आयतुल्लाह ख़ामेनेई की तक़रीरः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार व रसूल हज़रत अबुल क़ासिम मुस्तफ़ा मोहम्मद और उनकी सबसे पाक, सबसे पाकीज़ा, चुनी हुयी नस्ल, ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी अलैहिस्सलाम पर।

आप नौजवानों के साथ यह बहुत ही जोश भरी बरकतों वाली और अर्थपूर्ण मुलाक़ात है, मैं प्रोग्राम पेश करने वालों, तक़रीर करने वालों, तराना पढ़ने वालों और क़ुरआने मजीद की तिलावत करने वालों और इसी तरह एनाउंसर साहब का भी शुक्रिया अदा करता हूं।

4 नवंबर को तीन घटनाएं हुई हैं, 2 घटनाओं  में अमरीका ने ईरानी क़ौम को नुक़सान पहुंचाया है और एक घटना में ईरानी क़ौम ने अमरीकियों पर चोट की है। वह दो घटनाएं जिनमें अमरीका ने ईरानी क़ौम को नुक़सान पहुंचाया है उनमें से एक तो इमाम ख़ुमैनी को देश से निर्वासित किए जाने की घटना थी। 4 नवंबर सन 1964 को इमाम ख़ुमैनी को देश से निर्वासित किए जाने की वजह यह थी कि वो कैपिच्युलेशन के ख़िलाफ़ थे। “कैपिच्युलेशन” एक राजनीतिक शब्दावली है, उसका अर्थ यह है कि किसी एक देश के लोगों को दूसरे देश में “इम्युनिटी” प्राप्त हो। यानी ईरान में ग़द्दार पहलवी शासन ने जो क़ानून पास किया था वह यह था कि अमरीकी कर्मचारियों को ईरान में इम्युनिटी मिले यानी जो भी अपराध करें, उन पर ईरानी अदालतों में मुक़द्दमा नहीं चलाया जा सकेगा, यह कैपिच्युलेशन का क़ानून था। यह एक बेहद शर्मनाक क़ानून है, यानी आप यह सोचें कि जैसे शराब के नशे में कोई अमरीकी कार लेकर सड़क पर निकले और 10 लोगों की ज़िंदगी ख़त्म कर दे तो ईरानी अदालतों को यह हक़ नहीं होगा कि वो उस अमरीकी के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करें, बल्कि उसे अमरीका भेजना होगा ताकि वहां उस पर मुक़द्दमा चलाया जाए। पहलवी दौर में ईरान में यह क़ानून पास हो गया, उसके विरोध में एक आवाज़ उठी, एक मज़बूत आवाज़, और वह आवाज़, इमाम ख़ुमैनी की थी, इमाम ख़ुमैनी खड़े हो गये, भाषण दिया और कहा कि हम इस क़ानून को नहीं मानेंगे। (2) इसका नतीजा यह हुआ कि इमाम ख़ुमैनी को 4 नवंबर को गिरफ़तार कर लिया गया और ईरान से निकाल दिया गया। तो इस तरह हम देखते हैं कि यह काम, अमरीकियों का था, यानी अमरीकियों ने हमें इस तरह से नुक़सान पहुंचाया।

दूसरी चोट, स्टूडेंट्स के क़त्ले आम की थी। ईरानी क़ौम जब इन्क़ेलाब का आंदोलन लेकर पूरी रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी, जो सिर्फ़ पहलवी शासन के ख़िलाफ़ नहीं था, बल्कि पहलवी और अमरीका दोनों के ख़िलाफ़ था, तो तानाशाही पुलिस, शाह की पुलिस ने इसी तेहरान युनिवर्सिटी के सामने स्टूडेंट्स का जनसंहार किया, उन पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की और बहुत से छात्रों को मौत के घाट उतार दिया, यह भी 4 नवंबर को हुआ था। तो यह वह दो चोटें थीं जो अमरीका ने हमें लगायीं, ईरानी क़ौम को लगायी थीं।

इस्लामी इन्क़ेलाब की कामयाबी के 2 महीने बाद, 4 नवंबर  सन 1979 का समय था जब छात्र अमरीकी दूतावास में घुस गये और उस पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस तरह से उस दूतावास में छुपाये गये ख़ुफ़िया दस्तावेज़ और वहां के राज़ सामने आ गये, अमरीका की इज़्ज़त चली गयी, यह हमारी तरफ़ से उसे लगायी जाने वाली चोट थी, ईरानी क़ौम की तरफ़ से अमरीका को लगायी जाने वाली चोट थी। यह 4 नवंबर की 3 घटनाएं हैं।

मेरा कहना यह हैः मैं कहता हूं कि आप आज के नौजवानों को विभिन्न घटनाओं के बारे में गहरी मालूमात होनी चाहिए, केवल भावनाएं ही काफ़ी नहीं हैं। मैं अपनी इस बात को और विस्तार से बयान करता हूं। आप में इस्लामी इन्क़ेलाब की जड़ों की समझ होनी चाहिए, मुक़द्दस डिफ़ेंस के बारे में, 8 बरसों तक जारी रहने वाली जंग के बारे में, विश्लेषण करना चाहिए, इसी तरह 80 के दशक में घटने वाली विभिन्न घटनाओं पर भी गहरी नज़र होनी चाहिए, 90 के दशक में जो भटकाव पैदा हुआ उसके बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। इसी तरह 2000 और 2010 की की दहाइयों की घटनाओं की समझ होनी चाहिए यानी आप को पता होना चाहिए कि वह घटनाएं क्या थीं, कहां से शुरु हुईं, उनके पीछे किस का हाथ था? उसका परिणाम क्या हुआ? यह सब विश्लेषण है।

अब यहां पर मैं एक मुद्दा पेश करना चाहता हूं और वह अमरीका के विरोध का मुद्दा है। आप लोग एक घंटे से अमरीका के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे हैं, यह ठीक है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन समस्या क्या है? अमरीका से हमारी समस्या क्या है? ख़ुद अमरीकी, ईरानी क़ौम से अपनी दुश्मनी की वजह, दूतावास के वाक़ए को बताते हैं। देखिए, यह जो बात मैं कह रहा हूं उन बातों और गतिविधियों के मद्दे नज़र हैं जो हो रही हैं और जो करना चाहते हैं, मैं चाहता हूं कि आप नौजवान इस बात पर ध्यान दें, कुछ लोग अमरीकियों की ही बातें दोहराते हैं, इसका क्या मतलब है? यानी यह कहते हैं कि “जनाब! यह जो अमरीका ईरान पर प्रतिबंध लगाता है, ईरान के साथ बुरा सुलूक करता है, ईरान में दंगे करवाता है, समस्याएं पैदा करता है, ईरान से अमरीका की इस दुश्मनी की वजह यह है कि आप के छात्रों ने जाकर अमरीकी दूतावास पर क़ब़्ज़ा कर लिया था”। यह बात अमरीकी भी कहते हैं और उनका अनुसरण करने वाले भी, यह लोग हमारे मुल्क के अंदर इस तरह की बातें करते हैं। जब मैं राष्ट्रपति था, उस दौर में अमरीका के एक मशहूर पत्रकार ने न्यूयार्क में मेरा इन्टरव्यू लिया था, उसकी पहली बात यही थी कि हमारे और आप के बीच झगड़ा, आप लोगों की तरफ़ से हमारे दूतावास में घुसने और हमारे दूतावास पर क़ब्ज़े की वजह से है। यह बात आम करना चाहते हैं जबकि यह बहुत बड़ा झूठ है, बात यह नहीं है। दूतावास की घटना से 26 साल पहले, 19 अगस्त का विद्रोह हुआ था, उस दिन तो कोई दूतावस में नहीं घुसा था। सन 1953 में अमरीकियों ने ईरान में अपने पैरों पर खड़ी एक राष्ट्रीय सरकार को कि जो अमरीका पर निर्भर नहीं थी, आपराधिक व अन्यायपूर्ण विद्रोह के ज़रिए गिरा दिया, यह अमरीकी की दुश्मनी की मिसाल है। तो इस्लामी जुम्हूरिया ईरान से, ईरानी राष्ट्र से, इस्लामी ईरान से, अमरीका की दुश्मनी का दूतावास की घटना से कोई संबंध नहीं है।

दूतावास से जो दस्तावेज़ बरामद हुए, आप लोगों को तो पता ही है, छात्र गये और वह दस्तावेज़ ले आए, बहुत से दस्तावेज़ों को अमरीकियों ने पेपर श्रेडर मशीन में डाल दिया था, छात्रों ने बैठ कर कागज़ के सारे टुकड़ों को एक दूसरे से जोड़ा जो आज 70-80 जिल्द किताब है, इन दस्तावेज़ों से पता चला कि इन्क़ेलाब की कामयाबी के शुरुआती दिनों से ही अमरीकी दूतावास ईरान के ख़िलाफ़ जासूसी और साज़िशों का केन्द्र बन गया था, यहां तक कि अमरीकी दूतावास में विद्रोह की प्लानिंग की जा रही थी ताकि इन्क़ेलाब के ख़िलाफ़ बग़ावत करायी जाए, गृह युद्ध की साज़िश रची जाती थी, उनकी कोशिश थी कि मुल्क के सरहदी सूबों में गृह युद्ध छेड़ दें, यह प्लान तैयार किया जा रहा था कि किस तरह से नयी इन्क़ेलाबी सरकार में घुसपैठ करें, मुल्क के अंदर इन्क़ेलाब के ख़िलाफ़ काम करने वाले मीडिया का मैनेजमेंट उनके हाथ में था, उन्हें आदेश देते थे, यह लिखा जाए, यह कहा जाए, यह झूठ फैलाया जाए, यह अफवाह फैलायी जाए, पाबंदी लगाने के लिए भी प्लानिंग कर रहे थे, यानी अमरीकी दूतावास, इन्क़ेलाब के शुरु से ही, मुल्क और इन्क़ेलाब के ख़िलाफ़ साज़िश का गढ़ बन चुका था, इस लिए अमरीका की ईरान से दुश्मनी का ताल्लुक़, जासूसी के अड्डे पर क़ब्ज़े से नहीं है, उससे बहुत पहले से इन लोगों ने इन्क़ेलाब के ख़िलाफ़ गतिविधियां शुरु कर दी थीं।

तो मामला वह नहीं है जो अमरीकी पेश करते हैं, मामला वैसा नहीं है जैसा मुल्क के अंदर कुछ लोग, या बेवक़ूफ़ी में या फिर दूसरे किसी मक़सद के तहत पेश करते हैं और कहते हैं कि “जनाब! यह जो अमरीका जैसी एक ताक़त इस्लामी जुम्हूरिया ईरान के ख़िलाफ़ कार्यवाहियां करती है, तो उसकी वजह यह है कि आप लोग एक समय गये और उसके दूतावास पर क़ब्ज़ा कर लिया”। जी नहीं, मामला यह नहीं है। तो माजरा क्या है? हमें इस मामले की तह तक पहुंचने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। मेरा दिल चाहता है और मुझे अच्छा लगता है कि आप नौजवान इस तरह के मुद्दे पर ख़ूब ग़ौर करें और ध्यान दें क्योंकि कल आपका है, मुल्क की तरक़्क़ी का ज़रिया आप हैं, मुल्क आप का है, और आप को हर हाल में आगे बढ़ना चाहिए। हमें ज़्यादा गहराई से मुद्दों को समझना चाहिए।

ईरान में पश्चिम का दख़ल, अंग्रेज़ों से शुरु हुआ, पहले वे आए थे ईरान। यक़ीनी तौर पर सन 1800 ईसवी से भी क़ाजारी शासन काल में उन्होंने ईरान में असर पैदा करना शुरु कर दिया था और धीरे धीरे वह अपना असर और दख़ल बढ़ाते गये। अंग्रेज़ों का मक़सद यह था कि वह ईरान में भी वही काम करें जो उन्होंने हिन्दुस्तान में किया था। आप सब को पता है कि हिन्दुस्तान लगभग 150 बरसों तक अंग्रेज़ों की मुटठी में था, उसकी जान अंग्रेज़ों ने निकाल ली, अंग्रेज़ों की आज की दौलत का अक्सर हिस्सा, हिन्दुस्तान पर क़ब्ज़े की वजह से है जो ख़ुद एक लंबी बहस का विषय है। अंग्रेज़ यही सब ईरान में भी करना चाहते थे। यानी पहले पैर रखने की जगह बनाएं, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ें, मुल्क के आर्थिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर लें और जब पूरे मुल्क की अर्थ व्यवस्था अपने हाथ में ले लें तो फिर राजनीतिक तौर पर क़ब्ज़ा करना उनके लिए आसान हो जाए। वही काम जो उन्होंने हिन्दुस्तान में किया था। हिन्दुस्तान में सब से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी शुरु की गयी, फिर बढ़ते बढ़ते उन्होंने हिन्दुस्तान का शासन ही हथिया लिया और हिन्दुस्तान, ब्रिटिश साम्राज्य का एक हिस्सा बन गया, लगभग 150 बरसों तक यही हालात रहे। जी तो ईरान में भी अंग्रेज़ यही सब करना चाहते थे। शुरु शुरु में जो काम किये उनमें से एक तंबाकू पर एकाधिकार था। “तंबाकू आंदोलन” का नाम तो आप सब ने सुना ही होगा, यानी ईरान में तंबाकू की खेती और व्यापार अंग्रेज़ों के हाथों में रहे! उस दौर की सरकार यानी नासिरुद्दीन के शासन काल की सरकार की समझ में नहीं आया कि इस का क्या मतलब है? वह मान गयी। लेकिन सामर्रा में शिया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरु मीर्ज़ा शीराज़ी समझ गये कि अस्ल माजरा क्या है। उन्होंने एक फ़तवा दिया और इस समझौते को बेकार करके ख़त्म कर दिया। यह अंग्रेज़ों के शुरु शुरु के काम थे, लेकिन उसमें कामयाब नहीं हुए। एक के बाद एक इस तरह के बहुत से समझौते किये जा रहे थे जिनमें से एक समझौते का नाम “वुसूक़ुद्दौला” था जो सन 1919 में हुआ था, अंग्रेज़ों ने ईरान के उस वक़्त के प्राइम मिनिस्टर (3) को मोटी रिश्वत दी और यह समझौता किया। “वुसूक़ुद्दौला समझौते” के मुताबिक़ ईरान की अर्थ व्यवस्था, राजनीति, सेना और शासन व्यवस्था सब कुछ अंग्रेज़ों के हाथ में चली जाती, यह समझौता भी हो गया था, लेकिन शहीद मुदर्रिस ने उस दौर की संसद में अकेले खड़े होकर इस समझौते का विरोध किया, असलियत बतायी और उसे कामयाब नहीं होने दिया, यह समझौता भी ख़त्म कर दिया गया। दूसरे समझौते भी थे, जैसे रॉयटर और दूसरे समझौते थे जिनमें से अक्सर समझौते धर्मगुरुओं की वजह से ख़त्म कर दिये गये, रोक दिये गये।

यक़ीनी तौर पर बाद में अंग्रेज़ों ने इसका बदला धर्मगुरुओं से लिया। अंग्रेज़ों ने देखा कि इस तरह से काम नहीं चलने वाला और हिन्दुस्तान में जो प्लान कामयाब हुआ था वह ईरान में नहीं होगा। उन्होंने इसका एक रास्ता तलाश किया, तवज्जो से सुनिए! वह रास्ता यह था, उन्होनें प्लान बनाया कि ईरान में एक हिंसक तानाशाही सरकार बनायी जाए जो पूरी तरह से उन पर निर्भर हो ताकि फिर कोई चिंता न हो और चैन से उस सरकार के ज़रिए ईरान में अपना काम करें। अंग्रेज़ों को रज़ा ख़ान क़ज़्ज़ाक़ मिल गया, उसे वे पहले से जानते थे, उसके बारे में और मालूमात हासिल कीं। रज़ा ख़ान वही था जिसकी अंग्रेज़ों को ज़रूरत थी, एक बेहद बेरहम, हिंसक स्वभाव, बदतमीज़, सड़क छाप, अनपढ़, और इल्म वग़ैरा से दूर रहने वाला इन्सान था। बदमाश, दीन व तक़वे से दूर था। अंग्रेज़ उसे ले आए। क़ाजारी बादशाह अहमद शाह की कमज़ोरी से फ़ायदा उठाया, रज़ा शाह और एक और आदमी, यानी सैयद ज़िया तबातबाई की मदद से कि जिसे बाद में किनारे लगा दिया, ईरान में बग़ावत शुरु करायी, रज़ा ख़ान को सब से पहले फ़ौज का कमांडर बनाया गया, फिर प्राइम मिनिस्टर और फिर उसे ईरान का राजा बना दिया, अंग्रेज़ जो चाहते थे वह ईरान में उन्होंने कर लिया।

जी तो रज़ा शाह ने सब से पहला जो काम किया वह यह था कि उसने धर्मगुरुओं को निशाना बनाया और पूरी क़ौम को डराया धमकाया। क़ौम को बुरी तरह डरा दिया, जैसा कि हमारे मां बाप और बड़ों ने बताया है कि रज़ा शाह के दौर में किसी की चूं करने हिम्मत नहीं थी, ख़ाली कमरे में भी किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह रज़ा शाह की आलोचना कर दे! ख़ाली कमरे में, दो तीन घर वालों के साथ भी कोई रज़ा शाह को कुछ बुरा भला कहने की हिम्मत नहीं रखता था। अवाम को इतना डरा दिया गया था। धर्मगुरुओं को घरों में बंद कर दिया गया था, उनके सिरों से अमामे उतार लिए गये, दीनी मदरसों को बंद कर दिया गया, हिजाब जैसे दीनी हुक्म का खुल कर विरोध किया और अंग्रेज़ ईरान में जो कुछ करना चाहते थे, यानी आर्थिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा, रज़ा शाह ने उनके लिए वह सब कुछ किया, उन्होंने जो चाहा वह किया। मैं यहां पर यह भी कहना चाहता हूं कि कुछ पढ़े लिखे पश्चिम के दीवाने या कुछ एजेन्टों ने, सब के सब पश्चिम के एजेंट नहीं थे, कुछ पश्चिम के आदमी नहीं थे लेकिन पश्चिम का उन पर गहरा असर था, पश्चिम से लगाव रखते थे, उन्होंने रज़ा शाह के शासन को सजा सवांर कर पेश करने में बड़ा रोल अदा किया है, उन्हें भी अल्लाह के सामने जवाब देना होगा, वो पढ़े लिखे लोग भी जिनका नाम मैं यहां नहीं लेना चाहता, वो भी ईरानी राष्ट्र पर रज़ा शाह के अत्याचारों में शामिल हैं, यह भी एक बात है।

जी तो रज़ा शाह ईरान में अंग्रेज़ों का एजेंट बन गया। इसी दौरान, दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। दूसरे विश्व युद्ध में रज़ा शाह अपने स्वभाव के हिसाब से जर्मनी की तरफ़ झुका, तो अंग्रेज़ समझ गये और उन्हें लगा कि अब यह उनके काम का नहीं रहा, इस लिए सन 1941 में रज़ा शाह को बर्ख़ास्त कर दिया, ख़ुद ही लाए थे और ख़ुद उसे हटा दिया, उसे हटा दिया और ख़ास शर्तों के साथ उसके बेटे को उसकी जगह ले आए और कह दिया कि यह करना होगा, इस तरह से करना होगा, यह रवैया अपनाना होगा, उसने भी कहा जो हुक्म! यहां तक कहा कि उस रेडियो प्रसारण को न सुनें, उसने कहा जो हुक्म! इस हद तक! तो यहां तक तो सरकार अंग्रेज़ों की थी।

1940 का दशक, ब्रिटिश शासन के कमज़ोर पड़ने का दौर था, लोगों ने संघर्ष किया और हिन्दुस्तान आज़ाद हो गया, अफ़्रीक़ा वगैरा में दूसरे कई देश भी आज़ाद हुए। ब्रिटेन, कमज़ोर हो गया और अंग्रेज़ों की कमज़ोरी की वजह से अमरीका मैदान में आ गया। 1940 के दशक के मध्य में अमरीका ने ईरान में क़दम रखा, पहले अच्छी शक्ल में और नर्मी के साथ पेश आया, “ट्रू मैन फ़ोर प्वाइंट प्रोग्राम” (4) और दूसरी चीज़ों के साथ जिनका ब्योरा बहुत है। यहां तक कि कुछ अवसरों पर उसने अंग्रेज़ों के विरोधियों का भी साथ दिया, उनका समर्थन किया, ताकि लोगों के दिलों में जगह बना सके और अफ़सोस की बात है कि वह अंग्रेज़ों से न जुड़ने वाले कई नेताओं के दिल में जगह बनाने में कामयाब हो गया। खुद से जोड़ने में कामयाब हो गया। ईरान में अमरीका का रवैया इस तरह का था। पहले नर्मी के साथ आया और यह ज़ाहिर किया कि वह ईरान पर क़ब्ज़े का इरादा नहीं रखता। यही हालत थी, यहां तक कि ईरान में एक राष्ट्रीय सरकार बनी, मुसद्दिक़ की सरकार। संयोग से मुसद्दिक़, सीधेपन की वजह से, लापरवाही या फिर मूर्खता की वजह से जो भी आप समझें, अमरीका के बारे में अच्छे विचार रखते थे। मुसद्दिक़ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ थे, अमरीका की मदद से उम्मीद लगाए बैठे थे! दूसरों से मदद की आस लगाने का यह नतीजा होता है। जब यह सरकार, सत्ता में आयी और यह साफ़ हो गया कि यह सरकार अमरीका पर निर्भर नहीं है और न ही हो सकती है तो अमरीकियों ने 19 अगस्त की बग़ावत करायी, सरकार गिरा दी, ईरान में बहुत बड़े बड़े स्कैंडल किये।

जब अमरीकियों के चेहरे से नक़ाब उतर गयी और यह साफ़ हो गया कि वह ईरान पर मेहरबान और उसकी दोस्त सरकार नहीं है तो फिर उनसे जो बन पड़ा वह किया, अमरीकियों ने हमारे मुल्क का सब कुछ अपने हाथों में ले लिया, राजनीतिक और आर्थिक मैदानों में ईरान को पूरी तरह से ख़ुद पर निर्भर कर लिया। ज़ायोनी शासन को ईरान ले आए, यह काम अमरीकियों ने किया, ज़ायोनी शासन को ईरान में अमरीकी ले कर आए हैं, सावाक (ख़ौफ़नाक ख़ुफ़िया एजेंसी) बनायी। सावाक जनता के साथ, विरोधियों के साथ, एतेराज़ करने वालों के साथ बेहद क्रूर और हिंसक रवैया अपनाती था और बड़ी बेरहमी से एतेराज़ की हर आवाज़ को दबा देने वाली एजेंसी थी। यह सब कुछ अमरीकियों के प्रभाव के समय हुआ, यह 1950-60 के दशक की बात है। कई हज़ार सैन्य सलाहकारों को ईरान ले आया गया और उनका भारी ख़र्चा, ईरानी जनता के कांधों पर डाला गया, हथियार उनके क़ब्ज़े में, हथियारों की ख़रीदारी उनके हाथ में, यह कि किससे ख़रीदा जाए, कितने में ख़रीदा जाए, पैसे कैसे अदा किये जाएं, हथियार लिये कैसे जाएं, यह सब कुछ अमरीकियों की ज़िम्मेदारी थी यह सब वही तय करते थे। भ्रष्टाचार, प्लानिंग के तहत फैलाया जा रहा था यानी 40-50-के दशक में जो 60 के दशक के आख़िर में और 70 के दशके शुरु में अपने चरम पर पहुंच गया था नैतिक भ्रष्टाचार अमरीकी प्लानिंग के हिसाब से ईरान में पूरी तरह से फैल गया था ताकि मुल्क के नौजवान ग़लत राह पकड़ लें। ज़ाहिर सी बात है कि जो नौजवान ग़लत राह पर निकल जाएगा उसमें डट कर खड़े होने की ताक़त ही नहीं रहेगी, डटे रहने की शक्ति की नहीं रहेगी, यह लोग ईरानी युवाओं को, बेकार करना चाहते थे। साइंस के मैदान में पिछड़ापन, तकनीक के मैदान में पिछड़ापन, नैतिक भ्रष्टाचार में आगे, भयानक रूप में समाजी विषमता, यह सब कुछ अमरीकियों के प्रभाव और अमरीकियों के असर में बनने वाली सरकार के दौर में ईरान में हुआ था।

उन्होंने दुश्मनी जारी रखी, जब इन्क़ेलाब का आंदोलन तेज़ हुआ, तो उन्हें ख़तरा महसूस हुआ और उन्होंने अपनी गतिविधियों की रफ़्तार बढ़ा दी। यहां तक कि इन्क़ेलाब की कामयाबी से लगभग एक हफ़्ता पहले, अमरीका का “हायज़र” नाम का एक सीनियर जनरल तेहरान आया ताकि अगर हो सके तो एक बग़ावत कराए और लाखों लोगों, बल्कि दसियों लाख लोगों का जनसंहार कर दे, उनका इरादा यही था, हायज़र यही करना चाहता था। लेकिन इन्क़ेलाब उस पोज़ीशन में पहुंच चुका था कि अमरीकियों की सारी कोशिशें बेकार हो गयीं। इमाम ख़ुमैनी जैसी हस्ती का ठोस इरादा उनकी राह की रुकावट बना। अमरीकी बग़ावत कराना चाहते थे, मार्शल लॉ लगवा दिया था, इमाम ख़ुमैनी ने जनता से कहा कि सड़कों पर निकलें, कर्फ्यू ख़त्म करा दिया, उनकी योजना पर पानी फेर दिया, इस लिए वह हार गये। हायज़र ने भी देख लिया था कि अब कोई फ़ायदा नहीं, वह ईरान से चला गया लेकिन अगर 4-5 दिन और ईरान में रह जाता तो संभावित रूप से इन्क़ेलाब के बाद सब से पहले फांसी पाने वालों में से एक होता, क़िस्मत अच्छी थी जो वह जल्दी चला गया।

जी तो अमरीका और ईरान का मामला यह है। यह जो आप “अमरीका मुर्दाबाद” कहते हैं तो यह सिर्फ़ एक नारा नहीं है, यह एक रणनीति है। इसकी वजह यही है जो मैंने बतायी, अमरीकियों ने बरसों, 40 के दशक से लेकर इन्क़ेलाब की कामयाबी तक, यानी 50 के दशक के आख़िर से लेकर 70 के दशक तक ईरान में जो कुछ उनके बस में था वह सब ईरानी क़ौम के ख़िलाफ़ किया। जैसे चाहा चोट लगायी, आर्थिक मैदान में, पूंजी के मैदान में, राजनीति, सांइस, नैतिकता, हर मैदान में चोट पहुंचायी। इन्क़ेलाब इस तरह के हालात में कामयाब हुआ, इन्क़ेलाब, इस क़िस्म के भ्रष्ट और पिट्ठू शासन के सामने खड़ा हुआ और अल्लाह की मदद से और ईरानी जनता के संकल्प से इमाम ख़ुमैनी की अगुवाई में कामयाब भी हुआ।

अमरीकी जो ईरान में करना चाह रहे थे वह आज ग़ज़ा में कर रहे हैं, मामला वही है, फ़िलिस्तीन में भी यही सब हो रहा है। मक़बूज़ा और पीड़ित फ़िलिस्तीन में जिन ज़ायोनियों का क़ब्ज़ा है उनकी पीठ पर अमरीका का हाथ है। अगर अमरीकी मदद न होती, अगर अमरीकी हथियारों की मदद न होती, तो भ्रष्ट, जाली व झूठा ज़ायोनी शासन, पहले हफ़्ते में ही ख़त्म हो जाता, तबाह हो जाता। इनके पीछे अमरीकी हैं।

ग़ज़ा में आज वही सब कुछ हो रहा है जो अगर इन के बस में होता तो ईरान में करते। ग़ज़ा में अमरीकियों की मदद से ज़ायोनियों के हाथों बल्कि अमरीकियों के हाथों जो भयानक त्रास्दी हो रही है, उसकी मिसाल नहीं मिलती। 3 हफ़्तों के अदंर लगभग 4 हज़ार बच्चों को इन लोगों ने मार डाला! तारीख़ में कहां आप को इसकी कोई मिसाल मिलती है। इस्लामी उम्मत को यह जानना चाहिए कि मामला क्या है, मामले को समझना चाहिए। मुक़ाबले का मैदान ग़ज़ा व इस्राईल का मैदान नहीं है, यह हक़ और बातिल की जंग का मैदान है। मैदान, साम्राज्यवाद और ईमान की जंग का मैदान है। एक तरफ़ ईमान की ताक़त है, दूसरी तरफ़ साम्राज्यवाद की ताक़त है। यक़ीनी तौर पर साम्राज्यवाद की ताक़त, फ़ौजी दबाव, बमबारी, त्रास्दी और अपराधों के साथ आगे बढ़ती है लेकिन ईमान की ताक़त अल्लाह की मदद से इन सब चीज़ों पर भारी पड़ेगी।

हमारे दिल ख़ून के आंसू रो रहे हैं, फ़िलिस्तीनियों के दुख में और ख़ास तौर पर ग़ज़ा के लोगों के लिए, हम दुखी हैं, लेकिन जब ग़ौर से नज़र डालते हैं, तो हम यह देखते हैं कि मैदान में जिसे फ़तह मिलने वाली है वह ग़ज़ा के लोग हैं, फ़िलिस्तीन के लोग हैं, यह लोग बहुत बड़े बड़े काम करने में कामयाब हुए हैं। सब से पहले तो ग़ज़ा के लोगों ने अपने संयम और सब्र से, मज़बूत क़दमों से डट कर, घुटने टेकने से इंकार करके, ह्यूमन राइट्स की झूठी नक़ाब अमरीका, फ़्रांस, ब्रिटेन और इस तरह के दूसरे मुल्कों के चेहरों से उतार फेंकी, उन्हें बे इज़्ज़त कर दिया। ग़ज़ा के लोगों ने अपने सब्र से इन्सानों के ज़मीर को झिंझोड़ दिया। आज आप पूरी दुनिया में देखें क्या हो रहा है। इन्ही पश्चिमी देशों में, ब्रिटेन में, फ़्रांस में, इटली में, ख़ुद अमरीका के विभिन्न प्रांतों में, भारी संख्या में लोग सड़कों पर आ रहे हैं, सड़कों पर उतर कर इस्राईल के ख़िलाफ़ और कई बार तो ख़ुद अमरीका के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे हैं, इन की इज़्ज़त जा चुकी है। इनके पास सच में अब कोई रास्ता नहीं है, कोई बहाना भी नहीं बना पा रहे हैं। इस लिए आप देखते हैं कि एक मूर्ख आगे आकर कहता है कि “ब्रिटेन में लोगों का प्रदर्शन, ईरान का काम है”। ज़रूर लंदन में ईरान की स्वयंसेवी फ़ोर्स बसीज की स्थानीय शाखा ने यह काम किया होगा, बसीज की पेरिस ब्रांच ने यह काम किया होगा! (5) आज कल पश्चिमी नेता और मीडिया एक और बेशर्मी दिखा रहे हैं और वह यह है कि वो फ़िलिस्तीनी संघर्षकर्ताओं को “टेररिस्ट” कहते हैं। जो अपने घर की रक्षा कर रहा हो वह आतंकवादी है? जो अपने वतन की हिफ़ाज़त कर रहा हो वह आतंकवादी है? जब दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनों ने आकर पेरिस पर क़ब्ज़ा कर लिया था और पेरिस के लोग जर्मनों से जंग कर रहे थे तो क्या वो फ्रांस के संघर्षकर्ता आतंकवादी थे? किस तरह वो स्वतंत्रता सेनानी हैं, फ्रांस के लिए गौरव हैं, लेकिन हमास और इस्लामी जेहाद के जवान आतंकवादी हैं?! बेशर्म लोग! ग़ज़ा के लोगों ने, वहां के संघर्षकर्ताओं ने दुनिया के झूठों को बेइज़्ज़त कर दिया।

अलअक़्सा तूफ़ान (6) आप्रेशन ने एक और जो अहम काम किया वह यह था कि उसने यह साबित कर दिया कि किस तरह एक छोटा सा गिरोह, उन लोगों की तुलना में यह लोग बहुत कम हैं, उनकी तादाद कम है, बहुत कम संसाधन और सामान के साथ, लेकिन पक्के ईमान की मदद से, दुश्मन की बरसों की आपराधिक कोशिशों की उपलब्धियों को कुछ ही घंटों में बर्बाद और तबाह कर सकता है, यह साबित कर दिया कि किस तरह दुनिया की घमंडी और साम्राज्यवादी शक्तियों को बेइज़्ज़त किया जा सकता है। फ़िलिस्तीनियों ने क़ाबिज़ ज़ायोनी शासन और उसके मददगारों को भी ज़लील कर दिया, फ़िलिस्तीनियों ने अपने इस काम से, अपनी बहादुरी से, अपनी कार्यवाही से और अपने सब्र व संयम से। यह एक बहुत बड़ा सबक़ है। यक़ीनी तौर पर ग़ज़ा में जो अपराध हो रहे हैं उससे पूरी इंसानित हिल गयी, सब दहल गये हैं।

यह बात मैंने कुछ दिनों पहले भी कही (7) और अब फिर उसे दोहरा रहा हूं कि इस्लामी दुनिया से अपेक्षाएं ज़्यादा हैं। मुसलमान सरकारों को यह जान लेना चाहिए कि अगर आज उन्होनें फ़िलिस्तीन की मदद न की, जो भी जिस तरह से मदद कर सकता है, अगर यह न किया तो उसने फ़िलिस्तीन के दुश्मन की मदद की है जो इस्लाम व इंसानियत का भी दुश्मन है। कल यही दुश्मन उनके लिए भी ख़तरा बनेगा। इस्लामी हुकूमतों को जिस चीज़ पर ज़ोर देना चाहिए, वह इन अपराधों को फ़ौरन रोका जाना है यह जो ग़ज़ा में किये जा रहे हैं, यह बमबारी फ़ौरन रोकी जानी चाहिए, तेल और ज़रूरत की चीज़ों की ज़ायोनी शासन के लिए सप्लाई का सिलसिला बंद किया जाए। इस्लामी मुल्क ज़ायोनी शासन के से आर्थिक सहयोग न करें, सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों में, ऊंची आवाज़ में, इन अपराधों की, त्रास्दी पैदा करने की, ज़ोरदार तरीक़े से बिना किसी हिचकिचाहट के आलोचना करें। यह न हो कि किसी इस्लामी संगठन में, या अरब संगठन में जो कुछ गिने चुने लोग बोलें वह भी अस्पष्ट बातें करें या हिचकिचाहट के साथ अपनी बात कहें, खुल कर बात की जाए। सब को पता है कि क्या हो रहा है, इस लिए ज़ायोनी शासन की आलोचना की जानी चाहिए, पूरी इस्लामी दुनिया को ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ खड़ा होना चाहिए।

निश्चित रूप से ज़ायोनी शासन को जो चोट पहुंची है, उसकी भरपाई नहीं हो सकती, यह बात मैंने शुरु में ही कही है, अब फिर ज़ोर दे रहा हूं और अपनी बात दोहरा रहा हूं। धीरे धीरे ख़ुद ज़ायोनी शासन के ज़िम्मेदारों की बातों में भी यह चीज़ नज़र आने लगी है कि जो चोट इन्हें लगायी गयी है वह ऐसी नहीं है कि जिसकी भरपाई की जा सके, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। ज़ायोनी शासन इस वक़्त हैरान व परेशान और बौखलाया हुआ है, अपनी जनता से भी झूठ बोल रहा है। यह जो फ़िलिस्तीनियों के पास क़ैद अपने लोगों के बारे में चिंता ज़ाहिर कर रहा है वह भी झूठ है। यह जो बमबारी की जा रही है उसमें हो सकता है कि ज़ायोनी शासन के हाथों यह क़ैदी भी मारे जाएं, यह जो अपने बंदियों के लिए चिंता प्रकट की जा रही है तो इसका मतलब यह है कि ख़ुद अपनी जनता से भी यह शासन झूठ बोल रहा है। यह झूठ, उसकी मजबूरी की वजह से है। इस वक़्त ज़ायोनी शासन, बौखलाहट का शिकार है, उसके सामने कोई रास्ता नहीं है, उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करे और जो भी वह कर रहा है बौखलाहट में कर रहा है। यानी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करे। अगर अमरीका की मदद न होती और न हो तो यक़ीनी तौर पर ज़ायोनी शासन कुछ ही दिनों के अंदर पैरालाइज़्ड हो जाएगा।

इस्लामी दुनिया यह न भूले कि इस अहम और निर्णायक मामले में, जो इस्लाम के ख़िलाफ़, एक इस्लामी क़ौम के ख़िलाफ़ और पीड़ित फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ, वह अमरीका था, फ्रांस था, ब्रिटेन था, यह बात इस्लामी जगत न भूले। यह बात समझे, अपने व्यापार में, अपने अंदाज़ों में, अपने विश्लेषणों में यह न भूले कि कौन खड़ा होकर पीड़ित और मज़लूम लोगों और क़ौम पर दबाव डाल रहा है, सिर्फ़ ज़ायोनी शासन ही नहीं है।

यक़ीनन हमें कोई शक नहीं कि “बेशक अल्लाह का वादा हक़ है”। अल्लाह का वादा सच्चा है और “यक़ीन न रखने वाले तुम्हारे क़दम में डगमगाहट न पैदा कर दें”। (8) जिन लोगों को अल्लाह के वादों पर यक़ीन नहीं वो अपनी नाउम्मीदी फैलाने वाली बातों से तुम्हारे इरादे को कमज़ोर न कर दें, तुम्हारे क़दमों में डगमगाहट न पैदा कर दें। इन्शाअल्लाह असली जीत, जो ज़्यादा दूर नहीं है, फ़िलिस्तीनियों और फ़िलिस्तीन की होगी।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहू

  1. इस मुलाक़ात के शुरु में 3 छात्रों ने देश व ग़ज़ा के बारे में कुछ बातें पेश कीं।
  2. सहीफ़ए इमाम ख़ुमैनी, जिल्द 1, पेज 415
  3. मीरज़ा हसन ख़ान वुसूक़ुद्दौला
  4. ट्रूमैन का फ़ोर प्वाइंट प्रोग्राम यानी सन 1949 में अमरीका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन का चौथा प्वाइंट जिसमें उन्होंने  कहा था “समृद्ध देशों का एक नैतिक कर्तव्य यह है कि वे निर्धन देशों की मदद करें।”
  5. यहां पर लोगों ने क़हक़हा लगाया।
  6. फ़िलिस्तीनी गिरोहों ने 7 अक्तूबर सन 2023 को “अलअक़्सा तूफ़ान” नाम से एक आप्रेशन शुरु किया जिसके आरंभ में ही बड़ी तादाद में ज़ायनी मारे  गये और घायल हुए।
  7.  25 अक्तूबर सन 2023 को लुरिस्तान प्रांत के शहीदों पर राष्ट्रीय कांफ्रेंस के आयोजकों से मुलाक़ात में तक़रीर
  8. सूरए रोम, आयत 60