इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने 6 मई 2024 को हज संस्था के अधिकारियों, सदस्यों और हज के लिए जाने वाले श्रद्धालुओं से मुलाक़ात में हज के विषय पर अहम गुफ़तगू की और ग़ज़ा पर ज़ायोनियों के हमलों के परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों की ज़िम्मेदारियों को रेखांकित किया। (1)
तक़रीरः
बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम
अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल और ख़ास तौर पर ज़मीनों पर अल्लाह की तरफ़ से बाक़ी रखी गई हस्ती पर।
आप सब का स्वागत है भाइयो और बहनो! आप लोग कितने ख़ुशक़िस्मत ज़ायर और हाजी हैं कि इस साल आप काबे और पैग़म्बरे इस्लाम के रौज़े और बक़ीअ में इमामों की क़ब्रों का दीदार करेंगे। इसी तरह इस मुल्की और अवामी अहम प्रोग्राम के कितने अच्छे इनचार्ज हैं आप लोग। हज के कामों की ज़िम्मेदारी संभालने वालों का मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूं, उनकी मेहनत सच में बहुत क़ीमती है। हज के सही इस्लामी तक़ाज़ों के साथ एक शानदार व रूहानी हज का आयोजन सच में एक बहुत बड़ी कामयाबी है, उसका बड़ा हिस्सा आप लोगों के कांधों पर है जो इसे व्यवहारिक बनाते हैं। अल्लाह आप सब की मेहनतों को क़ुबूल करे और आप सब की हिफ़ाज़त करे।
हज के बारे में बहुत बातें हुई हैं, बड़ों ने, दूसरों ने बहुत कुछ कहा है, हमने भी कुछ कहा है, लेकिन हज तो इन सब से बहुत बड़ी चीज़ है। बहुत चर्चा हो सकती है, बहुत सी बाते हैं इसमें, जैसा कि एक रवायत भी इमाम मासूम अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई है इसी बारे में कि रावी ने इमाम से कहा कि हम बरसों से आप से हज के बारे में पूछते हैं, आप इसी तरह से नयी नयी बातें बताते हैं, इमाम भी रावी की बात को सही कहते हैं और उचित जवाब देते हैं। मैं आज जो कहना चाहता हूं वह यह है कि हज कई पहलुओं और आयामों वाली एक वाजिब इबादत है जिसमें बहुत से अर्थ छुपे हैं, उसके रूहानी और भौतिक दोनों पहलु, कई आयामों वाले हैं लेकिन मुझ हक़ीर की नज़र में हज की दो बातें, इस इबादत की सब से बड़ी ख़ूबी हैं कि जिनमें से एक, इंसान के अंदर, उसकी भीतरी दुनिया, उसकी रूह से संबंधित है कि जो ज्ञान व पहचान व संकल्प पैदा करने वाली है और दूसरी, इंसान की सामाजिक ज़िंदगी से संबंध रखती है।
जो चीज़ इंसान के भीतर, उसके अंदरूनी हिस्से, उसकी तरबियात, उसमें सही इरादे और संकल्प से संबंध रखती है वह हज में किया जाने वाला “ज़िक्र” है। हज में “ज़िक्र” बहुत ही अहम चीज़ है। आप हज पर नज़र डालें, शुरु से आख़िर तक, एहराम, एहराम की तैयारी से लेकर, उमरा अंजाम देने तक, फिर हज के एहराम, फिर वुक़ूफ़ और हज के दूसरे आमाल, सब के सब ज़िक्र और अल्लाह की याद से भरे हैं। इस लिए क़ुरआने मजीद ने भी कई जगहों पर इसी हज के बारे में “ज़िक्र” का हुक्म दिया है, अभी यहां जिन आयतों की तिलावत की गयी उनमें एक आयत यह थीः “और जब तुम अरफ़ात से कूच करो तो मशअरे हराम में अल्लाह को याद करो”(2) “ और ख़ास दिनों में अल्लाह को याद करो”(3) “तो अल्लाह को वैसे ही याद करो जैसे अपने बाप दादाओं को याद करते हो”। (4) “ तो अल्लाह के नाम को उन के लिए ऐसी हालत में कि वह पैरों पर खड़े हों अल्लाह का नाम लो”।(5) हर जगह अल्लाह का ज़िक्र, सिर से पैर तक, चाहे तवाफ़ हो, चाहे सई हो, चाहे नमाज़े तवाफ़ हो, चाहे अरफ़ात में ठहरना हो, चाहे मशअर, चाहे मिना हो, पूरे हज में अल्लाह का ज़िक्र है, अल्लाह की याद है। यह ज़िक्र, ज़िंदगी का स्रोत है, अहम यह है। जब हमारे दिल में अल्लाह की याद होगी और अल्लाह की याद की वजह से हमारे दिल में अल्लाह का डर बस जाएगा तो इस का हमारी ज़िंदगी पर, हमारे इरादे पर, हमारे संकल्प पर, हमारे बड़े बड़े फ़ैसलों पर असर पड़ेगा। जिस क़ौम को बड़े बड़े काम करने की ज़रूरत हो उस के लोगों को अल्लाह की याद से जुड़े रहना चाहिए।
हम कभी कभी हाजियों और उन सभी से जो लोग मक्का और मदीना जाते हैं यह सिफ़ारिश करते हैं कि वहां उस चीज़ के बारे में सोचें जो वहां के अलावा और कहीं नहीं मिलती, उन चीज़ों के बारे में नहीं जो हर जगह होती है, बाज़ार हर जगह है, सामान और दिल को भाने वाली चीज़ें हर जगह होती हैं, जो चीज़ हर जगह नहीं होती वह काबा है, मस्जिदुल हराम है, तवाफ़ है, पैग़म्बरे इस्लाम के रौज़े की ज़ियारत है, यह सब चीज़ें सिर्फ़ वहीं हैं, जो कुछ गिने चुने दिन आप वहां रहते हैं तो इस का ख़्याल रखें, उसकी क़द्र करें। यह जो हम ज़ोर देते हैं वह इसी लिए है कि अगर हम याद रखें, अल्लाह को याद रखें “तो अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो तो शायद तुम लोग कामयाब हो जाओ”(6) तो ज़िक्र का नतीजा फ़लाह होता है। “फ़लाह” सिर्फ़ रूहानी नहीं होता, फ़लाह यानी सफलता, यानी कामयाबी, यानी सभी कामों में मक़सद पूरा होना है, यह सब ज़िक्र का नतीजा है, यह हज का एक बुनियादी हिस्सा है, जो इंसान के अंदर से संबंध रखता है लेकिन इंसान की ज़िंदगी बना देता है।
जो चीज़ समाज से संबंध रखती है, वह “एकता” का मुद्दा है, एकजुटता का मुद्दा है, एक नज़र आने की बात है, इतने सारे मुसलमानों से संपर्क का मामला है, हज के सिलसिले में यह बहुत अहम मसला है। हमने बार बार यह कहा है कि अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के ज़रिए, कुछ ख़ास लोगों को नहीं बल्कि हरेक को हज की दावत दी है। “और लोगों में हज का बुलावा दो”। (7) यहां कहा जा रहा है कि लोगों को, सभी लोगों को, हर इंसान को, हज की दावत दो। हरेक के लिए इसकी दावत कुछ ख़ास दिनों के लिए, एक ख़ास जगह, हर साल! इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि अल्लाह का इरादा, अल्लाह का, शरीअत बनाने वाला इरादा, यह हुआ कि सारे मुसलमान एक दूसरे से क़रीब हो जाएं, एक दूसरे को पहचानें, एक साथ सोचें, एक साथ फ़ैसला करें, हमारी आज की सब से बड़ी कमी यही है कि हम “एक साथ फ़ैसला” नहीं कर पाते। एक जगह इस तरह से जमा हों कि उनके जमा होने का इस्लामी दुनिया को फ़ायदा पहुंचे, बल्कि पूरी इंसानियत को फ़ायदा पहुंचे, हम इसकी कोशिश कर रहे हैं। यक़ीनी तौर पर इसके लिए सब से पहले आपसी समझ ज़रूरी है, राष्ट्रवाद को पीछे छोड़ना, दीनी व धार्मिक भेदभाव से आगे बढ़ना ज़रूरी है। इस्लाम में बहुत से मकतब व मसलक हैं कि जो सब के सब एक साथ एक तरह से, एक कपड़े में, एक साथ आगे बढ़ कर एक जगह जमा होते हैं, यह एक इलाही जमावड़ा है, यह इस्लामी इजतेमा है, यह हज का सब से ज़्यादा स्पष्ट सियासी पहलु है। हज में यह दो चीज़ें हैं, “ज़िक्र” का पहलु भी है और “इस्लामी एकता” का पहलु भी है वैसे क़ुरआने मजीद में, रसूले ख़ुदा और इस्लाम की बड़ी हस्तियों की हदीसों में, फूट न पड़ने की सिफ़ारिश सिर्फ़ हज के वक़्त के लिए ही नहीं है “और अल्लाह की रस्सी को मज़बूत से थाम लो और बिखरो न” (8) इसी तरह की क़ुरआन की बहुत सी आयतों में एक दूसरे से दुश्मनी और दूर होने की मनाही है मुसलमानों के लिए। जी तो यह हज के बारे में दो अहम बातें थीं।
यहां पर मैं यह भी ज़िक्र कर दूं कि हज की बात करते वक़्त हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का मुबारक नाम भुलाया न जाए। हज़रत इब्राहीम की तरफ़ से क़ुरआन मजीद में हमें बहुत कुछ सिखाया गया है कि जिनका ज़िक्र क़ुरआने मजीद में है जिसकी एक मिसाल यही हज की दावत है “और लोगों को हज की दावत दो” और इसी तरह लोगों को यह हुक्म कि “और मक़ामे इब्राहीम को अपने लिए नमाज़ पढ़ने की जगह बनाओ”(9) जहां वह खड़े हुए वहां नमाज़ पढ़ो, उस जगह को नमाज़ पढ़ने की जगह बनाओ। या “हमने इब्राहीम व इस्माईल से यह अहद लिया कि वो मेरे घर को तवाफ़ करने वालों, एतेकाफ़ करने वालों और रुकू व सजदा करने वालों के लिए पाक करें”।(10) इस तरह पाक करने की जो बात कही गयी है उससे यह समझ में आता है कि हज़रत इब्राहीम से पहले इस जगह पर कुछ समस्याएं थीं और यह कि हज़रत इब्राहीम उसकी नींव डालने और उसे बनाने के अलावा इस घर को पाक भी करते थे, उस गंदगी से जिसके बारे में हमारे यहां रवायतों और हदीसों में कुछ ख़ास नहीं बताया गया है कि वह क्या गंदगी थी। इसी बुनियाद पर मेरा यह कहना है कि इस साल हमारा हज, “हज्जे बराअत” है, उस शिक्षा की बुनियाद पर जो हज़रत इब्राहीम ने हमें दी है। यक़ीनी तौर पर इंक़ेलाब के आरंभ से ही हज के मौक़े पर बराअत और दूरी के एलान का विषय था, उस पर अमल किया गया, और इसे जारी रखना और बाक़ी रहना चाहिए, लेकिन इस साल का हज ख़ास तौर पर बराअत और दूरी के एलान का है।
यह ग़ज़ा में जो कुछ हो रहा है और यह अजीब व बड़ी घटना, यह पश्चिमी सभ्यता से उपजे एक ख़ूंखार समूह का भयानक चेहरा सामने आना, यह सब वह चीज़ें हैं जिन पर ध्यान देना आज या कल से मखसूस नहीं, यह तारीख़ में बाक़ी रहेगा। आजकल ग़ज़ा और फ़िलिस्तीन में जो कुछ हो रहा है, यह ज़ायोनी पागल कुत्तों की तरफ़ से बर्बरता के साथ किये जाने वाले हमले एक तरफ़ और ग़ज़ा के मुसलमान अवाम की मज़लूमियत और बहादरी दूसरी तरफ़, दोनों ही तारीख़ का एक बहुत बड़ा निशान है, एक मापदंड है तारीख़ में जो हमेशा बाक़ी रहेगा। यह वह अहम चिन्ह व कसौटी हैं जो मानवता के भविष्य में दिखाई जाएगी। आप ग़ौर कर रहे हैं कि आज के दौर में ही ग़ैर इस्लामी समाजों में इस घटना पर जो प्रतिक्रिया सामने आ रही है वह हैरत में डालने वाली है और उसकी मिसाल नहीं मिलती। यह जो आजकल अमरीका और कुछ दूसरे मुल्कों की युनिवर्सिटियों में हो रहा है (12) उसकी पहले कहीं मिसाल तो नहीं मिलती लेकिन अगर कोई यह दावा भी करता कि हो सकता है किसी दिन ऐसा कुछ हो जाए तो कोई यक़ीन नहीं करता, कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह हो जाएगा! यह इस बात का सुबूत है कि यह घटनाएं इंडीकेटर व कसौटी हैं।
जी तो हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? हज़रत इब्राहीम से हमें सीखना चाहिए। आप देख रहे हैं हज़रत इब्राहीम को, वह उन पैग़म्बरों में से हैं जो बहुत नर्म दिल थे। सारे पैग़म्बर ख़ूबियों और गुणों के लिहाज़ से एक समान नहीं थे। हज़रत इब्राहीम बहुत रहम दिल थे, मिसाल के तौर पर जब फ़रिश्ते हज़रत लूत के इलाक़े में अज़ाब नाज़िल करने के लिए जाना चाह रहे थे तो हज़रत इब्राहीम उनसे बहस करते हैं कि अगर हो सके तो वहां के लोगों पर रहम किया जाए। “हम से लूत की क़ौम के बारे में बहस कर रहे हैं” (13) यानी अल्लाह के फ़रिश्तों से सिफ़ारिश करना चाहे रहे हैं, पैरवी करना चाह रहे हैं कि वो हज़रत लूत की क़ौम पर रहम करें, यानी वह इस तरह के इंसान हैं, कई दूसरों पैग़म्बरों के हालात अलग थे, अब यहां हम हज़रत इब्राहीम के बारे में बात करना चाहते हैं, यहां फिर सूरए इब्राहीम की इस आयत में कहा गया हैः “तो जो मेरी पैरवी करता है तो वह मुझ में से है और जिसने मेरी नाफ़रमानी की तो तू तो है ही बख़्शने और रहम करने वाला”। (14) जो लोग मेरी पैरवी करते हैं, बहुत अच्छी तरह से पैरवी करते हैं वो तो मेरे अनुयाई हैं, लेकिन हज़रत इब्राहीम, परवरदिगार से नहीं कहते, जो लोग बातें नहीं सुनते, उन्हें सुधार दे, उनकी हिदायत कर या फिर उन्हें अज़ाब दे, कहते हैं कि “तू तो माफ़ और रहम करने वाला है” उन्हें भी माफ़ कर दे, उन्हें माफ़ी दे दे, वह इस तरह के रहम दिल हैं। उन गैर मुस्लिमों के बारे में जो इस्लाम के ख़िलाफ़ तलवार नहीं उठाते, सूरए मुमतहेना में, हज़रत इब्राहीम की बातों का ज़िक्र किये जाने के बाद यह आयतें हैं जिन्हें पढ़ कर यह लगता है कि यह भी हज़रत इब्राहीम से संबंध रखती हैं।
“अल्लाह उन लोगों के साथ कि जिन्होंने दीन के मामले में तुम से जंग नहीं की और दुश्मनी नहीं की और तुम्हें तुम्हारे वतन से बाहर नहीं निकाला नेकी और इंसाफ़ करने से नहीं रोकता और अल्लाह तो इंसाफ़ करने वालों को दोस्त रखता है”। (15) यानी यह कि अगर कोई तुम्हारे दीन का नहीं है, लेकिन तुम से जंग नहीं करता, तो उसके साथ इंसाफ़ करो, इंसाफ़ वाला रवैया अपनाओ, उसके साथ नेकी करो, यानी जो ग़ैर मुस्लिम तुम से लड़ता नहीं, तुमसे मतलब नहीं रखता, तुम्हें परेशान नहीं करता। यानी हज़रत इब्राहीम इस तरह की हस्ती हैं, गुनाहगारों के साथ इस तरह, ग़ैर मुस्लिम के साथ इस तरह लेकिन देखें कि यही इब्राहीम एक और गुट के साथ कैसा रवैया अपनाते हैं। “निश्चित रूप से तुम्हारे लिए इब्राहीम और उनके साथ जो लोग हैं उनकी पैरवी करना अच्छा है कि जब उन्होंने अपनी क़ौम से कहा कि “ हम तुमसे और तुम लोग अल्लाह की जगह जिस चीज़ की पूजा करते हो उससे बेज़ार व दूर हैं, तुम्हारा इन्कार करते हैं और तुम्हारे और हमारे बीच हमेशा की दुश्मनी और द्वेश पैदा हो गया है उस वक़्त तक जब तक तुम अल्लाह पर ईमान न ले आओ”। आप ग़ौर करें! एक गुट से जो दुश्मन है और जंग करता है, उसके साथ इस तरह का रवैया अपनाते हैं! वही रहम दिल, मेहरबान और नर्म दिल वाले इब्राहीम जो हज़रत लूत की क़ौम की सिफ़ारिश करते हैं, गुनाहगारों के लिए माफ़ी मांगते हैं, और यह मानते हैं कि जो काफ़िर जंग नहीं करता उसके साथ नेकी की जानी चाहिए, यही इब्राहीम एक जगह इस तरह से मज़बूती से खड़े हो जाते हैं और दूरी का एलान करते हैं “हम तुम से बेज़ार हैं” हम तुम से दूरी का एलान करते हैं, “हमारे तुम्हारे बीच दुश्मनी हो चुकी है” हम तुम से खुली दुश्मनी करते हैं। यह कौन लोग हैं, यह वो लोग हैं जो जंग करते हैं। इसी तरह इसी सूरए मुमतहना में उन आयतों के बाद जिनकी मैंने तिलावत की, यह भी हज़रत इब्राहीम की सोच को दर्शाती है, कहा गया हैः “अल्लाह तुम्हें उन लोगों से दोस्ती करने से रोकता है जो लोग दीन के मामले में तुम से जंग करते हों, तुम्हें तुम्हारे वतन से निकालते हों और तुम्हें बाहर निकालने पर जमा हो गये हों”। (17) जो लोग तुम्हें क़त्ल करते हैं, तुम से जंग करते हैं, तुम्हें तुम्हारे घरों और वतन से भगा देते हैं या उन लोगों की मदद करते हैं जिन्होंने तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाल दिया है तो उनसे संपर्क रखने या उन की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाने का तुम्हें हक़ नहीं है, हक़ नहीं है! यानी तुम्हारे बीच दुश्मनी होनी चाहिए, जैसा कि हज़रत इब्राहीम ने कहा हैः “हमारे और तुम्हारे बीच दुश्मनी और द्वेष जाग गया है”।
जी तो आज दुनिया में कौन है कि जो मुसलमानों से दुश्मनी कर रहा है, जंग कर रहा है, उनका क़त्ल कर रहा है, उनके पुरुषों को, उनके बच्चों को, कौन है जो उन्हें उनके घरों से निकाल रहा है, कौन है? ज़ायोनी दुश्मन को क़ुरआने मजीद में और कितने साफ़ शब्दों में पहचनवाया जाएगा? सिर्फ़ ज़ायोनी दुश्मन ही नहीं “तुम्हारे निकालने के लिए वे एक दूसरे की मदद करें” जो मदद करे! कौन मदद करता है? अगर आज अमरीका की मदद न होती तो क्या ज़ायोनी शासन में इतना दम था, इतनी हिम्मत थी कि वह इस तरह से बर्बरता के साथ उस छोटी सी जगह में इतनी बड़ी तादाद में औरतों, पुरुषों और बच्चों के साथ इस तरह का रवैया अपनाए? इस तरह के दुश्मन से हंस कर नहीं मिला जा सकता, उनके साथ नर्मी से पेश नहीं आया जा सकता, चाहे वह हो जिसने ख़ुद क़त्ल किया हो चाहे वह हो जिसने क़त्ल में उसकी मदद की और सहयोग किया, चाहे वह हो जिसने घरों को तबाह कर दिया, चाहे वह हो जिसने घर तबाह करने में मदद दी हो। “और जो उनसे दोस्ती रखेगा तो वह ख़ुद ज़ालिम होगा” (18) अगर कोई उनकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाता है तो वह ज़ालिम है, सितमगर है “और जान लो कि अल्लाह की लानत ज़ालिमों पर होती है” (19) क़ुरआन की बात, क़ुरआन की आयतें हैं यह। इस लिए इस साल बराअत किसी भी साल से ज़्यादा खुल कर होगी। इस साल का हज, बराअत का हज है।
ईमान वाले हाजियों को चाहे वो ईरानी हों या ग़ैर ईरानी, चाहे जहां के हों, उन सब को ऐसा होना चाहिए कि वो क़ुरआने मजीद के इस संदेश को पूरी इस्लामी दुनिया में फैला दें। आज फ़िलिस्तीन को इसकी ज़रूरत है, उसे इस्लामी दुनिया की तरफ़ से मदद की ज़रूरत है। जी हां, इस्लामी जुम्हूरिया ईरान ने इनका-उनका इंतेज़ार नहीं किया और न ही कभी करेगा, लेकिन अगर इस्लामी राष्ट्रों और इस्लामी सरकारों के मज़बूत हाथ इधर-उधर से मदद के लिए बढ़ें और साथ दें तो उसका असर बहुत ज़्यादा हो जाएगा तो उस सूरत में फ़िलिस्तीन की यह दयनीय हालत बाक़ी नहीं रहेगी, यह एक ज़िम्मेदारी है। (20) आप सब तो तैयार हैं, अल्लाह करे इस्लामी दुनिया तैयार हो जाए, इंशाअल्लाह।
हाजियों की स्थिति के बारे में भी जो भी मेहनत की जाती है, चाहे वह, हमारे कार्यालय की तरफ़ से हो, हज के इदारे की तरफ़ से हो, हरेक का अपना रोल है, चाहे हाजियों के आने जाने, स्वास्थ्य और सुरक्षा और आवाजाही आदि का इंतेज़ाम करने वाले दूसरे इदारे हों, मैं उन सब का दिल की गहराई से शुक्रिया अदा करता हूं और हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ईरानी हाजियों के आराम के लिए और उनके हज को एक मक़बूल और बरकत वाला हज बनाने के लिए जितनी हो सके तैयारी करें, यह प्लानिंग ज़रूरी है। ख़ुदा का शुक्र है कि अच्छे काम हुए हैं और हो रहे हैं लेकिन आज जो हम कर रहे हैं और जो हम करना चाहते हैं उनके बीच जो दूसरी है उसे ख़त्म होना चाहिए, अल्लाह के करम से हम प्लान तैयार करें तो अल्लाह भी मदद करेगा।
मैं ख़ुदा से उसकी नेमतों का, उसकी मग़फ़ेरत का, उसकी रहमत का इमाम ख़ुमैनी, हमारे शहीदों और हमारे उन लोगों के लिए सवाल करता हूं जो हमारे बीच नहीं रहे हैं।
वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहू