08/05/2024

बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

सबसे पहली बात तो यह है कि इस कान्फ़्रेंस और सेमिनार का आयोजन बहुत अच्छा काम है। क्योंकि शिया समाज, दूसरों की बात बाद में, ख़ुद हम, इमामों की पहचान के सिलसिले में कमज़ोरियों का शिकार हैं। कभी किसी पहलू पर बिना ठोस दस्तावेज़ के हद से ज़्यादा ध्यान दिया गया, मगर दूसरे पहलुओं से ग़फ़लत बरती गयी। कभी कभी तो इतना भी ध्यान नहीं दिया गया। बस ज़ाहिरी मामलों और ज़ाहिरी चीज़ों पर ध्यान दिया गया। मेरी नज़र में शिया होने की हैसियत से, शिया समुदाय की हैसियत से हमारे बड़े फ़रीज़ों में से एक यही है कि अपने इमामों का दुनिया में परिचय कराएं। कुछ इमाम जैसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, हज़रत अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम का कुछ आयाम से परिचय कराया गया है, दूसरों ने भी उनके बारे में लिखा है, कहा और किसी हद तक उनकी पहचान ग़ैर शिया जगत और ग़ैर इस्लामी जगत में मौजूद है लेकिन ज़्यादातर इमामों को पहचनवाया नहीं गया है। इमाम हसन अलैहिस्सलाम इतनी महानताओं के बावजूद अपरिचित हैं। इमाम मूसा कज़िम अलैहिस्सलाम, इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम, इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम इतने बड़े नेटवर्क और असाधारण सरगर्मियों के बावजूद, दुनिया में अपरिचित हैं। अगर ग़ैर शियों ने उनके बारे में कुछ बातें बयान की हैं, ज़ाहिर है कि जब ग़ैर शिया हो तो मत से असंबंधित बातें ही बयान करेगा, तो वो बहुत कम और सीमित हैं। मिसाल के तौर पर इरफ़ान (आत्मज्ञान) पर लिखने वाले फ़ुलां लेखक ने आत्मज्ञानियों की लिस्ट में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का ज़िक्र किया है और हज़रत के बारे में आधा पेज या उससे कुछ कम लिखा है जिसमें आपको एक आरिफ़ हस्ती क़रार देते हुए कुछ बातें लिखी हैं। यह बस इस हद तक है, इससे ज़्यादा नहीं है।

मेरी नज़र में इमामों की ज़िंदगी के बारे में तीन पहलुओं से काम किया जा सकता है। एक आध्यात्मिक पहलू है, यानी तक़द्दुस के पहूल से, इमामों के यहाँ जो मलकूती पहलू है, इस पहलू से। इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसके बारे में बात होनी चाहिए। लेकिन बात ठोस होनी चाहिए। कभी कुछ बातें बयान की जाती हैं और उसकी दलील के तौर पर कुछ रवायतें भी पेश की जाती हैं, मगर वो रवायतें मोतबर नहीं हैं। हमें इमामों के आध्यात्मिक पहलू, रूहानी पहलू, तक़द्दुस के पहलू को बयान करना चाहिए। इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम के सिलसिले में, उनकी इस्मत (हर तरह के गुनाहों व बुराइयों से पाक होना) के सिलसिले में, इन महान हस्तियों के अल्लाह से संपर्क, फ़रिश्तों से उनके संपर्क के बारे में, ये सारी चीज़ें उनके अंदर मौजूद हैं, उनकी विलायत आध्यात्मिक अर्थ के लेहाज़ से, इन सारी चीज़ों पर इस पहलू से अच्छा, ठोस व इल्मी काम होना चाहिए।

दूसरा पहलू उनकी शिक्षाओं व कथनों का है। आप लोगों ने भी उसका ज़िक्र किया। मुख़्तलिफ़ विषयों के संबंध में, ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मसलों के बारे में, इंसान की ज़रूरतों के मुख़्तलिफ़ मामलों के बारे में, अख़लाक़, आपसी रिश्तों, धर्म, ज्यूरिसप्रूडेंस, इनके बारे में हमारे इमामों के कथन हैं, नज़रिया है। इसे बयान किया जाना चाहिए। इन पहलुओं से जिनमें कुछ तो आज की दुनिया के प्रासांगिक विषय हैं, हम ग़फ़लत करते हैं। मिसाल के तौर पर जीव जंतुओं के अधिकार का विषय है। मिसाल के तौर पर आप देखिए कि हमारी रवायतों में इस विषय पर इमामों ने, जानवरों का ख़याल रखने और जानवरों के अधिकार के बारे में कितनी बहसें की हैं। अगर उसे दुनिया में पेश किया जाए, बयान किया जाए, उनकी पहचान करायी जाए तो सचमुच यह बहुत अहम चीज़ होगी। इसके बारे में हम में से कोई कब सोचता है, हम में कौन है जो इस विषय पर ध्यान दे रहा है? आपस में मेल जोल के मामले, ग़ैर शिया और ग़ैर मुसलमान से संबंध के बारे में जो बाते हैं, इस बारे में हमारी रवायतों में बहुत सारी बातें मौजूद हैं, क़ुरआन के दायरे में, कुरआन मजीद। "अल्लाह तुम्हें इस बात से मना नहीं करता कि जिन लोगों ने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की है" (सूरए मुम्तहना, आयत-8) ये बातें जिन्हें हमने बार बार बयान किया, जिनका बारम्बार ज़िक्र किया। इमामों के कथनों से ये चीज़ें बयान की जाएं, दूसरों तक पहुंचायी जाएं। हमारे पास इतनी सारी किताबें हैं। यानी बेहारुल अनवार मिसाल के तौर पर 100 जिल्दों की किताब है। इसी तरह की अनगिनत किताबें हैं। लेकिन यह सब एक ख़ास दायरे तक सीमित हैं। मैंने एक दिन एक शेर पढ़ाः

मै नाबी वली अज़ ख़लवते ख़ुम - चू दर साग़र नमी आयी चे हासिल?

(शुद्ध शराब हो लेकिन घड़े के एकांतवास से जाम में नहीं आयी तो क्या फ़ायदा)

शुद्ध शराब को जाम में लाना चाहिए कि उससे फ़ायदा उठाया जाए, मगर वह घड़े में पड़ी हुयी है। हमने अपनी इस शुद्ध शराब को, ज़िंदगी की पहचान की इस शुद्ध शराब को जो इमामों से मिली है, घड़े के अंदर रखा है और उसके मुंह पर एक ईंट रख दी है, घड़े के मुंह पर ईंट। पुराने ज़माने में घड़े के मुंह पर ईंट रख कर उसका मुंह बंद कर दिया करते थे। हमने यह काम किया है। यह नहीं होना चाहिए। इसे आज की प्रचलित ज़बान में, टेक्निकल ज़बान में, सही शैली में दुनिया में फैलाना चाहिए। आज दुनिया से संपर्क बनाना आसान हो गया है। यानी आप यहाँ बैठकर एक बटन दबाते हैं, दस मिनट वक़्त देते हैं और दुनिया के सुदूर इलाक़े में, आस्ट्रेलिया में, कैनडा में, अमरीका में किसी ख़ास जगह पर लोग आपकी बातें सुनते हैं। ज़ाहिर है यह बहुत अहम चीज़ है। इस काम के लिए यह साधन इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन ज़बान का मसला बहुत अहम है। इसे किस ज़बान में आप बयान करना चाहते हैं। तो यह दूसरा अहम पहलू है जो इमामों से संबंधित है और इमामों (अलैहेमुस्सलाम) के परिचय के लिए इस पर काम होना चाहिए।

तीसरा पहलू राजनीति का है। यह वही चीज़ है कि इमामों की ज़िंदगी के बरसों में जिस पर मैंने बुनियादी तौर पर काम किया। इमाम क्या करते थे, क्या करना चाहते थे? राजनीति बहुत अहम पहलू है। इमाम की नीति क्या थी? यह बात कि इमाम इन महान दर्जों के साथ, अल्लाह की ओर से मिले इस दर्जे के बाद, अल्लाह की ओर से उन्हें सौंपी गयी उस अमानत के साथ, बस इतने पर किफ़ायत करें कि फ़िक़्ह के कुछ हुक्म बयान कर दें, कुछ नैतिक बातें बयान कर दें, यह उस इंसान की समझ में आने वाली बात नहीं है जो अच्छी तरह ग़ौर कर रहा है। इन हस्तियों के मद्देनज़र अज़ीम लक्ष्य थे। इन हस्तियों का लक्ष्य इस्लामी समाज का गठन करना था और इस्लामी समाज का गठन इस्लामी शासन के बिना संभव नहीं है। यानी वह इस्लामी शासन के लिए प्रयासरत थे। इमामत का एक पहलू यह है। इमामत यानी लोक परलोक का नेतृत्व, भौतिक व आध्यात्मिक नेतृत्व। भौतिक से मुराद यही मुल्क चलाना, सरकार चलाना, सारे इमाम इसके लिए कोशिश करते रहे, बिना अपवाद सारे इमामों ने इसके लिए कोशिश की। लेकिन अलग अलग तरीक़ों व शैलियों से, उन तरीक़ों व शैलियों के अलग अलग हिस्से थे, छोटी मुद्दत के लक्ष्य थे लेकिन लंबी मुद्दत का लक्ष्य वही था। यही तो है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के बारे में अभी कुछ बातें पेश करुंगा। मिसाल के तौर पर आप फ़र्ज़ कीजिए आप से लोग कहा करते थे कि आप क़याम क्यों नहीं करते? रवायत में बार बार आया है, आपने देखा ही है कि हज़रत आप क्यों नहीं क़याम करते। हज़रत कोई न कोई दलील और जवाब, हर किसी को कोई जवाब दे दिया करते थे। हज़रत से इतना सवाल किया करते थे कि आप क़याम क्यों नहीं करते? वजह यह थी कि हज़रत को क़याम करना था। शियों को इसका इल्म था, शियों के नज़दीक यह बात साबित शुदा थी। जब इमाम हसन अलैहिस्सलाम पर लोगों ने एतेराज़ किया कि आपने सुलह कर ली तो हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम से जो बात बारम्बार हवाले के तौर पर आयी है यह है कि आप फ़रमाते थेः "और मैं क्या जानूं कि यह ताख़ीर तुम्हारे लिए परीक्षा है या एक ख़ास वक़्त तक जीवन का लुत्फ़ उठाने की मोहलत है।" (1) इसका एक वक़्त है, एक समय है, एक निर्धारित समय है। आपको क्या मालूम यह वादा है। रवायत में यह वादा इमाम अलैहिस्सलाम की ज़बानी निर्धारित भी कर दिया गया। रवायत में आप फ़रमाते हैं: " अल्लाह ने इस अम्र को सन 70 के लिए निर्धारित किया था।" तय हो गया था। इमाम हसन ने 40, 41, (हिजरी) में यह बात कही, तय था कि 70 हिजरी में क़याम किया जाए और इस्लामी शासन का गठन किया जाए। अल्लाह के फ़ैसले में यह था कि यह काम होना है। इसके बाद फ़रमाते हैं: "लेकिन जब इमाम हुसैन क़त्ल कर दिए गए तो ज़मीन वालों पर अल्लाह आक्रोशित हुआ और उसने इसे टाल दिया।" जब सन 61 हिजरी (मोहर्रम 61 हिजरी) में शहीद कर दिए गए तो इसे टाल दिया गया। यह सन 70 हिजरी में होना था, मगर शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत की वजह से और कुछ बाहरी तत्वों की वजह से जो इसके नतीजे में वजूद में आए, इस अभियान को टाल दिया गया। अब रवायत में आया हैः "ज़मीन वालों पर अल्लाह का आक्रोश शदीद हो गया।" लेकिन हम जानते हैं कि नाराज़गी व क्रोध की तीव्रता और इसके नतीजे में जो कुछ होता है वह इन्हीं अवाम और आम तत्वों के अनुरूप होता है। आम तत्व यही हैं, एक और रवायत में हैः " इमाम हुसैन के बाद लोग मुरतद हो गए तीन को छोड़ कर।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बाद मुर्तद हो गए, इस मानी में नहीं कि धर्म से पलट गए, इस मानी में कि शिया जिस रास्ते पर चल रहे थे, उसके बारे में संदेह का शिकार हो गए। ऐसी हालत में कैसे आगे बढ़ा जा सकता है। कितने लोग हैं, तीन लोगः नहीं मालूम कौन, कौन और यहया इब्ने उम्मे तवील, तीन लोगों से ज़्यादा नहीं बचे। "फिर लोग" हज़रत फ़रमाते हैं कि "फिर लोग जुड़ते गए और बढ़ते गए।" (लोग शामिल होते रहे और बढ़ते रहे) इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने 30 साल मेहनत की, इसके बाद इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने कोशिशें कीं तो नतीजा यह मिला।

उसी रवायत में जो मैं पढ़ रहा था कि अल्लाह ने टाल दिया इस हुकूमत के मसले को "सन एक सौ चालीस तक" (2) सन 140 तक। 140 इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का ज़माना है। हज़रत 148 (हिजरी क़मरी) में इस दुनिया से चले गए। शियों के बीच, अहम शिया हस्तियों के बीच यह बात कही जाती थी, बारम्बार कही जाती थी। बाद में हज़रत ने इसी रवायत के आख़िर में इस देरी की वजह बयान फ़रमायी कि ऐसा हो गया इसलिए देर हो गयी। जैसा कि आप देखते हैं कि ज़ुरारह, यह रवायत है, ज़ुरारह तो उनके बहुत निकटवर्ती लोगों में थे। ज़ुरारह कूफ़े में थे। आप जानते हैं कि वह कूफ़े के रहने वाले थे, कूफ़े में रहते थे। ज़ुरारह हज़रत को एक पैग़ाम भेजते हैं, हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को एक ख़त लिखते हैं कि हमारे दोस्तों में से एक शख़्स, लोगों में से, यानी शियों में से एक शख़्स क़र्ज़ की मुश्किल में फंस गया है और हुकूमत उसे गिरफ़्तार करना चाहती है क़र्ज़ की वजह से, भारी क़र्ज़ की वजह से जो उस पर है। वह फ़रार हो जाता है, एक मुद्दत से अपने बीवी बच्चों से दूर हो गया है, फ़रार हो गया है और वतन से दूर आवारा वतन घूम रहा है कि गिरफ़्तारी से बच चाए। अब यहाँ मैं आपसे सवाल करना चाहता हूं कि अगर "यह अम्र" यह अम्र रवायतों में बार बार आया है। मुराद यही हुकूमत का मसला है। यह चीज़ अगर इसी एक दो साल में होने वाली है तो यह चीज़ उस वक़्त तक रोक कर रखी जाए जब आप मसनद पर बैठ जाएं और मसला हल हो जाए और अगर ऐसा नहीं है और एक दो साल के भीतर यह नहीं होना है तो पैसे जमा किए जाएं, साथी पैसे जमा करें और उस बेचारे का क़र्ज़ उतारें और वो अपने घर वालों और परिवार में लौट सके। यह सवाल ज़ुरारह करते हैं, यह मामूली बात नहीं है। ज़ुरारह को क्यों लगता है कि एक दो साल के भीतर हुकूमत गठित हो जाएगी? एक और रवायत है, वह भी ज़ुरारह के हवाले से, वह कहते हैं: "ख़ुदा की क़सम इन आवाद पर मैं केवल जाफ़र को देख रहा हूं" आवाद का मतलब होता है मिंबर, मिंबर के स्तंभ। फ़रमाते हैं कि मैं मिंबर के स्तंभों पर जाफ़र के अलावा किसी को नहीं देखता हूं। यानी उन्हें यक़ीन था कि हज़रत आकर ख़िलाफ़त की मसनद पर बैठेंगे। यानी ऐसा था। लेकिन फिर "अल्लाह जिसे चाहता है मिटा देता या बाक़ी रखता है और उसके पास उम्मुल किताब है।" अल्लाह की क़दर यह है, अल्लाह की क़ज़ा यह नहीं है। जी हाँ। अल्लाह की क़ज़ा यानी वह फ़ैसला जो तय हो चुका है, जो निश्चित हो चुका है,  तो यह वो नहीं थी। ख़ास तत्वों की वजह से यह हुआ।

तो इमाम इस चीज़ के लिए कोशिश में थे। यह बहुत अहम मामला है। अब आप देखिए कि इस संबंध में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का किरदार क्या रहा। अब इस वक़्त मुझे उस स्पीच की बातें याद नहीं हैं जिसका हवाला आपने दिया। इससे पहले भी मैंने पहले साल मशहद पैग़ाम भेजा था। उस पैग़ाम में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकारी का पद क़ुबूल करने के फ़ैसले की समीक्षा की थी। मैंने कहा कि यह अस्ल में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और मामून, उस होशियार, चालाक और बेहद चालाक मामून के बीच एक मुक़ाबला था। मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को ख़ुरासान बुलाया और यह फ़ैसला किया, पहले उसने कहा कि ख़िलाफ़त दूंगा, पहले उसने उत्तराधिकारी की बात नहीं कही थी। उसने कहा कि मैं आपको ख़िलाफ़त दूंगा। हज़रत ने क़ुबूल नहीं किया। उसने इसरार किया। फिर उसने कहा कि जब आप क़ुबूल नहीं कर रहे हैं तो उत्तराधिकारी बन जाइये। मामून के ऐसा करने के पीछे वजह क्या थी? मैंने मामून के इस क़दम की चार पाँच वजहें बयान कीं कि वह उन लक्ष्यों के बारे में सोच रहा था, उन चीज़ों के बारे में सोच रहा था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने क़ुबूल किया तो इसकी भी पाँच छह वजहें मैंने बयान कीं कि आपने कैसे क़ुबूल किया, क्यों यह क़दम उठाया, इसके फ़ायदे क्या रहे। एक महा संघर्ष, एक ग़ैर मामूली असैन्य जंग यानी राजनैतिक जंग अस्ल में हज़रत (इमाम रज़ा) और मामून के बीच शुरू हो गयी। उस जंग में हज़रत ने मामून को ढेर कर दिया। हज़रत ने मामून की नाक रगड़ दी। यहाँ तक कि मामून हज़रत को क़त्ल करने पर मजबूर हो गया। वरना उससे पहले यह स्थिति नहीं थी। वो लोग हज़रत का सम्मान करते थे, नमाज़ की इमामत के लिए भेजते थे, ये बातें थीं। वहाँ मैने बयान किया है कि मामून ने कैसे और क्यों ये काम किए, उसके पीछे क्या लक्ष्य थे, उसके मन में कौन कौन से हित थे। उस ज़माने में आपकी तरह, आप अल्लाह की कृपा से नौजवान हैं और हिम्मत व हौसला रखते हैं, उस वक़्त हमारे पास भी हिम्मत व हौसला था और यह काम किया करते थे। अब तो उन बातों और बहसों से हम पूरी तरह दूर हो गए हैं।

बहरहाल इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम और बाक़ी इमामों की ज़िंदगी के ये तीन पहलू बयान किए जाने चाहिए। आपकी कला यह होनी चाहिए कि इन तीनों हिस्सों से संबंधित विषयवस्तु जमा कीजिए, जो बातें ठोस नहीं हैं, उनको हटा दीजिए, तीसरी चीज़ यह है, तीसरी चीज़ सबसे अहम है कि मुनासिब ज़बान में, आज के दौर की ज़बान में, ग़ैर शिया लोगों के लिए, बल्कि शियों के लिए भी, हमारे जवानों में भी कुछ ऐसे जवान हैं जो इन बातों व अर्थों से उतने ही दूर हैं जितने ग़ैर शिया और ग़ैर मुसलमान दूर हैं, उन्हें कोई जानकारी नहीं है, इन चीज़ों को बयान कीजिए। मेरी नज़र में अगर यह काम हो तो सिर्फ़ कॉन्फ़्रेंस और स्पीच वग़ैरह तक सीमित नहीं रहेगा, इसका फ़ायदा साफ़ तौर पर नज़र आएगा।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बर्कत हो।

  1. इस आयत का हवाला "और मैं क्या जानूं कि यह ताख़ीर तुम्हारे लिए परीक्षा है या एक ख़ास वक़्त तक जीवन का लुत्फ़ उठाने की मोहलत है।" (सूरए अंबिया, आयत-111)
  2. सन 140 तक