ईरान के कोहगिलूए व बुवैर अहमद प्रांत के शहीदों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए आयोजित की जाने वाली कान्फ़्रेंस के प्रबंधकों ने 14 अगस्त 2024 को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई से मुलाक़ात की। इस मौक़े पर आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने तक़रीर करके हुए इस प्रांत के लोगों, वहां के इतिहास और शहीदों के विषय पर बात की।
बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम
सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल पर ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर।
क़ौम की तरक़्क़ी के लिए शहादत रूपी संपत्ति की हिफ़ाज़त की ज़रूरत
यहाँ मौजूद आप भाइयो और बहनो का स्वागत करता हूँ। सबसे पहले तो मैं दिल की गहराई से आप सबका शुक्रिया अदा करता हूँ कि आपने इस बड़ी ज़िम्मेदारी और बड़े फ़रीज़े यानी शहीदों की याद को ज़िंदा रखने पर ध्यान दिया। शहादत एक संपत्ति है, किसी क़ौम के ज़वानों का बलिदान उस क़ौम की तरक़्क़ी के लिए एक बड़ा आध्यात्मिक व भौतिक सहारा है, इसे बाक़ी रखना चाहिए, इसे सुरक्षित रखना चाहिए, इसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए, इसे भूलने नहीं देना चाहिए और इसमें किसी तरह का बदलाव नहीं होने देना चाहिए। आपके काम की अहमियत इसमें है कि आप इस संपत्ति को सुरक्षित बना रहे हैं, इसकी रक्षा कर रहे हैं।
आदरणीय इमामे जुमा ने जो बातें कहीं और इसी तरह आईआरजीसी के हमारे भाई ने बेहतरीन तहरीर पढ़ी, दोनों ही में बहुत अच्छी और सही बातें हैं। जहाँ तक अधिकारियों से सिफ़ारिश की बात है तो इंशाअल्लाह मैं सम्मानीय अधिकारियों से सिफ़ारिश कर दूंगा, जनाब आरिफ़ साहब, (91) यहाँ मौजूद हैं, इंशाअल्लाह राष्ट्रपति साहब से भी कह दूंगा। मुझे उम्मीद है कि इन लोगों पर इनकी शान और मुल्क के लिए इनकी भौतिक व राष्ट्रीय क़द्र व क़ीमत के मुताबिक़ ध्यान दिया जाएगा।
कोहगिलूए व बुवैर अहमद के लोगों के बलिदान और संघर्ष का लंबा इतिहास
कोहगिलूए व बुवैर अहमद यानी वह पूरा इलाक़ा, चाहे प्रांत के रूप में हो या पहले जिस रूप में भी रहा हो, बलिदान और संघर्ष का लंबा इतिहास रखता है, जिसकी ओर इशारा किया गया। पिछले दौर तो अपनी जगह हैं लेकिन हमारे दौर में भी, जो कुछ मुझे याद है, आंदोलन के बिल्कुल आग़ाज़ से ही, सन 1964 से (2) जनाब के दादा और जनाब मलिक हुसैनी (3) के मरहूम वालिद ने, जो इस इलाक़े के बुज़ुर्ग धर्मगुरू थे, एक बयान जारी किया था और उनका बयान, बेमिसाल बयानों में से एक था, ठोस व वीरता भरी बातें थीं और सरकारी मशीनरी भी उन्हें अहमियत देती थी क्योंकि वह जानती थी कि अगर उन्होंने जेहाद का हुक्म दे दिया तो क़बायली और ख़ाना-बदोश लोग जेहाद शुरू कर देंगे जैसा कि कुछ काम हुए भी। उसी दौरान सरकारी मशीनरी ने एक दूसरी क़ौम से, कि वह भी अज़ीज़ क़ौम है, कहा था कि वह जाकर बुवैर अहमद के क़बायली लोगों से जंग करे और वहाँ के एक सुन्नी धर्मगुरू ने ऐसा नहीं होने दिया था। हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि इस मुल्क में हमारे धार्मिक, क़ौमी और क़बायली संबंधों का अतीत कैसा रहा है। सुन्नी संमुदाय के एक मौलवी साहब ने बलोच क़ौम और कोहगिलूए व बुवैर अहमद के क़बीलों के बीच जंग छिड़वाने की सरकार की साज़िश को व्यवहारिक नहीं होने दिया था, उन्होंने उसे रोक दिया था, उसके ख़िलाफ़ फ़तवा दिया था। यह इस इलाक़े का अतीत है।
पाकीज़ा डिफ़ेंस और थोपी गयी जंग के दौरान भी इन लोगों ने सचमुच बहुत अच्छा काम किया, जब ब्रिगेड बनी थी तब भी और ब्रिगेड बनने से पहले भी, जिसके लोग मुख़्तलिफ़ इकाइयों में बंटे हुए थे, इस इलाक़े के संघर्षील मुजाहिद लोगों ने बहुत संघर्ष किया, बहुत अच्छे काम किए। उस वक़्त की कुछ यादें हैं जो पाकीज़ा डिफ़ेंस के मसलों और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में दर्ज हैं। मिसाल के तौर पर फ़तह ब्रिगेड की एक बटालियन, मजनून द्वीप में इराक़ के एक बड़े बासी लश्कर के सामने डटी रही, दृढ़ता से जमी रही, पीछे नहीं हटी। कुछ लोग शहीद भी हुए लेकिन वे इस इलाक़े की रक्षा करने में सफल रहे, मतलब यह है कि इस तरह के काम भी वहाँ, पाकीज़ा डिफ़ेंस के इतिहास व यादों में दर्ज हैं।
दुश्मन को बड़ा दिखाना, दुश्मन की मनोवैज्ञानिक जंग का अहम हिस्सा
मैं संक्षेप में कहना चाहता हूँ कि किसी भी क़ौम के दुश्मनों और सबसे ज़्यादा हमारे दौर में ख़ुद हमारी अज़ीज़ क़ौम और हमारे इस्लामी ईरान के दुश्मनों की मनैवैज्ञानिक जंग का एक हथकंडा यह है कि इस क़ौम के दुश्मन को बड़ा बनाकर पेश किया जाए, इस्लामी इंक़ेलाब के आग़ाज़ से यह चीज़ मौजूद रही है। मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से निरंतर हमारी क़ौम को यह समझाया जाता रहा है, मन में यह बात बिठाई जाती रही है और यह बात इंजेक्ट की जाती रही है कि डरो, अमरीका से डरो, ज़ायोनियों से डरो, ब्रिटेन से डरो, इन जैसों से डरो, हमेशा ऐसा ही रहा है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का एक बड़ा कारनामा यह था कि उन्होंने क़ौम के दिल से यह डर निकाल दिया, क़ौम में भरोसा पैदा किया, आत्मविश्वास पैदा किया, क़ौम ने महसूस किया कि उसके अंदर एक क्षमता और ताक़त है जिसके सहारे वह बड़े बड़े काम कर सकती है और दुश्मन उसे रोक नहीं सकता और जैसा वह ज़ाहिर करता है, उसके हाथ इतने मज़बूत नहीं हैं।
डर, फ़ौजी मैदान में दुश्मन को बड़ा दिखाने का नतीजा
मनोवैज्ञानिक जंग का दुश्मन का यह हथकंडा जब जंग के मैदान तक पहुंचता है तो इसका नतीजा ख़ौफ़ है, पीछे हटना है और क़ुरआन मजीद ने इस पीछे हटने को अल्लाह के क्रोध का सबब क़रार दिया है और इसकी व्याख्या की है। "और जो ऐसे (जंग वाले) मौक़ों पर उनको पीठ दिखाएगा। सिवाए उसके जो जंगी चाल के तौर पर पीछे हट जाए। या किसी (अपने) फ़ौजी दस्ते के पास जगह लेने के लिए ऐसा करे (कि इसमें कोई हरज नहीं है) तो वह ख़ुदा के क़हर व ग़ज़ब में आ जाएगा।" (सूरए अन्फ़ाल, आयत-4) (4) अगर तुम पर हमलावर दुश्मन के मुक़ाबले में, किसी भी तरह का हमलावर हो, कभी तलवार लेकर और मैदान में सामने से हमलावर होता है, कभी प्रोपैगंडे का हमला करता है, कभी आर्थिक हमलावर होता है, कभी नए संसाधन के साथ फ़ौजी हमला करता है, अगर उसके मुक़ाबले में तुम ग़ैर टैक्टिकल तरीक़े से पीछे हटे; कभी कभी टैक्टिकल तरीक़े से पीछे हटना होता है। पीछे हटना कभी आगे बढ़ने की टैक्टिक के तहत होता है, इसमें कोई हरज नहीं है। "सिवाए उसके जो जंगी चाल के तौर पर हट जाए। या किसी (अपने) फ़ौजी दस्ते के पास जगह लेने के लिए" टैक्टिक यह है। अगर इसके अलावा किसी और बात के लिए पीछे हटोगे "तो वह ख़ुदा के क़हर व ग़ज़ब में आ जाएगा।" जंग के मैदान में ऐसा है, राजनैतिक मैदान में भी बिल्कुल ऐसा ही है। (अल्लाह के क्रोध का सबब बनता है।)
कमज़ोरी और अलग थलग पड़ जाना, राजनैतिक मैदान में दुश्मन को बड़ा ज़ाहिर करने का नतीजा
राजनैतिक मैदान में भी दुश्मन को बड़ा करके पेश करना इस बात का सबब बनता है कि इंसान यह महसूस करे कि वह अलग थलग पड़ गया है, यह महसूस करे कि वह कमज़ोर है, यह महसूस करे कि वह कुछ नहीं कर सकता, इसका नतीजा यह है कि वह दुश्मन की मांग के सामने झुक जाए, वह कहे कि यह काम करो तो यह कहे कि आपका हुक्म सिर आँखों पर, वह काम न करो, आपका हुक्म सिर आँखों पर! जैसा कि इस वक़्त छोटी बड़ी क़ौमों वाली तरह तरह की सरकारें हैं जो इसी तरह की हैं, जो भी उनसे कहा जाता है, वह कहती हैं आपका हुक्म सिर आँखों पर, उनका अपना कोई इरादा नहीं है। अलबत्ता कूटनीति और कूटनैतिक बातचीत के कुछ अलग उसूल व शिष्टाचार हैं। इस "आपका हुक्म सर आँखों पर" को कई तरह से कहा जा सकता है लेकिन यह वही नतमस्तक हो जाना है जो आप देख रहे हैं। जबकि अगर वही सरकारें अपनी क़ौमों पर भरोसा करें, अगर अपनी आंतरिक क्षमताओं पर भरोसा करें, अगर उस दुश्मन के वजूद की हक़ीक़त को समझ लें और यह जान लें कि उसका हाथ इतना मज़बूत नहीं है जितना वह ज़ाहिर कर रहा है तो चाहें तो आपका हुक्म सिर आँखों पर न कहें! लेकिन वे इन बातों पर ध्यान नहीं देतीं! कहती हैं आपका हुक्म सिर आँखों पर। यह राजनैतिक मैदान की बात हुयी।
अपनी संस्कृति को कमतर और तुच्छ समझना, संस्कृति के मैदान में दुश्मन को बड़ा दिखाने का नतीजा
संस्कृति के मैदान में भी दुश्मन को बढ़ा चढ़ा कर पेश करने का नतीजा एक दूसरे रूप में सामने आता है। अलग थलग पड़े रहने का एहसास, सामने वाले पक्ष के कल्चर की ओर आकर्षित होना, अपनी संस्कृति को हक़ीर समझना, ग़ैर के कल्चर के अनुसरण पर गर्व करना। कुछ लोग हैं जब बात करते हैं या कुछ लिखते हैं तो इस बात पर फ़ख़्र करते हैं कि वह कोई विदेशी भाषा का शब्द का इस्तेमाल करें, वह गर्व करते हैं कि उसकी जगह फ़ारसी शब्द का इस्तेमाल न करें बल्कि विदेशी शब्द इस्तेमाल करें। हाँ कभी ऐसा होता है कि आपके पास उस शब्द के लिए ईरानी शब्द नहीं है जैसा कि टेलीविजन, हमारे पास इसके लिए ईरानी शब्द नहीं है, अगरचे जब यह आया था उसी वक़्त इसके लिए शब्द बनाया जा सकता था लेकिन अब हम टेलीविजन ही कहने के लिए मजबूर हैं लेकिन बहुत से विदेशी ज़बानों में प्रचलित शब्दों को इस्तेमाल करना हमारे लिए ज़रूरी नहीं है। इसे बढ़ा चढ़ा कर पेश करने का एक नतीजा यह है कि हम उसके कल्चर को, उसकी रस्मों को, उसके शिष्टाचार को, उसकी जीवन शैली को अपना लेते हैं, मान लेते हैं, देखिए यह दुश्मन की मनोवैज्ञानिक जंग है।
दुश्मन की मनोवैज्ञानिक जंग के मुक़ाबले में डट जाने वालों के तौर पर शहीदों को पेश करना
वह जो पूरे वजूद से इस मनोवैज्ञानिक जंग के मुक़ाबले में डट गया वह कौन है? वे वही जवान हैं जिनके लिए आप श्रद्धांजलि कान्फ़्रेंस आयोजित कर रहे हैं। उसकी अज़मत को पेश कर रहे हैं और वाक़ई वे महान हैं। मुल्क के फ़ुलां मक़ाम, फ़ुलां शहर, फ़ुलां क़ौम और फ़ुलां प्रांत का रहने वाला जवान जो जाकर दुश्मन के मुक़ाबले में खड़ा हो जाता है। वह न तो जंग के मैदान में डरता है, न उसकी राजनैतिक बातों से प्रभावित होता है और उसके कल्चर को क़ुबूल करता है। वह यही जवान है जिसकी क़द्रदानी की जानी चाहिए और क़द्र को समझना चाहिए। वही वह है जो इस मनोवैज्ञानिक जंग में पूरे वजूद से डटा रहा। श्रद्धांजलि की इन कान्फ़्रेंसों में इस बात को जीवित कीजिए, इस हक़ीक़त को साक्षात रूप दीजिए और इसे लोगों को दिखाइए। मेरा कहने का मतलब यह है।
किताब, शहीदों के परिचय और लोगों की सोच और ज़िंदगी पर अमिट असर डालने वाला साधन
ये सारी बातें जो आपने कहीः लेख, किताबें, फ़िल्में, श्रद्धांजलि पेश करने के प्रोग्राम, गलियों, सड़कों और स्टेडियमों वग़ैरह के नाम रखना, अच्छी हैं, ये सब ज़रूरी हैं। इनमें से कुछ पुरानी हो जाती हैं। मिसाल के तौर पर आप सड़क का नाम शहीद के नाम पर रखते हैं, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन जब तीन चार साल गुज़र जाते हैं तो लोग कहते हैं, "शहीद बहिश्ती रोड" और इससे उन्हें शहीद की याद बिल्कुल नहीं आती। आप इस वक़्त मिसाल के तौर पर शहीद बहिश्ती रोड जाना चाहते हैं, आपसे पूछा जाता हैः जनाब कहाँ जाएंगे? आप कहते हैं: शहीद बहिश्ती रोड, इंसान के मन में अज़ीज़ शहीद बहिश्ती की तस्वीर नहीं आती। तो इनमें से कुछ चीज़ें ऐसी हैं, कोई बात नहीं, इन्हें रहना चाहिए। इनमें से कुछ चीज़ें बाक़ी रह जाने वाली हैं जैसे फ़िल्म और सबसे बढ़कर किताब, ये बाक़ी रहने वाली चीज़ें हैं, कुछ ऐसा कीजिए कि इनके नतीजे मिलें। यानी आप किताब छापते हैं, बहुत अच्छी बात है, कितने लोग उस किताब को पढ़ते हैं? कितने लोग उसे पढ़ने के बाद नोट्स बनाते हैं? कितने लोग हैं जो अपने दोस्ताना हल्क़ों में बैठते हैं तो इन नोट्स को इस्तेमाल करते हैं और एक दूसरे को देते हैं? इन सबको मद्देनज़र रखिए। देखिए कि इसका रास्ता क्या है, आप क्या करें कि वह किताब, कि सबसे ज़्यादा बाक़ी रहने वाली किताब है, किताब फ़िल्म वग़ैरह से ज़्यादा बाक़ी रहती है, पाठक में बदलाव ले आए।
हमारे मुल्क में कई करोड़ जवान हैं। उस किताब के नुस्ख़े, मिसाल के तौर पर फ़र्ज़ कीजिए कि वह किताब दस बार छप चुकी हो तो, हर बार ज़्यादा से ज़्यादा 2000 नुस्ख़े छपते हैं तो उस किताब के कुल नुस्ख़ें 20000 होंगे। 2 करोड़ लोगों की तुलना में 20 हज़ार नुस्ख़े बहुत कम हैं। ऐसा काम कीजिए कि पहले तो 20 हज़ार लोग उस किताब को पढ़ें और फिर वही 20 हज़ार लोग जो उस किताब को पढ़ चुके हैं उनकी जीवन शैली में, उनके वजूद में, उनकी सोच में, उनके कल्चर में इस शख़्सियत का, जिसका आपने उस किताब में परिचय कराया है, उसका चरित्र पेश किया है, असर हो जाए, आपकी पूरी कोशिश यह हो। मैं उन लोगों से जो शहीदों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए आपकी तरह हमसे आकर मुलाक़ात करते हैं, यह सिफ़ारिश करता हूँ: सिर्फ़ काम काफ़ी नहीं है, काम के नतीजे को मद्देनज़र रखिए, यह काम साधन है, और साधन किसी नतीजे के लिए होता है। वरना अगर आपके पास मिसाल के तौर पर एक स्क्रू ड्राइवर हो और आप उससे कोई काम न लें या वह कोई नट बोल्ट खोलने में आपके काम न आए तो उसका कोई फ़ायदा नहीं है। ऐसा काम होना चाहिए, ऐसी चीज़ होनी चाहिए, ऐसा साधन होना चाहिए जिसका असर हो सके।
इंशाअल्लाह अल्लाह आपको कामयाब करे, आपको तौफ़ीक़ दे, इस इलाक़े के, इस प्रांत के अज़ीज़ शहीदों पर अल्लाह रहमत नाज़िल करे, उनके दर्जे बुलंद करे, हमें उनकी शफ़ाअत नसीब हो, अल्लाह अपनी कृपा से हमें भी उनसे मिला दे।
आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो।