एक बार हम अल्लाह से कहें कि ऐ अल्लाह! हमे सही रास्ता दिखाता रह। अगर सही रास्ता, यही रास्ता है तो इंसान एक बार बैठकर दुआ कर दे, सौ बार या हज़ार बार दुआ मांगे और बात ख़त्म हो जाए, यह रोज़ रोज़ दोहराने की वजह क्या है? मुझे लगता है कि हर दिन दोहराने की वजह यह है कि हमेशा ऐसे रास्ते मौजूद हैं कि अगर इंसान से ग़लती हो जाए तो वह "अल्मग़ज़ूबे अलैहिम" और 'ज़ाल्लीन' की पंक्ति में चला जाए और अगर वह सही तरीक़े से समझ जाए तो वह "अनअम्ता अलैहिम" की पंक्ति में पहुंच जाएगा जो पैग़म्बरों, नेक बंदों, सिद्दीक़ीन, शहीदों और सालेहीन की पंक्ति है और ये वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की नेमत को बचाए रखा। हमें अल्लाह की नेमत को बचाए रखना चाहिए और उसमें कमी नहीं आने देना चाहिए, इसलिए हम हर नमाज़ में कहते हैं कि अल्लाह हमें सीधे रास्ते की हिदायत करता रहा ताकि हम उसकी ओर से ग़ाफ़िल न हो जाएं।
इमाम ख़ामेनेई
16 मई 1997
अल्लाह ने पैग़म्बरों और औलिया को भी नेमत अता की है और बनी इस्राईल को भी। "मग़ज़ूबे अलैहिम" यानी जिन पर तेरा ग़ज़ब नाज़िल हुआ और 'ज़ाल्लीन' यानी गुमराह लोग भी उनमें शामिल हैं जिन्हें अल्लाह ने अपनी नेमत अता की है। यह नहीं सोचना चाहिए कि अल्लाह कुछ लोगों को नेमत देता है और कुछ को गुमराह करता है और उन पर ग़ज़ब करता है, ऐसा नहीं है। "अल्मग़ज़ूबे अलैहिम", "अनअम्ता अलैहिम" की सिफ़त है। फिर भी जिन लोगों को अल्लाह ने नेमतें दी हैं, वे दो तरह के हैं: एक वे जिन्होंने अपने कर्म से, अपनी सुस्ती से, अपनी गुमराही से नेमत को बर्बाद कर दिया। दूसरे वे हैं जिन्होंने कोशिश और शुक्र के ज़रिए नेमत को बाक़ी रखा। बनी इस्राईल भी उन लोगों में से थे जिन्हें अल्लाह ने बड़ी नेमत अता की थी और उन्हें दूसरों पर फ़ज़ीलत मिल गयी थी लेकिन वे अल्लाह के ग़ज़ब का निशाना बन गए। हमारी कसौटी और हमारा मानदंड, सीधे रास्ते पर चलने वाला वह पथिक होना चाहिए जिसे अल्लाह ने नेमत अता की हो और जो उसके ग़ज़ब का निशाना न बना हो।
इमाम ख़ामेनेई
10 जूलाई
2013
पहली ख़ुसूसियत यह है कि उन पर इनाम व एहसान किया हो। क़ुरआन में कहा गया है कि अल्लाह ने पैग़म्बरों को भी, सिद्दीक़ीन को भी, शहीदों को भी और सालेहीन को भी नेमतें दी हैं। उन्होंने सत्य के रास्ते को तलाश कर लिया, गुमराह भी नहीं हुए और अल्लाह के क्रोध का निशाना भी नहीं बने। ये वे लोग हैं जिन्हें अल्लाह ने भरपूर नेमत दी, उन पर क्रोधित नहीं हुआ और वे लोग अपनी पाक सीरत और दृढ़ता की वजह से ज़रा भी गुमराही की ओर नहीं बढ़े। इसकी सबसे बड़ी मिसाल अहलेबैत और इमाम अलैहेमुस्सलाम हैं। यही वह रास्ता है जिस पर हमें चलना चाहिए। अब अगर दुनिया में ज़्यादातर लोग दूसरी तरह की बात करते हैं, दूसरी तरह अमल करते हैं तो हमें अल्लाह की हिदायत को मानने या उसे रद्द करने के लिए अपनी अक़्ल और दीन को कसौटी बनाना चाहिए। मोमिन और मुस्लिम जगत, वह उम्मत है जो क़ुरआन मजीद से, अल्लाह की हिदायत से मानदंड हासिल करता है। यही ठोस मानदंड है।
इमाम ख़ामेनेई
10 जुलाई 2013
सूरए अलहम्द में हमें सीधे रास्ते पर चलने वालों की निशानियां बतायी गयी हैं: " रास्ता उन लोगों का जिन पर तूने इनाम व एहसान किया" सिराते मुस्तक़ीम या सीधा रास्ता उन लोगों का जिन्हें तूने नेमत दी है। ज़ाहिर सी बात है कि यह नेमत खाना, पीना नहीं है, अल्लाह की ओर से मार्गदर्शन की नेमत है...अध्यात्मिक नेमत है जो सबसे बड़ी नेमत है। ये उन लोगों की राह है जिन्हें तूने नेमत अता की है, उन पर क्रोधित नहीं हुआ और वे गुमराह भी नहीं हुए। ये तीन ख़ुसूसियतें होनी चाहिएः अल्लाह ने मार्गदर्शन की नेमत दी हो, उन्होंने अपने बुरे कर्म से उस नेमत को अल्लाह के क्रोध का पात्र न बनाया हो और गुमराह भी न हुए हों। ये शर्त जिन लोगों पर पूरी उतरती है उन्हें आप अपने ज़माने में, अतीत में, इस्लाम के आरंभिक दिनों में और इतिहास में बड़ी आसानी से तलाश कर सकते हैं।
इमाम ख़ामेनेई
11 जून 1997
क़ुरआन मजीद के आग़ाज़ में ही सूरए अलहम्द में अल्लाह से हमारी दरख़ास्त "हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद मांगते हैं" से शुरू होती है। इस मदद तलब करने का एक बड़ा मक़सद अगली आयत में आता हैः "हमें सीधे रास्ते की (और उस पर चलने की) हिदायत करता रह।" मानो यह सारी तैयारी, इस इबारत के लिए हैः "हमें सीधे रास्ते की (और उस पर चलने की) हिदायत करता रह।" फिर सूरए अलहम्द के आख़िर तक इस सीधे रास्ते की व्याख्या की जाती है। सीधा रास्ता, अल्लाह की बंदगी का रास्ता है। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है अपनी इच्छाओं को कंट्रोल करना। इस्लाम इच्छाओं को ख़त्म नहीं करता, उन्हें कंट्रोल करता है, क्योंकि ये इच्छाएं आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। इस्लाम इन इच्छाओं को लगाम लगाता है और उनका दिशा निर्देश करता है। इस्लाम यौनेच्छा को ख़त्म नहीं करता बल्कि उस पर लगाम लगाता है। धन दौलत की इच्छा को ख़त्म नहीं करता क्योंकि ये तरक़्क़ी का साधन हैं लेकिन इसे कंट्रोल करता है, यानी हिदायत करता है।
इमाम ख़ामेनेई
6 मार्च 2000
सूरए अनआम की आयत 161 में पैग़म्बरे इस्लाम से कहा गया हैः "आप कहें! बेशक मेरे परवरदिगार ने मुझे बड़े सीधे रास्ते की रहनुमाई कर दी है यानी उस सही और सच्चे दीन की तरफ़ जो बातिल से हटकर सिर्फ़ हक़ की तरफ़ राग़िब इब्राहीम (अ) की मिल्लत है..." यानी दीन का मतलब दीनी विचार, पहचान और अमल है और इसे सीधा रास्ता कहा गया है। सूरए निसा की आयत नंबर 175 में कहा गया हैः " तो जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए और मज़बूती से उसका दामन पकड़ा..." इस्मत यानी ख़ता से महफ़ूज़ रखा गया जिसमें लड़खड़ाना मुमकिन न हो, तो अल्लाह उन्हें अपनी रहमत और फ़ज़्ल के विशाल दायरे में दाख़िल करेगा और सीधे रास्ते की ओर उनकी रहनुमाई करेगा। इससे पता चलता है कि सीधे रास्ते पर पहुंचने का ज़रिया अल्लाह से जुड़े रहना है।
इमाम ख़ामेनेई
1 मई 1991
सूरए साफ़्फ़ात की आयत 118 में हज़रत मूसा और हज़रत हारून के बारे में कहा गया हैः "और हमने (ही) इन दोनों को राहे रास्त दिखाई।" अगर आप हज़रत मूसा और हज़रत हारून की ज़िंदगी पर नज़र डालें तो यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी कि इन दोनों की ज़िंदगी सरकश का अनुपालन न करने और अल्लाह के अलावा किसी और के हुक्म को न मानने और इस राह में यानी लोगों के मार्गदर्शन, उन्हें सरकश शासन से मुक्ति दिलाने और उन्हें अल्लाह के आदेश के पालन के दायरे में लाने के लिए निरंतर संघर्ष और इस राह में मुसीबत बर्दाश्त करने की तस्वीर पेश करती है। सूरए यासीन की आयत नंबर 3 और 4 में पैग़म्बरे इस्लाम से अल्लाह फ़रमाता हैः "यक़ीनन आप (स) (ख़ुदा के) रसूलों में से हैं। (और) सीधे रास्ते पर ही हैं।" जैसा कि आपने हज़रत मूसा की ज़िंदगी में देखा, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही वसल्लम की सीरत, उनका व्यवहार, उनकी राह भी वही सीधा रास्ता है।
इमाम ख़ामेनेई
1 मई 1991
क़ुरआन मजीद में राह या रास्ते के लिए कई लफ़्ज़ इस्तेमाल हुए हैं। 'तरीक़' जब एक फ़र्ज़ किए हुए रास्ते पर कोई बढ़ता है जबकि उस पर न कोई निशान है, न उसे समतल किया गया है, बस कोई एक फ़र्ज़ किए हुए रास्ते पर चलने लगे तो उसे तरीक़ कहते हैं। इस रास्ते में कोई ख़ुसूसियत नहीं सिवाए इसके कि कोई रास्ता चलने वाला उस पर चले। तो यह एक आम मानी है। 'सबील' के मानी इससे ज़्यादा सीमित हैं, यह वह रास्ता है जिस पर चलने वाले ज़्यादा हैं। सबील ऐसा रास्ता है जिस पर चलने वालों की ज़्यादा तादाद की वजह से वह समतल और स्पष्ट हो गया है, अलबत्ता मुमकिन है कभी इंसान इस रास्ते को खो दे। 'सिरात' पूरी तरह स्पष्ट रास्ते को कहते हैं। यह रास्ता इतना स्पष्ट है कि इस रास्ते को खो देना मुमकिन नहीं है। "इहदेनस्सिरात" यानी बिल्कुल साफ़ रास्ता दिखा, उस पर 'अलमुस्तक़ीम' की शर्त भी लगा दी यानी बिल्कुल साफ़ और सीधा रास्ता दिखा।
इमाम ख़ामेनेई
24 अप्रैल 1991
सीधा रास्ता हक़ीक़त में क्या है? यह सीधा रास्ता क्या है जिसकी ओर हम अल्लाह से हिदायत चाहते हैं? जिनके योग से समझा जा सकता है कि सीधा रास्ता क्या है।सूरए आले इमरान की आयत 51 में अल्लाह फ़रमाता हैः "बेशक अल्लाह मेरा और तुम्हारा परवरदिगार है तो तुम उसकी इबादत करो, यही सीधा रास्ता है।" तो इस आयत में सीधा रास्ता क्या है? बंदगी; बंदगी के मक़ाम तक पहुंचना। मानव इतिहास में आपको जो ये गुमराहियां, ये पीड़ाएं, ये ज़ुल्म बहुत ज़्यादा नज़र आते हैं उसकी वजह वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की बंदगी को क़ुबूल नहीं किया बल्कि वे अपनी इच्छाओं के ग़ुलाम थे। एक दूसरी आयत है। सूरए यासीन की आयत नंबर 61 में आया हैः "हाँ अलबत्ता मेरी इबादत करो कि यही सीधा रास्ता है।" तो इस आयत के मुताबिक़ सीधा रास्ता अल्लाह की बंदगी है, ख़ुदा की बदंगी करना यानी अल्लाह के सामने समर्पित होना।
इमाम ख़ामेनेई
1 मई 1991
कुछ लोग यह सवाल करते हैं कि जब क़ुरआन पढ़ते वक़्त, नमाज़ पढ़ते वक़्त "हमें सीधे रास्ते की (और उस पर चलने की) हिदायत करता रह" कहते हैं, तो हम हिदायत याफ़्ता हैं; इसका जवाब यह है कि हम अल्लाह से ज़्यादा से ज़्यादा हिदायत की दरख़ास्त करें, क्योंकि उसकी ओर से हिदायत का दायरा बहुत व्यापक है। पैग़म्बरे इस्लम भी कहते थे "हमें सीधे रास्ते की (और उस पर चलने की) हिदायत करता रह" पैग़म्बरे इस्लाम भी अल्लाह से हिदायत चाहते थे, क्यों? क्योंकि जो हिदायत पैग़म्बरे इस्लाम के पास थी, मुमकिन है उसमें और इज़ाफ़ा हो जाए; इंसान के कमाल का दायरा बहुत व्यापक है जिसकी हदबंदी नहीं की जा सकती।
दूसरा बिंदु यह है कि इंसान के सामने हमेशा दो रास्ते होते हैं, इंसान की वासनाएं, इंसान की इच्छाएं, इंसान के भीतर अस्वस्थ जज़्बे कभी भी ख़त्म नहीं होते, नेक बंदे भी बड़े ख़तरे के निशाने पर हैं...कभी कभी हम ऐसे दो राहे पर होते हैं कि सही रास्ते का चयन नहीं कर पाते तो बार बार "हमें सीधे रास्ते की (और उस पर चलने की) हिदायत करता रह" कहने का मतलब यह है कि हर क्षण हमें अल्लाह की ओर से हिदायत की ज़रूरत है।
इमाम ख़ामेनेई
1 मई 1991
एक हिदायत है जो मोमिनों से मख़सूस है "हिदायत है उन परहेज़गारों के लिए" (सूरए बक़रह, आयत-2) यह उस हिदायत के ऊपर है जो इंसान के वजूद में पायी जाती है, जिसे ईमान की ओर हिदायत कहते हैं। इसी हिदायत का ज़िक्र सूरए नह्ल में है कि जो लोग अल्लाह की आयतों पर ईमान नहीं लाते, अल्लाह उनकी हिदायत नहीं करता। इसका क्या मतलब है कि अल्लाह हिदायत नहीं करता? क्या इसका मतलब यह है कि ये लोग फिर कभी मोमिन नहीं बन सकते? उन्हें कभी ईमान की हिदायत हासिल नहीं हो सकती? क्यों नहीं, जो ईमान नहीं रखता, मुमकिन है कि उसके पास आज ईमान न हो, कल वह अपनी अक़्ल और अपनी फ़ितरत की ओर लौट आए और ईमान ले आए, तो यह ईमान की हिदायत नहीं है, तीसरी क़िस्म की हिदायत है, वह हिदायत मोमिनों से मख़सूस है।
इमाम ख़ामेनेई
1 मई 1991
सारी ताक़त पर उसका कंट्रोल है। जहाँ अल्लाह इरादा कर लेता है वहाँ दुनिया की मज़बूत ताक़तें भी अपने काम अंजाम नहीं दे पातीं। अमरीका, ईरान में दाख़िल होना चाहता है, तबस में उस पर मुसीबत आ जाती है हालांकि उसके पास ज़ाहिरी ताक़त थी। इस वक़्त भी साम्राज्यवादी ताक़तें, बड़े ज़ायोनी और पूंजीपति, एक इस्लामी सरकार से बुरी तरह भयभीत हैं। कोशिश कर रहे हैं कि उसे ख़त्म कर दें लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए हैं जबकि ज़ाहिरी तौर पर उनके पास सब कुछ है। जब अल्लाह इरादा करता है कि उसकी ताक़त असर न कर पाए तो वह असर नहीं करती। कभी अल्लाह का इरादा यह होता है कि वह ताक़त असर करे, तो असर करती है। मोमिन और एकेश्वरवादी इंसान, ताक़त को सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह से विशेष समझता है।
इमाम ख़ामेनेई
24 अप्रैल 1991
जब हम कहते हैं "इय्याका ना’बुदो व इय्याका नस्तईन" क्या इसका मतलब यह है कि किसी भी दूसरे से मदद नहीं लेनी चाहिए? हम, लोगों से, इंसानों से, भाई से, दोस्त से मदद लेते हैं। ख़ुद क़ुरआन मजीद में भले काम के लिए एक दूसरे से मदद लेने की सिफ़ारिश की गयी हैः "भलाई और तक़वे में एक दूसरे की मदद करो।" इसका मतलब यह है कि तौहीद को मानने वाला इंसान, हर ताक़त का स्रोत अल्लाह को मानता है और जो भी आपकी मदद करता है, वह सक्षम नहीं है बल्कि अल्लाह सक्षम है। वास्तविक ताक़त और शक्ति, अल्लाह की है। ये हमारी ताक़तें अवास्तविक हैं। अगर आप किसी से अल्लाह को नज़रअंदाज़ करके मदद लें और उसे ताक़त व शक्ति का स्वामी समझें तो यह शिर्क है।
इमाम ख़ामेनेई
24 अप्रैल 1991
अगर इंसान उस क़ाबिज़ बादशाह पर जो उसके भीतर है -यानी उस वास्तविक तानाशाह पर- हावी होने में कामयाब हो जाए तो फिर वह दुनिया की सबसे बड़ी ताक़तों को हराने में कामयाब हो जाएगा। यह कोई शेर नहीं, कोई निबंध नहीं बल्कि यह खुली हक़ीक़तें हैं। हमने इस्लामी इंक़ेलाब के दौरान, पूरी तरह से इन चीज़ों को देखा है। अगर कुछ लोगों ने अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पा लिया तो बलिदान देंगे और कोई क़ौम बलिदान दे तो कोई भी ताक़त उसे हरा नहीं पाएगी। दुश्मन तब हम पर फ़तह हासिल करता है जब हम अपनी इच्छाओं को क़ाबू नहीं कर पाते। इंसान की हार का पहला चरण, ख़ुद उसकी भीतरी हार है। जब ईर्ष्या और देखा-देखी और इसी तरह की चीज़ें इंसान पर हावी हो जाती हैं तो उसका इरादा डावांडोल होने लगता है और जब आपका इरादा डावांडोल होने लगता है तो दुश्मन का हाथ मज़बूत हो जाता है। यह एक स्वाभाविक सी बात है।
इमाम ख़ामेनेई
24 अप्रैल 1991
"इय्याका ना’बुदो" यानी अल्लाह के सामने इंसान का समर्पित होना। यह अल्लाह की बंदगी और उसकी इबादत का मानी है। अल्लाह और इंसान के बीच संबंध को बहुत से आसमानी धर्मों और इस्लाम में भी समर्पण कहा गया है। अल्लाह का बंदा होने का मतलब है अल्लाह के सामने सिर झुकाने वाला। दूसरी ओर अल्लाह सारी भलाइयों का स्रोत है तो अल्लाह का बंदा होने का मतलब परिपूर्णता, अच्छाइयों और ख़ालिस नूर का बंदा होना है। यह समर्पण अच्छा है। इंसानों का बंदा होना, इंसानों का ग़ुलाम होना, बहुत बुरी चीज़ है क्योंकि इंसान में ऐब हैं, इंसान सीमित हैं, इसलिए उनका बंदा होना इंसान के लिए ज़िल्लत है। ज़ालिम ताक़तों का बंदा होना, इंसान के लिए ज़िल्लत है, इच्छाओं का ग़ुलाम होना, इंसान के लिए ज़िल्लत व रुसवाई है। इसलिए बंदगी उन चीज़ों में से नहीं है जो हर जगह अच्छी या हर जगह बुरी हो, बल्कि कहीं पर बंदगी अच्छी हो सकती है और कहीं पर बुरी। अल्लाह का बंदा होना बहुत ही उत्कृष्ट अर्थ रखता है।
इमाम ख़ामेनेई
10 अप्रैल 1991
दुनिया में हमारे पास मालेकाना हक़ के नाम पर एक चीज़ है। यह वास्तविक स्वामित्व नहीं है बल्कि किसी और के ज़रिए दिया गया स्वामित्व है। यहाँ तक कि हम अपने जिस्म के भी मालिक नहीं हैं। हम अपने जिस्म के कैसे मालिक हैं कि इस जिस्म में आने वाले बदलाव हमारी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ सामने आते हैं और उन्हें कंट्रोल करना हमारे बस में नहीं है? इस जिस्म में दर्द होता है, यह जिस्म मिट जाता है और इस पर हमारा कोई अख़्तियार नहीं होता। हम दुनिया में बहुत सी चीज़ों को अपनी संपत्ति समझते हैं। इस कमज़ोर से स्वामित्व पर ही इंसान फ़ख़्र करता है, क़यामत में यह थोड़ा सा स्वामित्व भी नहीं होगा। क़यामत में हमारे शरीर के अंग हमारे ख़िलाफ़ बोलेंगे और वहाँ सामने आने वाली सारी बातें इंसान के अख़्तियार के दायरे से बाहर होंगी।
इमाम ख़ामेनेई
10 अप्रैल 1991
यानी आपकी ज़िंदगी के उस हिस्से का मालिक व मुख़्तार जहाँ आपका कोई अमल नहीं है, केवल जज़ा है -दुनिया के इस छोटे से टुकड़े में आपने जो किया, उसकी जज़ा- अल्लाह है; हर चीज़ उसके अख़्तियार में है। वहाँ अब वह स्वामित्व नहीं है जो हम और आप इस दुनिया में बहुत ही ख़ामियों से भरे समझौते के दिखावटी मालिक होते हैं।
इमाम ख़ामेनेई
10 अप्रैल 1991
एक मुसलमान की सोच का निचोड़ यह हैः सभी भलाइयों का स्रोत अल्लाह को मानना, हर चीज़ को अल्लाह का मानना, ख़ुद को भी अल्लाह का मानना, सारी सराहना, तारीफ़ और प्रशंसा को अल्लाह से विशेष मानना और सभी चीज़ को अल्लाह की कसौटी पर तौलना। यही इस्लामी सोच और इस्लामी अक़ीदे का बुनियादी उसूल और नियम है। यही चीज़ एक
इंसान को बलिदानी बनाती है, यही सोच एक इंसान को अपने वजूद के दायरे की क़ैद से रिहा करती है, व्यक्तिगत निर्भरता की क़ैद से रिहा करती है, भौतिक और भौतिकवाद की ज़ंजीरों से मुक्ति दिलाती है, उसके लगाव को, भौतिकवाद के शिकार लोगों के लगाव से बहुत बुलंदी पर ले जाती है, क्योंकि वह अल्लाह का बन जाता है। यही "अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन" का मतलब है। इस्लामी सोच, जज़्बे, लक्ष्य और मक़सद की बुनियाद यही है।
इमाम ख़ामेनेई
13 मार्च 1991
"अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन" में "रब्बिल आलमीन" "अलहम्दो लिल्लाह" का सबब बता रहा है। क्यों सारी तारीफ़ें अल्लाह से विशेष हैं? क्योंकि अल्लाह "सब जहानों का परवरदिगार है"...'रब' का मतलब चलाने वाला है। किसी चीज़ का रब यानी किसी
चीज़ का संचालन उसके हाथ में है, उस चीज़ को चलाना उसके हाथ में है...इसी तरह पालने वाले के मानी में, परवान चढ़ाने वाले के मानी में... इसी तरह मालिक और साहब के मानी में,...
इमाम ख़ामेनेई
13 मार्च 1991
"अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन।" इसमें 'हम्द' का मतलब किसी इंसान या किसी वजूद की तारीफ़ करना किसी ऐसे अमल या ख़ूबी की वजह से जिसे उसने अपने अख़्तियार से अंजाम दिया हो। अगर किसी में कोई ख़ुसूसियत हो लेकिन वह उसके अख़्तियार से न हो तो उसके लिए हम्द शब्द इस्तेमाल नहीं होता...मिसाल के तौर पर अगर हम किसी की ख़ूबसूरती की तारीफ़ करना चाहें, तो अरबी में उसके लिए हम्द शब्द का इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन किसी शख़्स की बहादुरी के लिए हम्द शब्द का इस्तेमाल हो सकता है, किसी की दानशीलता की तारीफ़ के लिए हम्द शब्द का इस्तेमाल हो सकता है, किसी के भले काम की तारीफ़ के लिए हम्द शब्द का इस्तेमाल हो सकता है या उसकी किसी ऐसी ख़ूबी की तारीफ़ के लिए जो उसने अख़्तियार से अपने भीतर पैदा की है, हम्द शब्द का इस्तेमाल हो सकता है...अलहम्द का मतलब हर तरह की तारीफ़ अल्लाह से विशेष है। यह जुमला जो बात हमको समझाना चाहता है, यह है कि उन सभी भलाइयों, उन सभी ख़ूबसूरतियों, उन सभी चीज़ों जिनके लिए हम्द की जा सकती है, सब अल्लाह से विशेष हैं...
इमाम ख़ामेनेई
13 मार्च 1991
जब हम अल्लाह का रहमान के नाम से गुणगान करते हैं तो हक़ीक़त में हम कहते हैं कि अल्लाह की रहमत सृष्टि की सभी चीज़ों को अपने दामन में समेटे हुए है; तो रहमान का मतलब सबको पहुंचने वाली रहमत है... अल्लाह की यह सर्वव्यापी रहमत क्या है? अल्लाह की रहमत सृष्टि की हर चीज़ पर फैली हुयी हैः उन्हें वजूद देने की रहमत- उन्हें पैदा किया और यह अल्लाह की ओर से हर मख़लूक़ पर रहमत है- और उनकी सामान्य तौर पर रहनुमाई करने की रहमत; "हर चीज़ को ख़िलक़त बख़्शी और रहनुमाई फ़रमाई।" (सूरए ताहा, आयत-50) अल्लाह सभी चीज़ की एक मार्ग की ओर रहनुमाई कर रहा हैः पेड़ की भी अल्लाह रहनुमाई करता है बढ़ने की ओर, कमाल (संपूर्णता) की ओर; दाने की खुलने की ओर, खाद्य पदार्थ बनने की ओर, उगने की ओर, फल देने की ओर; जानवरों की भी इसी तरह, निर्जीव चीज़ों की भी इसी तरह...
इमाम ख़ामेनेई
13 मार्च 1991
रहमान और रहीम दोनों शब्द रहमत से बने हैं लेकिन दो अलग आयामों से। रहमान सुपरलेटिव डिग्री है... रहमान रहमत की बहुतायत और रहमत में इज़ाफ़े को दर्शाता है;... रहीम शब्द भी रहमत से है, यह विशेष क्रियाविशेषण है जो स्थायित्व और निरंतरता को दर्शाता है... इन दो शब्दों से दो बातें समझ में आती हैं: अर्रहमान का मतलब है अल्लाह बहुत ज़्यादा रमहत का स्वामी है और उसकी रहमत का दायरा बहुत व्यापक है। अर्रहीम से हम समझते हैं कि अल्लाह की रहमत लगातार और हमेशा रहने वाली है और यह उसकी ओर से बदलने वाली नहीं है; यह रहमत कभी ख़त्म नहीं होगी। तो ये दो मानी मद्देनज़र रखिए।
इमाम ख़ामेनेई
13 मार्च 1991
सबसे पहले यह कि क़ुरआन के सूरे और इस्लाम में हर काम अल्लाह के नाम से क्यों शुरू होता है? अल्लाह के नाम से शुरूआत, काम और बात के संबंध और दिशा को बताती है। जब आप अल्लाह के नाम से कोई काम शुरू करते हैं तो यह समझाना चाहते हैं कि यह काम अल्लाह के लिए है।