सियासत से मज़हब की दूरी का, जिसका कुछ लोग हमेशा इस्लामी दुनिया में प्रचार करते थे -ये चीज़ हमारे मुल्क में भी थी और अफ़सोस कि आज भी कुछ लोग, सियासत से मज़हब की दूरी का राग अलापते हैं- एक ख़तरा यही है कि जब सियासत, मज़हब से अलग हो जाए तो वो अख़लाक़ियात से भी दूर हो जाएगी, रूहानियत से भी दूर हो जाएगी। सेक्युलर और मज़हब से दूर तक़रीबन सभी सिस्टमों में, अख़लाक़ियात भी मर चुके हैं। अब शायद कभी किसी जगह कोई नैतिक व्यवहार दिखाई दे जाए तो ये मुमकिन तो है, लेकिन ये अपवाद है। जब मज़हब, सियासत से अलग हो गया तो सियासत, ग़ैर अख़लाक़ी बन जाती है जो सिर्फ़ भौतिक चीज़ों और मुनाफ़े के हिसाब-किताब पर आधारित होती है।

इमाम ख़ामेनेई

24 अगस्त 2009