आयतुल्लाह ख़ामेनेई की स्पीचः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मोहम्मद और उनकी पाक नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर।

प्यारे भाइयो व बहनो! आप सबका स्वागत है! दिल की गहराई से शुक्रगुज़ार हूं कि आपने क़ीमती काम अंजाम दिया। इन दिनों जो एक बेहतरीन काम अंजाम पाना चाहिए था, जिसकी ओर आपका ध्यान गया, अल्लाह ने आपको इल्हाम किया और आपने हिम्मत से काम लेते हुए उसे इंजाम दिया, वह यही है। इस महान इंसान, इस्लामी जगत के ओलमा में इस प्रतिष्ठित व फ़ख़्र के क़ाबिल हस्ती को श्रद्धांजलि पेश करना।

मरहूम अल्लामा तबातबाई सदियों पर फैले हमारे धार्मिक शिक्षा केन्द्रों के इतिहास की बेमिसाल हस्ती हैं। सच में ऐसी हस्ती जिसकी मिसाल बहुत मुश्किल से मिलती है। आपकी हैरतअंगेज़ ख़ुसूसियतें हैं जिनमें कुछ का मैं संक्षेप में यहाँ ज़िक्र करुंगा। ये सारी ख़ुसूसियतें महान इंसानों की महानता का दर्जा रखती हैं। ये ख़ुसूसियतें जो इस महान इंसान की शख़्सियत का हिस्सा हैं, ये सबके सब एक इंसान की बेहतरीन ख़ुसूसियतें होती हैं। ये ख़ुसूसियतें कुछ इस तरह हैं, मैंने इनमें से कुछ को नोट किया है। इल्म, परहेज़गारी, नैतिक बुलंदी, महारतें, ख़ुलूस, दोस्ती, वफ़ादारी वग़ैरह। ऐसी ही दूसरी अनेक ख़ुसूसियतें हैं जिन्हें यहाँ गिनवाना ज़रूरी नहीं महसूस हुआ। इन सभी ख़ुसूसियतों से मिल कर इस महान इंसान की शख़्सियत बनी है। इनमें से हर ख़ुसूसियत, इंसानी महानता में बहुत अमहियत रखती है। इस महान हस्ती के बारे में मैंने कुछ बिन्दु नोट किए हैं जो बयान करुंगा, इस पर ध्यान दिया जाए। एक तो इस महान इंसान में इल्म की मुख़्तलिफ़ शाखाओं का गहरा ज्ञान है। उनमें इल्म की मुख़्तलिफ़ शाखाओं का ज्ञान, हक़ीक़त में बेमिसाल है। बेशक हमारे इतिहास में शैख़ तूसी और अल्लामा हिल्ली और ऐसी कुछ और हस्तियां गुज़री हैं जो इल्म की मुख़्तलिफ़ शाखाओं में माहिर थी लेकिन हमारे ज़माने में ऐसी शख़्सियतें हक़ीक़त में कम हैं। यानी मैं नहीं जानता जिस तरह इल्म की मुख़्तलिफ़ शाखाओं का ज्ञान उनके पास था किसी और के पास रहा हो। वो फ़क़ीह हैं, इल्मे उसूह के माहिर हैं, इल्मे इरफ़ान की गहरी जानकारी रखने वाली शख़्सियत थे। खगोल शास्त्र और गणित में माहिर थे। तफ़सीर और क़ुरआन के बड़े विद्वान थे। इस मैदान में वे बेनज़ीर थे। शायर और साहित्यकार थे। शजरे (वंशावली) में माहिर थे और बहुत ही सरगर्म हस्ती थे। शजरे (वंशावली) का ज्ञान रखते थे। यानी उनमें दर्शनशास्त्र के साथ या जनाब तबातबाई में इरफ़ान के साथ वंशावली का ज्ञान भी नज़र आता है।  उन्होंने एक शजरा तैयार किया था जिसमें क़ाज़ी तबातबाई की फ़ैमिली का परिचय कराया गया है। यह एक ऐतिहासिक अहमियत वाला चार्ट है जो मेरी नज़र में कलात्मक रचना है। यह छप भी चुका है और लोगों के पास मौजूद भी है। मेरे मरहूम वालिद ने जो नजफ़ से अल्लामा तबातबाई के दोस्त थे, मुझे बताया था कि उन्होंने तबातबाई साहब को लिखा कि आप मेरी वंशावली फ़ुलां साहब से, जो क़ुम में बहुत मशहूर थे, पूछ कर मेरे पास भेज दीजिए। तबातबाई साहब ने जवाब में लिखा था कि मैं ख़ुद ही उनके जितना या उनसे ज़्यादा जानता हूं, इन दोनों में से एक बात उन्होंने कही थी जो अब मुझे पूरी तरह याद नहीं है। उन्होंने हमारी वंशावली तैयार करके भेजी थी, मतलब यह कि इस वक़्त जो वंशावली हमारे पास है, उसे तबातबाई साहब ने तैयार करके भेजा था। इंसान उनकी शख़्सियत में हैरत अंगेज़ विविधता पाता है। मैंने मिसाल के तौर पर कहा था कि गणित, खगोल शास्त्र, आप जानते हैं यानी यह बात बहुत मशहूर है कि उस वक़्त (क़ुम में जो मशहूर मदरसा) मदरसए हुज्जतिया है, इसका नक़्शा उन्होंने तैयार किया था, मतलब यह कि वह सही मानी में आर्किटेक्ट थे। विविधता अल्लामा तबातबाई की इल्मी शख़्सियत का एक ख़ास पहलू है।

एक दूसरा पहलू, उनमें इल्म और विचार की गहराई है। वह इल्म की उन शाखाओं में, जिनके बारे में हम जानते हैं और हमें पता है, बहुत गहरा इल्म रखते थे। सबसे पहली बात तो यह कि वो उसूले फ़िक़ह के इल्म में अपनी राय रखते थे। मैंने उसूले फ़िक़ह में उनकी कोई किताब नहीं देखी लेकिन उसूले फ़िक़ह में वो ऐसे विद्वान हैं जिनकी अपनी राय है। किफ़ाया (नामक किताब) (2) पर उनका नोट, इस बात को साबित करता है। दर्शनशास्त्र में वो एक नई सोच रखने वाले दार्शनिक हैं, वो दर्शनशास्त्र में नई सोच पेश करते हैं जो उनकी इस किताब “The Principles of Philosophy and the Method of Realism” में नज़र आती है। फिर वो दो किताबें जो उन्होंने अपनी उम्र के आख़िरी हिस्से में लिखी थीं ‘बेदाया’ (3) और ‘नेहाया’ (4) तफ़सीर की बात की जाए तो उनकी तफ़सीर को देखकर इंसान हैरत में पड़ जाता है। मतलब यह कि जो भी ‘तफ़सीरे अलमीज़ान’ पर एक नज़र डालेगा वह समझ जाएगा कि यह तफ़सीर, सही मानी में हैरत में डालने वाली तफ़सीर है, गहरी बातों की बहुतायत, विविधता और गहराई के लेहाज़ से, जिसके बारे में, मैं बाद में संक्षेप में कुछ अर्ज़ करुंगा। यह भी उनका एक पहलू है जिससे उनकी इल्मी और वैचारिक गहराई पता चलती है। 

उनका दूसरा इल्मी पहलू, शिष्यों की तरबियत है। मरहूम तबातबाई की शिष्यों की तरबियत बहुत अजीब चीज़ है। यह हर आलिम की एक कला होती है। धर्मगुरुओं में ऐसे लोग काफ़ी ज़्यादा हैं जो शिष्यों की तरबियत करते हैं और उनके शिष्यों की तादाद बहुत ज़्यादा होती है, मरहूम तबातबाई साहब इन्हीं में से एक हैं। ईरान में दर्शनशास्त्र के हालिया दौर के दार्शनिकों में, जब मुल्क में दर्शनशास्त्र का केन्द्र तेहरान था, मरहूम मुल्ला अब्दुल्लाह ज़नूरी और उनके बेटे जनाब अली हकीमी के ज़माने से मरहूम मीरज़ा जलवे, मीरज़ा असदुल्लाह क़ुमशई तक, ये लोग जो दर्शनशास्त्र की नुमायां शख़्सियतें हैं, ज़्यादातर तेहरान में रहती थीं, कुछ दर्शनशास्त्री दूसरी जगहों पर भी थे, जैसे मरहूम हाजी सब्ज़वारी, सब्ज़वार में थे, एक दो लोग क़ुम में थे, एक दो इस्फ़हान में थे, एक दो मशहद में थे, ये लोग दर्शनशास्त्र की नुमायां शख़्सियतें हैं, इनमें से किसी के भी दर्शनशास्त्र में उतने मशहूर शिष्य नहीं हैं जितने मशहूर शिष्य मरहूम तबातबाई के हैं। जी हां, हाजी सब्ज़वारी के बहुत से शिष्य हैं जो उनके पास आते थे और दर्शनशास्त्र पढ़ते थे, मरहूम आख़ुन्द ख़ुरासानी भी उनके शिष्य हैं, लेकिन आख़ुन्द ख़ुरासानी दार्शनिक नहीं हैं, वो ऐसे फ़क़ीह हैं जिन्होंने किसी हद तक दर्शनशास्त्र पढ़ा है। दार्शनिक शिष्यों की तरबियत जैसे शहीद मुतह्हरी, जैसे शहीद बहिश्ती, जैसे मरहूम मिस्बाह साहब और कुछ दूसरी अहम शख़्सियतें जो अब भी ज़िन्दा हैं, ऐसे लोगों की तरबियत और परवरिश जिन्होंने मरहूम तबातबाई से पढ़ा है, मुझे किसी और शख़्स में दिखाई नहीं दी। शिष्यों की तरबियत का मसला अहम है। फिर हमारे ज़माने के बाद के दार्शनिकों तक, तेहरान में कुछ लोग थे जैसे मरहूम मीरज़ा आश्तियानी, उनसे पहले मरहूम मीरज़ा आश्तियानी, या मरहूम आमुली साहब (5) ये सब दार्शनिक थे, लेकिन उनकी ओर से मरहूम तबातबाई जितने शिष्यों की तरबियत, सामान्य बात नहीं है, उन्होंने दर्शनशास्त्र को ज़िन्दा किया और सच बात तो यह है कि दार्शनिक पैदा किए।

अब यहाँ एक दिलचस्प बात यह है कि उनके शिष्य, यानी उनके बहुत से शिष्य, इस्लामी इंक़ेलाब में अहम योगदान देने वालों में हैं। विशेषज्ञों की उस काउंसिल में जिसने संविधान संकलित किया है, काफ़ी तादाद उन लोगों की है जो मरहूम तबातबाई के शिष्य हैं, चाहे विशेषज्ञों की काउंसिल हो, चाहे इससे पहले वह कमेटी हो जो संविधान का मसौदा तैयार करती थी और मरहूम शहीद मुतह्हरी भी उस गिरोह का हिस्सा थे, ये मरहूम अल्लामा तबातबाई के शिष्य हैं। इसी तरह इस्लामी इंक़ेलाब के कई मशहूर शहीद भी अल्लामा तबातबाई के शिष्य हैं, शहीद मुतह्हरी उनके शिष्य हैं, शहीद बहिश्ती उनके शिष्य हैं, शहीद क़ुद्दूसी उनके शिष्य हैं, शहीद शैख़ अली हैदरी नहावंदी उनके शिष्य हैं, इस तरह के नुमायां शहीद, अल्लामा तबातबाई रहमतुल्लाह अलैह के शिष्य हैं, कुछ अल्लाह की कृपा से ज़िन्दा हैं और लोगों को उनसे फ़ायदा पहुंच रहा है।

इल्म के सिलसिले में उनकी दूसरी ख़ुसूसियत यह है कि उनकी किताबें, उनकी ज़िन्दगी में ही छप गयीं और उनकी किताबों की बरकतें उनकी ज़िन्दगी में ही नज़र आने लगीं। ख़ुद मरहूम अल्लामा तबातबाई इतने मशहूर नहीं थे जितनी उनकी ‘तफ़सीर अलमीज़ान’ या फ़र्ज़ कीजिए उनकी दर्शनशास्त्र की किताबें मशहूर थीं, यानी वो ख़ुद तो बिल्कुल ही ख़ुदनुमाई करने वाले इंसान नहीं थे, लेकिन उनकी किताबें हर जगह मशहूर थीं। उनकी अलमीज़ान, उनकी उसूले फ़लसफ़ा, उनकी बिदाया और निहाया, उनकी शिया दर इस्लाम, उनकी क़ुरआन दर इस्लाम, तौहीद के विषय पर लिखी गई उनकी अनेक किताबें, उनकी ज़िन्दगी में ही छप गयी थीं। तो यह मरहूम अल्लामा तबातबाई के इल्मी पहलू की कुछ अनोखी ख़ुसूसियतें थीं, जिन्हें हमने अर्ज़ किया।

उनका तक़वा, उनकी परहेज़गारी, उनकी इबादत और अहलेबैत से उनका इश्क़ और इसी तरह की दूसरी ख़ुसूसियतें, जिनके बारे में बहुत कुछ कहा गया है और हमने सुना है और आप भी जानते हैं, मैं उन्हें दोहराना नहीं चाहता, असाधारण थीं और हक़ीक़त में वे इन चीज़ों में एक नुमायां व असाधारण इंसान थे, वह सच में अल्लाह का डर रखने वाले परहेज़गार इंसान थे लेकिन मरहूम तबातबाई की नुमायां ख़ुसूसियतों में से दो बातें मुझे बहुत आकर्षक लगती हैं। एक ख़ुसूसियत विदेशी विचारों की यलगार, सचमुच विदेशी विचारों की यलग़ार के चरम के दौरान अल्लामा तबातबाई ने बेमिसाल वैचारिक संघर्ष किया। शायद जिन लोगों ने वह ज़माना नहीं देखा है, इस बात की ओर उनका ध्यान नहीं होगा कि उस वक़्त मुल्क के नौजवानों के मन में किस तरह के विचार गर्दिश कर रहे थे, मुल्क में वैचारिक माहौल किस तरह का था, सचमुच वैचारिक हमला हो रहा था, मार्कसिज़्म जैसे कितने ही विदेशी विचारों के मत थे, कितने संदेह पैदा किए जा रहे थे, ऐसा नहीं था कि किसी मत को पेश किया जा रहा हो बल्कि सिर्फ़ संदेह पैदा किए जा रहे थे, अल्लामा तबातबाई ने जो काम किया, मरहूम शहीद मुतह्हरी रहमतुल्लाह अलैह ने वही काम किया था और इस तरह के संदेहों के ख़िलाफ़ कमर कस ली थी और उनकी ज़्यादातर किताबें उस वक़्त मौजूद संदेहों के जवाब में लिखी गई हैं। उस तरह के दौर में मरहूम तबातबाई रहमतुल्लाह अलैह ने उस यलग़ार का मुक़ाबला करने के लिए एक मज़बूत और आक्रामक वैचारिक मत को वजूद दिया, यानी जो भी उनके विचार से परिचित होता था, उसका स्टैंड मार्क्सवाद और दूसरे विचारों के मुक़ाबले में रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक होता था जिसकी एक मिसाल शहीद मुतह्हरी की किताबें हैं जो आपके सामने हैं। इस वैचारिक छावनी को मरहूम तबातबाई ने तैयार कया था। अपने दार्शनिक उसूलों की मदद से भी और क़ुरआन की तफ़सीर से भी, यह तफ़सीर राजनैतिक व सामाजिक मालूमात का दरिया है। तफ़सीर की उस किताब में आत्मज्ञान, वैचारिक उसूलों, हिकमत वग़ैरह के जो पहलू और तफ़सीर के ख़ास बिन्दु हैं जिनके ज़रिए आयतों की व्याख्या की जाती है, ये किताब उन मैदानों में भी बेमिसाल है, मगर इनके अलावा, किताब अलमीज़ान में राजनैतिक व सामाजिक मुद्दों पर भी बहस करती है जबकि उस ज़माने में इन मुद्दों पर बहस नहीं होती थी। मगर आज जब इंसान इन मुद्दों को देखता है तो महसूस करता है कि यह तो हमारे दौर के मुद्दे हैं। ये चीज़ें लोगों को हासिल होती थीं। उस आक्रामक वैचारिक केन्द्र का गठन जनाब तबातबाई ने किया। यह उन चीज़ों में है जो हमें जनाब तबातबाई से सीखनी चाहिए। ऐसे वैचारिक केन्द्रों का गठन जो वैचारिक शून्य को भरें और आक्रामक मुद्रा अपनाएं, सिर्फ़ रक्षात्मक मुद्रा में न रहें। यह ख़ुसूसियत मेरे ख़याल में बहुत ही आकर्षक है।

आपकी दूसरी ख़ुसूसियत जो अपनी जगह बहुत अहम और नुमायां है, यह है कि तौहीद के विषय पर जहाँ तक आपकी वैचारिक पहुंच थी, सिर्फ़ वैचारिक उत्थान को काफ़ी नहीं समझा बल्कि अपने मन और अपने दिल में उन हक़ीक़तों को समो लिया। जो कुछ जानते थे, उस पर अमल किया। सही मानी में जनाब तबातबाई पर यह आयत चरितार्थ होती है: “अच्छे और पाकीज़ा कलाम उसकी तरफ़ बुलंद होते हैं और नेक अमल उन्हें बुलंद करता है।”(8) वो पाकीज़ा कलमे उनके वजूद में सही मानी में गहराई तक उतर गए थे। आपकी नैतिक ख़ूबियां जो बहुत मशहूर हैं, बहुत ज़्यादा विनम्रता, बे-ग़रज़ मिलना-जुलना, ये सब इसी हक़ीक़त के असर हैं। आप में सहनशीलता, आपमें विनम्रता, उनके दिल में इन अर्थों के व्यवहारिक तौर पर उतर जाने के असर हैं। उन्होंने ख़ुद अपने दिल का प्रशिक्षण किया, ख़ुद को इन इंसानी व आत्मज्ञान की बुलंदियों पर पहुंचाने में कामयाब हुए। यही वजह थी कि हमेशा अवाम के बीच रहते हुए भी अल्लाह की याद में रहते थे। उनसे मिलकर इंसान को सचमुच ऐसा लगता था कि वो ख़ुद को रत्ती बराबर भी अहमियत नहीं देते। बहुत सहनशील थे, बहुत नर्मी से पेश आते थे। जो लोग उनसे बहस करते थे, उनका विरोध करते थे, उनसे भी विनम्रता के साथ पेश आते थे, उनकी बातों को नज़रअंदाज़ करते थे। बहुत ज़्याद विनम्र व्यवहार के थे, इतने विनम्र व्यवहार के थे कि लोगों को हैरत होती थी। मैं एक वाक़ेआ बताना चाहूंगा। अल्लामा सेमनानी मरहूम (9) बड़े धर्मगुरू थे, उनकी उम्र ज़्यादा थी और वह सेमनान में रहते ते। बहुत प्रतिष्ठित इंसान थे। वो क़ुम आए। ओलमा उनसे मुलाक़ात के लिए जा रहे थे। उनके मकान पर लोगों का आना जाना लगा हुआ था। एक दिन मैं कमरे में बैठा हुआ था। हमारे एक दोस्त ने जो जनाब तबातबाई के चाहने वालों में थे, जनाब तबातबाई को बहुत मानते थे, बड़े उत्तेजित अंदाज़ में कमरे में आए और शेर पढ़ाः “अख़लाक़ और वफ़ादारी में कोई हमारे माशूक़ जैसा नहीं” (10)

मैंने सवाल किया कि क्या बात है। कहने लगे कि हम लोग अल्लामा सेमनानी के मकान पर थे। जनाब ख़ुमैनी साहब भी थे, जनाब तबातबाई साहब भी थे, कुछ दूसरे लोग भी थे। जनाब सेमनानी ने जनाब ख़ुमैनी साहब से मुख़ातिब होकर कहा कि जनाब! हमने आपकी यह तफ़सीर अलमीज़ान देखी, बहुत अच्छी थी, बेहतरीन लगी, सच में आनंद आ गया। तफ़सीरे  अलमीज़ान की तारीफ़ शुरू कर दी। यह ख़याल करते हुए कि जनाब तबातबाई वही हैं! जनाब ख़ुमैनी साहब भी ऐसे इंसान तो नहीं हैं कि इस तरह के हालात में घबरा जाएं। ख़ामोश बैठे रहे, कुछ बोले नहीं। जनाब तबातबाई साहब दूसरी ओर बैठे हुए थे। उन्होंने अल्लामा सेमनानी को मुख़ातब करते हुए कहा कि जनाब! तबातबाई मैं हूं और यह मेरे उस्ताद जनाब ख़ुमैनी साहब हैं। हमारे दोस्त ने फिर वही मिस्रा दोहरायाः “अख़लाक़ और वफ़ादारी में कोई हमारे माशूक़ जैसा नहीं”

यानी इस ख़ुसूसियत से हमारे दोस्त बहुत प्रभावित हुए थे। जनाब तबातबाई मरहूम आत्मिक, इल्मी, आत्मज्ञान की ख़ुसूसियत व दर्जे के साथ ही, यह उनकी ऐसी ख़ुसूसियतें हैं जिनको क़रीब सभी जानते हैं, बर्ताव, व्यवहार और दोस्ती में भी बहुत ही दिलचस्प इंसान थे। उनकी बैठक बहुत आनंददायक होती थी। बहुत मीठी ज़बान थी, बातों से शाहद टपकता था, बहुत साफ़ बात करते थे। दोस्ताना बैठकों में वो ऐसे इंसान होते थे जो आम बैठकों, इल्मी व क्लास की बहसों के वक़्त उनके यहाँ जो संजीदगी की हालत नज़र आती थी, इससे बिल्कुल अलग होते थे। बहुत गर्मजोशी, अपनाइयत भरा अंदाज़ होता था, मीठा स्वर, अच्छी बात करते थे। जब कोई वाक़ेया बयान करते थे तो तफ़सील के साथ बड़े दिलचस्प अंदाज़ में बयान करते थे। एक ऐसी शख़्सियत के मालिक थे। विविधता से भरी शख़्सियत, ज़िन्दा दिली, शायरी और साहित्य से लगाव रखने वाली शख़्सियत थे। उनमें वे सभी ख़ुसूसियतें थीं जो एक महान इंसान के भीतर होती हैं। 

मेरी नज़र में यह दो ख़ुसूसियतें जो मैंने ज़िक्र कीं, एक तो शून्य को भरना और दूसरे यह कि इंसान जिन चीज़ों का इल्म रखता है उस पर अमल भी करे। “और आरिफ़ों के दिल तुझसे डरते हैं” (12) आत्मज्ञान को समझ लेना तथा “और आरिफ़ों के दिल तुझसे डरते हैं” अलग मक़ाम है। ये दो अलग हक़ीक़तें हैं। हमें पैरवी करनी चाहिए। हम सबको चाहिए कि इन दो ख़ुसूसियतों का पालन करें। जो भी इस राह पर चले उसे चाहिए कि उनका पालन करे।

उम्मीद करता हूं कि अल्लाह, मरहूम के दर्जों को ऊंचा करे इंशाअल्लाह। हमें उनकी क़द्र करने वालों में क़रार दे। अल्लाह की कृपा से उनके संबंध में अल्लाह की बरकतें ऐसी हैं कि आज जनाब तबातबाई अपनी ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा मशहूर हैं। अपनी ज़िन्दगी में वो शायद इसका दस फ़ीसदी भी मशहूर नहीं थे। अब अल्लाह की कृपा से मुल्क के स्तर पर, इल्मी केन्द्रों के स्तर पर, विश्व स्तर पर काफ़ी हद तक मशहूर हस्ती हैं। जनाब तबातबाई साहब की शोहरत इससे ज़्यादा इंशाअल्लाह बढ़ेगी।

सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो आप सब पर।

  1. मुलाक़ात के आग़ाज़ में कान्फ़्रेंस के अध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन ग़ुलाम रज़ा फ़य्याज़ी, कान्फ़्रेंस के अकैडमिक मामलों के सेक्रेटरी हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीनम हमीद पारसानिया, कान्फ़्रेंस के एक्ज़ेक्यूटिव सेक्रेटरी मोहम्मद बाक़िर ख़ुरासानी ने अपनी रिपोर्टें पेश कीं।
  2. हाशियतुल किफ़ाया जो इल्मे उसूले फ़िक़ह की किताब है
  3. बिदायतुल हिकमा जो फ़लसफ़े की किताब है
  4. निहायतुल हिकमा जो फ़िलसफ़े की किताब है
  5. आयतुल्लाह मुहम्मद तक़ी आमुली
  6. सूरए फ़ातिर, आयत नंबर 10, “अच्छे और पाकीज़ा कलाम उसकी तरफ़ बुलंद होते हैं और नेक अमल उन्हें बुलंद करता है।”
  7. आयतुल्लाह मोहम्मद सालेह हायरी माज़न्दरानी, अल्लामा सेमानानी के नाम से मशहूर
  8. हाफ़िज़ के दीवान की ग़ज़ल का शेर है जिसका अनुवाद हैः मेरे माशूक़ के हस्ने अख़लाक़ और वफ़दारी तक कोई पहुंच नहीं सकता -  तुम हमारी इस बात का इंकार नहीं कर सकते।
  9. कामेलुल ज़ियारात, पेज-40, (ज़ियारते अमीनुल्लाह) (और आरिफ़ों के दिल तुझसे डरते रहते हैं)