स्पीच इस तरह हैः

बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

अरबी ख़ुतबे का अनुवादः सारी तारीफ़ पूरी कायनात के मालिक के लिए, दुरूद व सलाम हो हमारे सरदार हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी सबसे अच्छी, सबसे पाक, सबसे चुनी हुयी नस्ल ख़ास तौर पर ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर (जिन पर हमारी जाने क़ुर्बान)।

बहुत बहुत स्वागत है आप सबका! आज मेरे लिए ख़ुशी का दिन है। आप इंक़ेलाब के बहादुरों, हक़ और सच्चाई की रक्षा करने वाले वीरों से मुलाक़ात बहुत ही आनंददायक है। आईआरजीसी के सम्मानीय कमांडर और सम्मानीय प्रतिनिधि की स्पीच का बहुत शुक्रिया। बहुत अच्छा बयान था।

मेरी तक़रीर का एक हिस्सा आईआरजीसी के बारे में संक्षिप्त गुफ़तगू पर आधारित होगा। मैं आईआरजीसी के बारे में जो बातें पेश करना चाहता हूं, शायद बार-बार कही गई होंगी, लेकिन इसके बावजूद हमारे अवाम, हमारे नौजवान और ख़ुद आईआरजीसी के जवानों के लिए इन बातों को सुनना ज़रूरी है। हमें अपनी पहचान को भूलना नहीं चाहिए। दुनिया के शैतानों का एक लक्ष्य यह है कि हम अपने आप को भुला दें। यह न होने दीजिए। आईआरजीसी के बारे में संक्षेप के साथ, बातें पेश करुंगा। कुछ जुमले इंक़ेलाब के बारे में भी अर्ज़ करुंगा जिसकी रक्षा करना आईआरजीसी अपना फ़रीज़ा समझती है। यह इंक़ेलाब जिसके आप रक्षक हैं, क्या ख़ुसूसियतें रखता है?  इसके बारे में भी कुछ जुमले अर्ज़ करुंगा।

आईआरजीसी के बारे में कुछ बिन्दु लिखे हैं जिन्हें अर्ज़ करुंगा। पहला प्वाइंट यह है कि इंक़ेलाब के आग़ाज़ में आईआरजीसी का गठन, दुनिया की महाक्रांतियों में बेमिसाल वाक़ेया है। फ़्रांस की क्रांति और पूर्व सोवियत यूनियन के बाल्शवीक इंक़ेलाब में, आग़ाज़ में कुछ गिरोह वजूद में आए जिन्होंने इंक़ेलाब के समर्थन में क़दम उठाया, कुछ काम किए, लेकिन उन गिरोहों और संगठनों से आईआरजीसी की तुलना हरगिज़ नहीं की जा सकती। वो विध्वंसकारी थे, सरकश थे, अव्यवस्थित थे, किसी उसूल और नियम के पाबंद नहीं थे, आईआरजीसी ऐसी नहीं है। आईआरजीसी अपने गठन के आग़ाज़ से ही -यह बात अहम है- इंक़ेलाब की मरकज़ी व्यवस्था की निगरानी में रही। इसकी निर्देशन व्यवस्था और गठन की प्रक्रिया सेंट्रलाइज़्ड थी। मुल्क में हर जगह मौजूद थी लेकिन केन्द्रीय सिस्टम ही इसकी कमान संभालता था।

आईआरजीसी के गठन के आग़ाज़ से ही, इसके सदस्य और तत्व धार्मिक और इंक़ेलाबी उसूलों के पाबंद थे, जैसे बलिदान, जैसे त्याग, जैसे दिन रात अथक रूप से मौजूदगी, जैसे इमाम ख़ुमैनी (रहमतुल्लाह अलैह) की इताअत, ये बातें कहीं और नहीं देखी गईं। मैं शुरू से ही हाज़िर था और इन चीज़ों को देखता था। आईआरजीसी के मसलों को देखता था। आईआरजीसी अपने आप में अनोखा रहा है। इसके सदस्यों में पाकीज़गी रही है, तक़वा रहा है। मैं अतिश्योक्ति नहीं करना चाहता, कमियां और कमज़ोरियां सभी लोगों में होती हैं। कुछ कमियां रही हैं, कमज़ोरियां भी रही हैं, लेकिन तौर तरीक़ों और सुबूत के मुताबिक़, हमारे मुल्क की तारीख़ में कोई भी फ़ौजी विभाग इतना पाक साफ़ नहीं देखा गया। इस पाकीज़गी में इंसानी पहूल भी है और इलाही पहलू भी। मुल्क की पूरी तारीख़ में, जहाँ तक मैं जानता हूं, मैं किसी ऐसे फ़ौजी विभाग को नहीं जानता जिसमें ऐसी आध्यात्मिक, नैतिक और राजनैतिक पाकीज़गी पायी जाती हो। यह एक प्वाइंट है। आईआरजीसी का गठन ऐसा था।

दूसरा प्वाइंट, आईआरजीसी का भीतरी तौर पर विकास है। यह भी बेमिसाल है। आईआरजीसी जब गठित हुयी तो कुछ सौ लोग सदस्य थे। लेकिन दो साल से भी कम मुद्दत में, एक बड़ा फ़ौजी विभाग, व्यवस्थित संगठन और व्यवस्थित फ़ौजी यूनिटों और ब्रिगेडों पर आधारित फ़ोर्स की शक्ल इसने हासिल कर ली। यह बहुत बड़ी बात है। इसने अपने सिपाहियों को ब्रिगेडों के तहत व्यवस्थित किया। एक छोटे से गुमनाम से संगठन ने, दस्ते बनाए, बटालियनें बनायीं और ब्रिगेड तैयार कर ली। ये सारे काम दो साल से भी कम मुद्दत में अंजाम पाए और यही चीज़ इस बात का कारण बनी कि कम मुद्दत के भीतर इसने फ़ौज के सहयोग से कई बड़े व निर्णायक फ़ौजी ऑप्रेशन अंजाम दिए। ऑप्रेशन सामेनुल आइम्मा, ऑप्रेशन तरीक़ुल क़ुद्स, ऑप्रेशन फ़त्हुल मुबीन और ऑप्रेशन बैतुल मुक़द्दस। यानी उस वक़्त फ़त्हुल मुबीन जैसा ऑप्रेशन आईआरजीसी की निर्णायक भागीदारी से अंजाम पाया। यानी मार्च 1982 में, जब कि अभी आईआरजीसी के गठन को दो साल और कुछ महीने हुए थे। इतनी तरक़्क़ी, इतनी कामयाबी, ऐसे कमांडर, ऐसे हैरतअंगेज़ ऑप्रेशन (अंजाम पाए) मैं समझता हूं कि अब भी जबकि इस बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है, मसलों की तफ़सील और अज़मत पूरी तरह रौशन नहीं हुयी है, सही तौर पर बयान नहीं हुयी है। आईआरजीसी ने बलिदान से -इम मंज़िल में मानसिक, वैचारिक और आत्मिक तैयारी भी थी और व्यवहारिक रूप से त्याग भी- दुश्मन को इंक़ेलाब की महान रक्षा शक्त दिखा दी और यह निर्णायक बात थी।

तीर में अपनी जान रख दी और मुल्क को विनाश से मुक्ति दिलाई (2)

ऐसी स्थिति बनी। ये क़दम, ये गठन और ये मज़बूती बेमिसाल है। यह एक बेमिसाल आंदोलन है। इसकी कोई मिसाल हमारे पास नहीं है। ये बेमिसाल और अनोखा आंदोलन जारी रहा, रुका नहीं, यानी ऐसा नहीं था कि एक आंदोलन शुरू हुआ, आगे बढ़ा और फिर रुक गया। नहीं आज तक जारी है। आज क़रीब चार दशक गुज़र जाने के बाद हमारे पास आतंकवाद की रोकथाम के लिए दुनिया का सबसे बड़ा, सुव्यवस्थित व सशस्त्र विभाग है। एक व्यवस्थित व सशस्त्र फ़ौजी विभाग। एक उपयोगी व स्वाधीन विभाग है जो ऐसे कारनामें अंजाम देने की ताक़त रखता है जिसे दुनिया की बहुत सी बड़ी फ़ौजें नहीं कर सकतीं। यह आईआरजीसी का गठन और उसकी तरक़्क़ी की बात थी। 

एक और प्वाइंट आईआरजीसी के प्रदर्शन के बारे में है। यह भी बहुत रोचक व बहुआयामी मामला है। सबसे पहली बात तो यह है कि आईआरजीसी ने पहले दिन से आज तक जो सबसे अहम काम किए हैं, वो दुश्मनों की ओर से पैदा किए गए संकटों से निपटना है। यह बहुत अहम है। मैं तारीख़ की पृष्ठिभूमि में एक बात बयान करूं।

इंक़ेलाब की कामयाबी से थोड़ा पहले, क़रीब एक महीना पहले, सही तारीख़ की बात करूं तो जनवरी 1979 में अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी, चार मुल्कों के राष्ट्राध्यक्ष एक कान्फ़्रेंस में इकट्ठा हुए, ख़ुद उनके बक़ौल उनकी उस बैठक में जो फ़्रांस के ग्वादलोप द्वीप में हुयी थी और बाद में यह बैठक ग्वादलोप कान्फ़्रेंस के नाम से मशहूर हुयी। उस कान्फ़्रेंस में चर्चा का विषय ईरान था, इस्लामी इंक़ेलाब था। यह बैठक यह ग़ौर करने के लिए आयोजित हुयी कि "क्या करें? इस इंकेलाब के मुक़ाबले में क्या उपाय अपनाए जाएं? "वो देख रहे थे कि इंक़ेलाब कामयाब हो रहा है। वो इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि अब कठपुतली शाही हुकूमत को बचाना नामुमकिन है। यह पहला नतीजा था। कहा कि यह काम होने वाला नहीं है, नामुमकिन है। दूसरा नतीजा यह था कि उन्होंने अपने आपको ख़ुशख़बरी दी और कहा कि हाँ, यह इंक़ेलाब तो कामयाब होगा लेकिन इस इंक़ेलाब को संकटों का सामना होगा। यह बात उक्त कान्फ़्रेंस में जारी होने होने वाले दस्तावेज़ों में कही गयी है -कि इंक़ेलाब के बात सत्ता में आने वाली कोई भी हुकूमत संकटों का मुक़ाबला नहीं कर सकेगी- वो इस नतीजे पर पहुंचे। उस कान्फ़्रेंस की जो रिपोर्ट बाहर आयी वह यह है। कहा कि इंक़ेलाब के बाद जो भी हुकूमत सत्ता में आएगी वह जारी नहीं रहेगी। बाद में अमरीकी जासूसी अड्डे के दस्तावेज़ सामने आए (तेहारन में अमरीकी दूतावास, इंक़ेलाब के ख़िलाफ़ जासूसी के अड्डे में बदल गया था) अमरीकी जासूसी के अड्डे से मिलने वाले दस्तावेज़ों में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि पश्चिम वालों ने ऐसी स्ट्रैटेजी तैयार की थी कि यह इंक़ेलाब बाक़ी और जारी न रह सके। स्ट्रैटेजिक पॉलिसी यह थी कि निरंतर घटनाएं घटें और संकट खड़े किए जाएं। देखिए! इंक़ेलाब के आग़ाज़ में मुल्क के पश्चिम में हमें मुश्किलों का सामना था, पश्चिमोत्तर में मुश्किलों का सामना था, पूर्वोत्तर में मुश्किलें थी, दक्षिण में मुश्किल थी, दक्षिण पूर्व में मुश्किलें थीं। यानी मुल्क के चारों ओर संकटों का सामना था। इस रिपोर्ट से उन घटनाओं के कारण हमारे सामने स्पष्ट हो जाते हैं कि ये घटनाएं ख़ुद बख़ुद वजूद में नहीं आयी थीं। ये वही एक के बाद एक संकट थे। इसके कुछ ही दिन बाद जंग और सद्दाम का हमला शुरू हो गया। उन संकटों, उन घटनाओं और उन विद्रोहों से कौन निपटा और किसने मुल्क को बचाया? किसने कुर्दिस्तान के अवाम को, बलोचिस्तान के अवाम को और मुल्क के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों के अवाम को इन विद्रोहों से मुक्ति दिलाई?  किसने तेहरान के लोगों को उन आतंकवादी हमलों से मुक्ति दिलाई?  आईआरजीसी, आईआरजीसी ने। वह संगठन जिसने एक के बाद एक संकट पैदा किए जाने की उस नीति को, जिसकी उन्होंने इंक़ेलाब को नाकाम बनाने के लिए बैठकर योजना बनायी थी, नाकाम बनाया, आईआरजीसी था। उस आग को उन्होंने (आईआरजीसी ने) बुझाया। दुश्मन का टार्गेट यह था कि उन संकटों के ज़रिए इंक़ेलाब की जान खींच ले और जब इंक़ेलाब कमज़ोर हो जाए तो 19 अगस्त (1953) की फ़ौजी बग़ावत की तरह एक बग़ावत के ज़रिए इसका काम तमाम कर दें। आईआरजीसी ने 19 अगस्त जैसी बग़ावतों का रास्ता रोक दिया। मुल्क में जो सही आंदोलन शुरू हुए थे, उसको दुश्मन की साज़िश से नाकाम होने से आईआरजीसी ने बचाया। यह जो आप देखते हैं कि पश्चिम वालों को आईआरजीसी इतना बुरा लगता है और वह आईआरजीसी के ख़िलाफ़ इतनी दुश्मनी रखते हैं तो इसकी वजह यही है। यह आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक हिस्सा है।

पाकीज़ा डिफ़ेन्स में आईआरजीसी के योगदान का एक चैप्टर अलग, बहुत अहम व तफ़सील से है जिसके बारे में कुछ बातें लिखी गयी हैं, किताबें और बहुत अच्छी रिपोर्टें तैयार की गयी हैं। इस वक़्त मैं इस बहस को नहीं छेड़ूंगा (इसलिए कि) यह ख़ुद एक अलग व लंबा अध्याय है।

आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक पहलू उसकी दिन प्रतिदिन क्षमता से जुड़ा हुआ है। आईआरजीसी की तरक़्क़ी व कामयाबी रुकी नहीं है बल्कि उसकी क्षमता दिन ब दिन बढ़ रही है। इसमें ख़ुद आईआरजीसी की कोशिशों के साथ ही संगठन से हटकर भी सहयोग शामिल रहा है। क्षमता बढ़ने के संबंध में सिर्फ़ इस बात को न देखें कि हम हथियारों का भंडार बढ़ा रहे हैं, हथियार में इज़ाफ़ा हो रहा है और एक न एक आविष्कार कर रहे हैं। बल्कि इसमें मुल्क की डिटरेन्स पावर भी शामिल है, मुल्क की सुरक्षा का बना रहना भी है। दुश्मन को यह एहसास हो कि आप कमज़ोर हैं तो उसमें हमले की हिम्मत पैदा होती है और जब उसको एहसास हो कि आप ताक़तवर हैं तो हमले का इरादा रखता हो तो अपने फ़ैसले पर पुनरविचार करने पर मजबूर हो जाता है। इसीलिए कहा जाता हैः ताकि तुम इस (जंगी तैयारी) से ख़ुदा के दुश्मन और अपने दुश्मन को ख़ौफ़ज़दा कर सको (3) यह तैयारी और क्षमता बढ़ाना जिस पर क़ुरआन में ताकीद की गयी है, ताकि तुम इस (जंगी तैयारी) से ख़ुदा के दुश्मन को ख़ौफ़ज़दा कर सको है, मुल्क के लिए सुरक्षा पैदा करना है। इसीलिए आप देखते हैं कि एक मुद्दत तक मुसलसल कहते थे कि सभी विकल्प मेज़ पर हैं (अब) कुछ मुद्दत से इस बात को नहीं दोहरा रहे हैं। समझ गए हैं कि इसकी कोई अहमियत नहीं है, यह बात हल्की और निरर्थक हो चुकी है। यह आपकी सलाहियतों की वजह से है। जब आप अपने भीतर क्षमता बढ़ाते हैं तो उसका नतीजा यह होता है।

आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक पहलू मुख़्तलिफ़ मैदानों में आईआरजीसी की निर्माण से जुड़ी सरगर्मियां हैं। यह उसका उज्जवल अध्याय है, बहुत अहम बात है, इसको आसानी से नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इन्फ़्रास्ट्रक्चर के मामलों में आईआरजीसी की बात सबसे ऊपर है। बहुत कम विभाग ऐसे हैं जो मुल्क के इन्फ़्रास्ट्रक्चर के मामलों में -सड़कों, हाइवे, बांधों और रिफ़ाइनरियों वग़ैरह के निर्माण में- आईआरजीसी के बराबर काम कर सके हैं। सामान्य से बहुत कम ख़र्च में और सामान्य से ज़्यादा रफ़तार के साथ इतने काम, ये आईआरजीसी के प्रदर्शन का फ़ख़्र के क़ाबिल अध्याय है।

आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक और पहलू, अवाम की सेवा से संबंध रखता है। आईआरजीसी मुख़्तलिफ़ मैदानों में अवाम के साथ खड़ा नज़र आता है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में -जो बहुत अहम है- आईआरजीसी ने बड़े कारनामे अंजाम दिए हैं। प्राकृतिक आपदाओं वग़ैरह के मौक़े पर जैसे ज़लज़ले, सैलाब और कोरोना महामारी के मौक़े पर आईआरजीसी ने बुनियादी मदद की है। महरूमियतों को दूर करना -आईआरजीसी की सरगर्मियों का वह भाग है जिसके बारे में अब भी बहुत से लोग नहीं जानते- अब भी इसकी सही व सटीक रिपोर्ट अवाम तक नहीं पहुंची है, अवाम के कमज़ोर तबक़ों की महरूमियत ख़त्म करने में आईआरजीसी के काम। (इस क्षेत्र में) बहुत बड़े पैमाने पर काम हुए हैं।

आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक और भाग जिस पर ध्यान देना ज़रूरी है, मुल्क के आम माहौल और वातावरण पर आईआरजीसी के प्रभाव से संबंधित है। स्वाभाविक सी बात है कि आईआरजीसी जैसा विभाग अपनी उन ख़ुसूसियतों के साथ जो बयान की गयीं, नौजवान नस्ल के लिए आकर्षक होगा और वाक़ई आकर्षक है। नौजवान नस्ल इस विभाग को देखती है तो पाती है कि यहाँ इल्म और अमल साथ साथ हैं। हार्डपावर और सॉफ़्टपावर दोनों तरह की क्षमताएं एक साथ हैं। हार्डपावर की क्षमता, उसकी मीज़ाइल और ड्रोन क्षमता है और सॉफ़्टपावर की क्षमता, लोगों के बीच आने की सलाहियत, अवाम से बात करने की क्षमता और अवाम की मदद, ये दोनों एक साथ (हैं) उमंगों पर निगाह के साथ फ़ैक्ट्स को अहमियत देना सिपाह की ख़ुसूसियत है। अवाम के साथ संपर्क, अवाम के साथ स्वयंसेवी के तौर पर शिरकत। इन बातों को जब नौजवान नस्ल एक विभाग में देखती है तो उसकी तरफ़ खिंचती है। ये बातें नौजवानों के लिए आकर्षण रखती हैं। अगर पाक डिफ़ेन्स के शहीदों की ज़िन्दगी पर आप नज़र डालें- रौज़ों के शहीदों और इन बरसों के दौरान मुल्क की सुरक्षा के दौरान शहीद होने वालों- की जीवनी जब इंसान पढ़ता है तो देखता है कि उनके ऐक्शन, उनकी सरगर्मियों और उनकी शख़्सियतों के उभरकर सामने आने में, सबसे प्रभावी तत्व आईआरजीसी का प्रदर्शन और उसमें मौजूद आकर्षण है। नौजवान इनको अपना आइडियल बनाते हैं और उनका असर लेते हैं। एक ऐसा विभाग जो ज़िम्मेदारी के एहसास पर टिका है, जो उसूलपसंद भी है। ऐसा विभाग पुरकशिश होता है। सिर्फ़ विभाग ही आकर्षक नहीं है (बल्कि) उसके लोग और सदस्य भी आकर्षक हैं, इसके लोगों में भी अच्छे दिल के लोगों के लिए आकर्षण होता है। शहीद सुलैमानी जैसी महान हस्ती अपनी जगह पर, शहीद होजजी जैसे बलिदानी जवान अपनी जगह, इब्राहीम हादी जैसा सादगी का प्रतीक सिपाही अपनी जगह, ये सभी अपनी अपनी जगह आकर्षण रखते हैं। इनमें से हर एक आइडियल है, ये व्यवहार में उतारे जाने वाले ऐसे नमूने हैं जो हमेशा बाक़ी रहने वाले हैं। ये भी आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक पहलू है।

अब अगर मुल्क की सरहदों के पार जाएं तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा। दूसरे मुल्कों के नौजवानों पर, आईआरजीसी की सरगर्मियों, आईआरजीसी की उमंगों, आईआरजीसी के रुख़ और आईआरजीसी की कार्यावाहियों के असर की समीक्षा करें तो विषय बहुत लंबा खिंच जाएगा और मैं भी इस बहस को छेड़ना नहीं चाहता लेकिन यह बहुत अहम है। यह भी आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक पहूल है।

अब आप देखें कि दुश्मन की सरगर्मिय़ों का एक हिस्सा आईआरजीसी की छवि ख़राब करने पर केन्द्रित है। स्वयंसेवी बल ‘बसीज’ की छवि ख़राब करने पर केन्द्रित है, क्यों? इसी वजह से, क्योंकि आईआरजीसी में आकर्षण है। बसीज में आकर्षण है। झूठी ख़बरों, झूठी अफ़वाहों और मुख़्तलिफ़ चालों और हथकंडों से कोशिश करते हैं कि आईआरजीसी को आइडियल न बनने दिया जाए, इसको व्यवहारिक नमूना न बनने दिया जाए और इससे कुछ न सीखा जाए। यह भी आईआरजीसी के प्रदर्शन का एक हिस्सा है। इसलिए आईआरजीसी का गठन, इसका विकास, इसकी तरक़्क़ी और इसका प्रदर्शन, मैंने ये तीन भाग बयान किए।

आईआरजीसी का एक पहलू, निगरानी का मसला है, इंक़ेलाब की नहीं बल्कि ख़ुद अपनी। इससे पहले कि आईआरजीसी के ज़रिए इंक़ेलाब की निगरानी के विषय को देखें, इसकी बात करें और इस पर ध्यान दें, ख़ुद आईआरजीसी को अपनी निगरानी पर ध्यान देने की ज़रूरत है। सभी इंसानों से ग़लती हो सकती है। सभी विभागों से ग़लती हो सकती है। सभी विभागों में सुस्ती, काहिली, घमंड और कई प्रकार के गुमराह करने वाले रुझानों का ख़तरा होता है। अहलेबैत को छोड़ कर सभी के लिए ये ख़तरे मौजूद हैं। सभी राष्ट्राध्यक्षों, सभी कमांडरों, हम सब, हम सभी के लिए ये ख़तरे हैं। इसलिए हमें ख़ुद को बचाने की ज़रूरत है। हमें सबसे पहले ख़ुद अपनी निगरानी की ज़रूरत है। अपनी और अपनी क़ुरआनी संस्कृति की निगरानी करने की ज़रूरत है इसे ‘तक़वा’ कहते हैं। तक़वा का मतलब यही है, यानी अपनी निगरानी। हम ख़ुद अपने आप को बचाएं। यह विभाग की हैसियत से विभाग की भी ज़िम्मेदारी और हम में से एक एक की व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी भी है। मेरा और आप का एक अहम काम जिस पर ध्यान रहना चाहिए, यही अपनी निगरानी है। हमारे भीतर कमज़ोरियां हैं। हर इंसान के भीतर अपनी शख़्सियत में कुछ कमज़ोरियां होती हैं। कभी कभी ये कमज़ोरियां इंसान के मन की भीतरी परतों में, इंसान के वजूद और उसकी आत्मा में छिपी रहती हैं। फिर जब उनको उभरने का मौक़ा मिलता है तो उभरकर सामने आ जाती हैं। हम में से कुछ के भीतर पैसे की मोहब्बत है, कुछ में ओहदे की चाह है, कई प्रकार की इच्छाएं हैं जो हमें अपनी ओर खींचती हैं। कभी हम उनकी ओर से ग़ाफ़िल होते हैं, अकसर हम इन ख़ुसूसियतों की ओर से ग़ाफ़िल रहते हैं। फिर जब उनको मौक़ा मिलता है तो सामने आ जाती हैं, ज़ाहिर हो जाती हैं, हम पर हावी हो जाती हैं। अगर उनका मुक़ाबला न करें तो हम पर छा जाती हैं और हमें शिकस्त दे देती हैं, इसलिए हमें ख़ुद अपनी निगरानी करनी चाहिए।

आईआरजीसी के मूल्य और उसकी नुमायां ख़ुसूसियतें बहुत अहम हैं। इनकी रक्षा की ज़रूरत है, इनकी निगरानी की ज़रूरत है। आईआरजीसी के मुख़्तलिफ़ ओहदों पर मौजूद अधिकारियों का फ़रीज़ा है कि इस संदर्भ में सरगर्म रहें, ध्यान रखें, यह चिंता मन में रहे। अगर अल्लाह की याद से ग़ाफ़िल हुए तो यह ख़तरा बढ़ जाएगा। अगर कामयाबियों ने हमारे भीतर घमंड पैदा कर दिया तो यह ख़तरा बढ़ जाएगा। ख़तरा पैदा करने वाले तत्व इस प्रकार हैं:  अल्लाह की ओर से ग़फ़लत, कामयाबियों पर घमंड करना, जद्दोजेहद से थक जाना, अल्लाह की नेमतों की ओर से ध्यान हटना। जो अज़ीम नेमतें अल्लाह ने हमें दी हैं (अगर) उनकी ओर से लापरवाही हुयी तो ऐसी अराजकता पैदा होगी जो हमें मायूस कर देगी। ऐसी मुश्किल पेश आएगी कि हम भूल जाएंगे कि अल्लाह ने हमारी सौ मुश्किलें दूर की हैं। यह भी एक मसला है। (यह) क्या अहमियत रखती है, दुआओं में हमें सिखाया गया है। (4) अल्लाह की नेमत को याद करो। जैसे ही हमारे रास्ते में कोई पत्थर आता है (रुकावट आती है) तो हम भूल जाते हैं कि कितनी बड़ी चट्टानें हमारे रास्ते में थीं जो दूर हुयीं, अल्लाह ने दूर कीं। हम भूल जाते हैं। संदेह करने लगते हैं, शक में पड़ जाते हैं। सुस्ती का शिकार हो जाते हैं, नाउम्मीद हो जाते हैं। यह ख़तरनाक बीमारियां हैं। इन बीमारियों की ओर से सावधान रहने की ज़रूरत है। इसी सिलसिले में हमें ध्यान रखना चाहिए कि कुछ तबक़े ऐसे हैं कि अगर उनसे एक ग़लती हो तो अल्लाह उसे दो ग़लती शुमार करता है। हम अमामे वाले इसी तबक़े में आते हैं। हमारी एक ख़ता दो ख़ता है। अल्लाह, पैग़म्बरे इस्लाम की बीवियों से फ़रमाता हैः ऐ नबी की बीवियों! तुम में से जो कोई आशकारा बुरा काम करे उसे दोहरी सज़ा दी जाएगी (सूरए अहज़ाब, आयत-30) (5) पैग़म्बरे इस्लाम की बीवियों से! पैग़म्बरे इस्लाम की बीवियां, मोमिनों की माएं हैं, उनका रुतबा इतना बुलंद है। अल्लाह इन्हीं सम्मानीय महिलाओं से फ़रमाता है कि अगर आपने ख़ता की तो दोहरी सज़ा दी जाएगी, आपको दुगुना अज़ाब देंगे। जवाब देही होगी। अलबत्ता "और तुममें से जो ख़ुदा और उसके रसूल की इताअत करेगी और नेक अमल करती रहेगी हम उसको उसका अज्र दोहरा देंगे।" (सूरए अहज़ाब, आयत-31) (6) अगर अच्छे काम करो तो तुम्हें इनाम भी दुगुना देंगे। आप आईआरजीसी वाले भी ऐसे ही हैं। अगर अच्छा काम करें तो दुगुना इनाम पाएंगे। एक इनाम अपने अच्छे काम का और एक इनाम दूसरों के लिए आइडियल बनने का। हम अमामे वाले भी इसी तरह हैं: दुगुना। दूसरी तरफ़ अगर हमसे कोई ख़ता हुयी तो वह भी इसी तरहः एक ख़ुद गुनाह का और एक हमारे गुनाह से बाहर होने वाले असर का। इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

मैं आईआरजीसी की नई नस्ल से -अल्लाह की कृपा से आज दसियों हज़ार नौजवान इन बरसों के दौरान आईआरजीसी में आए हैं, बड़े मक़सद के लिए काम कर रहे हैं, उन्होंने फ़ख़्र के क़ाबिल कारनामे अंजाम दिए हैं। बड़े कारनामे इन्हीं जवानों ने अंजाम दिए हैं।- मैं ताकीद के साथ सिफ़ारिश करता हूं कि कोशिश करें कि अपनी आध्यात्मिक, इल्मी और अमली नेकियों को अपने पहले वालों से ऊपर ले जाएं। आपसे पहले वाले बहुत अच्छे लोग थे। वो नौजवानी में यूनिवर्सिटियों से मुख़्तलिफ़ इलाक़ों से आए और जंग में शामिल हुए, अपनी जान हथेली पर रखकर उस दिन जंग के मैदान में उतरे जब कामयाबी की उम्मीद नहीं थी। वाक़ई कामयाबी की उम्मीद नहीं थी। जब पाक डिफ़ेन्स शुरू हुआ, थोड़ी मुद्दत के बाद जब लोग जंग के मैदान में जाते थे, तो दुख व मायूसी के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। उस माहौल में उन नौजवानों ने जान की बाज़ी लगायी, मैदान में गए, डट गए और नया इतिहास लिख दिया, अल्लाह की ओर से मार्गदर्शन और मदद का रुख़ अपनी ओर मोड़ दिया। और जो लोग हमारी ख़ातिर जद्दोजेहद करते हैं हम उनको ज़रूर अपने रास्ते दिखा देते हैं। (7)

ये आयतें जिनकी तिलावत की गईः तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और अल्लाह की राह में अपने माल और अपनी जान से जेहाद करो। और तुम्हें बहिश्त के उन बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें जारी हैं...और एक और चीज़ भी है जिसे तुम पसंद करते हो (वह इसके अलावा है) यानी अल्लाह की मदद और क़रीबी फ़त्ह व कामरानी (8) अल्लाह मदद भेजता है। दूसरी ओर अगर ग़लती करें तो उसका असर फ़्रंट लाइन में ख़तरे के मौक़े पर ज़रूर देखेंगेः बेशक जिन लोगों ने दो जमाअतों की मुठभेड़ के दिन पीठ फिराई (उसका सबब यह था) कि उनकी कुछ बदआमालियों के नतीजे में जो वो कर बैठे थे, शैतान ने उनके क़दम डगमगाए थे ओहद की जंग में जिनके पैर डगमगाए और उन्होंने फ़त्ह को शिकस्त में बदल दिया और सत्य के मोर्चे को वह बड़ा नुक़सान पहुंचाया, उनकी कुछ बदआमालियों के नतीजे में जो वो कर बैठे थे, शैतान ने उनके क़दम डगमगाए थे मुश्किल पहले से थी। उनका कर्म अच्छा नहीं था, उसका असर मोर्चे जैसी संवेदनशील जगह, उस संवेदनशील मोड़ पर ज़ाहिर होता है। इसलिए यह चैप्टर, बहुत अहम चैप्टर है। ख़ुद अपनी रक्षा और अपनी निगरानी का विषय।

अब आते हैं इंक़ेलाब की निगरानी की ओरः “आईआरजीसी” पहला सवाल यह पैदा होता है कि इस्लामी इंक़ेलाब में क्या ख़ुसूसियतें हैं कि इसको दुश्मन अपने हमलों का निशाना बनाता है कि इसकी निगरानी की ज़रूरत हो ताकि इसकी रक्षा करें? इस्लामी इंक़ेलाब का कौन सा पहलू है जो इस बात का सबब बनता है कि ख़ुफ़िया और आशकारा दुश्मन इसके मुक़ाबले में लामबंद हो और हम इसकी रक्षा पर मजबूर हों? इस सवाल का जवाब साफ़ है। जवाब हैः इंक़ेलाब की राजनैतिक प्रभुसत्ता। इस्लाम दुनिया में बहुत सी जगहों पर है। वह इस्लाम जिसे साम्राज्यवादी ताक़तों और शोषण करने वालों की गाय भैंस और भेड़ बकरियों और उनकी कंपनियों से कोई लेना देना नहीं है, इन्हें भी ऐसे इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है, अगरचे इस वक़्त उनमें से भी बहुत सों के दिल साफ़ नहीं हैं लेकिन उन्हें अहमियत नहीं देते। वह चीज़ जो दुश्मन को इस्लाम के ख़िलाफ़ लामबंदी के लिए उकसाती है वह उसकी राजनैतिक प्रभुसत्ता है। यह वह चीज़ है जो ईरानी क़ौम की हिम्मत से उस बेमिसाल महापुरुष के मार्गदर्शन में -हमारे महान इमाम, इमाम ख़ुमैनी सही मानी में बेमिसाल थे- यहाँ अमल में आयी और दुश्मनों ने इसके मुक़ाबले में लामबंदी की। इस्लाम की राजनैतिक प्रभुसत्ता।

इसके बाद सवाल यह है कि इस्लाम की राजनैतिक प्रभुसत्ता की ख़ुसूसियतें क्या हैं जो उन्हें संवेदनशील बनाती हैं और उन्हें रिएक्शन पर मजबूर करती हैं? वो क्या है? यह अहम है। इस पर सोचने की ज़रूरत है। यहाँ इस्लामी इंक़ेलाब के बारे में हमारी समझ जितनी गहरी, जितनी दुरुस्त, जितनी साफ़ होगी, हमारे भीतर उसकी रक्षा का जज़्बा भी उतना ही ज़्यादा होगा। अलबत्ता इस सिलसिले में अगर बहस करें तो यह एक दो घंटे की बहस नहीं है। इस्लामी सिस्टम, इस्लामी समाज और राजनीति की ख़ुसूसियतों पर बहस बहुत लंबी खिंच जाएगी। मैं सिर्फ़ कुछ बिन्दुओं की ओर इशारा करुंगा। इस्लाम का राजनैतिक सिस्टम ज़ुल्म के ख़िलाफ़ है। ज़ालिम के ख़िलाफ़ है। बहुत सादा सी बात है। हुक्म दिया है कि मेरे दोनों बच्चो! ज़ालिम के दुश्मन रहना हमसे कहा गया है कि दोनों बच्चो!ज़ालिम के दुश्मन रहना अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम अस्ली इस्लाम के प्रतीक हैं, सबसे अज़ीज़ यानी अपने बेटों से आपकी वसीयत है कि ज़ालिम के दुश्मन रहें। ज़ालिम से दुश्मनी करें और मज़लूम के मददगार रहना (10) यह पहली बात है। अब अगर दुनिया की कोई राजनीति, दुनिया का कोई सिस्टम, दुनिया की कोई ताक़त ज़ुल्म पर टिकी हो तो मालूम है कि वह इस सिस्टम के ख़िलाफ़ होगी। इसलिए कि जानती है कि यह सिस्टम उसका दुश्मन है। ज़ायोनी शासन की बुनियाद ज़ुल्म है। वह ज़ुल्म पर खड़ा है। एक पूरी क़ौम को उसके वतन और घर से बेदख़ल कर दिया है, वह भी पैसे देकर और दरख़ास्त करके नहीं, बल्कि बंदूक़ की नोक पर, ताक़त के बल पर उनके घर पर क़ब्ज़ा कर लिया है। उसकी बुनियाद ही ज़ुल्म है। ज़ाहिर है कि यह हुकूमत उस सिस्टम की मुख़ालिफ़ होगी जिसने “ज़ालिम के दुश्मन रहने” का परचम उठा रखा है। यह स्वाभाविक सी बात है।

इस्लामी सिस्टम, क़ौमों के हितों की लूटमार के ख़िलाफ़ है। यहाँ तक कि अगर वे आस्था और कर्म के लेहाज़ से अलग हों तब भी। (ख़बरदार) किसी क़ौम से दुश्मनी तुम्हें इस बात पर आमादा न करे कि तुम इंसाफ़ न करो” (11) क़ौमों से इंसाफ़ के साथ पेश आओ, यहां तक कि अगर वो आस्था की नज़र से तुम्हारे जैसे न हों, तब भी। यहाँ तक कि अगर वे तुम्हारे मुख़ालिफ़ हों तब भी उनसे नाइंसाफ़ी न करो। अब जिन सरकारों की बुनियाद ही नाइंसाफ़ी है, वो स्वाभाविक तौर पर मुख़ालिफ़ होंगी। ब्रिटेन कभी यूरोप का सबसे अमीर मुल्क था। यह दौलत कहां से लाया था? भारत से, भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी हिस्से से। जब अमरीका, ब्रिटेन के क़ब्ज़े में था, उस वक़्त अमरीकी सरज़मीनों से। यह दौलत उसने दूसरों को लूट कर हासिल की थी। फ़्रांस अमीर हो गया, वैज्ञानिक काम कर सका। वह दौलत कहां से लाया था? अलजीरिया से, मोरक्को से, ट्यूनीशिया से, अफ़्रीक़ा के उन इलाक़ों से जहाँ फ़्रेंच थे, लैटिन अमरीका से। दूसरे भी इसी तरह। उनका का काम शोषण था। चूंकि जहाज़रानी जानते थे, समुंदर के तट पर आबाद थे, यहाँ से वहाँ जा सकते थे, शुरू में धोखाधड़ी और फ़रेब से और फिर बंदूक़ की नोक पर क़ौमों की दौलत लूटी। ज़ाहिर है कि वह इस सिस्टम के मुख़ालिफ़ हैं। यह स्थिति है। अब अगर कोई तथाकथित राजनैतिक टीकाकार, समीक्षा करता है कि इस्लामी इंक़ेलाब ने, इस्लामी सिस्टम ने, इस्लामी गणराज्य ने फ़ुलां, फ़ुलां और फ़ुलां मुल्कों के साथ क्या किया है कि वह उसके मुख़ालिफ़ हैं। इसकी समीक्षा की ज़रूरत है? ज़ाहिर है कि अस्ल बात यह हैः साम्राज्यवाद का शैतानी सिस्टम इस्लामी सिस्टम जैसे किसी भी सिस्टम को बर्दाश्त नहीं कर सकता।

एक बात यह है कि इस्लामी सिस्टम इंसान की इज़्ज़त पर ताकीद करता है। जो भी इंसान हो। किसी ख़ास इलाक़े के इंसान, किसी ख़ास नस्ल के इंसान और किसी ख़ास रंग के इंसान के लिए नहीं, (बल्कि जो भी इंसान है) बेशक हमने औलादे आदम को बड़ी इज़्ज़त और बुज़ुर्गी दी है” (12) यह क़ुरआन है। अश्वेतों की सरज़मीन का अश्वेत इंसान भी आदम की औलाद है। कोई फ़र्क़ नहीं है। यह नस्ली भेदभाद की बात जो पश्चिम वालों ने बहुत ही बेशर्मी और लज्जाजनक तरीक़े से फैलायी और उस पर अमल किया और आज तक उसको जारी रखा है, सौ फ़ीसद क़ुरआन और इस्लाम के मुख़ालिफ़ है। इस्लामी सिस्टम इसके ख़िलाफ़ है। आप चाहते हैं कि अमरीका जो आज भी अमरीका और यूरोप वालों के आने के दो सौ साल, तीन सौ साल और चार सौ साल बाद अब भी वहाँ नस्ली भेदभाव मौजूद है, यह हुकूमत इस्लामी सिस्टम के लिए मेहरबान हो जाए? इस्लामी सिस्टम इन चीज़ों का मुख़ालिफ़ है। यह एक ख़ुसूसियत।

इस्लामी सिस्टम की दूसरी ख़ुसूसियत (यह है कि) इस्लामी सिस्टम का नज़रिया है कि अगर कोई मुल्क, कोई हुकूमत, उससे दुश्मनी नहीं रखती, उससे दुश्मनी नहीं चाहती और कहती है कि आओ हम जंग न करें, तो इस्लामी सिस्टम को यह बात क़ुबूल करनी चाहिए। “और अगर वो सुल्ह की तरफ़ माएल हों तो आप भी उसकी तरफ़ माएल हो जाएं और अल्लाह पर भरोसा रखें। (13) सामने वाली ऐसी हुकूमत है जिसके विचार और आस्था आपसे मेल नहीं खाते, लेकिन दुश्मनी नहीं रखती, कहती है कि आओ मिल कर रहें, शांति के साथ एक दूसरे के यहां आएं जाएं, कोई हरज नहीं है। अल्लाह तुम्हे इस बात से मना नहीं करता कि जिन लोगों ने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की और न ही तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है कि तुम उनके साथ नेकी करो और उनके साथ इंसाफ़ करो (14) अगर आपसे जंग नहीं की, आपको आपके घर से आपके वतन से नहीं निकाला, आपसे लड़ाई नहीं की है, तो क़ुबूल करें। लेकिन अगर देखें कि सामने वाला पक्ष भरोसे के लायक़ नहीं है, झूठ बोलता है, मक्कारी कर रहा है, तो नहीं। पस तुम कमज़ोर न पड़ो (और हिम्मत न हारो) और (दुश्मन को) सुलह की दावत न दो (15) अगर ऐसा है तो आपको यह हक़ नहीं है। अगर आपने महसूस किया, समझा, सुबूत से ज़ाहिर हुआ कि सामने वाला पक्ष सच्चा नहीं है, झूठ बोल रहा है, ज़ाहिरी तौर पर आपकी ओर उसने हाथ बढ़ाया है कि आपसे हाथ मिलाए लेकिन दूसरे हाथ में ज़हर में बुझा खंजर ले रखा है तो “पस तुम कमज़ोर न पड़ो (और हिम्मत न हारो) और (दुश्मन को) सुलह की दावत न दो हरगिज़ क़ुबूल न कीजिए। यह उससे समझौता कियाः और अगर ये लोग अपने अहद व पैमान के बाद अपनी क़समों को तोड़ दें (16) तो आप भी वही कीजिए जो वो करे। उसने अगर क़रार तोड़ दिया है तो आप भी तोड़ दीजिए। देखिए! यह इस्लामी सिस्टम के सबक़ हैं। ये सबक़ शैतानों के मुक़ाबले में, दुश्मन बनाने वाले हैं। जी हाँ! जो लोग शैतान नहीं हैं, उनके अंदर दुष्टता नहीं है, घटियापन नहीं है, उनका बढ़ा हुआ हाथ क़ुबूल है लेकिन वह दुश्मन जिसमें दुष्टता है, घटियापन है, द्वेष रखता है, क़रार तोड़ने वाला है, झूठा है, वह तो हर हाल में दुश्मन ही होगा। इसलिए इस्लामी सिस्टम में जो चीज़ें दुश्मन बनाने वाली हैं वो यही हैं। इसी तरह की चीज़ें हैं।

हमला किसकी तरफ़ से है? उसकी तरफ़ से जो इन ख़ुसूसियतों का मुख़ालिफ़ है। तो हमने दुश्मन को जान लिया। जब हम इस पर ग़ौर करते हैं तो रक्षा का जज़्बा भी पैदा होता है और हम यह समझ लेते हैं कि किससे अपने इंक़ेलाब की रक्षा करना है। सामने वाले पक्ष को पहचान लेंगे तो ग़लती नहीं करेंगे। एक मुसीबत जिसमें कभी कभी हम गिरफ़्तार हुए हैं और हमें होशियार रहने की ज़रूरत है कि उसमें फिर गिरफ़्तार न हों, यह है कि दुश्मन को पहचानने में ग़लती हो जाती है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह अपनी सूझबूझ के साथ- यानी वाक़ई उस महापुरुष के लिए इससे बेहतर और कोई लफ़्ज़ नहीं हो सकता, फ़रमाया- सूझबूझ हक़ीक़ी मानी में (यह है)- छिपी तहों तक पहुंच कर हक़ीक़त को देख लिया करते थे, कहाः “ग़ुस्सा अमरीका पर निकालो” (17) तो मालूम हो गया कि इस इंक़ेलाब से दुश्मनी की वजह क्या है और इससे दुश्मनी करने वाले कौन हैं।

एक और बात दुश्मनी के बारे में यह है कि अगर इस्लामी गणराज्य आदर्श न होता तो यह दुश्मनी कम होती लेकिन इस्लामी गणराज्य आदर्श बन गया है, आगे बढ़ गया है। इस्लामी गणराज्य इस संवेदनशील इलाक़े में प्रतिरोध आंदोलन का अग्रणी बन गया। समस्या यह है। यह भी एक अहम बात है। देखिए! इंक़ेलाब से पहले तक हालत यह थी कि तुच्छ ज़ायोनी सरकार ने 6 दिन के अंदर अपने आसपास के कुछ अपेक्षाकृत शक्तिशाली देशों को हरा दिया था। 1967 में मिस्र, सीरिया और जॉर्डन की सशस्त्र सेनाओं को 6 दिवसीय युद्ध में ज़ायोनी शासन ने हरा दिया और उनकी धरती के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। इन तीनों देशों की सैकड़ों वर्ग किलोमीटर की ज़मीन हथिया ली। ठीक यही स्थिति 1973 में बनी थी। उस साल मिस्र और सीरिया ने ज़ायोनी शासन की लापरवाही का फ़ायदा उठाया और कुछ क़दम उठाए लेकिन उसने फिर उन्हें घेर लिया और फिर हरा दिया। यानी ज़ायोनी सरकार ऐसी थी कि तीन देशों की सेनाएँ एक साथ मिलकर उससे नहीं लड़ सकती थीं। 6 दिनों के भीतर वह उन्हें हरा देती है। इंक़ेलाब के बाद नौबत यह आ गई कि उसी सरकार ने तैंतीस दिन के युद्ध के दौरान लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन को हराने की हर कोशिश कर ली लेकिन नाकाम रही और अपमानित होकर भागने पर मजबूर होना पड़ा। हिजबुल्लाह के मुकाबले में टिक नहीं सकी। इंक़ेलाब से पहले और इंक़ेलाब के बाद का अंतर, 6 दिन और 33 दिन के युद्धों के बीच का अंतर है। आज स्थिति यह हो गई है कि क़ब्ज़ा किए गए फ़िलिस्तीन के भीतर, पश्चिमी तट के क्षेत्र में, फ़िलिस्तीनी जवान इस तरह आंदोलन चला रहे हैं, इस तरह हमले कर रहे हैं कि वे ज़ायोनी सरकार को असहाय बना देते हैं और असहाय बना दिया है। यह इंक़ेलाब है, ज़ाहिर है कि दुश्मनी पैदा होगी।

अब आख़री बात भी बयान कर दूं। तरक़्क़ी व प्रगति बहुत है, अच्छे काम बहुत हैं, क्षमताएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, सिपाह के सम्मानीय कमांडर ने आईआरजीसी की क्षमताओं और गुणों का बहुत अच्छा वर्णन किया। ये सब है, हो सकता है कि बहुत सी ऐसी चीज़ें भी हों जिनका रिपोर्ट में उल्लेख न हो लेकिन मैं नसीहत करता हूं कि अपनी क्षमताओं और प्रगतियों पर घमंड न करें। सावधान रहें कि जो है उसकी वजह से घमंड में न फंसें। उसके मूल्य को समझें, महत्व को समझें, जान लें कि ग्वादलोप सम्मेलन में लगातार संकट पैदा करने की जो रणनीतिक चाल तैयार की गई थी, वह अब भी जारी है, उस चाल पर अब भी काम हो रहा है। उन्होंने इस चाल को नहीं छोड़ा है। इस्लामी गणराज्य व्यवस्था में, हमारे प्यारे देश में स्थायी रूप से संकट पैदा करना चाहते हैं। कभी चुनाव के बहाने, कभी पेट्रोल के बहाने, कभी महिलाओं के नाम पर, विभिन्न बहानों से संकट पैदा करना चाहते हैं और कर रहे हैं। आज उनके पास संसाधन भी आधुनिकतम हैं, स्पष्ट है। इन संकटों से दुश्मन का लक्ष्य पहले चरण में देश की सुरक्षा को ख़त्म करना है। अगर सुरक्षा नहीं होगी तो अर्थ व्यवस्था भी नहीं होगी, सुरक्षा नहीं होगी तो ज्ञान नहीं होगा, यूनिवर्सिटी भी नहीं होगी, शोध केंद्र भी नहीं होंगे। सुरक्षा नहीं होगी तो रोज़गार भी नहीं होगा। अगर सुरक्षा नहीं होगी तो बुनियादी ढांचे तैयार करने के काम भी नहीं होंगे। सुरक्षा नहीं होगी तो फ़ैक्ट्रियां भी बंद हो जाएंगी। सुरक्षा असली चीज़ है। इन संकटों का लक्ष्य, देश की सुरक्षा को कमज़ोर करना है। इसे हक़ीक़त मानें और इसी के अनुसार अपनी ज़िम्मेदारी निर्धारित करें। दुश्मन देश की सुरक्षा पर क़ब्ज़ा करना चाहता है। वह लोगों के जीवन में गड़बड़ पैदा करना चाहता है। दुश्मन का मिशन यह है। इसके वास्तविक हथियार भी स्पष्ट हैं। असली हथियार CIA, मोसाद और MI-6 जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियां हैं। अलबत्ता उनके एजेंट भी हैं, एजेंट देसी भी हैं और बाहरी भी। पश्चिम परस्त लोग, ग़ुंडे मवाली, उनके कारिंदे हैं लेकिन अस्ल केंद्र वहाँ है, डोर का असली सिरा वहाँ है।

आज हमारी ज़िम्मेदारी, क्रांति की निरंतर रक्षा करना है। आज हमारा कर्तव्य, राष्ट्रीय एकता है। राष्ट्रीय एकता अहम है। आज हमारी ज़िम्मेदारी जनता को अहम मामलों में शामिल करना है। जनता की मदद करना है। ख़ास कर कमज़ोर वर्गों की मदद करना है। आज हमारा कर्तव्य, अधिकारियों का जिहादी काम है। यह आईआरजीसी तक सीमित नहीं है, देश के सभी ज़िम्मेदार अधिकारियों का कर्तव्य है कि वे जिहादी काम करें, दिन-रात काम करें, अथक प्रयास करें। हमने विस्तृत चरण की शुरुआत कर दी है। यह चढ़ाई, यह कठिन चढ़ाई पार कर ली है, हम चोटी के क़रीब पहुंच गए है। थक के रुकना नहीं चाहिए। आज न तो थकन महसूस करनी चाहिए और न ही निराशा को पास आने देना चाहिए। आज उत्साह का दिन है, उम्मीद का दिन है, आगे बढ़ने का दिन है। देश के विभिन्न क्षेत्रों के अधिकारियों को इसी भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। विश्वास होना चाहिए, मैं ये नहीं कहता कि आलोचना न की जाए, आलोचना विश्वास के साथ होनी चाहिए।

आलोचना करना चाहते हैं? कोई हरज नहीं है, लेकिन विश्वास रखना चाहिए। अधिकारी काम कर रहे हैं। ईमानदारी व निष्ठा के साथ, उत्साह के साथ, अल्लाह पर भरोसे के साथ, पूरी ऊर्जा के साथ। उन पर भरोसा होना चाहिए। अगर आलोचना ज़रूरी हो तो कीजिए। मैं आलोचना के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। अगर इसी राह पर चलते रहें और अल्हम्दु-लिल्लाह अब तक चले हैं, अल्लाह की कृपा से आगे भी इसी राह पर चलते रहेंगे, तो दुश्मन पर विजय निश्चित है।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह

1 यह मुलाक़ात आईआरजीसी फ़ोर्स के कमांडरों और अधिकारियों की सुप्रीम असेंबली की चौंतीसवी बैठक के उपलक्ष्य में हुयी और इसमें पहले आईआरजीसी में इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वलमुस्लेमीन अब्दुल्लाह हाज सादेक़ी और आईआरजीसी के कमांडर जनरल हुसैन सलामी ने स्पीच दी।

2 मेहरदाद अविस्ता

3 सूरए अनफ़ाल, आयत-60

4 मन ला यहज़ोरोहुल फ़क़ीह, जिल्द-1, पेज-488 (नमाज़े वित्र में क़ुनूत की दुआ)

5 सूरए अहज़ाब, आयत-30

6 सूरए अहज़ाब, आयत-31

7 सूरए अन्कबूत, आयत-69

8 सूरए सफ़, आयत11-13

9 सूरए आले इमरान, आयत-155

10 नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा नंबर-47

11 सूरए मायदा, आयत-8

12 सूरए इसरा, आयत-70

13 सूरए अनफ़ाल, आयत-61

14 सूरए मुम्तहेना, आयत-8

15 सूरए मोहम्मद, आयत-35

16 सूरए तौबा, आयत-12

17 सहीफ़ए इमाम, जिल्द-11, पेज-121, 25/6/1979 को पासदाराने इंक़ेलाब तेहरान की सभा में स्पीच