बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः अल्लाह के नाम से जो पूरी सृष्टि का चलाने वाला है और दुरूद हो हमारे नबी व सरदार अबुल कासिम मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनकी पाक व चुनी हुयी नस्ल पर जो मासूम, ख़ुद सही रास्ते पर हैं और दूसरों को रास्ता दिखाने वाले हैं और ख़ास तौर पर इंसानियत को निजात दिलाने वाले हज़रत इमाम महदी पर।

सबसे पहले इस शानदार सभा में हाज़िर आप सभी सम्मानीय लोगों, प्रिय भाइयों व बहनों को सलाम पेश करता हूं। इंशाअल्लाह कामयाब रहें।

इमाम ख़ुमैनी की ज़ियारत और हर साल इमाम के पवित्र मक़बरे के पास होने वाली इस सभा में आने के लिए मन बहुत उत्सुक था। हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हैं कि इस साल रूहानियत और निष्ठा से लबरेज़ इस सभा का आयोजन हुआ।

इमाम ख़ुमैनी इस्लामी जूमहूरियत की रूह हैं। अगर इस्लामी जुमहूरियत से इस रूह को निकाल लिया जाए और इसे नज़र अंदाज़ कर दिया जाए तो यह बेजान तसवीर बनकर रह जाएगी। आज हमारी स्पीच प्रिय व महान इमाम की शख़्सियत के पहलुओं के बारे में है। अलबत्ता पिछले बरसों में, विगत के कुछ बरसों में इमाम ख़ुमैनी की शख़्सियत के पहलुओं के बारे में बातें हुयी हैं। हमने भी बयान किया दूसरों ने भी बयान किया लेकिन इसके बावजूद अभी बहुत कुछ अनकही बातें हैं।

इश्क़ के बारे में जितना भी बयान करुं

जब इश्क़ की हालत में होता हूं तो शर्मिंदा हो जाता हूं कि कुछ बयान ही नहीं कर सका (2)

हमारे महान इमाम की शख़्सियत के बहुत से पहलु अभी अनकहे हैं। अस्ल में क्रांति की मौजूदा नस्ल, ख़ास तौर पर हमारी जवान नस्ल, प्रिय इमाम को सही तरह नहीं पहचानती। बख़ूबी नहीं समझती। इमाम की महानता को नहीं जानती। इमाम की मुझ नाचीज़ से तुलना करती है जबकि बहुत ज़्यादा फ़ासला है। मीलों का फ़ासला है। इमाम सही अर्थ में एक ग़ैर मामूली शख़्सियत थे। इस लेहाज़ से जवान नस्ल के लिए इमाम की पहचान अमहियत रखती है कि मुल्क को बेहतरीन तरीक़े से चलाने में उनको इससे मदद मिलेगी। इमाम ख़ुमैनी सिर्फ़ कल के इमाम नहीं थे, बल्कि आज के भी और कल के भी इमाम हैं। हमारी होशियार नौजवान नस्ल को जो इस इंक़ेलाब के दूसरे चरण में (इंक़ेलाब को चालीस साल पूरे होने के बाद शुरू होने वाले दौर को दूसरा चरण कहा गया है।) राष्ट्रीय और इंक़ेलाबी ज़िम्मेदारी संभालने वाली और मुल्क को चलाने वाली है, उसे एक कारगर सॉफ़्टवेयर की ज़रूरत है ताकि क्रांति के रास्ते पर सही तरह चल सके। क्रांति का यह रास्ता ईरानी क़ौम को चोटी तक पहुंचाएगा, इस काम के लिए एक सॉफ्ट वेयर की ज़रूरत है। एक समग्र व सही सॉफ़्टवेयर जो उसकी मदद करे। यह सॉफ़्टवेयर जो ऊर्जावर्धक, मददगार यहाँ तक कि कुछ मौक़ों पर बदलाव लाने वाला हो, इमाम के दिए गए सबक़ हैं। वह सबक़ जो इमाम की बातों और इमाम के अमल में ढूंढकर निकाले जा सकते हैं। इमाम के बारे में पहली बात जो कहनी चाहिए वह क्रांतियों के इतिहास में सबसे बड़ी क्रांति का नेतृत्व करने की क्षमता है। मैं इस नेतृत्व के बारे में बाद में थोड़ा विस्तार से बात करुंगा।

हम क्यों कह रहे हैं क्रांतियों की तारीख़ में सबसे बड़ी क्रांति? क्रांतियों के इतिहास में छोटी-बड़ी बहुत सी क्रांतियां हैं। इन सबमें फ़्रांस की महाक्रांति ज़्यादा मशहूर है -अट्ठारहवीं ईसवी, 1789 में आई- और इसके बाद सोवियत संघ की क्रांति है –यह बीसवीं शताब्दी ईसवी के शुरू में 1917 में आई- ये दो क्रांतियां, क्रांतियों की तारीख़ की सबसे मशहूर क्रांतियां हैं।

लेकिन इस्लामी क्रांति इन दोनों से बड़ी क्रांति है। सबसे बड़ी क्रांति क्यों? यह कहने की वैसे तो कई वजहें हैं लेकिन मैं एक अहम व बुनियादी बिन्दु की तरफ़ इशारा कर रहा हूं और वह यह है कि दोनों क्रांतियां यानी फ़्रांस की क्रांति और पूर्व सोवियत संघ की क्रांति दोनों को अवाम ने कामयाब बनाया। अवाम ने इन्हें कामयाबी तक पहुंचाया लेकिन क्रांति के कामयाब होने के बाद, अवाम की कोई हैसियत नहीं रही। लोगों को किनारे कर दिया गया। अवाम की उस क्रांति में जिसे वे अपनी कोशिशों से, अपनी जान लगाकर, अपने योगदान से, सड़कों पर आकर अपनी मेहनत से कामयाब किया, कोई भागीदारी नहीं रह गयी थी। नतीजा क्या हुआ? नतीजा यह हुआ कि ये दोनों क्रांतियां बहुत तेज़ी से अपने अस्ली रास्ते से हट गयीं। फ़्रांस की महाक्रांति क़रीब 12-13 साल बाद जो शाही व्यवस्था के ख़िलाफ़ आयी थी, 12-13 साल बाद फिर से फ्रांस में शाही व्यवस्था लौट आयी। नेपोलियन सत्ता में आया, शाही ताज को सिर पर रखा, शाही व्यवस्था पलट आयी। क़रीब 15 साल सत्ता में रहा। उसके बाद हटा दिया गया, फिर वही परिवार जिसके ख़िलाफ़ फ़्रांस में क्रांति आयी थी, पलट आया और फ़्रांस का संचालन अपने हाथ में ले लिया। बर्बन परिवार। वही लोग दोबारा आए, जब अवाम मैदान में नहीं होते तो ऐसा होता है।

सोवियत संघ का इंक़ेलाब 12 साल भी पूरे नहीं कर सका। जब क्रांति आ गयी, लोग क्रांति लाए, लेकिन कुछ साल बाद, स्टालिन (3) और उनके उत्तराधिकारियों ने सोवियत संघ के मुल्कों, उन मुल्कों पर जिनसे मिलकर सोवियत संघ बना था, ऐसी तानाशाही की, ऐसा ज़ुल्म किया कि उनसे पहले की शाही हुकूमतों ने भी ऐसा ज़ुल्म नहीं किया था, फिर अवाम की कोई हैसियत ही नहीं रही, उन्हें किनारे लगा दिया गया। लेकिन इस्लामी गणराज्य में नहीं! इस्लामी गणराज्य में इस्लामी क्रांति अवाम के योगदान से, उनकी कोशिश से कामयाब हुयी और अवाम को हाशिए पर नहीं ढकेला गया। 50 दिन, 50 दिन यानी क्रांति की कामयाबी के 2 महीने से भी कम वक़्त में पूरे मुल्क में रेफ़्रेन्डम हुआ और अवाम ने हुकूमत का माडल चुना। अवाम को अख़्तियार दिया गया। अवाम ने रेफ़्रेन्डम में, एक आज़ाद जनमत संग्रह में इस्लामी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को चुना। क्रांति की कामयाबी के क़रीब एक साल बाद, पहला राष्ट्रपति अवाम के ज़रिए चुना गया, कुछ महीने बाद संसद मजलिसे शूराए इस्लामी का चुनाव हुआ, क़ानून बनाने वाली संस्था अवाम के वोटों से गठित हुयी। उस वक़्त से अब तक पिछले 43 बरसों में मुल्क में क़रीब 50 चुनाव हुए, लोग मैदान में आए, मैदान में मौजूद हैं, चुनते हैं, मतदान करते हैं। इस क्रांति की यह महानता है। इमाम ने ऐसी क्रांति का नेतृत्व किया।

यह जो हमने अर्ज़ किया वह इस क्रांति की महानता का एक पहलू है, दूसरे पहलू भी हैं कि जिनसे यह क्रांति, यह इस्लामी क्रांति दूसरी क्रांतियों से श्रेष्ठ नज़र आती है, उनमें से एक इस इंक़ेलाब की रूहानियत है। पहले के छोटे-बड़े इन्क़ेलाब, चाहे फ़्रांस और रूस के दो इन्क़ेलाब हों या उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में आने वाले छोटे इन्क़ेलाब हों उनमें, अध्यात्म नहीं था। इंसान का आध्यात्मिक पहलू जो इंसान की मूल ज़रूरतों में है, पूरी तरह नदारद था,  उपेक्षित था। किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। इस्लामी क्रांति, ऐसी क्रांति है जिसमें इंसान के भौतिक आयाम पर भी और रूहानी आयाम पर भी ध्यान दिया गया है। तवज्जो दी गई है और उस पर काम किया गया है।

इमाम रिज़वानुल्लाह अलैह इस इन्क़ेलाब के नेता थे, ऐसे आंदोलन के नेता जिसके नतीजे में यह इन्क़ेलाब आया। इन्क़ेलाब के आंदोलन के नेता का क्या मतलब है? यहीं से काम की अहमियत का पता चलता है। इस बात में शक नहीं कि इन्क़ेलाब को अवाम ने कामयाबी तक पहुंचाया। अगर अवाम बलिदान के जज़्बे के साथ मैदान में न आते, अपनी जान की बाज़ी न लगाते, अपने योगदान, अपनी क़ुर्बानियों और अपनी शहादत के साथ आगे न बढ़ते, तो इन्क़ेलाब कामयाब न होता, इन्क़ेलाब को अवाम ने कामयाब बनाया। लेकिन वह ताक़तवर हाथ जिसने इस महासागर में हलचल पैदा की, वह ताक़तवर हाथ किसका था? यह बहुत अहम बात है। वह ताक़तवर हाथ, वह फ़ौलादी शख़सियत, वह आश्वस्त दिमाग़, वह ज़ुल्फ़ेक़ार की काट रखने वाली ज़बान जो विभिन्न तबक़ों के लाखों लोगों को मैदान में ले आयी, उन्हें मैदान में बाक़ी रखा, उनसे नाउम्मीदी को दूर किया, उन्हें आगे बढ़ने की दिशा दिखाई, वह महान इमाम, महान ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की थी।

इमाम लोगों को मैदान में लाए, उपाय बताया, उन्हें मैदान में मौजूद रखा। उनके मन से शक व नाउम्मीदी को दूर किया, इस मुल्क में कोई और ऐसा करने की ताक़त नहीं रखता था। हम राजनैतिक हस्तियों को पहचानते थे, आध्यात्मिक शख़्सियतों को पहचानते थे, कुछ को नज़दीक से कुछ को दूर से, कोई भी इस कारनामे को अंजाम देने में सक्षम नहीं था कि इस भारी बोझ को कांधे पर उठाए और मंज़िल तक पहुंचाए। यह काम पूरी तरह महान इमाम का काम है। वही यह काम कर सके। इमाम अलग अलग मौक़ों पर संघर्ष की जगह की निशानदेही कर देते थे। लोगों को बताते थे कि किस बिंदु पर संघर्ष करना है। अलग अलग मौक़ों के हिसाब से। आंदोलन के दौर में एक तरह से, इन्क़ेलाब की कामयाबी के रक्तरंजित दिनों में दूसरी तरह से। उस वक़्त जब शाही शासन अपनी आँख़िरी सांसें ले रहा था उस वक़्त अमरीका की मदद से तेहरान में फ़ौजी हुकूमत क़ायम करने की फ़िक्र था, लोगों को घर भेजना चाहता था और जनक्रांति की जड़ काट देना चाहता था, इमाम ने अल्लाह की मदद से, हक़ीक़त में अल्लाह की मदद से, जिसके बारे में ख़ुद इमाम ने बाद में कहा भी, अवाम से कहा सड़कों पर आएं! बहुत से राजनेता उस वक़्त इस काम के ख़िलाफ़ थे, कहते थे इस काम में अवाम के लिए ख़तरा है, इमाम ने कहा नहीं! एलान किया कि लोग सड़कों पर आएं, यह संघर्ष के मैदान की निशानदेही करने के लिए था। पता चला कि इस घड़ी, इस दिन असली लड़ाई यह है कि लोग सड़कों पर आएं, इस तरह मुक़ाबले का मैदान तय कर देते थे। शुरू के महीनों में संघर्ष के मैदान को इमाम ने निर्धारित किया। इन्क़ेलाब के दूसरे महीने में संघर्ष का मैदान, रेफ़्रेन्डम का आयोजन और इस्लामी हुकूमत के पक्ष में वोट देना था। क्रांति के विरोधियों से मुक़ाबला। एक वक़्त पावे का मसला। पावे के मसले और क्रांतिकारी फ़ोर्सेज़ की नाकाबंदी के मामले में इमाम ने कहा सभी जाएं। उस दिन शाम का वक़्त मैं नहीं भूल सकता। तेहरान में अजीब माहौल था, सड़कों पर मौजूद हर इंसान मानो पावे जाना चाहता था, सब गाड़ी के इंतेज़ार में थे, साधन की तलाश में थे कि पावे जाएं क्योंकि इमाम ने कहा था। संघर्ष के मैदान को तय कर देते थे। थोपी गयी जंग में दूसरी तरह से, अमरीकी बग़ावत से निपटने में, हमदान की हवाई छावनी के मसले में अलग तरह से।

यह वाक़्या भी ज़िक्र करता चलूं कि जब वायु सेना के एक जवान पायलट ने,  जिंदा ज़मीर, दीनदार जवान ने, आधी रात को या भोर में मुझे बताया कि विद्रोह की योजना है। हमने अनेक तंत्रों को सूचित किया, तैयारी हुयी। मैं और मरहूम जनाब हाशेमी, इमाम की ख़िदमत में पहुंचे। हम इस बात से चिंतित थे कि कहीं इमाम किसी मुसीबत में न पड़ जाएं। हमने सुझाव दिया कि वे जमारान के घर से निकल जाएं, लेकिन उन्होंने क़ुबूल नहीं किया, उन्होंने कहा कि मैं यहाँ से नहीं जाउंगा, मैं यहीं हूं। लेकिन आप लोग जाइए फ़ुलां जगह की हिफ़ाज़त कीजिए, उस वक़्त मैं उस जगह का नाम नहीं लेना चाहता, कहा उस जगह की जाकर हिफ़ाज़त कीजिए! मैदान को निर्धारित करते थे। पवित्र प्रतिरक्षा के दौर में, सद्दाम से जंग में, प्रस्ताव (सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 598) क़ुबूल करने के बाद। आप प्रस्ताव को क़ुबूल करने से संबंधित इमाम के बयान को देखिए, प्रस्ताव क़ुबूल करने के बाद, इमाम ने अवाम की ज़िम्मेदारी तय की।  अपनी ज़िंदगी के बाद संघर्ष के मैदान के बारे में लोगों को विस्तार से बताया, बयान किया। महान इमाम रिज़वानुल्लाह अलैह की वसीयत, तक़रीरें, ज़िन्दगी के आख़िरी साल के अहम बयान, ये सब उनके बाद संघर्ष के मैदान को निर्धारित करने के लिए हैं।

इंक़ेलाब के नेतृत्व का यह मतलब है; इन्क़ेलाब का नेतृत्व ऐसा शब्द है जिसमें महान इमाम के संबंध में बहुत सारे अर्थ छिपे हैं। 

इन महान लीडर की शख़्सियत की समीक्षा का जहां तक सवाल है तो उनकी व्यक्तिगत ख़ूबियों को हम बयान कर सकते हैं और उनकी विचारधारा के बारे में भी बात कर सकते हैं, अलबत्ता यह एक लंबी बहस है; हम इस बारे में संक्षेप में कुछ बातें पेश करने की कोशिश करेंगे।

व्यक्तिगत ख़ूबियों का जहाँ तक संबंध है, महान इमाम सही अर्थ में एक ग़ैर मामूली इंसान थे। उनकी व्यक्तिगत ख़ूबियां, ऐसी ख़ूबियां थीं जो एक साथ शायद ही किसी शख़्सियत में इकट्ठा हों, मुझे कोई दूसरा नज़र नहीं आता। सच में हमारी पूरी तारीख़ में किसी शख़्स में ये सब ख़ूबियां हों, मैं ऐसे किसी शख़्स को नहीं जानता।

सबसे पहली ख़ूबी वह पाक व परहेज़गार इंसान थे। इमाम ऐसी शख़्सियत के मालिक थे जो सही अर्थ में अल्लाह से डरने वाली, पाक व परहेज़गार थी।

दूसरी ख़ूबी यह कि वो रूहानी और इरफ़ानी हालत में डूबे रहने वाली हस्ती थे, आध्यात्मिक हस्ती थे। रात के वक़्त अल्लाह की बारगाह में गिड़गिड़ाते थे। मरहूम जनाब अलहाज अहमद साहब (इमाम ख़ुमैनी के  बेटे) ने मुझे बताया कि सुबह के वक़्त इमाम उठते हैं, नमाज़ और दुआ में रोते हैं, यह मामूली रुमाल जो उनके पास है नाकाफ़ी होता है, उनके लिए तौलिया रखता हूं; ऐसा तौलिया जिससे आप अपने हाथ और चेहरे से आंसू को पोछ सकें! ऐसी आध्यात्मिक हस्ती!

कोमल आत्मा वाले इंसान थे। आदाबुस्सलात, अक़्ल व जेहल हदीस की तफ़्सील जैसी आध्यात्मिक किताबें इमाम ने क़रीब जवानी में या अधेड़ उम्र के आग़ाज़ -क़रीब चालीस साल की उम्र में- लिखी थीं। जवानी से ही ऐसे थे।

इमाम ने शौर्य और अध्यात्म को एक जगह इकट्ठा किया; बहादुरी का कारनामा करने वाले भी थे और अध्यात्म व रहस्यवाद में डूबी हुयी हस्ती भी थे।

नैतिक नज़र से सही अर्थ में बहादुर थे; इमाम ख़ुमैनी के हवाले से बताया गया है कि इमाम ने फ़रमाया -मैंने ख़ुद यह बात नहीं सुनी- ‘अल्लाह की क़सम मैं अब तक किसी चीज़ से नहीं डरा’ लेकिन जो चीज़ मैंने ख़ुद देखी और ख़ुद इमाम से सुनी (यह है कि) एक बार मैं एक मामले में इमाम से बात कर रहा था- एक कठिन मामला था, उन्हें तफ़सील से बता रहा था और मेरे पास एक उपाय था- बातचीत के दौरान मैंने उनसे कहा कि ‘आप ऐसा नहीं कर रहे हैं चूंकि आपको डर है...; मैं यह कहना चाहता था कि आपको डर है कि कोई मुश्किल खड़ी न हो जाए। मैंने जैसे ही कहा कि आप डरते हैं कि.... उन्होंने फ़ौरन कहा कि मैं किसी चीज़ से नहीं डरता! यह उनकी ख़ासियत थी। मैं यह नहीं कहना चाहता था कि “आप डरपोक हैं”। यह आम बोलचाल का वाक्य है, यानी “आप सोच रहे हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए” लेकिन जैसे ही मैंने डर शब्द का इस्तेमाल किया, उन्होंने कहा मैं किसी चीज़ से नहीं डरता। सही अर्थ में बहादुर थे।

अक़्लमंद, समझदार और मूल्यांकन करने वाले शख़्स थे; कोई काम बिना मूल्यांकन किए अंजाम नहीं देते थे, क़दम नहीं उठाते थे, अंदाज़ा लगाते थे और जब अंदाज़ा लगाकर किसी नतीजे तक पहुंच जाते, तो पूरी दृढ़ता के साथ अंजाम देते थे, शक की हालत में कोई काम नहीं करते थे।

कभी मायूस नहीं होते थे। ये सब घटनाएं क्रांति के शुरू के साल में घटीं -शहादतें, सामूहिक शहादतें, अनेक तरह की घटनाएं- लेकिन इमाम इनसे कभी नहीं घबराए कि मायूस हो जाएं। सही अर्थ में सच्चे इंसान थे, सच बोलते थे, अल्लाह के सामने भी सच्चे थे, अवाम के मामले में भी सच्चे थे। अपने वादे और वचन के पाबंद थे। सन 1979 में तेहरान पहुंचते ही, 1 फ़रवरी को उन्होंने इसी बहिश्ते ज़हरा में जो तक़रीर की, उसमें कहा था कि मैं सरकार गठित करुंगा; चार दिन बाद सरकार गठित हो गयी। इन चार दिनों के भीतर उन्होंने इंक़ेलाब काउंसिल को तलब किया, हम उनके पास गए। शायद उन्होंने शहीद मुतह्हरी और शहीद बहिश्ती जैसी क्रांतिकारी हस्तियों को ज़िम्मेदारी दी थी कि किसी शख़्स को तलाश करें, लेकिन तब तक वे यह काम नहीं कर पाए थे। नाराज़ थे कि आप लोगों ने यह काम क्यों नहीं किया? ऐसे थे। बहुत ही अनुशासित और समय की नब्ज़ को पहचानने वाले। हमने तो इस तरह की बहुत सी घटनाएं देखी हैं।

सही अर्थ में अल्लाह पर भरोसा करने वाले थे। अल्लाह के वादे को अटल मानते थे, अल्लाह के वादे पर भरोसा था। और जो अल्लाह पर तवक्कुल करता है अल्लाह उसके लिए काफ़ी है; (4) आयत पूरी तरह उन पर चरितार्थ होती थी। संघर्षशील थे; बाद में तफ़सील से बताउंगा कि संघर्षशील थे का क्या मतलब है। इस तरह की ख़ूबियां थीं, और दूसरी ग़ैर मामूली ख़ूबियां भी इमाम में थी; ये सब इमाम के व्यक्तित्व की ख़ूबियां थीं।

विचारधारा, उसूल और उद्देश्य के मामले में, अगर हम चाहें कि इमाम की संघर्ष पर आधारित विचारधारा की बुनियाद और इमाम के इन्क़ेलाब को एक जुमले में बयान करें तो कहना चाहिए कि उनके हर काम की बुनियाद अल्लाह के लिए उठ खड़ा होना था। लक्ष्य, अल्लाह के लिए उठ खड़ा होना था। वही जिसके बारे में उन्होंने अपनी जवानी के मशहूर नोट्स में जनाब मरहूम वज़ीरी यज़्दी (5) की डायरी में लिखा हैः (हे रसूल) कह दीजिए कि मैं तुम्हें बस एक चीज़ की नसीहत करता हूं कि अल्लाह के लिए दो दो करके और अकेले उठ खड़े हो (6) अल्लाह के लिए आंदोलन, अल्लाह के लिए आंदोलन की मज़बूत बुनियाद का स्रोत क़ुरआन है। सबा सूरे की इस आयत में अल्लाह के लिए आंदोलन का ज़िक्र है-(हे रसूल) कह दीजिए कि मैं तुम्हें बस एक चीज़ की नसीहत करता हूं या अल्लाह के लिए फ़रमां बरदारी के साथ उठ खड़े हो (7) पवित्र बक़रा सूरे में या मुद्दस्सिर सूरे की दूसरी आयत जो पैग़म्बरी पर नियुक्ति के आग़ाज़ के वक़्त की हैः या चादर ओढ़ने वाले रसूल उठ खड़े होइए और लोगों को (अल्लाह के अज़ाब से) डराइए! (8) अल्लाह के लिए उठ खड़े होने का मतलब यह है। यह आंदोलन अलग अलग दौर में मुमकिन है अलग तरह से हो।

अल्लाह के लिए आंदोलन हमेशा एक तरह से नहीं होता लेकिन इन सभी में अल्लाह के लिए आंदोलन का सिर्फ़ एक उद्देश्य है और वह सत्य को क़ायम करना, न्याय को क़ायम करना और अध्यात्म को फैलाना है। यह सभी दौर में है। यानी हक़ को क़ायम करना। अल्लाह के लिए आंदोलन, किसी दौर में उस तरह के संघर्ष की शक्ल में होता है, किसी अन्य दौर में वैज्ञानिक काम की शक्ल में है, किसी और दौर में राजनैतिक सरगर्मी की शक्ल में है लेकिन अल्लाह के लिए इन सभी आंदोलनों का परम लक्ष्य सत्य को क़ायम करना होना चाहिए। दूसरा लक्ष्य न्याय को क़ायम करना होना चाहिए और तीसरा लक्ष्य अध्यात्म को फैलाना होना चाहिए। ये लक्ष्य हैं। मैंने पवित्र क़ुरआन की जिन आयतों को नोट किया है, आप डिक्शनरी में क़याम शब्द की उत्पत्ति के बारे में देखिए तो पता चलेगा कि यह आंदोलन किस लिए है। मिसाल के तौर पर “ताकि लोग इंसाफ़ के साथ उठ खड़े हों।” (9) सभी पैग़म्बरों के आने, बड़े पैग़म्बरों को भेजने और किताबें नाज़िल करने का मक़सद यही है कि लोग न्याय के रास्ते पर आ जाएं, यह एक आयत।  सूरे निसा की एक आयत में है, “और यह कि यतीमों के लिए इंसाफ़ के साथ उठ खड़े हो” (10)  या सूरे रहमान की इस आयत में हैः “और तराज़ू इंसाफ़ के साथ क़ायम करो।” (11)  या सूरे शूरा की आयतः “दीन क़ायम करो” (12) या सूरे माएदा में हैः “ताकि तौरैत और इंजील को क़ायम करो” (13) क़ुरआन में बहुत सी जगहों परः नमाज़ क़ायम करो (14) है, इसी तरह दूसरी जगहों पर अल्लाह के लिए आंदोलन का लक्ष्य यही विषय होने चाहिए; अल्लाह के लिए आंदोलन का यही उद्देश्य है।

हमने कहा कि इमाम संघर्षशील थे; इसका मतलब अल्लाह के लिए आंदोलन के मैदान में इमाम का हमेशा तैयार रहना है। सही अर्थ में इमाम का ध्यान अल्लाह के लिए आंदोलन के लिए केन्द्रित था। सच्चाई और न्याय की स्थापना इमाम का स्वाभाविक लक्ष्य था। यह लक्ष्य किस तरह हासिल हो सकता है? सच और न्याय की स्थापना इमाम का लक्ष्य था, लेकिन क्या अपमानित पहलवी शासन या किसी दूसरी पिट्ठू हुकूमत की छत्रछाया में सत्य और न्याय क़ायम हो सकता है? स्वाभाविक सी बात है कि नहीं! तो फिर अगला लक्ष्य यह होगा कि इस छत को उजाड़ दिया जाए। इमाम इसी कोशिश में थे कि पहलवी शासन की इस लज्जाजनक छत को इस राष्ट्र के सिर से हटा दें और इन चीज़ों के लिए, इन्हें क़ायम करने के लिए, इन्हें बढ़ावा देने के लिए आंदोलन का मैदान तैयार करें। छत को उजाड़ें और सिस्टम लाएं। (15) एक चीज़ को ख़त्म करना है और दूसरी चीज़ को लाना है। पहले सरकश शासन को नकारना, फिर ऐसा राजनैतिक मंच क़ायम करना जो अवाम को आगे ले जाए। इमाम के आंदोलन के यह दो पहलू थे।

इमाम की अज़ीम तहरीक में कुछ बिन्दु साफ़ तौर पर नज़र आते थे। पहला यह कि उनमें ज़रा भी डर नहीं था। लगी लिपटी बात नहीं करते थे (16), साफ़ अंदाज़ था, दो टूक ज़बान थी, यह आंदोलन के दौर की बात है। चाहे क़ुम हो, चाहे नजफ़ हो, अवाम से बात करते थे, हमेशा अवाम को आगाह करते थे, मार्गदर्शन करते थे, सच में उनकी ज़बान ज़ुल्फ़ेक़ार जैसी काट रखती थी। इस काम को यह महान हस्ती इस तरह आगे ले गयी, साफ़ सुथरी बात करते थे।

अवाम पर भरोसा करते थे। इमाम की एक अहम ख़ूबी अवाम पर पहले दिन से भरोसा था। दूसरे भी कुछ ऐसे लोग थे जो आंदोलन करना चाहते थे, लेकिन कहते थे अवाम साथ नहीं देंगे। लेकिन इमाम ऐसे नहीं थे, इमाम पहले दिन से मानते थे कि अगर हम मैदान में आ जाएं तो अवाम भी आएंगे। सन 1962 में आंदोलन के आग़ाज़ में क़ुम में क्लास के बाद तक़रीर में उन्होंने हाथ से इशारा करते हुए कहा अगर हम लोगों से कहें या चाहें -कुछ इस तरह का जुमला था- लोग इम मरुस्थल में भर जाएंगे। (17) यह 1962 की बात है जब बहुत से लोग इमाम को पहचानते भी नहीं थे, इमाम का नाम भी नहीं सुना था; इस तरह अवाम पर भरोसा था, यक़ीन था। अवाम के संघर्ष की क़ीमत को जानते थे, सही अर्थ में आंदोलन का नेतृत्व करते थे, अपने ऊंचे मनोबल से लोगों को प्रेरित करते थे, अवाम को मायूस नहीं होने देते, संदेह में घिरने नहीं देते थे, इमाम के नज़रिये में अवाम उपेक्षित नहीं थे। ख़ैर यह बातें, कुछ चीज़ों को नकारने के दौर की, उद्दंडी शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन के वक़्त की हैं।

लेकिन स्थापना के दौर में, इस्लामी गणराज्य की स्थापना के दौर में- इस्लामी गणराज्य की स्थापना के दौर में इमाम की सरगर्मी बहुत अहम है- इमाम की कोशिश यह थी, इमाम का रोडमैप यह था कि नई योजना, मुल्क के भ्रष्ट अतीत से अलग रहे। भविष्य, अतीत से पूरी तरह अलह रहे; यह इमाम की कोशिश थी। वह भविष्य को किस तरह अलग कर सकते थे? इस तरह से कि मुल्क को चलाने के लिए जो प्रोग्राम पेश करते, जो सुझाव देते वह पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति से प्रभावित न हो। इमाम इस बात पर ताकीद करते थे कि यह योजना, इस्लामी गणराज्य की योजना, उस चीज़ के अधीन न होने पाए जिसे पश्चिम रिपब्लिक या लोकतंत्र का नाम देता है। इसलिए मैंने बयान किया, पिछले साल इसी दिन की गुफ़्तगू में कि 'डेमोक्रेसी' का इस्लाम से रिश्ता है, 'गणराज्य' को पश्चिम से मांगा नहीं गया है, यह ख़ुद इस्लाम से निकली है। इमाम की ओर से अवाम की राय पर ताकीद की वजह, इस्लाम के बारे में उनकी समझ थी। इसलिए इमाम ने निश्चय कर लिया था कि उस समय दुनिया में प्रचलित दो मतों यानी पूंजिवाद पर आधारिति लिबरल डेमोक्रेसी से लेकर तानाशाही पर आधारित कम्यूनिस्ट शासन तक, इन दोनों से इस्लामी गणराज्य का कोई संबंध न हो; इसी वजह से इमाम का एक सैद्धांतिक नारा 'न पूरब, न पश्चिम' था; न कम्यूनिज़्म, न ही लिब्रलिज़्म; न ही अर्थव्यवस्था में पूंजिवादी व्यवस्था और न ही पश्चिम की बेलगाम आज़ादी और न ही पूर्वी व्यवस्थाओं में मौजूद घुटन व ज़ुल्म; इमाम इनमें से किसी को नहीं मानते थे; न पूरब और न ही पश्चिम; इमाम ने इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के लिए नया माडल पेश किया, पूरी तरह उनसे अलग।

इमाम के मॉडल में दो चीज़ें आपस में समन्वित हो गयीं; ये दो चीज़ें जिन्हें हमेशा एक दूसरे के ख़िलाफ़ ज़ाहिर करने की कोशिश होती थी, इमाम के मॉडल में आपस में समन्वित हो गयीं हैं; अध्यात्म भी- धार्मिक अध्यात्म- अवाम की राय भी; अध्यात्म भी, अवाम की राय भी।  हमेशा यह कोशिश की गयी कि ये दोनों एक दूसरे के मुक़ाबले में रहें, लेकिन एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं हुए; इमाम ने इन्हें एक दूसरे से समन्वित कर दिया।

अवाम के तक़ाज़ों को पूरा करने के साथ साथ अल्लाह के हुक्म को लागू करना। इस्लामी व्यवस्था हित संरक्षक परिषद को इमाम ने गठित किया। कुछ लोगों को लगता है कि इसे मैनें गठित किया; नहीं, नाचीज़ राष्ट्रपति था, इमाम ने मुझे ख़त लिखा और इस सभा को इमाम ने हित के निर्धारण के लिए गठित किया; इस्लामी हुक्म लागू हो लेकिन साथ ही समाज में अवाम के हितों और समाज के तक़ाजों को भी मद्देनज़र रखा जाए। हित से मुराद यह है, व्यक्तिगत हित नहीं है।

कमज़ोरों की हालत में सुधार का मामला और आर्थिक न्याय पर ताकीद- ख़ास तौर पर आर्थिक न्याय- संपत्ति के उत्पादन के साथ। संपत्ति का उत्पादन भी सही है, मुल्क में न्याय का पालन भी हो और कमज़ोरों की हालत में भी सुधार हो। न ज़ुल्म करें और न ही ज़ुल्म को बर्दाश्त करें। एक हुकूमत के तौर पर, सरकार के तौर पर दूसरी सराकरों, दूसरे राष्ट्रों पर न तो ज़ुल्म करेंगे और न ही उनके ज़ुल्म को सहेंगे। न तो धमकी देंगे, न ही धमकी के सामने झुकेंगे। ज्ञान-विज्ञान को और मुल्क की अर्थव्यवस्था को मज़बूत करेंगे और देश की रक्षा को भी मज़बूत बनाएंगे। यानी ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ अर्थव्यवस्था के बारे में सोचें, देश की रक्षा और सुरक्षा की ओर से निश्चिंत हो जाएं या  इसका उलटा करने लगें। राष्ट्रीय एकता भी बनी रहे और अनेक तरह के राजनैतिक विचारों व रुझानों को भी माना जाए। यह हुआ दो अलग चीज़ों का संगम। अधिकारियों में पाकीज़गी और परहेज़गारी भी ज़रूरी है, अधिकारियों का काम में माहिर होना भी ज़रूरी है, वचनबद्धता और महारत एक साथ। ये दो चीज़ें थीं जिन्हें इन्क़ेलाब के आग़ाज़ में कुछ लोग जो एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़ा करते थे, लेकिन इमाम ने इन दो चीज़ों को आपस में समन्वित किया, एक सुर में किया, एक दूसरे के साथ किया। ये इमाम की विचारधारा की ख़ूबियां हैं।

यहाँ मुमकिन है कि आप एक सवाल करें कि इमाम ने जिस विचारधारा की बुनियाद रखी, वह इमाम के दौर में या इमाम के बाद किस हद तक व्यवहारिक बनी। यह सवाल अहम है; यह ऐसा सवाल है कि दुनिया में कोई भी हमसे यह सवाल कर सकता है। मैं जो जवाब मुल्क की वास्तविक स्थिति की सही जानकारी की बुनियाद पर दूंगा, यह है कि हमने इनमें से सभी मैंदानों में बड़ी कामयाबी हासिल की हैं; अगर कोई कामयाबियों का इंकार करे, तो निश्चित तौर पर उसने नाइंसाफ़ी की है। इन सभी विषयों में, प्रजातंत्र के मैदान में, वैज्ञानिक तरक़्क़ी के मैदान में, कूटनैतिक मामलों में, दुनिया में मुल्क की पोज़ीशन के संबंध में, आर्थिक क्षेत्र में भी, सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में भी, हमने बहुत तरक़्क़ी की है।

यक़ीनी तौर पर हमें बहुत सी जगहों में नाकामी भी मिली है, कामयाबी भी मिली है और नाकामी भी मिली और कमज़ोरी भी पता चली है। इस मौक़े पर भी इमाम ख़ुमैनी ने हमें अपनी सूझबूझ से रास्ता दिखाया, इसी मामले में, इमाम ख़ुमैनी की बातों ने हमें राह दिखायी। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी उम्र के आख़िरी दिनों में शहीदों के बच्चों से मुलाक़ात में एक तक़रीर की थी। (18) इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि “आप के काम, आप की कोशिश और मेहनत पर टिके हैं।“ आप जितना काम करेंगे, जितनी कोशिश करेंगे, उसका फल और नतीजा आप को मिलेगा। इमाम ख़ुमैनी आगे कहते हैं कि “आज की दुनिया में ज़िंदगी गुज़ारने का मतलब, इरादे और संकल्प के मरकज़ में बने रहना है।“ मतलब यह कि आप की ज़िंदगी आप के इरादे और सोच पर टिकी हुई है। जब भी मुल्क के ओहदेदार और लोग, मज़बूत इरादे के साथ, मैदान में उतरते हैं, कामयाब होते हैं, लेकिन जब भी इरादा कमज़ोर होता है, मेहनत कम होती है, तो फिर नाकामी और पिछड़ापन मिलता है। जी हां, हमारे मुल्क में पिछड़ापन भी है, तरक़्क़ी भी की है हमने, यह सब हम पर निर्भर है। हम ज़िम्मेदार हैं, हम ओहदेदार ज़िम्मेदार हैं, समाज के असरदार लोग थे जिन्होंने कहीं अच्छा काम किया वहां हमें कामयाबी मिली, कहीं हम ने लापरवाही की और कम मेहनत की, सुस्ती की, थक गये, तो वहां हम ज़ाहिर सी बात है पीछे रह गये। इसका कोई इन्कार नहीं कर सकता। तरीक़ा और रास्ता सही है, रोडमैप सही है, राह सही है, लेकिन रास्ते पर ठीक से चलना भी तो ज़रूरी है। हम जब भी इस राह पर ठीक से चले हैं, आगे बढ़े हैं और जहां भी हम ने लापरवाही की, सुस्ती की तो पीछे रह गये हैं, इस सिलसिले में बहुत सी मिसाले हैं, इमाम ख़ुमैनी के ज़माने में भी और उनके बाद से लेकर आज तक के दौर में भी, इस की बहुत सी मिसाले हैं। यक़ीनी तौर पर इस सिलसिले में दुश्मन के रोल को भी नज़र अदांज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि ईरान में इस्लामी इन्क़ेलाब की शुरुआत से ही दुश्मनों के मोर्चे की तरफ़ से कार्यवाही शुरु हो गयी थी।

कुछ लोगों को यह सोचना है कि हम ने दुश्मनों को दुश्मनी करने पर मजबूर कर दिया है! नहीं! इस्लामी जुम्हूरी हुकूमत की बुनियाद ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है तो ज़ाहिर है ज़ुल्म करने वाला ख़ुद ही उसके ख़िलाफ़ हो जाता है। क्या आप यह नहीं कहते कि हम साम्राज्य के ख़िलाफ़ हैं, ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हैं? तो ज़ाहिर है, जो भी साम्राजवादी होगा, जो भी ज़ुल्म करने वाला होगा, जिस सरकार में भी यह बुराइयां होंगी, वह आप की दुश्मन बन जाएगी, इस्लामी जुम्हूरियत यही है। आप कहते हैं कि हम रूहानियत में यक़ीन रखते हैं तो फिर जो यह नहीं चाहते कि हमारे मुल्क के लोगों में रूहानियत से दिलचस्पी हो तो वह आप के ख़िलाफ़ हो जाएंगे। इस्लामी जुम्हूरियत कहती है कि हम बुराइयों के ख़िलाफ़ हैं, तो जिन लोगों की बुराइयों में डूबे रहने की आदत है, बुराई में ही पड़े रहते हैं और बुरी हरकतों से दूर नहीं रह सकते वह, इस्लामी जुम्हूरियत के ख़िलाफ़ हो जाएंगे, यह स्वाभाविक है। दुश्मनों के मोर्चे और उनकी दुश्मनी की अनदेखी नहीं करना चाहिए। यक़ीनी तौर पर यह दुश्मनियां अलग-अलग तरह की होती हैं। इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआत में ही अमरीकियों ने अपने जनरल को (19) फ़ौजी बग़ावत के लिए तेहरान भेजा था जो खुदा के शुक्र से नाकाम रही और वह मायूस होकर वापस लौट गये। दूसरे भी कई मामलों में अमरीकी और हमारे दुश्मन नाकाम और नाउम्मीद हुए हैं, यह जो इमाम ख़ुमैनी ने दूरी बनायी यह जो वेस्टर्न ताक़तों से संजीदा फ़ासेला रखा तो उसके नतीजे में कुछ ताक़तें दुश्मन हुईं क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ने उन्हें दख़ल नहीं देने दिया। फ़िलिस्तीन की एंबेसी को फ़िलिस्तीन के दफ़्तर को जो अतिग्रहणकारी हुकूमत के हाथ में थी, उससे छीन कर फ़िलिस्तीनियों के हवाले कर दिया और कहा कि इसके मालिक फ़िलिस्तीनी हैं, तो ज़ाहिर है इससे दुश्मन पैदा होंगे, यह तो होना ही था।

हमारे नौजवानों को ध्यान देना चाहिएः वेस्टर्न ताक़तों ने तीन सदियों तक पूरी दुनिया में लूट मार की, तीन सदियों तक! दुनिया को लूटा। ईस्टर्न एशिया से, इंडोनेशिया, फ़िलीपीन्स, नेपाल, इंडियन सब कांटिनेंट से लेकर  सेंट्रल एशिया, वेस्टर्न एशिया और नार्थ अफ़्रीक़ा तक बल्कि वेस्टर्न अफ़्रीक़ा के कुछ हिस्सों और पूरे अफ़्रीका को, वेस्टर्न ताक़तों ने तीन सदियों तक लूटा है, इसी पर बस नहीं किया बल्कि साउथ अमरीका पर भी हाथ आज़माया, वहां भी लूट मार की, अमरीका को, अमरीकी कांटिनेंट के भी अपने मालिक थे, उसका अपना सिविलाइज़ेशन था, क़ौमें थीं, इन लोगों ने तरह-तरह के बहानों से जिनका ज़िक्र तारीख़ में पूरी तफ़सील के साथ मौजूद है, आप किताबें पढ़ें तो यह हक़ीक़तें और अच्छी तरह से समझ में आएंगी, भयानक जुर्म किये, क़त्ल, लूटमार, क़त्लेआम, टार्चर, दबाव, लोगों को पकड़ कर ग़ुलाम बनाया, यह सब कुछ वेस्ट के लोगों ने किया है। इन तीन सदियों में, जब पश्चिम की यह ताक़तें, इस क़िस्म के जुर्म कर रही थीं, वहां के बुद्धिजीवी, पूरी दुनिया के लिए ह्यूमन राइट्स के क़ानून बना रहे थे! वेस्ट के लोगों के कामों और बातों में इतना बड़ा विरोधाभास आप देख सकते हैं। हरकतें इस तरह कीं और बातें इस तरह की, युरोपीय मुल्कों ने और उनके बाद अमरीका ने सच में पूरी दुनिया में तरह-तरह के जुर्म किये हैं। यह सब वेस्टर्न कल्चर के कारनामे हैं, यह सब उनकी हरकते है!

इमाम ख़ुमैनी को इसका बहुत अच्छी तरह से अंदाज़ा था, यह सब कुछ उन्हें बहुत अच्छी तरह से पता था। इमाम ख़ुमैनी जिन चीज़ों पर बहुत ज़ोर देते थे उनमें से एक, इस्लामी और इस्लामी हुकूमत के तौर तरीक़ों की वेस्टर्न हुकूमतों के तरीक़ों से दूरी थी, यह इमाम ख़ुमैनी के नज़रिये में बहुत अहम उसूल है।

इमाम ख़ुमैनी का एक बहुत बड़ा कारनामा यह था कि उन्होंने हमारी क़ौम को प्रतिरोध का मतलब समझा दिया। यह बहुत होता है कि दुनिया की क़ौमें कुछ करना चाहती हैं लेकिन उनमें डटे रहने की ताक़त नहीं होती, जब दबाव पड़ता है तो पीछे हट जाती हैं। इमाम ख़ुमैनी ने ईरानी क़ौम को इस तरह ट्रेनिंग दी, इस तरह से उन्हें सिखाया कि जैसे प्रतिरोध इस क़ौम की रगों में, ख़ून की तरह दौड़ने लगा हो, यही वजह है कि ईरान की क़ौम आज पूरी तरह से डट जाने वाली और बेहद मज़बूत क़ौम है।

ख़ुदा का शुक्र है! यह भी इमाम ख़ुमैनी की बरकतों का नतीजा है जो आज “प्रतिरोध” यानि डट जाने का लफ़्ज़ दुनिया के पॉलिटिकल लिट्रेचर में इस्तेमाल होने लगा है, यह डट जाने की ख़ूबी जो इमाम ख़ुमैनी ने हमें और पूरी दुनिया को तोहफ़े में दी है वह आज दुनिया के पॉलिटिकल लिट्रेचर का एक जाना पहचाना लफ़्ज़ है।

मैं दुश्मनों की नीयत, उनकी प्लानिंग, उनकी साज़िशों और ईरानी क़ौम के लिए उनके ख़्वाबों के बारे में एक अहम बात कह दूं, यह बात मेरी नज़र में अहम है और इसके दो हिस्से हैं। एक तो यह कि आज कल हमारे मुल्क को नुक़सान पहुंचाने के लिए दुश्मन को सब से ज़्यादा उम्मीद, लोगों के प्रोटेस्ट से है। उन्हें बड़ी उम्मीद है कि वह प्रोपैगंडों से, इन्टरनेट और सोशल मीडिया और इसी तरह की तरह तरह की चीज़ों की मदद से, पैसे से, अपने एजेन्टों की मदद से, लोगों को, इस्लामी हुकूमत और इस्लामी जुम्हूरिया के ख़िलाफ़ खड़ा करने में कामयाब हो जाएंगे। यह तो मेरी अहम बात का पहला हिस्सा है, दूसरा हिस्सा यह है कि दुश्मन की यह सोच और यह प्लानिंग भी उसके दूसरे अंदाज़ों और प्लानिंग्स की तरह, ग़लत है। इन्क़ेलाब की शुरुआत में वह खुल कर दावा करते थे कि इस्लामी जुम्हूरिया, 6 महीनों से ज़्यादा नहीं चल पाएगी और यह सरकार ख़त्म हो जाएगी, फिर जब यह 6 महीने गुज़र जाते तो उसकी मुद्दत अन्य 6 महीनें बढ़ा देते और कहते थे कि अब से 6 महीनों में सब ख़त्म हो जाएगा! इस तरह के 6 महीनें 80 बार से ज़्यादा बार गुज़र गये और वह इस्लामी जुम्हूरिया जो उस वक़्त एक छोटा सा पौधा था, आज एक मज़बूत और फैली हुई जड़ों के वाला पेड़ बन चुका है और हर दिन ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत होता जा रहा है। उस वक़्त उनका अंदाज़ा ग़लत था और आज भी ग़लत है। यह अंदाज़े भी उन्ही अंदाज़ों की तरह हैं, जैसा कि थोपी गयी जंग के बारे में उनके अंदाज़े ग़लत थे, उन्होंने इस लिए सद्दाम की मदद की थी कि कुछ दिनों में ही इस्लामी जुम्हूरिया को ख़त्म कर दें, बाग़ियों की मदद की इस उम्मीद पर कि वही कुछ कर लें, यह वह सब अंदाज़ें थे जो अमरीकियों और वेस्ट के लोगों ने लगाए थे और सब के सब ग़लत साबित हुए। आज भी उनका यह अंदाज़ा ग़लत है कि वह ईरानी क़ौम को, इस्लामी हुकूमत के ख़िलाफ़ खड़ा कर देंगे, अगर वह यह सोचते हैं कि इस्लामी जुम्हूरिया के सामने उन लोगों को खड़ा कर देंगे जिन्हें इस हुकूमत में बहुत अहम समझा जाता है तो यह उनकी ग़लतफ़हमी है, इस्लामी जुम्हूरिया में लोगों और अवाम को बहुत ज़्यादा अहमियत दी जाती है।

अमरीकी यह ग़लती क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें मशविरा देने वाले ग़द्दार ईरानी हैं जो उन्हें इस तरह के मशविरे देते हैं। यह ग़द्दार सलाहकार, अपने मुल्क के साथ तो ग़द्दारी कर ही रहे हैं, साथ ही, अमरीकियों के साथ भी ग़द्दारी कर रहे हैं, क्यों? क्योंकि सही मालूमात के बिना उन्हें सलाह-मशविरा दे रहे हैं, वे बेचारे भी इनके मशविरों के मुताबिक़ काम करते हैं और मुंह की खाते हैं। उनकी एक बात और उनका एक मशविरा यह भी होता है कि “आप इस्लामी सरकार और इस्लामी जुम्हूरिया से मुक़ाबले के लिए ईरानी क़ौम पर भरोसा करें, ईरानी क़ौम, दीन से, इस्लामी हुकूमत से और मौलवियों से ऊब चुकी है, इस लिए आप इन पर भरोसा कर सकते हैं यह लोग इस्लामी हुकूमत के ख़िलाफ खड़े हो जाएंगे।“ यह ग़द्दार और नादान एडवाइज़र, जो दोनो ओर से ग़द्दारी करते हैं, अपने अमरीकी आक़ाओं से यह कहते हैं, अमरीकी उन्हें पैसे देते हैं और उनकी दी हुई मालूमात का जायज़ा लेते हैं अपनी स्पीचों में उसका ज़िक्र करते हैं, सीनेट में कहते हैं और अलग अलग जगहों पर यही सब कुछ दोहराते हैं, मुल्क के अंदर भी कुछ भोले भाले लोग,  ख़ुदा के शुक्र से उनकी तादाद बहुत कम है, यह सब सच मान लेते हैं।

कभी हम इन्टरनेट पर मीडिया में, अख़बारों में यह देखते हैं कि वे कहते हैं कि जी हां! ईरानी अवाम की नज़रों में दीनी रहनुमाओं की कोई अहमियत नहीं है, दीन में यक़ीन नहीं है, यह सब हम यहां ईरान में भी सुनते हैं। जी हां यह भी सौ फ़ीसद ग़लत अंदाज़ों में से एक है, आज इन्क़ेलाब और दीन में लोगों की दिलचस्पी, इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर से भी ज़्यादा है। अगर कोई इन्क़ेलाब और जेहाद से लोगों के लगाव को समझना चाहता है तो उसे शहीद क़ासिम सुलैमानी के जुलूसे जनाज़ा में  शामिल दसियों लाख लोगों को देखना चाहिए। शहीद सुलैमानी के टुकड़े-टुकड़े बदन को दसियों लाख लोगों ने अलविदा कहा, एक इन्क़ेलाबी शख़्सियत, एक मुजाहिद के लिए कि जो इस्लामी जुम्हूरिया के लिए अपनी जान हथेली पर रख कर चलता था, लोगों ने इस तरह से लगाव और सम्मान ज़ाहिर किया, यह एक मिसाल है, इस तरह की और भी बहुत सी मिसालें हैं। मिसाल के तौर पर दीनी आलिमों की मिसाल देखें। मरहूम आयतुल्लाह साफ़ी गुलपाएगानी एक मरजए तक़लीद थे, एक फ़क़ीह थे, आप ग़ौर करें उनके जुलूसे जनाज़ा में लोगों की कितनी बड़ी भीड़ शामिल हुई। मरहूम आयतुल्लाह बहजत, एक फ़कीह, आरिफ़ और रूहानी शख़्सियत थे, उनके जुलूसे जनाज़ा में उनको अलविदा कहने के लिए क़ुम के लोगों ने पूरे शहर को अपने आसुंओं से छलका दिया, क़ुम से बाहर के लोग भी क़ुम गये थे उनके जनाज़े में शिरकत करने के लिए। आप मुझे यह बताएं कि हमारे मुल्क की बड़ी हस्तियों में से, कोई नेता, कोई आर्टिस्ट, कोई खिलाड़ी या कोई और भी मशहूर हस्ती, अगर मर जाए तो क्या लोग इस तरह से उससे अपनी दीवानगी ज़ाहिर करेंगे? यह किस चीज़ का सुबूत है? यह दीनी उलेमा से अवाम की दूरी का सुबूत है? यह लोगों में दीन व रेजिस्टेंस और जेहाद से दिलचस्पी ख़त्म होने की निशानी है? उनकी रिसर्च इस तरह की होती है, वह इस तरह से जायज़ा लेते हैं।

आप देखिए कि यही आज कल जो तराना गाया जा रहा है जिसमें, इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम से अक़ीदत ज़ाहिर की जाती है और उन्हें सलाम किया जाता है, उसमें लोगों की कितनी दिलचस्पी है और वह क्या कर रहे हैं? कितना जोश है लोगों में, कितना बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं, कितनी अक़ीदत है! बूढ़े, बच्चे, नौजवान, औरतें, मर्द सब के साथ पूरे ईरान में, इस तराना में हिस्सा ले रहे हैं, तेहरान में अपने अंदाज़ में तो मशहद का अलग अंदाज़ नज़र आता है, इस्फ़हान में अलग तरीक़े से और यज़्द में दूसरे तरीक़े से, दूसरे शहरों में अलग तरह से यह तराना पढ़ा जा रहा है, यह किस चीज़ का सुबूत है? यह दीन से लोगों के दूर होने का सुबूत है? या उसके उलट? इन्क़ेलाब के शुरु में हमारे मुल्क में यह सब नहीं देखने को मिलता था, इन्क़ेलाब के शुरु में हमारे स्टूडेंट्स, एतेकाफ़ सेन्टरों पर जमा नहीं होते थे, इतने बड़े दीनी प्रोग्राम नहीं होते थे,  आज यह सब हो रहा है, जी हां, उन लोगों ने ईरानी क़ौम के बारे में ग़लती की है। या इन्क़ेलाब की कामयाबी की सालगिरह पर निकाली जाने वाली रैली को ही देखें, 43 बरस से 11 फ़रवरी को और क़ुद्स डे के मौक़े पर, लोग रैलियां निकालते हैं वह भी इतनी बड़ी! यह इन्क़ेलाब से लोगों की दूरी की निशानी है? यह लोगों की वफ़ादारी की निशानी है, यह लोगों में डट जाने के जज़्बे की निशानी है, यह लोगों में रेजिस्टेंस का सुबूत है और यह इस अज़ीम क़ौम में इमाम ख़ुमैनी के सिखाए गये सबक़ की निशानी हुई।

अपनी बात के आख़िर में मैं इन्क़ेलाब, समाज, सियासत और तेजारत के मैदान में काम करने वालों, कार्यकर्ताओं से चाहे वे नौजवान हों या किसी भी उम्र के हों मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूं।

एक सिफ़ारिश तो यह है कि इन्क़ेलाब के दुश्मन आप के इन्क़ेलाब की शिनाख़्त को बदलने न पाएं, आप यह न होनें दें कि वह इन्क़ेलाब की सच्चाई को उल्टा करके दिखाएं, यह एक सिफ़ारिश है, बहुत अहम सिफ़ारिश है, सूझबूझ रखने वाले तेज़ दिमाग़ के नौजवान इस पर सोचें।

एक और सिफ़ारिश यह है कि इस बात की इजाज़त न दें कि समाज में इमाम ख़ुमैनी का ज़िक्र फीका पड़ जाए। जैसा कि मैंने कहा इमाम ख़ुमैनी, इस इन्क़ेलाब की रूह हैं, इमाम ख़ुमैनी की याद को कम न होने दें, इमाम ख़ुमैनी की शख़्सियत को तोड़ मरोड़ कर पेश करने की इजाज़त न दें।

एक और सिफ़ारिश यह है कि हमारे मुल्क में रुढ़िवादी और पिछड़े हुए लोगों को पैर पसारने और फैलने का मौक़ा न दें। पिछड़ा हुआ कौन है? जब हम पिछड़ा हुआ कहते हैं तो कुछ लोगों के दिमाग में (नमाज़ की जालीदार सफ़ेद) टोपी पहने हुए लोग उभरते हैं जी नहीं! रुढ़िवादी और पिछड़ा वह है जो पॉलिटिक्स और लाइफ़ स्टाइल में वेस्ट की नक़्ल करे, वह पिछड़ा हुआ है। हमारे मुल्क की यही हालत थी, इन्क़ेलाब ने आकर इन सब चीज़ों को ख़त्म किया, अब जो फिर से उसकी तरह की ज़िंदगी की तरफ़ लौटेगा वह पिछड़ा हुआ समझा जाएगा। अब इस तरह का पिछड़ा हुआ आदमी, हो सकता है जींस, टीशर्ट पहने हो, गले में रूमाल लटकाए हो और फ्रांस का परफ़्यूम इस्तेमाल करता हो लेकिन वह पिछड़ा हुआ है। जो भी वेस्टर्न लाइफ स्टाइल और वेस्टर्न कल्चर की तरफ़ जाएगा वह पिछड़ा हुआ है, हमारे मुल्क को उस तरफ़ न बढ़ने दें, हमारे मुल्क के अंदर इस तरह के पिछड़े पन को फैलने न दें।

एक और सिफ़ारिश यह है कि दुश्मन की तरफ़ से जारी झूठ, धोखे और साइकोलॉजिकल वॉर की सच्चाई सब को बताएं। एक वह भी वक़्त था जब इमाम ख़ुमैनी के दौर में न इन्टरनेट था, न सैटेलाइट इस तरह से थी, तो उस वक़्त इमाम ख़ुमैनी कहते थे कि दुश्मन, क़लम से आप के ख़िलाफ़ लड़ रहा है, क़लम से। इमाम ख़ुमैनी को पता था। आज क़लम नहीं है आज सोशल मीडिया है, सैटेलाइट चैनल हैं, साइकोलॉजिकल वॉर है, हर तरफ़ फैली हुई एक बड़ी साइकोलॉजिकल वॉर है। आप दुश्मन की तरफ़ से जारी साइकोलॉजिकल वॉर का असर मुल्क पर न पड़ने दें। देखें! यहां पर मैं साइकोलॉजिकल वॉर का एक छोटा सा नमूना पेश करता हूं। ईरान के तेल को यूनान के समुद्र में लूट लिया जाता है, चोरी करते हैं, हमारे तेल को चुरा लिया है उन्होंने, उसके बाद जब ईरान के बहादुर सिपाही उसका बदला लेते हैं और दुश्मन के तेल टैंकर को ज़ब्त कर लेते हैं तो वे मीडिया में बड़े पैमाने पर प्रोपैगंडा करके ईरान पर चोरी का इल्ज़ाम लगाते हैं! चोर कौन है? आप ने हमारा तेल चुरा लिया था हमने उसे वापस ले लिया, चोरी हो जाने वाली अपनी चीज़ को वापस लेना, चोरी तो नहीं है। चोर आप हैं। अमरीकी, यूनान की हुकूमत को हुक्म देते हैं और यूनान की हुकमूत हुक्म पर अमल करती है और हमारा तेल चुरा लेती है। जी तो यह साइकोलॉजिकल वॉर है, इस तरह की जंग का मुक़ाबला करें जो अब अक्सर शुरु ही रहती है।

एक और सिफ़ारिश यह है कि लोगों के ईमान को अच्छे काम करने के लिए इस्तेमालन करें। लोग, मोमिन हैं, लोगों में ईमान है, यह ईमान अच्छे काम करा सकता है, आप लोग यह काम कर सकते हैं। इमाम ख़ुमैनी को इस काम में बहुत महारत हासिल थी, इमाम ख़ुमैनी, अच्छे कामों के लिए लोगों के ईमान को इस्तेमाल करने में माहिर थे।

एक और सिफ़ारिश यह है कि, कुछ लोगों को यह दिखाने की इजाज़त न दें कि मुल्क बंद गली में पहुंच चुका है। आजकल सोशल मीडिया पर कुछ लोगों का यही काम है, अब वह अन्जाने में यह काम करते हैं या फिर उन्हें पैसे मिलते हैं, यह मुझे नहीं मालूम, यह लोग यह दिखाना चाहते हैं कि मुल्क बंद गली में पहुंच चुका है, जी नहीं! मुल्क बंद गली में नहीं जाएगा। इमाम ख़ुमैनी के दौर में भी यही हुआ था। उस दौर में भी कुछ लोगों ने अख़बारों में लिखा कि मुल्क बंद गली में पहुंच चुका है, इमाम ख़ुमैनी ने कहा कि नहीं, बंद गली में आप पहुंच गये हैं, इस्लामी जुम्हूरिया, बंद गली में नहीं पहुंच सकती। उन्होंने कहा कि आप लोग बंद गली में पहुंच गये हैं।(20) सच्चाई भी यही थी। लोगों में मायूसी फैलाने की इजाज़त न दें।

मेरी अगली सिफ़ारिश यह है कि इमाम ख़ुमैनी कभी-कभी अकेले में या सब के सामने, ओहदेदारों को डांटते थी थे लेकिन इसी तरह कभी कभी लोगों में खुल कर तारीफ़ भी करते थे। इस तरह की बहुत सी मिसालें हैं कि जब इमाम ख़ुमैनी ने किसी एक ओहदेदार या फिर कई ओहदेदारों की तारीफ़ की। मेरी सिफ़ारिश यह है कि आज जब दुश्मन, इन्क़ेलाबी ओहदेदारों को बदनाम करने की कोशिश में है, तो क़द्रदानी करना बड़ी ज़िम्मेदारी है, मुल्क के ओहदेदारों की तारीफ़ की जाए। यह जो हम देखते हैं कि मिसाल के तौर पर आबादान के हादसे में एक मिनिस्टर तीन चार दिन रात दिन वहां रहता है, ख़ुद भी खड़ा रहता है, तो यह बहुत अहम काम है, और यह जो प्रेसिडेंट साहब अपने डिप्टी के साथ दुर्घटना के शिकार होने वालों से जाकर मिलते हैं, तो यह बहुत अहम है, इन सब की तारीफ़ की जाने की ज़रूरत है। यक़ीनी तौर पर नुक़सान करने वालों को सज़ा भी मिलना चाहिए, यही आबादान के मामले में या कोई भी मामला हो, जो लोग हादसे और नुक़सान की वजह बने हैं, उन्हें हर हाल में सज़ा मिलनी चाहिए।

पालने वाले! तुझे हमारे पाक शहीदों की रूहों और इमाम ख़ुमैनी की पाकीज़ा रूह का वास्ता है, हमें भी इस्लामी जुम्हूरिया की सच व सच्चाई से भरी राह पर लगा दे। पालने वाले! हमारी दुआ है कि हमारे और हमारी क़ौम के पैरों को इस राह पर जमाए रखे।

मैंने सुना है, मुझे बताया गया है कि आज, जनाब, हाज हसन ख़ुमैनी की तक़रीर के दौरान कुछ लोगों ने शोर शराबा किया, मैं इस काम के ख़िलाफ़ हूं, इस तरह के हंगामें और शोर शराबा करना मुझे नहीं पसंद है, मैं इसके ख़िलाफ़ हूं, यह सब सुन लें। अल्लाह से दुआ है कि वह हम सब को सच्चाई की राह दिखा दे।

 

1          इस प्रोग्राम के शुरू में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सैयद हसन ख़ुमैनी ने (इमाम ख़ुमैनी के रौज़े के मुतवल्ली)  कुछ बातें पेश कीं।

2          मोलवी, मसनवी मानवी, पहला अध्याय

3          जोज़फ़ स्टैलिन (पूर्व सोवियत संघ का दूसरा नेता)

4          सूरे तलाक़ की आयत नंबर 3 का एक भाग; '...जो अल्लाह पर भरोसा करता है, उसके लिए अल्लाह काफ़ी है।'

5          स्वर्गीय हुज्जतुल इस्लाम सैयद मोहम्मद अली वज़ीरी यज़्दी, विशाल वज़ीरी लाइब्रेरी के संस्थापक

6          सूरे सबा की आयत नंबर 46 का एक भाग; ʺकहिएः मैं तुम लोगों को नसीहत करता हूं कि दो-दो एक साथ या हर एक अकेले अल्लाह के उठ खड़ा हो।ʺ

7          सूरे बक़रह की आयत 238 का एक भाग; ʺआज्ञापालन के अंदाज़ में अल्लाह के लिए उठ खड़े होʺ

8          सूरे मुद्दस्सिर की पहली और दूसरी आयत; ʺहे रात में सिर पर चादर ओढ़े, उठिए और डराइये।ʺ

9          सूरे हदीद की आयत नंबर 25 का एक भाग; ʺ... ताकि लोग इंसाफ़ पर क़ायम हों।ʺ

10       सूरे निसा की आयत 127 का एक भाग; ʺतुम अनाथों के संबंध में इंसाफ़ पर क़ायम रहोʺ

11       सूरे रहमान की आयत नंबर 9 का एक भाग;  ʺन्याय के साथ ठीक ठीक तौलोʺ

12       शूरा सूरे की आयत 13 का एक भाग; ʺ...धर्म को क़ायम करोʺ

13       सूरे माएदा की आयत 68 का एक भाग; ʺजब तक तौरैत और इंजील पर अमल नहीं किया हैʺ

14       सूरे बक़रह की आयत 43 का एक भाग; ʺनमाज़ क़ायम करोʺ

15       हाफ़िज़ की ग़ज़ल 374 के एक शेर का हिस्ला

16       चापलूसी करना

17       सहीफ़ए इमाम, जिल्द-1 पेज 87; 5 नवंबर सन 1962 को स्डूडेंट्स और व्यापारियों के बीच स्पीच

18) सहीफ़ए इमाम, जिल्द 21 पेज 137

19) अमरीकी एयरफोर्स के अफ़सर,  राबर्ट एर्नेस्ट हाइज़र 

20) सहीफ़ए इमाम, जिल्द 14 पेज 376

20) सहीफ़ए इमाम, जिल्द 14 पेज 37