बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

काश यह मुमकिन होता कि पिछले बरसों की ही तरह इस इमामबाड़े में आप तबरेज़ियों और आज़रबाइजानियों से मुलाक़ात होती! इस साल भी हम क़रीब से आपको नहीं देख सके। हमें उम्मीद है कि अल्लाह आप सबको कामयाब करेगा, आपकी मदद करेगा और उसने जिस तरह से हमेशा आज़रबाइजान और तबरेज़ के अवाम पर अपनी कृपा की है, उसे बेहतरीन तरीक़े से आगे भी जारी रखेगा।

यह सभा 29 बहमन सन 1356 (18 फ़रवरी सन 1978) की घटना के बारे में है जो हमारी और आपकी सालाना मुलाक़ात है और हक़ीक़त में यह दिन, क्रांति के इतिहास में तबरीज़ का नाम रौशन होने का दिन है; 18 फ़रवरी का दिन, हमारी क्रांति के पूरे इतिहास में गर्व करने लायक़ और तबरेज़ का नाम रौशन करने वाला दिन है।

इससे पहले कि इस दिन यानी 18 फ़रवरी की घटना के बारे में कुछ बातें बयान करूं, चूंकि आज 15 रजब, नेक अमल और इबादत करने और अल्लाह के सामने गिड़गिड़ाने का दिन है, मैं यह ज़िक्र कर देना मुनासिब समझता हूं कि हमारे जवानों, हमारे प्यारों को अपनी रूहानी बुनियाद को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है; ज़रूरत तो हम सभी को है, लेकिन नौजवान, आध्यात्मिक व रूहानी तत्वों को अपने भीतर बेहतर ढंग से उतार लेते हैं। मुमकिन है इस दिन की इबादतों को मुझ जैसा नाचीज़ कोई इंसान अंजाम दे ले लेकिन जब यही इबादत नौजवान अंजाम देता है तो वह जो बर्कतें हासिल करता है, वो उससे कहीं ज़्यादा हैं जो मुझ जैसे लोग हासिल करते हैं; यह नौजवानी की ख़ूबी है। मैं नौजवानों को नसीहत करता हूं कि वह आज के मौक़े की अहमियत को, जो रजब की 15वीं तारीख़ है, समझें। अलबत्ता आज की इबादत को तीन दिन के रोज़े से जोड़ा गया है, लेकिन बिना रोज़े के भी सवाब की नीयत से उम्मे दाऊद नामी इबादत को अंजाम दिया जा सकता है। अल्लाह से इस रिश्ते से आपकी ज़िन्दगी में बर्कत आती है, देश को भी बर्कत मिलती है, क्रांति का भविष्य भी बर्कत वाला बनता है।

जहाँ तक 29 बहमन की घटना की बात है तो सबसे पहले यह कि 29 बहमन की तारीख़ तबरेज़ के लिए और हम सबके लिए शुक्रगुज़ारी की तारीख़ है; मैं इसी विषय पर बात करना चाह रहा हूं।

शुक्रगुज़ारी का दिन है; शुक्रगुज़ारी क्यों? इसलिए कि इस दिन तबरेज़ में एक वाक़या पेश आया जो इंक़ेलाब की कामयाबी में मददगार बना; इस वाक़ए की वजह से क्रांति और क्रांति से पहले की ज़मीनी व राजनैतिक सरगर्मियों का नतीजा निकला; यह तबरेज़ के 29 बहमन के वाक़ये की ख़ूबी थी; क्यों? यह काम, एक पहल थी, एक अहम क़दम था जिसने सभी को क़ुम के 19 देय (9 जनवरी सन 1978) के आंदोलन को जारी रखने का तरीक़ा सिखा दिया। अगर तबरेज़ ने 29 बहमन को इस बड़े कारनामे को अंजाम न दिया होता तो ईरानी क़ौम के लिए चेहलुम मनाने और संघर्ष जारी रखने की परंपरा शुरू न होती। जब तबरेज़ियों की पहल से क़ुम के शहीदों का चेहलुम तबरेज़ में मनाया गया तो यह अमल एक नमूना बन गया। दूसरे शहरों में, यज़्द में, केरमान में, फ़ार्स प्रांत के शहरों और बहुत सी दूसरी जगहों पर यह काम शुरू हो गया इस अमल ने अवाम के हर तबक़े को संघर्ष और क्रांति के मैदान में पहुंचा दिया और अवाम की यही मौजूदगी, इंक़ेलाब की कामयाबी के रूप में सामने आयी। इस क्रांति की कामयाबी, अवाम की मैदान में मौजूदगी और सड़कों पर निकल आने का नतीजा थी। यह क्रांति बंदूक़, राजनीति और पार्टीबाज़ी से कामयाब नहीं हुयी, बल्कि इसकी कामयाबी की अस्ल वजह अवाम की मैदान में मौजूदगी थी। अवाम की मौजूदगी, इस तरह के क़दम की वजह से ही मुमकिन हुयी थी, इन कार्यवाहियों का आग़ाज़ तबरेज़ से हुआ, तबरेज़ में यह पहल सामने आयी। इसलिए आप तबरेज़ के अवाम सहित हम सबको अल्लाह का शुक्र अदा करना चाहिए कि आपके इस क़दम को बर्कत हासिल हुयी और इसका नतीजा इंक़ेलाब के कामयाब होने के रूप में सामने आया।

तो 18 फ़रवरी का दिन एक बड़ी घटना का दिन है। आज़रबाइजान ने बहुत सी घटनाएं देखी हैं और इतिहास में, कुछ सदी पहले से, जो मुद्दत पूरे भरोसे से कही जा सकती है वह तीन चार सदियों की मुद्दत है, आज़रबाइजान क़ौमी एकता, क़ौमी प्रतिरोध का अगुवा था; यानी आज़रबाइजान और तबरेज़ ईरानी क़ौम में एकता लाने में बुनियादी हैसियत रखता है और अनेक घटनाओं के मुक़ाबले में ईरानी क़ौम में प्रतिरोध का सबक़ देने का अहम केन्द्र था। यह चीज़ इस शहर और इस प्रांत के लिए फ़ख़्र करने के लायक़ है, बल्कि बहुत गर्व की बात है।

इस बात का ज़िक्र भी मुनासिब है कि आज़रबाइजान की एक ख़ास पहचान पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत अलैहेमुस्सलाम से इश्क़ व मोहब्बत का पर्चम हमेशा आज़रबाइजान के अवाम के हाथों में रहा है; यानी इन सदियों में, जिनकी तरफ़ मैंने इशारा किया, कभी भी यह पर्चम आज़रबाइजान के अवाम के हाथों से छूटा नहीं। बहुत से दूसरे शहरों में भी ऐसा ही है, लेकिन इस मामले में आज़रबाइजान की यह पहचान है और यह भी आज़रबाइजान के फ़ख़्र करने वाले कारनामों में से एक है।

ख़ैर तो मैं यह अर्ज़ कर रहा था कि 18 फ़रवरी का आंदोलन, संघर्ष के जारी रहने की वजह बना; आज मैं इस ‘सिलसिले’ के बारे में कुछ जुमले कहना चाहता हूं।

किसी भी काम का लगातार जारी रहना, उसकी कामयाबी की कुंजी है, अगर कोई काम शुरू होता है, लेकिन जारी नहीं रह पाता, पहले क़दम के बाद, लगातार अगला क़दम नहीं उठ पाता, तो वह काम नाकाम रहेगा, बेकार हो जाएगा, बेअसर हो जाएगा। दुनिया में ऐसे बहुत से आंदोलन और क्रांतियां हैं जो बहुत अच्छे ढंग से शुरु हुए, उनमें बड़े अहम क़दम भी उठाए गए लेकिन वह कामयाब नहीं हो सके; क्यों? क्योंकि आंदोलन चलाने वाले- आंदोलन चलाने वाले या तो आंदोलन के नेता हैं या फिर उनके पीछे चलने वाले आम लोग हैं- आगे बढ़ने और रास्ता जारी रखने से पीछे हट गए; या थक गए, या निराश हो गए, या भौतिक खेलों में खो गए, या डर गए या आंतरिक मतभेद का शिकार हो गए, बहरहाल अगला क़दम नहीं उठा सके, इसलिए उनका आंदोलन कामयाब नहीं हो पाया। इसलिए हम कहते हैं कि काम का जारी रहना और काम का सिलसिला, किसी भी काम की कामयाबी की कुंजी है।

18 फ़रवरी की घटना, अवाम के ज़मीनी सतह पर आंदोलन की बुनियाद है। तबरेज़ के अवाम ने ऐसा काम किया कि जिसकी वजह से अवाम का ज़मीनी स्तर पर आंदोलन शुरू हो गया। आंदोलन इससे बरसों पहले से मौजूद था, देश के दूरदराज़ के इलाक़ो में तरह तरह के आंदोलन मौजूद थे, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अवाम की मौजूदगी क़ुम से शुरू हुयी और अगर तबरेज़ की घटना न होती तो क़ुम की घटना को भुला दिया जाता; तबरेज़ियों ने आंदोलन के सिलसिले को जारी रखना सबको सिखा दिया और 18 फ़रवरी का वाक़ेया, इसी सिलसिले का आग़ाज़ और इस कारनामे को जारी रखने की शुरूआत थी, जिसका आग़ाज़ हो चुका था। इस पहल ने अवाम को मैदान में आने का हौसला दिया, यह इस बात की वजह बनी कि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की आवाज़, हमेशा से ज़्यादा असरदार तरीक़े से पूरे ईरानी अवाम के कान तक पहुंचे-इसी तबरेज़ की घटना के बारे में इमाम ख़ुमैनी ने कम से कम दो संदेश दिए, ईरानी कौम के नाम, तबरेज़ और आज़रबाइजान के अवाम के नाम (2)- और क्रांति का रास्ता साफ़ हो गया, पता चल गया कि यह क्रांति जारी रहना चाहती है तो क्या करना होगा। यह चीज़ 18 फ़रवरी ने सबको सिखाई, इसने दिखा दिया कि इस तरह से आगे बढ़ना होगा, मैदान में आना होगा और सरकश हुकूमत की चकाचौंध से, जो हक़ीक़त में खोखली थी, डरना नहीं होगा। 

सिलसिले के जारी रहने की जो बात हमने की बहुत अहम है, इमाम ख़ुमैनी की नज़र में भी क्रांति की नीतियों में बुनियादी हैसियत रखता थी। इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद, इस्लामी व्यवस्था क़ायम होने के बाद इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की पूरी कोशिश यही थी कि यह सिलसिला जारी रहे। तथ्य को बयान करने वाले उनके बयान, सबको लगातार हौसला देते थे, रास्ता दिखाते थे, लोगों को मक़सद याद दिलाते थे कि वे यह न भूलें कि इस तहरीक और इस आंदोलन का मक़सद क्या है और इस तरह सभी को हरकत में ले आते थे; यानी इमाम ख़ुमैनी ने क्रांति की कामयाबी के बाद, शुरुआती मरहलों में इस अहम बिन्दु से ज़रा भी ग़फ़लत नहीं बरती; यहाँ तक कि जब वे बीमार हुए, अस्पताल में दाख़िल हो गए और बहुत ज़्यादा बीमारियों में घिर गए, तब भी वे लगातार क़दम उठाने और क्रांति के सिलसिले के जारी रखने के विषय को नहीं भूले और लगातार इसे याद दिलाते रहे; यह इस बात की वजह बनी कि दुश्मन के हथकंडे फ़ेल हो जाएं और इंक़ेलाब ज़िंदा रहे।

मैं एक बार फिर तबरेज़ की मिसाल दूंगा। सन 1979 के बीच में, तबरेज़ को एक इंक़ेलाब विरोधी हमले का सामना करना पड़ा; कुछ साज़िशों के ज़रिए, कुछ शुरूआती हरकतों के ज़रिए, जो तारीख़ का हिस्सा हैं, उनके बारे में लिखा भी गया है और बहुत से लोग जानते भी हैं, पुराने लोगों को याद भी है कि तबरेज़ को एक इंक़ेलाब मुख़ालिफ़ क़दम का सामना करना पड़ा। ख़ुद तबरेज़ में कुछ अवांछित तत्व थे लेकिन ज़्यादातर बाहर के लोग थे जो तबरेज़ में दाख़िल हो गए, तबरेज़ में हंगामा मचा दिया और राजधानी से भी उन्हें एक तरह की मदद मिल रही थी। कुछ लोग फ़िक्रमंद थे, हम भी क्रांति काउंसिल में उस वक़्त इस घटना के बारे में बात कर रहे थे, बहस कर रहे थे, कुछ लोग बहुत ज़्यादा परेशान थे; इमाम ख़ुमैनी ने कहा कि ख़ुद तबरेज़ के ग़ैरतमंद अवाम इसका हल निकाल लेंगे, किसी को दख़ल देने की ज़रूरत नहीं है; इमाम ख़ुमैनी का यह नज़रिया था। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी स्पीच में भी यह बात बयान की थी।(3) उन्होंने कहा कि दूसरों को दख़ल देने की ज़रूरत नहीं है, ख़ुद तबरेज़ इस साज़िश को दबा देगा और ऐसा ही हुआ। शहीद मदनी, जो उस वक़्त शहीद क़ाज़ी (रहमतुल्लाह अलैह) के बाद तबरेज़ के इमामे जुमा थे, उस दिन मैदान में मौजूद थे, ख़ुद शहीद मदनी मैदान के बीचो बीच में थे, उनके आस-पास नौजवानों की तादाद हर लम्हा बढ़ती जा रही थी, हज़ारों नौजवान उनके साथ आ गए और उन्होंने उस साज़िश को नाकाम बना दिया। इमाम ख़ुमैनी का यह क़दम, उनका यह नज़रिया, इस बात का सबब बना कि इस तरह की बड़ी कामयाबी हासिल हो, यह एक क़दम था, इमाम ख़ुमैनी के काम इस तरह के होते थे।

काम जारी रखने और क्रांति के सिलसिले को जारी रखने के बारे में इमाम ख़ुमैनी के उपायों की एक अहम मिसाल वे उपाय थे जो उन्होंने पवित्र प्रतिरक्षा के दौरान अपनाए थे। कुछ हवाई अड्डों और इलाक़ों पर सद्दाम का हमला शुरू होने के पहले दिन से लेकर 8 साल की जंग के आख़िरी दिन और संधि क़ुबूल करने तक, इमाम ख़ुमैनी लगातार सिपाहियों को, अवाम को, रसद पहुंचाने वालों को, देश के अधिकारियों को हौसला देते रहे; हक़ीक़त में इमाम ख़ुमैनी ने ईरानी क़ौम पर थोपी गयी जंग को, ईरानी क़ौम की ताक़त का ज़रिया बना दिया। इस वक़्त देश के भीतर हक़ीक़त में हमारे हाथ ख़ाली थे, हथियार नहीं थे, संसाधन नहीं थे, दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए एक सुव्यवस्थित कमान नहीं थी; मतलब यह कि हमारे पास संसाधन बहुत कम थे, क्रांति की कामयाबी के आग़ाज़ का ज़माना था, मुश्किलें बहुत ज़्यादा थीं। इस तरह के हालात में इमाम ख़ुमैनी ने संसाधन से ख़ाली एक इंक़ेलाबी क़ौम के लिए जंग को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ताक़त व हैसियत का ज़रिया बना दिया। जंग की साज़िश दुश्मनों ने तैयार की थी ताकि क्रांति को ख़त्म कर सकें लेकिन इमाम ख़ुमैनी ने जंग को क्रांति को मज़बूती देने और उसे बाक़ी रखने का साधन बना दिया और इस ख़तरे को अवसर में बदल दिया। इमाम ख़ुमैनी की पालीसियों में तहरीक को जारी रखने का विषय यह है।

मैं फिर तबरेज़ की मिसाल दूंगा। मैंने शहीद बाकेरी को इंक़ेलाब से पहले देखा था; मेरे एक दोस्त जो तबरेज़ यूनिवर्सिटी में शिक्षा हासिल कर रहे थे, स्वर्गीय बाकेरी साहब को मशहद लेकर आए और मैं उनसे मिला; एक साधारण से स्टूडेंट थे। इमाम ख़ुमैनी ने यूनिवर्सिटी के एक स्टूडेंट को एक बड़ी शख़्सियत, एक बड़े कमांडर और एक आइडियल इंसान में बदल दिया। यह इमाम ख़ुमैनी का काम था। महदी बाकेरी और शहीद क़ासिम सुलैमानी जैसे लोगों को इमाम ख़ुमैनी ने तैयार किया, इमाम ने उनके वजूद को निखारा। क्रांति के सिलसिले के जारी रहने का काम इस तरह का है। यह नौजवानों को लगातार क्रांतिकारी शख़्सियत, क्रांतिकारी मर्दों, और इंक़ेलाब के लीडरों में बदलता और आगे बढ़ाता है। 

इसलिए क्रांतिकारी आंदोलन के सिलसिले का जारी रहना अहम विषय है, जैसा कि हमने कहा कि 18 फ़रवरी की घटना इस इंक़ेलाबी सिलसिले को आगे बढ़ाया, यह हमारे देश की आज और कल की ज़िन्दगी के सबसे अहम मुद्दों में से एक है; इसे हमेशा मद्देनज़र रखना चाहिए, इस पर काम करना चाहिए, इस पर ग़ौर करना चाहिए और यक़ीनी तौर पर यह सबक़ इमाम ख़ुमैनी से मिला है, इसे हम सबने इमाम ख़ुमैनी से सीखा है।

अब सवाल यह है कि क्रांतिकारी गतिविधियों के सिलसिले के जारी रहने का मतबल क्या है? हम ने इसकी कुछ मिसालें और कुछ नमूने पेश किए, लेकिन बुनियादी तौर पर तहरीक के सिलसिले के जारी रहने के कारक क्या हैं? क्रांतिकारी गतिविधियों के सिलसिले के जारी रहने का मतलब यह है कि हम क्रांति के लक्ष्य को मद्देनज़र रखें और आज और कल की सभी ज़रूरतों, इस वक़्त और भविष्य की उन ज़रूरतों को मद्देनज़र रखें जो हमें उन लक्ष्यों तक पहुंचाती हैं और जिस तरह से भी मुमकिन हो, इन ज़रूरतों को पूरा करें; इसका मतलब है क्रांतिकारी गतिविधियों का जारी रहना-क्रांतिकारी लक्ष्य को मद्देनज़र रखा जाए। उन लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए स्वाभाविक तौर पर कुछ चीज़ों की ज़रूरत है, उन ज़रूरतों में कुछ कम मुद्दत वाली हैं और कुछ का संबंध वर्तमान से है, इनमें से कुछ ज़रूरतों का संबंध भविष्य से है, आने वाले कल के बारे में है जिनकी तैयारी आज ही कर लेनी चाहिए। इन ज़रूरतों को हमें अपनी बिसात भर कोशिश करके पूरा करना चाहिए; यह चीज़ क्रांतिकारी सरगर्मियों के क्रम के जारी रहने का सबब बनती हैं जिसके कुछ नमूने मैं पेश करुंगा।

अगला सवाल यह है कि हमने जो ‘क्रांतिकारी लक्ष्यों’ की बात की तो इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि देश की तरक़्क़ी, देश में सामाजिक न्याय, देश की मज़बूती, देश में इस्लामी समाज के गठन और आख़िर में इस्लामी सभ्यता और महान इस्लामी संस्कृति तक पहुंच; ये सब क्रांति के लक्ष्य हैं। यह देखना चाहिए की इन लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए सामाजिक न्याय तक पहुंचने के लिए, देश की हक़ीक़ी तरक़्क़ी, खोखले दावे तक सीमित रहने वाली तरक़्क़ी नहीं, बल्कि चौतरफ़ा तरक़्क़ी; भौतिक व आत्मिक दोनों पहलुओं के लिए और उस इस्लामी समाज तक पहुंच के लिए जिसमें सही अर्थ में इस्लामी हुक्म लागू हों और लोगों को उन आदेशों के लागू होने से फ़ायदा मिले और आख़िर में नई इस्लामी सभ्यता तक पहुंच के लिए कौन कौन से काम ज़रूरी हैं, हमें इन कामों को अपनी ताक़त व क्षमता के मुताबिक़ अंजाम देना चाहिए; हर किसी को अपनी क्षमता व सलाहियत के मुताबिक़; मैं किसी तरह, देश के अधिकारी दूसरी तरह, स्टूडेंट्स किसी और तरह और इसी तरह दूसरे लोग, मैं इसके बारे में बताउंगा।

मैं कुछ कारक बताता हूं। वैज्ञानिकों और रिसर्च स्कॉलर्ज़ की कोशिशें, एक वैज्ञानिक और एक रिसर्च स्कॉलर जो कोशिश करता है वह क्रांति के बाक़ी रहने की ओर एक क़दम है। धार्मिक शिक्षा केन्द्र और यूनिवर्सिटियों के टीचरों की कोशिश और क्लास, रोज़गार पैदा करने वालों और मज़दूरों की कोशिशें, उद्योग, खेती व सेवा वग़ैरह ये सब इन चीज़ों में शामिल हैं, अगर क्रांति के लक्ष्य के परिप्रेक्ष्य में अंजाम दी जाएं तो क्रांतिकारी गतिविधियों के दायरे में आएंगी। स्टूडेंट की कोशिश, चाहे यूनिवर्सिटी में हो या धार्मिक पाठशाला में; सामाजिक सेवा के मैदान के कार्यकर्ताओं की कोशिश, चैरिटेबल कामों के मैदान में सक्रिय लोगों की कोशिश, जिसे पिछले दो तीन बरस में विभिन्न मामलों में ईरानी क़ौम ने बेहतरीन अंदाज़ में अंजाम दिया और उसे देखा भी, रक्षा क्षेत्र में काम करने वालों की कोशिश, सही बात को बयान करने का जेहाद करने वालों की कोशिश, वही चीज़ें जिनका जनाब आले हाशिम ने अभी अपनी स्पीच में ज़िक्र किया और रिपोर्ट दी कि ये चीज़ें अंजाम पा रही हैं। राजनीति के मैदान में सच्चाई से पर्दा उठाने वाले लोग; ऐसे बहुत से लोग हैं जो वैज्ञानिक मैदान में सच्चाई से पर्दा उठाते हैं और उन्हें अनेक मीडिया प्लेटफ़ार्मों के ज़रिए अवाम तक पहुंचाते हैं और अल्लाह का शुक्र है आज साइबर स्पेस और सोशल मीडिया में और इसी तरह प्रिंट मीडिया में और ज़्यादातर राष्ट्रीय मीडिया में यह काम ज़िम्मेदार लोग अच्छी तरह अंजाम दे रहे हैं। प्रतिरोध के केन्द्रों की मदद; जो लोग हमारे क्षेत्र में और इस्लामी जगत में प्रतिरोध के केन्द्रों की मदद कर रहे हैं, वह हक़ीक़त में क्रांतिकारी गतिविधियों और क्रांति के जारी रहने के लिए काम कर रहे हैं। इसी तरह जो लोग अनेक घटनाओं के वक़्त मैदान में जाने के लिए तैयार हैं, जैसे पवित्र रौज़ों की रक्षा का मुद्दा सामने आता है, तो जो लोग मैदान में जाते हैं, कभी कभी देश के भीतर अलग अलग तरह की घटनाएं पेश आती हैं, जैसे 9 देय (30 दिसंबर) की घटना, अलबत्ता तबरेज़ के लोग 8 देय (29 दिसंबर) को ही, दूसरों से एक दिन पहले ही मैदान में आ गए, तो जो लोग मैदान में आ जाते हैं, यह सब क्रांति को बाक़ी रखने वाले क़दम हैं; यह सब उन लोगों की गतिविधियां हैं जिन्हें हम ‘क्रांति को बाक़ी रखने वाले क़दम’ का नाम देते हैं और ये सारे काम, क्रांति के बड़े व लंबी मुद्दत वाले लक्ष्यों को मद्देनज़र रख कर अंजाम दिए जाते हैं। 

अलबत्ता ये कोशिशें दो तरह की हैं; इनमें से कुछ कोशिशों का संबंध आज से है, आज के मुद्दे हैं जबकि कुछ कोशिशों का संबंध भविष्य से है। उस वक़्त की ज़रूरतों को, आज की ज़रूरतों को आम तौर पर क़ौम के सभी लोग जल्द समझ जाते हैं और छोटे से इशारे से उन्हें समझ कर बिना झिझक मैदान में आ जाते हैं।

आठ वर्षीय जंग के वक़्त ऐसा ही था, इमाम ख़ुमैनी का एक इशारा, लोगों का जनसैलाब जंग के मैदान की तरफ़ रवाना कर देता था; इन हालिया घटनाओं में भी ऐसा ही हुआ, पवित्र रौज़ों की रक्षा के मामले में भी ऐसा ही था। अलबत्ता इस मामले में ईरानी क़ौम की समझ और होशियारी हैरतअंगेज़ है! किस तरह ज़रूरी मौक़ों पर पूरी होशियारी के साथ मैदान में आ जाती है, जिसकी स्पष्ट मिसाल, जैसा कि मैंने पहले ज़िक्र किया कि पिछले दशकों में जंग के मैदान में मौजूदगी थी, क्रांति विरोधी तत्वों से निपटने में जनता का योगदान था, सन 1979 में तबरेज़ का वही वाक़ेया इसकी एक मिसाल है और इसी तरह के नमूने देश के दूसरे इलाक़ों में भी पाए जाते थे और दूसरी बहुत सी सरगर्मियां भी थीं। 9 देय इन्हीं सरगर्मियों में से एक थी; लोग ख़ुद से मैदान में आ गए थे, उन्होंने ज़रूरत महसूस की और उस ज़रूरत को पूरा कर दिया।

मुल्क के लिए साइंस के मैदान में यही सब कुछ करना चाहिए और इसी की ज़रूरत है। आप देखिए कि यह जो कोरोना का मामला था, हमारे मुल्क के नौजवान साइंटिस्ट फ़ौरन काम में लग गये, मुझे भी क़रीब से मालूम था कि वह क्या कर रहे हैं। कोरोना का मामला जब उठा तो फिर एक वैक्सीन की ज़रूरत थी, इसी लिए कई जगहों से, कई डिपार्टमेंट्स में काम शुरु हो गया जिसके नतीजे में आज आप देख रहे हैं कि हमारे मुल्क में कई तरह के वैक्सीन मौजूद हैं जिन्हें लोगों ने इस्तेमाल किया और मुल्क को अब दूसरों के सामने हाथ फैलाने और किसी दूसरे का एहसान लेने की ज़रूरत नहीं है जिनके बारे में यह भी नहीं मालूम कि वह वैक्सीन देंगे या नहीं देगें और अगर हम खुद वैक्सीन न बनाते तो वह हमें देते भी नहीं। यह वही फ़ौरी ज़रूरत की बात है जिसे महसूस किया जाता है और महसूस करने के बाद वह ज़रूरत पूरी की जाती है।

इस तरह की ज़रूरत महसूस करने के बाद काम के लिए मैदान में उतर पड़ने की एक मिसाल हालिया कुछ दिनों पहले मैदान में लोगों की मौजूदगी है, इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी की सालगिरह पर। इस बार की 11 फरवरी अजीब थी, वाक़ई ख़ुद बख़ुद अंजाम पाने वाला काम था, सही तौर पर इसे ही अवाम की तरफ़ से किया जाना वाला काम कहा जा सकता है और यक़ीनी तौर पर इसकी तारीफ़ की जानी चाहिए। लोग इतनी परिशानियों में हैं, एक तरफ़ कोरोना है, दूसरी तरफ रोज़गार की परेशानी है, दुश्मनों की तरफ़ से प्रोपगंडा भी जारी है और मुल्क के अंदर भी अफ़सोस के साथ कुछ लोग इस तरह के प्रोपगंडों में मदद कर रहे हैं लेकिन फिर भी इतनी सारी रुकावटों और परेशानियों से घिरे ईरानियों ने इतनी बड़ी रैली निकाली है। जो लोग भीड़ का अंदाज़ा लगाने का काम करते हैं और हर साल रिपोर्ट तैयार करते हैं मतलब जो लोग कैमरे वग़ैरा की मदद से लोगों की तादाद का अंदाज़ा लगाते हैं उन सब ने हमें रिपोर्ट दी कि दो तीन सूबों के अलावा, मुल्क के हर स्टेट में इस साल लोगों की भीड़ पिछले साल से ज़्यादा थी, कहीं-कहीं तो पिछले साल से दो गुना ज़्यादा लोग रैलियों में शामिल हुए, कहीं पचास फ़ीसद ज़्यादा तो कहीं चालीस फ़ीसद, लगभग हर जगह का यही हाल था। लोगों का यह काम यक़ीनी तौर पर बहुत ही सूझबूझ भरा और हैरान करने वाला है और इसमें कई पैग़ाम छुपे हैं। तो यह आज हमारे मुल्क की ज़रूरत है जिसे इन लोगों ने खुद समझा और मैदान में आ गये।

कुछ चीज़ें मुल्क के लिए आगे चल कर ज़रूरी हो जाएंगी, इस तरह की ज़रूरत को भी मुल्क में बहुत से लोग समझते हैं और उसके लिए तैयारी करते हैं लेकिन बहुत से लोग, लापरवाही भी कर जाते हैं। आने वाले कल की ज़रूरत से मेरा मतलब वह ज़रूरतें है कि अगर आज आप ने उनके बारे में नहीं सोचा और कुछ नहीं किया तो कल आप हैरान व परेशान हो जाएंगे, यानी कल फंस जाएंगे। अगर आज कुछ न करेंगे तो कल आप को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। मिसाल के तौर पर जैसे साइंटिस्ट बनाना और पढ़ाई लिखाई पर ध्यान देना है। अगर आज हम स्टडी करने वालों और साइंटिस्ट बनाने पर ध्यान नहीं देंगे और साइंस व तरक़्क़ी की राह में चोटियों तक पहुंचने के मिशन पर काम नहीं करेंगे तो पंद्रह बरस बाद, बीस बरस बाद, हमारे पास ऐसे साइंटिस्ट नहीं होंगे जो दुनिया के साइंटिस्टों के सामने खड़े हो सकें या दुनिया में साइंस के मैदान में आगे बढ़ सकें, इस लिए आज यह काम अगले बरसों के लिए एक ज़रूरत है। बच्चे पैदा करने और आबादी बढ़ाने पर जो मैं ज़ोर देता हूं वह भी इसी तरह है। अगर हम अपनी नस्ल बढ़ाने के बारे में आज नहीं सोचेंगे तो पंद्रह- बीस बरस बाद देर हो चुकी होगी, हम ऐसे मुल्क में बदल जाएंगे जहां आगे बढ़ने और तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी लोग यानि बड़ी तादाद में जवान नहीं रहेंगे इस लिए कल की फिक्र आज ही करना होगी।

या जैसे यही एटमी एनर्जी का मामला है। दुनिया हर दिन एटमी एनर्जी की ज़रूरत पहले से ज़्यादा महसूस कर रही है। हमें भी कभी न कभी पीसफुल एटमी एनर्जी की सख़्त ज़रूरत पड़ेगी तो अगर अभी से उसके बारे में नहीं सोचेंगे, उसकी तैयारी नहीं करेंगे तो कल देर हो चुकी होगी और हमारा हाथ खाली रह जाएगा। जब दुनिया इसके हर पहलु में एक्सपर्ट हो चुकी होगी तो फिर उस वक्त इस मैदान में चलना और आगे बढ़ना हमारे लिए बहुत मुश्किल होगा। इस लिए आप देखिए कि हमारे दुश्मनों का मोर्चा, एटमी एनर्जी के मामले में किस बेरहमी से हमारे खिलाफ़ काम कर रहा है! पाबंदी लगायी जाती है उस एटमी एनर्जी की वजह से जिसके बारे में उन्हें ख़ुद पता है कि हम उसे गैर फौजी मक़सद के लिए इस्तेमाल करते हैं। कहने को तो कहते हैं कि ईरान, एटम बम बनाने से बस इतना दूर है उतना दूर है! लेकिन यह सब बेबुनियाद बातें हैं, उन्हें खुद पता है कि हम बम नहीं बनाना चाहते, हम एटमी हथियारों के लिए कोशिश नहीं कर रहे हैं, हम एटमी एनर्जी से पीसफुल फायदा उठाना चाहते हैं,वह यह समझ चुके हैं, वह इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं लेकिन अस्ल में वे यह नहीं चाहते कि ईरानी, इस बड़ी तरक्की और गैर मामूली काम में कामयाब हों और आगे बढ़ें इसी लिए दबाव डाल रहे हैं क्योंकि ईरानियों को कल इसकी ज़रूरत होगी इस लिए दुश्मन चाहते हैं कि यह काम जारी न रहे।

अगर हमारे फ्यूचर के बारे में इन सब चीज़ों पर आज हमने ध्यान नहीं दिया, आज लापरवाही की तो कल परेशानी होगी। एटमी समझौते के बारे में पांच-छे साल पहले मैं कुछ एतेराज़ करता था और मेरा कहना था कि एटमी समझौते में कुछ चीज़ों को मद्देनज़र रखना ज़रूरी था ताकि बाद में परेशानी न हो। मेरा अस्ल एतेराज़ यह था कि मेरी कही बातों को मद्देनज़र क्यों नहीं रखा गया, मैंने बार-बार कहा था लेकिन मेरी कुछ बातों को समझौते के वक्त ध्यान में नहीं रखा गया जिसके बाद इतनी परेशानियां हुईं जिन्हें आप सब ने देखा है। इस लिए फ्यूचर पर नज़र और उसके लिए तैयारी बहुत ज़रूरी है।

 

यहां पर मैं एक दूसरी अहम बात कहना चाहता हूं और वह यह है कि इस्लामी इन्क़ेलाब के इन चालीस बरसों में, इस इन्क़ेलाब को आगे बढ़ाने के लिए बहुत से काम किये गये हैं। वह भी फायदेमंद काम! अब इनमें से कुछ काम, लोगों ने खुद अपनी मर्ज़ी से किये और कुछ काम, सरकारी सतह पर किये गये। कुल मिलाकर बात यह है कि इन चालीस बरसों के दौरान बहुत बड़े-बड़े काम किये गये जिनका कुछ लोग इन्कार करना चाहते हैं, उन पर पर्दा डालना चाहते हैं। मैंने कुछ दिनों पहले भी एक तक़रीर में कहा था कि आज मुल्क में जो परेशानियां हैं वो उन अहम कामों को भुलाने और छुपाने की वजह न बन जाएं जो इन बरसों में किये गये हैं (4) इस चीज़ को नज़र में रखने की ज़रूरत है।

हमने बहुत तरक़्क़ी की है, बहुत सी मिसाले हैं, जिनमें से एक साइंस में तरक़्क़ी है। इन्क़ेलाब के बाद के बरसों में हम, साइंस के मैदान में तरक्क़ी में पूरी दुनिया से आगे रहे हैं। यह मेरी राय नहीं है, इन्टरनेश्नल आर्गैनाइज़ेशनों का नज़रिया है। यानी हमारी तरक़्क़ी की जो रफ्तार रही है वह दुनिया में तरक्क़ी की औसत रफ़तार से ज़्यादा रही है, कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़ दस गुना ज़्यादा जबकि कुछ रिपोर्टों में तेरह गुना ज़्यादा बतायी गयी है। जी हां साइंस बहुत अहम है। इल्म,  ताक़त है (5) साइंस सच में ताक़त और हुकूमत है। यह जो “तवाना बुवद हर कि दाना बुवद“ (6)  यानि जो इल्म वाला होगा वह ताक़तवर होगा की जो मशहूर शेर है वह बिल्कुल सही है। ताक़तवर होगा जो आलिम होगा। साइंस किसी भी मुल्क के लिए ताक़त है, यह मुल्क को ताक़तवर बनाती है। हमने साइंस के बहुत से मैदानों में ऐसी तरक्क़ी की है जिसके बारे में हम इन्क़ेलाब के शुरु में सोच भी नहीं सकते थे। हम ख़ुद इन्क़ेलाब के फ़्रंट पर रहे हैं, हमें ख़ुद इस बात पर यक़ीन नहीं होता था कि हम एटमी एनर्जी, नेनो टेक्नालॉजी, बायो टेक्नालॉजी में, मेडिकल के पेचीदा मैदानों में, बेहद मुश्किल आप्रेशनों में, बांझपन में, स्टेम सेल्ज़ और साइंस व टेक्नालॉजी के अलग-अलग मैदानों में इस तरह से तरक़्क़ी कर पाएंगे लेकिन ख़ुदा के शुक्र से हम ने तरक़्क़ी की, हमारे नौजवानों ने मज़बूत इरादा किया और आगे बढ़ गये।

मुल्क के लिए ज़रूरी चीज़ों में से कुछ साइंस व टेक्नालॉजी से ताअल्लुक़ रखती थीं कुछ बुनियादी ढांचे से। अब मैं इन दोनों को एक दूसरे से तोलना नहीं चाहता। जो लोग इस लाइन के एक्सपर्ट हैं वह यह काम करें क्योंकि यह काम भी दिलचस्पी वाला है। महफ़ूज़ रास्तों, सड़कों, हाइवे, रेलवे, बांधों, घरों, मुल्क में बिजली, पानी और गैस की सप्लाई इन सब मैदानों में पिछले दसियों बरसों में जो तरक़्क़ी हुई है वह हैरान करने वाली है, काफ़ी अहम तरक़्क़ी है और अगर इन्क़ेलाबी और जेहादी अंदाज़ में काम न किया जाता तो इतनी तरक्क़ी नहीं होती। मिसाल के तौर पर आज ईरान इलाक़े में मेडिकल और इलाज का सेन्टर बन गया है जबकि कल तक छोटे से आप्रेशन के लिए भी जिसके पास भी पैसे होते वह ईरान से बाहर जाता लेकिन आज इलाक़े के कई मुल्कों के लोग, बेहद मुश्किल और पेचीदा सरजरी के लिए ईरान आते हैं। आज ईरान में जो सर्विसेज़ हैं और जिस तरह से तरक़्क़ी हुई है वह इन्क़ेलाब से पहले के मुक़ाबले में दस गुना ज़्यादा है और यह बहुत अहम है, यह सब हुआ है और यह सब मुल्क की वह ख़िदमत है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

यहां तक कि इकोनॉमी के मैदान में भी ऐसा ही है। मैं तो उन लोगों में से हूं जो इकोनॉमी के सिलसिले में ख़ुद को हमेशा कटघरे में खड़ा करते हैं। सोशल जस्टिस में, दौलत के बंटवारे में, समाज के कमज़ोर लोगों की बराबरी के सिलसिले में और इस तरह की बहुत सी चीज़ों पर मुझे भी एतेराज़ है लेकिन इसी इकोनॉमी के बारे में दुनिया के मशहूर इकोनॉमिक ऑर्गेनाइज़ेशन्स का यह कहना है कि ईरान ने इकोनॉमी के कई अहम मैदानों में पहले के मुक़ाबले में काफ़ी तरक़्क़ी की है, बड़े-बड़े क़दम उठाए और बड़े-बड़े काम किये हैं। इन सब के अलावा भी हम कई मैदानों में अपने पैरों पर खड़े हो गये हैं और पैदावार करने वाले ईरानियों में जो कान्फ़िडेंस है उसका का भी ज़िक्र किया जाना चाहिए। यक़ीनी तौर पर नेशनल मीडिया की इस सिलसिले में काफ़ी बड़ी ज़िम्मेदारी है लेकिन जिस तरह से उसकी कवरेज होनी चाहिए वैसी  नहीं हुई है, यह काम करना चाहिए यह उन कामों में शामिल है जिनकी ज़िम्मेदरी नेशनल मीडिया पर है। इस मैदान में काम करने वाले सभी लोगों ने अस्ल में इन्क़ेबाल को आगे बढ़ाने में मदद की है, इन्क़ेलाब को जारी रखने में मदद की है। यकीनी तौर पर लापरवाही भी हुई है, इन बरसों में कुछ कमियां भी रही हैं,  कुछ लोगों ने ग़लत फ़ायदा भी उठाया है यह सब भी था लेकिन बड़े-बड़े काम भी हुए हैं लेकिन अगर यह कमियां न होतीं तो हालात और बेहतर होते।

मैं यह कहना चाहता हूं कि इन्क़ेलाब को जारी रखने और आगे बढ़ाने के लिए किये जाने वाले इन्ही कामों की वजह से आज इन्क़ेलाब ज़िन्दा है और इसके साथ ही साथ मुल्क और क़ौम को नयी ज़िंदगी दे रहा है। यह जो आप देख रहे हैं कि साम्राज्यवादी ताक़तें इस तरह से इन्क़ेलाब और ईरान की इन्क़ेलाबी क़ौम के सामने खड़ी हैं और इस तरह दुश्मनी करती हैं तो यह इस लिए है कि इन्क़ेलाब ज़िन्दा है, वह नहीं चाहती कि यह हो।(7) अगर इन्क़ेलाब न होता, तो इनके पास इस तरह की शैतानी काम करने और नुकसान पहुंचाने की कोई वजह नहीं होती। इन्क़ेलाब के ज़िन्दा होने का क्या मतलब है? यानि इन्क़ेलाब की नयी नस्ल के दिल में भी उसकी मुहब्बत का घर कर लेना है। आज हमारी क़ौम, उसी मक़सद से लगाव रखती है जिसे इन्क़ेलाब ने पेश किया था, यानि आज़ादी, इज़्ज़त, सहूलत, सोशल जस्टिस, इस्लामी समाज और आख़िर में जैसा कि मैंने कहा इस्लाम का नया सिविलाइज़ेशन, यह सब इन्क़ेलाब के बड़े मक़सद हैं। आज हमारे लोग इस तरह के मक़सदों से दिली लगाव रखते हैं, पसंद करते हैं, जिससे जो बन पड़ता है वह करता है मतलब मुल्क के अक्सर लोग इस तरह के हैं। अब यह हो सकता है कि कुछ लोग मुल्क में हों जो इस मिशन की राह में सुस्त हों या मिशन में शामिल ही न हों लेकिन कुल मिलाकर ईरानी क़ौम को इन लक्ष्यों से लगाव है, यह मक़सद उसके दिल में बसे हैं, इन्क़ेलाब ज़िन्दा है और उसके ज़िन्दा होने का एक सुबूत यही साम्राज्यवादी मोर्चे की दुश्मनी है जिसकी वजह यह है कि हमारा सिस्टम, इस क़िस्म के मक़सद की राह में डटा हुआ है।

वैसे कुछ लोगों को यह भी कहते सुना जाता है कि इन्क़ेलाब अपने मक़सद से दूर हो गया है, जी नहीं! ऐसा नहीं है! अगर हमारा मुल्क इन्क़ेलाब के मक़सद से उसकी राह से दूर हो गया होता तो इन्क़ेलाब के दुश्मन, हमारे मुल्क के सिस्टम और इस्लामी जुम्हूरिया के ख़िलाफ इस तरह से दुश्मनी न करते, ख़ुद यह दुश्मनी इस बात का सुबूत है कि हमारा मुल्क और हमारा सिस्टम, इन्क़ेलाब का वफ़ादार और उसके मक़सदों का पाबंद रहा है। इसके बावजूद अगर कोई यह कहता है कि इन्क़ेलाब अपने मक़सद से दूर हो गया है तो अस्ल में वह इन्क़ेलाब से अपनी हमदर्दी और मुहब्बत ज़ाहिर करना चाहता है लेकिन मैं यह बात नहीं मानता और मैं यह भी नहीं मानता कि इस तरह के लोगों को इन्क़ेलाब से हमदर्दी है। जो लोग ऐश व इशरत की ज़िंदगी गुज़ारते हैं जिनका हर काम बहुत ज़्यादा मालदार लोगों की तरह होता है तो वह ग़रीबों की मदद के नारों को दिल से मान ही नहीं सकता। इन्क़ेलाब का नारा, ग़रीबों और सताए हुए लोगों की मदद है इस लिए जिन लोगों को ऐश भरी ज़िंदगी की आदत है वह इस तरह के नारों के वफ़ादार नहीं हो सकते। इन्क़ेलाब का नारा, साम्राज्य से मुकाबला है, साम्राज्यवादी ताक़तों और साम्राज्यवादी कामों से मुक़ाबला है तो जो लोग, साम्राज्यवादी ताक़तों के सामने झुकने की रट लगाते हैं, अमरीका के सामने झुकने की बात करते हैं इस इन्क़ेलाब और उसके मकसद के वफ़ादार नहीं हो सकते, मैं तो उन्हें वफ़ादार नहीं मान सकता। ख़ुदा का शुक्र है कि उसने ईरान की क़ौम पर एहसान किया और उसे डट जाने की ताक़त दी और वह डट गयी और अपनी मेहनत से मुल्क को यहां तक ले आयी और इन्शाअल्लाह यह प्रतिरोध जारी रहेगा। ईरानी क़ौम की डट जाने की इस ख़ूबी का मुल्क के अदंर ही नहीं बल्कि इलाक़े पर भी असर पड़ा है। आज आप इलाक़े के कई मुल्कों में प्रतिरोध का यह तरीक़ा पनपते देख रहे हैं और इलाक़े में अमरीका का दबदबा, साम्राज्यवादी ताक़तों का रोब व दबदबा चकनाचूर हो चुका है, इन मुल्कों की क़ौमों में हिम्मत पैदा हो गयी है, उनकी ज़बान खुल गयी है और वह अमरीका और उसकी हरकतों के ख़िलाफ़ बोलने लगी हैं। तो हमें इसकी क़द्र करना चाहिए और इन्क़ेलाब को जारी रखने वाले काम करते रहना चाहिए। नौजवानों को मेरी यह सिफरिश है कि आज वह यह देखें कि दुश्मन किस राह पर चल रहा है, दुश्मन के निशाने पर क्या है? उसके उलट काम करें उसके खिलाफ़ राह पकड़ें और आगे बढ़ें। जैसा कि मैं हालात देख रहा हूं उससे यही लगता है कि दुश्मन ने हमारी क़ौम पर निशाना साधा है, लोगों की सोच दुश्मन के निशाने पर है, वह नौजवानों की सोच पर हमला कर रहा है और इसके लिए अरबों डॉलर ख़र्च किये जा रहे हैं। वह जिसे थिंक टैंक का नाम देते हैं वह और उनके पढ़े लिखे लोग ईरानी क़ौम और ख़ास तौर पर नौजवानों को इस राह से भटकाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वह इस वक़्त दो चीज़ों को इस्तेमाल कर रहे हैं, एक इकोनॉमिक दबाव है ताकि लोग तंग आकर इस्लामी हुकूमत से दूर हो जाएं। दूसरी चीज़ कीचड़ उछालना है। कीचड़ उछालना, झूठ, इल्ज़ाम लगाना यह सब काम। वह इन्क़ेलाब के बुनियादी उसूलों पर इल्ज़ाम लगाते हैं, इन्क़ेलाब के अलग-अलग हिस्सों पर निशाना साधते हैं और उन सेन्टरों और इदारों पर इल्ज़ाम लगाते हैं जिनका इन्क़ेलाब की तरक़्क़ी में रोल है। कभी पार्लियामेंट पर कभी गार्डियन कौंसिल पर तो कभी आईआरजीसी पर, आजकल आईआरजीसी की बारी है, उस पर इल्ज़ाम लगा रहे हैं, कीचड़ उछाल रहे हैं यहां तक कि अज़ीम शहीद, शहीद सुलैमानी जैसी हस्ती पर भी कीचड़ उछाल रहे हैं। अगर हिम्मत होती और लोगों का डर न होता तो यह लोग इमाम ख़ुमैनी पर भी कीचड़ उछालने से बाज़ न आते लेकिन हिम्मत नहीं पड़ती क्योंकि वह जानते हैं कि लोगों का रिएक्शन बहुत बुरा होगा। इस तरह से आज लोगों को इस्लामी हुकूमत से दूर करने के लिए दो चीज़ों का इस्तेमाल किया जा रहा है, लोगों की सोच बदलने के लिए दुश्मन इन दो चीज़ों को इस्तेमाल कर रहा है, एक कीचड़ और मीडिया ट्रायल और दूसरे इकोनॉमिक दबाव। यानी मीडिया और इकोनॉमिक्स के मैदान में वह दुश्मनी कर रहा है। नौजवानों को दुश्मनों की इन कोशिशों के सामने खड़ा होना चाहिए, ईरानी क़ौम को इन दोनों मैदानों में दुश्मन के सामने डट जाना चाहिए। इकोनॉमिक्स के मैदान में दबाव को मुल्क की अपनी ताक़त, अपनी कोशिशों और पाबंदियों के असर से ख़त्म करे और इसी तरह डिप्लोमेसी की मदद से भी जैसा कि आजकल हमारे भाई यह काम कर रहे हैं। हमारे भाई पाबंदियों को ख़त्म करने और सामने वाले पक्ष को तैयार करने पर भी काम कर रहे हैं यह भी अच्छा काम है लेकिन अस्ल मिशन, पाबंदियों के असर को ख़त्म करना है जो मुल्क के अंदर पैदावार से और मुल्क की इकोनॉमिक्स को सुधारने से मुमकिन है। यह नॉलेज बेस्ड कंपनियां बहुत अहम हैं और सच बात तो यह है कि यह नॉलेज बेस्ड इकोनॉमिक्स का जो मिशन है और नॉलेज बेस्ड कंपनियां जो हैं वह बहुत अहम हैं। इसे फैलाना और बढ़ाना चाहिए। यह तो एक बात है। दूसरी बात, दुश्मन के प्रोपैगंडों के असर को ख़त्म करना भी ज़रूरी है।

मुझे उम्मीद है कि इन्शाअल्लाह, ख़ुदा ईरानी क़ौम पर अपने करम और उसकी तौफीक़ और बरकत में इज़ाफ़ा करेगा। ईरानी क़ौम को कामयाब करेगा और वह तरक़्क़ी की चोटियों तक पहुंचेगी। ख़ुदा हमारे शहीदों का हिसाब पैग़म्बर के साथ करना और इमाम ख़ुमैनी का हिसाब जो इस मिशन और इस इन्क़ेलाब के संस्थापक हैं पैग़म्बरे इस्लाम और अपने औलिया के साथ लेना और उन्हें इस इन्क़ेलाब का सवाब अता करना। या अल्लाह! ईरानी क़ौम पर आज़रबाइजान के लोगों पर और तबरेज़ के लोगों पर अपनी बरकतें नाज़िल कर। दुआ है कि आप सब कामयाब हों। आपने जो प्रोग्राम पेश किया, क़ुरआने मजीद की तिलावत, यह जो ख़ूबसूरत तराना पढ़ा गया, आले हाशिम साहब की अच्छी तक़रीर और वह जो हमारे भाई ने मसाएब पढ़े मैं उन सब का शुक्रगुज़ार हूं। ख़ुदा आप सब की तौफीक़ात में इज़ाफ़ा करे।

वस्सलाम अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहू।

 

(1) इस मुलाक़ात के शुरु में तबरेज़ के इमाम जुमा हुज्जतुल इस्लाम वलमुसलेमीन सैयद मुहम्मद अली आले हाशिम ने तक़रीर की।

(2) किताब सहीफ़ए इमाम का जुमला, जिल्द 3 पेज 353 आज़रबाइजान के अवाम के नाम पैग़ाम 27/2/1978, सहीफ़ए इमाम जिल्द 3 पेज 359 तबरेज़ के शहीदों के चेहलुम के अवसर पर ईरानी क़ौम के नाम संदेश 3/4/1978

(3) किताब सहीफ़ए इमाम का जुमला, जिल्द 7 पेज 449 तबरेज़ के कुछ लोगों और पुलिस कर्मियों के बीच तक़रीर 23/5/1979

(4) एयरफ़ोर्स के कमांडरों से मुलाक़ात में तक़रीर 8/2/2022

(5) शरहे नहजुल बलागा इब्ने अबिल हदीद जिल्द 20 पेज 319

(6) फ़िरदौसी, शाहनामा।