लिए इल्म हासिल करता है तो उसकी नौकरी तैयार होनी चाहिए। हमारे पास पढ़ाई पूरी कर चुका शख़्स है लेकिन उसके पास नौकरी नहीं है, तो सीधी सी बात है कि स्टूडेंट्स का दाख़िला सही सिस्टम और सही हिसाब किताब से अंजाम नहीं पाया है।

ख़ैर वक़्त ख़त्म हुआ लेकिन बातें बहुत ज़्यादा हैं, हम आपको चाहते हैं और आपके लिए दुआ करेंगे।

अल्लाह का सलाम और रहमत हो आप सब पर।

1 इस मुलाक़ात के शुरू में कुछ स्टूडेंट्स ने अपने ख़याल का इज़हार किया।

2 इस्लामी सिस्टम के अधिकारियों से मुलाक़ात में स्पीच 4/4/2023

3 सूरए फ़त्ह, आयत-4, वही है जिसने अहले ईमान के दिलों में सुकून व इत्मेनान उतारा ताकि वे अपने (पहले) वाले ईमान के साथ ईमान में और बढ़ जाएं।

4 सूरए मायदा, आयत-8, (ख़बरदार) किसी क़ौम से दुश्मनी तुम्हें इस बात पर आमादा न करे कि तुम इंसाफ़ न करो और अद्ल से फिर जाओ, अद्ल करो।

5 एतेक़ादाते सदूक़, पेज-47, (थोड़ी सी तब्दीली के साथ)

6 मौलाना रूम, मस्नवी मानवी, तीसरा चैप्टर (थोड़ी सी तब्दीली के साथ)

7 सूरए क़सस, आयत-7

8 सूरए मुजादेला, आयत-21

9 सूरए हज, आयत-38

10 सूरए क़सस, आयत-5, और हम चाहते हैं कि उन लोगों पर एहसान करें जिन्हें ज़मीन पर कमज़ोर कर दिया गया था और उन्हें पेशवा बनाएं और उन्हें (ज़मीन का) वारिस क़रार दें।

11 मिनजुमला, सहीफ़ए इमाम, जिल्द-4, पेज-107, पेरिस में रहने वाले ईरानियों की सभा में स्पीच (25/9/1978)

12 एक स्टूडेंट के अल्फ़ाज़ः “सख़्त है इस शर्त के साथ कि लोगों की बात सुनें।”

13 नहजुल बलाग़ा, ख़त नंबर-62

14 सूरए नास, आयत 4 से 6, बार बार वसवसा डालने वाले के शर से। जो लोगों के दिलों में वसवसे डालता है। ख़्वाह वह जिनों में से हो या इंसानों में से।

15 ऐसी कंपनियां जो किसी ख़ास मैदान में एक दूसरे के साथ हो जाती हैं और उनका मक़सद किसी ख़ास चीज़ की मंडी पर हावी होना होता है और इसके लिए वे एकाधिकार क़ायम करके उस चीज़ की मंडी से कंप्टीशन को या तो ख़त्म कर देती हैं या बहुत कमज़ोर बना देती हैं।

16 इस्लामी इन्क़ेलाब के नेता और मौजूद लोगों की हंसी

17 जनाब डॉक्टर मोहम्मद अली ज़ुल्फ़ी गुल