सैयद अली हुसैनी ख़ामेनेई पुत्र स्वर्गीय हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अलहाज सैयद जवाद हुसैनी ख़ामेनेई, 29 फ़रवरदीन सन 1318 हिजरी शमसी बराबर 1358 हिजरी क़मरी (1939 ईसवी) को पवित्र नगर मशहद में पैदा हुए। वह अपने माँ-बाप की दूसरी औलाद हैं। स्वर्गीय सैयद जवाद ख़ामेनेई की ज़िन्दगी भी दूसरे धर्मगुरुओं और धार्मिक शिक्षा केन्द्रों के उस्तादों की तरह बहुत सादा थी। “हमारे पिता मशहूर धर्मगुरू थे, मगर बहुत ही नेक और सरल स्वभाव के थे। हमारी ज़िन्दगी बहुत कठिनाई में गुज़रती थी। मुझे याद है, ऐसी रातें भी आती थीं जब हमारे घर में रात का खाना नहीं होता था। हमारी माँ बहुत मुश्किल से हमारे लिए रात के खाने का इंतेज़ाम करती थीं। रात के खाने में बस रोटी और किशमिश होती थी।”

जिस घर में सैयद जवाद का परिवार रहता था, वह मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। “मेरे वालिद का घर, जहाँ मैं पैदा हुआ और 4-5 साल तक जहाँ रहा, 60-70 वर्गमीटर का घर था जो मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। उसमें एक कमरा था और घुप अंधेरे वाला तहख़ाना था जहाँ घुटन महसूस होती थी।”

चूंकि पिता धर्मगुरू थे और लोग उनसे मिलने और धार्मिक मामले पूछने आते थे, इसलिए आम तौर पर मेहमान आते थे। जब हमारे पिता का कोई मेहमान आ जाता था तो हम सबको मेहमान के जाने तक तहख़ाने में रहना होता था। बाद में कुछ लोगों ने, जो पिता को मानते थे, उसी घर से मिली ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीद कर उसी घर में शामिल कर दिया। इस तरह हमारे पास तीन कमरे हो गए।”

1 परिवार

पिता:

उनके पिता सैयद जवाद ख़ामेनेई 20 जमादिस्सानी सन 1313 हिजरी क़मरी, 16 आज़र सन 1274 हिजरी शमसी, बराबर 7 दिसम्बर 1895 ईसवी को पैदा हुए। उनका निधन 14 तीर सन 1365 हिजरी शमसी बराबर 5 जुलाई 1986 ईसवी को हुआ। वह अपने दौर में बड़े धर्मगुरुओं में गिने जाते थे। वह इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में पैदा हुए और बचपन में अपने परिवार के साथ ईरान के तबरेज़ शहर आ गए। इस्लामी धर्मशास्त्र में इज्तेहाद नामी दर्जे से पहले की शिक्षा पूरी करके क़रीब 1336 हिजरी क़मरी में पवित्र नगर मशहद चले गए। (8) वहाँ धर्मगुरू हाजी आक़ा हुसैन क़ुम्मी, मीर्ज़ा मोहम्मद आक़ाज़ादे ख़ुरासानी (कफ़ाई) मीर्ज़ा महदी इस्फ़हानी और हाजी फ़ाज़िल ख़ुरासानी से धर्मशास्त्र और उसके नियमों की शिक्षा तथा आक़ा बुज़ुर्ग हकीम शहीदी और शैख़ असदुल्लाह यज़्दी से दर्शनशास्त्र की शिक्षा हासिल की। (9) उसके बाद सन 1345 हिजरी क़मरी में इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ चले गए और वहाँ मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी, सैयद अबुल हसन इस्फ़हानी और आक़ा ज़ियाउद्दीन इराक़ी से ज्ञान हासिल किया और इन तीनों बड़े धर्मगुरुओं से इज्तेहाद की इजाज़त भी ली। (10) उन्होंने ईरान वापस आने का इरादा किया और मशहद गए और फिर वहीं बस गए। वहाँ पढ़ाने के साथ ही मशहद के बाज़ार की मस्जिदे सिद्दीक़ीहा या मस्जिदे आज़राबाइजानीहा में इमाम हो गए। (11) वह इसी तरह जामा मस्जिद गौहर शाद के इमामों में भी गिने जाते थे। उन्हें किताबें पढ़ने का बहुत शौक़ था। अपने बराबर के धर्मगुरुओं जैसे हाजी मीर्ज़ा हुसैन अबाई, हाजी सैयद अली अकबर ख़ूई, हाजी मीर्ज़ा हबीब मलेकी वग़ैरह के साथ उनकी ग्रुप स्टडी दसियों साल जारी रही। (12) वह बहुत ही परहेज़गार और दुनिया की मोह माया से दूर रहने वाले इंसान थे। उन्होंने बहुत सादा ज़िन्दगी गुज़ारी। (13)

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इस्लामी क्रांति की कामयाबी के बाद उनके बेटे उच्च राजनैतिक व प्रशासनिक पदों पर थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी सादी ज़िन्दगी की शैली बाक़ी रखी। उनकी शख़्सियत उच्च मानवीय गुणों से सुसज्जित थी जिसकी वजह से लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की मुबारक ज़रीह के पीछे बरामदे में दफ़्न किया गया। (14)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के पिता के निधन पर आपके नाम इमाम ख़ुमैनी ने शोक संदेश में आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई को परहेज़गार धर्मगुरू के नाम से याद किया। (15)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के परदादा सैयद मोहम्मद हुसैनी तफ़रेशी थे जिनका शजरा या फ़ैमिली ट्री अफ़तसी सादात से मिलता है और अफ़तसी सादात का फ़ैमिली ट्री सुल्तानुल उलमा अहमद तक जाता है जो सुल्तान सैयद अमहद के नाम से मशहूर थे और फिर पांच नसलों के बाद पैग़म्बरे इस्लाम के चौथे उत्तराधिकारी इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से मिलता है।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के दादा सैयद हुसैन ख़ामेनेई (पैदाइश क़रीब 1259 हिजरी क़मरी, निधन 20 रबीउस्सानी 1325 हिजरी क़मरी) ख़ामेने में पैदा हुए और उन्होंने नजफ़े अशरफ़ में बड़े धर्मगुरुओं जैसे सैयद हुसैन कूह कमरई, फ़ाज़िल ईरवानी, फ़ाज़िल शर्बियानी, मीर्ज़ा बाक़िर शकी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन शीराज़ी से ज्ञान हासिल किया। नजफ़े अशरफ़ के धार्मिक केन्द्र में शिक्षा व तत्वदर्शिता के दर्जे तय करने के बाद, शिक्षकों व वरिष्ठ धर्मगुरुओं के हल्क़े में शामिल हो गए। सन 1316 हिजरी क़मरी में वह तबरेज़ आए (16) और तालेबिया मदरसे में उस्ताद और शहर में जुमे की नमाज़ के इमाम नियुक्त हुए। (17) वह उच्च राजनैतिक व सामाजिक विचार रखने वाले धर्मगुरू थे। वे संवैधानिक क्रांति के समर्थक धर्मगुरुओं में थे। वह लोगों को हमेशा संवैधानिक क्रांति के आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रेरित करते रहते थे। (18) ज्ञान के क्षेत्र में उनकी रचनाओं को, जिनमें रियाज़ुल मसाएल, क़वानीनुल उसूल, शैख़ अंसारी की मकासिब, फ़राएदुल उसूल और शरहे लुमा किताबों पर लिखे गए हाशियों को नजफ़ में शूश्तरी इमामबाड़े की लाइब्रेरी में वक़्फ़ कर दिया गया। (19) संवैधानिक क्रांति के क्रांतिकारी धर्मगुरू व संग्रामी शैख़ मोहम्मद ख़याबानी उनके शिष्य और दामाद थे। (20) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के चाचा सैयद मोहम्मद ख़ामेनेई उर्फ़ पैग़म्बर (पैदाइश 1293 हिजरी क़मरी नजफ़े अशरफ़, निधन शाबानुल मोअज़्ज़म 1353 नजफ़े अशरफ़, आख़ुन्द ख़ुरासानी, शरीअत इस्फ़हानी और नजफ़ के दूसरे बड़े धर्मगुरुओं के शिष्य थे। वह अपने दौर के मामलों के बारे में पूरी तरह जागरूक थे और संवैधानिक क्रांति के समर्थकों में गिने जाते थे। (21)

 

माँ

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की माँ बानो मीर दामादी (पैदाइश 1239 हिजरी शमसी बराबर 1914 ईसवी, निधन 1368 हिजरी शमसी बराबर 1989 ईसवी) सादा व पाक जीवन बिताने वाली, इस्लामी शरीआ, क़ुरआन और हदीस की पाबंद, इतिहास और साहित्य से लगाव रखने वाली महिला थीं। वह पहलवी शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान, अपने संग्रामी व क्रांतिकारी बेटों ख़ास तौर पर सैयद अली ख़ामेनेई के साथ रहीं। (22)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई अपनी माँ के बारे में बताते हैः मेरी माँ बहुत ही समझदार व शिक्षित थी, सेल्फ़ स्टडी और शायरी में लगाव था, हाफ़िज़ शीराज़ी के शेरों की अच्छी समझ थी, कुरआन अच्छी तरह समझती थीं, उनकी आवाज़ बहुत मीठी थी।

जब हम छोटे थे तो सब उनके पास बैठ जाते थे और माँ बहुत ही मधुर व मीठे अंदाज़ में पवित्र क़ुरआन की तिलावत करती थीं। हम सारे बच्चे उनके पास इकट्ठा हो जाते थे और वह ख़ास मौक़ों पर पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में हमें आयतें सुनाती थीं। हमने ख़ुद हज़रत मूसा की ज़िन्दगी, हज़रत इब्राहीम की ज़िन्दगी और दूसरे पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में आयतें और बातें अपनी माँ से सुनीं। क़ुरआन की तिलावत करते वक़्त जब उन आयतों पर पहुँचती थीं, जिन में पैग़म्बरों के नाम हैं, तो उन आयतों के बारे में तफ़सील से बताती थीं।

आयतुल्लाह सैयद हाशिम नजफ़ाबादी (मीर दामादी, पैदाइश 1303 हिजरी क़मरी, निधन 1380 हिजरी क़मरी) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाना थे। (वह सफ़वी काल के मशहूर दर्शनशास्त्री मीर दामाद के ख़ानदान से थे) वह आख़ुन्द ख़ुरासानी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाइनी के शिष्यों में थे। उनका बड़े धर्मगुरुओं में शुमार होता था। वह पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार और गौहर शाद मस्जिद के इमामों में थे। (23) वह लोगों को बुराई से रोकने और अच्छाई के लिए प्रेरित करने पर ख़ास तौर पर अमल करते थे। गौहर शाद मस्जिद में नरसंहार पर एतेराज़ करने पर शासक रज़ा शाह के शासन काल में उन्हें जिला वतन करके सेमनान भेज दिया गया था। (24) माँ के फ़ैमिली ट्री की नज़र से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का फ़ैमिली ट्री इमाम जाफ़र सादिक़ के बेटे मोहम्मद दीबाज से मिलता है। (25)

 

2 ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में ज़िन्दगी

2.1 शिक्षा हासिल करना और पढ़ाना

 

मशहद में पढ़ाई

सैयद अली ख़ामेनेई ने 4 साल की उम्र से मकतब में क़ुरआन की शिक्षा हासिल करना शुरू किया। मशहद के पहले इस्लामी स्कूल दारुत्तालीम दियानती में प्राइमरी की शिक्षा हासिल की। (26) साथ ही उन्होंने मशहद के कुछ क़ारियों के पास जाकर क़ुरआन को पढ़ने के तरीक़े का ज्ञान हासिल किया जिसे क़ेरत व तजवीद कहते हैं। (27) प्राइमरी में पाँचवीं क्लास में पहुँचे तो धार्मिक शिक्षा भी शुरू कर दी। धार्मिक शिक्षा से लगाव और माँ-बाप की तरफ़ से प्रोत्साहन मिलने के नतीजे में प्राइमरी के बाद वह पूरी तरह धार्मिक शिक्षा के छात्र बन गए और सुलैमान ख़ान मदरसे में धार्मिक शिक्षा हासिल करने लगे। उन्होंने कुछ आरंभिक किताबें अपने पिता से पढ़ीं। फिर उन्होंने नव्वाब स्कूल में दाख़िला लिया और इज्तेहाद के दर्जे से पहले की पढ़ाई पूरी की। इसी बीच आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने हाई स्कूल की भी पढ़ाई की। (28)

 

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उन्होंने धर्मशास्त्र के नियम की किताब मआलिमुल उसूल, आयतुल्लाह सैयद जलील हुसैनी सीस्तानी से पढ़ी और धर्मशास्त्र की अहम किताब शरहे लुमा पिता और मीर्ज़ा अहमद मुदर्रिस यज़्दी से पढ़ी। धर्मशास्त्र के नियम की एक और अहम किताब रसाएल और धर्मशास्त्र की सबसे बड़ी किताब मकासिब और धर्मशास्त्र के नियम की आख़िरी दर्जे की किताब किफ़ाया अपने पिता और आयतुल्लाह हाजी शैख़ हाशिम क़ज़वीनी से पढ़ी। सन 1334 हिजरी शमसी मुताबिक़ 1955 में आयतुल्लाह सैयद मोहम्मह हादी मीलानी की इज्तेहाद की क्लास में भाग लिया।

नजफ़ में पढ़ाई

सन 1336 हिजरी शमसी बराबर 1957 ईसवी को सैयद अली ख़ामेनेई अपने परिवार के साथ नजफ़े अशरफ़ गए। नजफ़े अशरफ़ के धार्मिक शिक्षा केन्द्र के मशहूर उस्तादों जैसे आयतुल्लाह सैयद मोहसिन अलहकीम, आयतुल्लाह सैयद अबुल क़ासिम अलख़ूई, आयतुल्लाह सैयद महमूद शाहरूदी, आयतुल्लाह मीर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी और आयतुल्लाह मीर्ज़ा हसन बुजनोर्दी की क्लासों में शामिल हुए मगर पिता वहाँ ठहरना नहीं चाहते थे, इसलिए मशहद वापस आ गए। (29) और एक साल तक आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में भाग लेते रहे। उसके बाद सन 1958 में धार्मिक शिक्षा को जारी रखने के लिए क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में दाख़िला लिया। (30) उसी साल क़ुम जाने से पहले आयतुल्लाह मोहम्मद हादी मीलानी ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई को रिवायतें सुनाने की इजाज़त दे दी थी। (31)

क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में

सैयद अली ख़ामेनेई ने क़ुम में अलहाज आक़ा हुसैन बुरूजर्दी, इमाम ख़ुमैनी, अलहाज शैख़ मुर्तज़ा हायरी यज़्दी, सैयद मोहम्मद मोहक़्क़िक़ दामाद और अल्लामा तबातबाई जैसे महान धर्मगुरुओं के शिष्य बनने का गौरव हासिल किया। (32) क़ुम में पढ़ाई के दौरान आयतुल्लाह ख़ामेनेई का ज़्यादातर वक़्त सेल्फ़ स्टडी और पढ़ाने में गुज़रता।

 

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मशहद वापसी

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सन 1964 हिजरी शमसी में पिता की आँखों की रौशनी चली जाने की वजह से उनकी ख़िदमत और मदद के लिए क़ुम से मशहद लौट गए और वहाँ एक बार फिर आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में जाने लगे। यह सिलसिला 1970 तक जारी रहा। मशहद लौटने के फ़ौरन बाद ही आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धर्मशास्त्र (फ़िक़ह) और धर्मशास्त्र के नियम (उसूले फ़िक़ह) की उच्च स्तरीय किताबें (रसाएल, मकासिब, किफ़ाया) पढ़ाना शुरू कर दिया और तफ़सीर की क्लासें भी शुरू कीं। इन क्लासों में नौजवान और ख़ास तौर पर यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स शामिल होते थे। (33) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई क़ुरआन की तफ़सीर की क्लास में इस्लाम के नज़रिये और इस्लाम की वैचारिक बुनियादों को बयान करते और उद्दंडी शाही हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष करने और उसे गिराने के लिए कार्यवाही की ज़रूरत के विचार को फैलाते थे। तफ़सीर की क्लास में शामिल होने वाला इस नतीजे पर पहुँच जाता था कि देश में इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं पर आधारित शासन का गठन ज़रूरी है। तफ़सीर की क्लासों का एक अहम मक़सद इस्लामी क्रांति की वैचारिक बुनियादों को समाज में फैलाना था। सन 1968 ईसवी से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धार्मिक स्टूडेंट्स के लिए तफ़सीर की ख़ास क्लासेज़ शुरू कीं। ये क्लासें सन 1977 में उनकी गिरफ़्तारी और जिला वतनी के रूप में उन्हें ईरानशहर भेजे जाने तक जारी रहीं। (34) बाद में राष्ट्रपति बनने के कुछ बरस बाद फिर से तफ़सीर की क्लासों का सिलसिला शुरू हुआ।

 

3 सामाजिक व राजनैतिक ज़िन्दगी

1.3 क्रांति से पहले संघर्ष का दौर

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के परिवार के धार्मिक-राजनैतिक गतिविधियों के अतीत के मद्देनज़र, उनके भीतर धार्मिक-राजनैतिक ट्रेनिंग की पृष्ठिभूमि पहले से मौजूद थी। सैयद मुज्तबा नव्वाब सफ़वी (मीर लौही) से मशहद में मुलाक़ात उनके भीतर राजनैतिक गतिविधियों के आग़ाज़ का कारण बनी। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में उनके भीतर क्रांतिकारी भावना की चिंगारी पैदा हुई। (35) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की इमाम ख़ुमैनी से पहली मुलाक़ात सन 1957 में हुई लेकिन इमाम ख़ुमैनी की राजनैतिक छवि पहली बार प्रांतीय व ज़िला संघ बिल के मौक़े पर उनके सामने ज़ाहिर हुई। (36)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सन 1962 में इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में उद्दंडी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के विभिन्न मोर्चों में शामिल हुए। वह उन लोगों में हैं जिन्होंने 5 जून 1963 के आंदोलन से पहले ही एक साथ राजनैतिक संघर्ष शुरू कर दिया था। (37) जनवरी 1963 में प्रांतीय व ज़िला संघ बिल पर रेफ़्रेन्डम के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई और उनके भाई सैयद मोहम्मद को आयतुल्लाह मोहम्मह हादी मीलानी की रिपोर्ट इमाम ख़ुमैनी तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। यह रिपोर्ट इस रेफ़्रेन्डम पर मशहद के लोगों के रिएक्शन के बारे में थी। (38)

 

पहली गिरफ़्तारी (5 जून को)

5 जून 1963

 

सन 1963 में मोहर्रम के मौक़े पर इमाम ख़ुमैनी ने उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी कि ख़ुरासान की मज़हबी अंजुमनों, धर्मगुरुओं और आयतुल्लाह मीलानी को पहलवी शासन के प्रचार के संबंध में लोगों में जागरूकता लाने और आंदोलन को जारी रखने के बारे में संदेश पहुँचाएं। (39)

 

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इन संदेशों में इमाम ख़ुमैनी ने संघर्ष का ख़ाका पेश किया और धर्मगुरुओं से ताकीद की कि वे पहलवी शासन के अपराधों को बयान करने के लिए 7 मोहर्रम को फ़ैज़िया मदरसे में हुई घटना को मिंबर से बताएं। (40) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई, इमाम ख़ुमैनी के मक़सद की प्राप्ति और गाइडलाइन पर अमल के लिए ख़ुद भी बीरजंद शहर के लिए, जो पूर्व प्रधानमंत्री असदुल्लाह अलम के ख़ानदान के प्रभाव में था, रवाना हुए जहाँ उन्होंने शहर के मिंबरों और सभाओं में फ़ैज़िया मदरसे में हुए अपराध तथा इस्लामी समाज पर इस्राईल के वर्चस्व के बारे में स्पीचें दी। (41) इन स्पीचों की वजह से उन्हें 2 जून 1963 को गिरफ़्तार करके मशहद जेल भेज दिया गया। (42) रिहा होने के बाद आयतुल्लाह मोहम्मद हादी मीलानी ने उनसे मुलाक़ात की। (43) उसके बाद आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने आयतुल्लाह मीलानी के घर में होने वाली बैठकों में इमाम ख़ुमैनी की ग़ैर हाज़री में हाज़िर होकर, जो उस वक़्त निर्वासन में थे, इस्लामी आंदोलन को जारी रखने के लिए अपनी राजनैतिक गतिविधियों को जारी रखा। (44) उसके कुछ वक़्त बाद वह क़ुम के धार्मिक केन्द्र लौट आए और कुछ संघर्षशील धर्मगुरुओं की मदद व सहयोग से परामर्श व प्रचारिक बैठकों का आयोजन कर अपनी राजनैतिक गतिविधियों को फिर से संगठित किया। (45) वह भी उन धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने 1 जनवरी 1964 को आयतुल्लाह सैयद महमूद तालेक़ानी, महदी बाज़र्गान और यदुल्लाह सहाबी को टेलिग्राम भेजा जिन्हें इमाम ख़ुमैनी का समर्थन करने पर जेल भेजा गया था। (46) उसी ज़माने में क़ुम में ख़ुरासान के पढ़ने वाले धार्मिक स्टूडेंट्स ने उनकी हिदायत पर इमाम ख़ुमैनी की नज़रबंदी के पर एतेराज़ जताने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री हसन अली मंसूर को ख़त लिखा और उसे छापा। उन लोगों में ख़ुद वह, अबुल क़ासिम ख़ज़अली और मोहम्मद एबाई ख़ुरासानी शामिल थे। (47)

 

दूसरी बार गिरफ़्तारी (क्रांतिकारी दौरे)

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई फ़रवरी 1964 बराबर रमज़ान 1383 हिजरी क़मरी में, इस्लामी आंदोलन के प्रचार और इस आंदोलन से जुड़े मामलों को बयान करने के लिए ज़ाहेदान गए। (48) ज़ाहेदान की मस्जिदों में उनकी स्पीचों और लोगों की ओर से उनका स्वागत होने की वजह से पहलवी शासन ने उन्हें गिरफ़्तार करके क़ज़ल क़िले की जेल भेज दिया जहाँ उस ज़माने में राजनैतिक क़ैदियों और सुरक्षा मामलों के क़ैदियों को रखा जाता था। (49) 4 मार्च 1964 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की गिरफ़्तारी का हुक्म, तेहरान के न्यायिक क्षेत्र से बाहर न निकलने के आदेश में बदलने के साथ ही वह जेल से रिहा हो गए। (50) उसके बाद से इस्लामी क्रांति की सफलता तक उनकी गतिविधियां, सुरक्षा अधिकारियों की लगातार निगरानी में रहीं।

 

क़ुम के धार्मिक केन्द्र (के 11 लोगों) की बैठक का आयोजन

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सन 1964 के पतझड़ के मौसम में मशहद लौट आए और अपने पिता की देखभाल के साथ साथ पढ़ने-पढ़ाने और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हो गए।(51) वह भी उन धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने इमाम ख़ुमैनी को तुर्की की ओर देश निकाला दिए जाने के थोड़े ही वक़्त बाद तत्कालीन सरकार को 18 फ़रवरी 1965 को ख़त लिख कर, उस वक़्त अमीर अब्बास हुवैदा की सरकार थी, देश के अफ़रा-तफ़री वाले हालात और इमाम ख़ुमैनी के निर्वासन पर एतेराज़ किया। (52) 11 लोगों के ग्रुप में आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई, अब्दुर्रहीम रब्बानी शीराज़ी, अली फ़ैज़ मिश्कीनी, इब्राहीम अमीनी, महदी हायरी तेहरानी, हुसैन अली मुन्तज़ेरी, अहमद आज़री क़ुम्मी, अली क़ुद्दूसी, अकबर हाशेमी रफ़सन्जानी, सैयद मोहम्मद ख़ामेनेई और मोहम्मह तक़ी मिस्बाह यज़्दी थे। यह ग्रुप पहलवी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए क़ुम के धार्मिक केन्द्र को मज़बूत बनाने और उसमें सुधार के मक़सद से वजूद में आया। इस ग्रुप के संघर्ष की बुनियाद, विचार व आस्था थी और यही चीज़ उसकी कामयाबी की वजह बनी। धर्मगुरू भी संघर्ष के ढांचे और मास्टरमाइंड की तरह थे। वे संघर्ष के इस चरण में इस नतीजे पर पहुँच गए थे कि सगंठित हुए बिना अच्छी कामयाबी हासिल नहीं कर सकते और संगठन का वजूद ही संघर्ष को ख़त्म करने की पहलवी शासन की कोशिश को नाकाम बना सकता है। इस ग्रुप को क़ुम के धार्मिक केन्द्र के शुरुआती गोपनीय संगठन के नाम से याद किया जाता है। तत्कालीन जासूसी संगठन सावाक ने 1967 में इस ग्रपु की गतिविधियों का पता लगाया जिसके नतीजे में कुछ सदस्य गिरफ़्तार हुए  और कुछ दूसरे लोगों को पुलिस तलाश करने लगी जिनमें आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई भी थे।

 

क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र शिक्षक संगठन की स्थापना

 

इसके अलावा, एक और बैठक हुई जो शिक्षक संगठन के वजूद में आने की बुनियाद बनी। “हम उन लोगों में हैं जो शिक्षक संगठन की आरंभिक बैठकों में शामिल हुए और उसके सदस्य थे। हम भी थे, मेरे ख़्याल में जनाब रफ़सन्जानी भी थे, ...जनाब अली मिश्कीनी, रब्बानी शीराज़ी, नासिर मकारिम और कुछ हम लोगों से बड़े लोग भी शामिल होते थे।” (53)

इन बैठकों और जो इनमें फ़ैसले लिए जाते थे, उनसे क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र का माहौल बदल गया। इन फ़ैसलों में शामिल लोगों में वे लोग भी थे जो उसके सदस्य नहीं थे, जैसे जवान स्टूडेंट्स। इन कोशिशों से क़ुम के बंद माहौल में चहल-पहल आ गई।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इन्हीं ख़ामोशी के दिनों में एक किताब का अनुवाद कर उसे छपवाया जिसका टाइटल “इस्लाम के अधिकार क्षेत्र में भविष्य” था। इस किताब में दो अहम विषयों पश्चिम के दबाव और कम्यूनिज़्म के प्रचार का उल्लेख था और उस भविष्य का ख़ाका पेश किया गया था जिसकी तरफ़ इस्लाम बढ़ रहा है। (54) सावाक ने किताब पर रोक लगा दी और उसके छपवाने में शामिल लोगों को गिरफ़्तार कर लिया लेकिन वह किताब के अनुवादक आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को गिरफ़्तार करने में सफल नहीं हुई। (55) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की उन दिनों कुछ वक़्त के लिए तेहरान और करज में सरगर्मियां जारी थीं लेकिन शासन के ख़िलाफ़ किसी तरह का बयान न देने का वादा न करने की वजह से करज में उनकी गतिविधियों पर रोक लग गई। वे तेहरान में अमीरुल मोमेनीन मस्जिद में भी कुछ दिनों तक इमाम रहे।

 

तीसरी गिरफ़्तारी

 

मार्च 1967 में आयतुल्लाह सैयद हसन क़ुम्मी की गिरफ़्तारी और उन्हें निर्वासित किए जाने पर, जिसके पीछे अस्ल वजह गौहरशाद मस्जिद में शाही शासन के ख़िलाफ़ उनकी स्पीच थी, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने आयतुल्लाह मीलानी से इस कार्यवाही के ख़िलाफ़ एतेराज़ करने की अपील की। (56) उनके इस क़दम की वजह से सावाक नामी तत्कालीन शासन की गुप्तचर एजेंसी के जासूसों को मशहद में उनकी मौजूदगी का पता लग गया और उसी साल 3 अप्रैल को उन्हें आयतुल्लाह शैख़ क़ज़्वीनी के अंतिम संस्कार के प्रोग्राम में गिरफ़्तार कर लिया। (57) उसी साल 17 जुलाई को वे रिहा हो गए। (58) रिहा होने के थोड़े समय बाद वे तेहरान में राजनैतिक क़ैदियों से मिलने गए। (59)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के आंदोलन के तहत विभिन्न इलाक़ों में संघर्षकर्ताओं से संपर्क के ज़रिए संघर्ष व संघर्षकर्ताओं को संगठित करने, इस्लामी विचारों की बुनियाद पर नई नस्ल में ख़ास तौर पर धार्मिक व यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स के बीच संघर्षकर्ताओं व क्रांतिकारियों की नई पौध को ट्रेन्ड करने, क़ुरआन और हदीस को अपने संघर्ष की बुनियाद क़रार देने की कोशिश की और मार्कस्वादी, उदारवादी और इन जैसी भौतिकवादी विचारधाराओं के ख़िलाफ़ संघर्ष के साथ ही इस्लामी विचारों को फैलाने व मज़बूत करने की कोशिश की। पहलवी शासन की ओर से रुकावटों के बावजदू उन्होंने बड़ी सफलताएं हासिल की। संघर्ष की कई आयामों से समीक्षा, इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन के लिए सूचना के बड़े नेटवर्क का इस्तेमाल, इसी तरह मिंबर की बड़े पैमाने पर प्रचारिक ताक़त का इस्तेमाल, उनकी कामयाबी की कुछ वजहें रही हैं।

31 अगस्त सन 1968 को दक्षिणी ख़ुरासान प्रांत में आए ख़तरनाक भूकंप के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की सरपरस्ती में धर्मगुरुओं की एक टीम भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए फ़िरदौस गई। स्थानीय सुरक्षा अधिकारियों ने इस कोशिश का विरोध किया लेकिन इस राहत टीम ने भूकंप पीड़ितों की मदद के लिए प्रभावी कोशिश की। फ़िरदौस में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के 2 महीने तक मदद के लिए मौजूद रहने से उन्हें भूकंप पीड़ितों की मुश्किलों को क़रीब से समझने का मौक़ा मिला। इसी तरह उनके निकट होने, सभाओं व मिंबरों तथा धार्मिक अंजुमनों में इस्लामी आंदोलन के संदेश को अच्छी तरह बयान करने का मौक़ा मिला। इस सरगर्मी से ख़ुरासान में पुलिस और गुप्तचर एजेंसी सावाक हरकत में आ गई जिसकी वजह से उन्हें फ़िरदौस में और ठहरने नहीं दिया गया। (60) उसी साल दिसम्बर में कर्बला और नजफ़ की ज़ियारत करने और इमाम ख़ुमैनी से मिलने का इरादा किया लेकिन सावाक ने उन्हें देश से बाहर निकलने से रोक दिया। यह रोक उस वक़्त तक जारी रही जब तक इस्लामी क्रांति कामयाब नहीं हो गई। (61)

 

6 महीने जेल की सज़ा

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को 11 सदस्यीय ग्रुप का सदस्य होने के इल्ज़ाम में 6 महीने की सज़ा सुनायी गई। कैहान अख़बार में इस ख़बर के छपने और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को अपर कोर्ट में हाज़िर किए जाने के बाद, उन्होंने मशहद के कुछ धर्मगुरुओं से मशविरे के बाद, अदालत में हाज़िर न होने का फ़ैसला लिया। (62) वे क़ानून की नज़र में वॉन्टेड होने के बावजूद मशहद और तेहरान में कुछ संघर्षशील धर्मगुरुओं जैसे सैयद महमूद तालेक़ानी, सैयद मोहम्मद रज़ा सईदी, मोहम्मद जवाद बाहुनर, मोहम्मद रज़ा महदवी कनी, मुर्तज़ा मुतह्हरी, अकबर हाशेमी रफ़संजानी और फ़ज़्लुल्लाह महल्लाती के संपर्क में थे और मशहद में निवास के दौरान, तेहरान के बहुत से संघर्षशील धर्मगुरुओं की बैठकों में शामिल होते थे। (63) वे धर्मगुरुओं के साथ सभाएं करते जिनमें मशहद और उसके आस-पास के गाँवों में धर्मगुरुओं व धार्मिक स्टूडेंट्स को भेजने के लिए फ़ैसला लिया जाता और क़दम उठाया जाता। (64)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस्लामी आंदोलन को आस्था की नज़र से देखते थे और उसी को बुनियाद बनाते हुए उन्होंने लोगों की वैचारिक ट्रेनिंग के साथ अपना संघर्ष जारी रखा। वे लोगों की आस्था व धार्मिक बुनियादों को मज़बूत करने के लिए धार्मिक स्टूडेंट्स और स्कूलों व कालेजों के स्टूडेंट्स के लिए पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की क्लासेज़ चलाते और समाज के विभिन्न तबक़ों के लोगों के लिए स्पीच देते थे। उनका मानना था कि इस्लामी आकांक्षाओं को पूरा करना, सांस्कृतिक क्षेत्र में कोशिश से ही मुमकिन है और लोग उसी वक़्त क्रांति लाएंगे जब वे जागरूक व समझदार होंगे। सुधारवादी प्रक्रिया यूनिवर्सिटियों तक सक्रिय समझी जाती थी। इसलिए वे इस अप्रोच को, मार्कस्वादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले धड़ों की गतिविधियों के जवाब में ज़रूरी समझते थे। इस संबंध में उन्होंने सांस्कृतिक सरगर्मियां कीं और ऐसी सभाएं आयोजित कीं जिनमें इस्लामी विचारक और संघर्षकर्ता शामिल होते थे। (65)

 

हुसैनियए इरशाद नामी इमामबाड़े और अल-जवाद मस्जिद में स्पीच

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई बहुत से बुद्धिजीवियों और संघर्ष के क्षेत्र में सक्रिय मशहूर बौद्धिक केन्द्रों के साथ भी संपर्क में थे। उन्हें सन 1969 में आंदोलन की प्रक्रिया को प्रभावी बनाने वाले विषयों पर स्पीच के लिए तेहरान में हुसैनियए इरशाद इमामबाड़े और अल-जवाद मस्जिद सहित कुछ इस्लामी-राजनैतिक केन्द्रों में बुलाया गया। (66) उन्होंने शहीद मुर्तज़ा मुतह्हरी के निमंत्रण पर 1970 के आग़ाज़ में हुसैनियए इरशाद में स्पीच दी और इंजीनियरों की इस्लामी सोसायटी के निमंत्रण पर तेहरान की अल-जवाद मस्जिद में स्पीच दी जिसका जवान नस्ल ख़ास तौर पर स्कूल और यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को जागरूक बनाने में बहुत असर हुआ। (67)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 1970 के बसंत के मौसम में इस्लामी आंदोलन को रफ़्तार देने और पहलवी शासन से संघर्ष के लिए ईमान की बुनियादों को मज़बूत करने के लिए, सभाओं का सिलसिला शुरू किया था जिसका मक़सद इस्लामी विचारधारा पर आधारित संघर्ष के अपने विचारों की समीक्षा करानी थी। इन सभाओं में मुर्तज़ा मुतह्हरी, सैयद महमूद तालेक़ानी, सैयद अबुल ज़न्जानी, महदी बाज़र्गान, अकबर हाशेमी रफ़संजानी, यदुल्लाह सहाबी, अब्बास शैबानी और काज़िम सामी को बुलाया गया था। इस सिलसिलेवार सभा के नतीजे में इस्लामी विचारधारा को संकलित किया गया। (68)

 

चौथी बार गिरफ़्तारी

 

मई 1970 में आयतुल्लाह हकीम के देहांत के बाद, सबसे वरिष्ठ धर्मगुरू की बहस, जो आयतुल्लाह बुरूजर्दी के देहांत के बाद शुरू हुई थी, समाज में अब और गंभीर हो गई। इस बीच आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने आयतुल्लाह हकीम के धर्मशास्त्र की नज़र से उच्च स्थान की सराहना की और कुछ धर्मगुरुओं को शोक संदेश भेजने के अलावा इमाम ख़ुमैनी को सबसे बड़े धर्मगुरू के तौर पर पेश करने की बड़ी कोशिश की। उन दिनों सावाक (ईरान में पहलवी शासन के ज़माने की ख़तरनाक ख़ुफ़िया एजेंसी) के हाथों 10 जून 1970 को आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद रज़ा सईदी की शहादत के बाद, जो उस ज़माने में इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन का प्रचार करने में बहुत अहम रोल रखते थे, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने दूसरे कार्यकर्ताओं के साथ मिल कर यह कोशिश की कि आयतुल्लाह सईदी की शहादत से लोगों में पैदा हुए आक्रोश को आंदोलन को मज़बूती देने के लिए इस्तेमाल करें। इस मौक़े पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई द्वारा बनायी गई लहर के नतीजे में धार्मिक स्टूडेंट्स ने इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में और शाही शासन तथा सावाक की निंदा में पम्फ़लेट बांटने में हिस्सा लिया। (69) उसके बाद जब एतेराज़ और आंदोलन का दायरा और बढ़ गया (70) तो सावाक की मशहद ब्रांच ने 24 सितम्बर 1970 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और कुछ मुद्दत तक ‘लश्करे ख़ुरासान’ नामी जेल में जो मशहद में अकेली फ़ौजी जेल थी, क़ैद रखा। (71) फ़रवरी 1971 में मोहर्रम के महीने में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने तेहरान में अंसारुल हुसैन अंजुमन में ऐसी हालत में स्पीच दी कि सावाक ने उनका नाम प्रवचनकर्ताओं की उस लिस्ट में शामिल किया था जिन पर प्रवचन देने पर रोक लगाई गई थी। (72) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 1972 में आयतुल्लाह तालेक़ानी के निमंत्रण पर तेहरान की हिदायत मस्जिद में स्पीच दी जहाँ स्टूडेंट्स और जवान आंदोलनकर्ता आते थे। (73)

 

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सन 1971 में 3 बार गिरफ़्तारी

 

शाही हुकूमत के 2500 साल पूरे होने के जश्न का इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से बायकॉट होने की वजह से (70) सावाक, आंदोलनकारी धर्मगुरुओं की सरगर्मियों पर कड़ी नज़र रखने लगी। इस वजह से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को जुलाई 1971 में मशहद में सावाक के दफ़्तर में तलब किया गया और कुछ मुद्दत के लिए ‘लश्करे ख़ुरासान’ जेल में क़ैद कर दिया गया। (71) रिहा होने के बाद, उन्होंने फिर अपनी सरगर्मी शुरू की और उसी साल उन्हें 2 बार और गिरफ़्तार किया गया। एक बार 1971 में अक्तूबर के महीने में उन्हें गिरफ़्तार करके ‘लश्करे ख़ुरासान’ जेल में थोड़ी मुद्दत के लिए क़ैद किया गया और दूसरी बार उसी साल 12 दिसम्बर को, आंतरिक सुरक्षा के ख़िलाफ़ सरगर्मी के इल्ज़ाम में 3 महीने जेल की सज़ा दी गई। (72)

 

तेहरान, मशहद और निशापूर में क्लासेज़ का जारी रहना

 

उन्होंने रिहा होने के बाद, अपनी सामाजिक-राजनैतिक सरगर्मियों को फैलाया और तेहरान की नार्मक मस्जिद और अंसारुल हुसैन अंजुमन की सभाओं में हाज़िर होते और धार्मिक व राजनैतिक विषयों पर स्पीच देते थे। मशहद में अपने घर पर, मीर्ज़ा जाफ़र स्कूल, इमाम हसन मस्जिद और क़िबला मस्जिद में पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की क्लासेज़ चलाते रहे। इन क्लासेज़ में आम स्टूडेंट्स, युनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स, धार्मिक स्टूडेंट्स सहित समाज के विभिन्न वर्गों के लोग शामिल होते थे जिन्हें वे क्रांतिकारी व राजनैतिक इस्लाम के विचारों से परिचित कराते थे। इन क्लासेज़ से उनके बहुत से शिष्यों ने बाद में क्रांति के आंदोलन के चरम पर देश के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों को जागरूक बनाने की ज़िम्मेदारी अंजाम दी। सुरक्षा अधिकारी अपनी रिपोर्टों में उनकी क्लासेज़ और स्पीच का बारंबार ज़िक्र कर चुके थे। सावाक की नज़र में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई धार्मिक शिक्षा केन्द्र के क्रांतिकारी व बुद्धिजीवी शिक्षकों में थे जो जवान नस्ल और स्टूडेंट्स से संपर्क रखने के अलावा इमाम ख़ुमैनी के आंदोलनकारी विचारों का प्रचार करने वाले और धार्मिक स्टूडेंट्स को राजनैतिक व सामाजिक मामलों की ओर से जागरूक बनाने के इच्छुक थे। (73)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई मार्च 1973 में प्रचार के लिए निशापूर गए और शहर की मस्जिदों में आस्था के बारे में क्लासेज़ शुरू कीं। यह क्लासेज़ हर मंगलवार को होती थीं। (74) मई 1973 में सावाक ने इमाम हुसैन मस्जिद और उनके घर में पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की क्लासेज़ बंद करवा दीं। (75) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने नवम्बर 1952 में करामत मस्जिद के निर्माणकर्ता के निमंत्रण पर पवित्र क़ुरआन की व्याख्या की क्लासेज़ वहाँ शुरू कर दीं और उसी मस्जिद के इमाम हो गए। इस तरह यह मस्जिद जवान धार्मिक स्टूडेंट्स और यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स की सरगर्मी का केन्द्र बन गई। (76) सावाक की मशहद ब्रांच ने उनकी बड़े पैमाने पर राजनैतिक सरगर्मी के मद्देनज़र उन्हें उस मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने से रोक दिया। (77)

 

छठी बार जेल, सबसे कठिन दौर

 

अक्तूबर 1974 में उन्होंने मिंबर पर स्पीच देने पर रोक के बावजदू, आयतुल्लाह मोहम्मद मुफ़त्तेह के निमंत्रण पर, जो तेहरान की जावेद मस्जिद के इमाम थे, इस मस्जिद में स्पीच दी। जिसके बाद सावाक ने आयतुल्लाह मुफ़त्तेह को गिरफ़्तार किया और जावेद मस्जिद को बंद करवा कर आंदोलन के एक अहम केन्द्र के ख़िलाफ़ कार्यवाही की (78) इसके बाद सावाक ने उसी साल आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के घर की तलाशी ली। सावाक ने इस तलाशी की वजह, मशहद में उनके उस बयान को बताया जिसमें उन्होंने इस्लामी आंदोलन के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए एक ग्रुप बनाने की बात कही थी जो आंदोलन को सुव्यवस्थित कर सके। (79) आख़िरकार आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को दिसम्बर 1974 में छठी बार गिरफ़्तार करके तेहरान में विध्वंसक गतिविधियों की संयुक्त कमेटी की विशेष जेल भेज दिया गया। (80) उनका ख़ुद कहना है कि उन्होंने सबसे ज़्यादा कठिनाई इस जेल में झेली। उन्हें क़ैद में किसी से मिलने की इजाज़त नहीं थी, यहाँ तक कि उनके घर वालों को भी यह नहीं बताया गया था कि उन्हें किस जेल में क़ैद किया गया है। (81)

 

निर्वासन का कारण बनने वाली सरगर्मियाँ

 

वे 24 अगस्त 1975 को जेल से रिहा हुए, लेकिन उन पर सुरक्षा विभाग की कड़ी निगरानी थी। उन्हें स्पीच देने यहाँ तक कि घर में पढ़ाने और पवित्र क़ुरआन की क्लासेज़ करने की भी इजाज़त नहीं थी। (82) लेकिन उन्होंने फिर भी राजनैतिक व सुरक्षा रुकावटों के बावजूद, छिप कर पवित्र क़ुरआन की क्लासेज़ और क्रांतिकारी सरगर्मियां शुरू कीं और धार्मिक स्टूडेंट्स को इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से शहरिया (एक तरह की स्कॉलरशिप) भी देते रहे। (83) उन्होंने सन 1976 की शुरुआत में क़ुरआन में इस्लामी विचारों के मूल ख़ाके पर आधारित एक किताब ख़ामोशी से छपवा दी जिसमें लेखक का क़लमी नाम सैयद अली हुसैनी लिखा। उन्होंने मई 1976 में क़ूचान में बाढ़ की वजह से एक टीम बनायी जिसे मशहद से क़ूचान शहर के बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए भेजा गया। यह टीम इस शहर के ऊज़िया नामी स्कूल में ठहरी और लोगों की मदद करती रही। (84)

सावाक की रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र है कि आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई और उनके पिता ने 1977 की शुरुआत में मशहद में इमाम ख़ुमैनी तथा इस्लामी क्रांति के समर्थन में राजनैतिक सरगर्मियां दिखाईं। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने सन 1396 हिजरी क़मरी के मोहर्रम में बराबर दिसम्बर 1976 में शाही शासन के ख़िलाफ़ स्पीच दी और सांस्कृतिक-वैचारिक माहौल की व्याख्या के मक़सद से स्टूडेंट्स और नौजवान नस्ल के लिए (85) डिबेट की सभाओं का सिलसिला शुरू किया और साथ ही तेहरान के धर्मगुरुओं की बैठकों में शामिल होकर आंदोलन की रफ़्तार तेज़ की। (86) दूसरी ओर सावाक भी इस कोशिश में थी कि आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई तथा दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ सुबूत इकट्ठा करने के लिए इन सभाओं तक पहुँच हासिल कर ले। (87) लंदन में 18 जून 1977 को डॉक्टर अली शरीअती के देहांत के बाद, उन्हें श्रृद्धांजली देने के लिए आयोजित प्रोग्राम में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई शामिल हुए। इसकी एक वजह उनकी डॉक्टर अली शरीअती और उनके पिता से पुरानी मुलाक़ात व संपर्क थी। (88)

 

ईरानशहर की ओर निर्वासन

23  अक्तूबर 1977 को इमाम ख़ुमैनी के सबसे बड़े बेटे आयतुल्लाह मुस्तफ़ा ख़ुमैनी के नजफ़े अशरफ़ में देहांत पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने कुछ आंदोलनकर्ताओं के साथ 28 अक्तूबर को मुल्ला हाशिम मस्जिद में पवित्र क़ुरआन की तिलावत का प्रोग्राम करवाया। (89) उन्हीं दिनों मशहद के कुछ धर्मगुरुओं के साथ टेलीग्राम से नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी को संवेदना प्रकट की। (90) आयतुल्लाह सैयद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी के देहांत और उसके बाद पैदा हुए हालात से इस्लामी आंदोलन निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया जिससे इस्लामी क्रांति की कामयाबी की गंभीर कोशिशें शुरू हो गयीं।

पहलवी शासन ने इन सरगर्मियों के जवाब में, खुले राजनैतिक माहौल के एलान के बावजूद आंदोलनकर्ताओं की गतिविधियों का दमन करते हुए उसे और सीमित कर दिया। इस नीति के नतीजे में कुछ अहम आंदोलनकारियों को निर्वासन की सज़ा दी गई जिनमें आयतुल्लाह ख़ामेनेई भी थे। उन्हें ख़ुरासान के सुरक्षा आयोग ने 3 साल ईरानशहर निर्वासन की सज़ा सुनायी (91) और सावाक के अधिकारियों ने 14 दिसम्बर 1977 को उनके घर पर धावा बोल कर उन्हें गिरफ़्तार करके ईरानशहर भेज दिया। शाही शासन के इस क़दम का लक्ष्य जनता व आंदोलनकारियों से उनका संपर्क काटना था जिसके नतीजे में उनसे शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन और पर्दाफ़ाश करने का मौक़ा ख़त्म करना था। (92) लेकिन वह सुन्नी समुदाय के बीच अपने अच्छे व्यवहार की वजह से ईरानशहर की जनता में बहुत लोकप्रिय हो गए और इस मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए उन्होंने क्रांति के संदेश को देश के सबसे दूर दराज़ के क्षेत्रों तक पहुँचाया। (93) ईरानशहर की आले रसूल मस्जिद में उनकी स्पीच, आंदोलनकारी धर्मगुरुओं, क्रांतिकारी फ़ोर्सेज़ और जनता के विभिन्न वर्गों के लोगों की उनके घर आवाजाही की वजह से सुरक्षा तत्वों ने उनकी सरगर्मियों को सीमित कर दिया और लोगों की उनके यहाँ आवाजाही पर रोक लगा दी। (94)

उन्होंने यज़्द के नरसंहार पर 8 अप्रैल 1978 को आयतुल्लाह मोहम्मद सदूक़ी को ख़त में पहलवी शासन की इस बर्बर करतूत की भर्त्सना की और जनता से संघर्ष जारी रखने की अपील के साथ साथ इस घटना के शहीदों की याद मनायी। (95) उनका यह ख़त पूरे देश में बयान के तौर पर छपा। (96)

2 जुलाई 1978 को ईरानशहर में आई बाढ़ से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को यह मौक़ा मिला कि वह विगत के अपने तजुर्बे से फ़ायदा उठाते हुए राहत पहुँचाने वाली वाली अकेली टीम का संचालन अपने हाथ में लें। वे यज़्द और मशहद सहित विभिन्न शहरों के धर्मगुरुओं के सहयोग से देश के दूर दराज़ इलाक़ों से लोगों की मदद को इकट्ठा कर बाढ़ पीड़ितों में बांट सके। (97)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने निर्वासन के दौरान, ईरान के विभिन्न शहरों में अग्रिम पंक्ति के धर्मगुरुओं और आंदोलनकारियों के साथ संपर्क बनाए रखते थे, उनके साथ इस्लामी आंदोलन के बारे में लगातार पत्राचार किया करते थे और इस तरह बहुत सी घटनाओं के बारे में उन्हें जानकारी रहती और ख़तों के ज़रिए वो धर्मगुरुओं के सामूहिक फ़ैसलों में शामिल रहते थे।

 

जीरुफ़्त की ओर निर्वासन

 

28 शाबान 1398 हिजरी क़मरी बराबर 19 जुलाई 1978 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के निर्वासन के ख़िलाफ़ मशहद के धार्मिक स्टूडेंट्स ने एतेराज़ किया और उनकी मशहद वापसी की मांग की जिसके ख़िलाफ़ पुलिस ने कार्यवाही की। (98) एक ओर ईरानशहर और उसके आस-पास के शहरों में आंदोलन को फैलाने के तहत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की क्रांतिकारी सरगर्मियों का बढ़ता दायरा तो दूसरी तरफ़ उस इलाक़े के लोगों के बीच उनकी दिन ब दिन बढ़ती लोकप्रियता व प्रभाव के मद्देनज़र, सुरक्षा अधिकारियों ने उनके निर्वासन की जगह को जीरुफ़्त कर दिया जो ईरानशहर की तुलना में ज़्यादा दूर था और वहाँ मुश्किलें भी ज़्यादा थीं। इस तरह उन्हें 13 अगस्त 1978 को जीरुफ़्त निर्वासित कर दिया गया। (99)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का राजनैतिक संघर्ष जीरुफ़्त में भी नहीं रुका, बल्कि इस शहर में आगमन के आग़ाज़ में ही उन्होंने शहर की जामा मस्जिद में स्पीच में पहलवी शासन की करतूतों का पर्दाफ़ाश किया। एक स्पीच उन्होंने 6 सितम्बर 1978 को दी जिसके नतीजे में लोग क्रांतिकारी नारे लगाते हुए सड़कों पर निकल आए। (100) यह घटना ऐसी हालत में हुई कि अभी छोटे शहरों में प्रदर्शन व रैलियों का क्रम व्यवस्थित रूप में शुरू नहीं हुआ था। आयतुल्लाहिल उज़मा उन निर्वासित धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने आयतुल्लाह सैयद अब्दुल हुसैन दस्तग़ैब को ख़त लिख कर देश में घटने वाली घटनाओं की व्याख्या की और शीराज़, मशहद, इस्फ़हान तथा जहरुम में पहलवी शासन की आपराधिक करतूतों का ज़िक्र करके, इस शासन को गिराने तक इस्लामी आंदोलन को आगे बढ़ाने के उपाय पेश किए। (101) उसी ज़माने में वह ख़ुफ़िया तौर पर कहनूज गए और वहाँ भी सच्चाई से पर्दा उठाने के लिए अनेक स्पीचें दीं। (102) 

 

मशहद वापसी

 

जनांदोलन में फैलाव, शाही शासन के तत्वों में बिखराव और क्रांति को क़ाबू करने में उसकी अक्षमता से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई 23 सितम्बर 1978 को जीरुफ़्त से मशहद लौट आए और वहाँ उन्होंने क्रांति के मामलों को संगठित करने व आंदोलन में तेज़ी लाने सहित विभिन्न मामलों की निगरानी जारी रखी। (103) जिन दिनों इमाम ख़ुमैनी फ़्रांस में ठहरे हुए थे, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने मशहद के कुछ आंदोलनकारी धर्मगुरुओं के साथ संयुक्त रूप से इमाम ख़ुमैनी को टेलीग्राम भेजा जिसमें कहा गया था कि फ़्रांस में इमाम ख़ुमैनी का अस्थाई निवास लोगों के दिलों में उम्मीद जागने और उनके इरादे के मज़बूत होने का कारण बना है। इसी तरह यह निवास ईरान के मुसलमान राष्ट्र को मुक्ति दिलाने के संबंध में इमाम ख़ुमैनी के मज़बूत इरादे की निशानी है। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी से गुज़ारिश की कि वे आंदोलन को जारी रखने के संबंध में ज़रूरी निर्देश जारी करें। अंत में उन्होंने इमाम ख़ुमैनी से वतन वापसी की गुज़ारिश की। (104) मशहद में थोड़े ही दिनों में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की आंदोलनकारी सरगर्मियां तेज़ हो गईं। वह जनप्रदर्शनों को सुव्यवस्थित करने के अलावा मशहद में जनसभाओं में सच्चाई से पर्दा उठाने वाली स्पीचें देते। (105) इसके साथ ही वह इमाम ख़ुमैनी के घर वालों और दूसरे आंदोलनकारियों के साथ लगातार संपर्क में रहते और उनसे सलाह-मशवरा करते। इसी संपर्क का नतीजा था कि 1 नवम्बर 1978 को पेरिस से सैयद अहमद ख़ुमैनी ने आयतुल्लाह सदूक़ी से संपर्क किया और बताया कि इमाम ख़ुमैनी उनसे और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से मुलाक़ात करना चाहते हैं। (106) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई उन धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने मशहद के सादाबाद स्टेडियम में शहर के टीचरों व सांस्कृतिक हस्तियों की विशाल सभा में दिए अपने भाषण में इमाम ख़ुमैनी की वतन वापसी और इस्लामी सरकार क़ायम करने पर ज़ोर दिया था। (107) वह 1978 में नवम्बर के तीसरे हफ़्ते में सैयद अब्दुल करीम हाशेमी नेजाद के साथ क़ूचान, शीरवान और बुजनोर्द ज़िले गए जहाँ उन्होंने अपनी स्पीच से क्रांति को मज़बूती देने की कामयाब कोशिश की। मशहद में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की दिन ब दिन बढ़ती प्रभावी सरगर्मियों की वजह से पहलवी शासन के सुरक्षा अधिकारियों ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। सावाक की रिपोर्टों में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को ख़ुरासान में क्रांति के अहम स्तंभों में बताया गया। (108)

 

1978 को आशूरा के दिन इमाम रज़ा के रौज़े में स्पीच

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 9 और 10 मोहर्रम सन 1399 हिजरी क़मरी बराबर 11 और 11 दिसम्बर 1978 को मशहद के जुलूस में बहुत ही जोशीली स्पीच दी और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की नौ और दस मोहर्रम के बीच की रात को दी गई स्पीच, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े में इमाम ख़ुमैनी के नाम से दी और इस तरह अपने इस क्रांतिकारी क़दम से पहलवी शासन की बरसों से आ रही उस परंपरा को उखाड़ फेंका जिसके तहत आशूरा का शोक प्रोग्राम औपचारिकता मात्र रह गया था और उसमें पहलवी शासक मोहम्मद रज़ा के लिए दुआ की जाती थी। (109) इसी तरह उन्होंने 1978 के आशूरा के जुलूस की कमान संभाली और लोगों की विशाल जुलूस में स्पीच दी। (110) वे उन धर्मगुरुओं में थे जिन्होंने 15 दिसम्बर 1978 को मशहद के शाह रज़ा अस्पताल पर, जिसका मौजूदा नाम इमाम रज़ा अस्पताल है, पहलवी शासन के कारिंदों के हमले पर एतेराज़ जताने के लिए उक्त अस्पताल में धरने का प्रोग्राम बनाया। (111) जिस वक़्त आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई उस अस्पताल में धरने के लिए चले, बड़ी तादाद में आम लोग भी उनसे जुड़ गए और धरना देने वालों में शामिल हुए। (112) धरना देने वालों ने एक घोषणापत्र जारी किया जिसमें पहलवी शासन के तत्वों के अपराधों के उल्लेख के साथ ही उन्हें सज़ा दिए जाने की मांग की। (113) इसी तरह उन्होंने पहलवी शासन को उखाड़ फेंकने और इमाम ख़ुमैनी की वतन वापसी पर ज़ोर दिया। (114)

 

30 दिसम्बर 1978 का मशहद में प्रदर्शन

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई 30 दिसम्बर 1978 को मशहद के कुछ आंदोलनकारी धर्मगुरुओं के साथ लोगों की भीड़ की अगुवाई करते हुए प्रांत की मुख्य प्रशासनिक इमारत की ओर बढ़े ताकि इस प्रशासनिक इमारत के कर्मचारियों को भी क्रांति के आंदोलन से जोड़ें। यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण था और उसे पूरी तरह शांतिपूर्ण रखने की कोशिश के बावजूद, प्रशासनिक इमारत की रक्षा में तैनात पुलिस ने लोगों पर फ़ायरिंग कर दी। पुलिस के हमले के बाद प्रदर्शन कर रहे लोग बड़ी तादाद में सड़कों पर फैल गए और कुछ सरकारी इमारतों व केन्द्रों को आग लगा दी।

इस घटना की रात को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सहित मशहद के धर्मगुरुओं ने एक बैठक ताकि ऐसे उपायों की समीक्षा हो जिससे अगले दिन ख़ून-ख़राबा रोका जा सके मगर पहलवी शासन के तत्वों ने अगले दिन प्रदर्शन करने वालों का क़त्ले आम किया जिसके नतीजे में 31 दिसम्बर 1978 की त्रासदीपूर्ण घटना घटी। (115) इन घटनाओं के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सहित मशहद के क्रांतिकारी धर्मगुरुओं ने घटना की निंदा और आंदोलन जारी रखने के समर्थन में बयान जारी किए। (116)

क्रांति परिषद में सदस्यता

 

पहलवी शासन के पतन की प्रक्रिया तेज़ होने और इस्लामी क्रांति की कामयाबी की निशानियाँ ज़ाहिर होने के बाद इमाम ख़ुमैनी ने 12 जनवरी 1979 को इस्लामी क्रांति परिषद के गठन का फ़रमान जारी किया। (117) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से इस परिषद का सदस्य चुने जाने के बाद, जनवरी के ही महीने में मशहद से तेहरान के लिए रवाना हुए और रेफ़ाह मदरसे में ठहरे। उन्होंने आयतुल्लाह बहिश्ती, आयतुल्लाह मुतह्हरी, आयतुल्लाह मुफ़त्तेह सहित दूसरे क्रांतिकारियों के साथ इस्लामी क्रांति की सफलता को मंज़िल तक पहुँचाने और भविष्य की प्लानिंग से जुड़ी अहम ज़िम्मेदारी संभाली। (118) उन्होंने  इस्लामी क्रांति परिषद की तरफ़ से इमाम ख़ुमैनी का स्वागत करने वाली कमेटी के गठन के बाद (119) कमेटी के प्रचारिक मामलों की ज़िम्मेदारी संभाली।

 

तेहरान यूनिवर्सिटी की मस्जिद में धरना

 

शापूर बख़्तियार की सरकार के देश के हवाई अड्ड़ों को बंद करने और इमाम ख़ुमैनी की वतन वापसी पर रोक के आदेश के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई, आयतुल्लाह बहिश्ती सहित कुछ दूसरे अहम क्रांतिकारी धर्मगुरुओं के साथ, सरकार के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ तेहरान यूनिवर्सिटी की मस्जिद में धरने पर बैठ गए। बाक़ी धर्मगुरुओं, यूनिवर्सिटी के लोगों और आम लोगों के इस धरने में शामिल होने से यह धरना बहुत बड़ी शक्ल अख़्तियार कर गया। (120)

धरना शुरू होने से पहले वाली रात आयतुल्लाह बहिश्ती ने बहिश्ते ज़हरा (तेहरान के क़ब्रिस्तान) में स्पीच दी और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने उस प्रस्ताव को पढ़ कर सुनाया जिसे उन्होंने पहले से तैयार किया था, जिसके बाद तेहरान यूनिवर्सिटी में धरने का प्रोग्राम तय पाया। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धरने के दौरान एक कमेटी बनायी और कुछ क्रांतिकारी नेताओं के साथ अहम क़दम उठाए जिनमें स्पीच देना, बयान जारी करना और ‘धरना’ के नाम से पम्फ़्लेट छपवाना अहम क़दम थे। (121) धरना देने वालों ने 28 जनवरी 1979 को एक बयान में इमाम ख़ुमैनी के लिए एयरपोर्ट खुलने तक अपना धरना जारी रखने पर बल दिया। (122) इस धरने से जो 1 फ़रवरी 1979 तक जारी रहा, तेहरान यूनिवर्सिटी की मस्जिद क्रांति प्रक्रिया के प्रभावी केन्द्र में बदल गई। (123) 1 फ़रवरी 1979 को इमाम ख़ुमैनी की वतन वापसी के ऐतिहासिक क्षण के मौक़े पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई धर्मगुरुओं और क्रांतिकारियों के साथ इमाम ख़ुमैनी का स्वागत करने तेहरान के मेहराबाद हवाई अड्डे पहुँचे। 1 फ़रवरी से लेकर 11 फ़रवरी तक इस्लामी क्रांति की सफलता के 10 दिनों के दौरान आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई हर क्षण इमाम ख़ुमैनी के साथ थे और बहुत से मामलों में उनको सलाह भी देते रहे। भीतरी व बाहरी तत्वों के प्रोपैगन्डों व साज़िशों से इस्लामी सरकार के निपटने के लिए इमाम ख़ुमैनी के दफ़्तर की प्रचारिक कमेटी की ज़िम्मेदारी आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने संभाली थी। उन्होंने विभिन्न राजनैतिक दलों व गुटों के मौक़े से फ़ायदा उठाने की कोशिशों को नाकाम बनाने के लिए ख़बर तैयार करने और उसे छपवाने के लिए ‘इमाम’ के नाम से एक जरनल निकालने की ज़िम्मेदारी ली। आपने ख़ुद कई लेख लिख कर उसमें छपवाए। (124)

 

2.3 इस्लामी क्रांति की पहली दहाई: फ़रवरी 1979 से जून 1989 तक

1.2.3 राजनैतिक सरगर्मियां

क्रांति परिषद

 

इस्लामी व्यवस्था बनाने की प्रक्रिया के दौरान आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने जिन मैदानों में सबसे पहले काम किया उनमें एक इस्लामी क्रांति परिषद की सदस्यता और उसके काम थे। यह परिषद इमाम ख़ुमैनी के अक्तूबर 1978 में फ़्रांस निर्वासन, इस्लामी क्रांति कि सफलता की निशानी ज़ाहिर होने और इस्लामी आंदोलन के क्रांति के चरण में पहुँचने के बाद, इमाम ख़ुमैनी के नज़रिये से अक्तूबर महीने में ही गठित हुई और इसके सदस्य इमाम ख़ुमैनी के ज़रिए नियुक्त हुए लेकिन हालात के मद्देनज़र 12 जनवरी 1979 को आधिकारिक तौर पर इसकी स्थापना का एलान हुआ। (125)

इस परिषद में सबसे पहले जो लोग मिम्बर हुए वे जनाब मुर्तज़ा मुतह्हरी, जनाब सैयद मोहम्मद हुसैनी बहिश्ती, जनाब सैयद अब्दुल करीम मूसवी अर्दबीली, जनाब मोहम्मद रज़ा महदवी कनी, जनाब सैयद अली ख़ामेनेई, जनाब मोहम्मद जवाद बाहुनर और जनाब अकबर हाशेमी रफ़सन्जानी थे। इस परिषद के काम के सिलसिले में बाद में दूसरे लोग मिम्बर के तौर पर शामिल किए गए। (126) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इसकी स्थापना के कुछ दिनों बाद इसकी बैठकों में शामिल हुए। इस दौरान आंदोलन के बारे में अहम फ़ैसला लेने की ज़िम्मेदारी उनके कांधों पर थी। (127) इन ज़िम्मेदारियों में पहलवी शासन के अधिकारियों से बातचीत, अमरीका सहित विदेशी अधिकारियों से बातचीत और इमाम ख़ुमैनी के स्वागत के लिए कमेटी का गठन करने जैसी ज़िम्मेदारियां थीं। (128) क्रांति परिषद का, क्रांति की सफलता से पहले एक और अहम फ़ैसला, इमाम ख़ुमैनी को, महदी बाज़रगान का नाम अंतरिम सरकार के प्रमुख के तौर पर पेश करना था।(129)

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इस्लामी क्रांति परिषद के कांधों पर क्रांति की सफलता के बाद, कुछ अहम ज़िम्मेदारियां इस प्रकार थी: विधि पालिका का वजूद न होने तक क़ानून बनाना, अंतरिम सरकार और क्रांति परिषद के जून 1978 में एक हो जाने के बाद कार्यपालिका की कुछ अहम ज़िम्मेदारियों को अंजाम देना और 5 नवम्बर 1979 को अंतरिम सरकार के इस्तीफ़े के बाद, उसकी सभी ज़िम्मेदारियों को अंजाम देना।  इन अहम ज़िम्मेदारियों के साथ साथ इस क्रांति परिषद पर, नई इस्लामी व्यवस्था के सामने मौजूद चुनौतियों व मुश्किलों को दूर करने और इमाम ख़ुमैनी को मशविरा देने की ज़िम्मेदारी भी थी। (130) 20 जुलाई 1980 को क्रांति परिषद की सरगर्मी ख़त्म होने तक, इस परिषद के चार कार्यकाल के दौरान इसके सदस्य कई बार बदले लेकिन आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई हर कार्यकाल में स्थायी मेंबर के तौर पर बाक़ी रहे। (131) इस परिषद के कथित ‘उदारवादी’ सदस्यों के क्रांति के उद्देश्य से विरोधाभास रखने वाले नज़रिये के सामने डट जाना, फ़ौज और देश के सांस्कृतिक हल्क़ों में, क्रांति विरोधी तूदे पार्टी सहित दूसरी पार्टियों व गुटों के समर्थकों की पैठ को रोकने के लिए बारंबार चेतावनी देना, इस परिषद की बैठकों व फ़ैसलों में उनके अहम काम थे।(132)

उनका मानना था कि क्रांति परिषद में सभी तबक़ों के लोगों के प्रतिनिधि मौजूद हों। (133) कुर्दिस्तान, सीस्तान व बलोचिस्तान सहित दूसरे क्षेत्रों के मुद्दों और एकता की रक्षा इस्लामी क्रांति में उनके मद्देनज़र अहम विषय थे। उनका मानना था कि अंतरिम सरकार ने कुर्दिस्तान के मामले में कमज़ोरी दिखाई है इसलिए उसे विभिन्न तरीक़ों से हल होना चाहिए और दूसरे क्षेत्रों में उसके असर को फैलने से रोकना चाहिए था। (134) सीस्तान व बलोचिस्तान के बारे में भी उनकी ताकीद थी कि इस इलाक़े के लोगों की आर्थिक मुश्किलों को हल होना चाहिए और उनकी इस ताकीद के पीछे सीस्तान व बलोचिस्तान में उनके निर्वासन के दौरान हासिल तजुर्बा और इस क्षेत्र की राजनैतिक व सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी थी। (135) इस संबंध में 29 मार्च 1979 को इमाम ख़ुमैनी ने उन्हें एक प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई करते हुए इस क्षेत्र का दौरा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी ताकि वहाँ के लोगों के मामलों व मांगों की समीक्षा करें और इस इलाक़े के हालात के बारे में रिपोर्ट बनाएं। (136) इस दौरे में उन्होंने उक्त ज़िम्मेदारियों के अलावा, क्षेत्र के स्थानीय सरदारों व प्रभावी लोगों से मुलाक़ात की और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की नीतियों को उनके सामने बयान किया और इन नीतियों की व्याख्या की।

इस्लामी क्रांति संरक्षक बल आईआरजीसी और जेहाद जैसे क्रांतिकारी व लोक संगठनों की स्थापना का समर्थन और उन्हें मज़बूत बनाना, इस्लामी क्रांति परिषद में उनके अन्य काम अहम काम थे। (137)

 

राष्ट्रीय रक्षा मंत्रालय में क्रांतिकारी मामलों के डायरेक्ट

 

अंतरिम सरकार और क्रांति परिषद के जुलाई में विलय के बाद क्रांति के कुछ सदस्य अहम मंत्रालयों में काम करने लगे और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को रक्षा मंत्रालय में क्रांति के मामलों का डायरेक्टर बनाया गया। (138) इसी तरह क्रांति परिषद और अंतरिम सरकार के विलय के दौरान, जिसका मक़सद कार्यपालिका पर अधिक ध्यान देना था, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सुरक्षा कमीशन के मिम्बर नियुक्त हुए जो पुलिस, फ़ौज और सुरक्षा संस्थाओं से संबंधित मामलों को देख रहा था जिसमें गुंबद, कुर्दिस्तान और ख़ूज़िस्तान के संकटों की रोक-थाम और क्रांति विरोधी गुटों व दलों की गतिविधियों से निपटना शामिल था। (139)

 

आईआरजीसी के सुपरवाइज़र का पद

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को क्रांति परिषद की तरफ़ से जो ज़िम्मेदारियां सौंपी गयीं उनमें राष्ट्रीय आर्काइव और आईआरजीसी के सुपरवाइज़र की ज़िम्मेदारी थी और यह ज़िम्मेदारी उन्हें 24 नवम्बर 1979 को सौंपी गई। (140) वे इससे पहले भी क्रांति परिषद की तरफ़ से आईआरजीसी की कुछ बैठकों में शामिल होते रहे थे। आईआरजीसी के सुपरवाइज़र के तौर पर उनकी नियुक्ति की वजह, इस संस्था के भीतर कुछ मतभेद थे जो इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद पैदा हुए थे और मध्यस्थता की कोशिश के बावजूद हल नहीं हुए थे। (141) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई आम लोगों की भागीदारी से बनी फ़ोर्स ख़ास तौर पर आईआरजीसी से पक्के समर्थकों में गिने जाते थे। उन्होंने सुपरवाइज़र के पद पर रहते हुए मतभेदों को दूर करने के साथ ही इस संस्था को सुव्यवस्थित बनाया। उन्होंने 24 फ़रवरी 1980 को देश की संसद मजलिसे शूराए इस्लामी के पहले कार्यकाल के लिए होने वाले चुनाव में शामिल होने के लिए आईआरजीसी के सुपरवाइज़र के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। (142)

 

जुम्हूरी इस्लामी पार्टी की स्थापना

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले के दिनों में और कामयाबी मिलने का बाद भी क्रांति परिषद में रह कर और अंतरिम कार्यकाल में भी (143) क्रांति के मामलों को अंजाम देने के सिलसिले में सैयद मोहम्मद हुसैनी बहिश्ती, अकबर हाशेमी रफ़संजानी, सैयद अब्दुल करीम मूसवी अर्दबीली और मोहम्मह जवाद बाहुनर के साथ मिलकर प्रभावी रोल निभाने के अलावा, एक क्रांतिकारी संगठन बनाने के लिए भी कोशिश करते रहे। (144) इस संगठन ने 18 फ़रवरी 1979 को जुम्हूरी इस्लामी पार्टी के नाम से अपने मौजूदगी का आधिकारिक तौर पर एलान किया लेकिन इसकी नींव 1978 में गर्मी के मौसम में मशहद में होने वाली बैठकों में ही पड़ चुकी थी। उन बैठकों में कुछ क्रांतिकारी नेताओं ने, जो बाद में जुम्हूरी इस्लामी पार्टी के संस्थापक सदस्य बने, यह कोशिश की कि कोई ऐसा संगठन बने जो पहलवी शासन के ख़िलाफ़ सरगर्म रहे और क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करे। (145) इसी बुनियाद पर पार्टी ने क्रांति की कामयाबी से पहले के महीनों में अपनी अनौपचारिक सरगर्मियों के दौरान सभाएं व स्पीचें आयोजित कीं। इस संबंध में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की सरगर्मियां बिलकुल ज़ाहिर थीं। (146)

जुम्हूरी इस्लामी पार्टी के गठन के मक़सदों में नई इस्लामी व्यवस्था की रक्षा के लिए सुव्यवस्थित व नए सिस्टम के अभाव से पैदा हुए शून्य को भरना, क्रांति को बचाए रखने में मदद देना, जनता के बीच एकता की रक्षा और उसे लोक मंच पर सक्रिच रखना, इस्लामी गणराज्य के अहम स्तंभों का निर्माण, क्रांति के बाद इमाम ख़ुमैनी के ध्रुवीय हैसियत वाले रोल की रक्षा, जनता के मन में शुद्ध इस्लामी नज़रियों व विचारों को बिठाना, लोगों का हर क्षण राजनैतिक नज़र से मार्गदर्शन, इस्लामी क्रांति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कार्यकारी संस्थाओं को मानव संसाधन मुहैया करने में मदद देना और देशी व विदेशी दुश्मनों के हथकंडों व गुमराह करने वाली साज़िशों के मुक़ाबले में पूरी सच्चाई के साथ दो टूक रवैया अपनाना शामिल थे। (147) वह पार्टी का घोषणा पत्र तैयार करने वालों में शामिल थे। पार्टी के फ़ाउंडर मिम्बरों की ज़िम्मेदारी तय होने के चरण में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को प्रचारिक विभाग सौंपा गया। (148) वे पार्टी के फ़ाउंडर मिम्बर और उसकी केन्द्रीय कमेटी के सदस्य थे और कुल मिलाकर पार्टी के गठन की प्रक्रिया में उन्होंने प्रचारिक आयाम से ज़्यादा काम किया था। वे स्पीचों और पम्फ़लेटों के ज़रिए पार्टी का दृष्टिकोण बयान करते आए थे। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने मशहद में इस पार्टी की शाखा क़ायम करने में मुख्य रोल अदा किया और 17 मार्च 1979 को मशहद शाखा के दफ़्तर का उन्होंने शुभारंभ किया।

 

जुम्हूरी इस्लामी पार्टी के महासचिव का पद

 

आयतुल्लाह बहिश्ती और डॉक्टर बाहुनर पार्टी के पहले और दूसरे जनरल सेक्रेटरी बने, उसके बाद आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को सितम्बर 1981 में केन्द्रीय कमेटी की तरफ़ से पार्टी का जनरल सेक्रेटरी चुना गया। (149) सन 1980 की दहाई में इस्लामी क्रांति की कामयाबी के बाद से इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की बुनियादें मज़बूत हो जाने तक जुम्हूरी इस्लामी पार्टी सत्ता के गलियारों से बाहर रह कर व्यवस्था के मूल स्तंभ की हैसियत से सरगर्म रही और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के स्तंभों को मज़बूत करने में लगी रही। (150) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई जुम्हूरी पार्टी को नई इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के वुजूद की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी पार्टी मानते थे। पार्टी का पहला महासम्मेलन अप्रैल 1983 में हुआ और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को दूसरी बार पार्टी का जनरल सेक्रेटरी, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी (151) और पार्टी की मुंसिफ़ कमेटी का सदत्य चुना गया। (152) राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद भी आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई तेहरान और प्रांतों में पार्टी की बैठकों में शामिल होते थे और पार्टी के लक्ष्यों व कर्तव्यों को बयान करते और पार्टी की विभिन्न शाखाओं, दफ़्तरों और कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब दिया करते थे। (153)

दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद वह जुम्हूरी इस्लामी पार्टी के जनरल सेक्रेट्री भी बने रहे। उस वक़्त अनेक वजहों से जुम्हूरी इस्लामी पार्टी की सरगर्मियाँ सीमित हो गयीं, क्रांति के आरंभिक बरसों के संकट पर क़ाबू पा लिया गया था, इस्लामी गणराज्य की ज़रूरत के मुताबिक़ विभिन्न संस्थाएं क़ायम हो चुकी थीं और जुम्हूरी इस्लामी पार्टी ने उन संस्थाओं के गठन और उन्हें मज़बूत बनाने में प्रभावी योगदान दिया था, पार्टी की अहम हस्तियां आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई और जनाब हाशेमी रफ़संजानी इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के बहुत अहम स्तंभ, बहुत अहम मामलों में व्यस्त थे क्योंकि इसके कुछ फ़ाउंडर मिम्बर बाक़ी नहीं रहे थे। इमाम ख़ुमैनी इस बात पर नाराज़ थे कि जो पार्टी एकता क़ायम करने के लिए बनी थी वह धड़ेबंदी व फूट की वजह बन गई है। इस वजह से पार्टी के आरंभिक बरसों वाली उपयोगिता बाक़ी नहीं रही थी (154) इसलिए आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई और जनाब हाशेमी रफ़संजानी ने मई 1987 में इमाम ख़ुमैनी को एक ख़त लिखा और उसमें उक्त कारणों का ज़िक्र करते हुए और पार्टी के भीतर धड़े बंदी, मतभेदों के बहुत ज़्यादा बढ़ जाने और समाज की एकता के लिए ख़तरा पैदा हो जाने की वजह से पार्टी को भंग करने की सिफ़ारिश की। (155) इमाम ख़ुमैनी ने 1 जून 1987 को इस दरख़ास्त पर सहमति जतायी जिसके बाद पार्टी की उक्त सरगर्मियों को ख़त्म कर दिया गया। (156)

 

तेहरान के जुमे के इमाम की हैसियत से नियुक्ति

 

इमाम ख़ुमैनी ने 14 जनवरी 1980 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के उज्जवल अतीत और इल्मी व व्यवहारिक क़ाबिलियित की बुनियाद पर उन्हें तेहरान की जुमे की नमाज़ का इमाम नियुक्त किया। (157) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने तेहरान में जुमे की नमाज़ पहली बार 18 जनवरी 1980 को पढ़ाई। (158) उस दिन से 27 जून 1981 तक जब तेहरान की अबूज़र मस्जिद में आप पर जानलेवा हमला हुआ और आप गंभीर रूप से घायल हो गए, 10 फ़रवरी 1981 से 25 फ़रवरी 1981 तक 15 दिनों को छोड़ कर जिस दौरान आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई भारत के दौरे पर थे, नियमित तौर पर तेहरान में जुमे की नमाज़ की इमामत की। (159) उसके बाद से भी यह पद आपके पास ही है। जुमे की नमाज़ के संबंध में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की एक व्यवहारिक पहल यह थी कि आपने देश के भीतर और इस्लामी दुनिया में जुमे के इमाम के नेटवर्क में पूरी तरह समन्वय बनाने के लिए जुमे के सेमिनार का उपाय पेश किया। इमाम ख़ुमैनी की सहमति के बाद, पहला सेमिनार क़ुम के फ़ैज़िया मदरसे में हुआ, उसके बाद अनेक सेमिनार हुए। (160) उन्होंने जुमे की नमाज़ से पहले दी जाने वाली स्पीच को बेहतरीन व प्रभावी मंच में बदलते हुए इस्लामी गणराज्य के सैद्धांतिक व रणनैतिक स्टैडं को साफ़ तौर पर पेश किया, साथ ही समाज में राजनैतिक सूझ-बूझ और धार्मिक विचारों को फैलाने की बहुत कोशिश की। आप जुमे की नमाज़ की विशेष स्पीच अरबी ज़बान में भी देते और उसमें इस्लामी जगत को संबोधित करते थे।

 

संसद मजिलसे शूराए इस्लामी की सदस्यता

 

फ़रवरी 1980 में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पहली संसद में उम्मीदवार के तौर पर खड़े हुए। इमाम ख़ुमैनी का अनुसरण करने वीली पार्टियोँ ने, जिनमें तेहरान की क्रांतिकारी धर्मगुरुओं की अंजुमन, जुम्हूरी इस्लामी पार्टी और कई दूसरी इस्लामी संस्थाओं व संगठनों का गठबंधन ने संसदीय चुनाव में उनका समर्थन करने का एलान किया। (161) वह तेहरान निर्वाचर क्षेत्र से चुनाव जीत कर संसद पहुँचे। संसद में वह रक्षा मामलों के आयोग के सदस्य व अध्यक्ष थे। इस आयोग की अध्यक्षता के दौरान अहम विषयों, प्रस्तावों और बिलों पर चर्चा हुई जिनमें आईआरजीसी फ़ोर्स में रंगरूटों की भर्ती की ज़रूरतों को पूरा करने, ‘बसीजे मुस्तज़अफ़ीन’ नामी स्वयंसेवी बल का आईआरजीसी में विलय, कुर्दिस्तान का मुद्दा, सरहदी मामले, बलोचिस्तान का मुद्दा और फ़ौज को दोबारा संगठित करने जैसे मुद्दे उल्लेखनीय थे। (162) संसद के सदस्य के तौर पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने जो निर्णायक स्टैंड लिए उनमें उनकी ठोस तर्कों पर आधारित स्पीच की ओर इशारा किया जा सकता है जिसमें उन्होंने बनी सद्र में राष्ट्रपति पद के लिए राजनैतिक सूझबूझ न होने से संबंधित प्रस्ताव का समर्थन किया था। (163) 22 सितम्बर 1980 को ईरान-इराक़ जंग शुरू हुई तो आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई जंग के मोर्चे पर नियमित रूप से हाज़िर रहे जिसकी वजह से संसद की बैठकों में उनकी मौजूदगी कम होती थी। 27 जून 1981 को बुरी तरह घायल होने के बाद, वे कुछ ख़ास मौक़ों पर संसद के सत्र में नज़र आए। मेहर 1360 हिजरी शम्सी बराबर सितम्बर 1981 को राष्ट्रपति चुने जाने के बाद, आयतुल्लालिह उज़मा ख़ामेनेई ने संसद की सदस्यता छोड़ दी।

 

पवित्र प्रतिरक्षा की सरगर्मियों में भागीदारी

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने ईरान-इराक़ जंग शुरू होने के कुछ घंटों में ही जंग के मामलों को सुपरवाइज़ करना शुरू किया। ईरान की सरज़मीन पर हमले शुरू होने के कुछ ही घंटों बाद उन्होंने ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ के हमले के बारे में एक बयान तैयार किया और रेडियो के ज़रिए लोगों तक पहुँचाया। (164) जंग शुरू होने के दूसरे दिन फ़ौज की संयुक्त कमान की बैठक हुई जिसमें इराक़ी हमलों का जवाब देने के तरीक़ों की समीक्षा हुई। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इस बैठक में भाग लिया। बैठक में यह तय पाया कि जंग के हालात की समीक्षा के लिए एक शख़्स जंग के मोर्चे पर जाए। इस सुझाव को सबसे पहले उन्होंने क़ुबूल किया। (165) इमाम ख़ुमैनी से इजाज़त लेने के बाद वे 27 सितम्बर 1980 को फ़ौजी वर्दी में जंग के मोर्चे पर पहुँचे (166) ताकि मोर्चे के हालात और इराक़ी फ़ौज के हमलों की ज़द पर आने वाले इलाक़ों में ईरानी फ़ोर्सेज़ के पास मौजूद संसाधनों के बारे में रिपोर्ट तैयार करें ताकि दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए फ़ौजियों को संगठित करने की प्रक्रिया में मदद मिले। (167) इस उद्देश्य के लिए वे दक्षिणी मोर्चे की ओर रवाना हुआ। सन 1981 में बहार के मौसम के मध्य तक वे इसी मोर्चे पर मौजूद रहे। उसके बाद आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पश्चिमी मोर्चे पर पहुँचे और वहाँ नियमित रूप से मौजूद रहे। सिर्फ़ तेहरान में जुमे की नमाज़ पढ़ाने, इमाम ख़ुमैनी को रिपोर्ट पेश करने और अहम बैठकों में शामिल होने या स्पीच के लिए ही वहाँ से हटते थे। (168) वे कई बड़ी फ़ौजी कार्यवाहियों या उसकी योजना बनाने में शामिल रहे। स्वयंसेवी बल ‘बसीज’ और आईआरजीसी फ़ोर्स के लिए हथियारों और दूसरी ज़रूरी चीज़ों को पूरा करना, जंग के मौदान में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की दूसरी अहम सरगर्मियां थीं। जंग के मोर्चे पर उनका ज़्यादातर वक़्त गोरिला वॉर की कमान में कार्यवाहियों की योजना बनाने, उसका सपोर्ट व दिशा निर्देश करने में गुज़रा। यह कमान शहीद मुस्तफ़ा चमरान ने बनायी थी। (169) उस कमान का एक अहम काम जिसमें आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सीधे तौर पर शामिल थे, टैंकों का शिकार करने वाले स्पेशल फ़ौजी दस्तों का गठन था। उन्होंने ख़ुर्रमशहर, आबादान और सोसनगिर्द के मोर्चों को रसद पहुँचाने में बहुत प्रभावी योगदान दिया। साथ ही आईआरजीसी फ़ोर्स, बसीज नामी स्वयंसेवी फ़ोर्स को मज़बूत करने और उसकी तकनीकी व हथियारों की ज़रूरतों पर नज़र रखने और उन्हें पूरा करने में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का योगदान बहुत अहम था। (170) इसके अलावा जंग के मैदान और मोर्चों पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का एक और अहम रोल आईआरजीसी तथा सेना के बीच समन्वय क़ायम करना था। (171)

 

रक्षा मामलों की सुप्रीम काउंसिल में इमाम ख़ुमैनी के प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्ति

 

12 अक्तूबर 1980 को रक्षा मामलों की सुप्रीम काउंसिल को जंग के सभी मामले सौंप दिए गए (172) और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई, इमाम ख़ुमैनी के आदेश के मुताबिक़, 10 मई 1980 से ही इस काउंसिल में इमाम ख़ुमैनी के प्रतिनिधि (173) और काउंसिल के प्रवक्ता थे। (174) इस दौरान वह जंग के मामलों में इमाम ख़ुमैनी के सलाहकार भी थे। (175) रक्षा मामलों की सुप्रीम काउंसिल की बैठकों के ख़त्म होने पर वे आम तौर पर संस्था के फ़ैसलों और चर्चित मुद्दों पर प्रेस कॉन्फ़्रेंस करते और काउंसिल के फ़ैसलों से जनता को सूचित करते थे। (176)

 

आबादान की नाकाबंदी तोड़ने वाला ऑप्रेशन

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई आबादान की नाकाबंदी तोड़ने वाले ऑप्रेशन में शामिल थे (177) और ख़ुर्रमशहर के बारे में उनका मानना था कि अगर सही रणनीति अपनायी जाए तो उसे दुश्मन के हाथों में जाने से बचाया जा सकता है। इस बारे में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति व सशस्त्र बल के सुप्रीम कमांडर अबुल हसन बनी सद्र को एक ख़त लिख कर सचेत किया कि ख़ुर्रमशहर के चारों ओर बक्तरबंद गाड़ियों की दो ब्रिगेड तैनात कर दी जाए तो शहर को दुश्मन के क़ब्जे में जाने से बचाया जा सकता है लेकिन बनी सद्र ने इस पर ध्यान नहीं दिया। (178)

जंग शुरू होने के कुछ दिन बाद कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और विदेशी अधिकारियों ने दोनों देशों के बीच सुलह की कोशिश शुरू की। इस संबंध में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का स्टैंड यह था कि जब तक इराक़, ईरान की मूल शर्तों यानी अंतर्राष्ट्रीय सरहदों तक पीछे नहीं हटता, नुक़सान की भरपाई नहीं करता और हमला शुरू करने वाले के ख़िलाफ़ सज़ा के लिए तैयार नहीं होता, उस वक़्त तक कोई सुलह न की जाए और अगर इराक़ इन शर्तों को नहीं मानता तो हम अपनी रक्षा ताक़त के बल पर अपनी सरज़मीन से उसे बाहर निकालेंगे। उनका कहना था कि थोपी गई सुलह, जंग से भी बुरी चीज़ है। (179) फिर भी सुलह की कोशिश करने वाले प्रतिनिधिमंडलों की आवाजाही को वह फ़ायदेमंद समझते थे कि इस तरह ईरानी जनता के ख़िलाफ़ सद्दाम और उसकी फ़ौज के अपराधों के अनेक पहलू सामने आ रहे हैं और ईरान की मज़लूमियत और सद्दाम की आक्रामकता साबित हो रही है। (180)

 

जंग, राष्ट्रपति काल की सबसे अहम चुनौती

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के राष्ट्रपति काल में जंग, देश का सबसे अहम मसला था। 1981 से लेकर 1985 तक जंग के मैदान में बहुत बदलाव हुए। जंग के मोर्चे पर ईरान का पलड़ा भारी हो गया। ज़्यादातर उन इलाक़ों से इराक़ी फ़ौजियों को बाहर भगा दिया गया जिन पर उनका क़ब्ज़ा था। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सहित देश के बड़े अधिकारियों की आपसी सहमति के नतीजे में कई बड़े अहम फ़ौजी ऑप्रेशन किए गए। उस दौरा आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई रक्षा मामलों की सुप्रीम काउंसिल के अध्यक्ष भी थे। जंग के मैदान के इन बदलाव के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कूटनीति के मैदान में भी ईरान की सरगर्मियों का दायरा भी बहुत फैला। दो राष्ट्रपति काल के 8 साल की मुद्दत में 7 साल आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने जिनमें जंग जारी थी, अपनी विदेशी वार्ताओं का बड़ा भाग, अंतर्राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व इस्लामी संस्थाओं के प्रतिनिधिमंडलों और क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी हस्तियों से बातचीत की शक्ल में अंजाम दिया जो मेल-जोल कराने की कोशिश कर रही थीं। राष्ट्रपति के काल में इमाम ख़ुमैनी ने चूंकि जंग के मोर्चे पर जाने की इजाज़त नहीं दी, इसलिए वह निगरानी के लिए मोर्चों पर जाते थे, फिर भी जंग के आख़िरी चरणों में और प्रस्ताव 598 क़ुबूल किए जाने के बाद, मोर्चों की बुरी हालत की वजह से वह मजबूर हो गए कि इमाम ख़ुमैनी से इजाज़त लें और बुनियादी बदलाव के लिए जंग के मोर्चे पर जाएं।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई राष्ट्रपति काल के दौरान जंग के गठित रसद परिषद के भी अध्यक्ष थे। यह परिषद सन 1986 में जंग की ख़ास स्थिति के मद्देनज़र बनायी गई थी ताकि देश के संसाधनों को रक्षा मामलों में बेहतरीन तरीक़े से इस्तेमाल किया जा सके, जंग के मैदान की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए संसाधनों और जवानों को सुव्यवस्थित अंदाज़ में इस्तेमाल किया जाए। (181) 8 फ़रवरी 1988 को रसद परिषद की ओर से पूछे गए सवाल के जवाब में इमाम ख़ुमैनी ने आदेश जारी किया कि जंग के ख़त्म होने तक इस परिषद के फ़ैसले पर अमल ज़रूरी है। (182)

सन 1988 में गर्मी के मौसम में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के राष्ट्रपति काल के आख़िरी साल में ईरान की तरफ़ से सेक्युरिटी काउंसिल के प्रस्ताव 598 को क़ुबूल किए जाने के बाद, ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ की ओर से थोपी गई जंग अपने अंत को पहुँची। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 598 को क़ुबूल करने का फ़ैसला 17 जुलाई 1988 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की अध्यक्षता में उच्च अधिकारियों की बैठक में किया गया और इमाम ख़ुमैनी ने भी इस पर सहमति दी। (183) इमाम ख़ुमैनी ने ईरानी राष्ट्र के नाम पैग़ाम में प्रस्ताव 598 को क़ुबूल किए जाने को बहुत कड़ुवा घूंट बताया जो सिर्फ़ क्रांति और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के हितों के लिए पिया गया। उन्होंने कहाः “इस मामले को क़ुबूल करना मेरे लिए ज़हर का प्याला पीने से ज़्यादा घातक है लेकिन अल्लाह की मर्ज़ी पर राज़ी होकर और उसकी ख़ुशी के लिए यह घूंट मैंने गले के नीचे उतारा है ... इस प्रस्ताव को क़ुबूल करने का फ़ैसला ईरान के अधिकारियों ने सिर्फ़ अपनी मर्ज़ी से किया है, किसी और शख़्स या देश का इसमें कोई दख़ल नहीं था।” (184) इस फ़ैसले के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने राष्ट्रपति की हैसियत से 18 जुलाई 1988 को तत्कालीन यूएन जनरल सेक्रेट्री ख़ावियर पेरेज़ डेकोइयार को ख़त लिख कर यूएन के प्रस्ताव 598 पर ईरान की सहमति का एलान किया। (185)

 

2.2.3 प्रवचन व प्रचारिक सरगर्मियाँ

 

इस्लामी क्रांति की कामयाबी के बाद, राष्ट्रपति चुने जाने तक आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की राजनैतिक व धार्मिक सरगर्मियों का बड़ा हिस्सा इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की बुनियादों को मज़बूत करने के लिए प्रवचन व प्रचार के मामलों से जुड़ा रहा।

 

धार्मिक स्टूडेंट्स से आयतुल्लाह ख़ामेनेई से संपर्क करने की इमाम ख़ुमैनी की सिफ़ारिश

आयतुल्लाह मुर्तज़ा मुतह्हरी की शहादत के बाद, धार्मिक स्टूडेंट्स के बीच और यूनिवर्सिटियों में जो शून्य पैदा हो गया था, उसे देखते हुए इमाम ख़ुमैनी ने 13 जून 1979 को धार्मिक स्टूडेंट्स से ख़िताब में आयतुल्लाह ख़ामेनेई को बहुत ही समझदार शख़्स, अच्छा वक्ता, स्टूडेंट्स के आस्था संबंधी मामलों तथा इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के विरोधी गुटों ख़ास तौर पर यूनिवर्सिटियों के भीतर मार्कस्वादी नज़रिये के समर्थक गुटों से निपटने के लिए उचित स्रोत क़रार दिया। (186) उस दिन के बाद से वे 22 सितम्बर 1980 को ईरान-इराक़ जंग का आग़ाज़ होने तक हर सोमवार को तेहरान यूनिवर्सिटी की मस्जिद में स्टूडेंट्स के बीच जाते, दोपहर की नमाज़ पढ़ाते, स्पीच देते और उनके अहम मामलों के बारे में सवालों के जवाब देते थे। इस तरह की सभाएं तेहरान की दूसरी अहम मस्जिदों में भी होने लगीं। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पर अबूज़र मस्जिद में जानलेवा हमला इसी तरह की एक सभा में हुआ था। (187)

 

संविधान से संबंधित माहिर लोगों की काउंसिल को भंग किए जाने का विरोध

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का एक और अहम क़दम यह था कि आपने संविधान से संबंधित माहिर लोगों की काउंसिल को, जो गठित होने के चरण में थी, अंतरिम सरकार के कुछ सदस्यों की इसे भंग करने की कोशिशों को रुकवाया। अंतरिम सरकार के पंद्रह मंत्रियों और सदस्यों के दस्तख़त से एक ख़त तैयार तैयार हो गया था और यह फ़ैसला किया गया था कि इमाम ख़ुमैनी को इसकी जानकारी देने से पहले ही उक्त काउंसिल को भंग करने का आम एलान कर दिया जाए। अगर इमाम ख़ुमैनी इसका विरोध करें तो सामूहिक तौर पर सब इस्तीफ़ा दे दें। (188) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई मंत्रिमंडल की बैठकों में क्रांति परिषद का प्रतिनिधित्व करते थे। जब इस ख़त पर बैठक के दौरान चर्चा हुई तो उन्होंने बड़ी कड़ाई से इसका विरोध किया और इसे सार्वजनिक करने से पहले इमाम ख़ुमैनी को सूचित किए जाने पर ताकीद की। इमाम ख़ुमैनी को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने परिषद को भंग करने के फ़ैसले का विरोध किया और इसकी सरगर्मियां जारी रहने पर ताकीद की। (189)

 

भारत का दौरा

 

इस्लामी क्रांति की दूसरी सालगिरह पंद्रहवी शताब्दी हिजरी क़मरी के आग़ाज़ पर पड़ी। इस मौक़े पर इस्लामी प्रचार सुप्रीम काउंसिल के फ़ैसले के मुताबिक़, इस्लामी गणराज्य से दुनिया के अनेक देशों के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजे गए ताकि वे विभिन्न क़ौमों ख़ास तौर पर मुसलमानों को इस्लामी गणराज्य के स्टैंड और इस्लामी क्रांति की ख़ूबियों के बारे में बताएं। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने भारत जाने वाले शिष्टमंडल की अगुवाई की। उन्होंने फ़रवरी 1981 में दो हफ़्ते नई दिल्ली, हैदराबाद, बैंगलुरू (190) जैसे शहरों और कश्मीर (191) में गुज़ारे और वहाँ अपनी स्पीचों, मुलाक़ातों, बातचीत और इंटरव्यूज़ में ख़ास तौर पर मीडिया, स्टूडेंट्स, यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसरों, इस्लामी व शिया संगठनों व हस्तियों से अपनी बातचीत में ईरान की इस्लामी क्रांति और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की अस्ली तस्वीर पेश की और ईरान के अहम मुद्दों की व्याख्या की जिसमें इराक़ की ओर से थोपी गई जंग का मुद्दा भी शामिल था। (192) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने भारतीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से भी, जो विश्व स्तर पर अच्छी साख रखती थीं, मुलाक़ात की। (193)

 

लिब्रल नज़रिये के समर्थकों और बनी सद्र से मुक़ाबला

 

इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद के शुरुआती बरसों में ईरानी समाज का सबसे अहम मुद्दा देश की राजनैतिक व्यवस्था में दो धड़ों में बंटे लोगों की सरगर्मियाँ थी। एक धड़ा इमाम ख़ुमैनी के मत के मानने वालों का था और दूसरे धड़े में लिब्रल नज़रिये के समर्थक लोग थे। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सहित इमाम ख़ुमैनी के निकटवर्ती ज़्यादातर लोग, सलाहकार और समर्थक, इमाम ख़ुमैनी के मत के अनुयायी थे। लिब्रल धड़े का सबसे मशहूर चेहरा अबुल हसन बनी सद्र था, जो इमाम ख़ुमैनी के मत के मानने वालों से बुनियादी तौर पर मतभेद रखता था। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई बनी सद्र को इस हल्क़े का प्रतिनिधि मानते थे जो देश के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच मतभेद व टकराव पैदा करना तथा समाज में फूट डालना चाहता था। (194) बनी सद्र और उसके समर्थक हल्क़े से मूल रूप से मतभेद होने के बावजूद, समाज में एकता और इस संबंध में इमाम ख़ुमैनी की ताकीद को मद्देनज़र रखते हुए, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अपने मतभेदों को कभी भी खुले आम लोगों के बीच ज़ाहिर नहीं किया। कुछ मामलों में वे फ़ैसले के लिए इमाम ख़ुमैनी के पास जाते थे। जब बनी सद्र इस्लामी क्रांति और संविधान के मूल्यों से पूरी तरह भटक गया और 20 जून 1981 को संसद (मजलिसे शूराए इस्लामी) में राष्ट्रपति के पद के लिए राजनैतिक नज़र से बनी सद्र के अयोग्य होने का प्रस्ताव पेश हुआ तो आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इस प्रस्ताव के पक्ष में एक बड़ी स्पीच दी। (195) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 1979 से 22 जून 1981 तक अनेक मौक़ों पर लिब्रल धड़े और राष्ट्रवादी कहे जाने वाले धड़े के ख़िलाफ़ बहुत ही सख़्त स्टैंड लिया था। उन्होंने देश के भीतर अमरीका के सैन्य सलाहकार कार्यालय को बाक़ी रखने और अंतरिम सरकार की ओर से सिर्फ़ इसका नाम बदल दिए जाने का विरोध किया। (196) मंत्रियों और सलाहकारों की नियुक्ति के संबंध में, सरकारी विभागों व कार्यालयों को भ्रष्ट लोगों से पाक करने के मक़सद से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने ऐसे लोगों की नियुक्ति का विरोध किया जो क्रांति के मूल्यों पर नहीं चलना चाहते थे, अमरीका से हाथ मिलाने के विचार के समर्थक थे या रूढ़िवादी अरब देशों से संबंधों का समर्थन करते थे। (197)

 

3.2.3 आतंकवादी संगठन एमकेओ की ओर से जानलेवा हमला

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई 27 जून 1981 को दक्षिणी तेहरान की अबूज़र मस्जिद में दोपहर (ज़ोहरैन) की नमाज़ के बाद स्पीच दे रहे थे कि एक टेप रिकॉर्डर में फ़िट किए गए बम का धमाका हुआ जिसमें वे गंभीर रूप से घायल हो गए। (198) इस मौक़े पर इमाम ख़ुमैनी ने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाम संदेश में आपको सराहा और आप पर हुए जानलेवा हमले की निंदा की। (199) इस जानलेवा हमले में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का सीना, सीधा हाथ और बाज़ू बुरी तरह ज़ख़्मी हुआ। ग़ैर सरकारी रिपोर्टों में बताया गया कि इस हमले के पीछे आतंकवादी संगठन एमकेओ का हाथ था। (200) बनी सद्र को राष्ट्रपति और सशस्त्र बल के सुप्रीम कमांडर के पद से हटाए जाने के बाद, हमलों और टार्गेट किलिंग का जो सिलसिला शुरू हुआ उसका पहला निशाना आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई बने। 9 अगस्त 1981 को वे अस्पताल से डिस्चार्ज हुए और फिर से राजनीति के मैदान सरगर्म हो गए। 17 अगस्त 1981 से संसद के सेशन में भाग लेने लगे। (201)

 

3.3 राष्ट्रपति का कार्यकाल

 

पहले राष्ट्रपति काल में 95 फ़ीसदी वोट से राष्ट्रपति चुने गए

इस्लामी गणराज्य ईरान के दूसरे राष्ट्रपति मोहम्मद अली रजाई की शहादत के बाद जुम्हूरी इस्लामी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी और क़ुम धार्मिक केन्द्र की शिक्षक सोसायटी ने एकमत होकर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया हालांकि ख़ुद आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इसके लिए तैयार नहीं थे। इमाम ख़ुमैनी ने, जो इससे पहले तक राष्ट्रपति के पद के लिए किसी धर्मगुरू के चयन से सहमत नहीं थे, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की उम्मीदवारी का समर्थन किया। (202)

उम्मीदवार बनने और संविधान तथा संसद से पास होने वाले क़ानून की निगरानी करने वाली परिषद की तरफ़ से योग्यता की पुष्टि होने के बाद, विभिन्न गुटों व हस्तियों ने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के समर्थन का एलान किया। आयतुल्लाहो ख़ामेनेई का सबसे बड़ा समर्थक “नीरूहाए ख़त्ते इमाम” यानी इमाम ख़ुमैनी के दिशा निर्देश पर चलने वाली फ़ोर्सेज़ कहलाने वाली पार्टियों का गठबंधन था। (203) 2 अक्तूबर 1981 को चुनाव हुए और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई 95.11 फ़ीसदी वोटों से राष्ट्रपति चुने गए। (204) 9 अक्तूबर 1981 को इमाम ख़ुमैनी ने उन्हें मिलने वाले जनादेश की पुष्टि की (205) और 13 अक्तूबर को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने संसद में इस्लामी गणराज्य ईरान के तीसरे राष्ट्रपति की हैसियत से शपथ ली। (206)

19 अक्तूबर 1981 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने डॉक्टर अली अकबर विलायती का नाम, जो जुम्हूरी इस्लामी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य और “नीरूहाए ख़त्ते इमाम” गठबंधन में शामिल थे, प्रधान मंत्री के पद के लिए संसद में पेश किया (207) मगर 22 अक्तबूर को संसद में जब उनके नाम पर वोटिंग हुई तो बहुमत नहीं मिला। (208) 26 अक्तूबर 1981 को प्रधान मंत्री पद के लिए संसद में मीर हुसैन मूसवी का नाम पेश किया जो जुम्हूरी इस्लामी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य, जुम्हूरी इस्लामी अख़बार के चीफ़ एडिटर और शहीद रजाई, शहीद बाहुनर और महदवी कनी की सरकारों में विदेश मंत्री रह चुके थे। (210) 28 अक्तूबर 1981 को मीर हुसैन मूसवी को इस पद के लिए संसद में बहुमत मिल गया। (211)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अपने राष्ट्रपति काल का आग़ाज़ ऐसी हालत में किया कि राष्ट्रपति कार्यालय की पोज़ीशन पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी। क़ानूनी ज़िम्मेदारी, पद की ज़िम्मेदारी अदा करने में राष्ट्रपति की मदद के लिए वर्किंग कमेटियां और सलाहकारों की टीमें गठित नहीं हो पायी थीं, जिसकी वजह से राष्ट्रपति का काम बहुत कठिन था। धीरे-धीरे राष्ट्रपति के कार्यालय में कुछ सलाहकारों की नियुक्ति और कमेटियों के गठन का काम हुआ। (212) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने शुरू में कुछ वक़्त राष्ट्रपति कार्यालय और राष्ट्रपति भवन में सुधार और इसके स्टाफ़ को पूरा करने में लगाया। इसके बाद राष्ट्रपति की ज़िम्मेदारियों, ख़ास तौर पर प्रधान मंत्री के काम और अधिकारों के संबंध में मौजूद अस्पष्ट बिन्दुओं को दूर करने के लिए जो पहले दौर में साफ़ तौर पर नज़र आए, राष्ट्रपति के क़ानूनी अधिकार तय करने के लिए बिल तैयार हुआ जो 6 मई 1986 को संसद में पास हुआ। (213)

पहले राष्ट्रपति काल के चार साल के दौरान आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का एजेंडा थोपी गई जंग के मामलों पर ख़ास तौर पर ध्यान देना, वंचित और राजधानी से दूर इलाक़ों और लोगों की स्थिति को बेहतर बनाने पर आधारित आर्थिक नीतियां बनाना, लोगों के सामाजिक, राजनैतिक व विभागीय जीवन के सभी पहलुओं पर शाही दौर के चढ़े हुए रंग व आदतों को पाक करना, तकनीक से लेकर कला तक जो भी मानवीय क्षमताएं हैं, उनका इस्तेमाल करना, लोगों को प्रभावी सेवा देने के लिए सामाजिक, विभागीय और न्यायिक सेक्युरिटी को सुनिश्चित करना, इस्लामी गणराज्य व्यवस्था से वफ़ादारी रखने वाले सभी लोगों को चाहे वे किसी भी विचार के हों, आज़ादी और सेक्युरिटी मुहैया करना शामिल था। (214) दूसरे राष्ट्रपति काल में भी आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने पहले कार्यकाल के प्रोग्रामों को जारी रखा जिसमें सबसे अहम थोपी गई जंग के मामले थे, राष्ट्रपति के अधिकारों से संबंधित बिल बनाना, जनता की भागीदारी को बढ़ाने के लिए निजीकरण पर ध्यान, सरकार में क्रांतिकारी, योग्य व उपयोगी लोगों की पदों पर नियुक्ति, समाज और जनता के जीवन में लंबे समय से मौजूद ग़रीबी को दूर करने की कोशिश, लोगों को खेतिहर भूमि का आवंटन, सरकार के अधीन उद्योगों को कोआप्रेटिव विभाग के हवाले करना, कर्मचारियों को कारख़ानों के शेयर दिलाना, ग़ैर पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के निर्यात को बढ़ावा देना, तेल की आय पर निर्भरता को कम करना, सरकार की निगरानी में देश में आर्थिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक मामलों में जनता की भागीदारी, देश की संस्कृति को एक आज़ाद व स्वाधीन संस्कृति की ओर ले जाना, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के एजेंडे की प्राथमिकताएं थीं। (215)

विदेश नीति और दूसरे देशों से संबंध के बारे में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की स्ट्रैटिजी हर देश के संबंध में स्वाधीन व संतुलित नीति अपनाने, देश और इस्लामी व्यवस्था के हितों के मद्देनज़र पूरी दृढ़ता से फ़ैसला करने, पूरब या पश्चिम की किसी ताक़त पर निर्भर न होने, (216) दुनिया के मुसलमानों के बीच एकता को ख़ास तौर पर अहमियत देने, दुनिया की बड़ी ताक़तों से मुसलमानों के अधिकारों को वापस लेने, क्षेत्र में सुपर पावरों की हर वर्चस्ववादी कार्यवाही का तुरंत मुक़ाबला करने, बैतुल मुक़द्दस सहित फ़िलिस्तीन के दूसरे छीने गए क्षेत्रों के मुद्दे पर पूरी गंभीरता से ध्यान देने, ज़ायोनी दुश्मन से हर आयाम से मुक़ाबला करने के लिए पूरी तैयारी करने, दुश्मनों और लूट-खसोट करने वाली ताक़तों के वर्चस्व की रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अस्ल व शुद्ध इस्लामी संस्कृति की बहाली तथा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रभावी सरगर्मियों को बढ़ावा देने की थी। (217)

 

दूसरा राष्ट्रपति काल

 

पहले राष्ट्रपति काल में प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल के कुछ दूसरे सदस्यों के साथ मतभेद के मद्देनज़र आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन जब इमाम ख़ुमैनी ने इसे उनका धार्मिक फ़रीज़ा क़रार दिया तो आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने फ़ैसला किया कि दूसरे राष्ट्रपति काल के लिए इलेक्शन लड़ेंगे। इसके साथ ही उन्होंने इमाम ख़ुमैनी से निवेदन किया कि प्रधान मंत्री की नियुक्ति के पूरे अधिकार उन्हें दिए जाएं जिसे इमाम ख़ुमैनी ने क़ुबूल कर लिया। (218)

दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने बाद, प्रधान मंत्री की नियुक्ति का जब वक़्त आया तो पता चला कि आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई देश के संचालन के मामलों में प्रधान मंत्री की शैली से संतुष्ट नहीं थे इसलिए प्रधान मंत्री के लिए किसी और का नाम पेश करना चाहते हैं, तो फ़ौज के कुछ अधिकारियों ने इमाम ख़ुमैनी से निवेदन किया कि जंग के मोर्चों पर प्रगति का सिलसिला जारी रखने के लिए ज़रूरी है कि इंजीनियर मूसवी को दोबारा प्रधान मंत्री बनाया जाए। इमाम ख़ुमैनी ने जंग के हालात के मद्देनज़र, इस निवेदन को क़ुबूल कर लिया और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से कहा कि इंजीनियर मीर हुसैन मूसवी का नाम प्रधान मंत्री पद के लिए पेश करें। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी के आदेश पर अमल करते हुए मीर हुसैन मूसवी का नाम संसद में पेश किया। (219) दूसरे राष्ट्रपति काल में राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री में मतभेद जारी रहे और मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति के मौक़े पर मतभेद ज़्यादा खुल कर सामने आए। 

 

3.3.1 राष्ट्रपति काल में राजनैतिक, सांस्कृतिक व इल्मी सरगर्मियां

 

सांस्कृतिक क्रांति के सिस्टम में सुधार

इमाम ख़ुमैनी के हुक्म के मुताबिक़ 30 अगस्त 1983 को सांस्कृतिक क्रांति आयोग में बुनियादी सुधार की ज़िम्मेदारी आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने संभाली। यूनिवर्सिटियों को दुबारा खोलने के संबंध में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के सवाल के जवाब में इमाम ख़ुमैनी ने यह हुक्म जारी किया। (220) सांस्कृतिक क्रांति आयोग में दूसरी बुनियादी तब्दीली 10 दिसम्बर 1984 को जारी होने वाले इमाम ख़ुमैनी के संदेश की बुनियाद पर अंजाम दी। (221) इस बदलाव के मुताबिक़, सांस्कृतिक क्रांति आयोग का नाम बदल कर सर्वोच्च सांस्कृतिक क्रांति आयोग हो गया और राष्ट्रपति को इसका अध्यक्ष बना दिया गया। जून 1989 को राष्ट्रपति का कार्यकाल ख़त्म होने तक आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई इस आयोग के अध्यक्ष रहे और इन बरसों के दौरान देश की इल्मी व सांस्कृतिक नीतियां बनाने में प्रभावी योगदान देते रहे। (223)

 

सरगर्म कूटनीति व विदेश नीति

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के राष्ट्रपति के दो कार्यकालों के दौरान विदेश नीति और कूटनीति में नई रफ़्तार आयी। विदेश नीति और संबंधों का दायरा बढ़ाने की साफ़ मिसाल राष्ट्रपति के रूप में विभिन्न देशों के उनके दौरे थे जो संबंधों को बढ़ावा देने के लिए किए गए। यह सिलसिला पहले राष्ट्रपति कार्यकाल में शुरू हुआ और दूसरे कार्यकाल में इसका दायरा बहुत फैला। (224) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने पहले राष्ट्रपति कार्यकाल में 6 सितम्बर से 11 सितम्बर 1984 के दौरान सीरिया, लीबिया और अल्जीरिया के दौरे किए और दूसरे कार्यकाल में 13 जनवरी से 23 जनवरी 1986 के दौरान, पाकिस्तान जैसे एशियाई और तंज़ानिया, ज़िम्बाब्वे, अंगोला तथा मोज़ाम्बिक जैसे अफ़्रीक़ी देशों के दौरे किए। 2 सितम्बर से 6 सितम्बर 1986 के दौरान हरारे में गुट निरपेक्ष आंदोलन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए दोबारा ज़िम्बाब्वे गए। इस सफ़र में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने शिखर सम्मेलन को संबोधित किया और गुट निरपेक्ष आंदोलन के कुछ सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों से बातचीत की। (225) 21 फ़रवरी से 25 फ़रवरी 1989 के दौरान यूगोस्लाविया और रोमानिया के दौरे पर गए (226) और 9 मई से 16 मई 1989 के दौरान चीन और उत्तरी कोरिया के दौरे पर गए। (227)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने 22 सितम्बर 1987 को यूएन जनरल असेंबली को ख़िताब किया और अपनी स्पीच में दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों के लिए इस्लामी गणराज्य ईरान के नज़रिये व स्टैंड की व्याख्या की। यूएन जनरल असेंबली में ईरान के राष्ट्रपति पहली बार शरीक हुए थे। (228) यूएन जनरल असेंबली में भाग लेने के लिए अंजाम पाने वाले इस दौरे की ख़ास बात यह रही कि न्यूयॉर्क में रहने वाले ईरानियों, दूसरे देशों के मुसलमानों और विश्व मीडिया से जुड़े लोगों ने आपका शानदार स्वागत किया और आपने इस्लामी क्रांति की ख़ूबियों, थोपी गई जंग और ईरान के संबंध में विश्व साम्राज्य की नीतियों की व्याख्या की। न्यूयॉर्क के मुसलमानों ने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की इमामत में जुमे की नमाज़ पढ़ी और उस मौक़े पर आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने जुमे की नमाज़ से पहले जो विशेष स्पीच दी थी वह भी उस दौरे की बहुत ही यादगार बात थी।

विदेश नीति के मैदान में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इसके अलावा जो क़दम उठाए उनमें अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और लेबनान में शिया राजनैतिक संगठनों से गहरा संबंध क़ायम करना, उनके बीच आपस में समन्वय व एकता पैदा करना और इराक़ की उच्च इस्लामी परिषद के गठन का नाम लिया जा सकता है। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ानेनेई की कोशिशों से इन संगठनों में आपस में मौजूद मतभेद, संयुक्त दुश्मन के ख़िलाफ़ एकता व समरसता में बदल गए। इस संबंध में अफ़ग़ानिस्तान की 8 राजनैतिक पार्टियों को मिलाकर इस्लामी एकता पार्टी का गठन हुआ जिसके नतीजे में उनके बीच प्रतिस्पर्धा व दुश्मनी ख़त्म हो गई। इसके अलावा इराक़ की उच्च इस्लामी परिषद के गठन को इस नीति की उपयुक्तता की मिसाल कहा जा सकता है। उस दौर में ईरान की ओर से लेबनान, फ़िलिस्तीन, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी मुजाहेदीन का बड़े पैमाने पर समर्थन हुआ और ईरान के समर्थन व मदद से इन देशों में इस्लामी संगठनों और पार्टियों की क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साख मज़बूत हुई।

 

प्रांतीय दौरे और मुलाक़ातें

 

समाज के विभिन्न तबक़ों से मुलाक़ातें करना, विभिन्न कार्यालयों और विभागों के दौरे करना, प्रोजेक्टों की शुरुआत से संबंधित समारोहों में स्पीच, कान्फ़्रेंसों में शरीक होना, प्रांतीय दौरे, राष्ट्रपति के कार्यकाल में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के दूसरे अहम प्रोग्राम थे। राष्ट्रपति पद के दौरान आम लोगों और ख़ास तौर पर शहीदों के घर वालों से निकट संपर्क आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की मुख्य नीति थी। विभिन्न मौक़ों पर जनता के विभिन्न तबक़ों के लोगों से मुलाक़ातें, शहीदों के घर वालों से मुलाक़ातें, उनके घर जाना, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की सरगर्मियों का हिस्सा था जो जनता और शासन वर्ग के बीच संपर्क की नज़र से बहुत अहम पहल थी। देश के प्रांतों और विभिन्न क्षेत्रों के दौरों में वहाँ के लोगों से मुलाक़ातें, ख़ास तौर पर समाज के वंचित वर्ग से मिलना और उनके मामलों व मुश्किलों को क़रीब से देखना, स्थानीय अधिकारियों के बीच मतभेद का हल, जंग से संबंधित मामलों पर पूरा ध्यान, फ़ौज और आईआरजीसी फ़ोर्स के बीच समन्वय क़ायम रखना, शहरों और गाँवों के धर्मगुरुओं और बड़ी हस्तियों से मुलाक़ातें, आर्थिक व सामाजिक मामलों की समीक्षा, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की सरगर्मियों का हिस्सा और अहम पहल है।

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाम इमाम ख़ुमैनी का ख़त

 

6 जनवरी 1988 को इमाम ख़ुमैनी ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई के नाम एक ख़त में इस्लामी शासन और वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व के अधिकारों की सीमाओं से संबंधित तेहरान में जुमे की नमाज़ की आपकी विशेष स्पीच का हवाला देते हुए इस्लामी शासन को मूल आदेशों का अंग और सभी सेकेन्ड्री आदेशों से ऊपर क़रार देते हुए वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व के मुकम्मल अधिकार का मालिक बताया। इमाम ख़ुमैनी के ख़त के जवाब में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी के नज़रिये का वैचारिक व व्यवहारिक नज़र से ख़ुद अनुसरण करने का ऐलान किया। इसी तरह इमाम ख़ुमैनी से मुलाक़ात में जुमे की नमाज़ की विशेष स्पीच में बयान की गई बातों के संबंध में अपने मक़सद की व्याख्या की। इसके बाद इमाम ख़ुमैनी ने उसी दिन आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के ख़त का जवाब दिया और उनकी सराहना करते हुए ख़त के एक भाग में लिखाः “क्रांति से कई साल पहले से आपसे मेरे निकट संपर्क रहे हैं जो अल्लाह का शुक्र है, अभी भी बाक़ी है। मैं आपको इस्लामी गणराज्य का एक मज़बूत बाज़ू समझता हूँ, आपको अपना ऐसा भाई समझता हूँ जो धर्मशास्त्र के मामलों का ज्ञानी और उस पर अमल करने वाला, वरिष्ठ धर्मशुरू के मुकम्मल अधिकारों का धर्मशास्त्र की बुनियाद पर गंभीरता से समर्थन करता है। आप इस्लाम और इस्लामी बुनियादों के पाबंद और उन पर आस्था रखने वालों में ऐसे गिने चुने लोगों में है जो सूरज की तरह रौशनी देते हैं।” (229)

 

इक्स्पीडीअन्सी डिसर्न्मन्ट काउंसिल (हित संरक्षक परिषद) के पहले अध्यक्ष

 

विभिन्न प्रस्तावों व बिलों की मंज़ूरी की प्रक्रिया में संसद मजलिसे शूराए इस्लामी और गार्डीअन काउंसिल में मतभेद पैदा हो जाने के बाद, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सहित देश के वरिष्ठ अधिकारियों के ख़त के जवाब में इमाम ख़ुमैनी ने 6 फ़रवरी 1988 को इक्स्पीडीअन्सी डिसर्न्मन्ट काउंसिल के गठन पर सहमति दी। (230) इसके बाद आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को इक्स्पीडीअन्सी डिसर्न्मन्ट काउंसिल का पहला अध्यक्ष बनाया गया। (231) राष्ट्रपति का कार्यकाल ख़त्म होने तक वे इस परिषद के अध्यक्ष के तौर पर सरगर्म रहे। (232)

 

इमाम ख़ुमैनी की तरफ़ से सौंपी गयीं अनेक ज़िम्मेदारियां

 

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई 8 साल के राष्ट्रपति काल में भी अतीत की तरह इमाम ख़ुमैनी के बहुती ही क़रीबी, ख़ास सलाहकारों और बहुत ही भरोसेमंद शख़्स थे। इसीलिए इमाम ख़ुमैनी ने अनेक मौक़ों पर राष्ट्रपति के ओहदे के बावजूद, उन्हें कई ज़िम्मेदारियां भी सौंपी, इसी तरह अनेक मामलों में उनके सुझाव को क़ुबूल करते थे। 4 अप्रैल 1983 को उन्होंने आईआरजीसी फ़ोर्स और सशस्त्र बल के मामले, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को सौंप दिए थे। (233) 23 अक्तूबर सन 1983 को उन्हें अमरीका और दूसरे देशों से ईरान के तक़ाज़ों की पैरवी करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। (234) 22 नवम्बर 1983 को मिलिट्री इन्टेलिजेन्स विभाग क़ायम होने पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने सहमति दी। (235) 30 दिसम्बर 1989 को इमाम ख़ुमैनी ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई को दंड संहिता (पीनल कोड) से संबंधित बिल की दोबारा समीक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी। (236) 12 फ़रवरी 1989 को इमाम ख़ुमैनी ने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को यह ज़िम्मेदारी सौंपी की वह सुप्रीम काउंसिल में न्यायिक मामलों की सुप्रीम काउंसिल के सदस्यों को तीनों पालिकाओं के अध्यक्षों की बैठक में भाग लेने की दावत दें और इस काउंसिल को बेहतर अंदाज़ में चलाने के लिए कामों के बंटवारे के मक़सद से अपने अपने सुझाव पेश करें। (237) आख़िर में उन्होंने तीनों पालिकाओं के अध्यक्षों की बैठक में चर्चा में आए सुझावों पर सहमति दी। (238) 23 फ़रवरी 1989 को इमाम ख़ुमैनी ने एक ख़त में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को ईरान में रहने वाले इराक़ियों के मामलों और मुश्किलों को हल करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। (239)

 

संविधान निरीक्षक परिषद में मेंबर

 

इमाम ख़ुमैनी ने 24 अप्रैल 1989 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाम एक हुक्म जारी करके, उन समेत 20 सदस्यों पर आधारित एक कमेटी गठित की जिसकी ज़िम्मेदारी थी कि वह संसद की तरफ़ से चुने जाने वाले 5 सदस्यों के साथ मिल कर संविधान की समीक्षा करने वाली परिषद बनाए और पाँच विषयों के संबंध में संविधान में सुधार, दोबारा समीक्षा और उसे मुकम्मल करने का काम अंजाम दे। (240) उक्त काउंसिल के गठन के बाद, आयतुल्लाह मिश्कीनी को उसका अध्यक्ष और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को पहला और अकबर हाशेमी रफ़संजानी को दूसरा सहायक चुना गया। (241) इस परिषद ने 41 बैठकों में पाँच मुख्य विषयों: इस्लामी क्रांति के नेता होने की शर्तों, कार्यपालिका और न्यायपालिका में पावर के सेन्ट्रालाइज़ेशन, प्रसारण विभाग आईआरआईबी के संचालन के मामलों पर ध्यान, भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर संविधान में संभावित पुनर्समीक्षा के तरीक़ों और संसद के सदस्यों की तादाद के बारे में विचार विमर्श और फ़ैसला किया। (242) इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के बाद भी इन बैठकों का सिलसिला जारी रहा।

 

4.3 इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर का पद

 

4 जून 1989 को ईरानी जनता और अधिकारी इमाम ख़ुमैनी को मिट्टी दे रहे थे। इसी बीच देश के नागरिक व सिविल अधिकारियों की एक उच्च स्तरीय बैठक में राष्ट्रपति आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की वसीयत पढ़ कर सुनायी। उसी दिन शाम को असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स ‘मजलिसे ख़ुब्रगान’ की बैठक हुई ताकि इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के लिए सुप्रीम लीडर या फिर सुप्रीम लीडर की ज़िम्मेदारी संभालने वाली परिषद का चयन हो। सन 1979 को मंज़ूर हुए संविधान की धारा 107 के मुताबिक़, सुप्रीम लीडर के चयन की ज़िम्मेदारी असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स को सौंपी गई थी। (243) एक शख़्स को सुप्रीम लीडर बनाया जाए या इस पद के लिए एक काउंसिल का गठन हो, इस बारे में वोटिंग हुई तो असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स के ज़्यादातर सदस्यों ने सुप्रीम लीडरशिप काउंसिल के गठन का विरोध किया। इसके बाद यह चर्चा शुरू हुयी कि सुप्रीम लीडर का चयन हो तो आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का नाम पेश किया गया। इमाम ख़ुमैनी तीनों पालिकाओं के अध्यक्षों, प्रधान मंत्री और सैयद अहमद ख़ुमैनी की मौजूदगी में कई मौक़ों पर अपने निधन के बाद इस्लामी व्यवस्था के नेतृत्व के लिए आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को मुनासिब क़रार दे चुके थे। इस बात की जानकारी असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स के कुछ सदस्यों को थी। उन्होंने यह बात असेंबली की बैठक में पेश की। जब इस पर गवाही का मामला सामने आया तो असेंबली में मौजूद दो सदस्यों ने इमाम ख़ुमैनी की इस इच्छा की गवाही दी। जिस तरह इमाम ख़ुमैनी की मर्ज़ी की पुष्टि की गई, उसी तरह इस्लामी क्रांति और इस्लामी व्यवस्था के नेतृत्व के लिए आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की क़ाबिलियत के बारे में इमाम ख़ुमैनी के एक और इन्डायरेक्ट बयान का हवाला दिया गया जो उन्होंने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के चीन और उत्तरी कोरिया के दौरे के मौक़े पर दिया था। इसके बाद वोटिंग हुई तो असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स के ज़्यादातर सदस्यों ने इमाम ख़ुमैनी की इच्छा और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की राजनैतिक सूझबूझ और इल्मी व धार्मिक क़ाबिलियत को मद्देनज़र रखते हुए, उन्हें इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के सुप्रीम लीडर के तौर पर चुना। (244) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ख़ुद इस विषय पर कहते हैं कि जब तक मुझे यक़ीन नहीं हो गया कि यह चयन निर्धारित हो चुका है, उस वक़्त तक मैंने इंकार किया। (245) संविधान की पुनर्समीक्षा पूरी हो जाने और उस पर रिफ़्रेन्डम के बाद, असेंबली ऑफ़ एक्सपर्ट्स ने नए संविधान की बुनियाद पर एक बार फिर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की सुप्रीम लीडरशिप के बारे में वोटिंग की और स्पष्ट बहुमत के साथ आपको इस ओहदे के लिए चुना।

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इमाम ख़ुमैनी के आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को इस्लामी क्रांति और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के सुप्रीम लीडर के लिए मुनासिब क़रार देने के नज़रिये के पीछे, उनकी बहुती सी ख़ूबियां थीं। जैसे इस्लामी व्यवस्था के गठन के लिए उनका लंबा संघर्ष, इस्लामी क्रांति और इस्लामी गणराज्य व्यवस्था पर मज़बूत आस्था, इस्लामी व्यवस्था की बुनियादों को मज़बूत बनाने के लिए दस साल से ज़्यादा मुद्दत की बहुआयामी राजनैतिक, कार्यकारी और सांस्कृतिक सरगर्मियां, धर्म पर रीति-रिवाजों के बजाए तरक़्क़ी दिलाने वाले तत्व के रूप में नज़र, धार्मिक स्रोतों पर कमांड, व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार और परहेज़गारी। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह अलग-अलग मौक़ों पर इस्लामी गणराज्य व्यवस्था की सेवा में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की क़ाबिलियत व निष्ठा की पुष्टि कर चुके थे।

इमाम ख़ुमैनी ने 28 जून 1981 को आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई पर होने वाले जानलेवा हमले के बाद जो संदेश जारी किया था, उसके एक भाग में लिखा थाः “आप, जो पैग़म्बरे इस्लाम की पाक नस्ल और इमाम हुसैन इब्ने अली के ख़ानदान से संबंध रखते हैं, इस्लाम और इस्लामी देश की सेवा के अलावा आपका कोई जुर्म नहीं है, आप जो जंग के मोर्चे पर जान की बाज़ी लगाने वाले सिपाही, मेहराब में बेहतरीन टीचर, जुमे और जमाअत की नमाज़ में माहिर वक्ता और क्रांति के मैदान में हमदर्द नेता हैं, आप अपनी राजनैतिक सोच, जनता का साथ देने और ज़ालिमों का विरोध करने के स्तर को दर्ज करा चुके हैं, आप पर जानलेवा हमला करके क्रांति के दुश्मनों ने सिर्फ़ देश भर में नहीं बल्कि दुनिया भर में दसियों लाख लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचाया है। इन तत्वों को इतनी भी राजनैतिक सूझ-बूझ नहीं है कि संसद, जुमे की नमाज़ और राष्ट्र के सामने आपकी स्पीच के तुरंत बाद उन्होंने यह आपराधिक कृत्य किया और ऐसे शख़्स पर जानलेवा हमला किया कि जिसका भलाई करने का संदेश दुनिया के मुसलमानों के मन में गूंज रहा है। प्रिय ख़ामेनेई! मैं आपको मुबारकबाद पेश करता हूँ कि आपने जंग के मोर्चों पर फ़ौजी वर्दी में और जंग के मोर्चे से बाहर धर्मगुरू के रूप में पीड़ित राष्ट्र की सेवा की और अल्लाह से आपकी सेहत व सलामती की दुआ करता हूँ कि आप इस्लाम और मुसलमानों की सेवा का सिलसिला जारी रख सकें।” (246)

इमाम ख़ुमैनी ने 30 अगस्त 1986 के राजनैतिक हस्तियों व नेताओं को नसीहत की कि अपने बयानों व स्पीच में एक दूसरे की बुराई करने के बजाए आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तरह व्यवहार करें जो सिर्फ़ नसीहत करते हैं और जनता में अपनी सेवा का प्रचार नहीं करते। (247) 11 जनवरी 1988 को वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व के मुकम्मल अख़्तियार के बारे में आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के ख़त के जवाब में इमाम ख़ुमैनी ने अपने ख़त के एक हिस्से में लिखाः “क्रांति से कई साल पहले से आपसे मेरा निकट संपर्क रहा है जो अल्लाह की कृपा से अभी तक बाक़ी है। मैं आपको इस्लामी गणराज्य का मज़बूत बाज़ू समझता हूँ, आपको ऐसा भाई समझता हूँ जो धार्मिक मामलों का जानकार और उस पर अमल करने वाला है और वरिष्ठ धर्मगुरू के धर्मशास्त्र की बुनियाद पर मुकम्मल अख़्तियार का गंभीरता से समर्थन करता है। आप इस्लाम और इस्लाम के बुनियादी उसूलों की पाबंदी करने वालों में ऐसे गिने चुने लोगों में हैं जो सूरज की तरह रौशनी देते हैं।” (248)

हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन सैयद अहमद ख़ुमैनी, जो इमाम ख़ुमैनी के बेटे और बहुत क़रीबी व भरोसे के सलाहकार थे, बयान करते हैं कि आयतुल्लाह ख़ामेनेई के विदेशी दौरे पर इमाम ख़ुमैनी ने फ़रमायाः “हक़ीक़त में उनके भीतर नेतृत्व की क़ाबिलियत है।” (249) इमाम ख़ुमैनी की बेटी ज़हरा मुस्तफ़वी ने बताया कि जब इस्लामी गणराज्य के अगले नेता के बारे में इमाम ख़ुमैनी से सवाल किया गया तो आपने आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का नाम लिया और जब आयतुल्लाह ख़ामेनेई के इल्मी स्तर के बारे में पूछा गया तो आपने उनके इज्तेहाद (इस्लामी धर्मशास्त्र के ज्ञान का ख़ास दर्जा) की पुष्टि की। (250) आयतुल्लाह हाशेमी रफ़संजानी भी कहते हैं कि जब इमाम ख़ुमैनी आयतुल्लाह मुन्तज़ेरी को भविष्य के सुप्रीम लीडर के पद से हटाने वाले थे, तब तीनों पालिकाओं के अध्यक्षों, प्रधान मंत्री (मीर हुसैन मूसवी) और अलहाज सैयद अहमद ख़ुमैनी की मौजूदगी में एक बैठक में सुप्रीम लीडर के उत्तराधिकारी के बारे में बहस हुई। उस बैठक में इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के भविष्य के नेतृत्व के लिए आयतुल्लाह ख़ामेनेई का नाम लिया। वे इसी तरह आगे बताते हैं कि उन्होंने इमाम ख़ुमैनी से, भविष्य में इस्लामी गणराज्य व्यवस्था के सुप्रीम लीडर के संबंध में चिंता जताई तो इमाम ख़ुमैनी ने जवाब में आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमायाः “आप लोग कभी भी बंद गली में नहीं पहुंचेंगे, ऐसा शख़्स आप लोगों के बीच है, आपको ख़ुद क्यों अंदाज़ा नहीं है?” (251)

इस बात में शक नहीं कि जिस वक़्त आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को इस्लामी व्यवस्था का सुप्रीम लीडर चुना गया वह बहुत ही अहम व संवेदनशील दौर था। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बीमारी की वजह से कुछ संवेदनशील मुद्दे थेः 1- इमाम ख़ुमैनी के बाद देश के संचालन का मामला (252), 2- संविधान की समीक्षा और सुधार की प्रक्रिया का पूरा न होना, 3- इराक़ का, युद्ध विराम का बार बार उल्लंघन करना और जंग में ख़ुद को विजयी दिखाने के बड़े पैमाने पर इराक़ी प्रौपैगंडे के मद्देनज़र इराक़, अमरीका या एमकेओ की तरफ़ से हमले या सैन्य उकसावे की ओर से चिंता 4- शैतानी आयात नामी किताब के छपने की साज़िश से विदेश नीति के क्षेत्र में पैदा होने वाले संकट का जारी रहना, इस किताब के लेखक सलमान रुश्दी के मुर्तद अर्थात धर्मभ्रष्ट होने के इमाम ख़ुमैनी के फ़त्वे का जारी होना, जिस पर पश्चिमी देशों की ओर से कड़ा रिएक्शन सामने आया (253) लेकिन जिन बातों की वजह से चिंता की जगह उम्मीद ने ली वे इस प्रकार हैः

1 आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई को इस्लामी क्रांति का सुप्रीम लीडर चुने जाने में बहुत कम वक़्त लगा।

2 इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की शवयात्रा में दसियों लाख लोगों का शामिल होना और जनता की ओर से अपने लीडर की बेमिसाल विदाई, जनता के लीडर की इस शानदार तरीक़े से विदाई से दुश्मन की साज़िश के सभी रास्ते बंद हो गए।

3 इस्लामी व्यवस्था के उच्च अधिकारियों, देश के विभिन्न विभागों, इमाम ख़ुमैनी के घर वालों, वरिष्ठ धर्मगुरुओं, आयतुल्लाह अराकी, आयतुल्लाह मरअशी नजफ़ी, आयतुल्लाह मीरज़ा हाशेमी आमुली, आयतुल्लाहिल उज़मा गुलपाएगानी, आयतुल्लाह मिश्कीनी जैसे धर्मगुरुओं, धार्मिक शिक्षा केन्द्रों और यूनिवर्सिटियों की इल्मी हस्तियों, शहीदों के परिवारों और समाज के विभिन्न तबक़ों की ओर से आयतुल्लाह ख़ामेनेई का भरपूर समर्थन और आज्ञापालन का वचन।

4 इस्लामी व्यवस्था के सुप्रीम लीडर के तौर पर आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के चुने जाने के कुछ ही घंटों के बाद, अलहाज सैयद अहमद ख़ुमैनी ने एक बधाई संदेश जारी किया और उसमें लिखाः “इमाम (ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह) बहुत बार आपका नाम मुज्तहिद और इस्लामी व्यवस्था का नेतृत्व संभालने के लिए बेहतरीन शख़्स के तौर पर ले चुके हैं। हम और इमाम ख़ुमैनी के घर के सभी लोग असेंब्ली ऑफ़ एक्सपर्ट्स के धर्मगुरुओं का दिल की गहराई से शुक्रिया अदा करते हैं क्योंकि हमें यक़ीन है कि इस चयन से इमाम ख़ुमैनी की आत्मा को सुकून मिलेगा और वह ख़ुश होगी। मैं एक छोटे भाई की तरह सुप्रीम लीडर के हुक्म पर अमल को फ़र्ज़ समझता हूँ।” (255)

5 बड़े पैमाने पर होने वाले आज्ञापलन की प्रक्रिया में यह संदेश छिपा था कि इमाम ख़ुमैनी का उत्तराधिकारी विचार और व्यवहार दोनों मैदानों में उनके विचार और उनके रास्ते पर चलने पर पूरा यक़ीन रखता है और पूरी कोशिश से उसी पर आगे बढ़ता रहेगा। यह आज्ञापालन मुलाक़ातों की शक्ल में, जुलूसों की शक्ल में, घोषणापत्रों की शक्ल में, बधाई संदेशों में और दस्तख़तों के रोल की शक्ल में जारी रहा। (256) इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह के चालीसवें के मौक़े पर “इमाम ख़ुमैनी से वादा और आज्ञापालन” के शीर्षक के तहत देश भर से कारवानों का सिलसिला शुरू हो गया।” (257) देश के कुछ सरहदी और रणनैतिक नज़र से अहम इलाक़ों में “सुप्रीम लीडर का आज्ञापालन” के शीर्षक के तहत परेड हुई। (258) “इमाम ख़ुमैनी से वादा और आज्ञापालन” के शीर्षक के तहत अनेक सेमिनार हुए। (259) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के आज्ञापलन की प्रक्रिया महीनों जारी रही और पूरी दुनिया के सामने यह बात साबित हो गई कि उनकी लीडरशिप में ईरान इस्लामी जगत का ध्वजवाहक है।

6 इमाम ख़ुमैनी के रास्ते पर चलने पर ताकीद, लोगों और सुप्रीम लीडर के बीच एकता व आपसी विश्वास की रक्षा, धार्मिक उसूलों, शरीअत और इस्लामी धर्मशास्त्र पर ताकीद, समाज के कमज़ोर और वंचित तबक़ों का खुल कर समर्थन, पीड़ित क़ौमों का साथ देना, इस्लाम और मुसलमान क़ौमों के सम्मान पर ख़ास तौर पर ध्यान देना और दुनिया की बड़ी ताक़तों की धमकियों का कभी भी असर न लेना आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का साफ़ स्टैंड है। आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने इमाम ख़ुमैनी को “इस्लाम के पाक पौधे की जड़” से उपमा दी और फ़रमायाः “हम इमाम ख़ुमैनी के रास्ते पर चलते हुए अपना सफ़र जारी रखेंगे।” (260)

 

 

स्रोत व हवाले

(1)       आक़ा बुज़ुर्ग तेहरानी 2/640

(2)       गुलशने अबरार 2/971

(3)       इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई से इंटरव्यू, शीन बे 1225

(4)       आक़ा बुज़ुर्ग तेहरानी 2/640

(5)       कसरवी, 92

(6)       बहबूदी, 12

(7)       आक़ा बुज़ुर्ग तेहरानी 6/13 प्रस्तावना

(8)       इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1225

(9)       शरीफ़ राज़ी, 129-7/127; ज़ंगने क़ासिम आबादी, 1/132

(10)    हमू, 3; शरीफ़ राज़ी, 7/127; इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1225

(11)    बहबूदी, 15

(12)    ज़ंगने क़ासिम आबादी, 1/77

(13)    गुलशने अबरार, 2/972

(14)    ज़ंगने क़ासिम आबादी, 1/77

(15)    सहीफ़ए इमाम, 20/71

(16)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 1226

(17)    आक़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, 559/2

(18)    तारीख़े उलमाए ख़ुरासान, 308; क़ासिम पूर, 60

(19)    ज़ंगने क़ासिम आबादी, 1/485

(20)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1225

(21)    बहबूदी, 49

(22)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1226

(23)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1226

(24)    बहबूदी, 78

(25)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1232

(26)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1227

(27)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1228

(28)    हुसैनी, तरहे कुल्ली अंदीशए इस्लामी, ज़्यादातर पेज

(29)    तदावुमे आफ़ताब, 21

(30)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1228

(31)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1226

(32)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1228

(33)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 119

(34)    जलाली, मशहद दर बामदादे नहज़ते इस्लामी, 148

(35)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का इंटरव्यू शीन बे 1229 और 1231

(36)    बाक़ेरी, 12-13

(37)    बहबूदी, 129-134

(38)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 614, 1231 और 1232

(39)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 1233

(40)    जलाली, 205

(41)    बहबूदी, 156-157

(42)    याराने इमाम..., तालेक़ानी, 1/468

(43)    इमाम ख़ुमैनी दर आईनए अस्नाद, 4/392

(44)    बहबूदी, 162-166

(45)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का इंटरव्यू, शीन बे 1234

(46)    बहबूदी, 187

(47)    बहबूदी, 192-195

(48)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ 3/128-130

(49)    हाशेमी रफ़संजानी, दौराने मुबारेज़े 2/1566

(50)    आयंदे दर क़लमरोए इस्लाम, सभी पेज

(51)    बहबूदी, 235-238

(52)    याराने इमाम..., मीलानी, 3-7/5

(53)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 614

(54)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 574

(55)    याद्दाश्तहाए रूज़ाने मोहन्दिस बाज़ुर्गान, 422-423

(56)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 614

(57)    बहबूदी, 304

(58)    याराने इमाम...हाशेमी नेजाद, 248-249

(59)    याराने इमाम...सईदी, हमान, तालेक़ानी, 2/497, हमान, महदवी कनी, 14; हमान फ़ज़लुल्लाह महल्लाती, 1/521; हमान, बाहुनर, 355

(60)    याराने इमाम...सईदी, 363; याराने इमाम...महदवी कनी, 114

(61)    बहबूदी, 326-327

(62)    बहबूदी, 470-471 और 331-332

(63)    जूदकी, 23; याराने इमाम...हाशेमी नेजाद, 306-307

(64)    फ़ारसी, 215

(65)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 130, इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 183; याराने इमाम...सईदी, 1/32

(66)    याराने इमाम...मीलानी, 423/424

(67)    तक़वीमे तारीख़े ख़ुरासान, 225

(68)    याराने इमाम...महल्लाती, 2/73

(69)    याराने इमाम...बाहुनर, 520-521, हाशेमी रफ़संजानी, दौराने मुबारेज़े, 2/1134-1135

(70)    सहीफ़ए इमाम, 373-2/385

(71)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 123, इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 614

(72)    इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 614

(73)    उस्ताद शहीद..., 218; याराने इमाम...मीलानी, 3/590

(74)  इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव शीन बे 572, शीन बे 614

(75)  इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 614, शीन 573, शीन बे 572

(76) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 614

(77) याराने इमाम..., मुतह्हरी, पेज 455, इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 573

(78) नीकबख़्त, ज़िन्दगी व मुबारेज़ात... मोफ़त्तेह- पेज 408

(79) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 573

(80) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 574, शीन बे 614, शीन बे 572

(81) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 575

(82) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 575, शीन बे 389, शीन बे 304

(83) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 576, शीन बे 572

(84) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 389

(85) चारपक्षीय बातचीत..., सारे पेज

(86) याराने इमाम...मोफ़त्तेह, पेज 340, उस्ताद शहीद..., पेज 277

(87) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 583

(88) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 572, शीन बे 389

(89) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 572

(90) इमाम ख़ुमैनी दस्तावेज़ के आइने में, 6/52

(91) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 576

(92) इस्लामी इंक़ेलाब बे रिवायते..., 1/263, इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर..., 687, 80-81, याराने इमाम...मुतह्हरी, 575

(93) इस्लामी इंक़ेलाब बे रिवायते..., 2/326, इस्लामी इंक़ेलाब बे रिवायते..., 10/51

(94) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 576, अस्नादे नहज़ते आज़ादीए ईरान, 9/234-235

(95) याराने इमाम...सदूक़ी, 128-131

(96) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 576

(97) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 576

(98) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 576

(99) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 102

(100) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 111

(101) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, 3/348-357

(102) मोअस्ससये पजोहिशिए फ़रहंगी इंक़ेलाबे इस्लामी, आर्काइव, शीन बे 1889

(103) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 576

(104) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़, 3/402, इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 209

(105) इस्लामी इंक़ेलाब बे रिवायते..., 14/192 और 472

(106) इमाम ख़ुमैनी दस्तावेज़ के आइने में, 7/603, याराने इमाम...सदूक़ी, 431

(107) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 389, शीन बे 572

(108) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, आर्काइव, शीन बे 389

(109) इस्लामी क्रांति दस्तावेज़ सेंटर, शीन बे 572, मोअस्ससे पजोहिशे फ़रहंगी..., शीन बे 1921

(110) रूज़ शुमारे इंक़ेलाबे इस्लामी, 8/339, 352

(111) इंक़ेलाबे इस्लामी बे रिवायते..., 20/33

(112) शम्साबादी, 315-316

(113) अस्नादे इंक़ेलाबे इस्लामी, 3/492-493

(114) इंक़ेलाबे इस्लामी बे रिवायते..., 21/188 और 123-124

(115)  शम्साबादी, 325-328

(116) रूज़ शुमारे इंक़ेलाबे इस्लामी, 10/216-217

(117) सहीफ़ए इमाम..., 5/426-428

(118) ऊ बे तहनाई..., 63; हदीसे विलायत, 2/40

(119) क़ासिमपूर, 92-94

(120) हाशेमी रफ़संजानी, इंक़ेलाब व पीरूज़ी..., 161-162; इत्तेलाआत, शीन 5771, 29/1/1979

(121) मोसाहेबेहाए...1984-1985, 182-183

(122) अस्नादे इंक़ेलाबे इस्लामी, 4/714

(123) पा ब पाए आफ़ताब..., 2/195

(124) क़िस्सए आफ़ताब, 95

(125) सहीफ़ए इमाम, 5/426-428

(126) ख़ातेराते आयतुल्लाह मोहम्मद रज़ा महदवीकनी, 183

(127) पा ब पाए आफ़ताब..., 2/192

(128) क़ासिमपूर, 92-94

(129) हाशेमी रफ़संजानी, इंक़ेलाब व पीरूज़ी..., 169

(130) साएली करदे दह, 11

(131) साएली करदे दह, 11

(132) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब, मुख़्तलिफ़ मीटिंग्स

(133) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब, 1/03/1979 की मीटिंग

(134) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब, 20/03/1979, 26/08/1979, 7/10/1979, 23/11/1979 की बैठकें

(135) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब, 4/4/1979, 8/04/1979, 2/9/1979, 19/11/1979, 27/12/1979, 29/12/1979

(136) सहीफ़ए इमाम..., 6/429

(137) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब, 1/7/1979, 5/9/1979 और 25/11/1979 की बैठकें

(138) दोलत्हाए ईरान..., 457 और 459

(139) साएली करदे दह, 117-118

(140) ख़ुलासए मशरूहे मुज़ाकेराते शूराए इंक़ेलाब 24/11/1979 की बैठक

(141) रिसालत, शीन 997, 10

(142) हाशेमी रफ़सन्जानी, इंक़ेलाब व पीरूज़ी..., 449

(143) हाशेमी रफ़सन्जानी, इंक़ेलाब व पीरूज़ी..., 125

(144) हाशेमी रफ़सन्जानी, इंक़ेलाब व पीरूज़ी..., 215-218

(145) जासेबी, 4/149

(146) जासेबी, 4/146-147

(147) कारनामए चहार सालेई..., 4-7

(148) जासेबी, 4/146

(149) हाशेमी रफ़संजानी, उबूर अज़ बोहरान..., 263

(150) हाशेमी रफ़सन्जानी, आरामिश व चालिश..., 267

(151) ख़ातेराते सैय्यद मुर्तज़ा नबवी, 168

(152) जासेबी, 4/300

(153) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 1541, 15; जुम्हूरी इस्लामी, शीन 1543, 2

(154) फ़राज़ व नशेबे हिज़्बे जुम्हूरी इस्लामी, 11

(155) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2320, 1

(156) सहीफ़ए इमाम..., 20/275

(157) सहीफ़ए इमाम..., 12/116

(158) दर मकतबे जुमा, 2/1-3

(159) दर मकतबे जुमा..., पेज 2, 3 और मुख्तलिफ़ पेज

(160) फ़रहंग व तहाजुमे फ़रहंगी, 311

(161) रज़वी, 384

(162) आशनाई बा मजलिस..., 90-91

(163) आशनाई बा मजलिस..., 166वीं, 167वीं और 168वीं बैठकें

(164) ख़ातेराते मांदगार, 12

(165) ख़ातेराने मांदगार, 11

(166) इत्तेलाआत, शीन 21889, 9

(167) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 387, 1

(168) 1981 में मजमूए मोसाहेबेहाए..., 7-8

(169) उम्मीदे इंक़ेलाब, शीन 147, 8-9

(170) ख़ातेरात व हेकायतहा, 10/7-20

(171) कैहान, शीन 11155, 4

(172) सहीफ़ए इमाम, 13/263-264

(173) सहीफ़ए इमाम, 12/281

(174) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 409, 6

(175) बनी लौही व ..., 172-173

(176) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 409, 6

(177) अज़ जुनूबे लेबनान..., 174; इत्तेलाआत, शीन 19153, 5

(178) मोसाहेबहा...1981, 59

(179) दर मकतबे जुमा..., 9/8/59

(180) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 509, 2

(181) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2088, 2

(182) सहीफ़ए इमाम..., 20/467

(183) दुरूदियान, 163

(184) सहीफ़ए इमाम, 20/92-95

(185) विलायती, 278-279

(186) सहीफ़ए इमाम..., 8/138

(187) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 113, 8; जुम्हूरी इस्लामी, शीन 182, 10;  जुम्हूरी इस्लामी, शीन 192, 10

(188) मजमूए मोसाहेबेहाए... सन 1981, 112-114

(189) सहीफ़ए इमाम..., 10/320

(190) कैहान, शीन 11222, 4

(191) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 498, 3

(192) कैहान, शीन 11218, 12; जुम्हूरी इस्लामी, शीन 479, 3

(193) दर मकतबे जुमा..., 3/114-118

(194) ज़िन्दगीनामे मक़ामे मोअज़्ज़मे रहबरी, चे-4, 166-172

(195) ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 167

(196) मोसाहेबेहा..., 1984-1985, 114-116

(197) शूराए इंक़ेलाब की चर्चाओं का ख़ुलासा, अनेक बैठकें

(198) इंक़ेलाब दर बोहरान..., 176

(199) सहीफ़ए इमाम, 14/504

(200)     जुरए नूशे कौसर..., 217-218

(201) ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 199

(202)     फ़ारसी, 543-544

(203)     फ़ारसी, शीन 667, 668, 669, 670 और 671, पेज 1 और 11

(204)     फ़ारसी, शीन 678, 11

(205)     सहीफ़ए इमाम..., 15/278

(206)     ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 224

(207)     ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 226

(208)     ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 227

(209)     दोलतहाए ईरान..., 461, 467, 472, 482

(210) ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 229

(211) ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, पहला टर्म, सत्र 230

(212) ख़ातेराते 3 रईसे जुम्हूर, 7

(213) ईरानी संसद की चर्चाओं की तफ़सील, दूसरा टर्म, सत्र 268

(214) हाज सैय्यद जवादजी, 103-104

(215) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 1799, 10-11

(216) नवाज़नी, 1/298, 300, 339 और 392

(217) अली बाबाई, 6/130

(218) हाशेमी रफ़सन्जानी, उम्मीद व दिलवाप्सी..., 22-23; जुरए नूशे कौसर..., 237

(219) हाशेमी रफ़सन्जानी, उम्मीद व दिलवाप्सी..., 22-23

(220)     सहीफ़ए इमाम..., 18/83-84

(221) सहीफ़ए इमाम..., 19/110-111

(222) बीस साल तलाश..., 7-8

(223) बीस साल तलाश...,21/148 और 343; 19/171 और 316; बीस साल तलाश..., मुख़्तलिफ़ पेज

(224) मर्कज़े पजोहिश व असनादे रियासते जुम्हूरी, आर्काइव, आयतुल्लाह ख़ामेनेई के राष्ट्रपति काल की फ़ाइलें

(225) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 1921, 12

(226) जुम्हूरी इस्लामी, 2826, 12, जुम्हूरी इस्लामी, 2827, 11

(227) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2886, 12; जुम्हूरी इस्लामी, 2889, 2

(228) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2413, 10

(229) सहीफ़ए इमाम..., 20/452, 455

(230)     सहीफ़ए इमाम..., 20/463-465

(231) गुफ़तगू बा हाशेमी रफ़सन्जानी..., 52

(232) गुफ़तगू बा हाशेमी रफ़सन्जानी, 68-69

(233) सहीफ़ए इमाम..., 17/397

(234) सहीफ़ए इमाम..., 18/188

(235) सहीफ़ए इमाम..., 18/228

(236) सहीफ़ए इमाम..., 18/272

(237) सहीफ़ए इमाम..., 21/258

(238) सहीफ़ए इमाम..., 21/264

(239) सहीफ़ए इमाम..., 21/315

(240)     सहीफ़ए इमाम..., 21/363-364

(241) सूरते मशरूहे मुज़ाकेराते बाज़निगरी..., 1/1-29

(242) सूरते मशरूहे मुज़ाकेराते बाज़निगरी..., जिल्द 1-4, मुख़्तलिफ़ पेज

(243) इस्लामी ईरान का संविधान, 92

(244) चेगूनगीए इन्तेख़ाब रहबर दर इजलासे फ़ौक़ुल आदे मजलिसे ख़ुबरगान, 18; हाशेमी रफ़सन्जानी, बाज़साज़ी व साज़न्दगी..., 149-151

(245) हदीसे विलायत, 1/182-183

(246) सहीफ़ए इमाम, 14/504

(247) सहीफ़ए इमाम, 20/127

(248) सहीफ़ए इमाम, 20/455

(249) जुरए नूशे कौसर..., 265

(250)     जुम्हूरी इस्लामी, शीन 5352, 23/11/1997, 2

(251) मरजईयते आयतुल्लाह ख़ामेनेई अज़ दीदगाहे फ़ुक़हा व बुज़ुर्गान, 70

(252) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2905, 10/06/1989, 14-15

(253) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2852, 29/3/1989

(254) हदीसे विलायत, 1/ मुख़्तलिफ़ पेज

(255) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2924, 6/6/1989, 3

(256) कैहान, शीन 13631, 8/6/1989

(257) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2929, 10/07/1989

(258) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2972, 3/9/1989

(259) जुम्हूरी इस्लामी, शीन 2979, 11/09/1989

(260)     हदीसे विलायत, 1/3-5, हदीसे विलायत, 1/314