11 रमज़ान 1446 मुताबिक़ 12 मार्च 2025 को मुल्क की यूनिवर्सिटियों के स्टूडेंट्स की बड़ी तादाद ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात की। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस मौक़े पर अपने ख़ेताब में स्टूडेंट्स को अपनी उम्मीद का केन्द्र क़रार दिया और उनके अहम रोल पर रौशनी डाली। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने अहम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मसलों का जायज़ा लिया।(1)
स्पीचः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, सबसे चुनी हुयी नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
बहुत अच्छी सभा रही। हमारे अज़ीज़ नौजवानों के बयानों से हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स की सोच, टिप्पणी, समीक्षा और नतीजे निकालने का स्तर ऊंचा हो रहा है। इस साल जो बातें सुनी हैं उनका स्तर पिछले साल से ऊंचा है। यह अपने आप में आशाजनक और ख़ुशख़बरी देने वाला है। इसका मतलब यह है कि मुल्क के नौजवान और यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स आगे बढ़ रहे हैं, तरक़्क़ी कर रहे हैं। कभी हम आगे बढ़ रहे होते हैं लेकिन अपनी तरक़्क़ी पर हमारा ध्यान नहीं होता। इस वक़्त ऐसा ही है। ख़ुशक़िस्मती से इस वक़्त यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स में जो सोच है वह ज़्यादा ठोस और व्यापक हो रही है, तरक़्क़ी कर रही है।
अलबत्ता इसका मतलब यह नहीं है कि यहाँ जो कुछ कहा गया है मैं इन सब बातों से सहमत हूं। मुमकिन है कि कुछ बातें मुझे क़ुबूल न हों। मिसाल के तौर पर एक साहब ने कहा कि जो सत्ता में हैं, अधिकार रखते हैं, जैसे सुरक्षा और सैन्य पदों पर हैं, संवेदनशील योजनाओं पर, ज़ायोनी सरकार के मुक़ाबले में अपने फ़रीज़े पर अमल नहीं करते और सिर्फ़ बयान जारी करते हैं! यह सही नहीं है। ऐसा नहीं है, वे लोग जिन्हें काम करना होता है, उन्होंने अपने वक़्त पर काम अंजाम दिए हैं। अगर वह काम जिसकी आपको अपेक्षा है कि अंजाम पाए, अंजाम नहीं पाता है तो जांच करें। अलबत्ता कुछ मौक़ों पर जांच नहीं हो सकती, इसलिए कि उनमें बहुत सी बातें ख़ुफ़िया आयाम रखती हैं। आप देखेंगे कि नहीं ऐसा नहीं है, बल्कि उसका औचित्य है। यानी जो काम किया गया या जो काम नहीं किया गया, उसका ठोस तार्किक जवाब है।
नौजवानों के बारे में कहा है कि मैंने नौजवानों पर भरोसा करना छोड़ दिया है, नहीं ऐसा नहीं है, मेरी उम्मीद सिर्फ़ आप नौजवानों से है। मैं नौजवानों पर भरोसा किए जाने पर यक़ीन रखता हूं, लेकिन बहुत सी शर्तें हैं और उन शर्तों पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है। मुमकिन है कि मैं आज की बातचीत में इस ओर इशारा करूं। बुनियादी शर्त यह है कि आप अपने स्टैंड पर दृढ़ता से डटे रहें। दृढ़ता दिखाएं। ऐसा न हो कि आप एक समीक्षा करें, फ़ैसला करें, जो क्रांतिकारी हो, सही हो, स्वीकार्य हो, बाद में एक छोटी सी रुकावट और संदेह से उस आधार से हट जाएं, संबंध तोड़ लें। ख़याल रखें कि इस जज़्बे, इस एहसास, इस जोश व जज़्बे और समीक्षा को बाक़ी रखें।
मैं सम्मानीय अधिकारियों, उच्च शिक्षा के मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय से दरख़ास्त करता हूं कि इन बातों पर गंभीरता से ध्यान दें। उन भाइयों और बहनों की वे लिखित बातें जिनमें उनकी शिकायतें हैं, उनसे लें, पढ़ें, ध्यान दें और उन पर कार्यवाही करें। एक बात उनकी बिल्कुल सही है। जहाँ तक हमसे संबंध है, हम निश्चित तौर पर इस पर ध्यान देंगे। आज मैंने अपनी स्पीच को तीन हिस्सों में बांटा है जिन्हें पेश करुंगा। कुछ जुमले रमज़ान और रोज़े के बारे में हैं। कुछ बातों का संबंध स्टूडेंट्स से है, आपके मसले से है और कुछ बातें मुल्क के मौजूदा राजनैतिक मुद्दों से संबंधित हैं जो ज़बानों पर हैं, कुछ बातें उनके बारे में भी अर्ज़ करुंगा।
अलबत्ता यह अर्ज़ कर दूं कि पिछले साल जब यह बैठक हुयी थी, उस वक़्त से इस साल तक अनेक वाक़ए हुए। पिछले साल स्थिति अलग थी। पिछले साल आज की तरह यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के साथ बैठक हुयी थी तो शहीद रईसी ज़िंदा थे, शहीद सैयद हसन नसरुल्लाह (रिज़वानुल्लाह अलैह) हमारे पास थे, शहीद हनीया, शहीद सफ़ीउद्दीन, शहीद सिनवार, शहीद ज़ैफ़ और कुछ दूसरी नुमायां इंक़ेलाबी हस्तियां हमारे दरमियान और हमारे पास थीं, जो इस साल नहीं हैं। इस्लामी गणराज्य ईरान के दुश्मनों, विरोधियों और प्रतिस्पर्धियों के ग़लत और बेबुनियाद दृष्टिकोण में इस वाक़ए से ग़लत निष्कर्ष निकाला जाता है। मैं उनकी बातों के विपरीत, पूरे इत्मेनान से आपसे यह कहना चाहता हूं कि यह सही है कि ये भाई बहुत अहम थे, सचमुच उनका न होना हमारे लिए नुक़सान है। इसमें शक नहीं, लेकिन अगरचे इस साल वे नहीं हैं लेकिन पिछले बरस के आज के दिन के मुक़ाबले में कुछ मसलों में हम पिछले बरस से ज़्यादा मज़बूत हुए हैं और कुछ मसलों में अगर हम मज़बूत नहीं हुए हैं तो कमज़ोर भी नहीं हुए हैं। इस साल अलहम्दुलिल्लाह मुख़्तलिफ़ लेहाज़ से, मुख़्तलिफ़ पहलुओं से हमारे भीतर वह ताक़त और क्षमता है जो पिछले साल नहीं थी। इसलिए अगरचे इन अज़ीज़ों का न होना नुक़सान है, वेस्ट एशिया के इलाक़े में जो वाक़ए हुए वे कड़वे और दर्दनाक हैं लेकिन इस्लामी गणराज्य ईरान ने अलहम्दुलिल्लाह विकास और तरक़्क़ी की है और उसकी ताक़त व क्षमता में इज़ाफ़ा हुआ है।
हिजरत के तीसरे साल पैग़म्बरे इस्लाम ने हम्ज़ा जैसी हस्ती को खो दिया। ओहद जंग में हम्ज़ा पैग़म्बरे इस्लाम के पास से चले गए (शहीद हो गए) सिर्फ़ हम्ज़ा ही नहीं थे, हम्ज़ा उनमें सबसे नुमायां थे, वरना रसूल के बहुत से असहाब और बहादुर साथी चले गये। यह हिजरत के तीसरे साल हुआ। लेकिन चौथी और पांचवी हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम तीसरी हिजरी से ज़्यादा ताक़तवर थे। यानी नुमायां हस्तियों का नुक़सान, पीछे हटना, पीछे चले जाना और कमज़ोर हो जाना नहीं है। लेकिन शर्त यह है कि दो तत्व मौजूद हों। एक उमंग और दूसरी कोशिश। अगर क़ौम में ये दो तत्व हों तो हस्तियों के होने और न होने से फ़र्क़ नहीं पड़ता। हस्तियों का न होना नुक़सान है लेकिन उससे आगे बढ़ने की प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती।
कुछ बातें रमज़ानुल मुबारक के बारे में। अल्लाह फ़रमाता हैः "ऐ ईमान वालो! रोज़ा इस तरह तुम पर लिख दिया गया है (फ़र्ज़ कर दिया गया है) जिस तरह तुमसे पहले वालों पर लिख दिया गया था। ताकि तुम परहेज़गार बन जाओ।" (2) (सूरए बक़रह, आयत-183) इस आयत के मुताबिक़ रोज़े का मक़सद तक़वा है। तक़वा क्या है? तक़वा शब्द 'वेक़ाया' से बना है। वेक़ाया यानी रक्षा। तक़वा यानी सुरक्षा का साधन। सुरक्षित रहने का साधन, यह तक़वा सुरक्षा पैदा करता है। तक़वा इंसान को सुरक्षित कर देता है। किस चीज़ से? बुराइयों से, बहकावों से, ग़लत ख़यालों से, ईर्ष्या से, बेइमानियों से, गुनाहों से, वासनाओं से, फ़रीज़े की ओर से ग़ाफ़िल होने से, वाजिब को छोड़ने से। तक़वा यह है। यह बहुत अहम है। रोज़ा आपके अंदर ऐसी ही एक हालत, इस हालत जैसी कैफ़ियत पैदा कर देता है। आपको भूख लगी है, खाना भी मौजूद है, प्यास लगी है, पानी मौजूद है लेकिन आप खाने पीने से परहेज़ करते हैं, यानी ख़ुद को रोकते हैं। यह वही तक़वा है, लेकिन यह हालत आप में कुछ घंटे और कुछ गिने चुने मामलों में रहती है। यह हालत अगर ज़िंदगी में आम हो जाए तो हम और आप मुत्तक़ी हो जाएंगे।
क़ुरआन में तक़वे के असर का ज़िक्र ज़्यादा है लेकिन मैं उनमें से दो की तरफ़ इशारा करुंगा। पहला यह है कि "जो कोई ख़ुदा से डरता है अल्लाह उसके लिए (मुश्किल से नजात का) रास्ता पैदा कर देता है। और उसे वहाँ से रिज़्क़ देता है जहाँ से उसे गुमान भी नहीं होता है।"(3)(सूरए तलाक़, आयत-2 और 3) अगर तक़वा हासिल हो जाए तो तक़वे से गिरह यानी रास्ते खुलते हैं। तक़वे से दुनिया की मुश्किलें दूर होती हैं, दुनिया के मसलों के हल के रास्ते खुलते हैं। आर्थिक मैदान में भी तक़वे के असर होते हैं, सुरक्षा के मसलों में तक़वे के असर होते हैं, तक़वा ऐसी चीज़ है। जो समाज मुत्तक़ी हो जाए अल्लाह उसके लिए रास्ता पैदा कर देता है। यह तक़वा उसके लिए रास्ते खोलता है। "...यह हिदायत है उन परहेज़गारों के लिए।"(4)(सूरए बक़रह, आयत-2) क़ुरआन तक़वा अपनाने वालों के लिए हिदायत की किताब है। अल्लाह की ओर से हिदायत होना कोई मामूली चीज़ नहीं है। अल्लाह की ओर से होना सबसे अहम चीज़ है। हम नजात, कामयाबी और सौभाग्य ही तक तो पहुंचना चाहते हैं? वह एक लक्ष्य है और हम उस लक्ष्य तक पहुंचना चाहते हैं। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ज़रूरी है कि कोई हमारा मार्गदर्शन करे, हमारी मदद करे। वह अल्लाह है। अल्लाह मदद करता है। कब? जब हम तक़वा अपनाएं। इसलिए रोज़े को इस बात का साधन क़रार दें कि हमारे अंदर तक़वा पैदा हो और उसकी जड़ें मज़बूत हों। यह बुनियादी काम है। आज हमें इन दोनों नतीजों की ज़रूरत है, रास्ते खुलने की भी और हिदायत की भी। हमें मुश्किलों के हल के लिए भी ज़रूरत है और अल्लाह की ओर से हिदायत की भी।
अपने भीतर तक़वा कैसे लाएं? इस बारे में बहुत कुछ कहा गया है, रास्ता बताया गया है, मैं एक जुमले में जो कहना चाहता हूं वह यह है कि तक़वा हमारे और आपके हाथ में है। इसके लिए हमारा और आपका इरादा ज़रूरी है। हम इसका इरादा करें। इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) अख़लाक़ के विषय पर अपनी एक किताब में शायद "चालीस हदीसें" या "असरारुस्सलात" में, उस क़ारी को जो तौहीद के रास्ते पर चलना चाहता है, तौहीद के रास्ते का राहगीर बनना चाहता है, मुख़ातब करके कहते हैं कि "बहादुरी से भरा फ़ैसला करो, ठोस फ़ैसला करो"(5) आपके फ़ैसले से, आपके ध्यान से और आपकी निगरानी से तक़वा हासिल होगा। वह नौजवान जो किसी लुभाने वाले वाक़ए में अपने आपको हराम से बचाता है, उसका यह काम उसके अंदर तक़वे की ताक़त पैदा करता है और उसे मज़बूत बनाता है, उसके भीतर सुरक्षित रहने की हालत पैदा करता है और उसके सुरक्षित रहने की ताक़त बढ़ाता है। यह रमज़ान के संबंध में कुछ जुमले थे।
अब कुछ बातें यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के बारे में। यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के मसलों और उस उम्मीद के बारे में जो यूनिवर्सिटियों पर भरोसा रखने वालों के दिलों में, स्टूडेंट्स आंदोलन के संबंध में पायी जाती है, आपने जो बातें कही हैं, बिल्कुल सही हैं। मैं भी उनकी पुष्टि करता हूं। मैं संक्षेप के साथ कुछ बातें अर्ज़ करना चाहता हूं। अलबत्ता अगर इंशाअल्लाह आज संक्षेप में बयान कर सका तो। यहाँ कुछ बातें मैंने नोट कर रखी हैं, उन्हें बयान करुंगा, वह भी यही स्टूडेंट्स की पहचान का मुद्दा है। देखिए उन सदियों के दौरान जब पश्चिमी सभ्यता हमारे मुल्क में आयी, हमसे उसने संपर्क क़ायम किया और पश्चिम वालों और उनकी सभ्यता से हमारा सामना हुआ तो ईरानी नौजवानों को पश्चिमी सभ्यता के संबंध में दो विरोधाभासी अनुभव हुए। उसका पहला तजुर्बा जिसका नतीजा सम्मोहित हो जाना और ख़ुद को भूल जाना है और दूसरा तजुर्बा, उसके बाद का तजुर्बा है जिसका नतीजा पहचान, ख़ुद के चयन पर आधारित व्यवहार और आत्मनिर्भरता का जज़्बा और कुछ मौक़ों पर पूरी तरह अलग और दूरी का एहसास है। इन दोनों रिएक्शन्स के बारे में मैं संक्षेप में कुछ अर्ज़ करुंगा।
पहले रिएक्शन में, पहली बार सामना होने पर, जब पश्चिम वालों, पश्चिमी तत्वों और कुछ पश्चिमी नमूनों से हमारा सामना हुआ तो ईरानी नौजवान, बात नौजवानों की है, मैं नौजवानों के बारे में बात कर रहा हूं, दूसरे वर्ग का एहसास भी क़रीब क़रीब नौजवानों के एहसास जैसा ही है, लेकिन इस वक़्त मैं नौजवानों के बारे में कुछ अर्ज़ करना चाहता हूं, जब पहली बार पश्चिमी सभ्यता का सामना हुआ तो एक सोच उनके भीतर पनपी और वह यह थी कि "पश्चिम विकसित है और ईरान पिछड़ा हुआ और कमज़ोर है", "पश्चिम कामयाब और ईरान नाकाम है" यह बात उनके मन में आयी। जब ईरानी नौजवानों ने पश्चिम की तरक़्क़ियों, पश्चिम के इल्म और पश्चिम की टेक्नालोजी वग़ैरह को देखा तो उनके अंदर यह एहसास पैदा हुआ कि वे पिछड़े हुए हैं, कमज़ोर हैं। वह विकसित है इसलिए उसके पीछे चलना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए।
हक़ीक़त भी यही थी, यानी 100 साल पहले ईरान सचमुच पश्चिम से बहुत पीछे था। इसकी वजहें, कारण और सबब हैं जिनकी लंबी तफ़सील है और हमारी आज की चर्चा में उनकी जगह नहीं है। लेकिन बहरहाल यह हक़ीक़त थी। लेकिन एक अहम बिन्दु यहाँ पाया जाता है। अगर आप सामने वाले पक्ष को देखें, मिसाल के तौर पर पश्चिम पर आपने नज़र डाली, उसके ताक़तवर पहलुओं को देखा और वे पहलु आपके ध्यान को आपकी कमज़ोरी की ओर को ले गए और आपको सोचने पर मजबूर कर दिया तो यह अच्छी बात है। इंसान देखे कि उन्होंने क्या किया है और हमें क्या करना चाहिए। फ़र्ज़ करें कि उन्होंने साइंस के मैदान में तरक़्क़ी की, हमें भी इस मैदान में तरक़्क़ी करनी चाहिए। अगर यह हो तो अच्छी बात है। लेकिन यह हुआ नहीं। पश्चिम को इस हैसियत से देखा गया कि वह कामयाब है, उसकी ताक़त के पहलू इस बात का कारण बने कि हम अपने मज़बूत पहलुओं को भूल बैठे! हमारे अंदर भी ताक़त के बिंदु थे। ईरानी क़ौम में ताक़त के पहलू भी थे। उसके अंदर ईमान था, ख़ुलूस था, ख़ानदान था, वफ़ादारी थी, शर्म थी, ये हमारे ताक़तवर पहलू हैं। हम इनकी ओर से ग़ाफ़िल हो गए। इस दौर के नौजवानों ने ताक़त के इन पहलुओं की ओर से ग़फ़लत की। ख़ुद को भुला दिया। मुल्क में कुछ लोग ज़ाहिर हुए, यह पहले से मौजूद थे, उन्होंने इस ग़फ़लत को और बढ़ावा दिया। यानी इसके बजाए कि होश में आते, ख़ुद को भुला देने के चरण में पहुंच गए और अवाम में यह सोच फैलाई कि अगर आप तरक़्क़ी करना चाहते हैं, अगर आप चाहते हैं कि आपकी ज़िंदगी, आपका अमल और आपकी क्षमता वहाँ तक पहुंच जाए जो आप पश्चिम में देखते हैं, तो हर बात में उनके जैसा बनना होगा। पश्चिम के रंग में रंग जाएं, आप अपनी अस्ल और बुनियादी हक़ीक़त के साथ कहीं नहीं पहुंच सकते! यही तक़ीज़ादे की मशहूर बातें (6) हैं जिसमें कहा गया था कि सिर से पैर तक पश्चिम के रंग में रंग जाओ, पश्चिमी लेबास हो, पश्चिमी सभ्यता हो, पश्चिमी रहन सहन हो, हमारी हर बात पश्चिमी होनी चाहिए ताकि हम उन तक पहुंच सकें। और फिर अहम बात यह है कि इन बातों में, नैतिक मसलों में, रहन सहन और वैचारिक मसलों में पश्चिम का अनुसरण हुआ लेकिन बुनियादी मसलों में जिस पर पश्चिम का एकाधिकार था, कुछ न हुआ। यूनिवर्सिटी का एक ढांचा बना दिया गया लेकिन रज़ा ख़ान के दौर में उस यूनिवर्सिटी से कोई नुमायां हस्ती, कोई ईजाद, कोई नया काम, कोई वैज्ञानिक उपलब्धि बाहर नहीं आयी। पश्चिम वालों ने भी इसी भावना को बढ़ावा दिया। पश्चिम वालों ने इसी भावना और इसी यक़ीन को बढ़ावा दिया कि पश्चिम का अनुसरण और पालन होना चाहिए। उस ज़माने में मुल्क में, पश्चिमी मुल्कों के प्रतिनिधि अस्ल में अंग्रेज़ थे जिनका यहाँ हर चीज़ पर कंट्रोल था, वे हर चीज़ पर हावी थे। वे एक तानाशाह को सत्ता में लाए, रज़ा ख़ान सत्ता में आया। उसने सत्ता की लालच, तानाशाही और बदमाशी से सब कुछ अपने अख़्तियार में कर लिया और उसके आस-पास ऐसे लोग इकट्ठा हो गए जो वैचारिक लेहाज़ से, चूंकि ये बातें उनकी अक़्ल में नहीं समाती थीं, पश्चिम की ओर झुकाव रखते थे और उन्होंने हक़ीक़त में अवाम के बीच, पश्चिम के अनुसरण और पश्चिमी सभ्यता में डूब जाने को बढ़ावा दिया, पश्चिमी सभ्यता के लिए जगह बनायी, उसको अपनाया और हमारी अर्थव्यवस्था, हमारे मुख़्तलिफ़ मसलों, हमारे सामाजिक मसलों में पश्चिमी सभ्यता को प्रचलित किया। पश्चिम का सपोर्ट करने का परचम हक़ीक़त में इन्हीं लोगों के हाथ में था।
रज़ा ख़ान पश्चिम के अनुसरण के विध्वंसक पहलू का प्रतीक था। पश्चिम का तबाह करने वाला अनुसरण। इन लोगों ने सब कुछ पश्चिम के हाथ में दे दिया था जिसका नतीजा यह हुआ कि मुल्क भीतर से खोखला हो गया था। जैसा कि जब उन्हीं अंग्रेज़ों ने 20 साल बाद रज़ा ख़ान को सत्ता से हटाया और ले गए, तो न मुल्क की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था थी, न राष्ट्रीय विदेश नीति थी, यहाँ तक कि राष्ट्रीय लेबास भी नहीं था! यानी उन्होंने मुल्क की तरक़्क़ी को लेबास में बदलाव और ख़ास तरीक़े से बेल्ट लगाने तक सीमित कर दिया था। उन्होंने इस तरह पश्चिम का सामना किया। क़ाजारी और पहलवी दौर के एक राजनेता, एक आला अधिकारी मुख़्बेरुस्सलतनत हिदायत के हवाले से है कि वह कहता है कि निगाहें, पश्चिम की लाइब्रेरियों और प्रयोगशालाओं पर नहीं बल्कि पश्चिमी शहरों की सड़कों पर थीं।
तक़ीज़ादे, फ़ुरूग़ी और हिकमत जैसे लोग सबसे ज़्यादा क़ुसूरवार थे जिन्होंने हमारे मुल्क को दसियों साल पीछे कर दिया। ध्यान दीजिए कि अगर उनकी जगह ईरान से मोहब्बत करने वाले हमदर्द लोग होते तो निश्चित तौर पर वे मुल्क को आगे ले जा सकते थे। उन्होंने मुल्क को पीछे रखा। पश्चिम के संबंध में उनका यह रवैया और उनकी यह समझ थी।
दूसरा तजुर्बा! मेरी नज़र में यह भी अहम है। उसने हमें यहाँ तक पहुंचाया। कड़वी घटनाओं से अवाम पर हक़ीक़त ज़ाहिर हो गयी। हमारे मुल्क में पश्चिम की ज़ालेमाना और अन्यायपूर्ण हरकतें, मुल्क के कुछ इलाक़ों पर ब्रिटेन और रूस का क़ब्ज़ा। उस दौर में उसे भी पश्चिम में गिना जाता था, बाद में सोवियत यूनियन के ज़रिए ईरान के कुछ हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया, मुल्क के उत्तर, दक्षिण और पूरब में कुछ जगहों को उन्होंने अपने कंट्रोल में ले लिया था, अवाम का दमन किया और मुल्क को भुखमरी में ढकेल दिया। हज़ारों लोग, सटीक आंकड़े हमारे पास नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि दसियों लाख, मुल्क पर पश्चिम की ओर से थोपी गयी भुखमरी में मर गए। उस अकाल में जिसे उन्होंने थोपा था, मुल्क के भीतर आंदोलनों का दमन किया, तबरीज़ में, मशहद में, गीलान में अलग अलग तरीक़े से आंदोलनों का दमन किया गया। ग़द्दारियां हुयीं, रज़ा शाह जैसे लोगों के हाथों वुसूक़ुद्दौला समझौता (7) डी आरसी तेल के समझौते का दायरा (8) बढ़ाया गया। इन कामों की वजह से धीरे धीरे बुद्धिमान वर्ग और अवाम में ख़ास तौर पर नौजवान वर्ग, पश्चिम को समझने लगा। मालूम हो गया कि इस ज़ाहिरी चमक दमक और मुस्कुराहटों के पीछे कितना घिनौना अंतर्मन है, उनका घिनौना अंतर्मन ज़ाहिर हो गया। यह महसूस कर लिया गया और धीरे धीरे मुल्क के अवाम और नौजवान वर्ग में पश्चिमी सभ्यता की ओर झुकाव और आकर्षण कम हो गया। सन 1950 और 1951 में राष्ट्रीय आंदोलन निश्चित तौर पर एक अहम मोड़ था, यह इतिहास रचने वाला मोड़ था। एक ऐसा मोड़ था जिसने पश्चिम की अस्लियत को बेनक़ाब कर दिया। उस आंदोलन, उसकी तैयारी, उसके अंजाम और नतीजे ने ईरानी अवाम के लिए पश्चिम की अस्लियत और पश्चिम के अंतर्मन को ज़ाहिर कर दिया। तेल के मसले में ब्रिटेन के ख़िलाफ़ संघर्ष में मुसद्दिक़ की सारी उम्मीदें अमरीका से और ब्रिटेन के मुक़ाबले में अमरीकी सपोर्ट पर निर्भर थीं, मुसद्दिक़ को ज़ाहिरी तौर पर अमरीका से यह उम्मीद थी कि वह ब्रिटेन के मुक़ाबले में उनका सपोर्ट करेगा, लेकिन अमरीका ने मुसद्दिक़ को ज़बर्दस्त चोट पहुंचायी। वही अमरीका जिसकी मदद की मुसद्दिक़ को उम्मीद थी, उसी ने तख़्ता उलट दिया।
किम रूज़वेल्ट जिसने 19 अगस्त की बग़ावत करवायी, अमरीकी था। यह बग़ावत अमरीकी पैसों से और उसी की योजनाबंदी से की गयी थी जिसके बाद दसियों साल मुल्क उसके वर्चस्व का शिकार रहा। इन वाक़यों का एक नतीजा निकला। वह नतीजा यह था कि तरक़्क़ी के लिए पश्चिम पर भरोसा न सिर्फ़ यह कि मदद नहीं करेगा बल्कि रुकावट बनेगा। यानी पश्चिम पर भरोसा करके न सिर्फ़ यह कि तरक़्क़ी नहीं होगी बल्कि यह भरोसा तरक़्क़ी की राह में रुकावट बनेगा। मालूम हुआ कि ईरान में पश्चिम की बड़े और नाजायज़ हिस्से की तलब और उसके हितों से जो टकराएगा उससे वे बेरहमी से पेश आएंगे जैसाकि 19 अगस्त को किया गया कि तख़्ता उलट दिया गया। या इनडाटरेक्ट काम करेंगे यानी अपनी पिट्ठू सरकार के ज़रिए काम करेंगे जिस तरह कि 5 जून 1963 को नरसंहार किया लेकिन यह नरसंहार मोहम्मद रज़ा के हाथों करवाया गया। इस हालत ने ईरानी अवाम पर पश्चिमी सभ्यता की अस्लियत को ज़ाहिर कर दिया। ईरानी नौजवान उसे समझ गया, जिसके नतीजे में रिएक्शन शुरू हुए, कुछ लोग सीना तान कर खड़े हो गए। अगस्त (1953) में बग़ावत हुयी और फिर उसी साल दिसम्बर में (9) तत्कालीन अमरीकी उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के ईरान दौरे के ख़िलाफ़ तेहरान यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स उठ खड़े हुए, प्रतिरोध किया और तीन स्टूडेंट्स, हुकूमत के तत्वों के हाथों क़त्ल कर दिए गए, जान से हाथ धो बैठे। उस दिन से आंदोलन शुरू हो गया। अलबत्ता इस बात पर ध्यान रहे कि युनिवर्सिटी का बहुत से वाक़यों में रोल रहा है। जी हाँ आज युनिवर्सिटी इंक़ेलाब से पहले की यूनिवर्सिटी से, यहाँ तक कि इंक़ेलाब के बाद की यूनिवर्सिटी से, या बीस साल पहले से बहुत अलग है। अनेक मुद्दों के बारे में उसकी समझ बहुत गहरी है। उसमें दृढ़ता भी अच्छी है। उसके विपरीत जो प्रोपैगंडा किया जाता है और कहा जाता है कि ईरान के यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स की नई नस्ल और नौजावन 80 के दशक के नौजवानों की तरह तैयार नहीं है। ऐसा नहीं है। यह तैयारी आज भी मौजूद है। हमने मुख़्तलिफ़ मामलों में इस चीज़ को नोटिस किया है। आज भी दुश्मन के मुक़ाबले में अग्रिम पंक्ति में रहने के लिए ईरानी नौजवान की तैयारी हम ख़ुद अपनी आँखों से देख रहे हैं, दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए तैयार हैं। मुद्दों को लेकर उनकी समझ भी बेहतर है और उनकी तैयारी अलहम्दोलिल्लाह बहुत अच्छी है।
लेकिन वह भ्रमित नज़रिया ख़त्म नहीं हुआ। वह सिलसिला जारी रहा। इंक़ेलाब के शुरू तक यह गुमराह सिलसिला आवाम की ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रहा था। यानी अगर 1979 में इंक़ेलाब न आया होता तो उस वक़्त के उच्चाधिकारियों और सांस्कृतिक मामलों के अधिकारियों का काम ऐसा था कि जो देश को नैतिक व अध्यात्मिक विशेषताओं और अध्यात्मिक पूंजी से वंचित कर रहा था। विदेशों पर, अमरीका पर, अन्य देशों पर निर्भरता, भौतिक व आध्यात्मिक दोनों तरह की निर्भरता रोज़ ब रोज़ बढ़ रही थी और ज़्यादा से ज़्यादा लूट मार के लिए इनके हाथ खोल रही थी। इंक़ेलाब ने जनता की मदद की, देश की मदद की और इस हमले को रोका। उन्होंने इंक़ेलाब तक यह सिलसिला जारी रखा।
मैं इसे बहुत ज़्यादा अहमियत देता हूँ। इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) का कमाल यह था कि उन्होंने किसी ख़ास तबक़े, या जमाअत या गिरोह से नहीं बल्कि ख़ुद जनता से बात की, राष्ट्र को पहचान दी, उससे अपील की और उससे अपेक्षा प्रकट की। वे जनता को मैदान में लाए, राष्ट्र को मैदान में उतारा, ये इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) का बड़ा कमाल है। अतीत की किसी भी घटना में, इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) के निमंत्रण पर शुरू होने वाले इस महान आंदोलन की तरह का कोई आंदोलन नज़र नहीं आता। अलबत्ता इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) जैसी कोई हस्ती भी हमारे पास नहीं थी। इस तरह आपने राष्ट्र में अपनी पहचान का एहसास पैदा किया, जनता को मैदान में आने के लिए कहा, उसके अंदर आत्म विश्वास पैदा किया, ईरानी राष्ट्र को उसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान की याद दिलाई और हम सबको ग़फ़लत से बाहर निकाला।
हमें ख़ुद अपनी क्षमताओं का पता नहीं था। इमाम ख़ुमैनी ने हमें अपनी क्षमताओं का ध्यान दिलाया और हमें मैदान में उतारा। वे जनता को मैदान में लाए। इस काम में उन्होंने वाक़ई संघर्ष किया और ख़ुदा ने काम में बरकत दी। हमारी जनता रोब में नहीं आई, धौंस से प्रभावित नहीं हुई, इमाम ख़ुमैनी ने उसके रोब में आने का रास्ता बंद कर दिया। यह पश्चिमी सभ्यता, पश्चिम की इस भौतिक सभ्यता पर ईरानी जनता ख़ास तौर पर नौजवानों की दूसरी प्रतिक्रिया थी। इस बारे में हम काफ़ी बात और चर्चा कर चुके हैं। वैश्विक बदमाश, जिन्होंने काफ़ी बरसों तक ईरान में जो चाहा किया, पचास हज़ार फ़ौजी और ग़ैर फ़ौजी सलाहकार यहाँ लाए, देश के संसाधनों में से जो चाहा ले गए, जो बात चाही थोप दी: "किसे तेल बेचो, किसे न बेचो, किससे संबंध रखो, किससे न रखो, किसे प्रधानमंत्री बनाओ, किसे न बनाओ, धर्मगुरुओं से किस तरह पेश आओ, यूनिवर्सिटी से क्या बर्ताव करो।" काफ़ी बरसों तक वे इस तरह इस देश में रहे। उनका क़ब्ज़ा ख़त्म कर दिया गया है तो वे ख़ामोश नहीं बैठ सकते। इंक़ेलाब की शुरुआत से अब तक उन्होंने इसके ख़िलाफ़ अभियान चलाया है, मुक़ाबला किया है, साज़िश की है, जो भी कर सकते थे, वह किया है।
अलबत्ता इस पूरी अवधि में ख़ुदा की कृपा से इंक़ेलाब उन पर हावी रहा। वैश्विक बदमाश कहते हैं कि दुनिया हमारी बात माने! आप देख ही रहे हैं। आज आप देख रहे हैं, एक नमूना दुनिया में सभी देख रहे हैं:(10) "सब हमारा अनुसरण करें, सब हमारे हितों को अपने हितों पर प्राथमिकता दें। सबसे पहले हम हैं।" ये तो दुनिया में वे आज सभी को दिखा रहे हैं। वास्तव में वे पश्चिम की असलियत दुनिया के सामने ला रहे हैं। अलबत्ता मेरे ख़याल में, मैं इस तरह समझता हूँ, कि इस्लामी ईरान ऐसा एकमात्र देश है जिसने पूरी ताक़त से इसे रद्द कर दिया है। हमने दो टूक अंदाज़ में कहा है कि हम दूसरों के हितों को अपने हितों पर कभी प्राथमिकता नहीं देंगे।
अब नौजवान ईरानी छात्रों की तरफ़ वापस आते हैं। आज मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि दुश्मन की यह हरकत और नीति, इसी अंधे अनुसरण, कमज़ोरी और निर्भरता को प्रचलित करने के लिए है। दुश्मन की तरफ़ से लोग पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं, नए तरीक़ों से, ख़ास तौर पर जो साइंसी प्रगति हुई, उस से, इंटरनेट वग़ैरा के ज़रिए वे इस बारे में काम कर रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं। हमारी यूनिवर्सिटियों के छात्र कहाँ हैं? अलबत्ता यहाँ जो कुछ कहा गया, जो बातें बयान की गईं, यहाँ जो जज़्बा ज़ाहिर किया गया, वह बहुत अच्छा है। दुश्मन हमारे देश में अपना प्रभाव क़ायम करना, क़ब्ज़ा करना और हाथ से निकल जाने वाला प्रभुत्व दोबारा हासिल करना चाहता है, उसकी साज़िशों का मुक़ाबला इसी जज़्बे, इसी एहसास और यूनिवर्सिटी के छात्रों के आंदोलन से ही किया जा सकता है। इसमें शक नहीं है।
दुश्मन के इस अभियान के मुक़ाबले में, यह अभियान जो मैंने कहा, नए तरीक़े से चलाया जा रहा है, इस्लामी आंदोलन भी अलहम्दो लिल्लाह आगे बढ़ रहा है। आज दीनी मामलों में, नैतिक मामलों में, यहां तक कि इरफ़ानी मामलों में, नए काम बहुत अच्छे हो रहे हैं। ख़ुदा का शुक्र है कि आज धार्मिक शिक्षा केंद्रों में, यूनिवर्सिटियों में और समाज के विभिन्न मैदानों में, विचारकों ने काफ़ी प्रगति की है। इस्लामी शिक्षाओं को समझाने के लिए उन्होंने बहुत उचित भाषा अपनाई है और उससे लाभ उठा रहे हैं। वही बातें जो आपने यहाँ कही हैं, यूनिवर्सिटी छात्रों की बैठकों में इससे दस गुना ज़्यादा अधिक उपलब्ध कराई जा सकती हैं। मैं बाद में इसकी तरफ़ एक इशारा करूँगा। यह वही चीज़ है जिसकी मैंने कुछ समय पहले, इन्हीं मुलाक़ातों में सिफ़ारिश की है, "बातें सामने रखना"(11) एक काम यह है कि सोशल मीडिया के लिए कंटेंट तैयार किया जाए। यह वो काम है जो आप कर सकते हैं। आप सोच तैयार कर सकते हैं। मुद्दों के बारे में आप जो गहरी समीक्षा कर सकते हैं, उसे पेश करें, यही कंटेंट और सोच की तैयारी है जिसकी हमें अपेक्षा है।
यूनिवर्सिटी छात्र को यहाँ होना चाहिए। छात्र की जगह यह है। यूनिवर्सिटी के छात्र को एक शिक्षक की तरह, एक बेदार करने वाले की तरह, मार्गदर्शन करने वाले एक दिए की तरह काम करना चाहिए। अपने उचित माहौल में, अपनी क्षमता भर यह काम करना चाहिए। यही वह चीज़ है जो मेरी नज़र में हमारे यूनिवर्सिटी के प्रिय छात्रों की पहचान है। यही बोलने की शक्ति, बयान करने और तथ्यों को सामने लाने की क्षमता।
अलबत्ता मेरी कुछ सिफ़ारिशें भी हैं। पिछले साल भी मैंने कुछ सिफ़ारिशें की थीं। यहाँ कुछ बातें बयान कीं।(12) मेरी एक सिफ़ारिश यह थी कि छात्र संगठन यूनिवर्सिटियों के अंदर यह काम करें। यह मेरी ताकीद है। यह काम, जो मुझे रिपोर्ट दी गई है, उसके मुताबिक़ जिस तरह यह काम होना चाहिए था, उस तरह नहीं हुआ। आप नौजवानों से मुझे यह आशा है। रुकावटें हैं, सभी बड़े कामों में, सभी अच्छे कामों में कुछ रुकावटें होती हैं। यह न सोचिए कि हम साफ़ सुथरी तारकोल की सड़क पर आगे बढ़ रहे हैं, नहीं, इस राह में घुमाव है, उतार-चढ़ाव मिलेंगे, मुश्किलें सामने आएंगी, मुश्किलों को नियंत्रित करें। उन पर क़ाबू पाएँ! अगर आप बयान के लिए उचित ज़बान से काम लें तो यूनिवर्सिटी के अंदर आप प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं। आपके संबोधक छात्र हैं, नौजवान हैं, उनके अंदर द्वेष नहीं है, दुश्मनी नहीं है, वह आपकी बात सुनने और मानने के लिए तैयार हैं। ये वही अपेक्षा है जो एक साहब ने यहाँ बयान की और कहा कि "जिन केंद्रों को बात स्पष्ट करनी चाहिए, बयान करना चाहिए, वे अपना काम नहीं कर रहे हैं, वे काम नहीं कर रहे हैं।" ये अपेक्षा आपसे भी है। यूनिवर्सिटियों के छात्र संगठन अध्ययन करें, ख़ुद को तैयार करें, यूनिवर्सिटी के माहौल को अपनी सही सोच से प्रभावित करें। मेरी एक सिफ़ारिश तो यह है।
एक सिफ़ारिश यह है कि हम वैचारिक बैठकें गंभीरता से आयोजित करें। इस विषय पर सोचें, हमारे पास भरोसेमंद विचारक मौजूद हैं, हम वैचारिक बैठकों में उन विचारकों से लाभ उठाएं। उन मीटिंगों में अहम और ताज़ा मामलों पर बात करें। कुछ मामले जिन पर बात की जाती है, वे पहले दर्जे के मुद्दे नहीं हैं, दूसरे और तीसरे दर्जे के मामले हैं। देश के बुनियादी मामले वे मामले हैं जो इंक़ेलाब और समाज से संबंध रखते हैं। सबसे अहम आंतरिक और बाहरी मामलों पर बात करें। विभिन्न मामलों में अलग-अलग समीक्षाएं पेश की जाती हैं। ऐसा न हो कि अख़बारों में और सोशल मीडिया पर सामने आने वाली ये समीक्षाएं आपके अंदर संदेह पैदा कर दें। विभिन्न समीक्षाओं से आप संदेह में न पड़ें बल्कि आप ख़ुद समीक्षा करें। अपनी सोच-समझ और जांच-पड़ताल से ग़लत बातों पर, जो कही जाती हैं, क़ाबू हासिल करें।
मेरी एक सिफ़ारिश यह है। अधिकारियों पर यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के कुछ ऐतराज़ों और आलोचनाओं की वजह पता न होना है। जैसे यह ऐतराज़ कि ऑप्रेशन "वादा-ए-सादिक़-2" (सच्चा वादा-2) उस समय किया गया, फ़ुलाँ वक़्त क्यों नहीं किया गया? अगर फ़ुलाँ समय किया गया होता तो वह घटना न होती। यह सही नहीं है। यह सही नहीं है। जो लोग इन कामों के ज़िम्मेदार हैं, इंक़ेलाब से उनकी मुहब्बत, दिली लगाव और इश्क़ और उनकी तैयारी, हमसे और आपसे कम नहीं है। उन पर आरोप नहीं लगाया जा सकता। वे हिसाब करते हैं, अंदाज़ा लगाते हैं, काम के सभी पहलुओं का जायज़ा लेते हैं, अगर आप भी उनकी जगह होते तो यही काम करते। हमेशा यह संभावना अपने ज़ेहन में रखें और लोगों पर आरोप न लगाएँ। जिन मामलों में आप देखें कि आपके लिए अस्पष्टता है, तो हमेशा यह संभावना रखें कि सही हिसाब-किताब किया गया होगा। मुमकिन है कि ये फ़ैसला सही अंदाज़ों और हिसाब-किताब पर आधारित हो।
मैंने पिछले साल सिफ़ारिश की थी कि आलोचना करें, आलोचना में कोई हरज नहीं है। सवाल किया गया कि किस तरह आलोचना करें? जैसे जंग की हालत में, दुश्मनों से मुक़ाबले की स्थिति में, किस तरह आलोचना करें कि उन्हें बुरा न लगे? आलोचना में कोई हरज नहीं है लेकिन आलोचना और आरोप में फ़र्क़ है। ख़याल रखें कि आलोचना करने में किसी पर आरोप न लगाएँ। सवाल पेश करें। इसमें कोई हरज नहीं है। सवाल पेश किया जाए, मन में जो बात अस्पष्ट है उसे बयान किया जाए लेकिन जवाब का मौक़ा भी हो। कभी कभी कुछ सवालों का जवाब नहीं दिया जा सकता। मौक़ा जवाब के लिए उचित नहीं होता। या किसी मामले में जवाब देना संभव नहीं होता, इस तरह के मामलों में अस्पष्ट बात भी बयान न करें। या संभावनाओं को ठोस बात न बनाएँ।
मेरे विचार में आलोचना करते समय ध्यान रखें कि यह न कहें कि रास्ते बंद हो गए हैं। यानी इस तरह आलोचना करें कि जब आम लोग सुनें तो उन्हें यह महसूस न हो कि कोई रास्ता नहीं बचा है। नहीं, यह नहीं होना चाहिए। कभी कभी कमियाँ इस तरह बयान की जाती हैं कि सुनने के बाद ऐसा लगता है कि वाक़ई कोई रास्ता नहीं बचा है। यह ग़लत है। यह कहना कि फ़ुलाँ आर्थिक या सांस्कृतिक मामले, या इस शैक्षिक मामले या यूनिवर्सिटी के इस मामले के हल का कोई रास्ता नहीं बचा है, यह ग़लत है। यह बात जनता को निराश करती है। इससे पूरी तरह से दूर रहना चाहिए। मतभेद पैदा करना, धड़ेबंदी, निराशा की बात करना, फ़ैसला करने वाले अधिकारियों के सिलसिले में बदगुमानी फैलाना, आलोचना में ये बातें नहीं होनी चाहिएं।
कभी कभी मुझसे सवाल किए जाते हैं, अलबत्ता सीधे तौर पर नहीं, बल्कि उदाहरण के लिए सोशल मीडिया पर या हमारे दफ़्तर से बयान किया जाता है कि मान लीजिए जब सभी मंत्रियों को विश्वास मत मिल गया तो ख़ुशी क्यों जताई गई जबकि संभव है कि उनमें से कुछ उनकी कसौटी पर खरे न उतरते हों? एक सवाल यह भी है। अच्छा, यह भी एक सवाल है। इसका जवाब यह है कि सभी मंत्रियों को संसद से विश्वास मत मिल जाना एक अच्छी बात है। अगर किसी मंत्री को विश्वास मत न मिले, तो उसका विभाग एक निश्चित समय तक बिना नेतृत्व के रहेगा। किसी विभाग का बिना नेतृत्व के रहना, इससे अधिक बुरा है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जो संभवतः कसौटी पर पूरी तरह खरा न उतरे। यदि कोई नेतृत्व ही न हो, तो अव्यवस्था की स्थिति पैदा होती है। इसलिए, यह बहुत अच्छी बात है कि सरकार एक उपयुक्त समय पर गठित हो जाए और शासन के कार्यों को चलाने लगे। सरकार को प्रशासनिक कार्यों को चलाने में सक्षम होना चाहिए। सभी मंत्रियों को संसद से विश्वास मत मिल जाना वास्तव में एक सकारात्मक संकेत है और यह स्वाभाविक है कि इस पर ख़ुशी महसूस हो। संभव है कि किसी मंत्री का प्रदर्शन पूरी तरह से संतोषजनक न हो या उसकी कुछ विशेषताएँ सकारात्मक न हों लेकिन इनमें विरोधाभास नहीं है। इस प्रकार की बातें तो होती ही हैं। संक्षेप में यह कि एक छात्र को इस पर अधिक चिंतित नहीं होना चाहिए। ये देश के बुनियादी और मुख्य मुद्दे नहीं हैं। असली मुद्दे, जैसा कि मैंने कहा, दूसरे हैं।
अब मैं अमरीका की ओर से वार्ता के निमंत्रण के मुद्दे पर कुछ बातें कहना चाहता हूँ। पहले तो यह कि अमरीकी राष्ट्रपति(13) कहते हैं कि हम ईरान के साथ वार्ता के लिए तैयार हैं और हमें वार्ता का निमंत्रण देते हैं। उन्होंने दावा किया है कि उन्होंने एक पत्र भेजा है अलबत्ता वह ख़त हमें नहीं मिला है, यानी वह मुझ तक नहीं पहुँचा है। मेरे विचार में, यह एक प्रचारिक चाल है, जो विश्व जनमत को धोखा देने के लिए है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि हम वार्ता में विश्वास रखते हैं, हम वार्ता करना चाहते हैं, हम शांति चाहते हैं, हम संघर्ष नहीं चाहते लेकिन ईरान वार्ता के लिए तैयार नहीं है। सवाल यह है कि ईरान वार्ता क्यों नहीं करना चाहता? यह बात ख़ुद से पूछें। हमने कई वर्षों तक वार्ता की और अंत में, इसी व्यक्ति ने, उस समझौते को टेबल से उठाकर फाड़ दिया जिस पर वार्ता पूरी हो गई थी, जिस पर दस्तख़त हो गए थे।(14) ऐसे व्यक्ति के साथ किस तरह वार्ता की जा सकती है? हमारी इस बात के जवाब में एक अख़बार के समीक्षक ने कहा कि "जनाब! दो लोग जो एक-दूसरे से युद्ध करते हैं, वही वार्ता की मेज़ पर बैठ कर शांति वार्ता करते हैं, वे भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। यह अविश्वास, वार्ता में बाधा नहीं बनता।" यह ग़लत है। वही दो लोग, जो शांति वार्ता करते हैं, अगर उन्हें यह विश्वास न हो कि जो समझौता लिखा जा रहा है, उसका पालन किया जाएगा, तो वे वार्ता नहीं करेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि यह काम बेकार है, निरर्थक है। वार्ता में यह विश्वास होना चाहिए कि सामने वाला पक्ष अपने किए गए वादों को निभाएगा। जब हमें पहले से ही यह मालूम है कि वह अपने वादों को पूरा नहीं करेगा, तो फिर कैसी वार्ता? इस लिए अमरीका की वार्ता की पेशकश वास्तव में विश्व जनमत को धोखा देने के लिए है।
जहाँ तक अमरीकी प्रतिबंधों की बात है तो व्यापक परमाणु समझौते के संबंध में 2010 के दशक में हमारी वार्ता शुरू से ही, प्रतिबंधों को समाप्त करने के लिए थी। सौभाग्य से दुनिया में प्रतिबंधों का प्रभाव कम हो रहा है। जब प्रतिबंध जारी रहते हैं तो धीरे-धीरे उनका प्रभाव समाप्त हो जाता है। इसे वे स्वयं भी स्वीकार कर रहे हैं। यानी वे स्वयं भी स्वीकार करते हैं कि जिस देश पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं, वह धीरे-धीरे उन्हें निष्प्रभावी बनाने का मार्ग खोज लेता है। हमने इसके कई रास्ते खोज लिए हैं। यह सही है कि प्रतिबंध निष्प्रभावी नहीं होते लेकिन ऐसा नहीं है कि अगर हमारी आर्थिक स्थिति ख़राब है तो उसकी एकमात्र वजह प्रतिबंध ही हैं। कभी-कभी हमारी असावधानी भी प्रभाव डालती है। कुछ नहीं बल्कि अधिकांश समस्याओं की वजह ख़ुद हमारी असावधानी है। इन समस्याओं का एक भाग प्रतिबंधों से संबंधित है और प्रतिबंध भी धीरे-धीरे निष्प्रभावी हो जाता है। यह भी एक ठोस हक़ीक़त है।
परमाणु हथियारों के संबंध में भी जो बार-बार यह कहा जाता है कि हम ईरान को परमाणु हथियारों तक पहुँचने नहीं देंगे। अगर हम परमाणु हथियार बनाना चाहते तो अमरीका हमें रोक न पाता। अगर हमारे पास परमाणु हथियार नहीं हैं या हम उन्हें नहीं बना रहे हैं तो इसकी वजह यह है कि कुछ वजहों से हम ख़ुद इस फ़िक्र में नहीं हैं। इन वजहों को हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं और इस पर चर्चा कर चुके हैं। हमने ख़ुद नहीं चाहा वरना अगर हम चाहते तो वे हमें रोक न पाते।
एक और बिंदु यह है कि अमरीका हमें सैन्य धमकी देता है! मेरी नज़र में यह बचकाना काम है। युद्ध, युद्ध की शुरुआत और वार करना एकतरफ़ा नहीं होता। ईरान, जवाबी हमला करने में सक्षम है और निश्चित रूप से करेगा। मुझे पूरा विश्वास है कि अगर अमरीका या उसके सहयोगियों ने कोई ग़लत हरकत की तो अधिक नुक़सान उन्हीं का होगा। अलबत्ता युद्ध कोई अच्छी चीज़ नहीं है, हम युद्ध नहीं चाहते, लेकिन अगर किसी ने हमला किया, तो हमारा जवाब बहुत कठोर और निर्णायक होगा।
एक और बात यह है कि आज अमरीका पहले से ज़्यादा कमज़ोर हो रहा है, मज़बूत नहीं हो रहा है। यह एक सच्चाई है। आर्थिक पहलू से वह कमज़ोर हो रहा है, दुनिया में राजनैतिक स्थिति के लेहाज़ से भी कमज़ोर हो रहा है, आंतरिक रूप से भी कमज़ोर हो रहा है, अपनी घरेलू नीतियों में भी कमज़ोर हो रहा है और सामाजिक मामलों के लेहाज़ से भी कमज़ोर हो रहा है। अमरीका हर तरह से कमज़ोर हो रहा है। आज के अमरीका में तीस साल पहले या बीस साल पहले के अमरीका जितनी शक्ति नहीं है और होगी भी नहीं, हो ही नहीं सकती।
एक और अहम बिंदु यह है कि देश के अंदर कुछ लोग बार-बार यह मुद्दा शिद्दत से उठा रहे हैं कि "जनाब! जवाब क्यों नहीं देते? बातचीत क्यों नहीं करते? अमरीका के साथ क्यों नहीं बैठते? बैठिए।" मैं यह कहना चाहता हूँ कि अगर वार्ता का उद्देश्य प्रतिबंधों को समाप्त कराना है, तो इस सरकार के साथ बातचीत से प्रतिबंध समाप्त नहीं होंगे। दबाव बढ़ाएंगे। इस सरकार के साथ वार्ता, दबाव बढ़ाएगी। मैंने कुछ दिन पहले उच्चाधिकारियों से बात करते हुए कहा था(15) कि वे नई बातें करेंगे, नई माँगें रखेंगे और अधिक क़दम उठाने की माँगें रखेंगे। कठिनाई जितनी आज है, उससे ज़्यादा हो जाएगी। इसलिए बातचीत से कोई समस्या हल नहीं होगी, कोई मुश्किल ख़त्म नहीं होगी। यह भी एक अहम बात है।
आख़िरी बात यह है कि दुश्मन की अपेक्षा के विपरीत, न तो फ़िलिस्तीन का प्रतिरोध ख़त्म हुआ है और न ही लेबनान का बल्कि वे और अधिक शक्तिशाली हुए हैं, उनकी उमंगें बढ़ी हैं। इंसानी लेहाज़ से इन शहादतों से उन्हें नुकसान पहुँचा है लेकिन जज़्बे के लेहाज़ से उन्हें अधिक मज़बूती मिली है। आपने देखा कि सैयद हसन नसरल्लाह (रहमतुल्लाह अलैह) जैसी महान हस्ती उनके बीच से चली जाती है, शहीद हो जाती है, उनकी जगह ख़ाली रह जाती है लेकिन उन्हीं दिनों में, उनकी शहादत के बाद, हिज़बुल्लाह ने ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ जो कार्यवाही की, वह पहले की कार्यवाहियों से ज़्यादा मज़बूत थी। फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध में भी, हनिया जैसी हस्ती, सिन्वार जैसी हस्ती और ज़ैफ़ जैसी हस्ती उनके बीच से चली जाती है लेकिन उन वार्ताओं में, जो ज़ायोनी शासन, उसके समर्थकों और अमरीका के आग्रह पर हुईं, फ़िलिस्तीनी रेज़िस्टेंस मोर्चा, विरोधी पक्ष को अपनी शर्तें मानने पर मजबूर कर देता है। यह इस बात का प्रमाण है कि उसकी उमंगें और अधिक मज़बूत हुई हैं।
यह मेरी आज की अंतिम बात है। मैं स्पष्ट रूप से कह रहा हूँ कि हम पूरी ताक़त से फ़िलिस्तीन और लेबनान के प्रतिरोध का समर्थन करेंगे। इस पर देश के सभी उच्चाधिकारी एकमत हैं। सरकार, माननीय राष्ट्रपति और अन्य सभी इस पर एकमत हैं। इसमें कोई मतभेद नहीं है और इंशाअल्लाह, ईरानी राष्ट्र भविष्य में भी, अतीत की तरह, दुनिया की आक्रामक शक्तियों के ख़िलाफ प्रतिरोध का ध्वजवाहक कहलाएगा।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत और बरकत हो।
1. इस बैठक की शुरुआत में छात्र संगठनों के कुछ प्रतिनिधियों ने राजनीतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए।
2. सूरए बक़रह, आयत नंबर 183
3. सूरए तलाक़, आयत नंबर 2 और 3
4. सूरए बक़रह आयत नंबर 2
5. शरहे चेहल हदीस, पेज नंबर 10
6. सैयद हसन तक़ी ज़ादे, पहलवी सरकार में सीनेट का पहला चेयरमैन।
7. 1919 में अहमद शाह क़ाजार के चांसलर वुसुक़ुद्दौला और ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधियों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके अनुसार ईरान के सभी सैन्य और आर्थिक संस्थान अंग्रेज़ों की निगरानी में दे दिए गए और इसी तरह रेल्वे और कच्ची सड़कों का प्रबंधन भी उन्हें सौंप दिया गया।
8. ईरानी सरकार और विलियम नॉक्स डी'आर्सी के बीच 1901 में एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार उत्तरी हिस्सों को छोड़कर, पूरे ईरान में तेल निकालने और बेचने का ठेका साठ साल के लिए, विलियम डी'आर्सी को दे दिया गया। इसके बदले में डी'आर्सी ने यह बात मानी कि इस ठेके पर काम करने के लिए वह एक कंपनी या कई कंपनियां स्थापित करेगा और वार्षिक बीस हज़ार लीरा नक़द, उतनी ही राशि कंपनी के शेयर से और मुनाफ़े का सोलह प्रतिशत ईरान की सरकार को अदा करेगा।
9. 7 दिसम्बर 1953
10. कुछ देशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर अमरीकी राष्ट्रपति की तरफ़ से टैरिफ़ लगाए जाने की तरफ इशारा किया जा सकता है।
11. 29 बहमन बराबर 18 फ़रवरी के आंदोलन के उपलक्ष्य में, 18/2/2025 को पूर्वी आज़रबायजान प्रांत की जनता से ख़िताब।
12. 7/4/2024 को देश के विश्वविद्यालयों के छात्रों और छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों से रमज़ानुल मुबारक के उपलक्ष्य में मुलाक़ात में रहबरे इन्क़ेलाब की स्पीच।
13. डोनल्ड ट्रम्प
14. डोनल्ड ट्रम्प ने अपने पहले राष्ट्रपति काल में, 8 मई 2018 को एक आदेश जारी करके, अमरीका को परमाणु समझौते से निकाल लिया, जिस पर अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा की सरकार, ईरान और सुरक्षा परिषद के सदस्य पाँच देशों और जर्मनी और यूरोपीय संघ ने हस्ताक्षर किए थे।
15. 9 मार्च 2024 को रमज़ानुल मुबारक के उपलक्ष्य में देश के उच्चाधिकारियों से मुलाक़ात में रहबरे इन्क़ेलाब की स्पीच।