आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीचः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ें कायनात के परवरदिगार के लिए और दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार, हमारे पैग़म्बर अबुल क़ासिम हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा और उनकी पाक, पाकीज़ा और चुनिंदा औलाद पर, ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह के ज़रिए बाक़ी रखी गई हस्ती पर।

इमाम ख़ुमैनी के नाम से जुड़े हुए इस इमामबाड़े में आप सभी का स्वागत है और इस संसद में भी हम आपको ख़ुश आमदीद कहते हैं। इंशाअल्लाह मजलिसे शूराए इस्लाम में जो बड़ी अहम और संवेदनशील पोज़ीशन रखने वाला संस्थान है, आपका वजूद ख़ुद आपके लिए भी ख़ैर व बरकत और अल्लाह की रहमत का सबब बने और मुल्क व अवाम के लिए भी। संसद सभापति जनाब क़ालीबाफ़ का शुक्रिया अदा करता हूँ, बड़े अहम बिंदुओं का ज़िक्र किया। मैं भी जनाब के ज़रिए पेश किए गए इन्हीं बिंदुओं में से कुछ का ज़िक्र करूंगा।

संसद के बारे में बड़ी बातें हो चुकी हैं। तवज्जो दिलाना, अनुशंसाएं और कभी आलोचना। लेकिन अनकही बातें अब भी बहुत हैं। कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन्हें दोहराया जाना चाहिए। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें दोहराने में कोई हरज नहीं है। लेहाज़ा मैंने भी कुछ बिंदु नोट किए हैं जो आप प्यारे भाइयों और बहनों की सेवा में अर्ज़ करूंगा।

पहला बिंदुः संसद केवल सवाल पूछने वाला संस्थान नहीं है। बल्कि जवाब देने वाला संस्थान भी है। बहुत से लोगों की सोच के विपरीत जो यह समझते हैं कि संसद क़ानून बनाकर सरकार के लिए फ़रमान जारी करती है, उसके बाद जवाब तलब करती है, महाभियोग चलाती है और इसी तरह के दूसरे काम करती है और पूछगछ करने वाला एक संस्थान है। जी हां! बेशक यह दायित्व हैं लेकिन जवाबदेही का फ़र्ज़ अंजाम देने वाला संस्थान भी है। संसद देश के स्तंभों में से एक है। फ़ैसले करने वाला संस्थान है। जो संस्थान या व्यक्ति फ़ैसला करे और कार्यवाही करे उसकी जवाबदेही भी ज़रूर होती है। इसलिए संसद को अपनी जवाबदेही के दायित्व को हमेशा मद्देनज़र रखना चाहिए। कुछ दायित्व हैं जो उसे अंजाम देने होते हैं। अगर वह अंजाम नहीं देती तो उससे जवाब तलब किया जाता है। कुछ काम हैं जिनसे उसे बचना होता है, अगर उसने उनसे दूरी न की तो उस पर टिप्पणी की जाती है। संसद किस को जवाबदेह है? सबसे पहले तो अल्लाह को। हम ईमान और आस्था वाले लोग हैं। हम जानते हैं कि हम से हमारे कामों और अमल की एक एक चीज़ के बारे में सवाल किया जाएगा। आप एक क़ानून बनाते हैं, क़ानून साज़ी करते हैं, किसी आदेश पर हस्ताक्षर करते हैं तो आप उसके सिलसिले में जवाबदेह हैं। हम सब को इस बड़ी ज़िम्मेदारी के बारे में सोचना चाहिए। अल्लाह की बारगाह में हमें जवाबदेह होना है और यह जवाबदेही दूसरी किसी भी जवाबदेही और पूछगछ से ज़्यादा बड़ी, गंभीर और क़ाबिले तवज्जो है। इसके बाद अवाम के सामने जवाबदेही। अगर अवाम ने संसद से अपेक्षा के ख़िलाफ़ कोई हरकत देखी तो बेशक वो संसद का गिरेबान तो नहीं पकड़ेंगे, यानी इसके लिए कोई क़ानूनी फ़्रेमवर्क मौजूद नहीं है लेकिन उनके अमल में, उनकी शैली में और उनकी प्रतिक्रिया में इंसान साफ़ तौर पर उनकी रज़ामंदी होने या न होने की झलक देख सकता है।

इन कुछ दशकों के दौरान हमने ऐसी संसदें भी देखी हैं कि जिन्होंने कुछ ऐसे काम किए जो अवाम को पसंद नहीं आए। वो काम अवाम को अच्छे नहीं लगे। नतीजा यह हुआ कि उन कामों को अंजाम देने वाले लोग अवाम की नज़रों से गिर गए। हमने इन बरसों में इसका अनुभव किया है, इसे देखा है। हर सांसद जवाबदेही के बिंदु पर तवज्जो रखे। उसके व्यवहार, उसकी बातचीत, बयान, वोट और स्टैंड सब इसी बिंदु कि इर्द गिर्द निर्धारित होने चाहिएं। यह पहला बिंदु है।

दूसरा बिंदु पालिकाओं के आपसी सहयोग के बारे में है। संसद देश की राजनैतिक व्यवस्था का बहुत अहम अंश है। स्वाभाविक है कि सिस्टम के अलग अलग हिस्से एक दूसरे से मिलकर ही एक समग्र सिस्टम को अस्तित्व दें, एक व्यवस्था को तैयार करें। यानी विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और आर्म्ड फ़ोर्सेज़ जो एक तरह से कार्यपालिका का हिस्सा शुमार होती हैं, यह सब मिलकर पूरे एक सिस्टम को तैयार करें। जब इन सबसे मिलकर एक सिस्टम तैयार होता है तो लाज़मी है कि उनके बीच आपसी सहयोग हो, मिल कर काम करें, एक दूसरे की मदद करें, कुछ जगहों पर एक दूसरे के सिलसिले में सहनशीलता से काम लें, कुछ जगहों पर एक दूसरे को सचेत करें, एक दूसरे की मदद करें, ऐसे कुछ अवसरों का शायद में अपनी गुफ़्तगू में ज़िक्र करूं। इन बरसों में जो मैं बार बार संसदों को सिफ़ारिश करता था कि सरकारों के साथ सहयोग करें तो इसकी यही वजह थी। यह बहुत अहम है। यह सिस्टम जो पूरे देश के वोटों, इच्छाओं और दृष्टिकोण की बुनियाद पर अस्तित्व में आया है उसे एक दूसरे से समन्वित भागों वाले सिस्टम की शक्ल में अपना रोल अदा करना चाहिए जिसकी हमारे देश को, हमारे अवाम को और हमारी व्यवस्था को ज़रूरत है। अलबत्ता मैं सरकारों से भी उचित अवसर पर सही सिफ़ारिश करता हूँ। सौभाग्य से राष्ट्रपति भी अवामी नमुइंदे की हैसियत से, अब मुझे नहीं मालूम क़ानूनी एतेबार से यह टाइटल उन पर लागू होता है या नहीं (2) बहरहाल तशरीफ़ रखते हैं। मैं सरकारों को भी हमेशा संसद के सिलसिले में सिफ़ारिश करता हूँ। कुछ अवसरों पर संसद के सिलसिले में सरकारों का यह रवैया हो गया था कि वो कोई बिल ही संसद के पटल पर नहीं रखती थीं। संसद से मेरे पास शिकायत आती थी कि हम कई महीने से इंतेज़ार में बैठे हैं, यह सरकार बिल ही नहीं पेश कर रही है। या मंज़ूर शुदा बिल पर अमल नहीं कर रही है। इस तरह की सरकारें भी हमारे यहाँ गुज़री हैं। हम हमेशा इस बात की सिफ़ारिश करते थे। बहरहाल आप अज़ीज़ सांसद भाइयों और बहनों का एक अहम काम सहयोग करना है। मैंने यहाँ लाज़मी अनुशंसाओं के तौर पर जो नोट किया है उनमें एक, नई सरकार के साथ सार्थक सहयोग है। सब मदद करें कि निर्वाचित राष्ट्रपति के कंधे पर जो ज़िम्मेदारियाँ हैं उन्हें वो अंजाम दे सकें। अगर हमने इस अंदाज़ से काम किया कि राष्ट्रपति को सफलता मिल जाए, तो यह हम सब की कामयाबी होगी। उनकी सफलता हम सब की सफलता है। इस पर पूरे वजूद से हमें विश्वास करना चाहिए।

देश के अहम मसलों में देश के भीतर से एक ही आवाज़ सुनाई देनी चाहिए। बुनियादी मुद्दों में जिसे तय करना ख़ुद आपकी ज़िम्मेदारी है, कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ सरकार, संसद और अलग अलग अधिकारियों की तरफ़ से एक ही स्टैंड सामने आने की ज़रूरत होती है ताकि दुनिया में जो लोग कान लगाए बैठे रहते हैं कि कहीं से मतभेद की कोई भनक लग जाए, वो मायूस हो जाएं। एक आवाज़ सुनाई देनी चाहिए।

तीसरा बिंदु संसद के भीतर बहसों में शिष्टाचार के प्रभुत्व से मुताल्लिक़ है। मेरे अज़ीज़ो! संसद को देश के जनमत के स्तर पर सुकून और शांति की फ़िज़ा का स्रोत होना चाहिए। संसद के भीतर से आप जनता के लिए सकारात्मक लहरें पैदा करें। संसद को जनमत के स्तर पर तनाव फैलने का सबब नहीं बनना चाहिए। बुरी तस्वीर पेश करना, नकारात्मक बातें करना, जो कुछ संसदों में कुछ सांसदों की तरफ़ से देखने में आया, अलबत्ता सांसदों का बहुमत तो हमेशा इन बुनियादी व मोतबर उसूलों का पाबंद रहा है, मैं वाक़ई यह बात बग़ैर किसी तकल्लुफ़ के कह रहा हूँ, यह हक़ीक़त है, लेकिन कुछ अवसरों पर इसके विपरीत स्थिति भी देखने में आई। केवल संसद के भीतर नहीं बल्कि सार्वजनिक जगहों पर, आप में से बहुत से लोग सार्वजनिक जगहों पर, नमाज़े जुमा में, अलग अलग शहरों में नमाज़े जुमा के ख़ुतबों से पहले तक़रीरें करते हैं, या फिर सोशल मीडिया और साइबर स्पेस में जो आज सारे लोगों की गतिविधियों के एक भाग पर हावी है, आपकी उपस्थिति शांति और सुकून का सबब होना चाहिए, मतभेद की वजह नहीं बनना चाहिए। जहाँ भी आप कोई बात कहते हैं, कोई बयान देते हैं, कोई विचार व्यक्त करते हैं वहाँ सुनने वालों को इससे हौसला मिले कि आप अलग अलग फ़ोर्सेज़ के बीच एकता, समन्वय, सहयोग और समरसता के तरफ़दार हैं। इसके बरख़िलाफ़ पैग़ाम नहीं जाना चाहिए। यह अवाम की मनोवैज्ञानिक शांति व सुरक्षा का मामला है। यह बहुत अहम चीज़ है। अलबत्ता इससे भी ग़ाफ़िल नहीं रहना चाहिए कि, मुझे पूरा यक़ीन है और मेरे पास इसकी सूचनाएं भी हैं कि दुश्मन की साइबर सेना दुरुपयोग की ताक में बैठी है, कभी वो आपके राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों की तरफ़ से आपको गालियां देते हैं कि आपको ग़ुस्सा आ जाए। या आप की नज़र में किसी प्रतिष्ठित व्यक्तित्व, किसी मोतबर दीनी व सियासी हस्ती की तौहीन करते हैं कि आप आग बबूला हो जाएं, ऐसा भी है। इस पर तवज्जो देना चाहिए। यानी अगर साइबर स्पेस और सोशल मीडिया में आपको कुछ आपकी राय के ख़िलाफ़ नज़र आता है तो आप फ़ौरन यक़ीन न कर लीजिए कि यह चीज़ ज़रूर आपके सियासी प्रतिद्वंद्वियों ने या उसने जो आपका सियासी विरोधी है  डाली है। नहीं! मुमकिन है कि आप दोनों के संयुक्त दुशमन ने वह चीज़ डाली हो।

चौथा बिंदु क़ानून साज़ी से मुताल्लिक़ है। ज़ाहिर है कि विधायी कार्य मजलिसे शूराए इस्लामी का पहले दर्जे का सबसे अहम फ़रीज़ा है। क़ानून दरअस्ल पटरी बिछाने की प्रक्रिया है, रोडमैप तैयार करने के समान है जिसके मुताबिक़ देश की कार्यपालिका आगे बढ़ सके। क़ानून यही तो होता है। क़ानून का मक़सद देश की प्रगति और अवाम की सेवा करना होना चाहिए।

अच्छे क़ानून की कुछ विशेषताएं हैं। अच्छे क़ानून की एक ख़ासियत यह है कि विशेषज्ञों की रिसर्च पर आधारित हो। बेशक मुझे जानकारी है कि संसद का अध्ययन केन्द्र बहुत अच्छे काम करता है। आयोगों में अनेक विशेषज्ञों को दावत दी जाती है। हमें इन चीज़ों की ख़बर है। क़ानून जितना ज़्यादा अध्ययन पर आधारित होगा उतना अच्छा होगा। ख़ूबियों में से एक यही है। दूसरे उसकी मनमानी इंटरप्रीटेशन न की जा सकती हो। जो क़ानून बिल्कुल स्पष्ट नहीं है और अलग अलग इंटरप्रीटेशन की जिसमें गुंजाइश है उसका ग़लत फ़ायदा वो लोग उठाते हैं जिन्हें मैं क़ानून तोड़ने वाले क़ानूनदान कहता हूँ (3)। आप यह न होने दीजिए। क़ानून बिल्कुल स्पष्ट है जिसमें मनमानी इंटरप्रीटेशन की गुंजाइश न हो। इसके अलावा ज़रूरी है कि क़ानून देश के संसाधनों और क्षमताओं के मद्देनज़र अमली जामा पहनाने के क़ाबिल हो। कभी संसद में ऐसा क़ानून पास हो जाता है जिसे अमली जामा पहनाना संभव नहीं होता। यानी देश के संसाधन और क्षमताएं बजट की वजह से या दूसरी वजहों से इस बोझ को उठाने के क़ाबिल नहीं हैं। तो इसका भी ख़याल रखा जाना चाहिए। बुनियादी दस्तावेज़ों से भी समन्वित हो। अच्छे क़ानून की ज़रूरी विशेषताओं में से एक यही है कि बुनियादी दस्तावेज़ों से समन्वित हो, उससे विरोधाभास न रखता हो।

क़ानून के सिलसिले में एक और मसला यह है कि अंबार न लग जाए। इस मसले के बारे में बाद में मैं अर्ज़ करूंगा, इसे दोहराउंगा। क़ानूनों का अंबार लग जाना हमारी एक समस्या है। कभी किसी मसले के बारे में कई क़ानून पास हो गए हैं। इनके बीच कुछ समानताएं हैं और कुछ अंतर हैं। जो अंतर है उससे वो लोग ग़लत फ़ायदा उठा सकते हैं जो ग़लत फ़ायदा उठाने वाले हैं। क़ानूनों का ढेर लग जाना देश के लिए वाक़ई एक बड़ी समस्या है। कभी कभी यह प्रस्ताव आता है कि हम संसद से यह कहें कि बैठ कर इस तरह के समानांतर क़ानूनों को ख़त्म किया जाए। मगर मुझे डर है कि संसद की आधी उम्र इसी काम में न गुज़र जाए कि बैठ कर समानांतर क़ानूनों को ख़त्म करे। लेकिन बहरहाल क़ानून साज़ी के समय इसका ध्यान रखिए।

वो बिंदु जो मैंने कहा कि अर्ज़ करूंगा यह है कि संविधान ने कोई बिल लाने के सिलसिले में संसद के हाथ खुले रखे हैं। यानी अगर सरकार की तरफ़ से कोई बिल नहीं आता है और कोई अहम मसला पेश आ जाए तो आप ख़ुद बिल ला सकते हैं। लेकिन अगर बिल लाने का यह सिलसिला बहुत ज़्यादा हो गया –मुझे इस तरह की कुछ रिपोर्टें मिली हैं, अब यहाँ तदाद बयान करना ज़रूरी नहीं समझता- तो इससे मुश्किल पैदा होगी। जैसे ही देश में कहीं कोई मसला पेश आया, हम सरकार का बिल आने और उसकी कार्यवाही का इंतेज़ार करने के बजाए यहाँ ख़ुद ही एक बिल तैयार कर लें! इससे क़ानूनों का अंबार लग जाएगा। यानी बिल लाने के सिलसिले में उस न्यूनतम स्तर तक सीमित रहना चाहिए ज़ो लाज़मी है, उससे ज़्यादा नहीं होना चाहिए। अगर उससे ज़्यादा हुआ तो क़ानून की बहुतायत की एक वजह यही बार बार बिल आना है। आप इस वक़्त पार्लियामेंट में पहुंचे हैं तो बहुत सारे बिल मौजूद हैं जिनका जायज़ा लिया जाना बाक़ी है। उसके बाद नोटीफ़िकेशन वग़ैरा के चरण हैं। इसमें बरसों लग जाएंगे। तो यह रहा एक और बिंदु।

क़ानून के बारे में एक बात यह भी कहना है कि कभी सरकारों को किसी फ़ौरी काम के लिए क़ानून की ज़रूरत पड़ जाती है। यह चीज़ हमारे यहाँ बार बार हुई है कि तत्काल ज़रूरत पड़ गई किसी अंतर्राष्ट्रीय मसले में, किसी अहम आर्थिक मुद्दे के बारे में, किसी विकास परियोजना में फ़ौरन क़ानून की ज़रूरत पेश आ गई। क़ानून मौजूद नहीं हैं। हुकूमतें इस तरह के मौक़ों पर आसान रास्ता यह चुनती हैं कि हमारे पास आती हैं कि रहबरे इंक़ेलाब से अनुमति मिल जाए और क़ानून साज़ी कि बग़ैर वह काम अंजाम पा जाए। मैं आम तौर पर यह काम नहीं करता। सिवाए उन अवसरों के जब अपात स्थिति की वजह से मजबूर हो जाऊँ। ऐसे मौक़ों पर जब संसद के सामने सरकार की तरफ़ से एक मांग आई है और आपात स्थिति है तो क़ानून साज़ी में तेज़ी होनी चाहिए। क़ानून साज़ी के बारे में यह एक और अनुशंसा थी। अलबत्ता आप जानते हैं कि क़ानून साज़ी के बारे में मूल नीतियों का नोटीफ़िकेशन एक मुद्दत हुई कि जारी हो चुका है (4)। इन नीतियों को लागू करने के लिए क़ानून की ज़रूरत है। संसद को चाहिए कि ख़ुद इन नीतियों के लिए क़ानून बनाए। यह क़ानून साज़ी अब तक नहीं हो सकी है। यह काम जल्दी हो जाना चाहिए। यह चौथा बिंदु है।

पांचवाँ बिंदु निगरानी के बारे में है। अलबत्ता संविधान में निगरानी का शब्द नहीं है। संसद की निगरानी की बात नहीं है लेकिन दूसरे बहुत से बिंदु हैं जो सवाल करने, चेतावनी देने, जांच करने वग़ैरा जैसी चीज़ों को लेकर संसद के बारे में दर्ज हैं। उनसे समझ में आता है कि निगरानी ज़रूरी है। यानी आप जांच करते हैं, सवाल करते हैं या चेतावनी देते हैं तो कैसे? इस तरह कि आपको जानकारी और मालूमात होनी चाहिए। इसलिए कार्यपालिका के कामों पर नज़र रखना संसद के दायित्वों में शामिल है। इस सिलसिले में दो अनुशंसाएं करनी हैं।

पहली अनुशंसा यह है कि निगरानी का लक्ष्य सरकार के कामकाज को अधिक प्रभावी और नतीजा देने वाला बनाना है। इसलिए कि अगर सरकार के कामकाज में कहीं कोई कमी है तो उसे आप संसद की हैसियत से समझ लें, पता लगा लें और सचेत करें और सरकार के कामकाज में बेहतरी आए, काम आगे बढ़े। निगरानी का मक़सद यह है। ख़ुदा न ख़्वास्ता इससे हटकर किसी और लक्ष्य के लिए नहीं होनी चाहिए। यानी मिसाल के तौर पर अगर किसी को किसी मंत्री से शिकायत हो जाए तो चेतावनी देना शुरू कर दे, सवाल पर सवाल करने लगे या महाभियोग वग़ैरा की बात हो। दलीय मुद्दे, निजी मुद्दे, राजनैतिक झुकाव के मसले हरगिज़ इसमें शामिल न होने पाएं। निगरानी केवल इस भावना के तहत होनी चाहिए। कार्यपालिका में कहीं कोई कमी नज़र आई तो इस सिलसिले में सचेत कर दिया जाए, मुतवज्जेह कराया जाए और उसे दूर करने की कोशिश की जाए। यह पहली चीज़ है निगरानी के बारे में।

दूसरी चीज़ यह है कि निगरानी के मामले में न हद से ज़्यादा कड़ाई और न ढिलाई, दोनों ही नहीं होना चाहिए। कभी लेहाज़ और तकल्लुफ़ में वहाँ भी निगरानी नहीं की जाती जहाँ होनी चाहिए, यह ग़लत है। और कभी ज़रूरत से ज़्यादा निगरानी होने लगती है। बहुत सारे सवाल पूछे जाते हैं। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि इन बरसों में यानी इन चंद बरसों में जिन के दौरान हम ओहदे पर हैं, अब जब मैं सोचता हूँ तो महसूस होता है कि सारी ही सरकारों में मंत्री मेरे पास आते थे और शिकायत करते थे संसद में बहुत ज़्यादा सवाल पूछे जाने की। वो कहते थे कि संसद हाल में भी और कमीशनों में भी हमें ले जाते हैं, हमारे कई घंटे वहाँ लग जाते हैं। सवाल करते हैं, सवालों में उलझाते हैं, इस तरह के काम करते हैं। यह हद से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। अलबत्ता इसमें कोताही भी नहीं होनी चाहिए। यानी जहाँ सवाल पूछा जाना है, जहाँ निगरानी होनी है वहाँ होनी चाहिए। मगर इंसाफ़ के साथ। निगरानी न्यायपूर्ण होनी चाहिए। व्यक्तिगत और राजनैतिक मसले बीच में नहीं आने चाहिए।

छठां बिंदु, संसद में एक कमेटी बनाई गई सांसदों के कामकाज की निगरानी करने के लिए। जो लोग पुराने हैं उन्हें याद होगा। एक दौर में ध्यान दिलाया गया (5) और सांसदों ने जाकर फ़ौरन एक कमेटी बना दी सांसदों के कामकाज पर नज़र रखने के लिए (6)। इस कमेटी को क्यों बनाया गया? इस का फ़लसफ़ा यह है कि कभी कोई सांसद ग़फ़लत में किसी ख़ास भावना से कोई ऐसा काम कर देता है जिससे 290 सांसदों पर सवालिया निशान लग जाता है। यानी एक व्यक्ति के एक अमल से पूरी संसद अवाम की नज़रों में गिर जाती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसकी रोकथाम होनी चाहिए। अगर पूर्व रोकथाम नहीं हो पायी तो फिर ग़लती का इलाज होना चाहिए। यह अहम है। हमें नज़र नहीं आया और हमें पता नहीं चला कि यह कमेटी इस अंदाज़ से कोई काम करती है जिसकी उससे अपेक्षा थी। यह हमारी अगली अनुशंसा है।

सातवां बंदु, अंतर्राष्ट्रीय विषयों और विदेश नीति के मामलों में संसद की भूमिका के बारे में है। संसद एक बड़ी ताक़त है। दुनिया में सरकारें संसद की इस ताक़त को इस्तेमाल करती हैं। वार्ता में भी, संबंधों में भी और व्यवहारिक सहयोग में भी। वार्ता की मेज़ पर आप सामने वाले पक्ष से कोई बात कहते हैं तो वह जवाब देता हैः “जनाब! हमारी संसद यह नहीं करने देगी, हमारे यहाँ क़ानून है, हम नहीं कर सकते।” संसद को वार्ता में एक सहारे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। सरकारों को जो अलग अलग चुनौतियां पेश आती हैं। किसी भी सरकार के सामने अलग अलग मामलों में कुछ चुनौतियां होती हैं। संसद सरकार को बहुत बड़ा सहारा दे सकती है। सरकार की पोज़ीशन मज़बूत कर सकती है। लेहाज़ा सियासी, अंतर्राष्ट्रीय और डिप्लोमैटिक मामलों में आपकी भूमिका बहुत अहम है।

अच्छे कामों का एक नमूना यही स्ट्रैटेजिक एक्शन का क़ानून है (7) जो पिछली संसद में बना। यह बड़े अच्छे कामों में से एक था। अलबत्ता कुछ लोगों ने एतेराज़ किया, इसकी ख़ामियां गिनवाईं लेकिन यह आलोचनाएं दुरुस्त नहीं थीं। यह बहुत अच्छा काम हुआ था। यह भूमिका बहुत प्रभावी हो सकती है। कई प्रकार की भूमिकाएं हैं। कभी संसद सभापति की यात्रा और मुलाक़ातों की शक्ल में। जैसे यही हालिया सफ़र जो जनाब क़ालीबाफ़ ने किया उस बैठक में हिस्सा लेने के लिए जो आयोजित हुई (8)। यह फ़ायदेमंद सफ़र था। सरकार इससे काफ़ी फ़ायदा उठा सकती है। या जो यात्राएं अंतरसंसदीय डेलीगेशन करते हैं। या इन सबसे हटकर मिसाल के तौर पर कोई बयान फ़िलिस्तीन मुद्दे जैसे मामले में, ग़ज़ा जैसे मसले में आप कोई घोषणापत्र जारी करते हैं उसका दुनिया की सतह पर इस मसले पर काफ़ी असर पड़ता है। घोषणापत्र भी जारी नहीं किया बल्कि सांसदों ने कोई बयान दे दिया, कुछ बोल दिया। मैंने कभी इस तरह की अपेक्षा ज़ाहिर की कि कुछ चीज़ों के बारे में यह अपेक्षा होती है कि सांसद विदेश नीति के किसी मसले में कुछ बोलें, कोई बयान दें। दुनिया में यह चीज़ सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। मिसाल के तौर पर विदेश नीति आयोग के अध्यक्ष ने कोई बात कही तो यह चीज़ दुनिया में मशहूर होती है। बहुत से काम संसदें करती हैं और सरकारें संसदों के उन कामों से फ़ायदा उठाती हैं। यही इस्लामिक रिपब्लिक के ख़िलाफ़, ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी पाबंदियों का समग्र क़ानून, यही क़ानून जो (CISADA) (9) के नाम से मशहूर है, इसे उनकी संसद ने पास किया। अलबत्ता उस साल का डेमोक्रेट राष्ट्रपति (10) दोहरे चेहरे वाला बुरी प्रवृत्ति का इंसान था, उसके दो चेहरे थे और उसकी प्रवृत्ति भी बुरी थी, चालाक भी था। हमारे ओहदेदारों से ज़्यादा चालाक था। कुछ चीज़ों में इंसान इन बातों को स्पष्ट रूप से देखता है। उसने इस क़ानून पर हस्ताक्षर किए। चाहता तो हस्ताक्षर न करता। दावा करता था कि परमाणु मसले में और दूसरे मसलों में ईरान से सहयोग करना चाहता है, मिलकर काम करना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ़ उसने इस पर हस्ताक्षर किए। समग्र क़ानून उनकी संसद ने पास किया। संसदें यह सारे काम करती हैं। लेहाज़ संसद इन मैदानों में सक्रिय रोल अदा कर सकती है।

पाबंदियों के इसी मसले में जिसका ज़िक्र ज़बानों पर बहुत रहता है, ख़ास तौर पर चुनावों के दिनों में इसे बार बार दोहराया जाता था, चुनावी उम्मीदवारों, उनके समर्थकों और अवाम वग़ैरा की तरफ़ से, संसद सक्रिय रोल अदा कर सकती है, वाक़ई प्रभावी भूमिका अदा कर सकती है। हम यह कर सकते हैं। हम इज़्ज़तदार उपायों की मदद से पाबंदियों को हटवा भी सकते हैं और उससे आगे हम पाबंदियों को निरर्थक भी बना सकते हैं। मैंने बार बार यह बात कही है। (11) पाबंदियां हटाना तो आपके हाथ में नहीं है, आपको कोई उपाय सोचना है। पाबंदियां हटाने का काम दूसरे पक्ष को करना है। लेकिन पाबंदियों को बेअसर बना देना तो आपके हाथ में है। पाबंदियों को बेअसर बनाने के बहुत अच्छे तरीक़े मौजूद हैं। इनमें कुछ तरीक़े हम आज़मा चुके हैं और उसका असर भी देख चुके हैं। यानी सरकारी ओहदेदारों ने उन्हें इस्तेमाल किया और उसका असर हमने देखा है। बहुत अच्छा था। यह काम किया जा सकता है। इस मैदान में संसदें, हमारी प्यारी संसद अपना रोल अदा कर सकती है।

आठवां बिंदु जो आख़िरी बिंदु है संसद के फ़ौरी काम यानी कैबिनेट को जिसे जनाब पिज़िशकियान (अल्लाह उनकी हिफ़ाज़त करे) इंशाअल्लाह संसद के पटल पर रखेंगे, विश्वास मत देना है। यह आप का तत्काल काम है। बेशक जितनी जल्दी मुमकिन हो प्रस्तावित मंत्रिमंडल को, उन औपचारिकताओं के बाद जो अंजाम दी जानी हैं, मंज़ूरी दे और सरकार अपना काम शुरू करे, देश के लिए बेहतर है। लेकिन इस सिलसिले में आपकी भी और निर्वाचित राष्ट्रपति की भी ज़िम्मेदारी बहुत अहम है। किस शख़्स को इस मैदान में आप ओहदा देना चाहते हैं? इकानामी के मैदान में, कल्चर के मैदान में, निर्माण कार्यों के मैदान में, प्रोडक्शन के मैदान में किसे ज़िम्मेदारी सौंपना है? उसे ज़िम्मेदारी सौंपना चाहिए जो अमानतदार हो, सच्चा हो, दीनदार हो। पूरे वजूद से इस्लामिक रिपब्लिक और इस्लामिक सिस्टम पर विश्वास रखता हो। ईमान एक अहम पैमाना है। भविष्य के सिलसिले में आशावान होना, क्षितिज को सार्थक नज़र से देखना अहम पैमानों में से एक है। जिन लोगों को क्षितिज अंधकारमय दिखाई देता है और वो समझते हैं कि कुछ किया ही नहीं जा सकता, उन्हें कोई बड़ा और महत्वपूर्ण ओहदा नहीं दिया जा सकता। शरीयत का पाबंद होना और शरीयत पर अमल करने वाला होना भी अहम पैमाना है। चरित्रवान होना और सच्चाई में मशहूर होना भी एक पैमाना है। इन पैमानों को मद्देनज़र रखा जाना चाहिए। माननीय राष्ट्रपति भी इसे मद्देनज़र रखें, संसद भी इसे मद्देनज़र रखे। यानी अधिकारियों के चयन में आपकी यह संयुक्त ज़िम्मेदारी है। बुरा रिकार्ड न हो। यह भी एक पैमाना है। राष्ट्रीय सोच रखता हो यानी दलीय और राजनैतिक मसलों आदि में उलझा रहने वाला न हो, देश के बारे में राष्ट्रीय सोच रखता हो। कारगर इंसान हो। इन चीज़ों को जांच पड़ताल करके समझा जा सकता है। अलबत्ता उपयोगी होना तो काम सौंपने के बाद पता चलता है लेकिन जांच पड़ताल से, पिछले रिकार्ड को देखकर और बातों को सुनकर भी उपयोगी होने या न होने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यह चीज़ें ज़रूरी हैं।

मेरी नज़र में यह ज़िम्मेदारी बहुत अहम है जो आप के कांधों पर भी है और निर्वाचित राष्ट्रपति के कांधों पर भी है कि यह काम अंजाम पाए। इंशाअल्लाह मंत्रियों की एक अच्छी, उपयोगी, कारसाज़, दीनदार और इंक़ेलाबी टीम ओहदा संभाले और देश के कामों को आगे ले जा सके। यह हमारी दुआ भी है और उम्मीद भी है। हम आप सब के लिए दुआ करते हैं। मैं निर्वाचित राष्ट्रपति के लिए भी दुआ करता हूँ और आपके लिए भी दुआ करता हूँ और संसद सभापति के लिए भी दुआ करता हूँ। यह हमारी हमेशा की दुआ है। यह देखे बग़ैर कि राष्ट्रपति कौन है या संसद सभापति कौन है या न्यायपालिक प्रमुख कौन है, हमारी दुआ हमेशा उनके साथ रहती है। दुआ करता हूँ कि इंशाअल्लाह आप कामयाब रहें।

ग़ज़ा का मसला बदस्तूर इस्लामी दुनिया का सबसे अहम मसला बना हुआ है। मैंने देश के मसलों और कूटनीति वग़ैरह के मैदान में संसद के काम के सिलसिले में जो कुछ अर्ज़ किया उसकी एक मिसाल यही ग़ज़ा का मसला है। चैन से न बैठिए, ख़ामोश न रहिए, काम अहम है। यह बात सही है कि इस वक़्त महीनों गुज़र जाने के बाद बहुत से लोगों में वह पहले जैसा जोश नहीं है लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस मसले की वही पहले दिन जैसी अहमियत अब भी है बल्कि उससे ज़्यादा। प्रतिरोध की ताक़त दिन ब दिन पहले से ज़्यादा नुमायां हो रही है। क़ाबिज़ ज़ायोनी सरकार की पीठ पर अमरीका जैसी एक बड़ी फ़ौजी, राजनैतिक और आर्थिक ताक़त, प्रतिरोध करने वाले एक गिरोह से लड़ रही है लेकिन वह उसे घुटने टेकने पर मजबूर न कर सकी। चूंकि हमास को हरा नहीं सकते, चूंकि प्रतिरोध को घुटने टेकने पर मजबूर नहीं कर सकते इसलिए वो अपनी भड़ास आम लोगों पर निकाल रहे हैं। आम लोगों पर बम गिरा रहे हैं। दुनिया की नज़रों के सामने स्कूल, अस्पताल, बच्चों, औरतों को बेहद ज़ुल्म, अपराध और बहुत ज़्यादा बर्बरता का निशाना बनाया जा रहा है। दुनिया के लोग अब हक़ीक़त में दुष्ट क़ाबिज़ सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसला कर रहे हैं। मसला ख़त्म नहीं हुआ है, मसला बदस्तूर जारी है। आप इंशाअल्लाह सक्रिय रहिए।

हम उम्मीद करते हैं कि अल्लाह वही सामने लाए जिसमें इस्लाम और मुसलमानों की भलाई हो, आपकी और क़ौम की भलाई हो और हम सब कम से कम अल्लाह की बारगाह में अपने इन कामों के लिए जो अंजाम दे रहे हैं, मुनासिब वजह बयान कर सकें, कुछ बोल सकें और हमारे काम अल्लाह की बारगाह में बचाव किए जाने के क़ाबिल हों।

अल्लाह इंशाअल्लाह आप सबकी हिफ़ाज़त करे, इमाम ख़ुमैनी की पाकीज़ा रूह को, शहीदों की पाकीज़ा रूहों को हमसे राज़ी व ख़ुश रख़े, इमामे ज़माना के पाकीज़ा दिल को (हमारी जानें उन पर क़ुरबान) इंशाअल्लाह हम से राज़ी रखे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातोहू

1 इस मुलाक़ात के आग़ाज में जो बारहवीं संसद का कार्यकाल शुरू होने के मौक़े पर हुई संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के स्पीकर मुहम्मद बाक़िर क़ालीबाफ़ ने एक रिपोर्ट पेश की।

2 उपस्थित लोगों की हंसी

3 जैसे 24 मई 2023 को मजलिसे शूराए इस्लामी के सांसदों के बीच तक़रीर में

4 इस्लामी व्यवस्था की मूल नीतियों का नोटीफ़िकेशन 28 सितम्बर 2019 को जारी किया गया।

5 आठवीं संसद के स्पीकर और सांसदों के बीच 8 जून 2010 की तक़रीर

6 तारीख़ 4 अप्रैल 2011

7 पाबंदियां ख़त्म कराने और ईरानी राष्ट्र के अधिकारों की रक्षा के लिए स्ट्रैटेजिक एक्शन का क़ानून जो ग्यारहवीं संसद के ज़रिए 2 दिसम्बर 2020 को पास हुआ।

8 ब्रिक्स की अंतरसंसदीय युनियन की बैठक जारी वर्ष 2024 में 11 जुलाई को रूस के सेन पीटर्ज़बर्ग शहर में हुई।

9 (CISADA) क़ानून या पाबंदियों का समग्र क़ानून जो इस्लामी गणराज्य ईरान के ख़िलाफ़ अमरीकी पाबंदियों की बुनियाद है।

10 बाराक ओबामा

11 जैसे शहीद क़ासिम सुलैमानी की बरसी के प्रोग्रामों की आयोजक कमेटी से 16 दिसम्बर 2020 की मुलाक़ात।