क़ुम प्रांत के शहीदों पर सेमीनार के आयोजकों ने 30 अक्तूबर को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात की और अपने कार्यक्रमों का ब्योरा सुप्रीम लीडर को दिया। इस मौक़े पर तक़रीर करते हुए आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने क़ुम, शहीद, शहादत, शहीद के ज़िक्र और उसके पैग़ाम जैसे विषयों पर बड़ी अहम गुफ़तुगू की।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की यह तक़रीर आज 17 नवम्बर 2022 को सेमीनार में दिखाई गई।
तक़रीर का अनुवाद पेश हैः
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का तर्जुमाः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के परवरदिगार के लिए और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।
सबसे पहले क़ुम से तशरीफ़ लाने वाले सभी प्यारे भाइयों और बहनों को ख़ुश आमदीद कहता हूँ और शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने इरादा किया और एक बार फिर शहीदों के लिए ज़रूरी व अहम याद मनाने के लिए प्रोग्राम आयोजित किया। भाइयों ने जिन सरगर्मियों के अंजाम पाने का ज़िक्र किया उनके बारे में एक जुमला अर्ज़ करूं और फिर अस्ल बात पर आता हूँ।
शहीदों की याद बाक़ी रहना और उनका पैग़ाम सुनना, सेमीनार के आयोजन की दो अहम ख़ासियतें
सभी काम जिनके बारे में आपने बताया कि अंजाम पाए, अच्छे हैं, लेकिन जो काम हम सेमीनार में, सेमीनार से पहले और सेमीनार के बाद अंजाम देते हैं, उसकी बहुत सी ख़ूबियां हैं, जिसमें दो ख़ूबियां सबसे ज़्यादा अहम हैः एक 'याद' और दूसरी 'पैग़ाम'। शहीदों की याद हमेशा बाक़ी रहे, शहीदों के पैग़ाम हमेशा सुने जाने चाहिए, अगर ये सरगर्मियां जो हम अंजाम देते हैं वे इन दो ख़ूबियों से ख़ाली हों, तो इनका कोई फ़ायदा नहीं है। फ़र्ज़ कीजिए, शहीद का स्टैचू बनाना या क़ालीन पर शहीद की तस्वीर वग़ैरह, जी हाँ एक महदूद पैमाने पर-घर या उसके दायरे से आगे- ये सब यादगारें है, अच्छा है, लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जिनमें पैग़ाम होता है। आर्ट जैसे शेर, डॉक्यूमेंट्री, फ़िल्म, किताब या सभाएं पैग़ाम की पहुंचा सकती हैं, हमें इस तरह के कामों की ज़रूरत है। शहीदों के पैग़ाम की हमें ज़रूरत है। हम यह न सोचें कि ʺज़ाहिर सी बात है, सभी शहीदों के पैग़ाम जानते हैंʺ, नहीं, सभी नहीं जानते। आने वाली नई नस्लों को, जो कुछ गुज़रा है, पता होना चाहिए, कॉज़, नज़रिए वग़ैरह। जिन कामों में पैग़ाम हो, उनमें यह बड़ी ख़ूबी होती है। कुल मिलाकर यह कि जो काम आप लोग कर रहे हैं उनमें इस प्वाइंट पर तवज्जो कीजिए।
क़ुम, तहरीक चलाने वाला और दूसरों को तहरीक पर आमादा करने वाला शहर
दोबारा आपका शुक्रिया अदा कर रहा हूं उस काम के लिए जो आपने शुरू किया और अंजाम दिया और इंशा अल्लाह अच्छी तरह आख़िर तक पहुंचाएंगे, दो बातें इख़्तेसार से पेश करुंगा। एक क़ुम के बारे में और दूसरी शहादत और शहीद के बारे में। क़ुम तहरीक चलाने वाला शहर है और तहरीक के लिए दूसरों को तैयार करने वाला शहर है। ऐसा शहर है जो ज़ुल्म के ख़िलाफ़ ख़ुद उठ खड़ा हुआ, ऐसा शहर है जिसने ईरान को तहरीक के लिए तैयार किया, यह क़ुम की ख़ूबी है। अलबत्ता हज़रत फ़ातेमा मासूमा सलामुल्लाह अलैहा की बर्कतों और इस शहर में दीनी तालीमी मरकज़ के वजूद के, इन ख़ूबियों में गहरे असर को भूलना नहीं चाहिए। इसके अलावा, क़ुम के अवाम ने, जिन्हें हमने नज़दीक से देखा है, उनके काम को देखा है, उनके अख़लाक़ को देखा है, उनकी ख़ूबियों को देखा है, हक़ीक़त में अच्छे लोग हैं उन्होंने, 'क़ुम' यानी खड़े हो जाओ के आदेश पर अमल किया, सभी जगहों से पहले तहरीक शुरू की, सभी जगहों से पहले संघर्ष किया, सभी जगहों से पहले शहीदों का नज़राना पेश किया।
इंक़ेलाब के वाक़यों के आग़ाज़ से आज तक हर इम्तेहान में क़ुम का शानदार रिकार्ड
क़ुम के शहीदों के अलावा बहुत से दूसरे शहीद भी हक़ीक़त में क़ुम के शहीद हैं, शहीद मुतह्हरी भी क़ुम के शहीद हैं, शहीद बहिश्ती भी क़ुम के शहीद हैं, बाहुनर भी क़ुम के शहीद हैं, ये क़ुम में तरबियत पाने वाले शहीद हैं और शायद एक जुम्ले में यह कहा जा सकता है कि सारे ईरान के शहीद, क़ुम के शहीद हैं। क़ुम ने इस रास्ते को खोला, क़ुम ने इस तहरीक का आग़ाज़ किया, क़ुम, इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ पर उठ खड़ा हुआ। किसे समझ में आ रहा था कि इमाम ख़ुमैनी सन 1962 और सन 1963 में क्या कह रहे थे? क़ुम के लोग मैदान में निकल आए। यहाँ तक कि जब उन्हें महसूस हुआ कि तहरीक थोड़ा कमज़ोर पड़ गयी है, सन 1962 में जो तहरीक के आग़ाज़ का वक़्त था, क़ुम के लोग उठ खड़े हुए, इमाम की क्लास में शामिल हुए-मैं वहाँ था, मुझे याद है-क़ुम के प्रभावी बिज़नेसमैन और बड़ी तादाद में लोग इमाम की क्लास में आकर बैठ गए, जब इमाम की क्लास ख़त्म हुई, उनमें से एक साहब-अगर मुझे उनका नाम सही से याद हो तो मरहूम तबातबाई साहब- खड़े हुए और इमाम को ख़िताब करके बहुत जोश व ख़रोश से स्पीच शुरू की और उनसे तहरीक जारी रखने को कहा।! हक़ीक़त में इमाम से मुतालेबा किया, इमाम भी मैदान में निकल आए और उसी जलसे में संतुष्ट कर देने वाला, भरपूर जवाब दिया और अमली तौर पर इस तहरीक में, इस मूवमेंट में नई जान फूंक दी, क़ुम के लोग ऐसे हैं। उन दिनों क़ुम में जवान, यहाँ तक कि वे जवान लोग जो आग़ाज़ में इस वादी में उतरे भी नहीं थे, हम देखते थे कि तहरीक शुरू होने के बाद, किस तरह उन्होंने दिलचस्पी दिखाई, इत्तेहाद का मुज़ाहेरा किया, क़ुम के अवाम ऐसे हैं। इसके बाद इंक़ेलाब हो गया, इंक़ेलाब कामयाब हो जाने के बाद और आठ वर्षीय जंग के वाक़यात और उसके बाद से आज तक के वाक़ए, आज तक लगातार हमारी क़ौम और एक एक शख़्स इस इम्तेहान से गुज़र रहा है और इन इम्तेहानों में क़ुम वालों ने बेहतरीन ढंग से कामयाबी हासिल की है।
कला की ज़बान, शहीदों की याद और उनके पैग़ाम को दूसरों तक पहुंचाने की बेहतरीन ज़बान
दूसरे शानदार प्वाइंट्स भी हैं लेकिन मेरी ताकीद इन दो प्वाइंट्स पर ज़्यादा है, यानी वही दो ख़ूबियां ‘याद’ और ‘पैग़ाम’। एक और अहम प्वाइंट शहीद महदी ज़ैनुद्दीन हैं। यह ख़ुद एक शानदार प्वाइंट है। यह शहीद, बीस-बाईस साल का नौजवान, एक दस्ते की कमान संभालते हुए ऐसी महारत का मुज़ाहेरा करता है, जंग के मैदान में ऐसी बहादुरी, ऐसी सूझबूझ, ऐसी सलाहियत का, ऐसी क़ुरबानी का और बाद में उसी तरह अख़लाक़ के मैदान में, दीन पर अमल के मैदान में, दीनी व इस्लामी उसूलों पर ध्यान देने के मामले में भी, यह वाक़ई ग़ैर मामूली बात है, ये बातें अवाम तक पहुंचनी चाहिए, कवरेज मिलना चाहिए।
कला के अलावा किसी और ज़बान में इसे बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ़ कला की ज़बान ही से ज़िन्दगी की इन बारीकियों को बयान किया जा सकता है, या कला के अंदाज़ में लिखी हुयी चीज़ या शेर या फ़िल्म या डॉक्यूमेन्ट्री वग़ैरह जिससे इन चीज़ों पर काम किया जा सकता है। एक और मिसाल यह हैः यहाँ से फ़ौज का एक जवान कमांडर जिसका नाम है शहीद अमीर अहमद लू, क़ुम का एक फ़ौजी है जिसकी ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों में उसके लिए पानी लाया जाता है या कोई शख़्स यह सोचता है कि उसे पानी दे दे ताकि वह प्यासा इस दुनिया से न जाए, यह फ़ौजी जवान पानी नहीं पीता, इशारे से कहता है कि उस सिपाही को पानी दे दिया जाए जो उसके साथ था, यह वही इस्लाम के आग़ाज़ के दिनों की झलक (2) है जिसे हम लोगों ने बार-बार मिंबर पर बयान किया और लोगों ने सुना लेकिन सही तरह से उसे हमने समझा नहीं था। हक़ीक़त में ऐसा हुआ, एक फ़ौजी अफ़सर ने इस हक़ीक़त की अमली तस्वीर हमारे सामने पेश कर दी। क्या यह छोटी बात है? क्या मामूली चीज़ है? क्या इसे कला की ज़बान के अलावा किसी और ज़बान से बयान किया जा सकता है? इस काम को अंजाम दीजिए। या तराना पढ़ने वाले शहीदों की टीम जो पाकीज़ा डिफ़ेंस के नायाब वाक़यात में से एक है (3) मिसाल के तौर पर बारह साल, तेरह साल, चौदह साल के कुछ लड़के तराना पढ़ते हैं, उसके बाद फ़ाइटर जेट आता है इस गिरोह को निशाना बनाता है, फ़ायर करता है, वे सभी या क़रीब क़रीब सभी शहीद हो जाते हैं। उनके तराने कहाँ हैं? उन्होंने क्या पढ़ा? क्या कहा? क्या किया? उनके माँ-बाप ने क्या किया? इन सब बातों को बयान करने की ज़रूरत है, इनमें पैग़ाम हैं। यह क़ुम की ख़ासियतें हैं। यह क़ुम के पाकीज़ा डिफ़ेंस के मौक़े के शानदार प्वाइंट्स हैं। या शहीद औरतें, कई सौ शहीद औरतों का ज़िक्र किया कि इनमें से एक ग्रुप ऐसी शहीद औरतों का है जो इमाम हुसैन की अज़ादारी की सभा में शहीद हुयीं। ये सब हक़ीक़त में बहुत अहम बातें हैं।
शाहचेराग़ जैसा वाक़या तारीख़ का अनमिट व क़ाबिले फ़ख़्र वाक़या
तो यह थी क़ुम और इंक़ेलाब कामयाब होने के क़रीबी वक़्त से आज तक फ़ख़्र से भरे वाक़यों के इस दौर के बारे में, यह चालीस साल से कुछ ऊपर मुद्दत की बातें। इस दौरान होने वाला हर वाक़ेआ, तारीख़ में एक चमकते हुए बिन्दु की तरह, एक सितारे की तरह है। यही कुछ दिन पहले शाहचेराग़ में पेश आने वाला वाक़ेआ,(4) एक सितारा है, यह मिटने वाला नहीं है, यह तारीख़ में बाक़ी रहेगा, यह तारीख़ में क़ाबिले फ़ख़्र वाक़ए के तौर पर बाक़ी रहेगा, जी हां, कुछ लोग सोगवार हुए, इनमें से कुछ वाक़ए दुख देने वाले हैं और इंसान के दिल को ग़म से भर देते हैं, लेकिन सितारे हैं, ये तारीख़ में बाक़ी रहेंगे, ये ऐसे वाक़ए हैं जो भुलाए नहीं जाएंगे। हमारे यहाँ इन चालीस से कुछ ऊपर बरसों में इस तरह के कितने वाक़ए हुए! यह इस बात की निशानी है कि यह क़ौम ज़िन्दा है। यह क़ुम के बारे में।
शहीद लफ़्ज़, दीनी, क़ौमी और अख़लाक़ी उसूलों का मजमूआ
अब शहादत के बारे में कुछ बातें, शहीद ऐसा टाइटल है जिसे सरसरी निगाह से नहीं देखना चाहिए। शहीद लफ़्ज़ में दीनी, क़ौमी और इंसानी वैल्यूज़ छिपी हैं। जब आप 'शहीद' कहते हैं तो हक़ीक़त में यह एक किताब है, दीनी तालीमात का मजमूआ है इस लफ़्ज़ में, यह लफ़्ज़ अख़लाक़ी तालीमात व वैल्यूज़ का मजमूआ है, यह बहुत ही अहम लफ़्ज़ है। यह जो आप देखते और सुनते हैं कि हमारे कुछ शहीद आशिक़ाना अंदाज़ में शहादत की आरज़ू करते थे, तो दरअस्ल अल्लाह ने उनके दिल में एक नूर डाल दिया, इस नूर से वह एक हक़ीक़त को देखते थे, इसी वजह से शहादत के आशिक़ थे। शहीद सुलैमानी कहते थे कि मैं शहादत के लिए बियाबानों में दौड़ रहा हूं, उसके पीछे जा रहा हूँ। उन्हें धमकी दी गई कि तुम्हे मार डालेंगे, उन्होंने कहा कि मैं बियाबानों में उसी के पीछे जा रहा हूँ, इसी के लिए ऊबड़ खाबड़ जगहों से गुज़र रहा हूँ, मुझे डरा रहे हो? इस किताब को कुछ लोगों ने थोड़ा पढ़ा है, उतने ही अध्ययन ने उन्हें अपना दीवाना बना लिया, उतनी ही ने उन्हें आशिक़ बना दिया।
शहीद, सच्चे ईमान और नेकी का आईना
तो, हमने कहा कि (शहीद) दीनी, क़ौमी और अख़लाकी तालीमात का मजमूआ है। लेकिन दीनी मामलों में, पहली चीज़ जो शहीद याद दिलाता है, वह अल्लाह के लिए जेहाद है, शहीद अल्लाह के रास्ते पर चल कर, जेहाद करके शहादत की मंज़िल पर पहुंचा। शहीद सच्चे ईमान का आईना हैः जिन्होंने वह अहद व पैमान सच्चा कर दिखाया जो अल्लाह से किया था, तो उनमें कुछ वे हैं जो अपना वक़्त पूरा कर चुके हैं। (5) यह वही ʺपूरा हो चुका वक़्तʺ है, सच्चाई का आईना है, नेक अमल का आईना है। क्या अल्लाह के रास्ते पर चलने और अपने पूरे वजूद, अपनी पूरी ज़िन्दगी को इस रास्ते में पेश करने से बेहतर कोई अमल हो सकता है? सच्चा ईमान, नेक अमल। यह दीनी पहलू इस छोटे से जुमले में है, जिसमें इल्म व हिकमत की एक दुनिया छिपी हुयी है।
शहीद क़ौमी अज़मत व पहचान का ज़रिया
क़ौमी कल्चर, शहीद और शहादत वे चीज़ हैं जिनसे क़ौमी पहचान नुमायां होती है और क़ौमी पहचान का दर्जा ऊंचा होता है। ईरानी क़ौम ने इसी शहादत की इच्छा से उन लोगों की आँखों में-अलबत्ता दुश्मन का मीडिया प्रोपैगंडा बहुत सी चीज़ें दुनिया वालों के कान तक नहीं पहुंचने देता, लेकिन जो कुछ उनके कानों तक पहुंचा, बहुत सी क़ौमें थीं- अज़मत हासिल की, किस चीज़ से? शहीद से। सिर्फ़ जंग की वजह से नहीं है, जंग तो बहुत सी जगहें हैं, उन फ़िदाकारियों की वजह से है जिनमें शहीद डूब कर निकलता है, इन घरवालों की वजह से है, शहीदों के घरवालों की वजह से, ये माँ बाप, इनकी वजह से है। इनकी ख़बरे जितनी ज़्यादा बाहर लीक हुयीं, इस क़ौम की अज़मत बढ़ी, इसलिए शहीद क़ौमी पहचान को जगमगाता है, नुमायां करता है, उसके दर्जे को ऊपर ले जाता है।
शहीद क़ुरबानी व बहादुरी का आईना
शहीद लफ़्ज़ में -दीन से हट कर- जो अख़लाक़ी तालीम और इंसानी अख़लाक़ी अज़मत छिपी है वह फ़िदाकारी है। शहादत, फ़िदाकारी का मज़हर है। जो शख़्स अपनी जान दूसरों के सुकून के लिए दे दे, सेक्युरिटी की राह में शहीद होने वाला, अपनी जान देता है ताकि दूसरे महफ़ूज़ ज़िन्दगी गुज़ारें, दिफ़ाए मुक़द्दस का शहीद अपनी जान देता है ताकि दुष्ट व ज़ालिम दुश्मन अपने उस वादे को-जो उसने कहा था कि तेहरान जाएंगे और ईरानी क़ौम को ज़लील करेंगे- पूरा न कर सके, शहीद ऐसा होता है। हम और आप अपने अपने घरों में बैठे हैं, वह वहाँ लड़ रहा है ताकि हम चैन की सांस ले सकें, दुश्मन हमारे सुराग़ में न आए। यह फ़िदाकारी अज़ीम अख़लाक़ है, किसी भी दीन, मज़हब और दीनी अक़ीदे से हट कर, लोग इसे अहमियत देते हैं। शहादत, बहादुरी की याद दिलाती है। इसलिए शहीद लफ़्ज़ इन सभी अख़लाक़ी वैल्यूज़ का मुजस्सम रूप है।
शहादत, अल्लाह से सौदा और राष्ट्रीय हित को हासिल करने का ज़रिया
तो इस तरह शहादत एक ओर अल्लाह से सौदा है, वह सच्चाई जो है वह अल्लाह से सौदा हैः इन्नल लाह्श तरा मिनल मोमेनीना अनफ़ुसहुम व अमवालुहुम बेअन्ना लहुमुल जन्नह, यानी बेशक अल्लाह ने मोमिनों से उनकी जानें ख़रीद ली हैं और उनके माल भी इस क़ीमत पर कि उनके लिए जन्नत है।(6) जहाँ तक मुझे याद है अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम और इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से रिवायत है कि तुम्हारी जान की क़ीमत बहुत ज़्यादा है, उसे जन्नत से कम पर मत बेचो। (7) इस जान की बहुत क़ीमत है, आपके वजूद की बहुत ऊंची क़ीमत है, इसे सिर्फ़ जन्नत के बदले में बेचिए। जन्नत से कम पर नहीं कि अल्लाह भी उसका ख़रीदार है, जान अल्लाह की है, अल्लाह भी इसका ख़रीदार है। इन्नल लाहश्तरा मिनलमोमेनीना अनफ़ुसहुम व अमवालुहुम बेअन्ना लहुमुल जन्नह, तो एक ओर यह अल्लाह से मामला है। दूसरी तरफ़ क़ौमी मफ़ाद को हासिल करने का ज़रिया है, पहचान को मज़बूत बनाने वाली है वही जिसके बारे में मैंने कहा। अल्लाह के रास्ते में शहादत से क़ौमी हित और क़ौमी फ़ायदे हासिल होते हैं।
शहादत मुल्क में एकता का सबब और अलग अलग इलाक़ों को जोड़ने वाली कड़ी
शहादत, एकता ला सकती है। आप अपने मुल्क पर नज़र डालिए, अपना मुल्क अलग अलग क़ौमों का मजमूआ है, अलग अलग ज़बानें, अलग अलग क़ौमें, हमारे यहाँ फ़ार्स क़ौम है, तुर्क क़ौम है, अरब क़ौम है, लुर क़ौम है, बख़्तियारी क़ौम है, वग़ैरह वग़ैरह अलग अलग क़ौमें, इन्हें तस्बीह के एक धागे ने आपस में पिरोया है कि तस्बीह के इस धागे का एक हिस्सा वही शहादत है। आप जिस शहर में जाएं, वहाँ आप एक या कई शहीदों के नाम नुमायां पाएंगे। फ़र्ज़ कीजिए मुल्क के उत्तर में जाइये, दक्खिन में, पूरब में, पच्छिम में, जिस शहर में जाइये, शहीदों के नाम नुमायां मिलेंगे। हो सकता है इन शहरों के बीच आपस में बहुत ज़्यादा संपर्क न रहा हो, लेकिन इन शहरों के शहीद एक जगह, एक मक़सद के साथ एक लाइन में शहीद हुए। मिसाल के तौर पर मुल्क के दक्खिन से आने वाला शहीद या मुल्क के उत्तर या मुल्क के पूरब से आने वाला कोई शहीद, सब एक लाइन में थे, एक मक़सद के लिए शहीद हुए, इस्लाम की इज़्ज़त के लिए, इस्लामी जुम्हूरिया की अज़मत के लिए, ईरान को मज़बूत बनाने के लिए, इन चीज़ों के लिए शहीद हुए, एक मक़सद के लिए शहीद हुए। यह, इन क़ौमों को, इन शहरों को, इन इलाक़ों को आपस में जोड़ती है, आपस में मिलाती है, शहादत की ख़ूबी है। इसका दीनी पहलू अल्लाह से मामले का है, इसका क़ौमी पहलू, मुल्क के अलग अलग हिस्सों को आपस में जोड़ना है, उसका अख़लाक़ी पहलू भी जो इस मुल्क की अख़लाक़ी वैल्यूज़ की याद दिलाता है।
नई नस्ल के लिए जंग के ख़ज़ाने को, कला के सांचों में पेश करने पर ताकीद
तो, अब मैं सिर्फ़ एक नसीहत करना चाहता हूं उस बात के तअल्लुक़ से जो पहले पेश की। ये चीज़ें रुकनी नहीं चाहिए। नाचीज़ ने एक बार कहा था कि जंग एक ख़ज़ाना है,(8) हक़ीक़त में ऐसा ही है। मैंने शहीदों के बारे में बहुत ज़्यादा किताबें पढ़ी हैं, जिस किताब को पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि नई बात समझ में आती है। मैं इस वक़्त भी पढ़ता हूँ, दसियों साल हो गए, सन 1980 की दहाई से अब तक, इन किताबों को पढ़ता आ रहा हूं। इनमें से हर एक किताब, जो किसी एक शहीद की ज़िन्दगी के बारे में है, नए दरीचे को खोलती और दिखाती है, चाहे ख़ुद शहीद के बारे में, चाहे इन माँ बाप के बारे में, इन बहादुर माओं के बारे में, इन जवांमर्द बापों के बारे में। हमारी गर्दनों पर इन माँ-बाप का बहुत हक़ है कि हमारे प्यारे शहीदों में से कुछ के माँ-बाप इस जलसे में भी मौजूद हैं।
ये सब चीज़ें ट्रांसफ़र होनी चाहिए और मैंने अर्ज़ किया कि इनमें से ज़्यादातर को शायद नब्बे फ़ीसदी को मुन्तक़िल करने के लिए कला की ज़बान की ज़रूरत है। अलबत्ता मैं यह नहीं कह रहा कि तारीख़, किताब इन जैसी चीज़ें न लिखें, क्यों, लिखी जानी चाहिए, लेकिन जो चीज़ सभी तफ़सील को, छोटी छोटी बातों को, शहादत की ज़राफ़त को, शहीद, दिफ़ाए मुक़द्दस और फ़िदाकारी वग़ैरह को ट्रांसफ़र कर सकती है, वह कला है। मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए मैंने तराने वाले गिरोह का ज़िक्र किया, तो ठीक है, इसके लिए डॉक्यूमेंट्री बनाइये, इस टीम के लिए डॉक्यूमेंट्री बनाइये, सिम्यलेशन बनाइये ताकि लोग अपनी आँखों से देखें, जो वाक़ए हुए, लोगों को दिखाइये। मैं 'अवाम' जो कह रहा हूँ, हम पुराने लोगों ने इन चीज़ों को देखा, लेकिन आप लोगों में से जो यहाँ बैठे हैं, नहीं देखा है, हमारे जवान लोगों ने, नई नस्ल ने नहीं देखा है। ये लोग देखें, क़रीब से देखें कि क्या हुआ था। शहीदों के बारे में जो बायोग्राफ़ी हैं, उनमें इन तफ़सील को देखिए। कला के काम के लिए ज़रूरी प्लेटफ़ार्म मौजूद हैं, डॉक्यूमेन्ट्री फ़िल्में, सिनेमा हॉल की फ़िल्में, सीरियल बनाना, शेर! अल्लाह का शुक्र है कि हमारे पास अच्छे शेर हैं, आपके यहाँ क़ुम में अच्छे शायर मौजूद हैं, शेर कहें, अच्छे शेर कहें ताकि ये यादें बाक़ी रहें।
पूरी क्षमता इस्तेमाल करके शहीद और शहादत की याद व पैग़ाम को आम कीजिए
बहरहाल, आपकी कोशिश क़ीमती है, नाचीज़ सराहना करता हूं और उम्मीद है कि इनशा अल्लाह वे सभी लोग, जिनके दिल इस्लाम के लिए, इंक़ेलाब के लिए, इस क़ौम के लिए, इन जवानों के लिए, इस नई नस्ल के लिए, बच्चों के लिए, हमारे प्यारे ईरान के लिए धड़कते हैं, जो मुमकिन हो, जो गुंजाइश हो, जो सलाहियत हो, इन मैदानों में काम करें, कोशिश करें, शहीद और शहादत को याद और पैग़ाम से इनशा अल्लाह बाक़ी रखें।
हज़रत अहमद बिन मूसा के पाक रौज़े के अज़ीज़ शहीदों की याद को हम मोहतरम मानते हैं, उनके घरवालों को और रिश्तेदारों को दिल की गहराई से ताज़ियत पेश करते हैं, मुबारकबाद भी कहते हैं-क्योंकि अल्लाह के नज़दीक उनका बहुत ऊंचा मक़ाम है-आप सबके लिए अल्लाह से तौफ़ीक़ की दुआ करता हूँ। इमाम की पाक रूह को भी अल्लाह अपनी रहमत व लुत्फ़ में शामिल करे जिन्होंने इस रास्ते को हम सबके लिए खोला।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह