इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के सलाहकार और हित संरक्षक परिषद के सदस्य जनाब डाक्टर अली लारीजानी ने हाल ही में सीरिया और लेबनान के दौरे पर सीरिया के राष्ट्रपति जनाब बश्शार असद और लेबनान के संसद सभापति जनाब नबीह बेर्री को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का एक पैग़ाम दिया। क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में रेज़िस्टेंस मोर्चे के हित में इस दौरे को काफ़ी अहमियत दी गयी और मुख़्तलिफ़ आयाम से इस दौरे की समीक्षा की गयी। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की वेबसाइट KHAMENEI.IR ने इस संबंध में डाक्टर लारीजानी से राजनैतिक, अंतर्राष्ट्रीय और ज़मीनी स्तर पर प्रभाव ख़ास तौर पर क्षेत्र के विशेष हालात के परिप्रेक्ष्य में उनके इस दौरे के बारे में बात की है।

सवालः शहीद नसरुल्लाह के बाद हिज़्बुल्लाह के कमांडरों का मनोबल, शैख़ नईम क़ासिम का नेतृत्व और हिज़्बुल्लाह के ढांचे को आपने किस हालात में पाया?

डाक्टर लारीजानीः 15 सितम्बर से जब पेजर हमले की घटना घटी और फिर सैयद हसन नसरुल्लाह की शहादत और फिर सैयद हाशिम सफ़ीउद्दीन सहित हिज़्बुल्लाह के दूसरे अहम सदस्यों की शहादत से अब तक की मुद्दत को दो हिस्सों में बांटना चाहिए। पहला दौर जो क़रीब 23 दिन का था और फिर उसके बाद का दौर। पहले दौर में यह हमला बहुत भारी था। हिज़्बुल्लाह के तीन चार हज़ार कैडर पेजर हमले में घायल हुए और इस आंदोलन के नेता की शहादत बहुत बड़ी घटना थी और यह वह दौर था जिससे ज़ायोनी शासन को लगने लगा कि इनका काम तमाम हो गया है और यही बात उसने पश्चिमी और अरबी देशों से भी कही कि इनका (हिज़्बुल्लाह) काम तमाम हो गया है। इस्राईल की ओर से भेजे जाने वाले कुछ संदेशों में इसी बात का उल्लेख होता था। पहले दौर के बाद, स्थिति पूरी तरह बदल गयी। हालात ख़राबी की ओर जा रहे थे कि अचानक बेहतरी की ओर बढ़ने लगे। ऐसा क्यों हुआ? घटना ही इस तरह की थी। इस बात की अपेक्षा थी कि रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ जो अक़ीदे के लेहाज़ से बहुत मज़बूत हैं और मैंने सुना कि जिस दिन मरहूम सैयद हसन नसरुल्लाह की शहादत की ख़बर आयी, बहुत दहलाने वाली थी और फ़्रंटलाइन के बहुत से मुजाहिद रोए, उन्होंने अज़ादारी की लेकिन उसके बाद उन्होंने अहद किया कि अपनी आख़िरी सांस तक लेबनान की रक्षा करेंगे। सैयद हसन नसरुल्लाह की शहादत की घटना का यह असर था। ठीक उसके विपरीत जो नेतनयाहू और इस्राईल सोच रहे थे कि इनका काम तमाम हो गया है, जबकि रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ में नयी ऊर्जा आ गयी। यानी उन्होंने आशूरा की तर्ज़ पर दोबारा लड़ना शुरू किया जिससे स्थिति बदल गयी और पुराने कैडर की जगह नए लोगों ने संभाल ली।

मैंने इस सफ़र में ऐसा मनोबल देखा कि इनकी दृढ़ता आशूरा के दिन जैसी है; ये लोग इस तरह डटे हुए थे, जैसा कि हम हदीसों और रवायतों में पढ़ते हैं कि (आशूरा के दिन) किस तरह से लड़ते थे और वे कैसे लोग थे जो अपने मक़सद के लिए डटे रहे। जैसे जनाब शहीद मोहम्मद अफ़ीफ़ जिनकी हाल में शहादत हुयी, वहाँ क़रीब एक घंटा मेरी उनसे मुलाक़ात रही और मैंने बात की। वह कह रहे थेः "हम पूरी तरह डटे हुए हैं, आप जान लीजिए कि हम पूरी तरह डटने के लिए तैयार हैं। लेबनान में हमारे दोस्तों में कोई यह न सोचे कि हम टूट गए हैं। हम तैयार हैं।" यह एक नमूना था। हिज़्बुल्लाह के दूसरे लोगों में भी जिनसे मैं मुलाक़त कर रहा था, उनका मनोबल बहुत ऊंचा था, वे ताज़ा-दम थे। जंग में मनोबल ऊंचा होना बहुत अहम है, बहुत अहम है। इन लोगों का मनोबल बहुत ऊंचा है और वे भविष्य के संबंध में आशावान हैं। यानी वे ताज़ा-दम भी हैं, उनका मनोबल भी ऊंचा है और वे भविष्य की ओर से आशावान भी हैं। मुझे इत्मेनान हो गया कि यही लोग विजयी हैं। यानी काम में यह भावना, यह दृढ़ता और आप्रेशन में यह बहादुरी इन्हें कामयाब करेगी।

मेरे ख़याल में ज़ायोनी शासन ने एक ग़लती कर दी। वह सोचने लगा कि वह इन बमबारियों और पेजर धमाकों वग़ैरह से मिसाल के तौर पर एक दो हफ़्ते में लीतानी नदी तक पहुंच जाएगा। इस वक़्त एक महीने से ज़्यादा का वक़्त गुज़र चुका है और ज़ायोनी, ज़मीनी स्तर पर कोई उल्लेखनीय क़दम नहीं उठा सके और लगातार उनके फ़ौजी मारे जा रहे हैं। अभी हिज़्बुल्लाह की अस्ल सलाहियतें सामने आयी ही नहीं हैं। अभी उसके पास बड़े पैमाने पर संसाधन मौजूद हैं और अब वह ख़ुद तैयार कर रहा है और वे अपने उपकरण बना रहे हैं। इससे पहले ज़ायोनियों ने कहा कि हमने उनके कई गोदामों को तबाह कर दिया है। तो अगर तुमने तबाह कर दिया है तो वे जो फ़ायर हो रहे हैं वे कहाँ से आ रहे हैं? मंगल ग्रह से तो नहीं आ रहे हैं, उनके पास हैं और वे बना रहे हैं। मुझे लगता है कि भविष्य में ज़ायोनी शासन इस बात पर बुरी तरह पछताएगा।

हमने हमेशा कहा है कि हम लेबनान और लेबनान की सरकार का सपोर्ट करते हैं और अगर हम हिज़्बुल्लाह का सपोर्ट करते हैं तो वह इसलिए है कि वह लेबनान की सरज़मीन की रक्षा और पूरे क्षेत्र पर इस्राईल की चढ़ाई को रोकने का एक मज़बूत मोर्चा है। हम लेबनान के एक दोस्त मुल्क, लेबनानी क़ौम के एक दोस्त मुल्क की हैसियत से पूरे लेबनान का सपोर्ट करते हैं और हमने हमेशा ही कहा है कि हम युद्ध विराम को सार्थक कदम समझते हैं। यह ज़ायोनी हैं जो युद्धोन्मादी हैं। कुल मिलाकर यह कि मौजूदा हालात में यह किसी हद तक मुश्किल में फंसे हैं और मसले को हल करने के लिए जनाब नबीह बेर्री जो वार्ता कर रहे हैं, हमें उम्मीद है कि उसका नतीजा निकलेगा।

सवालः आपके दौरे के संबंध में ज़ायोनी और उससे जुड़े मीडिया में एक ख़बर गश्त कर रही थी और वह यह थी कि जब आप लेबनान पहुंचे तो वहाँ आप की और आपकी टीम की तलाशी ली गयी, इस बारे में जानना चाहेंगे कि क्या ख़बर सही है या नहीं?

डाक्टर लारीजानीः मुझे लगता है कि कुछ लोगों ने इस दौरे में ऐसे भोंडे मज़ाक़ किए, मिसाल के तौर पर जब हम सीरिया में थे तो विषय को बदलने के लिए, माहौल को बदलने के लिए हमारी बातचीत के स्थान के क़रीब एक इलाक़े पर बमबारी की। या मिसाल के तौर पर लेबनान में हमारे पहुंचने से पहले एयरपोर्ट के करीब हमला किया। इस तरह से वे क्या संदेश देना चाहते थे? उन्होंने कहा कि हमने अपना पैग़ाम दे दिया है। पैग़ाम क्या था? तुम यह कहना चाहते थे कि लेबनान की वायु सीमा में हमारे पास इतनी ताक़त है कि किसी भी जगह पर हम हमला कर सकते हैं, तो यह बात हम पहले से ही जानते थे, तुम हमला कर सकते थे लेकिन तुम अपना काम कर रहे थे और हम अपना काम कर रहे थे, हम पर कोई असर नहीं पड़ा। क्या पैग़ाम था? जिस बात की तरफ़ आपने इशारा किया यह भी उन अजीब झूठों में से एक है, मतलब यह कि पूरी तरह बेबुनियाद बात है। हम हवाई जहाज़ से उतरे, हमारे राजदूत हवाई जहाज़ की सीढ़ियों के पास खड़े थे, वहाँ के कुछ सासंद, हिज़्बुल्लाह के प्रतिनिधि और कुछ दूसरे लोग वहाँ मौजूद थे। वहाँ गाड़ी खड़ी थी, हम गाड़ी में बैठे और आ गए। मतलब यह कि हम हाल में गए ही नहीं कि कोई हमें देख सके। चूंकि मुलाक़ात में कुछ देर हो चुकी थी, ट्रैफ़िक भी था इसलिए हम वहीं से, जहाज़ से उतरते ही चले गए।

सवालः एक बात जिसकी समीक्षा बहुत अहम है, वह हिज़्बुल्लाह के सिलसिले में लेबनान के दूसरे गिरोहों की राय है। हालिया वाक़यों और एक महीने से ज़्यादा वक़्त से ज़ाहिया और उसके आस-पास जारी इन हमलों की वजह से क्या हिज़्बुल्लाह के बारे में दूसरे लेबनानी गिरोहों की राय में कोई फ़र्क़ आया है?

डाक्टर लारीजानीः अगर हक़ीक़त पर आधारित बात करना चाहें तो इस पहले चरण में हिज़्बुल्लाह के लिए हालात कुछ सख़्त हो गए, हालात थोड़े से बदल गए थे, कुछ आवाज़ें उठने लगी थीं लेकिन अब ऐसा नहीं है, यानी बहुत से लोग समझ गए, सावधान हो गए कि हिज़्बुल्लाह का यह मोर्चा लेबनान की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मुल्क की एक संपत्ति है और वह इन बातों से कहीं ज़्यादा मज़बूत है कि मिसाल के तौर पर पेजर वग़ैरह के दो चार आप्रेशनों से उसे ख़त्म किया जा सके। देखिए वह आतंकवादी कृत्य, पेजर धमाके की घटना, बहुत बड़ी घटना थी यानी हिज़्बुल्लाह के 3000 लोगों की आँखों को नुक़सान पहुंचा, हाथों को नुक़सान पहुंचा, किसी संगठन को बहुत ज़्यादा मज़बूत होना चाहिए तभी इसे बर्दाश्त कर सकता है। या जब इस संगठन के प्रमुख को शहीद किया गया तो यह कोई साधारण बात नहीं थी। ये दोनों वाक़ए क़रीब क़रीब आगे पीछे हुए लेकिन यह संगठन इतना विकसित हो चुका था, बुद्धि, ज्ञान, ज़मीनी महारत और राजनैतिक व अक़ीदे के पहलुओं से इतना मज़बूत हो चुका है कि बहुत जल्दी सबके विकल्प आ गए और ढांचे के लेहाज़ से भी यह संगठन इस तरह का था कि उसने आप्रेशन शुरू कर दिए। अब आप देखिए कि हर दिन वे कितने आप्रेशन करते हैं। इसलिए साफ़ तौर पर पता चलता है कि यह संगठन अपने पैरों पर खड़ा है। यही वजह थी कि दूसरे गिरोहों के रवैये बदल गए।

सवालः रेज़िस्टेंस की मौजूदा स्थिति में सीरिया और जनाब बश्शार असद के रोल के बारे में कुछ बताइये और यह भी बताइये कि इस वक़्त वह इस सिनारियों में क्या पोज़ीशन रखते हैं और कौन सा रोल अदा कर रहे हैं?

डाक्टर लारीजानीः सच बात तो यह है कि जनाब बश्शार असद इलाक़े में उन नेताओं की तरह हैं जिनकी सार्थक सोच है और बरसों पहले से रेज़िस्टेंस का सपोर्ट करने की डगर पर चल रहे हैं। चाहे वह वक़्त हो जब वह अकेले पड़ गए थे, या मौजूदा समय में जब अरब देशों ने उन्हें अरब संघ में सहयोग के लिए दावत दी और दूसरे मौक़ों पर, वह हमेशा से रेज़िस्टेंस के सपोर्ट में डटे हुए थे और हैं और ये उन गिने चुने अरब देशों के राजनेताओं में हैं जो बहुत अक़्लमंद हैं और समझदारी से काम करते हैं।

सवालः आयतुल्लाह ख़ामेनेई के पैग़ाम पर जनाब बश्शार असद और जनाब नबीह बेर्री का क्या रिएक्शन था? इन दोनों शख़्सियतों से जब आपकी बात हुयी और आपने विषय पेश किया तो आपको क्या फ़ीडबैक मिला?

ड़ाक्टर लारीजानीः इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के पैग़ाम के सिलसिले में दोनों आदरणीय शख़्सियतों का अंदाज़ सम्मानजनक था, उन्होंने इसे बहुत सराहा और मैं इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के सिलसिले में उनकी राय और नज़रिए को पहले से ही जानता था कि वह उन्हें इलाक़े के मसलों और बंद गलियों के सिलसिले में राह दिखाने वाला इंसान समझते हैं और इसी वजह से दोनों का यह कहना था कि इस पैग़ाम में जो बिंदु बयान किए गए हैं, वे वही चीज़ है जिनकी हमें आज ज़रूरत है और हमें इन पर ध्यान देना चाहिए, हम इन सारे बिंदुओं को मानते भी हैं और इसके सिलसिले में कोशिश भी कर रहे हैं। उनका यह मानना था कि यह संदेश एक ऐसी शख़्सियत की तरफ़ से आया है जो क्षेत्र का हमदर्द है, क्षेत्र के भविष्य पर नज़र रखता है, क्षेत्र के सभी मामलों और पहलुओं पर नज़र रखता है और मसलों का हल चाहता है। इस वजह से इन लोगों ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के संदेश का काफ़ी स्वागत किया।

सवालः दुश्मन अपनी एक मान्यता पर बहुत बल देता है और अपनी समीक्षा में कहता है कि क्षेत्र में इस्लामी गणराज्य ईरान के बाज़ुओं को कमज़ोर कर दिया गया है है और वह मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से मुसलसल यह कहना चाहता है कि यह बाज़ू दिन ब दिन ज़्यादा कमज़ोर होते जा रहे हैं। इस सिलसिले में आपका क्या कहना है? इस बात में किसी हद तक सच्चाई है? आप मैदान में थे और वहाँ थे तो आपने क्या महसूस किया?

डाक्टर लारीजानीः मैं मानता हूं कि यह बात दिल में बिठाने की कोशिश कर रहे हैं। बहुत हद तक पश्चिमी देशों में भी और अरब देशों में भी यह बात मन में बिठा दी है। शायद यही वजह है कि पश्चिमी देशों ने यह सोचा मिसाल के तौर पर कि ईरान की पोज़ीशन कमज़ोर हो गयी है तो हम भी ईरान पर प्रस्ताव के ज़रिए दबाव डाल सकते हैं। इस समय आईएईए में पश्चिमी देश जो प्रस्ताव लाने की कोशिश में हैं, मुझे याद आता है कि यह ठीक वैसी ही हरकत है जैसी उन्होंने 33 दिवसीय जंग के बाद की थी। उस वक़्त केसेंजर ने कहा था कि अब जब यह क्षेत्रीय संकट आ गया है तो ईरान के ख़िलाफ एक प्रस्ताव लाना चाहिए। इस वक़्त लेबनान में संकटमय स्थिति है, इन्होंने (पश्चिमी देश) हमारे परमाणु मामले के संबंध में कहा कि हम प्रस्ताव लाना चाहते हैं लेकिन जैसे ही 33 दिवसीय जंग में स्थिति बदली थी और ज़ायोनी शासन समझ गया था कि अब वह इस मसले में आगे नहीं जा सकता तो संघर्ष विराम में लग गए थे जबकि उस वक़्त अचानक कहा था कि ईरान के ख़िलाफ़ प्रस्ताव ला रहे हैं। उस वक़्त मुझे याद है कि जनाब सोलाना ने मुझे फ़ोन किया था और कहा था कि मुझे बहुत अफ़सोस है, क्योंकि विध्वंसक तत्व अपना काम कर चुके थे। यानी उन्हें ग़लती का एहसास हो गया। तो अब आप देखिए मिसाल के तौर पर उस वक़्त जब वे परमाणु टेक्नालोजी की रोकथाम के लिए प्रस्ताव लाए थे, तो क्या रोक सके? क्या ईरान उस वक़्त से अब तक कमज़ोर हुआ? वह ख़ुद ही देख रहे हैं। इस बार भी उसी तरह की ग़लती दोहरा रहे हैं।

तो मैं मानता हूं कि इस तरह की सोच पैदा हो गयी है लेकिन यह सोच ग़लत क्यों है? जैसा कि मैंने हिज़्बुल्लाह के सिलसिले में व्याख्या की। दुश्मनों ने इस संगठन के नेता को शहीद कर दिया, उनके डिप्टी को शहीद कर दिया, संगठन के कुछ बहुत अहम लोगों को शहीद कर दिया, हिज़्बुल्लाह के 3000 लोगों को घायल कर दिया कि जो इस वक़्त काम नहीं कर सकते तो नए लोगों को आना चाहिए था। अब जब हम इस स्थिति पर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि एक जवान नस्ल उनकी जगह काम पर लग गयी है। इन जवानों की ख़ुसूसियत यह है कि वे ज़्यादा मज़बूत अक़ीदे वाले हैं, ज़्यादा बहादुर हैं, ज़्यादा साहसी हैं। उनमें बहादुरी और इनोवेशन की यह ख़ुसूसियत है और उन्होंने एक दूसरे के साथ मिलकर क़सम खायी है कि लेबनान की रक्षा करेंगे। यही वजह है कि ज़ायोनी फंस गए हैं और अब उन्हें बहुत ज़्यादा नुक़सान हो रहा है। जहाँ तक मुझे जानकारी है इस मामले में ज़ायोनियों को क़रीब एक डिविजन जितना नुक़सान हो चुका है। तो यहाँ एक नतीजा निकला कि उन्होंने किसके बाज़ू को काटा? कहाँ काटा? हमें किसी बाज़ू की ज़रूरत नहीं है। वे कहते हैं कि रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़, रेज़िस्टेंस फ़ोर्स का क्या मतलब है? यानी वह फ़ोर्सेज़ जो क्षेत्र में हैं और उनके ज़ुल्म व विस्तारवादी रवैये से तंग आ चुकी हैं। अस्ल बात यह है।

सवालः इस बात के मद्देनज़र कि 33 दिवसीय जंग के ज़माने में आप राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सेक्रेटरी थे और लेबनान के मामलों को देख रहे थे, उस वक़्त निश्चित तौर पर आपके संपर्क रहे होंगे, बाद में भी रहे होंगे। आपके ख़याल में लेबनानी रेज़िस्टेंस में सन 2006 से लेकर अब तक किस तरह के स्पष्ट बदलाव आए हैं?

डाक्टर लारीजानीः दो बाते हैं। एक यह कि 33 दिवसीय जंग मौजूदा स्थिति से कितनी समानता रखती है और किस तरह यह संचालित हुयी। दूसरे यह कि इस दौरान क्षेत्र की स्थिति कितनी बदली।

33 दिवसीय जंग में क़रीब क़रीब ऐसी ही स्थिति पेश आयी थी थोड़े बदालव के साथ। पहली बात यह कि आरंभिक हमला आज के जैसा था यानी क़रीब दो हफ़्ते या शुरू के 12-13 दिन इस्राईल बहुत तेज़ी से आगे बढ़ा था, बहुत ज़्यादा लोग मारे गए थे और ज़मीनी हमले में भी काफ़ी आगे आ गए थे, मौजूदा स्थिति से ज़्यादा और उस दौरान जब भी युद्ध विराम की कोई बात करता था तो अमरीकी उसका विरोध करते थे। मुझे याद है कि उस वक़्त रोम में एक कान्फ़्रेंस हुयी जिसमें इटली के प्रधान मंत्री सहित दूसरों ने संघर्ष विराम का सुझाव रखा। उस वक़्त जर्मन विदेश मंत्री एक महिला थीं, उन्होंने बड़ी कड़ाई से इसका विरोध किया था और कहा था कि यह समय इन बातों का नहीं है। कान्फ़्रेंस ख़त्म हो गयी और वे लोग सोच रहे थे कि कामयाब हो गए हैं और हिज़्बुल्लाह का काम तमाम हो गया है। 12-13 दिन गुज़रने के बाद, जब स्थिति बदल गयी तो उसके बाद तो वे लोग ख़ुद ही संघर्ष विराम के लिए हाथ पैर जोड़ने लगे। फिर प्रस्ताव तैयार हुआ। उससे पहले जो भी प्रस्ताव दिया जाता, उसे रद्द कर देते थे। क्षेत्र के कुछ विदेश मंत्री जो उनके लिए दलाल का रोल निभाते हैं, निरंतर संपर्क करते थे कि इस विषय का आप तुरंत सपोर्ट कीजिए, हल कीजिए। ख़ुद ही हाथ पैर जोड़ने लगे। यह उतार चढ़ाव की स्थिति उस वक़्त भी थी, इस वक़्त भी है। यह हुयी एक बात।

दूसरे बिन्दु में अंतर है। उस वक़्त जनाब हसन नसरुल्लाह थे, शहीद सुलैमानी थे, ये लोग प्रेरणा का स्रोत थे। इस वक़्त ये लोग नहीं हैं, लेकिन इनकी जगह दूसरे आ गए हैं। ऐसा लगता है कि इस मोर्चे को एक बड़ी क़ुरबानी की ज़रूरत थी ताकि यह जवान फ़ोर्स प्रतिज्ञा ले और लेबनान की रक्षा में डट जाए। यानी यह विषय उन्हें किसी तरह का नुक़सान पहुंचाने और उनका मनोबल गिराने के बजाए, उनके मनोबल को ऊंचा करने वाली नई ऊर्जा में बदल गया। ये लोग अपनी जगह पर डटे हुए हैं। यह बात सही है कि नुक़सान हुए हैं लेकिन अल्लाह ने उन्हें यह ऊर्जा दी है, सचमुच यह फ़ोर्से बड़े बड़े काम कर सकती है।

अगला बिन्दु यह है कि हिज़्बुल्लाह की मौजूदा ताक़त की अतीत से तुलना नहीं की जा सकती। 33 दिवसीय जंग में उन्हें आप्रेशन का अनुभव कम था और इस वक़्त उनके पास बहुत अनुभव है और इसी तरह संसाधन भी ज़्यादा हैं। इन्होंने अभी तो अपने अहम उपकरणों को इस्तेमाल ही नहीं किया है और मेरे ख़्याल में अगर इस्तेमाल करें तो स्थिति बहुत बदल जाएगी। शायद उन्हें यह बात समझ में आ गयी जभी तो जल्द संघर्ष विराम की इच्छा ज़ाहिर कर रहे हैं। मेरे विचार में बदलाव और समानताओं का सिनारियो इस वक़्त इस तरह का है।

सवालः लेबनान के बारे में आपका क्या ख़याल है ख़ास तौर पर इसलिए कि इस वक़्त लेबनान, हमलों का केन्द्र बना हुआ है, आपके दौरे से पहले और बाद के हालात में क्या कोई फ़र्क़ आया है? आपने वहाँ के हालात सीधे तौर पर देखे हैं, आपने लोगों के जज़्बे और लेबनान में माहौल को कैसा पाया?

डाक्टर लारीजानीः लेबनान के अधिकारियों को चाहे वह प्रधान मंत्री हों या संसद सभापति नबीह बेर्री हों, मैं एक अहम राष्ट्रीय शख़्सियत समझता हूं जो हक़ीक़त में चाहते हैं कि उनके मुल्क के राष्ट्रीय हितों की रक्षा हो। वे हमारे दोस्त हैं और जानते हैं कि हम भी चाहते हैं कि ज़ायोनी सरकार ने उनके ख़िलाफ़ जो दबाव बनाया है उसमें लेबनान कामयाब हो। लेबनान के लोगों ने बेघर लोगों के साथ बहुत सज्जनतापूर्ण व सम्मानजनक सुलूक किया, चाहे वे शिया हों, सुन्नी हों या ईसाई हों, उन्होंने इन बेघर लोगों के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल दिए। यह बहुत बड़ी बात है। यह एक मुल्क में नज़र आने वाली बेहतरीन क़िस्म की एकता है कि 8-9 लाख लोगों को अपने घरों में जगह दी जाए और कुछ लोगों को स्कूलों में जगह देकर उनकी मदद की जाए। ईरान की ओर से नक़दी मदद और दूसरी तरह की मदद लेबनान पहुंचने के बारे में भी लेबनान की सरकार ने कहा कि वह कोई रास्ता निकालेगी ताकि इस काम में आसानी पैदा की जा सके। यही बात मैंने सीरिया में भी देखी कि जनाब बश्शार असद ने लोगों से कहा कि आप में से हर कोई एक या दो फ़ैमिली को अपने घर में जगह दे और उन्हें अपना मेहमान समझे। अजीब बात यह है कि इन 1 लाख 30 हज़ार व्यक्तियों को लोगों ने अपने घर में जगह दी है, यह बहुत क़ीमती चीज़ है कि इन मुल्कों और क़ौमों के बीच इस तरह की एकता है।

दूसरी बात यह है कि लेबनान के राजनेता अपने भविष्य के बारे में एक बहुत अच्छी सोच रखते हैं, ठीक है कि आरंभिक वाक़यों में कुछ लोगों ने कुछ बातें कहीं लेकिन अब ऐसा नहीं है और मैंने मुख़्तलिफ़ तबक़ों और गिरोहों से जो बातें कीं उनमें सभी इस बात पर सहमत और एकमत थे कि ज़ायोनी शासन के मुक़ाबले में रेज़िस्टेंस करना चाहिए और वे ईरान के शुक्रगुज़ार थे और लेबनानी अवाम भी इस बात पर सहमत थे कि ईरान सपोर्ट कर रहा है। इसलिए इंसान देखता है कि जंग के मैदान और मोर्चे के पीछे यानी लोगों के दरमियान अपनी सरज़मीन की रक्षा के सिलसिले में सपोर्ट, इरादे और नीयत में भरपूर समरस्ता पायी जाती है।

सवालः आख़िरी सवाल के तौर पर मैं यह जानना चाहता हूं कि आपने जो देखा और जो राजनैतिक माहौल आप देख रहे हैं जैसे युद्ध विराम का विषय जो इस वक़्त काफ़ी गंभीर हो गया है या लेबनान के मामले में अमरीका के विशेष दूत का बैरूत और मक़बूज़ा फ़िलिस्तीन का दौरा या ग़ज़ा के हालात के मद्देनज़र आप लेबनान की स्थिति को कैसा पाते हैं? या दूसरे लफ़्ज़ों में आपके ख़याल में पूरा क्षेत्र किस दिशा में जा रहा है?

डाक्टर लारीजानीः लेबनान में रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ की नज़र से स्थिति बहुत ही प्रभावशाली है। वे उबर गए हैं और आगे बढ़ रहे हैं। संघर्ष विराम की बातचीत नबीह बेर्री कर रहे हैं। मुझे भी उन्होंने बताया कि वार्ता किस दिशा में बढ़ रही है और उन्हें उम्मीद थी कि यह विषय किसी नतीजे तक पहुंचेगा। अलबत्ता हम भी संघर्ष विराम का सपोर्ट करते हैं। जल्द से जल्द यह काम अंजाम पाए, लोगों के लिए बेहतर है। बहरहाल सभी जंगें जितनी जल्द ख़त्म हों बेहतर है। इसकी दशा क्या होगी, इसके बिन्दु क्या क्या होंगे, इस मामले में हमारा किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं है और ख़ुद लेबनानी अधिकारी चाहे जनाब नबीह बेर्री हों, उनके दोस्त हों, हिज़्बुल्लाह हो, बहुत सूक्ष्मता से समीक्षा करते हैं। इन लोगों में मामलों की समीक्षा की अच्छी सलाहियत है। वे लोग जो भी फ़ैसला लें, लेबनान की सरकार को ईरान का सपोर्ट है और यही बात मैंने जनाब प्रधान मंत्री से भी कही, जनाब नबीह बेर्री साहब से भी और हिज़्बुल्लाह के दोस्तों से भी। इसलिए मुझे क्षितिज बहुत साफ़ दिख रहा है और हिज़्बुल्लाह फ़ोर्स की कामयाबी नज़र आ रही है। यानी उनकी कामयाबी का क्षितिज नज़र आ रहा है।

ग़ज़ा में स्थिति ज़रा अलग है और वहां भी रेज़िस्टेंस ख़ुद के ज़िंदा होने के सुबूत दिखा रहा है लेकिन आम लोगों की स्थिति बहुत सख़्त है, वहाँ क़रीब क़रीब सारी इमारतें, सब नहीं, लेकिन बड़ी हद तक तबाह हो गयी हैं। इस्राईल ने बहुत बड़ी त्रासदी को जन्म दिया है। लेकिन वहाँ भी ऐसा ही है। मेरे विचार में गज़ा, वेस्ट बैंक और फ़िलिस्तीन के मुसलमानों का ज़ख़्म ताज़ा हो गया है और यह नेतनयाहू की बहुत बड़ी ग़लती थी। वह सोच रहा था कि रेज़िस्टेंस का दमन कर दिया, काम तमाम हो गया है, हालांकि इससे रेज़िस्टेंस और बढ़ेगा। लेकिन इस वक़्त की स्थिति सख़्त है। क्षेत्र में उतार चढ़ाव जैसे हालात रहे हैं। ज़ायोनी शासन ने अपने कामों से एक तरह का प्रोपैगंडा किया कि काम तमाम हो गया। यहाँ तक कि क्षेत्र के कुछ मुल्कों ने भी इस तरह की बातें कीं कि हिज़्बुल्लाह को ज़मीनी और फ़ौजी लेहाज़ से भारी नुक़सान पहुंचा है और उसका अंत हो गया है लेकिन उसे राजनैतिक लेहाज़ से भी लेबनान से ख़त्म कर देना चाहिए। कोई भी इन बातों को मानने वाला नहीं है। यह उसी पहले चरण की बात है जिसमें उन्होंने कुछ काल्पनिक माहौल बनाया था। इस वक़्त ऐसा नहीं है। इस वक़्त क्षेत्र के मुल्कों का मानना है, यानी अगर सब न कहा जाए तब भी उनमें से बहुत से मुल्क कह रहे हैं कि हालात को संतुलन में लाया जाए और इस्राईल जो बातें कर रहा था वह ठीक नहीं थीं और अब उनकी समझ में आ गया है कि अगर इस्राईल कामयाब हो जाता तो ख़ुद उनकी भी क्षेत्र में कोई पोज़ीशन नहीं होती, यह वह सच्चाई है जो आज वे महसूस कर रहे हैं कि अगर इस्राईल को ढील दी गयी तो वह बहुत तेज़ी से उन्हें निगल लेगा। इसलिए वे चाहते हैं कि हिज़्बुल्लाह ताक़तवर बना रहे जबकि अतीत में वे ऐसा नहीं सोचते थे। मुझे लगता है कि पूरे क्षेत्र में, जो रेज़िस्टेंस के लेहाज़ से एक अलग पोज़ीशन की ओर बढ़ रहा है, ज़ायोनियों को निश्चित तौर पर नुक़सान पहुंचा है। शहीदों की तादाद काफ़ी ज़्यादा है लेकिन जो नतीजे हासिल हुए हैं वे क्षेत्र के भविष्य के लिए बहुत अहम हैं। शहीदों का ख़ून, ऐसा उबलता हूआ ख़ून बन गया जिसने इस रेज़िस्टेंस को ज़्यादा मज़बूत बना दिया।

KHAMENEI.IR को अपना क़ीमती वक़्त देने के लिए आपका बहुत शुक्रिया।